Site icon SscLatestNews.com

LLB Hindu Law Part 6 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Part 6 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Book Part 6 Minority and Guardianship Post 1 Study Material के रूप में पढ़ने जा रहे है जिसे आप अपने मोबाइल या कंप्यूटर में Free PDF Download करके भी रख सकते है |

अध्याय 6 अवयस्कता तथा संरक्षकता (LLB Notes)

(MINORITY AND GUARDIANSHIP) (LLB Hindu Law Books)

(हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 के सहित]

संरक्षक कौन है?

संरक्षकता विधि का आधार अवयस्क व्यक्तियों की बौद्धिक अपरिपक्वता है। कोई भी अवयस्क अपने हितों की देखभाल उचित रूप में स्वयं नहीं कर सकता है और न कोई संविदा ही निष्पन्न कर सकता है। अत: अवयस्क व्यक्तियों की देखभाल करने के लिये एक परिपक्व बुद्धि वाले वयस्क की आवश्यकता होती है। इस प्रकार वह व्यक्ति, जो अवयस्क व्यक्तियों की देखभाल करता है तथा उनकी सम्पत्तियों का प्रबन्ध करता है, वह उसका संरक्षक कहलाता है। संरक्षक को स्वयं वयस्क होना चाहिये जिससे कि वह अवयस्क के लिये संविदा निष्पन्न कर सके तथा उसके हितों को समझ सके।

जहाँ तक संरक्षकता-विधि का प्रश्न है. हिन्द विधि के अन्तर्गत अधिराट् को समस्त अवयस्को का संरक्षक माना जाता है। संरक्षकता का प्राथमिक अधिकार अवयस्क के पिता को सौंपा गया है जिसके विषय में यह धारणा है कि वह अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति का प्रबन्ध करे। पिता के अभाव में माता को यह प्राधिकार संरक्षक के रूप में दिया गया है। किन्तु दोनों के अभाव में न्यायालय को यह अधिकार होगा कि वह ऐसे व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त करे जो पितृपक्ष का सबसे नजदीक का रक्त-सम्बन्धी हो अथवा पितृपक्ष के ऐसे निकट सम्बन्धी के अभाव में मातृपक्ष का निकट रक्त-संरक्षक बनाया जाना चाहिये। जहाँ तक अवयस्क पत्नी की संरक्षकता का प्रश्न है, उस दशा में उसका पति चाहे वह वयस्क हो अथवा अवयस्क, संरक्षक होगा। संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 में भी यही स्थिति कायम रखी गई, किन्तु इस अधिनियम के द्वारा प्राकृतिक संरक्षकों की स्थिति में कुछ परिवर्तन लाये गये हैं। यह उल्लेखनीय है कि इस अधिनियम में प्राकृतिक अथवा वसीयती संरक्षक के विहित अधिकार एवं कर्त्तव्यों को आज भी संरक्षक के अधिकार तथा कर्तव्यों का आधार माना जाता

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 के द्वारा लाये गये परिवर्तनइस अधिनियम द्वारा संरक्षकों की परिस्थिति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये गये हैं। सर्वप्रथम माता की प्रास्थिति में सुधार लाया गया। यदि पिता ने किसी वसीयती संरक्षक को नियुक्त कर दिया तो उसकी मृत्यु के बाद माता दूसरी प्राकृतिक संरक्षक होगी न कि वसीयती संरक्षक (धारा 91)। यदि माता ने किसी वसीयती संरक्षक को नियुक्त किया है तो उसकी मृत्यु के बाद पिता के द्वारा नियुक्त वसीयती संरक्षक की तुलना में माता के द्वारा नियुक्त वसीयती संरक्षक अधिमान्य होगा। पूर्वविधि के अन्तर्गत पिता माता को प्राकृतिक संरक्षकता से वंचित कर सकता था। धारा 6 के अन्तर्गत यह विहित किया गया है कि 5 साल से कम आयु वाली सन्तान माता की अभिरक्षा में होगी यद्यपि पिता उसका प्राकृतिक संरक्षक हो सकता है। वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत वस्तुत: (De facto) संरक्षक को अवयस्क की सम्पत्ति के निर्वर्तन करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। पूर्वविधि के अन्तर्गत धर्म-परिवर्तन कर देने के बाद भी सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार पिता को रहता था, किन्तु वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत जिसने धर्म-परिवर्तन कर दिया है या संन्यासी हो गया है, वह अपनी सन्तान की संरक्षकता से सम्बन्धित अधिकार को खो देता है।

अवयस्कता तथा संरक्षकता की विधि को सरल एवं संहिताबद्ध बनाकर पर्वविधि में अवयस्कता एवं संरक्षकता के सम्बन्ध में उत्पन्न मतभेदों को समाप्त कर दिया गया है। इस अधिनियम के अनुसार के सभी व्यक्ति, जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके है, वयस्क मान लिये जायेंगे।

पूर्वावधि के अन्तर्गत प्राकृतिक संरक्षक को अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में असीम शक्तियाँ प्रदान की गई थी। किन्तु इस अधिनियम के अन्तर्गत प्राकृतिक संरक्षक के अधिकार बहत अधिक सीमित कर दिये गये है। वह अब अवयस्क की सम्पत्ति का निर्वर्तन अथवा हस्तान्तरण उस प्रकार नहीं कर सकता है जैसे कि पूर्वावधि में कर सकता था।

वस्तुतः हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 स्वत: पूर्ण नहीं है। यह केवल एक पूरक विधि है जिसको पूर्णता के लिए संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के उपबन्धों का आश्रय लिया जाना आवश्यक है। इस वर्तमान अधिनियम में ऐसे अनेक प्रावधान हैं जिनमें 1890 के आधनियम का निर्देश किया गया है और उसके प्रावधानों को लाग किया गया है जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान अधिनियम पूरक अधिनियम है।

हिन्दू विधि के अन्तर्गत वयस्कतामनु के अनुसार 16 वर्ष की उम्र पर अवयस्कता समाप्त हो जाती है। मनु का कथन है कि राजा अवयस्कों की सम्पत्ति अपनी अभिरक्षा में रखे जब तक कि उनको बाल्यावस्था (16 वर्ष की आयु) समाप्त न हो जाये। इस प्रकार हिन्दू विधि में अवयस्कता 16 वर्ष की आयु पर समाप्त हो जाती है। किन्तु इस विषय पर मतभेद है कि अवयस्कता सोलहवें वर्ष का प्रारम्भ होने अर्थात् पन्द्रहवे वर्ष की समाप्ति पर समाप्त होती है, अथवा सोलह वर्ष पूर्ण हो जाने पर समाप्त होती है। संस्कृत-पाठ्यकारों ने अधिकतर प्रथम मत को माना है, अर्थात् सोलहवें वर्ष के प्रारम्भ होते ही अवयस्कता समाप्त हो जाती है। बंगाल में भी यही मत प्रचलित है। मिताक्षरा-शाखा अर्थात् मिथिला, बनारस, महाराष्ट्र तथा एक समय पर दक्षिण भारत में 16 वर्ष पूर्ण हो जाने पर अवयस्कता को समाप्त मानते थे।

वर्तमान अधिनियम ने इस प्रकार के मतभेद को समाप्त कर दिया है।

संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम एवं भारतीय वयस्कता अधिनियम-भारतीय वयस्कता अधिनियम के पास हो जाने के बाद उपर्युक्त मतभेद बहुत सीमा तक समाप्त हो चुका था। क्योंकि धारा3 में यह उल्लिखित था कि प्रत्येक अवयस्क, जिसके जीवन तथा सम्पत्ति के लिए न्यायालय द्वारा संरक्षक नियुक्त किया गया है, तथा ऐसा प्रत्येक अवयस्क, जिसकी सम्पत्ति की देखरेख के लिए कोर्ट ऑफ वार्ड्स नियुक्त किया गया है, 21 वर्ष पूरा होने पर वयस्कता प्राप्त किया हुआ मान लिया जाता है। अन्य सभी दशाओं में अवयस्क 18 वर्ष की आयु पूरा करने पर वयस्कता प्राप्त किया मान लिया जाता है।

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956-वस्तुत: यह अधिनियम उपर्युक्त विषय के सम्बन्ध में संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के पूरक रूप में अन्तर्विष्ट किया गया है।

वयस्कता की आयु–अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत अवयस्क की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-“अवयस्क का तात्पर्य उन व्यक्तियों से होगा जिन्होंने 18 वर्ष की उम्र पूरी नहीं की है।” अधिनियम के द्वारा उल्लिखित नियम विवाह को छोड़कर अवयस्कता तथा संरक्षकता सम्बन्धी सभी मामलों में अनुवर्तनीय होगा। अधिनियम की धारा 4 के अनुसार “अवयस्कता 18 वर्ष की आयु में समाप्त हो जायगी” का नियम सभी दशाओं में लागू होगा। भारतीय अवयस्कता अधिनियम में उपर्युक्त दिये गये 21 वर्ष की आयु में वयस्कता प्राप्त करने का नियम समाप्त कर दिया गया है।

अधिनियम की धारा 3 में उन व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है जिनके लिये यह अधिनियम

1. बालदायादिकं रिक्थं तावद्रामाऽनुपालयेत्। यावत्स स्यात्समावृत्तो यावच्चातीत शैशवः।। मनु० 8/27॥

लागू किया जायगा।

यह अधिनियम हिन्दुओं के लिये लागू होगा। यहाँ ‘हिन्दू’ शब्द उन सभी व्यक्तियों का बोध कराता है जो हिन्दू विधि की विभिन्न शाखाओं से प्रशासित होते हैं। धारा 3 में उन व्यक्तियों का भी उल्लेख किया गया है जिनके सम्बन्ध में यह अधिनियम लागू नहीं होगा। यह अधिनियम जम्मू और कश्मीर के प्रान्तों को छोड़कर समस्त भारत में लागू होगा।

यह अधिनियम भूतलक्षी नहीं है।

संरक्षक (Guardian)

“संरक्षक’ से तात्पर्य हिन्दू विधि में उन व्यक्तियों से है जो दूसरों के शरीर या सम्पत्ति की या शरीर और सम्पत्ति दोनों की देखभाल का दायित्व रखते हैं। संरक्षक तथा वार्ड अधिनियम के अन्तर्गत भी संरक्षक की परिभाषा इसी अर्थ में की गई है। वर्तमान अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत संरक्षक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है

संरक्षक से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अवयस्क के शरीर की या उसकी सम्पत्ति की या उसके शरीर एवं सम्पत्ति दोनों की देखभाल करता है। यह निम्नलिखित को सम्मिलित करता है

(1) प्राकृतिक संरक्षक।

(2) अवयस्क के पिता या माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक।

(3) न्यायालय द्वारा घोषित या नियुक्त संरक्षक।

(4) कोर्ट ऑफ वार्ड्स से सम्बद्ध किसी अधिनियम के द्वारा या अन्तर्गत इस रूप में कार्यकरने के लिये अधिकृत व्यक्ति।

संयुक्त परिवार में अवयस्क के अविभक्त हित के लिये संरक्षक न नियुक्त किया जानायह एक उल्लेखनीय बात है कि अधिनियम में अवयस्क के लिये संयुक्त परिवार में उसके अविभक्त हित के हेतु संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता है। धारा 11 के अनुसार, जहाँ किसी अवयस्क का अविभक्त हित संयुक्त परिवार में है तथा यह सम्पत्ति परिवार के किसी एक वयस्क के सम्बन्ध में है तो ऐसी अविभक्त सम्पत्ति के विषय में अवयस्क के लिये कोई संरक्षक नहीं नियक्त किया जा सकता।

परन्तु इस धारा में कोई बात इस प्रकार के हितों के विषय में संरक्षक नियुक्त करने के लिए उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को प्रभावित नहीं करती।

कर्ता की स्थिति संरक्षक के रूप में हिन्दू विधि की मिताक्षरा-शाखा में अवयस्क का सहदायिकी हक उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती वरन् कर्ता ही परिवार की समस्त सम्पत्ति का प्रबन्धक होता है, चाहे उस सम्पत्ति में हक वयस्क सदस्य का हो अथवा अवयस्क सदस्य का। जब तक परिवार में कर्ता जीवित है, अवयस्क सदस्य के हितों के लिये संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में कोई संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता। इसी प्रकार यदि अवयस्क मिताक्षरा-विधि से प्रशासित संयुक्त परिवार का सदस्य है तो उसका पिता संरक्षक के रूप में समस्त सहदायिकी सम्पत्ति का, जिसमें अवयस्क का भी हक सम्मिलित रहता है, प्रबन्ध करने का अधिकारी हो जाता है। पिता की मृत्यु के पश्चात उस संयुक्त परिवार की समस्त सम्पत्ति का प्रबन्ध ज्येष्ठ पुत्र में सन्निहित हो जाता है। माता को अपने अवयस्क पुत्रों के अविभक्त हक के सम्बन्ध में अभिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त होता है। यदि सभी पत्र अवयस्क हैं तो न्यायालय एक संरक्षक नियुक्त कर सकता है जो समस्त अविभक्त

1. धारा 12, अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956, देखिए।

2. हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई (1856), 6 एम० आई० ए० 398; गरीब उल्लाह बनाम खरक सिंह, 25 इला० 407; साधुसरन बनाम ब्रह्मदेव, 61 आई० सी० 201

3. गौरी बनाम गजाधर, 5 कल० 719, श्याम कौर बनाम मोहनचन्द, 19 कल० 3011

सम्पत्ति की देखभाल तब तक करेगा जब तक कि अवयस्क पुत्रों में से कोई वयस्कता प्राप्त नहीं कर लेता। परिणामत: किसी अविभक्त मिताक्षरा परिवार के अवयस्क सदस्य की सम्पत्ति के लिए संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता। क्योंकि जब तक विभाजन नहीं हो जाता, अवयस्क की कोई अलग सम्पत्ति न होने के कारण ऐसी सम्पत्ति के प्रबन्ध के लिए संरक्षक की आवश्यकता नहीं होती।

इस प्रकार के नियम का पुष्टिकरण—(1) अनेक न्यायिक निर्णयों से अब यह एक नियम प्रतिष्ठित हो चुका है कि मिताक्षरा संयुक्त परिवार में एक अवयस्क सदस्य के अविभक्त हक के लिए कोई संरक्षक इस आधार पर नियुक्त नहीं किया जा सकता कि ऐसे संयुक्त परिवार के किसी सदस्य का हक अलग अथवा व्यक्तिगत नहीं रहता। अत: यदि कोई संरक्षक किसी अवयस्क के लिए नियुक्त किया जाता है तो परिवार की सम्पत्ति से उसका कोई मतलब नहीं रहेगा।’

(2) हिन्दू विधि में अविभक्त परिवार के विषय में यह धारणा है कि किसी संयुक्त परिवार का कोई अविभक्त सदस्य, जब तक संयुक्त रूप से रहता है, परिवार की संयुक्त तथा अविभक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में वह यह अभिव्यक्त नहीं कर सकता कि उसमें उसका निश्चित हिस्सा है। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का लाभ सामान्य कोष में जाता है, जिसका परिवार के सभी सदस्य उपभोग करते हैं। विभाजन-पर्यन्त संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के स्वामित्व में पूर्ण इकाई होती है। विभाजन द्वारा प्रत्येक सदस्य को अपने निश्चित अंश तथा उसके निर्धारण के लिए निवेदन करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। विभाजन के बाद अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है जो अवयस्क की सम्पत्ति से प्राप्त लाभ एवं किराये आदि का हिसाब रखेगा तथा अपने संरक्षित की सम्पदा के प्रशासन-सम्बन्धी हिसाब को देने का दायित्व उसी पर होगा।

(3) बिना विभाजन हुए अवयस्क के अनिश्चित तथा अभिनिर्धारित अंश के संरक्षक नियुक्त कर देने से परिवार का गठन छिन्न-भिन्न हो जायेगा तथा विभाजन के पूर्व ही अलगाव आ जायेगा जिसका प्रभाव सम्पत्ति के न्यागमन पर पड़ेगा, इसीलिए अविभक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक नियुक्त करने का कोई प्रावधान नहीं था।

(4) किसी अन्य व्यक्ति को संरक्षक के रूप में कर्ता के प्रबन्ध को देखने के लिये नियुक्त कर देने से गम्भीर कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। यह संयुक्त परिवार के उचित प्रबन्ध को छिन्न-भिन्न कर सकता है जिससे परिवार में कलह तथा वैमनस्य के बीज उत्पन्न हो सकते हैं।

एक संयुक्त हिन्दू परिवार जिसमें अवयस्क सदस्य भी है तथा जिस परिवार की संयुक्त सम्पत्ति में अवयस्क का भी हिस्सा है, उसमें अवयस्क के अविभक्त हिस्से को भी उसके नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विधिक आवश्यकता के लिए अन्यसंक्रामित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ जहाँ अवयस्क सदस्यों की संयुक्त सम्पत्ति मृत पिता के द्वारा लिये गये ऋणों की अदायगी के लिये बेच दी जाती है वह अन्यसंक्रामण मात्र घोषित किया गया। इस प्रकार का अन्यसंक्रामण हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 9 से प्रभावित नहीं होता।

उच्च न्यायालय का अधिकार अधिनियम की धारा 12 में उपर्युक्त नियम के सम्बन्ध में एक अपवाद प्रदान किया गया है। उच्च न्यायालय को अपने सामान्य क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत यह अधिकार है कि वह अवयस्क की अविभक्त सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त कर दे, चाहे वह अविभक्त सम्पत्ति एक संयुक्त मिताक्षरा परिवार की ही हो। इस प्रकार संयुक्त मिताक्षरा परिवार के अवयस्क सदस्य की सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय को भी प्राप्त हुआ। उच्च न्यायालय के अधिकार इस सम्बन्ध में संरक्षकता तथा वार्ड्स अधिनियम तथा हिन्दू अवयस्कता

  1. राम बनाम मिहिर, आई० एल० आर० 36 इलाहाबाद 1851
  2. गरीब उल्लाह बनाम खड़क सिंह, 25 इला0407 (पी० सी०)।
  3. गिरधर सिंह बनाम आनन्द सिंह, ए० आई० आर० 1982 राज० 2201

तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 द्वारा किसी रूप में परिवर्तित नहीं किये गये।

दृष्टान्त

अ तथा उसका पुत्र ब एक संयुक्त परिवार के सदस्य हैं जो मिताक्षरा-विधि द्वारा प्रशासित होता है। परिवार में एक मकान के अतिरिक्त कोई सम्पत्ति नहीं है। मकान के मरम्मत की अत्यन्त आवश्यकता है। परिवार के ऊपर ऋण भी है। इन दोनों कार्यों के हेतु परिवार के पास कोई साधन नहीं है। स ने मकान खरीदने के लिए 40,000 रु० देना स्वीकार किया; किन्तु इस शर्त पर कि अ उच्च न्यायालय से ब की ओर से भी बेचने की स्वीकृति प्राप्त कर ले। इस बात पर अ ने ब की ओर से उच्च न्यायालय द्वारा संरक्षक बनने तथा मकान बेचने की स्वीकृति के लिए आवेदनपत्र दिया। न्यायालय के समक्ष यह सन्तोषजनक रूप से सिद्ध किया गया कि यदि मकान बेचने की अनुमति नहीं प्रदान की जाती तो उतना मूल्य नहीं प्राप्त हो सकता जितना उस समय प्राप्त हो रहा था। इस प्रकार अ को ब की ओर से मकान बेचने का अधिकारी उसका संरक्षक नियुक्त करने के बाद बना दिया गया है।

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत अभी हाल में श्रीमती स्वेता एवं अन्य बनाम धर्म चन्द एवं अन्य के वाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया प्रस्तुत वाद में अ जो कि एक संभ्रांत परिवार का व्यक्ति था उसकी मृत्यु दुर्घटना के कारण हो गयी। अ अपने पीछे एक अवयस्क पुत्री तथा विधवा पत्नी छोड़ गया था। अ की मृत्यु के पश्चात् अवयस्क पुत्री अपने नाना के संरक्षण में, साथ रहने लगी जो कि उसका भरण-पोषण करता था कुछ समय पश्चात् नाना ने अवयस्क पुत्री तथा उसके अविभाज्य पैतृक सम्पत्ति में अपने को संरक्षक नियुक्त कराने के लिए एक आवेदन न्यायालय में प्रस्तुत किया। नाना के आवेदन के साथ-साथ पुत्री के चाचा जो मृतक का सगा भाई था उसने भी इस आशय का आवेदन-पत्र न्यायालय में प्रस्तुत किया। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि अवयस्क पुत्री का चाचा, पुत्री के हितों को ध्यान से रखते हुये संरक्षक नियुक्त नहीं किया जा सकता तथा न्यायालय ने इस वाद में यह भी अभिनिर्धारित किया कि पुत्री के नाना उसके हितों को ध्यान में रखते हुये संरक्षक हो सकता है किन्तु अविभाज्य संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति का संरक्षक नहीं हो सकता क्योंकि यह हिन्दू अवयस्कता संरक्षक अधिनियम 1956 की धारा 12 के विरुद्ध होगा।

संरक्षकों के प्रकार-धारा 4 के अन्तर्गत चार प्रकार के संरक्षकों का उल्लेख किया गया है

(1) नैसर्गिक संरक्षक (Natural Guardian),

(2) पिता अथवा माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक, जिसे वसीयती संरक्षक कहा जा सकता

(3) न्यायालय द्वारा नियुक्त अथवा घोषित संरक्षक,

(4) कोर्ट ऑफ वार्ड्स से सम्बन्धित किसी विधि के अन्तर्गत इस प्रकार (संरक्षक के रूप में) कार्य करने के लिए अधिकृत संरक्षक। उपर्युक्त प्रकार के संरक्षकों के अतिरिक्त निम्नलिखित दो प्रकार के और भी संरक्षक होते हैं

(5) वस्तुत: (De facto) संरक्षक,

(6) तदर्थ (Ad hoc) संरक्षक।

(1) नैसर्गिक संरक्षक-नैसर्गिक संरक्षक वह है जो अवयस्क से प्राकृतिक रूप में सम्बन्धित होने के कारण संरक्षक बन जाता है। दूसरे शब्दों में वह व्यक्ति जो अवयस्क से प्राकृतिक अथवा अन्य किसी रूप से सम्बन्धित होने के कारण उसकी सम्पत्ति या शरीर की देखभाल करने का दायित्व अपने ऊपर लेता है, नैसर्गिक संरक्षक कहा जाता है। यद्यपि हिन्दू विधि में संरक्षकों की सूची सीमित

1. नाना भाई बनाम जनार्दन, (1882) 12 बाम्बे 1101

2. ए० आई० आर० 2001 म०प्र० 231

नहीं है, फिर भी अवयस्क का प्रत्येक सम्बन्धी उसका नैसर्गिक संरक्षक नहीं हो सकता। वर्तमान अधिनियम में इसी दृष्टि से नैसर्गिक संरक्षको की सूची दी गई है।

नैसर्गिक संरक्षक उसका पिता होता है और उसके बाद उसको माता। अवयस्क के पिता-माता को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति को उसका संरक्षक बनने का अधिकार नहीं प्राप्त है। न्यायालय को भी पिता के जीवित रहने को दशा में, यदि वह अवयस्क का संरक्षक बनने के अयोग्य नहीं है, अवयस्क के शरीर आदि के लिये संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार नहीं है।

श्रीमती गीता हरिहरन व अन्य बनाम रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह सम्पेक्षित किया कि यदि पिता अपने नाबालिग बच्चे की जिम्मेदारी नहीं उठा रहा है तो ऐसी स्थिति में संतान की माँ नैसर्गिक संरक्षक की भूमिका निभा सकती है। प्रस्तुत मामले में हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 एवं संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के प्रावधानों की व्याख्या करते हुये दो अलग-अलग लेकिन समान निष्कर्ष के फैसले में यह व्याख्या दी गई। प्रस्तुत बाद में वादी ने रिजर्व बैंक आफ इण्डिया के उस अधिकार को चुनौती दी थी जिसके तहत बैक ने उन्हें नाबालिक पुत्र का नैसर्गिक संरक्षक मानने से इंकार कर दिया था। एक दूसरे अन्य वाद में डा० वंदना शिवा ने उन प्रावधानों को चुनौती देते हुए दावा किया था कि वह अपने नाबालिग पुत्र को नैसर्गिक संरक्षक है। डा. वंदना शिवा के पति ने दिल्ली की एक अदालत में विवाह-विच्छेद का वाद दायर कर रखा है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 6(क) और संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 19 (ख) की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाली दो याचिकाओं में इन दोनों कानूनों के इन प्रावधानों से संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त “समानता के अधिकारों का हनन होता है। अभी तक उपरोक्त दोनों प्रावधानों के अन्तर्गत सिर्फ पिता को हो नाबालिक सन्तान का नैसर्गिक संरक्षक माना जाता था। इस वाद में न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह व्याख्या नये मामलों में ही लागू होगी तथा जिन मामलों में निर्णय हो चुका है, उन्हें इस निर्णय के आधार पर पुनः चुनौती नहीं दी जा सकती। न्यायालय ने यह भी अभिमत प्रकट किया कि माता एवं पिता दोनों का यह दायित्व है कि वह अपने अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा करें। यदि पिता किसी मतभेद के कारण अपने बच्चों की देखभाल नहीं करता और ऐसी सन्तान अपने माता के पास पूरी तरह संरक्षण में है तो ऐसी दशा में उसकी माँ बच्चे की नैसर्गिक संरक्षक होगी। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि पिता के जीवनकाल के दौरान माता द्वारा सभी कार्यवाही वैध होगी और ऐसी दशा में हिन्दू संरक्षकता अधिनियम की धारा 6 (क) एवं प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 19 (ख) के सम्बन्ध में पिता को अनुपस्थित माना जायेगा।

मद्रास उच्च न्यायालय ने एन० पलानी स्वामी बनाम ए० पलानी स्वामी के वाद में यह संप्रेक्षित किया कि पिता का नैसर्गिक संरक्षक का अधिकार पितामह एवं नाना से कहीं अधिक श्रेष्ठकर है। माता-पिता के अभाव में हिन्दू पाठ्यग्रंथों में अनेक संरक्षकों की सूची क्रम से दी गई थी; जैसे-ज्येष्ठ भाई, ज्येष्ठ चचेरा भाई, व्यक्तिगत सम्बन्धी, इन सबके अभाव में मातृपक्ष के सम्बन्धी। किन्तु इन सब सम्बन्धियों के संरक्षकता-सम्बन्धी अधिकार माता-पिता की तरह असीम नहीं थे, क्योंकि इस कोटि के समस्त संरक्षकों को न्यायालय से अनुमति लेनी पड़ती थी। जहाँ सभी सहदायिक अवयस्क हैं, वहां न्यायालय उनकी पारिवारिक सम्पत्तियों के लिये संरक्षक नियुक्त कर सकता है। किन्तु इस प्रकार की संरक्षकता उन अवयस्क सहदायिकों के किसी एक के द्वारा वयस्कता प्राप्त कर लेने पर

1. कौसरा बनाम जोरई, (106) 28 इला० 233; देखें, के० आर० सुधा बनाम पी० आर० शशि कुमार, ए० आई० आर० 2012 केरल 711

2. धारा 19 (बी) संरक्षक तथा वार्ड्स अधिनियम देखिये।

3. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 11491

4. ए० आई० आर० 1998 मद्रास पृ० 2641

5. के० के० लक्ष्मी बनाम मरु देवी, आई० एल० आर० 32 मद्रास 1391

उत्सुक है, उसी को पुत्री की अभिरक्षा सौंप दी जानी चाहिये। वस्तुत: यहाँ अभिरक्षा के प्रश्न पर चयन अवयस्क के नाना-नानी तथा उसके पिता के बीच है, अतएव ऐसी स्थिति में पिता की ही अभिरक्षा में पुत्री को देना अधिक श्रेयस्कर होगा।

कुमार वी० जागीरदार बनाम चेतना रमा तीरथ, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पत्नी अपने पहले पति के सन्तान को उससे मिलने से रोक नहीं लगा सकती क्योंकि वह उसका नैसर्गिक संरक्षण है, और नैसर्गिक संरक्षक होने के नाते उसे इस बात का पूरा अधिकार है, कि वह अपने सन्तान को अपने घर में रख सकता है तथा उससे मिल सकता है। प्रस्तुत वाद में पत्नी अपने पहले पति को छोड़कर अपना विवाह दूसरे पति से रचाया जिस समय वह अपना दूसरा विवाह किया उस समय उसके पास पहले पति की सन्तान मौजूद थी, तथा विवाह उपरान्त पत्नी अपने दूसरे पति के साथ अपने पूर्व पति के सन्तान को भी अपने साथ रखा तथा अपने सन्तान को इस बात के लिए हमेशा भड़काती रहती थी कि उसका पिता एक गन्दे किस्म का व्यक्ति है वह उससे न मिला करे पूर्व पति ने इस बात की चुनौती न्यायालय के समक्ष दी न्यायालय ने पति की याचिका स्वीकार करते हुए उसको अपने सन्तान से मिलने की अनुमति प्रदान किया।

श्रीमती सुरिन्दर कौर बनाम हरबक्स सिंह सिन्धू के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि धारा 6 के अधीन अवयस्क सन्तान की प्रमुख कल्याणकारिता ही सबसे महत्वपूर्ण बात होती है। लड़के की दृष्टि से उसे माता की ही अभिरक्षा में रखा जाना चाहिये। जहाँ पति-पत्नी में पारस्परिक सम्बन्ध खराब हो गये हों वहाँ पति के धन-दौलत तथा सम्पन्नता के आधार पर सन्तान की अभिरक्षा का प्रश्न नहीं तय किया जाना चाहिये बल्कि उसकी भलाई एवं हित को देखकर ही कोई निर्णय लिया जाना चाहिये। यदि अवयस्क से घर का कोई अन्य सदस्य जैसे कि पितामह आदि भावनात्मक रूप से जुड़े हों तो भी उसको माता की ही अभिरक्षा में रखा जायेगा भले ही पितामह आदि को इस बात की अनुज्ञा प्रदान कर दी जायेगी कि वे अवयस्क को अपने घर सप्ताह में एक बार ले जायँ और फिर उसे वापस भेज दें।

जब तक माता की अभिरक्षा अवयस्क के हितों के विरोध में नहीं है, माता को ही अवयस्क की अभिरक्षा का अधिकार प्राप्त होगा। ऐसी माता चाहे जीविका अर्जित कर रही हो अथवा एक घरेलू स्त्री हो। अवयस्क के हित तथा अनुशासन के लिए माता की ही अभिरक्षा अधिक श्रेयस्कर होगी। यदि माता के विरुद्ध जारता का आरोप साबित हो जाता है अथवा कमजोर मिजाज का आरोप साबित हो जाता है तो माता की अभिरक्षा का अधिकार समाप्त हो जाता है।

इसी प्रकार जहाँ माता का अनैतिक सम्बन्ध किसी दूसरे व्यक्ति से है और जानबूझकर पति का. घर छोड़कर चली गई, अवयस्क सन्तान के कल्याण या हित में कोई रुचि नहीं रखती तथा अपने भौतिक सुख के लिये अपने सन्तान हेतु कोई त्याग करने के लिये प्रस्तुत नहीं है वहाँ ऐसी माता को पाँच वर्ष से कम आयु वाले अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार नहीं है हालाँकि सामान्य रूप से पाँच वर्ष तक की सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार माता को ही प्रदान किया गया है।’

श्रीमती मोहिनी बनाम वीरेन्द्र कुमार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा तथा उसके कल्याण की बात विचारण न्यायालय के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण है। जहाँ पति-पत्नी में तलाक की आज्ञप्ति पास कर दी गई वहाँ अवयस्क क हिता

1. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1525..

2. ए० आई० आर० 1984 एस० सी० 12241

3. पूनम दत्त बनाम कृष्णलाल दत्त, ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 401

4. श्रीमती मधुबाला बनाम अरुण खन्ना, ए० आई० आर० 1987 दि०811

5. के० एस० मोहन बनाम सन्ध्या , ए० आई० आर० 1993 मद्रास 511

6. ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 13591

को ध्यान में रखना सबसे महत्वपूर्ण है। वर्तमान परिस्थितियों में जहाँ माता अवयस्क के हितों की रक्षा तथा उसे किसी अच्छी संस्था में शिक्षा देने का वायदा करती है वहाँ माता की ही अभिरक्षा में अवयस्क को रखना अधिक हितकर होगा।

उपर्युक्त इसी मत की पुष्टि उच्चतम न्यायालय ने चन्द्रकला मेनन बनाम विपिन मेनन के मामले में किया। इस मामले में पति-पत्नी के बीच पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद हो गया। उनकी अवयस्क पुत्री नाना के साथ रहती थी। अवयस्क पुत्री की माता अमेरिका में पी-एच० डी० डिग्री के लिये अध्ययनरत थी। पुत्री का अधिक स्नेह माता तथा नाना के साथ पिता से भी था। पुत्री का भरणपोषण नाना ही कर रहे थे। ऐसी स्थिति में न्यायालय ने पुत्री को माता की अभिरक्षा में रखा जाना ही उचित अभिनिर्धारित किया तथा पिता को उससे मिलने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी।

शीला वी० दास बनाम पी० आर० सग्गा जी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पुत्री की बौद्धिक क्षमता अत्यंत तीक्ष्ण हो और वह अपने हितों के बारे में अच्छी तरह सोच समझ सकती है। ऐसी परिस्थिति में उसके इच्छानुसार नैसर्गिक संरक्षक के सम्बन्ध में न्यायालय द्वारा विचार किया जा सकता है। प्रस्तुत मामले में अवयस्क पुत्री जिसकी आयु 12 वर्ष थी के संरक्षक के सम्बन्ध में न्यायालय के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत की गयी। पुत्री के माता का यह कहना था कि जब तक उसकी लड़की अवयस्क है तब तक उसकी संरक्षकता उसको दिया जाय जिससे कि उसका ठीक से पालन-पोषण किया जा सके लेकिन उसकी पुत्री का यह कहना था कि वह अपने दादी के साथ रहना चाहती है जो कि उसके पिता के साथ रह रही थी न्यायालय ने पुत्री की भावनाओं को देखते हये एवं उसकी बौद्धिक क्षमता का आकलन करते हुये उसको उसके पिता के नैसर्गिक संरक्षण में रहने का आदेश दिया।

पून: उच्चतम न्यायालय ने गायत्री बजाज बनाम जीतिन भल्ला. के वाद में उपरोक्त मत की अभिपुष्टि किया, न्यायालय ने पत्नी की याचिका को निरस्त करते हुये यह निर्णीत किया कि बच्चों का भविष्य पिता की अभिरक्षा में ज्यादा सुरक्षित है, और जहाँ सन्तान अपने पिता के साथ ही रहना चाहती हैं वहाँ माता को अपनी सन्तान को अपने साथ रखने का अधिकार नहीं होगा, बल्कि उसे ऐसी परिस्थिति में उससे मिलने एवं सम्पर्क बनाये रखने का ही अधिकार होगा।

2. जारज बालक या जारज अविवाहिता बालिका के मामले में माता और उसके बाद पिता संरक्षक हैं।

पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत भी अवयस्क पत्नी का नैसर्गिक संरक्षक ही उसका पति माना जाता था। जैसा कि अब वर्तमान अधिनियम में दिया गया है, संरक्षकता का यह अधिकार पत्नी की सम्पत्ति तथा व्यक्तित्व दोनों के सम्बन्ध में दिया गया है। किन्तु जहाँ पति भी अवयस्क है तो उस स्थिति में धारा 10 के प्रावधानों के अनुसार वह पति अपनी अवयस्क पत्नी की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में यह प्रतिपादित है कि जो व्यक्ति अवयस्क पति की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिकार रखता है वही उसकी अवयस्क पत्नी की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक-जैसा व्यवहार कर सकेगा।

3. विवाहिता बालिका की अवस्था में उसका पति, परन्तु यदि कोई व्यक्ति

1. हिन्दू नहीं रह गया है, या

2. अंतिम तथा पूर्ण रूप से संसार त्याग चुका है अथवा वानप्रस्थ ग्रहण कर लिया है अथवा संन्यासी हो चुका है,

1. (1993) 2 एस० सी० सी० 61

2. ए० आई० आर०2006 एस० सी० 13431

3. ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 10.

Follow On Facebook Page

Exit mobile version