LLB Hindu Law Chapter 7 Post 4 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार में पढ़ने जा रहे है
जैसा कि उत्तराधिकार के मूल अधिनियम में मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति के न्यागमन के दो कम प्रदान किये गये है प्रथम उत्तरजीविता तथा दूसरा उत्तराधिकार परिवार की पैतृक सम्पत्ति में उत्तरजीविता सहक उत्पन्न होता है तथा पधक व स्वअर्जित सम्पत्ति में उत्तराधिकार द्वारा हक उत्पन्न होता है। हिन्द्र पुरुष की सम्पत्ति पृथक अथवा स्वअर्जित हो सकती है अथवा सहदायिक हो सकती है। जब भी संयुक्त पारवार को सम्पत्ति में न्यागमन का प्रश्न उठता है तो पैतृक अथवा अपैतृक सम्पत्ति में एवं अप्रतिबन्धदाय तथा उसका सपतिबन्ध दाय में अन्तर किया जाता है हिन्दु निर्वसीयती सम्पत्ति में उत्तराधिकार के क्रम को मूल अधिनियम की धारा 5 के प्रतिबन्धों के साथ सन्नियमित किया गया है तथा धारा 6 के अन्तर्गत हिन्द्र पुरुष के सहदायिक सम्पत्ति के न्यागमन का विवेचना किया गया है अर्थात् जब कोई हिन्दू पुरुष मिताक्षरा सहदाधिक सम्पत्ति में अपनी मृत्यु के समय अपने हक को रखते हुये मूल अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् मरता है तो उसका हक सहदायिकी में उत्तरजीवित सदस्यों पर उत्तरजीविता के आधार पर न कि इस अधिनियम के उपबन्धो के अनुकूल न्यागत होगा किन्तु यदि मृतक अधिनियम को अनुसूची 1 में उल्लिखित किसी सो नातेदार को छोड़कर मरता है तो मिताक्षर सहदायिक सम्पत्ति में मृतक का हक इस अधिनियम के अन्तर्गत उल्लिखित नियमों के अनुसार न कि उत्तरजीविता द्वारा यथास्थिति वसीयती अथवा निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा। धारा 6 के इस उपरोक्त प्रावधान द्वारा मिताक्षरा सहदायिकी के इस मौलिक स्वरूप में जो परिवर्तन किया गया उसमें सियों को मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति में किसी भी प्रकार से दाय का अधिकार नहीं प्राप्त था और न हो वे सहदायिकी की सदस्य समझी जाती थी लेकिन वर्तमान उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत विधायिका ने पुत्र एवं पुत्रियों के इस विभेद को समाप्त कर दिया और पुत्रियों को भी जन्मतः सहदायिक सम्पत्ति में अधिकार पुत्रों के बराबर स्वतंत्र रूप से प्रदान कर दिया अर्थात पुत्रियों को भी अपनी पैतृक सम्पत्ति में पुत्रों के समान जन्मतः रहने एवं विभाजन करने का पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिया गया। अभी हाल में अनार देवी व अन्य बनाम परमेश्वरी देवी व अन्य के बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 में हुई संशोधन के पूर्व बँटवारों के सन्दर्भ में तथा पक्षकारों के हितों एवं अधिकारों के सन्दर्भ में संशोधन से पूर्व (उत्तराधिकार अधिनियम, 1956) की विधि ही प्रभावी होगी।
प्रभु दयाल बनाम श्रीमती राम सिया व अन्य के मामले में पुन: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मत को अभिपुष्टि करते हुये यह अभिनिधारित किया कि हिन्द उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पारित होने के पश्चात् यह निश्चित हो चुका है कि पैतृक सम्पत्ति में पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी सहदायिक के रूप में जन्मतः अधिकार प्राप्त करेगी जिसके परिणामस्वरूप वह उन सम्पत्तियों में बँटवारे को माँग कर सकती है। प्रस्तुत बाद में न्यायालय ने यह भी सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में पक्षकार गणों के द्वारा इस संशोधन अधिनियम के पूर्व कोई बात उठायी गयी हो वहाँ ऐसे मामलों का निस्तारण हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के द्वारा तय किया जायेगा लेकिन जहाँ पर कोई वाद न्यायालय के समक्ष लम्बित है और लम्बित रहने के दौरान यह संशोधन पारित हो गया है तो ऐसी स्थिति में स्त्रियों को इस बात का अधिकार उत्पन्न हो जायेगा कि वह सहदायिक की हैसियत में ऐसे सम्पत्ति में विभाजन के लिये वाद न्यायालय के समक्ष ला सकती है।
पुनः हरिशंकर शर्मा बनाम पूरन सिंह के बाद में इस बात को अभिपुष्टि की कि जहाँ उत्तराधिकार के सम्बन्ध में कोई वाद न्यायालय के समक्ष लम्बित है और उस मामले में न्यायालय द्वारा अन्तिम निर्णय नही दिया गया है और बाद के दौरान संशोधन अधिनियम पारित हो गया हो तो ऐसे मामले में संशोधन अधिनियम के प्रावधान उस पर लागू होगे।
गंधारी कोटेश्वर अम्मा बनाम छाकरी पानदी, के वाद में पुन: उच्चतम न्यायालय ने इस बात
1 . आई. आर० 2006 एस० सी० 3332; विरल कुमार नटवर लाल पटेल बनाम कपिला बेन अनीलाल जीवन भाई व अन्य, ए० आई० आर० 2009 गुजरात 1841
2. ए. आई. आर० 2009 एम० पी० 52; देखें, तसवीर पाल कौर बनाम सुखमिन्दर सिंह, ए० आई आर० 2009 एन० ओ० सी० 2205 पंजाब व हरियाणा।
3. ए० आई० आर० 2012 एन० ओ० सी०215 राजा 11
4. अई. आर० 2012 एस० सी० 169, देखें; प्रेमा बनाम नानजी गोंड़ा, ए० आई० आर० 2011 एस. सी. 20771
की अभिपुष्टि की कि यदि सहदायिकी सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में अधीनस्थ न्यायालयों के द्वारा कोई प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित की गयी हो और ऐसे विचारण में अन्तिम आज्ञप्ति पारित न की गयी हो, तथा विचारण के दौरान हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम पारित हो गया हो तो अन्तिम डिक्री पारित होने के पूर्व, कोई सी वर्ग के दायाद ऐसे बाद में अपने हिस्से का दावा प्रस्तुत कर सकती है। और न्यायालय प्रारम्भिक डिक्री में पारित हिस्से में परिवर्तन कर सकती है। पुन: केरल उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005, पारित होने के पश्चात् कोई भी विवाहिता पुत्री भी अपने सहदायिक सम्पत्ति में हिस्सा पाने की हकदार होगी यदि ऐसी सम्पत्ति का विभाजन होता है और वह सम्पत्ति मिताक्षरा विधि शाखा के द्वारा शासित होती हो। और जहाँ कोई मिताक्षरा संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति के विभाजन के समय यदि मृतक पुत्र की पत्नी मौजूद है वहाँ पुत्रवधू केवल अपने मृतक पति के सम्पत्ति को प्राप्त करने की अधिकारी होगी, किन्तु वह सहदायिकी के रूप में ऐसी सम्पत्ति का विभाजन कराने की हकदार नहीं होगी।
ङ्के एक अन्य बाद में उड़ीसा उस्ल यालय ने यह सित किया कि जहाँ HUMLA अधिनियम के पश्चात् कोई पैतृक सम्पत्ति यदि पुत्री में निहित हो गई है और ऐसा बँटवारा 20 दिसम्बर, 2004 के पूर्व प्रभावी नहीं हुआ था तो ऐसी स्थिति में पैतृक सम्पत्ति में जन्मत: पुत्रियाँ भी सहदायिक के रूप में सम्मिलित कर ली जायेगी और वह जन्मत: ऐसी पैतृक सम्पत्ति में भागीदार हो जायेंगी तथा उन्हें पुत्रों के बराबर सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त होगा।
उड़ीसा उच्च न्यायालय ने प्रतिभा रानी त्रिपाठी बनाम विनोद बिहारी त्रिपाठी,’ के वाद में पुनः उपरोक्त मत की अभिपुष्टि करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पैतृक सम्पत्ति का विभाजन हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पश्चात् किया गया हो वहाँ ऐसी सम्पत्तियों में पुत्रों के साथ पुत्रियों को भी सहदायिकी के रूप में सम्मिलित किया जायेगा।
अभी हाल में प्रकाश बनाम फूलवती, के वाद में पुन: उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा किसी पैतृक सम्पत्ति में अन्य सहदायिक के साथ पुत्रियाँ भी सहदायिक होगी, चाहे पुत्रियाँ उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पूर्व जन्मी हों या पश्चात् में जन्मी हो, यदि पैतृक सम्पत्ति का विभाजन संशोधन अधिनियम के पश्चात् किया जाता है तो वह अन्य सहदायिकों के बराबर का हिस्सा प्राप्त करेंगी। पुन: मुम्बई उच्च न्यायालय की पूर्ण खण्डपीठ ने बद्री नारायन शंकर भण्डारी बनाम ओम शंकर भण्डारी, के वाद में यह सम्प्रेक्षित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 में संशोधन के पश्चात् ऐसी पुत्रियाँ जो पैतृक सम्पत्ति प्राप्त करने की अधिकारी नहीं थीं, वह इस संशोधन के पश्चात् पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त कर सकेंगी चाहे उनका जन्म संशोधन के पूर्व हुआ हो या संशोधन के पश्चात् हुआ हो यदि ऐसी सम्पत्ति का विभाजन संशोधन अधिनियम के पारित होने के बाद किया गया हो तो वह अन्य पुरुष सहदायिकों के साथ ऐसी सम्पत्ति में बराबर से हिस्सा प्राप्त कर सकेंगी।
तारवाड्, तावषि, कुटुम्ब अथवा इल्लम की सम्पत्ति में हक का न्यागमन–(1) जबकि वह हिन्दू, जिसे मरुमक्कत्तायम या नम्बूदरी विधि लागू होती, यदि वर्तमान अधिनियम में परिवर्तन किया गया होता, इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् अपनी मृत्यु के समय यथास्थिति तारवाड्, तावषि, कुटुम्ब या इल्लम की सम्पत्ति में हक रखते हुए मरता है तब सम्पत्ति में उसका हक मरुमक्कत्तायम या नम्बूदरी विधि के अनुकूल वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा न कि इस अधिनियम के अधीन।
व्याख्या-तारवाड्, तावषि तथा इल्लम की सम्पत्ति में एक हिन्दू के हित के विषय में इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये यह समझा जायेगा कि वह यथास्थिति तारवाड्, तावषि एवं इल्लम की सम्पत्ति में वह अंश है जो यदि यथास्थिति तारवाइ, तावषि और इल्लम के समय जीवित सब सदस्यों में उसकी अपनी
1. श्रीमती मैरीटैंगीवा बनाम अनशया व अन्य, ए० आई० आर० 2012 कर्ना० 321
2. ए० आई० आर० 2009 एन० ओ० सी० 862 उड़ीसा। देखें; नन्द किशोर व अन्य बनाम रुक्कमणि देवी, ए० आई० आर० 2012 एन० ओ० सी० 190, राज।
3. ए० आई० आर० 2014 उड़ीसा 74.
4. ए० आई० आर० 2016, एस० सी० 769.
5. ए० आई० आर० 2014, मुम्बई 15 (पूर्ण खण्डपीठ)।
मृत्यु के ठीक पूर्व उस सम्पत्ति का विभाजन व्यक्तिपरक हुआ तो उसे न्यागत होता. चाहे वह अपने अनवर्तनीय मरुमक्कत्तायम या नमत्य म्बूदरी विधि के अन्तर्गत ऐसे विभाजन का दावा करने के लिये हकटार होता या न होता।
(2) जब कि हिन्दू जिसे अलियसंतान विधि लागू होती यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता. इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् यथास्थिति कुटुम्ब या कवरू की सम्पत्ति में अविभक्त हक अपनी मृत्यु के समय रखते हुए मरता है तब सम्पत्ति में उसका अपना हक इस अधिनियम के अन्तर्गत यथास्थिति वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा न कि अलियसंतान विधि के अनकला
व्याख्या-कुटुम्ब या कबरू की सम्पत्ति में हिन्दू के हक के बारे में इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये यह समझा जायेगा कि वह यथास्थिति कुटुम्ब की सम्पत्ति में वह अंश है जो यथास्थिति कुटुम्ब या कबरू के उस समय जीवित सब सदस्यों में उसकी अपनी मृत्यु के ठीक पूर्व यदि उस सम्पत्ति का व्यक्तिपरक विभाजन हुआ होता तो उसे न्यागत होता, चाहे वह अलियसंतान विधि के अन्तर्गत ऐसे विभाजन का दावा करने के लिये हकदार हो या न हो।
(3) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी जब कोई स्थानम्दार अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् मरता है तो उसकी स्थानम् सम्पत्ति उस परिवार के सदस्यों को, जिसका कि वह स्थानम्दार है, तथा स्थानम्दार दायादों को ऐसे न्यागत होगी जैसे कि स्थानम् सम्पत्ति स्थानम्दार और उस समय जीवित परिवार के सब सदस्यों के मध्य स्थानम्दार की मृत्यु के ठीक पूर्व व्यक्तिपरक रूप से विभाजित कर ली ङ्केपी थी तथा स्था प्रसार के परिवार के सदस्यों और स्थानमार के दामादों को मिलने वाले हफ अपनी पृथक् सम्पत्ति के रूप में धारित किये जायेंगे।
व्याख्या—इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए स्थानम्दार के परिवार के अन्तर्गत उस परिवार की, चाहे विभक्त हो अथवा अविभक्त, वह शाखा होगी जिसके पुरुष सदस्य यदि यह अधिनियम पारित न किया गया हो तो किसी प्रथा अथवा रूढ़ि के आधार पर स्थानम्दार के स्थान पर उत्तराधिकारी होने के हकदार होते।
न्यागमन की रीति उसी प्रकार है जिस प्रकार मिताक्षरा विधि में धारा 6 के अन्तर्गत एक हिन्दू पुरुष की सहदायिकी सम्पत्ति में हक सम्बन्धी न्यागमन का उल्लेख किया गया है। धारा 7 तारवाड्, तावषि, कुटुम्ब, कबरू तथा इल्लम के सदस्यों की सम्पत्ति में अविभक्त हक के न्यागमन के विषय में उल्लेख करती है। इस धारा में न्यागमन की रीति उसी प्रकार बताई गई है जिस प्रकार धारा 6 में।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम उन व्यक्तियों के लिये लागू होता है जो मरुमक्कत्तायम्, अलियसंतान अथवा नम्बूदरी विधि द्वारा प्रशासित होते हैं। मरुमक्कत्तायम् विधि त्रावनकोर कोचीन राज्य में प्रवर्तित है तथा अलियसंतान विधि कन्नड़ तथा मैसूर राज्य के अन्य भागों में लागू होती है। मद्रास व्यवस्थापिका द्वारा तथा त्रावनकोर-कोचीन के राज्य द्वारा बहुत अधिक सीमा तक यह विधि संहिताबद्ध कर दी गयी है। नम्बूदरी लोग सामान्यत: हिन्दू विधि द्वारा प्रशासित होते हैं, किन्तु पश्चिमी घाट की ओर निर्वासित होने के बाद उनकी प्रथाओं एवं रूढ़ियों में बहुत से परिवर्तन आये, जिनका परिणाम यह हुआ है कि नम्बूदरी अधिनियम तथा त्रावनकोर-कोचीन ब्राह्मण अधिनियम उनके लिये अनुवर्तनीय बनाया गया। धारा 7 में यह विशेष प्रावधान बनाया गया है जिससे मरुमक्कत्तायम्, तावड्, अलियसंतान, तावषि तथा नम्बूदरी के पुरुष अथवा स्त्री सदस्य का हक उनके दायादों के वसीयती अथवा निर्वसीयती उत्तराधिकार के द्वारा न्यागत होगा। इसके सम्बन्ध में प्रावधान उसी प्रकार से हैं जिस प्रकार से मिताक्षरा विधि में। धारा 30 में यह स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है कि तावड्, तावषि, इल्लम, कुटुम्ब अथवा कबरू के किसी सदस्य की सम्पत्ति, जो इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित हो सकती है, उस प्रकार निर्वर्तित की जा सकती है।
टी० सी० राधाकृष्णन बनाम टी० सी० विश्वनाथन नय्यर के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत मरुमक्कतायम् या नम्बूदरी विधि के अन्तर्गत शासित हिन्दू तावषि शाखा के अर्न्तगत एक संयुक्त हिन्दू परिवार के कुछ सदस्यों ने अपनी सम्पत्ति को एक व्यक्ति के पक्ष में कुछ प्रतिफल लेकर हस्तान्तरित किया जबकि उन्होंने अपने बीच ऐसी सम्पत्ति के हिस्से के बारे में कोई हिस्सेदारी का निर्धारण नहीं किया था। उपरोक्त मामले
में न्यायालय के समक्ष जब बँटवारे की बात उठायी गयी तो न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि रस्त तरीके से किया गया संव्यवहार विभाजन का ही भाग है और ऐसी संव्यवहार विभाजन माना जायेगा तथा ऐसा संव्यवहार संयुक्त हिन्दू परिवार के अन्तर्गत शून्य नहीं कहलायेगा।
सम्पत्ति में उत्तराधिकार अधिनियम में सम्पत्ति के न्यागमन के लिए उत्तराधिकार सम्बन्धी भिन्न-भिन्न नियम दिये गये हैं
(1) हिन्दू पुरुष निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरता हुआ।
(2) हिन्दू स्त्री निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरती हुई।
धारा 8 से 13 तक के अन्तर्गत हिन्दू पुरुष के निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरने के बाद के उत्तराधिकार का नियम उल्लिखित है तथा धारा 14 से 16 में हिन्द्र स्त्री की सम्पत्ति के उत्तराधिकार के विषय में वर्णन किया गया है, यदि वह निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरती है। इसका उल्लेख पृथक्-पृथक् किया जायेगा।
हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति के न्यागमन का नियम-अधिनियम की धारा 8 में उत्तराधिकार के वे सामान्य नियम दिये गये हैं जो किसी पुरुष के द्वारा निर्वसीयती निजी सम्पत्ति छोड़कर मरने पर लागू होते हैं। यह धारा किसी पुरुष के पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति में न्यागमन की व्याख्या करती है। इस प्रकार इस धारा के अन्तर्गत जब किसी व्यक्ति को सम्पत्ति दाय में प्राप्त होती है तो वह भी सम्पत्ति उसकी निजी अथवा पृथक् सम्पत्ति मानी जाती है और उसके सम्बन्ध में उसके अपने पुत्रों को कोई जन्मतः अधिकार नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वह संयुक्त सम्पत्ति नहीं मानी जा सकती। इस धारा में दायादों की सम्पत्ति को उत्तराधिकार के उद्देश्य से चार वर्गों में विभाजित किया गया है
(1) अनुसूची के प्रथम वर्ग में उल्लिखित नातेदार;
(2) अनुसूची के द्वितीय वर्ग में उल्लिखित नातेदार;
(3) मृतक के सपित्र्य (गोत्रज) (Agnates);
(4) मृतक के साम्पाश्विक (बन्धु) (Cognates)|
अधिनियम के अन्तर्गत इन दायादों के द्वारा उत्तराधिकार में सम्पत्ति न प्राप्त कर सकने पर मृतक की सम्पत्ति सरकार को न्यागत हो जाती है, जिसको सम्पत्ति का राजगामी होना कहा जाता है। राज्य को दायादों की कोटि में नहीं रखा जा सकता। अत: सरकार (राज्य) को पाँचवें वर्ग के दायादों की कोटि में रख कर एक वर्ग अलग से नहीं बना दिया गया और इसी कारण से दायादों के केवल चार ही वर्ग का अधिनियम में वर्णन किया गया है जो धारा 8 से स्पष्ट हो जायेगा। धारा 8 इस प्रकार है
धारा 8. निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मरने वाले हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति इस अध्याय के उपबन्धों के अनुकूल इस प्रकार न्यागत होगी
(क) प्रथमत: उन दायादों को, जो अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित नातेदार हैं,
(ख) द्वितीय, यदि वर्ग (1) में कोई दायाद न हो तो उन दायादों को जो अनुसूची के वर्ग (2) में उल्लिखित नातेदार हैं,
(ग) तृतीय, यदि उपर्युक्त दोनों वर्गों में किसी के नातेदार न हों तो मृतक के सपित्र्यों (गोत्रजों) को, और अन्त में,
(घ) यदि कोई सपित्र्य भी न हों तो मृतक के साम्पार्शिवकों (बन्धुओं) को न्यागत होगी।
1. ” युधिष्ठिर बनाम अशोक कुमार, ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 558। देखिए हरवंश सिंह बनाम श्रीमती टेकामनी देवी, ए० आई० आर० 1990 पट० 26; सारू भाई बनाम माखन चन्द्र खंतोनायर, ए० आई० आर० 2013 गौहाटी 1751
मद्रास उच्च न्यायालय ने दी एडीशनल कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स बनाम पी० एल० करूबन चेट्टियार के वाद में यह निरूपित किया कि सम्पत्ति सर्वप्रथम मृतक के उन सम्बन्धियों में न्यागत होगी जो अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित किये गये हैं। वर्ग (1) के दायाद सम्पत्ति एक साथ ग्रहण करेंगे और वर्ग (2) की प्रथम प्रविष्टि के दायादों के अपवर्जन में ग्रहण करेंगे। वर्ग (2) की प्रथम प्रविष्टि के दायाद प्रविष्टि (2) के दायादों के अपवर्जन में अधिमान्यता के नियम के अनुसार सम्पत्ति ग्रहण करेंगे।
उपर्युक्त आरेख में सभी नातेदार अनुसूची के वर्ग 1 में उल्लिखित हैं। अत: वे वर्ग 2 में उल्लिखित दायादों के अपवर्जन में क की छोड़ी गई सम्पत्ति में क की मृत्यु के बाद दाय प्राप्त करेंगे। इस आरेख में त, थ तथा द, क के पूर्व मृत पुत्र की सन्तान हैं, इसी प्रकार य तथा र पूर्व मृत पुत्री की सन्तान हैं। अत: वे भी वर्ग 1 के उत्तराधिकारी हैं और वे अपने पिता और माता के अंश को संयुक्त रूप से प्रतिनिधित्व करेंगे तदनुसार उनका अंश अलग-अलग उपर्युक्त के अनुसार होगा।
कृष्ण मुरारी मंगल बनाम प्रकाश नारायण व अन्य के वाद में एक हिन्दू पुरुष अपनी सहदायिकी सम्पत्ति 3 पुत्र एवं 3 पुत्रियों के बीच छोड़कर मरता है तथा मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों ने सम्पत्ति को बाँटने के लिए एक वाद न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया। प्रस्तुत वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि मृतक व प्रत्येक पुत्र को ऐसी सम्पत्ति में 1/4 भाग प्राप्त होगा तत्पश्चात् मृतक के हिस्से में 3 पुत्रों एवं 3 पुत्रियों को बराबर हिस्सा प्राप्त होगा अर्थात् प्रत्येक को 1/24 भाग प्राप्त होगा। इस प्रकार प्रत्येक पुत्र को 1/4 + 1/24 और प्रत्येक पुत्रियों को 1/24 भाग प्राप्त होगा।
भँवर सिंह बनाम पूरन व अन्य के वाद में एक हिन्दू पुरुष अपनी सम्पत्ति एक पुत्र एवं तीन पत्रियों के बीच छोड़कर मरता है तथा मृत्यु के पश्चात् उसके प्रत्येक उत्तराधिकारियों ने ऐसी सम्पत्ति में धारा 8 के अधीन आपस में 1/4 भाग का अंश प्राप्त कर लिया था। प्रस्तुत वाद में वादी के पिता ने संयक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति को बिना किसी जरूरत के ही विक्रय कर दिया था। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि वादी के पिता के द्वारा सम्पूर्ण सम्पत्ति का विक्रय अवैध था. वह केवल अपने हिस्से की सम्पत्ति को ही विक्रय कर सकता है, जो सम्पत्ति उसने बँटवारे के परिणामस्वरूप अपने हिस्से में प्राप्त किया था।
_1. ए० आई० आर० 1979 मद्रास 1।
2 ए० आई० आर० 2003 एन० ओ० सी० 37 म०प्र०। देखें; मान सिंह बनाम राम कला, ए. आई० आर० 2011 एस० सी० 1542।।
- ए० आई० आर० 2008 एस० सी० 1490।
रामाबाई पद्माकर बनाम रुक्मणिबाई विष्णु विखण्ड, के वाद में एक हिन्दू पुरुष अपनी पनि सात पुत्रियों एवं विधवा पत्नी के बीच छोड़कर मरता है। जिस समय उसके पति की मृत्यु हुई भी उस समय उसकी पुत्रियाँ अवयस्क थीं। अतः सम्पूर्ण सम्पत्ति उसके पत्नी के संरक्षण में थी। प्रस्तुत ले में पुत्रियों की माँ ने ऐसी सम्पूर्ण सम्पत्ति जो अपने पति की मृत्यु के पश्चात् प्राप्त किया था विधवा पुत्री के पक्ष में वसीयत के माध्यम से हस्तांतरित कर दिया था। इस बात पर उसके अन्य निराधिकारियों ने सम्पत्ति को बाँटने के लिये न्यायालय के समक्ष एक वाद प्रस्तुत किया। प्रस्तुत मामले के न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधवा माँ जो सम्पत्ति अपने पति के मृत्योपरान्त प्राप्त की थी उस सम्पत्ति में उसके अलावा उसके सात पुत्रियों का भी बराबर से हिस्सा लगेगा अर्थात् प्रत्येक को 1/8 भाग प्राप्त होगा। न्यायालय ने इस वाद में विधवा द्वारा प्रतिपादित की गयी वसीयत की वैधता को भी उचित ठहराया और यह अभिनिर्धारित किया कि वह पुत्री जिसके पक्ष में वह वसीयत की गयी थी अपनी माँ का 1/8 भाग को हिस्से में प्राप्त करेगी अर्थात् वह पुत्री 1/8 भाग अपनी माँ के वसीयत के माध्यम से तथा 1/8 भाग विभाजन के माध्यम से ऐसी सम्पत्ति प्राप्त करेगी।
श्रीमती पद्मारानी कर्माकर बनाम भोला नाथ चन्द्रा, के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई हिन्दू पुरुष निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मरता है और उसके मृत्युपरान्त उसके पत्र एवं पुत्रियाँ मौजूद हों वहाँ उसके द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति का न्यागमन उसके पुत्र एवं पुत्रियों के बीच होगा अर्थात् उसके पुत्र एवं उसकी पुत्रियों को ऐसी सम्पत्ति में बराबर से हिस्सा प्राप्त होगा। अभी हाल में पुनः उच्चतम न्यायालय ने रोहित चौहान बनाम सुरेन्द्र सिंह, के मामले में यह निर्णीत किया कि जब किसी सहदायिकी सम्पत्ति का विभाजन हो चुका है तो विभाजन के पश्चात् ऐसी सम्पत्ति को प्राप्त करने वाले व्यक्ति की सम्पत्ति स्व-अर्जित सम्पत्ति के रूप में मानी जायेगी और उस सम्पत्ति का विभाजन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत होगा। उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि ऐसी सहदायिक सम्पत्ति के विभाजन के पश्चात् उसके परिवार में किसी पुत्र अथवा पुत्री का जन्म हुआ हो तो ऐसी सम्पत्ति में पुत्र अथवा पुत्री का जन्मत: कोई अधिकार उत्पन्न नहीं होगा।
“निर्वसीयत मरने’ का अर्थ- “निर्वसीयती मरना” केवल मृतक की स्थिति का संकेत करता है, उसे हिन्दू पुरुष की मृत्यु के समय का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। उसका अर्थ यह है कि हिन्दू पुरुष के “निर्वसीयती होने की अवस्था में’ महत्वपूर्ण बात उत्तराधिकार की क्रियाशीलता की तिथि है। धारा 8 में प्रयुक्त “निर्वसीयती मरना’ पद मृतक की प्रास्थिति से आशय रखता है। वह पुरुष हिन्दू के मरने के समय से कोई आशय नहीं रखता। यह अधिनियम उन अवस्थाओं में लागू होता है जहाँ उत्तराधिकार का प्रश्न अधिनियम के पास होने के बाद उठाया जाता है।
अधिनियम की धारा 8 के प्रावधानों के अनुसार कोई विवाहित पुत्री भी अपने मृतक पिता जिसकी निर्वसीयत में मृत्यु हो गई, की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होने का हक रखने वाली प्रथम वर्ग की
1. ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 3109.
2. ए० आई० आर० 2013 कलकत्ता एन० ओ० सी० 166.
3. ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 3525, देखें सुशान्त बनाम सुन्दर श्याम, ए० आई० आर० 2014 एन० ओ० सी० 90, दिल्ली।
4. हारा लाल बनाम कुमुद बिहारी, 1957 कल० 571: शकुन्तला देवी बनाम कौशल्या देवी, 1936 लाहार 124; संपत कुमारी बनाम लक्ष्मी अम्मल, ए० आई० आर० 1963 मद्रास 50; नथुनी मिसिर बनाम रतना कौर, ए० आई० आर० 1968 पटना 337: शिवराज सिंह बनाम मुनिया, ए० आइ० आर० 1953 एम० पी० 601 नरायन बनाम साक्षम्मा तथा अन्य,
5. जे० सतनरायन बनाम साक्षम्मा तथ ए० आई० आर० 1977 मैसूर 2241 देखिए कुमारस्वामी गान्दर बनाम डी० आर० नन्जप्पा, ए० आई० आर० 1978 मद्रास 2581
उत्तराधिकारी है।
वर्ग 1 के दायाद-धारा 9 के अनुसार अनुसूची के प्रथम वर्ग के दायाद एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में वे दायादों का एक समूह निर्मित करते हैं तथा एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते है। द्वितीय वर्ग के दायाद तब तक अपवर्जित किये जाते हैं जब तक प्रथम वर्ग का कोई भी दायाद प्राप्त होता है। प्रथम वर्ग के दायाद द्वितीय वर्ग के दायादों की समकक्षता में अधिमान्य होते हैं। उदाहरणार्थ, यदि कोई हिन्द्र वर्ग (1) में उल्लिखित दायाद के रूप में एक पुत्री मात्र को छोड़कर निर्वसीयत मरता है तो वह द्वितीय वर्ग की प्रथम प्रविष्टि के दायाद, पिता की अधिमान्यता में उत्तराधिकार प्राप्त करेगी। धारा 9 इस प्रकार है
वर्ग (1) के दायाद एक साथ और अन्य सब दायादों को अपवर्जित करके अंशभागी होंगे। वर्ग 2 में प्रथम प्रविष्टि में के दायाद दूसरी प्रविष्टि में के दायादों की अपेक्षा अधिमान्य होंगे। द्वितीय प्रविष्टि में के दायादों को तृतीय प्रविष्टि में के दायादों की अपेक्षा अधिमान्यता प्राप्त होगी और इसी प्रकार से अन्य प्रविष्टि के लोग क्रम से अधिमान्य होंगे।”
वर्ग (1) में उल्लिखित दायादों की सूची-वर्ग (1) में उल्लिखित मृतक के दायादों की सूची इस प्रकार है–
(1) पुत्र।
(2) पुत्री।
(3) विधवा पत्नी।
(4) माता।
(5) पूर्व मृत पुत्र का पुत्र।
(6) पूर्व मृत पुत्र की पुत्री।
(7) पूर्व मृत पुत्री का पुत्र।
(8) पूर्व मृत पुत्री की पुत्री।
9. पूर्व मृत पुत्र की विधवा पत्नी।
10. पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र का पुत्र।
(11) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री।
(12) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की विधवा पत्नी।
उदाहरण
(1) एक हिन्दू पुरुष एक विधवा पत्नी तथा पिता को छोड़कर निर्वसीयत मर जाता है। विधवा पत्नी पिता को अपवर्जित करके समस्त सम्पत्ति की दायाद होगी।
(2) एक हिन्दू पुरुष निर्वसीयत एक माता तथा पिता को छोड़कर मरता है। माता वर्ग (1) की दायाद होने के कारण पिता को अपवर्जित करके समस्त सम्पत्ति को प्राप्त करेगी।
इन उपर्युक्त दायादों पर पृथक् रूप से प्रकाश डालना आवश्यक है क्योंकि वे समस्त दायाद एक निश्चित अर्थ में ही प्रयुक्त किये गये हैं
पुत्र-यहाँ “पुत्र” शब्द से तात्पर्य औरस तथा दत्तक दोनों प्रकार के पत्रों से है। दत्तक-पत्र दत्तक-ग्रहण के लिये जाने के बाद दत्तकग्रहीता के औरस पुत्र की भाँति स्थान प्राप्त कर लेता है और उसके समस्त सम्बन्ध नैसर्गिक परिवार से समाप्त हो जाते हैं। पुत्र के अन्तर्गत जारज पुत्र नहीं आते, दस विधि के अन्तर्गत कोई प्रास्थिति नहीं प्रदान की गई है। इसी प्रकार ‘सौतेला पत्र’ भी ‘पुत्र’
शब्द अर्थ में नहीं आता। गर्भस्थ पुत्र जो बाद में जीवित उत्पन्न होता है तथा संयुक्त परिवार-विभाजन र में उत्पन्न पुत्र इस अधिनियम के अन्तर्गत वही प्रास्थिति रखते हैं जो औरस पुत्र रखता है।
2) पुत्री-पुत्र की भाँति ही ‘पुत्री’ शब्द के अन्तर्गत औरस तथा दत्तक दोनों प्रकार की पुत्रियाँ दी हैं। साथ ही गर्भ में स्थित और बाद में जीवित उत्पन्न होने वाली पुत्री भी इसमें आती है। जारज मौतेली पुत्री इसके अन्तर्गत नहीं आती। उनको पिता की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का पुत्र की जति अधिकार प्राप्त है। पुत्री का अस्तित्व उसके दाय प्राप्त करने में बाधक नहीं होता।
उच्चतम न्यायालय ने रामेश्वरी देवी बनाम बिहार राज्य एवं अन्य के वाद में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पति अपनी पहली पत्नी के होते हुये किसी अन्य स्त्री से दूसरा विवाह रचाता है और उस विवाह के परिणामस्वरूप यदि उस स्त्री से उसको सन्तान उत्पन्न होती है तो ऐसी सन्तान वैध सन्तान मानी जायेंगी और वह हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 से 10 के अन्तर्गत पिता की सम्पत्ति में पहली पत्नी के सन्तान के साथ बराबर के हिस्सेदार होंगे यद्यपि कि उसका दूसरा विवाह हिन्दू विधि के अन्तर्गत शून्य माना जायेगा। प्रस्तुत वाद में “अ’ एक सरकारी नौकर था। उसने अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते हुये “ब’ नामक स्त्री से दूसरा विवाह रचाया जिससे उस स्त्री को चार सन्तानें उत्पन्न हुईं। कुछ समय पश्चात् “अ” की मृत्यु हो गयी। अ के मृत्योपरान्त उसके विधिक उत्तराधिकारियों ने पेंशन एवं ग्रेच्यूटी के लिये अपना दावा प्रस्तुत किया। अ की पहली स्त्री के विधिक उत्तराधिकारियों के साथ अ की दूसरी पत्नी के सन्तानों ने भी इस आशय का अपना दावा प्रस्तुत किया। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि अ की सम्पत्ति में उसकी पहली पत्नी की सन्तानों के साथ-साथ उसकी दूसरी पत्नी की सन्तानें भी बराबर की हिस्सेदार होंगी। न्यायालय ने इस वाद में यह भी स्पष्ट किया कि दूसरी पत्नी की अवयस्क सन्ताने पेंशन की राशि में तब तक बराबर का हिस्सा प्राप्त करेंगी जब तक वे सन्तान वयस्क न हो जायें।
(3) विधवा-विधवा से तात्पर्य मृतक की मृत्यु के समय विधित: पत्नी से है। यदि पत्नी मृत्यु के पूर्व ही पति को तलाक दे चुकी है तो पूर्व पति की मृत्यु के बाद वह विधवा नहीं होगी। किन्तु दाम्पत्य-अधिकारों की प्रस्थापना अथवा न्यायिक पृथक्करण की आज्ञप्ति दी गई पत्नी भी पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा होगी। उसका असतीत्व अथवा अनैतिक जीवन उसको दाय प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं कर देता। एक बार दाय निहित हो जाने पर उसका पुनर्विवाह उसको उससे पुनः अनिहित नहीं करता। दाय में प्राप्त सम्पत्ति की वह पूर्ण स्वामिनी हो जाती है।
पुन: लक्ष्मी बाई बनाम अनुसुष्या, के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विधवा शब्द के आशय को स्पष्ट करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि वह स्त्री जिसका विधिक विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ हो, अथवा विशेष विवाह अधिनियम के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ हो और उसका पति जीवित न हो। जहाँ उसका विवाह शून्य है उसका पति. जीवित नहीं है तो उक्त परिस्थिति में वह विधवा नहीं समझी जायेगी।
(4) माता-माता से तात्पर्य नैसर्गिक तथा दत्तकग्रहीता दोनों माता से है, किन्तु इसमें सौतेली माता नहीं आती। माता की सम्पत्ति में जारज पुत्र का भी हक होता है तथा जारज पुत्र में माता भी दाय प्राप्त करने की अधिकारिणी होती है। उसका असतीत्व एवं पुनर्विवाह उसको पुत्र से दाय प्राप्त करने के अधिकार को समाप्त कर देगा। माता दाय में प्राप्त सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जाती है।
(5) पूर्व मृत पुत्र का पुत्र-पूर्व मृत पुत्र का पुत्र औरस एवं दत्तक, दोनों एक ही कोटि में रख जाते हैं। पूर्व मृत पुत्र का पुत्र यदि जारज है तो दायाद नहीं हो सकता। कोई पौत्र पितामह के
1. ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 735–देखिये नागर थम्मा बनाम वेंकेट लक्षम्मा, ए० आई० आर० 2000 कर्नाटक 1811
2. ए० आई० आर० 2013 कर्नाटक 24.
जीवन-काल में दायाद नहीं हो सकता। यदि पितामह की मृत्यु के समय वह हिन्दू नहीं रह गया है। तो वह दाय प्राप्त करने का अधिकारी नहीं रह जाता।
(6) पूर्व मृत पुत्र की पुत्री-जिस प्रकार पुत्र को दाय प्राप्त करने के सम्बन्ध में अधिकार प्रदान किये गये है, उसी प्रकार पूर्व मृत पुत्र की पुत्री को भी अधिकार प्राप्त है। पूर्व मृत पुत्र की पुत्री को इस प्रकार के अधिकार तभी प्राप्त होते है जब कि उसके पिता की मृत्यु हो जाती है। पिता के जीवन-काल में उसे दायाद होने के अधिकार नहीं होते। यदि पितामह की मृत्यु के समय उसने धर्म-परिवर्तन कर लिया हो और हिन्दू न रह गयी हो तो पितामह से वह दाय नहीं ग्रहण कर सकती।
(7) पूर्व मृत पुत्री का पुत्र-पूर्व मृत पुत्री का पत्र, चाहे वह औरस हो अथवा दत्तक, अपनी माता के पिता का दायाद होता है। उसे जारज नहीं होना चाहिए। अपनी माता के जीवन-काल में वह दायाद नहीं होता। यदि माता दाय-ग्रहण के निर्योग्य है तो उस दशा में माता के जीवन काल में भी उसे दायाद होने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।
(8) पूर्व मृत पुत्री की पुत्री-पूर्व मृत पुत्री की पुत्री को दायाद होने का अधिकार उसी प्रकार प्राप्त है जिस प्रकार पूर्व मृत पुत्री के पुत्र को। पूर्व मृत पुत्री की पुत्री को अपनी माता के जीवन-काल में कोई अधिकार नहीं प्राप्त. होता।
(9) पूर्व मृत पुत्र की विधवा-पूर्व मृत पुत्र की विधवा को दायाद होने का अधिकार उसी प्रकार प्राप्त है जिस प्रकार विधवा को प्राप्त है। किन्तु अन्तर यह है कि यदि दाय प्राप्त करने के समय उसने पुनर्विवाह कर लिया है तो वह दाय नहीं प्राप्त कर सकती। श्वसुर की विधवा की तुलना में पुत्र की विधवा का दाय में अंश कम होता है।
(10) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र का पुत्र-पुत्र एवं पूर्व मृत पुत्र के सम्बन्ध में दाय के जो अधिकार हैं, उसी प्रकार के अधिकार पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र के पुत्र को प्राप्त हैं। प्रपत्र प्रपितामह का दायाद तब तक नहीं होता जब तक उसके पिता तथा पितामह जीवित हों।
(11) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री-दायाद के रूप में पौत्र की पुत्री की वही स्थिति होती है जो पुत्र के पुत्री की होती है।
(12) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की विधवा-पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की विधवा की स्थिति दायाद के रूप में वही होती है जो पूर्व मृत पुत्र की विधवा की होती है। यदि दाय प्राप्त करने के समय वह पुनर्विवाह कर लेती है अथवा हिन्दू नहीं रह जाती तो वह दाय प्राप्त करने से वंचित हो जाती है।
अनुसूची के वर्ग 1 के दायादों में सम्पत्ति का वितरण-धारा 10 के वर्ग 1 में उल्लिखित दायादों के अंश में आयी हुई सम्पत्ति का निर्धारण किया गया है। इस धारा में सम्पत्ति के वितरण के सम्बन्ध में चार नियम प्रदान किये गये हैं। धारा 10 इस प्रकार है-“निर्वसीयती की सम्पत्ति उसके दायादों में जो अनुसूची के वर्ग 1 में दिये गये हैं, निम्नलिखित नियमों के अनुकूल विभाजित की जायेगी
नियम 1 निर्वसीयत विधवा या यदि एक से अधिक विधवा हों तो सब विधवायें मिल कर एक अंश लेंगी।
नियम 2-निर्वसीयत के उत्तरजीवी पुत्र और पुत्रियाँ और माता प्रत्येक एक-एक अंश प्राप्त करेंगी।
नियम 3–निर्वसीयत के पूर्व मृत पुत्र या पूर्व मृत पुत्रियों में से प्रत्येक की शाखा में आने वाले दायाद मिलकर एक अंश लेंगे।
नियम 4-नियम 3 में निर्दिष्ट अंश का वितरण (i) पूर्व मृत पुत्र की शाखा में वर्तमान दायादों के बीच इस प्रकार किया जायेगा कि उसकी अपनी विधवा या विधवाओं को (मिलाकर) और उत्तरजीवी
पुत्र, पुत्रियों को समान प्रभाग प्राप्त हों, और उनके पूर्व मृत पत्रों की शाखा को वैसा ही प्रभाग प्राप्त
हो।
(ii) पूर्व मृत पुत्री की शाखा में आने वाले दायादों में वितरण इस प्रकार किया जायेगा कि उत्तरजीवी पुत्र और पुत्रियों को समान प्रभाग प्राप्त हो।
नियम 5-इस नियम के अनुसार निर्वसीयत की विधवा पत्नी एक अंश की हकदार है। जहाँ निर्वसीयत एक से अधिक विधवाओं को छोड़कर मरा है, वहाँ सभी विधवायें एक साथ एक अंश की हकदार होगी तथा यह एक अंश पुत्र अथवा पुत्री के अंश के बराबर होगा।
दृष्टान्त
(1) एक हिन्दू एक विधवा पत्नी को छोड़कर निर्वसीयत मर जाता है। विधवा पत्नी सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त करेगी।
(2) यदि उपर्युक्त दृष्टान्त में वह दो पत्नियों को छोड़कर मरता है, तो प्रत्येक विधवा आधा-आधा अंश प्राप्त करेगी।
(3) उपर्युक्त दृष्टान्त 2 में से वह यदि दो विधवाओं तथा एक पुत्र को छोड़कर मरता है तो दोनों विधवायें मिलकर 1/2 (आधा) अंश प्राप्त करेंगी जिसमें प्रत्येक विधवा 1/4 अंश की हकदार होगी और पुत्र 1/2 अंश प्राप्त करेगा। विधवा जो अंश प्राप्त करेगी, उसकी वह पूर्ण स्वामिनी होगी। दो अथवा दो से अधिक विधवायें सम्पत्ति को सह-आभागी के रूप में ग्रहण करेंगी न कि संयुक्त आभोगी के रूप में। नीलव्वा बनाम बसप्पा के मामले में दो सह-विधवाओं की सहदायिकी सम्पत्ति में अंश निर्धारित करते हुये कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि जहाँ कोई व्यक्ति दो विधवा, चार पुत्र तथा एक पुत्री को सहदायिकी सम्पत्ति में अपना अंश छोड़कर मर जाता है वहाँ उसके सहदायिकी सम्पत्ति के अंश को, जो वह छोड़कर मरता है, दोनों सह-विधवायें मिलकर एक अंश अन्य दायादों के साथ प्राप्त करेंगी अर्थात् जहाँ कोई पुरुष सहदायिकी सम्पत्ति में अपना अंश छोड़कर दो विधवाओं को, चार पुत्रों को तथा एक पुत्री को छोड़कर मरता है तो उस स्थिति में सहदायिकी सम्पत्ति में उसका अंश धारा 6 की व्याख्या (1) के अनुसार 11 माना जायेगा। इसी प्रकार प्रत्येक विधवा को 17 अलग-अलग तथा प्रत्येक पुत्रों को 1/7 अंश मिलेगा। अब 17 अंश को छ: भागों में इस अधिनियम के अनुसार बाँटा जायेगा अर्थात् दो सह-विधवायें मिलकर एक अंश=1/6 अंश प्रत्येक को 1/12 अंश तथा प्रत्येक पुत्रों को 1/6 अलग-अलग तथा पुत्री को 1/6 अंश। इस प्रकार 1/7 अंश का 1/6 अंश दोनों विधवायें मिलकर प्राप्त करेंगी फिर प्रत्येक उसमें बराबर बाँट लेंगे अर्थात् प्रत्येक विधवा को 1/84 अंश प्राप्त होगा। इस प्रकार प्रत्येक विधवा 1/7+1/84 अंश प्राप्त करेंगी तथा प्रत्येक पुत्र 1/7+1/42 अंश प्राप्त करेंगे तथा पुत्री 1/42 अंश प्राप्त करेगी।
यहाँ यह द्रष्टव्य है कि हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट, 1937 के अन्तर्गत प्रत्येक विधवा सहदायिक सम्पत्ति में पति के मर जाने के बाद अपने पुत्रों के साथ समान अंश की अधिकारिणी थी अतएव प्रारम्भ में उन्हें चार पुत्रों के साथ 1/7 अंश (प्रत्येक) पाने की अधिकारिणी हो गयी। काल्पनिक विभाजन, जो वर्तमान अधिनियम की धारा 6 के प्रथम स्पष्टीकरण में दिया गया है उसके अनुसार मृत पति को 17 अंश दिया गया।
1. ए० आई० आर० 1982 कर्ना० 126)