Site icon SscLatestNews.com

LLB Hindu Law Chapter 7 Post 3 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Chapter 7 Post 3 Book Notes Study Material PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों एक बार से आप सभी अभ्यर्थियो का स्वागत करते है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार पढ़ने जा रहे है |

सियत से पिता की मृत्यु हो जाने पर अपने अंश का दावा करने से अयोग्य नहीं हो जाती। अपने पिता माता से सम्पत्ति दाय में प्राप्त करने का उसका अधिकार आत्यन्तिक है वह सन्तानों की भाँति समान अंश प्राप्त करने की अधिकारिणी बनी रहती है।

इस प्रकार अनुसूची । के स्त्री दायाद की स्थिति में मतक का सहदायिकी सम्पत्ति में जो अंश होता है, वह इस वर्तमान अधिनियम के अनुसार विभाजित होगा।

रमेश वर्मा बनाम लाजेश सक्सेना के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी में कोई पुरुष हिन्दु अपनी पैतृक सम्पत्ति को छोड़कर मरता है,

और उसकी मृत्यु के समय अनुसूची के वर्ग (1) में विहित कोई पुत्री है चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, ऐसी सम्पत्ति में मृतक के और उत्तराधिकारियों के साथ उस विवाहिता पुत्री का भी बराबर का हिस्सा होगा।

सहदायिकी सम्पत्ति में वसीयती निर्वर्तन-वसीयती निर्वर्तन के सम्बन्ध में भी धारा 6 के परन्तक ने महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया है जिससे अविभक्त सहदायिक अविभक्त हक को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता है। यह प्रावधान मिताक्षरा विधि के पूर्णतया विरोध में है जहाँ इस प्रकार इच्छापत्र अथवा दान द्वारा हक नहीं निर्वर्तित किया जा सकता था।

मृत सहदायिकी के हक की संगणना (Computation)

व्याख्या 1-मिताक्षरा सहदायिकी में सहदायिक का हक निश्चित नहीं रहता। किन्तु मृत सहदायिक का यह बदलता हुआ हक न्यागमन के प्रयोजनों के लिए व्याख्या द्वारा निश्चित कर दिया गया है। उसका (मृत सहदायिक का) हक वही होगा जो कि वह अपनी मृत्यु के ठीक पूर्व विभाजन होने पर अपने अंश में प्राप्त करता, चाहे वह विभाजन का दावा करने का अधिकारी रहा हो या नहीं। व्याख्या में दी गई भाषा से यह आभास होता है कि यद्यपि मृतक के अंश को निश्चित करने के लिये काल्पनिक विभाजन की उपधारणा उसकी मृत्यु के पूर्व ही कर ली जाती है फिर भी इससे परिवार का गठन छिन्न-भिन्न नहीं होता। अंशों के निर्धारण में हिन्दू-विधि का साधारण नियम अनुवर्तित किया जाता है।

व्याख्या (1) वस्तुत: एक काल्पनिक विभाजन की उपधारणा को संनियोजित करती है। इस प्रकार का विभाजन ऐसे हक के उत्तराधिकार एवं संगणना के उद्देश्य से सोचा गया था जो अन्यथा उत्तरजीविता से न्यागत होता। इस विभाजन का उद्देश्य अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित नातेदारों के अंश को निश्चित करने के लिए है। इस धारा का मुख्य उद्देश्य सहदायिकी सम्पत्ति में मृतक के हित अथवा हक का न्यागमन है।

सुशीला रामचन्द्र बनाम नारायन राव गोपाल राव’ के वाद में बाम्बे उच्च न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि व्याख्या (1) के साथ परन्तुक का यह परिणाम है कि जहाँ परन्तुक में उल्लिखित दायादों में सहदायिक किसी एक को छोड़कर मरता है, वहाँ मृत सहदायिक का अंश इस उपधारणा तथा कल्पना के आधार पर निर्धारित किया जाता है, जैसे कि विभाजन उसकी मृत्यु के ठीक पूर्व ही कर लिया गया था। व्याख्या (1) यह निदेशित करती है कि इस प्रकार की विधिक कल्पना को इस बात के बावजूद भी प्रभावी किया जायेगा कि मृतक सहदायिक विभाजन करवाने का अधिकारी था या नहीं।

व्याख्या (1) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में मृत सहदायिक के अंश की मात्रा को निर्धारित करने का एक यन्त्र प्रदान करती है, किन्तु परन्तुक की भाषा में विभाजन परोक्ष रूप में अन्तर्निहित है। एक

1. मीनाक्षम्मा बनाम एम० सी० नानजूदप्पा, ए० आई० आर० 1993 कर्ना० 121

2. ए० आई० आर० 1998 मध्य प्रदेश, पृ० 461

3. ए० आई० आर० 1975 बा० 2571

काल्पनिक विभाजन, जो धारा 6 की व्याख्या (1) में उल्लिखित हैं, परन्तुक के साथ यह अर्थ देता है कि किसी मृत सहदायिक का संयुक्त परिवार में हित उत्तराधिकार से न्यागत होता है यदि उसने अपने उस हित का इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तन नहीं किया है। इस प्रकार का न्यागमन सूची 1 के दायादों पर ही होता है।

धारा 6 की व्याख्या (1) में काल्पनिक विभाजन पर गुरुपाद खन्दप्पा बनाम हीराबाई खन्दप्पा का महत्वपूर्ण निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया है। इस वाद के निर्णय से अब तक धारा 6 की व्याख्या (1) के सम्बन्ध में जो भी द्विविधा थी, समाप्त हो गई। हिन्दू विधि पर लिखी गई पुस्तकों के कुछ लेखकों ने उपर्युक्त व्याख्या के सम्बन्ध में दो मत व्यक्त किये हैं। एक मत के समर्थन में बाम्बे, उड़ीसा तथा गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय तथा दूसरी ओर दूसरे मत के समर्थन में इलाहाबाद, दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय किये गये हैं। किन्तु यह द्रष्टव्य है कि उपर्युक्त व्याख्या (1) का दो अर्थों में व्याख्या करना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि 1960 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 31 को संशोधित करके हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी अधिनियम, 1937 को पुनरुज्जीवित कर दिया गया है। अत: विधवा को उसके पति की मृत्यु के बाद काल्पनिक विभाजन के अनुसार सहदायिकी सम्पत्ति में एक निश्चित अंश प्रदान किया जायेगा। इलाहाबाद तथा दिल्ली उच्च न्यायालय ने कन्ट्रोल ऑफ इस्टेट डियूटी बनाम अनारी देवी तथा कन्हैया लाल बनाम जमुना देवी के वादों में विधवा को काल्पनिक विभाजन के अनुसार सहदायिकी सम्पत्ति में पति के साथ, पुत्रों के बराबर हिस्सा दिया है। विद्वान् लेखकों ने न तो हिन्दू विमेन्स प्रापर्टी अधिनियम, 1937 के प्रावधान के पुनरुज्जीवित होने की बात पर और न ही इलाहाबाद एवं दिल्ली उच्च न्यायालयों के समग्र निर्णय पर ध्यान देकर एक दूसरे मत का निरूपण किया। व्याख्या (1) को दो अर्थों में व्याख्या करने की गुञ्जाइश नहीं है। उपर्युक्त व्याख्या के विषय में दो मत व्यक्त करना भ्रमपूर्ण है। उच्चतम न्यायालय ने भी व्याख्या (1) का एक ही अर्थ माना है तथा दूसरे तथाकथित मत का खण्डन किया है। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के अनुसार धारा 6 की व्याख्या (1) के अन्तर्गत जब किसी सहदायिक की मृत्यु हो जाती है तो उसकी विधवा का सहदायिकी सम्पत्ति में हिस्सा निर्धारित करने के लिये यह उपधारणा की जायेगी जैसे कि उसके पति की मृत्यु के ठीक पूर्व ही विभाजन हो गया रहा हो और उसे एक निश्चित हिस्सा मिल गया हो और फिर मृत पति के सहदायिक हिस्से में पुनः वर्ग (1) में अन्य उत्तराधिकारियों के साथ बराबर हिस्सा पाने का अधिकार उत्पन्न हो जायेगा। इस मामले में तथ्य इस प्रकार हैं-खन्दप्पा की मृत्यु 1960 में हुई। उसने अपने पीछे अपनी विधवा स्त्री, दो पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ छोड़ी। सन् 1962 में उसकी विधवा पत्नी हीराबाई ने अपने हिस्से के लिये वाद दायर किया। उसका दावा यह था कि पति की मृत्यु के बाद धारा 6 की व्याख्या (1) में उल्लिखित काल्पनिक विभाजन के अनुसार यह मान लिये जाने पर कि विभाजन ठीक उसकी मृत्यु के पूर्व हो गया था, उसको पति के साथ सहदायिकी सम्पत्ति में सहदायिक के रूप में बराबर हिस्सा पाने का अधिकार होगा। इस नियम के अनुसार सम्पूर्ण सहदायिकी सम्पत्ति 4 भागों में अर्थात् प्रत्येक को 1/4 हिस्सा मिलेगा अर्थात् पति 1/4, दोनों पुत्र 1/4 प्रत्येक तथा वह (विधवा) स्वयं 1/4 भाग पायेगी। इसके बाद मृत पति के अंश की संगणना करके उसके 1/4 अंश को पुनः वर्ग (1) के सभी दायादों में बराबर-बराबर विभाजित कर दिया जायेगा अर्थात् कुल अंश 6 भागों में विभाजित होगा और 1/4 अंश का 1/6 भाग अर्थात् 1/24 भाग प्रत्येक दायाद को मिलेगा। इस प्रकार अंशों का सम्पूर्ण योग जो विधवा हीराबाई को प्राप्त होगा, इस प्रकार है-1/4+1/24=7/241

1. भारत ट्रेडिंग लि० बनाम पी० नचिदार अम्मल, ए० आई० आर० 1976 मद्रास 393।

2. ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 12391

3. ए० आई० आर० 1972 इला० 1791

4. ए० आई० आर० 1973 दि० 1601

5. गुरुपाद खन्दप्पा बनाम हीराबाई, ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 12391

Hindu-Law-Study-Material

पुत्र तथा पाँच प्रवियों को छोड़कर मरता है। अ की मृत्यु के समय सहदायिकी भग्न नहीं हुई थी। अ का सहदायिकी सम्पत्ति में अंश निर्धारित करने के लिए यह उपधारणा की गई कि जैसे उसके जीवन-काल में ही विभाजन हो गया था और उस दशा में उसको 1/4 भाग मिलता। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि सन् 1937 ई० में हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी ऐक्ट पास किया गया था जिसमें किसी विधवा को मृत पति की सम्पत्ति के सम्बन्ध में सहदायिक-जैसा अधिकार प्रदान कर दिया गया था जिससे वह अपने पुत्रों के साथ एक समान अंश की अधिकारिणी बना दी गई थी। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 उक्त 1937 के ऐक्ट को उसी रूप में स्वीकार करता है, अत: विधवा पत्नी को 1/4 तथा दोनों पुत्रों में से प्रत्येक को 1/4 भाग प्रदान किया गया। पुन: 1/4 जो मृत अ का अंश था, उसकी विधवा पत्नी, दो पुत्र एवं पाँच पुत्रियों में बाँट दिया गया और इस प्रकार प्रत्येक को 1/32 भाग प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्त में ब को 1/4+1/32=9/32 दोनों पुत्रों में से प्रत्येक को 1/4+1/32=9/32 तथा अन्य शेष दायादों को अर्थात् प्रत्येक पुत्री को 1/32 भाग प्रदान किया गया।

1937 में पास किये गये हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी ऐक्ट के अस्तित्व में बने रहने के ही आधार पर श्रीमती नीलव्वा बनाम भीमव्वा’ का मामला कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी इसी प्रकार निर्णीत किया है जिसमें एक संयुक्त परिवार में म, उसकी दत्तक-ग्रहीता माता ब तथा उसकी पत्नी न के बीच सम्पत्ति के न्यागमन का प्रश्न था। जब म की मृत्यु हो गई तो न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसका अपना अंश जो पूरी सम्पत्ति में 1/2 था उसकी दत्तकग्रहीता माता तथा पत्नी में बराबर न्यागत हो जायेगा अर्थात् प्रत्येक 1/4 अंश प्राप्त करेगी। इस प्रकार दत्तकग्रहीता माता ब 1/2+1/4=3/4 भाग तथा उसकी पत्नी केवल 1/4 अंश प्राप्त करेगी।

नम्बी नारायण राव बनाम नम्बी राजेश्वर राव के वाद में दत्त ग्रहीता पुत्र को अपने पिता के संयुक्त सहदायिक सम्पत्ति में 1/3 भाग का हिस्सेदार माना गया था। प्रस्तुत मामले में विधवा जो कि सहदायिक की पत्नी थी पति के मृत्योपरान्त उसने दत्तक ग्रहण में एक पुत्र लिया। जब उसके पति की मृत्यु हुयी तब 1956 का अधिनियम प्रभाव में नहीं था जिसकी वजह से विधवा को 1937 में पास किये गये हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट के अस्तित्व में बने रहने के आधार पर पति का अंश पत्नी को पूर्ण अधिकार सहित अन्तरित नहीं हुआ परन्तु उसे संयुक्त अंश धारक की भाँति 1937 के अधिनियम की धारा 3 में वर्णित शर्तों के अधीन सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त होगा।

कन्ट्रोलर ऑफ स्टेट ड्यूटी बनाम श्रीमती अनारी देवी के वाद में एक हिन्दू का अविभक्त परिवार था जिसमें ड तथा उसकी दो पत्नियाँ ‘त’ तथा ‘थ’ थी और एक पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ थीं। ड 1957 में मर गया और उसकी पत्नी त 1958 में मर गई। न्यायालय ने यह कहा कि त का अंश ङ्केपति से प्राप्त सहायी सति में 119 है। का अंसा सहदायिकी सम्पत्ति में 1/4 सास लिया जायेगा

और फिर 1/4 अंश, तीन पुत्रियाँ, एक पुत्र तथा दो पत्नियाँ मिलकर एक-एक अंश को ही प्राप्त करेंगी। इस प्रकार दोनों पत्नियों के हक को मिलाकर 1/20 अंश आया जिसमें प्रत्येक ने 1/40 अंश को प्राप्त किया। २० के० पत्तम्मल बनाम पी० के० कल्याणी के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई भी पैतृक सम्पत्ति का विभाजन उनके सहदायिकों के बीच होगा क्योंकि प्रत्येक सहदायिकी ऐसी सम्पत्ति में जन्म से अधिकारी होता है। तत्पश्चात् ऐसी विभक्त सम्पत्ति का विभाजन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 से 10 के अन्तर्गत किया जायेगा।

1. ए० आई० आर० 1982 कर्ना० 3071

2. ए० आई० आर० 2008 (एन० ओ० सी०) आ० प्र० 16061

3. ए० आई० आर० 1972 इला० 1791

4. ए० आई० आर० 2001 एन० ओ० सी० 58.

आर० लक्ष्मी व अन्य बनाम एन० तिलागवली व अन्य के वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि काल्पनिक विभाजन के अन्तर्गत हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक को जो सम्पत्ति दी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति पूर्ण सम्पत्ति में परिवर्तित हो जाती है और वह इस अधिनियम के प्रथम वर्ग की सूची के अन्तर्गत न्यागत होती है। इस वाद में न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया कि ऐसे व्यक्ति की स्वअर्जित सम्पत्ति का न्यागमन अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत होगा और ऐसी सम्पत्ति में पत्नी, पुत्रों एवं पुत्रियों का विभाजन में बराबर हिस्सा होगा।

सुभाष एकराव खाण्डेकर बनाम प्रज्ञा बाई मनोहर बिरादर’ के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अवैध सन्तानों को सहदायिकी सम्पत्ति में किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं प्राप्त होगा।

दृष्टान्त

विद्यावेन बनाम जगदीश चन्द्र नन्दशंकर’ का वाद इसी प्रकार का एक दूसरा उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस वाद के तथ्यों के अनुसार मृत सहदायिकी अपनी पत्नी. पत्र तथा चार पुत्रियों को छोड़कर मरता है। सहदायिकी सम्पत्ति में न्यायालय ने उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार मृत सहदायिक का 1/3 अंश निर्धारित किया। शेष 1/3 अंश पुत्र को तथा 1/3 अंश पत्नी को प्रदान किया हुआ माना गया। 1/3 अंश पत्नी को इसलिए मिला हुआ समझा जायेगा कि हिन्दू नारी के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1937 के अनुसार पत्नी को अपने पति तथा पुत्रों के साथ सहदायिकी सम्पत्ति में एक अंश समान रूप से पाने का हक प्रदान कर दिया गया था। अब मृत सहदायिक का कल्पित 1/3 अंश पुन: उसकी पत्नी, पुत्र तथा चार पुत्रियों में बराबर-बराबर विभाजित हो जायेगा। इस प्रकार उस 1/3 अंश में पत्नी को 1/18, पुत्र को 1/18 तथा प्रत्येक पुत्रियों को 3/18 अंश प्रदान किया जायेगा अर्थात् समस्त सहदायिकी सम्पत्ति में पत्नी 1/3+1/18 अंश, पुत्र 1/3+1/18 अंश तथा प्रत्येक पुत्री केवल 1/18 अंश प्राप्त करेगी।

व्याख्या 2–दृष्टान्त 2 तथा 3 से यह स्पष्ट हो जायेगा कि व्याख्या 2 में पुत्र को संयुक्त रहने की प्रेरणा प्राप्त होती है। अधिनियम में इस बात का ध्यान रखा गया है कि वह व्यक्ति पूरे सहदायिकी से अलग हो गया है और उसमें अपना अंश ले चुका है, अपने पिता की मृत्यु पर पुन: किसी हिस्से का दावा न कर सके तथा अविभक्त पुत्र के अपवर्जन में सम्पत्ति प्राप्त करे। मिताक्षरा सहदायिकी का विभाजन व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि यह व्याख्या तभी लागू होगी जबकि न्यागमन निर्वसीयती उत्तराधिकार के द्वारा सम्पन्न होगा। यह व्याख्या स्त्री दायादों के लिए लागू नहीं होगी, क्योंकि वे सहदायिक नहीं होती।

– आरेख 1

-ब (भाई)

क (पुत्र)

ख (पुत्री)

उपर्यक्त आरेख में अ तथा ब तथा क संयुक्त रूप से एक सहदायिकी का निर्माण करते हैं। अ के जीवन-काल में क सहदायिकी से अलग हो गया। बाद में अ की मृत्यु हो जाती है। अ की

1. ए० आई० आर० 2009 एन० ओ० सी० 270 मद्रास।

2. ए० आई० आर० 2008 बम्बई 461

3. ए० आई० आर० 1974 गु० 231

4. गिरजाबाई बनाम सदाशिव, 1919 पी० सी० 1041

LLB-Study-Material

(2) क तथा उसके पुत्र च, छ, ज एक मिताक्षरा सहदायिकी का निर्माण करते हैं, जिनमें 40,000 रु० की सम्पत्ति है। च, छ, ज तथा एक पुत्री म को छोड़कर क मर जाता है। यदि विभाजन मृत्यु के ठीक पूर्व हो जाता तो क को 1/4 अंश प्राप्त होता, अर्थात् 10,000 रु० का अंश सहदायिकी की सम्पत्ति में। यह अंश दायाद च, छ, ज तथा पुत्री म में धारा 10 के अनुसार समान रूप से विभाजित होगा। इस प्रकार म को सम्पूर्ण सम्पत्ति का 1/16 अंश प्राप्त होगा तथा च, छ, ज प्रत्येक को उसमें 1/16 अंश प्राप्त होगा, अर्थात् 2,500 रु० प्राप्त होगा। इस प्रकार च, छ, ज प्रत्येक को 10,000 रु०+2,500 रु० अर्थात् 12,500 रु० प्राप्त होगा तथा म को 2,500 रु० प्राप्त होगा।

(3) उपर्युक्त उदाहरण में यदि च क के जीवन-काल में अलग हो गया है और अपने अंश का 1/4, अर्थात् 10,000 रु० ले चुका है तो क की मृत्यु के बाद 3/4 अंश छ, ज तथा पुत्री म में विभाजित होगा, अर्थात् 30,000 रु० इन व्यक्तियों में विभाजित होगा, च को अपवर्जित किया जायेगा। छ, ज तथा म क के 1/3 अंश अथवा कुल सम्पत्ति के 1/4 अंश को ग्रहण करेंगे, अर्थात् क के 10,000 रु० के अंश में 3333 रु० 5 आना 4 पाई ज , छ तथा म प्रत्येक को अलग-अलग प्राप्त होगा। इस प्रकार छ का कुल अंश 10,000 रु०+3,333 रु० 5 आना 4 पाई, अर्थात् 13,333 रु० 5 आना 4 पाई तथा ज को 10,000 रु०+3,333 रु० 5 आना 4 पाई अर्थात् 13,333 रु० 5 आना 4 पाई तथा म को कुल 3,333 रु० 5 आना 4 पाई प्राप्त होगा। परिणामत: च को छ, ज से कम हिस्सा प्राप्त होता है, क्योंकि वह अलग हो गया था।

किन्तु जहाँ पिता अपने सभी पुत्रों से विभाजन के बाद अलग हो जाता है और बाद में निर्वसीयत मर जाता है वहाँ उसकी सम्पत्ति केवल उसकी विधवा पत्नी में ही नहीं न्यागत होगी। इस धारा की व्याख्या (2) के अनुसार यह नहीं कहा जा सकता है कि उसके वे पुत्र जो अलग हो गये हैं उस सम्पत्ति में हकदार नहीं होंगे। व्याख्या (2) में अलग न हुए पुत्र अलग हुए पुत्रों को दाय प्राप्त करने से अपवर्जित करते हैं किन्तु जहाँ सभी पुत्र अलग हो गये हैं वहाँ सभी समान हैं और ऐसी स्थिति में धारा 6 की व्याख्या (2) लागू नहीं होगी। पटना उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त विधि प्रतिपादना को उल्लिखित करते हुये एक मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पिता जो अपने सभी पत्रों से अलग हो गया था अपनी विधवा पत्नी, दो पुत्रियों, एक पुत्र तथा दो पूर्वमृत पुत्रों के दायादों को छोड़कर मरता है वहाँ पिता की सम्पत्ति सभी उपर्युक्त दायादों में बराबर-बराबर न्यागत हो जायेगी अर्थात् उसकी विधवा पत्नी एक अंश, उसकी प्रत्येक पुत्रियाँ एक-एक अंश, जीवित पुत्र एक अंश तथा दो मृत पुत्रों की सन्ताने एवं दायाद प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक समूह (Set) एक-एक अंश लेंगे। इस प्रकार सम्पूर्ण सम्पत्ति छ: अंशों में विभाजित होगी और प्रत्येक 1/6 अंश लेगा।

प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त-प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त हिन्दू विधि में यह अर्थ रखता है कि पुत्र, पौत्र जिसका पिता मर चुका है तथा प्रपौत्र जिसका पिता तथा पितामह मर चुका है, सभी एक होकर पैतृक पूर्वजों की स्वार्जित तथा पृथक् सम्पत्ति को एक साथ उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं। कारण यह है कि पौत्र अपने मृत पिता के अंश का प्रतिनिधित्व करता है तथा प्रपौत्र अपने मृत पिता तथा पितामह दोनों के हक का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतिनिधित्व का यह सिद्धान्त अनुसूची के वर्ग (1) में विहित सभी दायादों के लिये अनुवर्तित माना जायेगा। वे एक साथ अंश ग्रहण करेंगे, किन्तु वे उत्तरजीविता के अधिकार से सहदायिक के रूप में नहीं ग्रहण करेंगे न तो समान अंश में ग्रहण करेंगे।

अ एक पत्र ब को तथा पौत्र स जो पूर्वमृत य का पुत्र है, को छोड़कर मरता है। सहदायिकी सम्पत्ति ब तथा स को उत्तरजीविता से चली जायेगी। स अपने पिता य का प्रतिनिधित्व करेगा।

भाग पुरुष सेठ बनाम पूर्णी दी व अन्य, के मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि

1. सतनारायन महतो बनाम रामेश्वर महतो, ए० आई० आर० 1982 पटना 441

2. ए० आई० आर० 2003, एन० ओ० सी० 171 उड़ीसा।

जहाँ किसी संयक्त हिन्दू परिवार में कोई पुरुष उत्तराधिकार मौजूद नहीं है, अर्थात सभी की गयी हो और वहाँ केवल एक मात्र विवाहिता पुत्री ही मौजूद हो तो ऐसी स्थिति में सम्पर्ण सम्पत्ति पत्री को न्यागत होगी।

मिताक्षरा सहदायिकी में न्यागमन की रीति संशोधन

अधिनियम 2005 के पश्चात्

6. सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन (1) मिताक्षरा विधि द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार में हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 लागू होने के समय एक सहदायिक के रूप में पुत्री भी होगी।

(अ) जन्म से एक पुत्र की भाँति पुत्री अपने व्यक्तिगत अधिकार से सहदायिक होगी,

(ब) उसका उसी प्रकार से सहदायिक सम्पत्ति में अधिकार होगा जैसा कि उसे एक पुत्र की भाँति होता।

(स) एक पुत्र की भाँति ही सहदायिक सम्पत्ति के सम्बन्ध में दायित्वाधीन होगी। और हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का कोई भी सन्दर्भ एक सहदायिक पुत्र की भाँति सम्मिलित समझा जाएगा।

उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत यह प्राविधान है कि 20 दिसम्बर 2004 से पहले कोई प्रदाय या विक्रय जिसमें कोई बंटवारा अथवा किसी सम्पत्ति का दाय लिखत इस उपधारा में लिखित हो को प्रभावित अथवा अविधिक नहीं करेगा।

(2) इस अधिनियम अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के होते हुए भी उपधारा (1) के कारण कोई सम्पत्ति जिसकी हिन्दू स्त्री अधिकृत है वह सहदायिक स्वामित्व के किसी बिन्दु के कारण धारित करेगी और उसके द्वारा व संदाय लिखत को अन्तरित करने के लिए सक्षम है।

(3) जहाँ हिन्द्र उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 लागू होने के पश्चात् एक हिन्दू मरता है तो मिताक्षरा विधि से शासित उसकी संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में हित लिखत संदाय अथवा बिना उत्तराधिकार के जैसे भी हो, इस अधिनियम द्वारा न्यागत होगा न ङ्केकि उत्तराधिकार द्वारा और सहायिका सम्पत्ति विभाजित समझी जाएगी जैसा कि उस सम्पत्ति का विभाजन हो गया हो और

(अ) पुत्री को पुत्र की भाँति ही हिस्सा आबंटित होगा।

(ब) पूर्व में मृतक पुत्र अथवा पुत्री का हिस्सा, जैसा कि उनके जीवित होने की अवस्था में विभाजन के समय प्राप्त होता, उस पूर्व मृत पुत्र अथवा पुत्री के जीवित बच्चों को आवंटित होता, और।

(स) पर्व में मृत पत्र के पूर्व में मृतक बच्चा अथवा पूर्व मृत पुत्री का हिस्सा उस रूप में जैसा कि वह बच्चा प्राप्त करता अथवा जैसा कि विभाजन के समय वह जीवित होती वह अंश पूर्व मृत पुत्र अथवा पूर्व मृत पुत्री के पूर्व मृत बच्चे को आवंटित होगा।

स्पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए हिन्द्र मिताक्षरा सहदायिकी का हित सम्पत्ति में का वह अंश समझा जायगा जो उसे बंटवारे में मिलता यदि उसकी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किए बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार है या नहीं।

(4) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के पश्चात् न्यायालय

किसी भी ऋण के निष्पादन के लिए जो कि पिता, दादा परदादा के ऋणों की अदायगी के सम्बन्ध में हिन्दू विधि के अन्तर्गत पवित्र दायित्व के आधार पर पुत्र, पौत्र प्रपौत्र के विरुद्ध कोई भी संज्ञान नहीं लेगा।

परन्तु यह कि हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के पूर्व संविदात्मक किसी ऋण के सम्बन्ध में इस उपधारा में अन्तर्विष्ट को प्रभावित नहीं करेगा।

(अ) देनदार का पुत्र, पौत्र अथवा प्रपौत्र जैसी स्थिति हो, के विरुद्ध वाद संस्थित करने का अधिकार, या

(ब) किसी संतुष्टि अथवा किसी ऋण अथवा कोई ऐसा अधिकार या विक्रय जो इस सम्बन्ध में विक्रय किया गया हो वह पवित्र उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत किया गया हो यह उसी सीमा तक प्रभावी होगा मानों हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 अधिनियमित न किया गया हो, पर लागू होगा।

स्पष्टीकरण-अनुच्छेद (अ) के उद्देश्य के लिए अभिव्यक्ति “पुत्र”, “पौत्र” या “प्रपौत्र’, पुत्र, पौत्र अथवा प्रपौत्र जैसी कि स्थिति हो, जो हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के पूर्व उत्पन्न हुआ हो या गोद लिया गया हो, से सन्दर्भित समझा जाएगा।

(5) इस धारा में अन्तर्विष्ट कुछ भी ऐसे विभाजन के सम्बन्ध में नहीं लागू होगा जो 20 दिसम्बर 2004 के पूर्व प्रभावी हो चुका हो।’

स्पष्टीकरणइस धारा के उद्देश्य “विभाजन’ विभाजन का अर्थ ऐसा विभाजन है जो विभाजन के लिखत द्वारा निष्पादित किया गया हो तथा रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1908, के अन्तर्गत विधिवत पंजीकृत किया गया हो या न्यायालय की डिक्री द्वारा विभाजन किया गया हो।”

हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के पश्चात् की स्थिति-हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पारित होने के पश्चात् मिताक्षरा सहदायिक की अवधारणा उतनी प्रभावित नहीं हुयी जितना हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के पारित होने से हुयी। इस संशोधन के पश्चात् मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में एक नयी अवधारणा को जन्म दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप सहदायिक सम्पत्तियों में पुत्रियों को भी पुत्रों के समान पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा दे दिया गया। इस अधिनियम के द्वारा जो भी असमानतायें सम्पत्ति के सम्बन्ध में स्त्री और पुरुषों के बीच थीं वह पूरी तरह से समाप्त कर दी गयी, जिसकी वजह से हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 4 (2), धारा 6, धारा 23 व 24 तथा धारा 30 प्रभावित हुयी अर्थात् हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 के अन्तर्गत जो व्यवस्था मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति के सम्बन्ध में थी, इस संशोधन के पश्चात् धारा 6 कुछ सीमा तक प्रभावित हुई।

इस अधिनियम के पश्चात् किसी संयुक्त हिन्दू परिवार में ऐसी स्त्रियाँ स्वतः सहदायिक नहीं मानी जायेंगी बल्कि उन्हें पैतृक सम्पत्ति के विभाजन में पुत्रों के बराबर सम्पत्ति प्रदान की जायेगी, और इस अधिनियम के पश्चात् जो भी स्त्रीवर्ग के दायाद, ऐसे संयुक्त हिन्दू परिवार में जन्म लेंगी वे ऐसे परिवार की जन्मतः सहदायिक मानी जायेगी और उनको सहदायिकी सम्पत्ति में जन्मत: अधिकार होगा।

इस संशोधन अधिनियम के पश्चात् प्रत्येक स्त्री (पुत्री) को चाहे वह विवाहिता हो अथवा अविवाहिता हो उसको मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति के अन्तर्गत जन्म से अधिकार दे दिया गया और वह सम्पत्ति के विभाजन में पुत्रों के साथ समान भागिता के अन्तर्गत सम्पत्ति को धारण करेगी अर्थात् मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति के काल्पनिक विभाजन के सिद्धान्त को इस संशोधन के अन्तर्गत पूर्णतया समाप्त कर दिया गया और वे सारे अधिकार पुत्रियों को स्वत: अधिरोपित हो गये जो हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत पुत्रों को प्राप्त थे अर्थात् पुत्रों की भाँति पुत्रियों को भी अपनी पैतृक सम्पत्ति में बराबर की हिस्सेदारी होगी।

इस संशोधन अधिनियम के तहत हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 23 में भी महत्वपूर्ण संशोधन किये गये जिसके अन्तर्गत जो अधिकार पुत्रों को प्रदत्त थे वे सभी अधिकार पुत्रियों तथा विधवा

1. बृजनारायण अग्रवाल बनाम अनूप कुमार गोयल, ए० आई० आर० 2007 दिल्ली 2541

2. वैशाली सतीश गनोरकर बनाम सतीश केशवराव गनोरकर, ए० आई० आर० 2012 मुम्बई 101||

स्त्रियों को भी प्रदत्त कर दिए गए अर्थात् वे निवास के साथ-साथ ऐसी सम्पत्ति के बँटवारे की माँग कभी भी उठा सकती हैं और पैतृक सहदायिक सम्पत्ति का बँटवारा भी करा सकती हैं। इस संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत पुत्रियों को इस बात का भी अधिकार दिया गया कि वह अपने पिता के जीवन काल में ही सम्पत्ति विभाजन की माँग कर सकती हैं। इसके साथ ही हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 24 के अन्तर्गत जो व्यवस्थायें थीं उन्हें इस संशोधन के द्वारा पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। वर्तमान संशोधन के अन्तर्गत यदि विधवा स्त्री पुनः विवाह कर लेती है तो ऐसी स्थिति में वह अपने पूर्व पति की सम्पत्ति में हिस्सेदारी प्राप्त करने से वंचित नहीं होगी अर्थात् इस संशोधन अधिनियम का परिणाम यह हुआ कि वह अपने पूर्व पति के सम्पत्ति में अपनी सन्तानों के साथ बराबर से सम्पत्ति प्राप्त करने की अधिकारी होगी, इसके साथ ही पूर्व उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 30 में भी परिर्वतन किया गया और परिर्वतन के पश्चात् वसीयती उत्तराधिकार के सम्बन्ध में जो व्यवस्था पुत्रों के सम्बन्ध में थी वे सारी व्यवस्थायें पुत्रियों को भी प्रदत की गयीं।

डॉ० जी० कृष्णा मूर्ति बनाम भारत संघ, के वाद में न्यायालय के द्वारा यह अभिपुष्टि की गयी ङ्केकि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा असाथी 1 में जो परिवर्तन किया गया एवं उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 23 व 24 को समाप्त करने से तथा सहदायिक सम्पत्ति में पुत्रियों को विभाजन का अधिकार देने से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15(2), व 15(3) एवं अनुच्छेद 16 के माध्यम से लिंग-भेद को दूर करने के विचार से इस संशोधन को असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता है

और पुनः इस सन्दर्भ में बाबू डांगदू अंबरी बनाम बेबी, के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पूर्व जन्मी पुत्रियाँ भी पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने की अधिकारी होंगी और वह ऐसी सम्पत्ति के विभाजन के लिये भी न्यायालय में वाद ला सकती हैं।

वर्तमान उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 एवं पूर्व उत्तराधिकार अधिनियम 1956 को हम निम्न शीर्षों के अन्तर्गत अन्त:स्थापित कर सकते हैं।

स्त्रियों के सम्बन्ध में असंशोधित अधिकार व संशोधित अधिकार

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956

हिन्दू उत्तराधिकार संशोधित के अन्तर्गत

अधिनियम 2005 के अन्तर्गत कृषि भूमि के सम्बन्ध में धारा 4 (ii)

1956 के अधिनियम के अन्तर्गत कृषि भूमि जब कि संशोधित उत्तराधिकार अधिनियम से सम्बन्धित उत्तराधिकार के सम्बन्ध में राज्य 2005 के अन्तर्गत भूमि के सम्बन्ध में जो कि स्तरीय नियम लागू होते हैं न कि हिन्दू उत्तराधिकार राज्य स्तरीय नियम थे, तथा पुत्र एवं पुत्रियों के अधिनियम के अन्तर्गत। यह राज्य स्तरीय नियम बीच भेद उत्पन्न करते थे, उन्हें समाप्त कर दिया (कानून) पुत्र और पुत्रियों के बीच उत्तराधिकार के गया तथा पुत्र एवं पुत्रियों को समान रूप से कृषि सम्बन्ध में विभेद करते हैं।

भूमि में अधिकार प्रदान कर दिया गया।

मिताक्षरा संयुक्त परिवार सम्पत्ति, धारा 6

सूची के अन्तर्गत पुरुष एवं स्त्रियों के बीच इसमें कोई परिर्वतन नहीं किया गया मिताक्षरा संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति के बल्कि अनुसूची 1 के वर्ग 1 के सन्दर्भ में काल्पनिक विभाजन के अन्तर्गत विभेद किया गया उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में विवरण प्रस्तुत किया गया जिसके अन्तर्गत धारा 7 के द्वारा अनुसूची 1 के वर्ग 1 में पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत पुत्री

का पुत्र, पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत पुत्री की पुत्री,

1. ए० आई० आर० 2015, मद्रास 114.

2. ए० आई० आर० 2015 बम्बई एन० ओ० सी० 446..

पुत्रों को संयुक्त हिन्दू परिवार की पैतृक सम्पत्ति में जन्म से अधिकार था परन्तु पुत्रियों को इस सम्बन्ध में कोई अधिकार नहीं प्राप्त था।

पूर्व मृत पुत्री के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री, पूर्व मृत पुत्र की पूर्व मृत पुत्री की पुत्री का समावेश किया गया।

जब कि संशोधित उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत पुत्र एवं पुत्रियों को जन्म से सहदायिक सम्पत्ति में अधिकार स्वतंत्र रूप से प्रदत्त किया गया।

पैतृक निवास से सम्बन्धित अधिकार धारा 23

पूर्व अधिनियम के अन्तर्गत मृतक के परिवार के पुरुष दायादों को मृतक की सम्पत्ति में रहने अथवा विभाजन करने का अधिकार प्रदत्त था परन्तु पुत्रियों को केवल मृतकं की सम्पत्ति में रहने का ही अधिकार था, जिसमें केवल वे ही पुत्रियाँ जो कि अविवाहित हों, अथवा जिनका पति द्वारा अभित्याग कर दिया गया हो अथवा विधवा हो, अथवा पृथक रहती हो।

जब कि संशोधित अधिनियम के अन्तर्गत पूर्व अधिनियम की धारा 23 को समाप्त कर दिया गया है। अतः अब पुत्रियाँ चाहे वह विवाहित हों अथवा अविवाहित हों, उन्हें मृतक के पुत्रों के समान पैतृक सम्पत्ति में रहने एवं विभाजन का पूर्ण अधिकार प्रदत्त कर दिया गया है।

पुनः विवाहित विधवाओं के अधिकार : धारा 24

पुत्र की विधवा, पौत्र की विधवा, भाई की जब कि अधिनियम 2005 के द्वारा धारा विधवा, यदि उत्तराधिकार का सूत्रपात होने की 24 को समाप्त कर दिया गया है अत: पुत्र की तिथि में पुन: विवाहित है तो वह विधवा के रूप विधवा, पौत्र की विधवा, भाई की विधवा यदि में उत्तराधिकार पाने के लिये हकदार नहीं होगी। पुन: विवाहित है तो भी वह उत्तराधिकार पाने के लिये हकदार होगी।

वसीयती उत्तराधिकार : धारा 30

किसी पुरुष को इस बात का पूर्ण अधिकार था कि वह अपनी सम्पत्ति का अथवा संयुक्त हिन्दू परिवार में प्राप्त सम्पत्ति का वसीयत कर सकता जबकि अधिनियम 2005 के अन्तर्गत पुरुष के साथ ही साथ स्त्री को भी यह अधिकार प्रदान कर दिया गया है कि वह अपने पैतृक सम्पत्ति अथवा संयुक्त हिन्दू परिवार से प्राप्त सम्पत्ति में सम्पत्ति की वसीयत कर सकता है अथवा कर सकती है।

मृतक पुरुष के स्वअर्जित सम्पत्ति के सम्बन्ध में अनुसूची वर्ग-1 –

अनुसूची-वर्ग 1 में हिन्दू पुरुष के जबकि संशोधित अधिनियम 2005 के उत्तराधिकारियों की सूची के अन्तर्गत उसकी सन्तान अन्तर्गत इस सूची में परिर्वतन करते हुये पुत्रियों तथा उसकी सन्तानों के सन्तान (पुत्रों के सम्बन्ध की भी दो पीढ़ियों को भी सम्मिलित किया गया में) के सम्बन्ध में दो पीढ़ियाँ तथा पुत्रियों के जो कि पुत्र एवं पुत्रियों के बीच विभेद को सम्बन्ध में एक पीढ़ी तक के वर्गों को सम्मिलित समाप्त करते हैं। किया गया।

Follow On Facebook Page

Exit mobile version