UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material
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Chapter 5 पियाजे, कोहलबर्ग एवं वाइगोट्स्की | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 6 Study Material in Hindi
पियाजे का सिद्धान्त The Theory of Piaget
पियाजे के अध्ययनों का आधुनिक बाल-विकास विषय पर अधिक प्रभाव पड़ा है। उसने मनोवैज्ञानिकों का ध्यान विकास की अवस्थाओं तथा संज्ञान की महत्व की ओर आकर्षित किया है। पियाजे के सिद्धान्त के कुछ प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं
1. निर्माण और खोज (Construction & Invention) बच्चे उन व्यवहारों और विचारों की समय-समय पर खोज और निर्माण करते रहते हैं, जिन व्यवहारों और विचारों का उन्होंने कभी पहले प्रत्यक्ष नहीं किया होता है। पियाजे का विचार है कि ज्ञानात्मक विकास केवल नकल (Copying)न होकर खोज (Invention) पर आधारित है। नवीनता या खोज (Novelty or Invention) को उद्दीपक-अनुक्रिया सामान्यीकरण के आधार पर नहीं समझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक चार साल का बालक यदि भिन्नभिन्न आकार के प्यालों को प्रथम बार क्रमानुसार लगा देता है, तो यह उसके बौद्धिक वृद्धि की खोज और निर्माण से सम्बन्धित है।
2. कार्य क्रिया का अर्जन (Acquisition of Operation) ऑपरेशन का तात्पर्य उस विशिष्ट प्रकार के मानसिक कार्य (Mental Routine) से है जिसकी मुख्य विशेषता उत्क्र मणशीलता (Reversibility) है । पियाजे के अनुसार, जब तक बालक किशोरावस्था तक नहीं पहुँच जाता है तब तक वह भिन्न-भिन्न विकास-अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वर्गों के ऑपरेशन्स का अर्जन करता रहता है। एक विकास अवस्था से दूसरी विकास अवस्था में पदार्पण के लिए निम्न दो सिद्धान्त आवश्यक है
(सात्मीकरण (Assimilation) सात्मीकरण का अर्थ है—बालक में उपस्थित विचार में किसी नये विचार (Idea) या वस्तु का समावेश हो जाना। पियाजे का विचार (Idea) का अर्थ बालक के प्रत्यक्षात्मक गत्यात्मक समन्वय (Perceptual Motor Coordination’s) से है। प्रत्येक बालक में प्रत्येक आयु-स्तर पर कुछ-न-कुछ क्रियाओं या ऑपरेशन्स के सेट विद्यमान होते हैं। इन पुराने ऑपरेशन्स में नये विचार या क्रियाओं का समावेश हो जाता है।
(b)व्यवस्थापन तथा संतुलन स्थापित करना (Accommodationand Equilibration) • व्यवस्थापन का अर्थ नयी वस्तु या विचार के साथ समायोजन करना है या अपने विचारों और क्रियाओं को नये विचारों और वस्तुओं में फिट करना है। बालकों में बौद्धिक वृद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे वह नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करना सीखता है। मानसिक वद्धि में सात्मीकरण और व्यवस्थापन में उपस्थित अथवा उत्पन्न तनाव का हल (Resolution) निहित होता है।
बालक हर समय नयी घटनाओं या समस्याओं के साथ अपने को व्यवस्थापित करता रहता है, जिससे उसका बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार का व्यवस्थापन संतुलन (Equilibration) कहलाता है।
3. क्रमिक विकासात्मक अवस्थाएँ (Sequential Development Stages): पियाजे ने विकास की चार मुख्य अवस्थाओं का वर्णन किया है
a) संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory-Motor Period) यह जन्म से चौबीस महीने तक की अवस्था है। इस आयु में उसकी बुद्धि उसके कार्यों द्वारा व्यक्त होती है। उदाहरण के लिए—चादर पर बैठा बालक चादर पर पड़े दूर खिलौने को प्राप्त करने के लिए चादर को खींचकर खिलौना प्राप्त कर लेता है।
पियाजे के अनुसार यह एक बौद्धिक कार्य है। पियाजे ने सेन्सोरीमोटर अवस्था को पुनः निम्न छह अवस्थाओं में विभाजित किया है।
★ प्रतिवर्त्त क्रियाएँ (Reflex Activities) : यह जन्म से एक माह तक की अवस्था है।
प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Primary Circular Reactions) : यह एक से तीन माह तक की अवस्था है।
★ गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Secondary Circular Reactions): यह चार से छह माह तक की अवस्था है।
गौण प्रतिक्रियाओं का समन्वय (Co-ordination of Secondary Reactions): यह सात से दस माह तक की अवस्था है।
तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Tertiary Circular Reactions) : यह ग्यारह से अठारह माह तक की अवस्था है ।
★ अन्तिम अवस्था (Final Stage of this period): यह अवस्था वह है जो बालक लगभग चौबीस माह की आयु में प्राप्त करता है। 21वका
(b) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Period) यह दो से सात वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह नयी सूचनाओं और अनुभवों का संग्रह करता है। | वह पहली अवस्था की अपेक्षा अधिक समस्याओं का समाधान करने योग्य हो जाता है। | इस अवस्था में उसमे आत्मकेन्द्रिता (Egocentricity) का विकास होता है। इस अवधि के अन्त तक जब बालक में कुछ सामाजिक विकास उन्नत हो जाता है तब उसकी यह आत्मकेन्द्रिता कुछ कम होने लग जाती है।
पियाजे का विचार है कि छह वर्ष से कम आयु के बालकों में संज्ञानात्मक परिपक्वता का अभाव पाया जाता है। इस अभाव के कारण वह परम्परागत समस्याओं को तभी सीख पाते हैं जब उन्हें कुछ शिक्षण प्रशिक्षण दिये जाते हैं। साव KO) ठोस सक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational Period): यह अवस्था सात से ग्यारह वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह यह विश्वास करने लगता है कि लंबाई, भार तथा अंक आदि स्थिर रहते हैं। वह अनेक कार्यों की मानसिक प्रतिभा प्रस्तुत कर सकता है। वह किसी पूर्व और उसके अंश के संबंध में तर्क कर सकता है।
पियाजे द्वारा वर्णित विकासात्मक अवस्थाएँ एवं उससे सम्बन्धित उपलब्धियाँ
क्र | अवस्था तथा सन्निकट आयु | विचार | तत्संबन्धित उपलिब्धया |
1 | संवेदी पेशीय अवस्था | संवेदी पेशीय विचार | पूर्व-शाब्दिक, गतियो की पुनरावृत्ति प्रयत्न, मूल व्यवहार का आरम्भ, वस्तु स्थापित विव्त्वरोपण |
2 | संवेदी पेशीय अवस्था (2-7 वर्ष) | प्रिक्रमानात्म्क विकाह्र, अंत: प्रज्ञात्मक विचार | अहंकेन्द्रिता, नकल करने की प्रवृत्ति, प्रत्याक्षत्म्क तार्किक कल्पनात्मक खेल अस्थिर अनौपचारिक तार्किकता |
3 | ठोस संक्रियात्मक निगमनात्मक विचार | तर्क का अनुप्रोयोग करना, निश्कस्र्ष निकलना शाब्दिक परिकल्पना, आद्र्श्ताम्क चिंतन, दुसरो के साथ जुडकर कार्य करना स्मनुप्तिकता प्रस्भाव्य्ताव्दी एवं स्न्योजिकीय तार्किकता, अनौपचारिक सम्बन्ध | |
4 |
औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Period): यह अवस्था ग्यारह वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह परिकल्पनात्मक ढंग से समस्याओं पर विचार कर सकता है। वह अनेक ऑपरेशन को संगठित कर उच्च स्तर .. के ऑपरेशन का निर्माण कर सकता है और विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए अमूर्त नियमों का निर्माण कर सकता है।
पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ
क्र. | अवस्था | सन्निकट आयु | विशेषताएँ |
संवेदी-प्रेरक | 0-2 वर्ष | शिशु संवेदी अनुभवों का शारीरिक क्रियाओं के साथ समन्वय करते हुए संसार का अन्वेषण करता है। | |
2. | पूर्व-संक्रियात्मक | 2-7 वर्स | प्रतीकात्मक विचार विकसित होते हैं, वस्तु स्थायित्व उत्पन्न होता है, बच्चा वस्तु के विभिन्न भौतिक गुणों को समन्वित नहीं कर पाता है। |
3. | ठोस संक्रियात्मक | 7-11 वर्ष | बच्चा ठोस घटनाओं के संबंध में युक्तिसंगत तर्क कर सकता है और वस्तुओं को विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर सकता है। वस्तुओं की मानस प्रतिमाओं पर प्रतिवर्तनीय मानसिक संक्रियाएँ करने में सक्षम होता है। |
4. | औपचारिक संक्रियात्मक | 11-15 वर्ष | किशोर तर्क का अनुप्रयोग अधिक अमूर्त रूप से कर संक्रियात्मक सकते हैं, परिकल्पनात्मक चिन्तन विकसित होते हैं। |
लारस कोहलबर्ग का सिद्धांत Lawrance Kohlberg’s Theory
लॉरस कोहलबर्ग ने 10 से 16 वर्ष के बच्चों से प्राप्त तथ्यों का विश्लेषण करके सिद्धांत प्रतिपादित किया। कोहलबर्ग के अनुसार जब बालकों को नैतिक संघर्षों का सामना करना पड़ता है तो उनकी तार्किकता अधिक महत्वपूर्ण होती है न कि अन्तिम निर्णय। कोहलबर्ग ने धारणा बनायी की बालक अपनी विकास की अवस्था में तीन स्तरों से गुजरकर अपनी नैतिक तार्किकता की योग्यताओं को विकसित कर पाते हैं। जो निम्नलिखित है
(a) प्राकरूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Preconventional Level) यह अवस्था 4 वर्ष से लेकर 10 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्था में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है, न कि सही तथा गलत के अपने आंतरीकृत मानकों (Internalized Standards) के द्वारा । बच्चे यहाँ किसी भी व्यवहार को अच्छा या बुरा, उसके भौतिक परिणामों के आधार पर कहते हैं। इसके अंतर्गत दो अवस्थाएँ होती हैं
(i) दंड एवं आज्ञाकारिता उन्मुखता (Punishment and Obedience Orientation) इस अवस्था के बच्चों में दंड से दूर रहने का अभिप्रेरण अधिक मजबूत होता है। इस अवस्था में बच्चे प्रतिष्ठित या शक्तिशाली व्यक्ति, प्रायः माता पिता के प्रति सम्मान दिखलाता है ताकि उसे दंड नहीं मिल सके। किसी भी कार्य या व्यवहार की नैतिकता को यहाँ व्यक्ति उसके भौतिक परिणामों के रूप में परिभाषित करता है।
(ii) साधनात्मक सापेक्षवादी उन्मुखता (Instrumental Relativist Orientation) – इस अवस्था में यद्यपि बच्चे पारस्परिकता तथा सहभागिता के स्पष्ट सबूत प्रदान करते – हैं। यह छलयोजित (Manipulative) तथा आत्म परिपूरक पारस्परिकता (Self-Serving Reciprocity) होती है न कि सही अर्थ में न्याय, उदारता, सहानुभूति पर आधारित है। यहाँ अदला बदली (Bartering) का भाव मजबूत होता है।
(b) रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Conventional Morality): यह अवस्था 10 से 13 साल की होती है जहाँ बच्चे दूसरों के मानकों (Standards) को अपने में आंतरीकृत कर लेता है तथा उन मानकों के अनुसार सही तथा गलत का निर्णय करता है। – इस स्तर पर बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है। इसकी अवस्थाएँ (Stages) इस प्रकार हैं
उत्तम लड़का अच्छी लड़की की उन्मुखता (Good Boy-Nice Girl Orientation) इस अवस्था में बच्चों में स्वीकृति पाने तथा अस्वीकृति (Disapproval) से दूर रहने का अभिप्रेरण तीव्र होता है।
(c) उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Post Conventional Morality): इस अवस्था में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest Level) होता है और इसमें नैतिकता (True Morality)का ज्ञान बच्चों में होता है। इसके तहत दो अवस्थाएँ (Stages) होती हैं, जो इस प्रकार हैं-
(1) सामाजिक अनुबंध उन्मुखता (Social Contract Orientation) : इस अवस्था में बच्चे या किशोर उन वैयक्तिक आधार (Individual Rights) तथा नियमों का आदर करते हैं, जो प्रजातांत्रिक रूप से (Democratically) मान्य होता है। वे यहाँ लोगों के कल्याण तथा बहुसंख्यकों के इच्छाओं का तर्कसंगत महत्व देते हैं। यहाँ बच्चे यह विश्वास करते हैं कि समाज का उत्तम कल्याण तब होता है जब उसके सदस्य समाज के नियमों का आदरपूर्वक पालन करते हैं।
(ii) सार्वत्रिक नीतिपरक सिद्धांत उन्मुखता (Universal Ethical Principle Orientation) : इस अवस्था में बच्चों में अपने नैतिक नियमों (Ethical Principles) को प्रोत्साहित करने तथा आत्म-निंदा (Self-Condemnation) से बचने का अभिप्रेरण तीव्र होता है। यह उच्चतम सामाजिक स्तर का उच्चतम अवस्था (Highest Stage) होता है, जहाँ किशोरों में सार्वत्रिक नैतिक नियम (Universal Ethical Principles) की नैतिकता बरकरार रहती है।
यहाँ किशोर दूसरों के विचारों तथा नैतिक प्रतिबंधों (Legal Restrictions)से स्वतंत्र होकर अपने आंतरिक मानकों (Internal Standards) के अनुरूप व्यवहार करता है|
कोहलबर्ग के सिद्धांत की सीमाएँ (Limitation of Kohlberg Theory) : कोहलबर्ग द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की सीमाएँ निम्नलिखित हैं–
(i) इस सिद्धांत की सबसे प्रमुख सीमा है कि इसमें वास्तविक व्यवहार की अवस्था की अपेक्षा तार्किकता पर अधिक ध्यान दिया गया है।
(ii) यह एक सामान्य अन्वेषण है इसमें प्रत्येक अवस्था के बालक के आस-पास जब प्रेक्षक न हो तो वे अपने सम-आयु वर्ग की नकल करते हैं या उन्हें उत्तर बताते हैं या प्रेक्षक प्रत्येक बालक को ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित करता है और बेईमानी से व्यवहार करने वाले कुछ बालकों को हतोत्साहित कर सकता है। यह दर्शाता है कि एक बालक का नैतिक व्यवहार बहुत कमजोर हो सकता है।
(iii) कोहलबर्ग का सिद्धांत वास्तव में बहुत सीमित है क्योंकि बालक विभिन्न अवस्थाओं में अपने नैतिक निर्णयों के लिए काफी सीखते हैं लेकिन उनके कार्यों में विभिन्नता होती है। भारतीय दार्शनिक तथा शिक्षाशास्त्रियों का विश्वास है कि मूल्य व्यक्ति का एक अंग होना चाहिए, उसकी तार्किकता तथा निर्णय-निर्माण ऐसा हो कि वह अपने मूल्यों के साथ खुश रह सके।
वाइगोट्स्की के विकास का सिद्धांत Vygostsky Development Theory
वाइगोट्स्की के सिद्धांत के अनुसार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारको (Social Factors) एवं भाषा (Language) का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए वाइगोट्स्की । के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत भी कहा जाता है।
वाइगोट्स्की के अनुसार, वास्तव में संज्ञानात्मक विकास एक अंतर्वैयक्तिक सामाजिक परिस्थिति (Interpersonal Social Context) में संपन्न होता है, जिसमें बच्चों को अपने वास्तविक विकास के स्तर (Level of Actual Development) (अर्थात जहाँ
तक वे बिना किसी मदद के अपने ही कोई कार्य कर सकते हैं) से अलग तथा उनके संभाव्य विकास के स्तर (Level of Potential Development) (अर्थात जिसे वे सार्थक एवं महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सहायता से प्राप्त करने में सक्षम हैं) के तरफ ले जाने की कोशिश की जाती है। इन दोनों स्तरों के बीच के अंतर को वाइगोट्स्की ने समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development or ZPD)कहा है।
समीपस्थ विकास का क्षेत्र से तात्पर्य बच्चों के लिए एक ऐसे कठिन कार्यों की दूरी (Range) से होता है, जिसे वह अकेले नहीं कर सकता है लेकिन अन्य वयस्कों तथा कुशल सहयोगियों (Skilled Peers) की मदद से उसे किया जा सकता है।
वाइगोट्स्की ने संज्ञानात्मक विकास में बच्चों की भाषा एवं चिन्तन को भी महत्वपूर्ण साधन बतलाया है। इनका मत है कि छोटे बच्चों द्वारा भाषा का उपयोग सिर्फ सामाजिक संचार (Social Communication) के लिए नहीं किया जाता है बल्कि इसका उपयोग वे लोग अपने व्यवहार को नियोजित एवं निदेशित करने के लिए भी करते हैं। जब आत्म-नियमन (Self-Regulation) के लिए भाषा का उपयोग किया जाता है, तो इसे आंतरिक भाषण (Inner Speech) या निजी भाषण (Private Speech) कहा जाता है।
वाइगोट्स्की के निकट विकास क्षेत्र (ZPD) में खेल का महत्व
वाइगोट्स्की का मत था कि खेल बच्चों को अपने व्यवहार पर नियन्त्रण की क्षमता देने वाला मानसिक उपकरण है। खेल में जो कल्पित स्थितियाँ खड़ी की जाती हैं, वे बच्चे के व्यवहार को एक खास तरह से नियन्त्रित करने वाली और दिशा देने वाली प्रथम बाधाएँ हैं। खेल व्यवहार को संगठित करता है।
विकास में खेल के महत्व के बारे में वाइगोट्स्की का दृष्टिकोण समन्वयकारी था। इनका मत था कि खेल संज्ञानात्मक, भावात्मक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देता है।
खेल के विकास संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के अलावा स्कूल संबंधी कौशलों को भी लाभ पहुँचाते हैं। अधिगम की अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल के दौरान बच्चों के मानसिक कौशल उच्चतर स्तर पर होते हैं। वाइगोट्स्की ने इसे निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के उच्चतर स्तर की तरह पहचाना है। वाइगोट्स्की के अनुसार खेल विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है
(a) खेल कार्यों और वस्तुओं को विचार से अलग करने का काम करता है।
(b) खेल आत्मनियन्त्रण के विकास में सहायक होता है।
(c) खेल बच्चे के निकट विकास क्षेत्र का निर्माण करता है।
निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के निर्माण में खेल का महत्व
वाइगोट्स्की का मत था कि ‘खेल’ बच्चों के लिए निकट विकास क्षेत्र का निर्माण भी करता है। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित है-
वाइगोट्स्की के अनुसार अधिगम तथा अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल में की गई नयी विकासमान दक्षताएँ पहले प्रकट होती हैं। अतः चार साल की उम्र में बालक की आगामी सम्भावनाओं की भविष्यवाणी के लिए खेल जितना उपयुक्त है उतना अक्षर पहचानने जैसी अकादमिक गतिविधियाँ नहीं।
खेल में विकास की सारी प्रवृत्तियाँ सारभूत रूप से मौजूद होती हैं। इसमें बालक अपने सामान्य स्तर से ऊपर छलांग लगाने को तत्पर रहता है।
खेलने के लिए बालक जिस मानसिक प्रक्रिया में संलग्न (Attached) होता है वह निकट विकास क्षेत्र की रचना करती है। बच्चा निकट विकास क्षेत्र के उच्चतर स्ता पर काम कर सके इसके लिए कल्पित स्थितियों से प्राप्त भूमिकाएँ नियम तथा प्रेरणा सहायक सिद्ध होते हैं।
परीक्षोपयोगी तथ्य
जीन पियाजे (Jean Piaget) ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) को चार अवस्थाओं में बाँटा है संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage) (जन्म से 24 महीन) प्रासंक्रियात्मक अवस्था Preoperational Stage) (2 वर्ष से 7 वर्ष) ठोस संक्रियात्मक की अवस्था (Stage of Concrete Operation) (7 वर्ष से 12 वर्ष) औपचारिक सक्रियात्मक अवस्था (Stage of Formal Operation): (12 वर्ष से वयस्कावस्था)
पियाजे के सिद्धांत के संप्रत्ययों (Concepts) में अनुकूलन (Adaptation), संरक्षण (Conservation), साम्यधारण (Equilibration), स्कीम्स (Schemes), स्कीमा > (Schema) तथा विकेंद्रण (Decentring) प्रमुख है। पियाजे ने संवेदी पेशीय अवस्था को छह उप-अवस्थाओं में विभाजित किया है प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Activities)- जन्म से 30 दिन प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
1 महीने से 4 महीने गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
4 से 8 महीने गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था
8 महीने से 12 महीने तृतीय वृतीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
12 महीने से 18 महीने
मानसिक संयोग द्वारा नये साधनो की खोज की अवस्था
18 महीने से 24 महीने
पियाजे ने प्राकसक्रियात्मक अवस्था को दो भागों में बाँटा है प्राकसंप्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual Period) तथा अंतर्दशी अवधि (Intuitive Period)|
प्राकम्प्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual Period)2 वर्ष से 4 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता (Signifiers) विकसित कर लेते हैं।
अन्तर्दशी अवधि (Intuitive Period) 4 वर्ष से 7 वर्ष की होती है। इस अवधि में बालकों का चिंतन एवं तर्कणा (Reasoning) पहले से अधिक परिपक्व (Mature हो जाते हैं।
ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of Concerte Operation)7 वर्ष से 12 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में बालक ठोस वस्तुओं के आधार पर आसानी से मानसिक संक्रियाएँ (Mental Operations) करके समस्या का समाधान कर लेता है।
औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of Formal Operations) 11 वर्ष से प्रारंभ होकर वयस्कावस्था (Adulthood) तक चलती है।
कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं और इन अवस्थाओं का क्रम निश्चित होता है। ये अवस्थाएँ हैं
★ प्रारूढ़िगत नैतिकता का स्तर (4 वर्ष से 10 वर्ष) * रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (10 वर्ष से 13 वर्ष)
★ उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर
प्रारूढ़िगत नैतिकता स्तर में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है। बच्चे किसी व्यवहार को अच्छा या बुरा उसके भौतिक परिणामों के आधार पर करते हैं।
रूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है।
उत्तररूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest वाइगोट्स्की (Vygostsky) ने बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों एवं भाषा को महत्वपूर्ण बतलाया है।
वाइगोट्स्की के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत (Socio-Cultural Theory) भी कहा जाता है।
वाइगोट्स्की ने वास्तविक विकास के स्तर तथा संभाव्य विकास के स्तर के बीच के अंतर को समीपस्थ विकास का क्षेत्र (ZPD) कहा है।
* पाठ्यक्रम छात्रों की रुचि के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी होना चाहिए।
वातावरण के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम राष्ट्रीय भावनाओं को विकसित करने वाला होना चाहिए। पाठ्यक्रम समाज की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम बालकों के मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए।
★ पाठ्यक्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान रखना चाहिए ।
प्रगतिशील शिक्षा Progressive Education
जॉन डीवी (John Devey) का प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा के विकास में विशेष योगदान रहा है। जॉन डीवी संयुक्त राज्य अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक थे। प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा इस प्रकार है—शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का विकास है।
> प्रगतिशील शिक्षा यह सूचना प्रदान करता है कि शिक्षा बालक के लिए है बालक शिक्षा के लिए नहीं, इसलिए शिक्षा के उद्देश्य से ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए, जिसमें प्रत्येक बालक को सामाजिक विकास का पर्याप्त अवसर मिले। प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य जनतंत्रीय मूल्यों की स्थापना है।
प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत बालक में जनतंत्रीय मूल्यों का विकास किया जाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा हमें ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए जिसमें व्यक्ति व्यक्ति में कोई भेद न हो, सभी पूर्ण स्वतंत्रता और सहयोग से काम करें ।
प्रत्येक मनुष्य को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुसार विकसित होने का अवसर मिले, सभी को समान अधिकार दिये जाएँ। ऐसा समाज तभी बन सकता है, जब व्यक्ति और समाज के हित में कोई मौलिक अन्तर न माना जाय । शिक्षा के द्वारा मनुष्य में परस्पर सहयोग और सामंजस्य की स्थापना होनी चाहिए।
प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षण विधि को अधिक व्यावहारिक करने पर बल दिया जाता है।
जॉन डीवी ने प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है. रुचि और प्रयास । अध्यापक को बालक की स्वाभाविक रुचियों को समझकर उसके लिए उपयोगी कार्यों की व्यवस्था करनी चाहिए। बालक को स्वयं कार्यक्रम बनाने का अवसर दिया जाना चाहिए। डीवी के शिक्षा पद्धति संबंधी स्वयं कार्यक्रम के विचारों के आधार पर प्रोजेक्ट प्रणाली का जन्म हुआ।
इसके अन्तर्गत बालक को ऐसे काम दिये जाने चाहिए, जिनसे उनमें स्फूर्ति, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और मौलिकता का विकास हो। प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसके अनुसार शिक्षक समाज का सेवक है। उसे विद्यालय में ऐसा वातावरण निर्माण करना पड़ता
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