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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bal Vikas ke Siddhant in Hindi PDF Download
बाल विकास के सिद्धांत | UPTET Chapter 2 Bal Vikas ke Siddhant Study Material in Hindi
बाल विकास (Child Development): बाल विकास का अध्ययन करने के लिए ‘विकासात्मक मनोविज्ञान’ की एक अलग शाखा बनायी गयी, जो बालकों के व्यवहारों का अध्ययन गर्भावस्था से होकर मृत्युपर्यंत करती है। परंतु वर्तमान समय में इसे ‘बाल विकास’ (Child Development) में परिवर्तित कर दिया गया।
हरलॉक (Hurlock) ने इस संबंध में कहा है कि “बाल मनोविज्ञान का नाम बाल विकास इसलिए रखा गया क्योंकि विकास के अंतर्गत अब बालक के विकास के समस्त पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, किसी एक पक्ष पर नहीं।
विभिन्न विद्वानों ने बाल विकास को निम्न प्रकार से परिभाषित किया हैक्रो और क्रो (Crow & Crow, 1958) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान वह वैज्ञानिक अध्ययन है जो व्यक्ति के विकास का अध्ययन गर्भकाल के प्रारंभ से किशोरावस्था की प्रारंभिक अवस्था तक करता है।
जेम्स ड्रेवर (James Drever, 1968) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें जन्म से परिपक्वावस्था तक विकसित हो रहे मानव का अध्ययन किया जाता है।
आइजनेक (Eysenck, 1972) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान का संबंध बालक में मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के विकास से है। गर्भकालीन अवस्था, जन्म, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था और परिपक्वावस्था तक के बालक की मनोवैज्ञानिक विकास प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
हरलॉक (Hurlock, 1978) के अनुसार, ‘बाल विकास मनोविज्ञान की वह शाखा है जो गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यंत तक मनुष्य के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होनेवाले परिवर्तनों का अध्ययन करता है।
उपयुक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि बाल विकास बाल मनोविज्ञान की ही एक शाखा है जो बालकों के विकास, व्यवहार, विकास को प्रभावित करनेवाले विभिन्न तथ्यों का अध्ययन करता है।
‘बाल मनोविज्ञान तथा बाल विकास में अंतर यह है कि बाल मनोविज्ञान बालक की क्षमताओं का अध्ययन करता है जबकि बाल विकास क्षमताओं के विकास की दशा का अध्ययन करता है। बाल मनोविज्ञान दो शब्दों से मिलकर बना है। बाल + मनोविज्ञान । ‘बाल’ का अर्थ है बालक अर्थात वह प्राणी जो प्रौढ़ की श्रेणी में नहीं आया, हो उसे बालक की श्रेणी में रखा जाता है। मनोविज्ञान से अभिप्राय मन के विज्ञान से है। अतः बाल मनोविज्ञान से तात्पर्य विज्ञान की उस शाखा से है जो बालकों के मन (व्यवहारों का अध्ययन गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक करता है।
बाल विकास की प्रकृति Nature of Child Development
बाल विकास की प्रकृति निम्नलिखित है-
मनोविज्ञान की एक विशिष्ट शाखा के रूप में बाल विकास (Child De as a Special Branch of Psychology): मनोविज्ञान में विभिन्न प्रकार के के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। व्यवहार में कई प्रकार (Aspects) तथा कई आयाम (Dimensions) होते हैं। > बाल विकास मनोविज्ञान की एक महत्वपूर्ण, उपयोगी तथा समाज और गा कल्याणकारी शाखा है ।
मनोविज्ञान की शाखा में केवल मानव-व्यवहार का किया जाता है। गर्भकालीन अवस्था से लेकर युवावस्था तक के विकासशील – के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इस अवस्था में मानव-व्यवहार के विकास तथा विभिन्न आयु-स्तरों पर भी विभिल व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। यहाँ विकास का अर्थ है—मानव की जैविक संरचना (Biological Structure) तथा मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं (Psychological Processes) में होनेवाले क्रमिक परिवर्तन।
2. मनोविज्ञान में विशिष्ट उपागम के रूप में बाल विकास विषय (Child Development as a Special Approach in Psychology): मानव व्यवहारों के अध्ययन के लिए बाल विकास में कई विशिष्ट उपागम या विचार-पद्धतियों का उपयोग किया जाता है। ये उपागम निम्नलिखित हैं
(a) प्रयोगात्मक उपागम (Experimental Approach) : इस उपागम के द्वारा बाल विकास की विभिन्न समस्याओं के अध्ययन में कार्य-कारण संबंध (Cause & Effect Relationship) को जानने का प्रयास किया जाता है। > इस उपागम के द्वारा एक विशिष्ट व्यवहार किस परिस्थिति में उत्पन्न होता है या एक परिस्थिति-विशेष में व्यक्ति किस प्रकार के व्यवहार की अभिव्यक्ति करेगा, यह अध्ययन किया जा सकता है।
(b) दैहिक उपागम (PhysiologicalApproach) : नाड़ी संस्थान (Nervous System) प्राणी के शरीर की संपूर्ण क्रियाओं को नियंत्रित करता है। ये क्रियाएँ शारीरिक भी हो सकती हैं और मनोवैज्ञानिक भी। > शारीरिक वृद्धि, विकास और स्वास्थ्य मुख्यतः हार्मोन्स और ग्रंथियों की क्रियाशालता
से संबंधित होता है। बाल विकास को दैहिकशास्त्र (Physiology) के ज्ञान कर भी समझा जा सकता है, क्योंकि जैविक आत्म (Biological Self) तथा मान आत्म (Psychic Self) एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं। गर्भकालीन शिशु और शिशुओं के व्यवहार से संबंधित समस्याओं का समाधान मुख्य रूप से इस उपागम द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
( विकासात्मक उपागम (Developmental Approach): बाल विकार समस्याओं के अध्ययन के लिए विकासात्मक उपागम भी अपनाया जाता है। उपागम को अपनाने का मुख्य कारण यह है कि जब बालक एक नयी विकास अवस्ता
में पहुँचता है तब उसमें कुछ नई रुचियों, कुछ नई अभिवृत्तियों, कुछ नये लक्षणों, कुछ नये शील-गुणों का एक विशिष्ट समूह (Cluster) निर्मित होता है। इस प्रकार के विशिष्ट समूह कई अवस्थाओं में देखे जा सकते हैं। विकासात्मक उपागम (Approach) के द्वारा विकास की मात्रा, गति और विकास की विशिष्टताओं आदि की जानकारी अलग-अलग तथा सम्पूर्ण रूप में होती है।
(d) व्यक्तित्व-संबंधी उपागम (Personality Approach): किसी बालक का व्यवहार उस बालक के किसी-न-किसी पहलू को अभिव्यक्त करता है। जन्म से ही व्यक्तित्व का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों का व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता है। > व्यक्तित्व के शीलगुणों (Traits) की स्थिरता व्यक्तियों के समायोजन, अभिवृत्तियों
और आदतों आदि के निर्माण से संबंधित होता है। > अतः व्यक्तित्व के शील-गुणों के आधार पर व्यक्ति के समायोजन, अभिवृतियों और
आदतों आदि के संबंध में भविष्यवाणी की जा सकती है। (e) एक विशिष्ट अध्ययन प्रणाली के रूप में बाल विकास (Child Development as a Special Study Approach): बाल विकास बाल मनोविज्ञान का ही एक विकसित रूप है, जिसकी अपनी विशिष्ट अध्ययन-प्रणाली है। बाल विकास की विकासात्मक प्रकृति वाली समस्याओं का अध्य्यन दो प्रणालियों द्वारा किया जाता है। पहली समकालीन अध्ययन-प्रणाली है तथा दूसरी दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली। बाल विकास के क्षेत्र Scope of Child Development
बाल विकास के क्षेत्र के अंतर्गत निम्नलिखित तथ्यों का अध्ययन किया जाता है___ 1. बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन (Study of Various Stages of Development) : बालक के जीवन-प्रसार में अनेक अवस्थाएँ होती हैं । जैसे—गर्भकालीन अवस्था, शैशवावस्था, बचपनावस्था, बाल्यावस्था, वयःसंधि और किशोरावस्था । इन सभी अवस्थाओं का विस्तृत अध्ययन बाल विकास के अंतर्गत किया जाता है।
2. बाल विकास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन (Study of Various Aspects of Child Development): इसके अंतर्गत विकास के विभिन्न पहलुओं जैसे-शारीरिक विकास, मानसिक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास, क्रियात्मक विकास, भाषा विकास, नैतिक विकास, चारित्रिक विकास और व्यक्तित्व विकास सभी का विस्तारवपूर्वक अध्ययन किया जाता है।
3. बाल विकास को प्रभावित करनेवाले तत्वों का अध्ययन (Study of Various Factors Effecting Child Development): बाल विकास उन सभी तत्वों का अध्ययन करता है जो बालक के विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। बालक के विकास पर मुख्य रूप से वंश-परम्परा, वातावरण, परिपक्वता और शिक्षण का प्रभाव पड़ता है।
4. बालकों की विभिन्न असमान्यताओं का अध्ययन (Study of Various Abnormalities of Children): बाल विकास के अंतर्गत बालकों के जीवन-विकास
क्रम में होनेवाली असामान्यताओं और विकृतियों का अध्ययन किया जा असंतुलित व्यवहारों, मानसिक विकारों, बौद्धिक दुर्बलताओं तथा बालको जानने का प्रयास करता है और समाधान हेतु उपाय भी बताता है।
5. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन (StudyofMental Hygiene) . सा बाल मनोविज्ञान और बाल विकास की ही देन है।
6. बाल-व्यवहारों और अंतःक्रियाओं का अध्ययन (Study of Child Bes, and Interactions): बाल विकास, विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होनेवा नवाला बालक की विभिन्न अंतःक्रियाओं का अध्ययन कर यह जानने का प्रयास करता ते क्रियाएँ कौन-सी हैं और इनसे बालकों के व्यवहार में क्या परिवर्तन होते हैं? समायोजन में सहायक हैं या बाधक।
विभिन्न आयु स्तरों पर बालक अपने समायोजन के लिए अपने संपर्क में आने
व्यक्तियों जैसे—परिवार के लोग, पड़ोसी, अध्यापक, खेल के साथी और समान सभी परिचितों के साथ अंतःक्रियाएँ करता रहता है।
7. बालकों की रुचियों का अध्ययन (Study of Childhood Interests): बाल विकास बालकों की रुचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है।
8. बालकों की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन (Study of Various Mental Processes of Children) : बाल विकास बालकों के बौद्धिक विकास की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे-अधिगम, कल्पना, चिंतन, तर्क, स्मृति तथा प्रत्यक्षीकरण इत यादि का अध्ययन करता है।
9. बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं का अध्ययन (Study of Individual Differences of Children): बाल विकास बालकों का शारीरिक और मानसिक स्तर पर वैयक्तिक विभिन्नताओं का अध्ययन करता है। शारीरिक विकास में कुछ बालक : अधिक लंबे, कुछ नाटे तथा कुछ सामान्य लंबाई के होते हैं। इसी प्रकार मानसिक विकास में कुछ प्रतिभाशाली, कुछ सामान्य और कुछ मंद बुद्धि के होते हैं। इसी प्रकार कुछ – बालक सामाजिक तथा बहिर्मुखी होते हैं जबकि कुछ अंतर्मुखी।
10. बालकों में व्यक्तित्व का मूल्यांकन (Evaluation of Children’s Personality): बाल विकास के अंर्तगत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यता का मापन व मूल्यांकन किया जाता है।
11. बालक-अभिभावक संबंधों का अध्ययन (Study of Parenral Relationship) : बालकों के व्यक्तित्व-निर्धारण और समचित विकास में माता-पिता का र महत्वपूर्ण योगदान होता है। जिन बालकों के संबंध अपने माता-पिता के साथ अच्छ बाल विकास, बालक अभिभावक संबंधों के निर्धारक तत्वों तथा समस्या उनके निराकरण का अध्ययन कर माता-पिता तथा बालकों के बीच अच्छ विकसित करने का प्रयास करता है, जिससे बालक परिवार, समाज व राष्ट्र क नागरिक के रूप में विकसित हो सकें।
बाल विकास के संबंध में परंपरागत विश्वास 0Traditional Belief in Relation to Child Development
बाल विकास के संबंध में प्रचलित परंपरागत विश्वास निम्नलिखित हैं
1. बाल्यावस्था के संबंध में : माता-पिता में बालकों के संबंध में भ्रम यह है कि ‘बालक प्रौढ़ व्यक्ति का ही लघु रूप है।” इस भ्रम के कारण माता-पिता अपने बालकों से यह उम्मीद करते हैं कि वे बाल्यावस्था में ही वयस्कों के समान सभी व्यवहार करने लगे।
बालक जब अपने माता की उम्मीद को पूरा करने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें दंड दिया जाता है उनकी आलोचना और अपमान किया जाता है। इससे बच्चों के मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है, वे हीन भावना के शिकार हो जाते हैं और आत्मविश्वास खो देते हैं, जिससे उनका व्यक्तित्व विकास अवरुद्ध हो जाता है।
> मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, “बालक ही प्रौढ़ बनता है, किन्तु बाल्यावस्था में वह प्रौढ़ों के समान परिपक्व नहीं होता है।
02. बालकों के जन्म के संबंध में : बालकों के जन्म के संबंध में भी कुछ धारणाएँ प्रमुख हैं। जैसे—कुछ लोग मानते हैं कि शुभ नक्षत्र में पैदा होनेवाला बच्चा भाग्यशाली होता है और उसका जीवन स्वयं के लिए तथा परिवार के लिए मंगलकारी होता है। इस प्रकार जो बच्चा अशुभ नक्षत्र में पैदा होता है वह अमंगलकारी होता है तथा उसका जीवन परिवार तथा स्वयं के लिए कष्टप्रद होता है। – प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री मैडम मारिया मांटेसरी के अनुसार, ‘बालक में सच्ची शक्ति का निवास होता है तथा उसकी मुस्कुराहट ही सामाजिक प्रेम व उल्लास की आधारशिला है।’
3. वंशानुक्रम के संबंध में : वंशानुक्रम के संबंध में एक प्रचलित अवधारणा यह है कि “जैसे माता-पिता होते हैं वैसे ही संतान भी बनती है।’ यदि माता-पिता शिक्षित, अच्छे संस्कारों से युक्त तथा बुद्धिमान हैं, तो संतानें भी सभ्य तथा अच्छे संस्कारों से युक्त होंगी। यदि माता-पिता निरक्षर तथा दुराचारी हैं तो उनकी संतानें भी मूर्ख और
जोड़ के समान नहीं बल्कि गुणनफल के समान है।” गैरेट (Garrett) के अनुसार, आनुवंशिकता और वातावरण एक-दूसरे को सहयोग देने वाले प्रभाव हैं और दोनों ही बालक की सफलता के लिए अनिवार्य हैं।”
4. गर्भकालीन प्रभावों के संबंध में : कुछ लोगों की यह अवधारणा होती है कि गर्भवती माँ की विभिन्न क्रियाएँ जैसे—भोजन, परंपरागत उपचार, झाड़-फूंक तथा सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरा गर्भस्थ शिशु के विकास को प्रभावित करती हैं। – कॉट, डगलस, स्मिथ और बैगिन के शब्दों में, “इस संसार में पैदा होनेवाला प्रत्येक
बालक भगवान का एक नया विचार है तथा सदैव तरोताजा रहने एवं चमकने वाली संभावना है।”
5. यौन-भेद के संबंध में : आदिकाल से ही स्त्री को कमजोर और पुरुष को शक्तिशाली माना जाता है। धार्मिक ग्रंथ भी पुत्री की तुलना में पुत्र-जन्म की श्रेष्ठता को इसलिए भधिक मानते हैं कि पुत्र माता-पिता को मोक्ष की प्राप्ति करायेगा। कुछ माता-पिता बालक और बालिकाओं में भेद मानते है वे बालको को अधिक सुविधाएँ व देते हैं और बालिकाओं को कम । माता पिता की यह भावना बालिकाओं में हीन का विकास करती है और उनके विकास को अवरुद्ध करती है। – फ्रॉबेल का मानना है कि ‘बालक स्वयं विकासोन्मुख होनेवाला मानव पो
बाल अध्ययन विधियाँ
1. क्रमबद्ध चरित्र लेखन विधि (Systematic Biographical Method): इस का प्रयोग अनेक प्राचीन मनोवैज्ञानिको (W. Preyer, K. C. Moore DP G. S. Gall, V. N. Dearrbor) ने किया है।
प्रेयर (1882) ने इस विधि का प्रयोग काका प्रयाग क्रमबद्ध तरीके से किया। उसने अपने ही बालक का चरित्र-लेखन (Biography) तैयार यह चरित्र-लेखन जन्म से तीन वर्ष की अवस्था का था।प्रेयर ने चरित्र-लेखन द्वारा यह जानने का प्रयास कि जन्म के समय कौन-कौन प्राकृतिक क्रियाएँ पायी जाती हैं। ध्वनि और प्रकाश के प्रति बालक कब प्रथम ना अनुक्रिया करता है तथा उसकी ज्ञानेन्द्रियों का विकास किस प्रकार हुआ? अतः इस विधि से बालक के जीवन और व्यवहार की अनेक विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
इस विधि से अध्ययनकर्ता बालक के व्यवहार का प्रतिदिन निरीक्षण करता है और निरीक्षण के आधार पर व्यवहार की विशेषताओं को क्रमबद्ध ढंग से नोट करके एक रिकार्ड तैयार करता है। यह रिकार्ड चरित्र-लेखन (Biography) कहलाता है। इस रिकार्ड का विश्लेषण करके बालक के व्यवहार के क्रमिक विकास का अध्ययन
क्रमबद्ध चरित्र-लेखन विधि के दोष
(a) इस विधि में बालक के व्यवहार का अध्ययन प्रतिदिन करना होता है, अतः इसका उपयोग उस अवस्था में ठीक हो सकता है जब एक अध्ययनकर्ता बालक के साथ ही रहे। यह एक कठिन कार्य है।
(b) अध्ययनकर्ता बालक के अधिक संपर्क में रहने से बालक के मधुर भावों और क्रियाओं से प्रभावित हो सकता है । इस अवस्था में एकत्रित रिकॉर्ड पक्षपातपूर्ण हो सकता है।
(c) बालकों के प्रति स्नेह-भाव के कारण अक्सर अध्ययनकर्ता बालक के गुणों का । अति-अंकन (Over-Estimation) करता है।
(d) इस विधि द्वारा अध्ययन में अधिक समय व्यय होता है। (e) इस विधि की कोई प्रामाणिक प्रक्रिया विधि नहीं है। निरीक्षण विधि Observation Method यंग (Young, 1954) के अनुसार, “निरीक्षण नेत्रों द्वारा सावधानी से किये गय अध्ययन को सामूहिक व्यवहार, जटिल सामाजिक संस्थाओं और किसी पूर्ण वस्तु को बनाने वाली पृथक इकाइयों का निरीक्षण करने के लिए एक विधि के रूप उपयोग किया जा सकता है।’
मौसर (Moser, 1958) के अनुसार, “निरीक्षण को उचित रूप से वैज्ञानिक पूछताछ की श्रेष्ठ विधि कहा जा सकता है। ठोस अर्थ में— निरीक्षण में कानों और वाणी की अपेक्षा नेत्रों का उपयोग होता है।
गुंडे तथा हाट (Goode & Hatt, 1964) के अनुसार, “विज्ञान निरीक्षण से प्रारंभ होता है और अपने तथ्यों की पुष्टि के लिए अंत में निरीक्षण का सहारा लेता है।” इस विधि का उपयोग छोटे बच्चों और शिशुओं की समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है। बाल मनोविज्ञान की समस्याओं के अध्ययन में इस विधि का सर्वप्रथम उपयोग जर्मनी में हुआ।
अमेरिका में वाटसन (Watson) ने इस विधि का उपयोग बालकों के प्राथमिक संवेगों के अध्ययन में किया।
गेसेल (Gesell) ने इस विधि में ‘मूविंग पिक्चर कैमरा’ का उपयोग किया और व्यवहार चित्रों के विश्लेषण से बालकों के व्यवहार के संबंध में शुद्ध परिणाम प्राप्त किये । इस अध्ययन में उन्होंने एकतरफा दिखायी देने वाला पर्दो (One Way Vision Screens) का उपयोग किया।
इनके द्वारा सिर्फ निरीक्षक बालक को देखते हैं, बालक निरीक्षक को नहीं । निरीक्षण विधि में इस प्रकार एकतरफा दिखायी देनेवाले कैमरे का उपयोग निरीक्षण-कक्ष में किया जाता है।
निरीक्षण विधि के पद Steps of Observation Method
(a) उपयुक्त योजना : निरीक्षण विधि द्वारा अध्ययन करने से पहले निरीक्षणकर्ता को अध्ययन व्यवहार और समस्या के संबंध में उपयुक्त योजना बना लेनी चाहिए। यह निश्चय कर लेना चाहिए कि किन लोगों का निरीक्षण करना है और किस प्रकार के व्यवहार का निरीक्षण करना है। निरीक्षण के लिए क्षेत्र, समय, उपकरण आदि के संबंध में पहले ही योजना बना लेनी चाहिए। पहले योजना बना लेने से यह सुनियोजित हो जाता है और इससे शुद्ध आँकड़े के संकलन में सहायता मिलती है।
(b) व्यवहार का निरीक्षण : निरीक्षण करते समय निरीक्षणकर्ता व्यवहार के उन पक्षों का निरीक्षण अधिक ध्यान से करता है, जो उसकी अध्ययन समस्या से संबंधित हैं एवं पूर्व योजना के अनुसार हैं। वह निरीक्षणों के साथ-साथ विभिन्न उपकरणों की सहायता से व्यवहार को भी नोट करता है।
(c) व्यवहार को नोट करना : निरीक्षणकर्ता व्यवहार को नोट करने के लिए भी उपकरणों का उपयोग करता है। जैसे—मूवी कैमरे के उपयोग से किसी भी प्रकार के व्यवहार के निरीक्षण को सरलता से नोट किया जा सकता है, व्यवहार से संबंधित संवादों को टेपरिकार्डर की सहायता से नोट किया जा सकता है।
(d) विश्लेषण : समस्या से संबंधित व्यवहारों के निरीक्षणों को नोट करने के बाद अध्ययनकर्ता प्राप्त निरीक्षणों को यदि संभव होता है तो अंकों में बदलता है और प्राप्त अकों की सूची बनाने का कार्य करता है और फिर विभिन्न सांख्यिकीय विधियों के आधार पर आँकड़ों का विश्लेषण करता है।
(e) व्याख्या और सामान्यीकरण : निरीक्षण व्यवहार का विश्लेषण करने के व्यवहार की व्याख्या की जाती है। यदि संभव होता है तो व्यवहार की व्याख्या सिद्धांतों के आधार पर की जाती है अथवा व्यवहार के कारणों पर प्रकाश द प्रयास किया जाता है। समान्य रूप में देखा जाता है कि नमना (Sarna परिणाम कहाँ तक सामान्य जनसंख्या पर लागू होते हैं।
निरीक्षण विधि के प्रकार Types of Observation Method
(सरल अथवा अनियंत्रित निरीक्षण विधि (Simpler Uncontrolled Observe Method) : यंग के अनुसार, “अनियंत्रित निरीक्षण में हमें वास्तविक जीवन परिस्थि िक की सूक्ष्म परीक्षा करनी होती है जिसमें विशुद्धता के यंत्रों के प्रयोग का या नही घटना की सत्यता की जाँच का कोई प्रयास नहीं किया जाता है। जब किसी पार का निरीक्षण प्राकृतिक परिस्थितियों में किया जाय तथा प्राकृतिक परिस्थितियों पर कोई स बाह्य दबाव न डाला जाये तो इस प्रकार के निरीक्षण को अनियंत्रित निरीक्षण कहते हैं। स
व्यवस्थित अथवा नियंत्रित निरीक्षण विधि (Systematic or Controlled – Observation Method) जब निरीक्षणकर्ता और घटना दोनों पर नियंत्रण करके अध्ययन किया जाये तो इस प्रकार की निरीक्षण विधि को व्यवस्थित निरीक्षण विधि कहते हैं।
(c) सहभागी निरीक्षण विधि (Participant Observation Method): इस विधि में निरीक्षणकर्ता जिस समूह के व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करना चाहता है वह उस समूह में जाकर एक सदस्य के रूप में घुल-मिल जाता है और फिर उनके व्यवहार : का अध्ययन करता है। इस विधि द्वारा छोटे समूहों का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है। निरीक्षण विधि का महत्व Importance of Observation Method
(a) निरीक्षण विधि का उपयोग उस समय अधिक होता है जब किसी अध्ययनकर्ता : को इस विधि के आधार पर परिकल्पनाएँ (Hypothesis) बनानी हो ।
(b) इस विधि की सहायता से पारस्परिक संबंधों का अध्ययन करना सरल होता है। (c) अन्य विधियों की अपेक्षा यह एक सरल विधि है। (d) इस विधि द्वारा प्राप्त परिणाम अधिक विश्वसनीय होता है।
(e) नियंत्रित और वैज्ञानिक निरीक्षणों द्वारा प्राप्त परिणाम वस्तुनिष्ठ होता है । क्याकि इस विधि का उपयोग जब वैज्ञानिक तरीके से किया जाता है तब व्यवहार संबंधी ‘क्या, ‘कैसे’ और ‘क्यों’ इत्यादि प्रश्नों का निश्चित उत्तर प्राप्त होता है।
(1) इस विधि में समस्याओं का अध्ययन वैज्ञानिक निरीक्षणों द्वारा किया जाता है जिसके कारण प्राप्त परिणाम विश्वसनीय, शुद्ध और सार्वभौमिक (Universal) हात ,
3. प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method): यह विधि पूर्ण रूप से वज्ञान विधि है । बालकों की प्रेरणा, परिपक्वता, अधिगम, अनुबंधन, विभेदीकरण तथा सवाल अनक्रियाओं इत्यादि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन इस विधि द्वारा किया गया।
जहोदा के अनुसार, ‘प्रयोग परिकल्पना के परीक्षण की एक विधि है।“
फेस्टिगर के अनुसार, ‘प्रयोग का मूल आधार स्वतंत्र चर में परिवर्तन करने से परतंत्र चर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना है।”
इस विधि में दो प्रकार के चर होते हैं स्वतंत्र चर और आश्रित चर | प्रयोगात्मक विधि के चरण Steps of Experimental Method
प्रयोगात्मक विधि के चरण निम्नलिखित हैं-
(a) समस्या (Problem): किसी भी प्रयोग को करने से पहले आवश्यक है कि कोई समस्या हो। टाउनसेंड’ (Townsend) के अनुसार, “समस्या तो समाधान के लिए एक प्रस्तावित प्रश्न है।”
(b) संबंधित साहित्य का अध्ययन और उपकल्पना निर्माण : समस्या को चुनने और उसके कथन के बाद प्रयोगकर्ता जिस समस्या को चुनता है उस समस्या से संबंधित साहित्य का अध्ययन करता है।
> साहित्य अध्ययन के द्वारा प्रयोगकर्ता यह जानने का प्रयास करता है कि अब तक समस्या पर कितने व्यक्तियों ने क्या-क्या प्रयोगात्मक अध्ययन किये हैं और उन्हें क्या और कितने विश्वसनीय प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
> टाउनसेण्ड के अनुसार, “परिकल्पना अनुसंधान समस्या के लिए एक प्रस्तावित उत्तर है।” > मैक्गुइगन के अनुसार “परिकल्पना दो या अधिक चरों के कार्यक्षम संबंधों का परीक्षण करने योग्य कथन है।” उपकल्पना बना लेने से प्रयोगकर्ता के प्रयोग की समस्या सुनिश्चित होती है।
(c) प्रयोज्य (Subject) : उपकल्पना निर्धारण के बाद प्रयोज्यों का चयन किया जाता है। प्रयोज्य से अभिप्राय उनलोगों से है जिन पर प्रयोग किया जाना है। एक प्रयोग में इनकी संख्या एक भी हो सकती है और अधिक भी हो सकती है। प्रायः एक से अधिक ही होती है।
(d) चर और प्रयोगात्मक अभिकल्प (Variables and Design of the Experiment): करलिंगर के अनुसार, “चर वह गुण है जिसके विभिन्न मूल्य हो सकते हैं। उदाहरण के लिए प्रकाश, ध्वनि, तापक्रम, शोरगुल इत्यादि किसी-न-किसी प्रकार के चर हैं।’ > टाउनसेंड (Townsend) के अनुसार, “आश्रित चर वह कारक है जो प्रयोग द्वारा स्वतंत्र चर के प्रदर्शन पर प्रदर्शित हो, हटाने पर अदृश्य हो तथा मात्रा में परिवर्तन होने पर परिवर्तित हो जाये।“
(e) उपकरण तथा सामग्री (Apparatus and Materials): अध्ययनकर्ता प्रयोग में जिन उपकरणों का उपयोग करता है उनका संक्षेप में विवरण देता है। यदि प्रयोग के लिए वह किसी नये उपकरण को विकसित करता है तो वह उसका विस्तृत वर्णन देता है।
(O नियंत्रण (Controls): समस्या से संबंधित साहित्य का अध्ययन करके तथा विशेषज्ञों की राह और अपने अनुभव के आधार पर वह यह निश्चित करता है कि समस्या को कौन कौन से कारक अथवा चर प्रभावित कर रहे हैं। समस्या को प्रभावित
करने वाले कारक कई क्षेत्रों से संबंधित हो सकते हैं। जैसे प्रयोज्यों से संबंधि वातावरण संबंधी कारक, उपकरण से संबंधित कारक इत्यादि ।
(g) निर्देश तथा विधि (Instructions and Procedure): नियंत्रण को कर लेने के बाद प्रयोगकर्ता प्रयोज्यों अथवा प्रयोज्य के लिए निर्देश निश्चित कि प्रयोज्य के प्रयोग से संबंधित कार्य लेने के लिए क्या क्या निर्देश देने का
(h) परिणाम (Results): पूर्व निश्चित प्रयोग के अनुसार आँको (Collection) करने के बाद आँकड़ों का वर्गीकरण करके सूची बनाने का कार्य फिर प्रयोग अभिकल्प (Design) के अनुसार उच्च सांख्यिकीय विधियों द्वारा जा विश्लेषण करते हैं और सांख्यिकीय विश्लेषण के आधार पर परिणाम ज्ञात कर लेते है |
i) व्याख्या तथा सामान्यीकरण (Discussion and Generalization): आँकड़ों आधार पर प्राप्त परिणामों की व्याख्या करने से पूर्व सर्वप्रथम प्राप्त परिणामों के पर परिकल्पना की जाँच करते हैं और निष्कर्ष निकाल लेते हैं। फिर अपने निष्का व्याख्या विभिन्न सिद्धान्तों के आधार पर करते हैं।
प्रयोगात्मक विधि की उपयोगिता Importance of Experimental Method
(a) कार्य और कारण संबंधों (Cause and Effect Relations) का अध्ययन इस मा विधि द्वारा जितनी शुद्धता से किया जाता है, उतना दूसरी विधि द्वारा नहीं किया जासकता है।
(b) यह विधि अन्य विधियों की अपेक्षा अधिक शुद्ध और संक्षिप्त है, क्योंकि इसमें एक व्यवहार को प्रभावित करने वाले अनेक कारकों को नियंत्रित कर कार्य और कारण के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है।
(c) यह विधि परिकल्पना के परीक्षण की श्रेष्ठ विधि है।
(d) अन्य विधियों की अपेक्षा यह सर्वाधिक वैज्ञानिक विधि (Most Scientific Method) है।
(e) इस विधि द्वारा अध्ययन के आधार पर प्राप्त परिणाम विश्वसनीय, वैध तथा सार्वभौमिक होते हैं।
4. समकालीन एवं दीर्घकालीन अध्ययन प्रणालियाँCross-Sectional and Longitudinal Approaches
बाल मनोविज्ञान की विकासात्मक समस्याओं का अध्ययन करने के लिए इन विायच द्वारा दो प्रणालियों का उपयोग करते हैं—समकालीन प्रणाली एवं दीर्घकालीन प्रणाला
समकालीन अध्ययन प्रणाली (Cross-Sectional Approach): इस अध्ययन में व्यवहार के विभिन्न पहलुओं के विकास के अध्ययन में सर्वप्रथम भिन्न-भिन्न अवस्था के बालकों के समूहों को आदर्श विधियों की सहायता से चुना जाता है। फिर अध समस्या से संबंधित शारीरिक व मानसिक योग्यता वाले विकास के क्रमों का इन विा स्तर के बालकों में निरीक्षण किया जाता है। अंत में आँकडों के औसत मानो कम पर विकास के क्रम को ज्ञात कर लिया जाता है।
उदाहरण के लिए, यदि हम अध्ययन करना चाहते हैं कि भाषा का विकास प्रकार होता है तो सर्वप्रथम भिन्न भिन्न आयु स्तर के बालकों को चुनना होगा|
समकालीन अध्ययन प्रणाली की उपयोगिता
इस प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(a) इस प्रणाली द्वारा अध्ययनकर्ता बालक के संपूर्ण जीवन में घटित होनेवाले विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन कम समय और कम खर्च में कर सकता है। ___(b) इस प्रणाली में अध्ययनकर्ता को विकासात्मक परिवर्तनों का वर्षों तक इंतजार नहीं करना पड़ता है। __(c) इस प्रणाली में विभिन्न आयु-स्तर के बालकों के क्रमिक विकास का तुलनात्मक -अध्ययन भी संभव है।
(d) इस प्रणाली में अध्ययनकर्ता को किसी भी अगली (Next) विकास की अवस्था का वर्षों तक इंतजार नहीं करना पड़ता है। _दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली (Longitudinal Approach) : इस प्रणाली में एक ही आयु-स्तर के बालक समूह को चुना जाता है, फिर समूह के बालकों की आयु के बढ़ने के साथ-साथ उनकी मानसिक और शारीरिक योग्यताओं के विकास-क्रम का निरीक्षण और मापन किया जाता है और अंत में इस प्रकार प्राप्त आँकड़ों के आधार पर विकास-क्रम को ज्ञात कर लिया जाता है।
> इस प्रणाली की सहायता से शारीरिक ऊँचाई, शारीरिक वजन, बुद्धिलब्धि, भाषा का विकास, सामाजिक और संवेगात्मक विकास इत्यादि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए—यदि हम बालकों में भाषा के विकास का अध्ययन करना चाहते हैं, तो एक वर्ष की आयु के केवल 100 बच्चे को चुनकर प्रत्येक 6 महीने पश्चात उनके भाषा-विकास का निरीक्षण और मापन करेंगे। दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली के उपयोग |
(a) इस विधि में बच्चों के एक ही समूह का अध्ययन चलता रहता है, अतः इस प्रणाली में नमूने त्रुटियों (Sampling Errors) की संभावना नहीं रहती है और न ही प्रतिदर्श की समस्या रहती है।
(b) इस प्रणाली की सहायता से व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक बालक का अध्ययन होता रहता है और समूह स्तर पर भी अध्ययन होता रहता है।
(c) इस विधि में विकास प्रक्रियाओं का अनुमानात्मक ज्ञान प्राप्त न होकर शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है।
(d) विकास प्रक्रियाओं के संबंध का अध्ययन करना अपेक्षाकृत सरल होता है।
(e) बालक के व्यवहार विकास पर पड़ने वाले सामाजिक सांस्कृतिक या वातावरण संबंधी परिवर्तनों के प्रभाव का अध्ययन इस प्रणाली द्वारा किया जा सकता है।
(f) किसी निश्चित अवधि में बालक के विकास के गण तथा मात्रा आदि का ज्ञान नी इस प्रणाली द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
5. साक्षात्कार विधि (Interview Method) मनोविज्ञान में साक्षात्कार विधि का उपयोग बहुत दिनों से होता रहा है। आधुनिक युग में इस विधि का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस विधि में साक्षात्कारकर्ता और सूचनादाता दोनों ही आमने सामने बैठते हैं तथा साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता से अध्ययन समस्या के संबंध में सूचना प्राप्त करने का प्रयास करता है।
आइजनेक के अनुसार, ‘साक्षात्कार वह साधन है जिसके द्वारा मौखिक अथवा लिखित सूचना प्राप्त की जाती है।”
साक्षात्कार विधि के प्रकार Type of Interview Method
(a) प्रामाणिक साक्षात्कार विधि (Standardized or Structured Interview Method) साक्षात्कार की इस विधि द्वारा अध्ययन करते समय अध्ययन समस्या के संबंध में विभिन्न प्रकार के प्रश्न पहले से ही तैयार कर लिये जाते हैं। अध्ययन इकाइयों से पूर्व निश्चित क्रम के अनुसार ही प्रश्नों को उसी क्रम में पूछा जाता है।
(b) अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि (Unstructured or Uncontrolled Interview Method): अप्रामाणिक साक्षात्कार में अध्ययन समस्या के संबंध में प्रश्न पहले से ही तैयार नहीं किये जाते हैं और न ही प्रश्नों की संख्या निश्चित होती है। अध्ययनकर्ता अध्ययन समस्या के संबंध में कोई भी प्रश्न पूछने के लिए स्वतंत्र होता है।
> अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि अधिक विश्वसनीय नहीं होती है फिर भी इस विधि द्वारा प्रयोज्य (Subject) को समझने का अधिक अवसर रहता है, क्योंकि इसमें प्रश्न किसी भी प्रकार के पूछ सकते हैं। साक्षात्कार विधि का महत्व Importance of Interview Method
(a) ऐसे वस्तु जिन्हें हम देख नहीं सकते हैं उनका अध्ययन साक्षात्कार विधि द्वारा किया जा सकता है।
(b) बाल मनोविज्ञान की ऐसी घटनाएँ जिनका वैयक्तिक रूप से निरीक्षण नहीं कर सकते हैं। ऐसी घटनाओं का अध्ययन इस विधि द्वारा किया जा सकता है।
(c) इस विधि में यदि अध्ययनकर्ता प्रशिक्षित होता है और उपयुक्त नियंत्रण के साथ दिये हुए सामग्री एकत्र करता है, तो उससे विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं।
प्रश्नावली विधि (Questionnaire Method): मनोविज्ञान के क्षेत्र में जब अध्ययन इकाइयों का क्षेत्र विस्तृत होता है तथा सूचनादाताओं की संख्या अधिक होती है, तब इस विधि का प्रयोग किया जाता है।
गुडे तथा हाट के अनुसार, ‘प्रश्नावली एक प्रकार का उत्तर प्राप्त करने का साधन है, जिसका स्वरूप ऐसा होता है कि उत्तरदाता उसकी पूर्ति स्वयं करता है।”
> प्रश्नावली तैयार करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए :
प्रश्नावली का आकार या प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक नहीं होनी चाहिए।
* प्रश्न लंबे और कठिन नहीं होने चाहिए।
* प्रश्न स्पष्ट होने चाहिए।
* प्रश्न, प्रश्नावली में पहले सरल फिर कठिन होने चाहिए।
रुचिपूर्ण या ध्यान आकर्षित करने वाले प्रश्न होने चाहिए।
प्रश्नावली विधि के प्रकार Types of Questionnaire Method
(a) अप्रतिबंधित प्रश्नावली (Open Questionnaire) यह प्रश्नावली वह है जिसमें पुचनादाता पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है और वह खुलकर उत्तर दे सकता है उदाहरण के लिए आपके विद्यालय की क्या क्या सीमाएँ हैं ? । आपके विद्यालय में किन किन परिवर्तनों की तुरन्त आवश्यकता है?
(b) प्रतिबंधित प्रश्नावली (Closed Questionnaire) ऐसी प्रश्नावली जिसमें सूचनादाता के किसी चीज के जवाब पर प्रतिबंध होता है। उसे केवल चुने हुए उत्तरों में से ही उत्तर देना होता है। उदाहरण के लिए :
शिक्षक से भय लगता है ? हाँ/नहीं
(c) चित्र प्रश्नावली (Pictorial Questionnaire) इस प्रकार की प्रश्नावली में प्रश्न चित्रों के रूप में होते हैं। ।
प्रश्नावली विधि की उपयोगिताएँ (Advantages of Questionnaire Method) इस विधि की उपयोगिता निम्न प्रकार से है। इस विधि द्वारा कम खर्च और कम समय में अधिक से अधिक अध्ययन किया जा सकता है, क्योंकि प्रश्नावली एक साथ कई प्रयोज्यों को भरने के लिए की जा सकती है। 7. परीक्षण विधियाँ या मनोमिति विधियाँ
Test Methods or Psychometric Methods > बेस्ट के अनुसार, ‘मनोवैज्ञानिक परीक्षण एक उपकरण है जिसे व्यवहार के किसीपक्ष के मापन एवं गणना के लिए तैयार किया जाता है।‘
> मनोवैज्ञानिक परीक्षण वह उपकरण है जिसे विशेषज्ञ वैज्ञानिक ढंग से तैयार करते हैं और जिसकी सहायता से व्यवहार के कुछ पहलुओं का मापन करते हैं।
मनोवैज्ञानिक परीक्षणों (Psychological Tests) के द्वारा भी व्यक्तियों के व्यवहार के विभिन्न पहलुओं को मापा जाता है। वह परीक्षण मानकीकृत (Standardized),
वस्तुनिष्ठ (Objective) विश्वसनीय (Reliable) तथा वैध (Valid) होते हैं।
8. वैयक्तिक इतिहास विधिCase History Method
बीसेंज तथा बीसेंज (Besange & Besange) के अनुसार, “वैयक्तिक इतिहास अध्ययन विधि एक प्रकार की गुणात्मक व्याख्या है, जिसमें एक व्यक्ति, एक परिस्थिति या एक संस्था का अति सावधानी से पूर्ण अध्ययन किया जाता है।”
> शॉ (Shaw) के अनुसार, ‘वैयक्तिक इतिहास विधि एक विधि, एक संस्था, एक समुदाय या समूह हो सकता है जिसे अध्ययन की इकाई माना जाता है।”
यह विधि मानव व्यवहार का उसके संपूर्ण ढाँचे में अध्ययन तथा उपकल्पनाओं के निर्माण में सहायक वैयक्तिक परिस्थितियों के विश्लेषण एवं तुलना से संबंधित है।
वैयक्तिक इतिहास विधि के लाभ Advantages of Case History Method
इस विधि के लाभ निम्नलिखित हैं-
> इस विधि द्वारा जब समस्या का अध्ययन किया जाता है, जो गहन अध्ययन के आधार पर सामान्यीकरण सरलता से किया जा सकता है।
> इस विधि की सहायता से विचलित तथ्यों को ढूँढ़ा जा सकता है। > इस विधि द्वारा अध्ययन में समस्या के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
समाजमिति विधि (Sociometric Method) ब्रानफेनब्रेनर (Bronfenbrenner) के अनुसार, ‘समूह में व्यक्तियों के मध्य सीमा और स्वीकृति एवं अस्वीकृति को माप कर सामाजिक स्थिति, ढाँचों के विकास को ज्ञात करने, वर्णन करने और मूल्यांकन करने की एक विधि है।”
> इस विधि के द्वारा एक समूह के सदस्यों के बीच पायी जाने वाली स्वीकृति और
अस्वीकृति, आकर्षण और विकर्षण को मापा जाता है । इस विधि का उपयोग समाज मनोविज्ञान में और बाल मनोविज्ञान में अत्यधिक किया जाता है।
प्रक्षेपण विधियाँ (Projective Technique) प्रक्षेपण शब्द का उपयोग मनोविज्ञान में दो अर्थों में हुआ है। इस शब्द का प्रथम उपयोग मानसिक मनोरचनाओं के रूप में हुआ है। इस शब्द का द्वितीय उपयोग प्रक्षेपण विधियों के रूप में हुआ है। प्रक्षेपण शब्द का मानसिक मनोरचनाओं के रूप में उपयोग का श्रेय फ्रायड को है।
प्रक्षेपण विधि के उपयोग
(a) इन विधियों के द्वारा बालकों में समझ तथा अचेतन (Unconscious) की अभिप्रेरणाओं और व्यक्तित्व संरचना का अध्ययन किया जा सकता है।
(b) इन अध्ययन विधियों के द्वारा व्यक्ति के संवेगों, अभिप्रेरणाओं, अनुभवों, विचारों और अभिवृतियों का अध्ययन विश्वसनीय ढंग से किया जा सकता है।
(c) इन विधियों की सहायता से अचेतन स्तर तथा आंतरिक विचारों, भावनाओ और ग्रंथियों का अध्ययन किया जा सकता है।
(d) इन विधियों का उपयोग सामान्य तथा असामान्य दोनों प्रकार के व्यक्तित्व पर किया जा सकता है।
(e) इन विधियों की सहायता से व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को सामान्य विश्वसनीयत के साथ समझा जा सकता है।
परीक्षोपयोगी तथ्य
बाल मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जो प्राणी के विकास का अध्ययन जन्म से परिपक्वावस्था तक करती है।
बाल विकास व्यवहारों का विज्ञान है जो बालक के व्यवहार का अध्ययन गर्भावस्थ से मृत्युपर्यन्त करता है।
बाल मनोविज्ञान बालक की क्षमताओं का अध्ययन करता है।
बाल विकास क्षमताओं के विकास की दशा’ का अध्ययन करता है।
बाल विकास विकास क्रम की सभी अवस्थाओं जैसे बाल्यावस्था, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक बौद्धिक इत्यादि का अध्ययन करता है।
बाल विकास के अंतर्गत बाल विकास को प्रभावित, करनेवाले तत्वों का अध्ययन किया जाता है। जैसे—परिपक्वता और शिक्षण, वंशानुक्रम और वातावरण। बाल विकास के अंतर्गत बालकों के जीवन विकास क्रम में होनेवाली असामान्यताओं और विकृतियों का अध्ययन किया जाता है। बाल विकास और बाल मनोविज्ञान की देन मनोचिकित्सा है।
बाल विकास बालकों की रुचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है।
बाल विकास बालकों के बौद्धिक विकास की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे अधिगम, कल्पना, चिंतन, तर्क, स्मृति तथा प्रत्यक्षीकरण इत्यादि का अध्ययन करता है।
बाल विकास के अन्तर्गत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का मापन व मूल्यांकन किया जाता है।
UPTET Bal Viukas Evam Shiksha Shastra Chapter 2 in PDF Download
अभ्यर्थियो का आज की पोस्ट में UPTET & CTET Book and Notes Paper 1 and Paper 2 Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 1 विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से सम्बन्ध Study Material के साथ PDF in Hindi Free Download करने जा रहे है | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book के सभी Chapter Topic Wise आपको रोजाना शेयर किये जायेंगे जिसे आप Study Material के रूप में पढ़ भी सकते है और PDF के रूप में Free Download भी कर सकते है |
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Vikas ki Avdharna Evam Iska Adhigam se Sambandh
विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध | UPTET Chapter 1 in Study Material in Hindi
विकास Development >
विकास एक सार्वभौमिक (Universal) प्रक्रिया है, जो जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त तक अविराम होता रहता है। विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता बल्कि इसके अंतर्गत वे सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त तक निरंतर प्राणी में प्रकट होते रहते हैं। विकास को ‘क्रमिक परिवर्तनों की श्रृंखला’ भी कहा जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है तथा पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है। प्रौढ़ावस्था में पहुँचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है वे विकास की प्रक्रिया के ही परिणाम होते हैं। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह ‘व्यवस्थित’ तथा ‘समनुगत’ (Coherent Pattern) परिवर्तन है, जिसमें कि प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ व योग्यताएँ प्रकट होती हैं।”
‘व्यवस्थित’ (Orderly) शब्द का तात्पर्य यह है कि विकास की प्रक्रिया में होनेवाले परिवर्तनों में कोई-न-कोई क्रम अवश्य होता है और आगे वाले परिवर्तन पूर्व परिवर्तन पर आधारित होता है। ‘समनुगत’ (Coherent Pattern) शब्द का अर्थ है परिवर्तन संबंधविहीन नहीं होते हैं उनमें आपस में परस्पर संबंध होता है। मुनरो (Munro) के अनुसार, “विकास परिवर्तन-शृखंला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।” विकास की प्रक्रिया में होनेवाले परिवर्तन वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों तथा वातावरण दोनों का ही परिणाम होता है। विकास की प्रक्रिया में होनेवाले शारीरिक परिवर्तनों को आसानी से देखा जा सकता है किन्तु अन्य दिशाओं में होनेवाले परिवर्तनों को समझने में समय लग सकता है।
विकास के रूप Forms of Development
विकास की प्रक्रिया चार प्रकार के होते हैं-
(a) आकार में परिवर्तन (Change in Size): शारीरिक विकास-क्रम में निरंतर शरीर के आकार में परिवर्तन होता रहता है। आकार में होनेवाले परिवर्तनों को आसानी से देखा जा सकता है। शारीरिक विकास-क्रम में आय-वृद्धि के साथ-साथ शरीर के आकार व भार में निरंतर परिवर्तन होता रहता है।
b) अनपात में परिवर्तन (Change in Proportion): विकास-क्रम में पहले में परिवर्तन होता है लेकिन यह परिवर्तन आनुपातिक होता है। प्राणी अंग विकसित नहीं होते हैं और न ही उनमें एक साथ परिपक्वता शाही अंगों के विकास का एक निश्चित अनुपात नहीं होता है।
उदाहरण—शैशवावस्था में बालक स्वकेंद्रित होता है जबकि बाल आते वह अपने आस-पास के वातावरण तथा व्यक्तियों में रुचि लेने का
का होता है जबकि बाल्यावस्था के आते
नों का समाप्त हो जाना बचपन की
क) परानी रूपरेखा में परिवर्तन (Disappearance of Old Features): प्रार विकास-क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुरानी विशेषता होता रहता है। उदाहरण-बचपन के बालो और दॉतो का समाप्त हो जाना अस्पष्ट ध्वनियाँ, खिसकना, घुटनों के बल चलना, रोना, चिल्लाना इत्यादि हो जाते हैं।
(d) नये गुणों की प्राप्ति (Aquisition of New Features) : विकास-क्रम में जा एक तरफ पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नये गण प्राप्त कर हैं। जैसे कि स्थायी दाँत निकलना, स्पष्ट उच्चारण करना, उछलना-कूदना और भागने दौड़ने की क्षमताओं का विकास इत्यादि विकास-क्रम में नये गुण के रूप में प्राप्त होते हैं। विकास के सिद्धांत Principles of Development
विकास सार्वभौमिक तथा निरंतर चलती रहनेवाली क्रिया है, लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है। इन नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक व मानसिक क्रियाएँ विकसित होती रहती हैं। विकास के कुछ प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं
_____ 1. विकास का एक निश्चित प्रतिरूप होता है (Development Follows a Certain Pattern): मुनष्य का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है—मस्तकाधोमुखी दिशा तथा निकट दूर दिशा।
मस्तकाधोमुखी विकास क्रम (Cephalocaudal Development Sequence)में शारीरिक विकास ‘सिर से पैर की ओर’ होता है। भ्रूणावस्था से लेकर बाद की सभी अवस्थाओं में विकास का यही क्रम रहता है। निकट दूर विकास क्रम (Proximodistal Development Sequence) मे शारीरिक विकास पहले केंद्रीय भागों में प्रारंभ होता है तत्पश्चात केंद्र से दूर के भागों में होता है। उदाहरण के लिए पेट और धड़ में क्रियाशीलता जल्दी आती है।
2. विकास सामान्य से विशेष की ओर होता है (Development Proceeds form General to Specific): विकास-क्रम में कोई भी बालक पहले सामान्य क्रियाएँ करता है तत्पश्चात् विशेष क्रियाओं की ओर अग्रसर होता है। विकास का यह नियम शारारिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक सभी प्रकार के विकास पर लागू होता है।
3.विकास अवस्थाओं के अनुसार होता है (Development Proceeds by stages सामान्य रूप से देखने पर ऐसा लगता है कि बालक का विकास रुक-रुक कर हा है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता है। उदाहरण के लिए जब बालक के दूध क. निकलते हैं तो ऐसा लगता है कि एकाएक निकल आये परंतु नींव गर्भावस्था क माह में पड़ जाती है और 5-6 माह में आते हैं।
4. विकास में व्यक्तिगत विभेद सदैव स्थिर रहते हैं (Individual Differences Ramain Constant in Development): प्रत्येक बालक की विकास दर तथा स्वरूपी में व्यक्तिगत विभिन्नता पायी जाती है। उदाहरण के लिए, जिस बालक में शारीरिक कियाएँ जल्दी उत्पन्न होती हैं वह शीघ्रता से बोलने भी लगता है जिससे उसके भीतर सामाजिकता का विकास तेजी से होता है । इसके विपरीत जिन बालकों के शारीरिक विकास की गति मंद होती है उनमें मानसिक तथा अन्य प्रकार का विकास भी देर से होता है।
अतः प्रत्येक बालक में शारीरिक व मानसिक योग्यताओं की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। इस कारण समान आयु के दो बालक व्यवहार में समानता नहीं रखते हैं।
5. विकास की गति में तीव्रता व मंदता पायी जाती है (Development Proceeds in a Spiral Fashion): किसी भी प्राणी का विकास सदैव एक ही गति से आगे नहीं बढ़ता है, उसमें निरंतर उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। उदाहरण के लिए विकास की अवस्था में यह गति तीव्र रहती है उसके बाद में मंद पड़ जाती है। ____6. विकास में विभिन्न स्वरूप परस्पर संबंधित होते हैं (Various Forms are InterRelated in Development)
7. विकास परिपक्वता और शिक्षण का परिणाम होता है (Development Results from Maturation and Learning): बालक का विकास चाहे शारीरिक हो या मानसिक वह परिपक्वता व शिक्षण दोनों का परिणाम होता है। > ‘परिपक्वता’ से तात्पर्य व्यक्ति के वंशानुक्रम द्वारा शारीरिक गुणों का विकास है।
बालक के भीतर स्वतंत्र रूप से एक ऐसी क्रिया चलती रहती है, जिसके कारण उसका शारीरिक अंग अपने-आप परिपक्व हो जाता है। उसके लिए वातावरण से सहायता नहीं लेनी पड़ती है। शिक्षण और अभ्यास परिपक्वता के विकास में सहायता प्रदान करते हैं। यह सीखने के लिए परिपक्व आधार तैयार करते है और सीखने के द्वारा बालक के व्यवहार में प्रगतिशील परिवर्तन आते हैं।
8. विकास एक अविराम प्रक्रिया है (Development is Continuous Process): विकास एक अविराम प्रक्रिया है, प्राणी के जीवन में यह निरंतर चलती रहती है। उदाहरण के लिए-शारीरिक विकास गर्भावस्था से लेकर परिपक्वावस्था तक निरंतर चलता रहता है परंतु आगे चलकर वह उठने-बैठने, चलने-फिरने और दौड़ने-भागने की क्रियाएँ करने लगता है।
विकास को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting of Development
बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है-
वशानुक्रम (IHeredity) डिंकमेयर (Dinkmeyer; 1965) के अनुसार, “वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं जो बालक में जन्म के समय से ही पायी जाती है। प्राणी के विकास में वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्व होने के कारण प्राणी के मौलिक स्वभाव और उनके जीवन चक्र की गति को नियन्त्रित करती हैं।” 7/प्राणी का रंग, रूप, लंबाई, अन्य शारीरिक विशेषताएँ, बुद्धि, तर्क, स्मृति तथा अन्यमानसिक योग्यताओं का निर्धारण वंशानुक्रम द्वारा ही होता है।
माता के रज तथा पिता के वीर्य कणों में बालक का वंशानक्रम निखि गर्भाधान के समय जीन (Genes) भिन्न भिन्न प्रकार से संयक्त होते । वंशानक्रम के वाहक हैं। अतः एक ही माता पिता की संतानों में भिन्नता देती है, यह भिन्नता का नियम (Law of Variation) है। प्रतिगमन के नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता
की संतानें दुर्बल बुद्धि के भी हो सकते हैं। 02. वातावरण (Environment): वातावरण में वे सभी बाह्य शक्तियों परिस्तिथियाँ आदि सम्मिलित हैं, जो प्राणी के व्यवहार, शारीरिक और मानसिक को प्रभावित करती हैं। अन्य क्षेत्रों के वातावरण की अपेक्षा बालक के घर का वादा उसके विकास को सर्वाधिक महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।
3. आहार (Nutrition): माँ का आहार गर्भकालीन अवस्था से लेकर जन्म के उपरांत तक शिशु के विकास को प्रभावित करता है। आहार की मात्रा की अपेक्षा आहार में विद्यमान तत्व बालक के विकास को अधिक महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।
4.रोग (Disease) शारीरिक बीमारियाँ भी बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती हैं। बाल्यावस्था में यदि कोई बालक अधिक दिनों तक बीमार रहता है तो उसका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।
5. अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands): बालक के अंदर पायी जानेवाली ग्रन्थियों से जो स्राव निकलते हैं, वे बालक के शारीरिक और मानसिक विकास तथा व्यवहार को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।
– पैराथाइराइड ग्रन्थि से जो स्राव निकलता है उस पर हड्डियों तथा दाँतों का विकास निर्भर करता है । बालक के संवेगात्मक व्यवहार और शांति को भी इस ग्रंथ का स्राव प्रभावित करता है बालक की लंबाई का संबंध थाइराइड ग्रन्थि के स्राव से होता है। पुरुषत्व के लक्षणों (जैसे—दाढ़ी, मूंछे और पुरुष जैसी आवाजें) तथा स्त्रीत्व के लक्षणों का विकास जनन ग्रंथियों (Gonad Glands) पर निर्भर करता है।
6. बुद्धि (Intelligence): बालक का बुद्धि भी एक महत्वपूर्ण कारक है, जो बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। तीव्र बुद्धि वाले बालकों का विकास मंद बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा तीव्र गति से हाता है। दुर्बल बुद्धि वाले बालकों में बुद्धि का विकास तीव्र बुद्धि वाले बालकों की अपक्षा मंद गति से होता है तथा विभिन्न विकास प्रतिमान अपेक्षाकृत अधिक आयु-स्तरा पर पूर्ण होते हैं।
__7. योन (Sex) यौन भेदों का भी शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। जन्म के समय लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा कम लंबी उत्पन्न होती हैं परंतु वयता अवस्था के प्रारंभ होते ही लड़कियों में परिपक्वता के लक्षण लड़कों की अपेक्षा विकसित होने लगता है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का मानसिक विकास भाप पहले पूर्ण हो जाता है।
विकास की विभिन्न अवस्थाएँ Stages of Development
विभिन्न वैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं को अलग अलग प्रकार से वर्गीकृत किया है। ये अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-
रॉस के अनुसार : विकास की अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं
(a) शैशवावस्था 1- 3 वर्ष
(b) पूर्व बाल्यावस्था 3- 6 वर्ष
(c) उत्तर बाल्यावस्था 6 – 12 वर्ष
(d) किशोरावस्था 12 – 18 वर्ष
बाल विकास और बाल अध्ययन की दृष्टि से हरलॉक के द्वारा किया गया वर्गीकरण सामान्य माना गया है। इनके अनुसार विकास की अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-
1. गर्भावस्था गर्भाधान से जन्म तक
2. शैशवावस्थामायोजनका जन्म से दो सप्ताह तक
3. बचपनावस्था संवेग प्रल्यावस्था तीसरे सप्ताह से दो वर्ष तक
4. पूर्व-बाल्यावस्था तीसरे वर्ष से छह वर्ष तक
5. उत्तर-बाल्यावस्था सातवें वर्ष से बारह वर्ष तक
6. वयःसंधि बारह वर्ष से चौदह वर्ष तक
7. पूर्व-किशोरावस्था तेरह से सतरह वर्ष तक
8. उत्तर-किशोरावस्था अठारह से इक्कीस वर्ष तक
9. प्रौढ़ावस्था इक्कीस से चालीस वर्ष तक
10. मध्यावस्था इकतालीस से साठ वर्ष तक
11. वृद्धावस्था साठ वर्ष के बाद
> इस प्रकार वैज्ञानिकों ने विकास को विभिन्न अवस्थाओं में विभक्त किया है।
1. गर्भकालीन अवस्था (Prenatal Period): यह अवस्था गर्भाधान से जन्म के समय तक मानी जाती है।
इस अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं
> इस अवस्था में विकास की गति अन्य अवस्थाओं से तीव्र होती है।
०१ – समस्त रचना, भार और आकार में वृद्धि तथा आकृतियों का निर्माण इसी अवस्था में होता है।
इस अवस्था में होनेवाले परिवर्तन मुख्यतः शारीरिक ही होते हैं।
2. शैशवावस्था (Infancy): जन्म से लेकर 15 दिन की अवस्था को शैशवास्था कहा जाता है। इस अवस्था को ‘समायोजन’ (Adjustment) की अवस्था भी कहा जाता है। उसकी उचित देखभाल के द्वारा नये वातावरण के साथ समायोजन माता-पिता द्वारा किया जाता है।
3. बचपनावस्था (Babyhood): यह अवस्था दो सप्ताह से होकर दो वर्ष तक चलती है। यह अवस्था दूसरों पर निर्भर होने की होती है।
संवेगात्मक विकास की दृष्टि से इस अवस्था में बच्चे के भीतर लगभग सभी प्रमुख संवेग जैसे–प्रसन्नता, क्रोध, हर्ष, प्रेम, घृणा आदि विकसित हो जाते हैं। यह अवस्था संवेग प्रधान होती है।
4. बाल्यावस्था (Childhood) यह अवस्था शारीरिक एवं मानसिक वित दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। अध्ययन की दृष्टि से इसे दो भागों में बाँटा गया
(a) पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood) : 2 से 6 वर्ष (b) उत्तर बाल्यावस्था (Late Childood): 7 से 12 वर्ष इस अवस्था में बालकों में ‘जिज्ञासु’ (Curiosity) प्रवृति अधिक हो जाती है।
बाल्यावस्था में बालकों में ‘समूह-प्रवृति‘ (Gregariousness) का विकास होता है बच्चे साथियों के साथ रहना और खेलना अधिक पसंद करते हैं।
5. वयःसंधि (Puberty): वयःसंधि बाल्यावस्था और किशोरावस्था को मिला सेतु का कार्य करती है। यह अवस्था बहुत कम समय की होती है लेकिन बार विकास की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण अवस्था है।
इस अवस्था की प्रमुख विशेषता है यौन अंगों की परिपक्वता का विकास । बालिका ____ में यह अवस्था सामान्यतः 11 से 13 वर्ष के बीच प्रांरभ हो जाती है और ना
में 12 से 13 वर्ष के बीच ।
6. किशोरावस्था (Adolescence): यह अवस्था 13 वर्ष से प्रारंभ होकर 21 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में बाँटा गया है(a) पूर्व-किशोरावस्था (Early Adolescence)
(17-21 वर्ष) इस अवस्था में बालकों में समस्या की अधिकता, कल्पना की अधिकता और सामाजिक अस्थिरता होती है। इस समय किशोरों को शारीरिक एवं मानसिक समायोजन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शारीरिक और मानसिक परिवर्तन के फलस्वरूप उनके संवेगात्मक, सामाजिक और नैतिक जीवन का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है।
7. प्रौढ़ावस्था (Adulthood): किशोरावस्था के पश्चात् 21 से 40 वर्षों की अवस्था प्रौढ़ावस्था कहलाती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्यों को पाने की कोशिश करता है। यह पारिवारिक जीवन में प्रवेश की अवस्था है।
8. मध्यावस्था (Middle Age): 41 से 60 वर्ष की आयु को मध्यावस्था माना गया है। इस अवस्था में प्राणी के अंदर शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। इस समय व्यक्ति सुख-शांति व प्रतिष्ठा से जीने की कामना करता है। सामाजिक संबंधों के प्रति भी मनोवृत्तियाँ दृढ़ हो जाती हैं।
9. वृद्धावस्था (Old Age): जीवन की अंतिम अवस्था वृद्धावस्था है, जो 60 वर्षस प्रारंभ होकर जीवन के अंत समय तक मानी जाती है। यह अवस्था ‘हास’ की अवस्था होती है । इस अवस्था में शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का ह्रास होने लगता है। स्मरण शक्ति कम होने लगती है।
परीक्षोपयोगी तथ्य
→ विकास गर्भाधान से लेकर जीवनपर्यन्त तक चलता है।
~ विकास में होनेवाले परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक, मानसिक और संवेगात्मक हातह।
विकास में होनेवाले परिवर्तन गुणात्मक होते हैं। विकास क्रम प्राणी को परिपक्वावस्था प्रदान करता है। विकास परिपक्वता और परिवर्तनों की शृंखला है। विकास को क्रमिक परिवर्तनों की शृंखला कहा जाता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है और पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है।
विकास में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक और विनाशात्मक दोनों प्रकार के होते हैं। – प्रारंभिक अवस्था में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक (Constructive) होते हैं। उत्तरार्द्ध
में होनेवाले परिवर्तन विनाशात्मक (Destructive) होते हैं। रचनात्मक परिवर्तन प्राणी में परिपक्वता लाते हैं और विनाशात्मक परिवर्तन उसे वृद्धावस्था (Maturity) की ओर ले जाते हैं। मानव का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है मस्तकाधोमुखी विकास और निकट दूर विकास क्रम । मस्तकाधोमुखी विकास सिर से पैर की ओर होता है। भ्रूणावस्था में पहले सिर का विकास होता है बाद में धड़ तथा निचले भागों का विकास होता है। निकट दूर विकास-क्रम में शारीरिक विकास पहले केन्द्रीय भागों में प्रारंभ होता है इसके बाद केन्द्र से दूर के भागों में होता है। विकास-क्रम में कोई भी बालक पहले सामान्य क्रिया करता है इसके बाद विशेष
क्रिया की ओर अग्रसर होता है। सामान > प्रत्येक बालक की विकास-दर तथा प्रतिमानों में व्यक्तिगत भिन्नता (Individual
Difference) पायी जाती है। शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति समान नहीं होती है। विकास परिपक्वता और शिक्षण दोनों का परिणाम होता है। बालक के विकास में पोषण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संतुलित और पौष्टिक भोजन (प्रोटीन, वसा, खनिज-लवण, विटामिन) शारीरिक व मानसिक विकास में सहायक होता है। बालक के विकास को प्रभावित करनेवाले तत्व हैं- पोषण (Nutrition), बुद्धि (Intelligence), यौन (Sex), अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands), प्रजाति (Race), रोग एवं चोट (Disease and Injuries), घर का वातावरण (Family
Environment), पास-पड़ोस का वातावरण (Neighborhood Environment), विद्यालय का वातावरण (School Environment), सांस्कृतिक वातावरण (Cultural Environment) तथा शुद्ध वायु एवं प्रकाश (Fresh Air and Light)। शैशवावस्था शिशु के ‘समायोजन की अवस्था‘ कहलाती है, क्योंकि इस अवस्था में शिशु गर्भाशय के आन्तरिक वातावरण से निकलकर बाह्य वातावरण के साथ समायोजन का प्रयास करता है। विकास के क्रम में शैशवावस्था की मख्य विशेषताएँ है- अपरिपक्वता, पराश्रितता (Dependency), संवेगशीलता (Emotionality), व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Differences) इत्यादि।
बचपनावस्था की विशेषताएँ होती है-खतरनाक अवस्था (Danon अजीबोगरीब अवस्था (Critical Stage), आत्मनिर्भरता की अवस of Independency), उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास (Graduate Development), पुनरावृत्ति की प्रवृत्ति (Tendency of Repetition), आत्म (Self Centered) और स्वप्रेमी, नैतिकता का अभाव (Lack of oration की प्रवृत्ति (Tendency of Imitation), मानसिक प्रक्रियाओं के विकास में सामाजिक भावना का उदय (Development of Social Felling)।
पूर्व बाल्यावस्था को तीव्र विकास की अवस्था, स्कूल पूर्व की अवस्था. समर अवस्था और जिज्ञासु प्रवृति की अवस्था कही जाती है। पूर्व बाल्यावस्था में बालक अपनी क्रियाओं में हस्तक्षेप करना पसन्द नहीं करता वह स्वतंत्र रूप से अपने अनुसार कार्य करना चाहता है।
विकास के क्रम में उत्तर बाल्यावस्था को प्रारम्भिक स्कूल की आयु (Element School Age), चुस्ती की आयु (Smart Age), गन्दी आयु (Dirty Age), समह आग (Gang Age), सारस अवस्था और नैतिक विकास की आयु (Age of Moration इत्यादि की अवस्था कहा जाता है। विकास के क्रम में किशोरावस्था को सुनहरी अवस्था कहा जाता है।
किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ हैं
यह परिवर्तन की अवस्था है।
इस अवस्था में ‘विषमलिंगी भावना’ का विकास होता है।
इस अवस्था में बालक में कल्पना की प्रधानता होती है।
यह तनाव और परेशानी की अवस्था है।
यह पूर्ण वृद्धि की अवस्था कहलाती है।
यह आत्मनिर्भरता और व्यवसाय चुनने की अवस्था होती है।
वृद्धि गर्भावस्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती है।
वृद्धि में होनेवाले परिवर्तन शारीरिक होते हैं।
वृद्धि के दौरान होनेवाले परिवर्तन मात्रात्मक होते हैं।
वृद्धि में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं।
विकास कभी नहीं समाप्त होने वाली प्रक्रिया है, यह निरन्तरता के सिद्धान्त स सम्बन्धित है।
विकास एवं वृद्धि के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार निम्न कक्षाओं में शिक्षण खेल विधि पर आधारित होती है।
विकास में वृद्धि का तात्पर्य है बालकों में सीखने, स्मरण तथा तर्क इत्यादि की क्षमता में वृद्धि होना।
गर्भ में बालक को विकसित होने में 280 दिन लगता है। नवजात शिशु का भार 7 पाउण्ड होता है।
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