LLB Notes in Hindi PDF Free Download

LLB Notes in Hindi PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों फिर से स्वागत है आप सभी का हमारी आज की पोस्ट LLB Notes PDF Free Download में जिसके लिए अभ्यर्थियो द्वारा काफी समय से मांग की जा रही थी | दोस्तों हम आपको इस पोस्ट में What is LLB Course and LLB Full Form in Hindi PDF में पूरी जानकारी शेयर कर रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में शेयर किया जा रहा है | हम आप सभी अभ्यर्थियो को आज क Post में Indian Law, LLB Course Full Details, कानून की पढ़ाई पूरी जानकारी, मानव अधिकार in Hindi में शेयर कर रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में शेयर किया जा रहा है |

LLB Notes in Hindi PDF Free Download

हम अभ्यर्थियो को बता दे की इस पोस्ट से पहले भी आपके लिए LLB Books and Notes in Hindi & English PDF में बनाकर शेयर कर चुके है उम्मीद है आप सभी को हमारे द्वारा बनाई गयी सभी पोस्ट मिल गयी होगी | जैसा की आप सभी अभ्यर्थी जानते है की LLB Law Course 3 Year का होता है जिसमे आपको 6 Semester Exam के रूप में देने होते है | हम अभ्यर्थियो के लिए इसी पोस्ट में LLB Book in PDF All Semester 1st, 2nd, 3rd Year Post का लिंक भी शेयर कर रहे है उम्मीद है आप सभी को हमारे द्वारा बनाई गयी सभी पोस्ट मिल गयी होगी |

कुछ अभ्यर्थियो द्वारा मांग की गयी थी की हम उनके लिए जल्द ही Indian Law Books Free Download PDF in Hindi English की पोस्ट लेकर आयें जिसे हम पहले ही सहरे कर चुके है उम्मीद है आप सभी को हमारे द्वारा बनाई गयी पोस्ट मिल गयी है | हम अभ्यर्थियो को कहना चाहते है की जो अभ्यर्थी LLB Entrance Exam Paper की तैयारी कर रहे है उन अभ्यर्थी के लिए भी हम Arihant LLB Entrance Book PDF in Hindi की पोस्ट बनाकर शेयर कर चुके है उम्मीद है आप सभी को हमारे द्वारा बनाई गयी पोस्ट मिल गयी होगी | अभ्यर्थी निचे दिए गये टेबल से LLB Book and Notes in Hind PDF में Free Download कर सकते है |

Download LLB Notes in PDF

LLB Course full Details in PDFDownload
कानून की पढ़ाई Full Details in PDFDownload
Indian Law in PDFDownload
मानव अधिकार in PDFDownload
व्यस्क मताधिकार in PDFDownload

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The Constitution of India Book PDF in Hindi Free Download

The Constitution of India Book PDF in Hindi Free Download : हैलो दोस्तों एक बार फिर से स्वागत है आप सभी का हमारी आज की पोस्ट Indian Constitution Book PDF में जिसे आप Free Download करने जा रहे है | हम अभ्यर्थियो को बता दे की Indian Constitution Book Written By Ambedkar के लिए पहले ही पोस्ट बनाकर शेयर कर चुके है उम्मीद है आप सभी को हमारे द्वारा बनाई गयी पोस्ट मिल गयी होगी |

The Constitution of India Book PDF in Hindi Free Download

कुछ अभ्यर्थियो ने हमसे मांग की थी हम उनके लिए जल्द ही Indian Constitution Book in English की पोस्ट लेकर आयें जो आपको शेयर भी की जा चुकी है | जैसा की अभ्यर्थी जानते ही होंगे की Indian Constitution Book for LLB Course में आता है जिसे आप भी बिना LLB Course किये हुए पढ़ सकते है | दोस्तों सभी अभ्यर्थियो को अपने देश के Indian Constitution के बारे में अच्छी जानकारी होनी चाहिए जो आपको अपनी ताकत के बारे में बताता है | कहा जाता है की भारत में बनाया गया The Constitution of India पूरी दुनिया में सबसे अच्छे माना जाता है जिसमे सभी धर्म को समान अधिकार दिया हुआ है |

Constitution of India Original Book PDF में काफी समय से मांग की जा रही थी जिसके बाद आज हम आपको यह पोस्ट शेयर कर चुके है | दोस्तों हमारी वेबसाइट के द्वारा LLB Books and Notes for All Semester 1st, 2nd, 3rd Year Post बनाकर शेयर भी की जा चुकी है जिसका लिंक भी आपको इसी पोस्ट में शेयर भी किया जा रहा है | अभ्यर्थी निचे दिए गये टेबल से The Constitution Book in PDF Free Download कर सकते है |

Download The Constitution of India Book in PDF

The Constitution of Indian Book PDFDownload

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Indian Constitution Books and Notes PDF Free Download

हैलो दोस्तों एक बार फिर से स्वागत है आप सभी का हमारी वेबसाइट SscLatestNews.Com में, दोस्तों आज की पोस्ट में आप Indian Constitution Notes PDF में Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको सबसे निचे टेबल में दिया जा रहा है |

Indian Constitution Books and Notes PDF Free Download

Indian Constitution Books and Notes PDF Free Download : Indian Constitution Book LLB Course के साथ साथ Competition Exams में भी महत्त्पूर्ण मानी जाती है जिसे आज आप हमारी वेबसाइट के माध्यम से Free Download करेंगे | Indian Constitution Books and Notes for Competitive Exams PDF की पोस्ट के लिए काफी अभ्यर्थी हमसे मांग कर रहे थे जिसके बाद आज हम यह पोस्ट लेकर आयें है | दोस्तों किसी भी Competitive Exams Questions Answers Papers के लिए Indian Constitution Book के साथ आपको Indian Polity Book को भी पढ़ना चाहिए जिसे आज हम इसी पोस्ट में शेयर कर रहे है |

दोस्तों जैसा की आप सभी जानते है की Indian Constitution Book में आपको संविधान रचियता द्वारा प्रावधान दिए गये है जिसकी जानकारी सभी अभ्यर्थियो को होनी चाहिए | दोस्तों कुछ अभ्यर्थी ऐसे भी होते है जिनके पास Book को खरीदने के पैसे नही होते है लेकिन आज आप हमारी वेबसाइट के माध्यम से Indian Constitution Books and Notes in Hindi में Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया जा रहा है |

Download Indian Constitution Books and Notes in PDF

Indian Constitution Book in English PDFDownload
Indian Constitution Book in Hindi PDFDownload

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LLB Books & Notes for All Semester PDF Download 1st 2nd 3rd Year

LLB Books & Notes for All Semester PDF Download 1st 2nd 3rd Year : Hello Friends एक बार फिर से स्वागत है आप सभी का हमारी Website SscLatestNews.Com में, आज की पोस्ट में आप LLB First, Second, Third, Forth, Fifth and Sixth Semester Book and Notes PDF में Free Download करने जा रहे है जिसे आप सबसे निचे दिए गये टेबल पर जाकर प्राप्त कर सकते है | दोस्तों हम आपको बता दे की हमने पहले भी LLB Books Study Material for All Semester 1st, 2nd & 3rd Year PDF Free Download 2022 पोस्ट बना चुके है जिसका लिंक भी हम आपको इसी पोस्ट में शेयर भी करने जा रहे है |

LLB Books & Notes for All Semester PDF Download 1st 2nd 3rd Year

दोस्तों आज के समय में अभ्यर्थी BA LLB Books PDF Free Download करने के लिए भी हमसे पोस्ट बनाने के लिए बोल रहे है जिसको हम पहले ही आपके लिए बनाकर शेयर भी कर चुके है | जैसा की आप सभी जानते ही होंगे की LLB Exam Paper शुरू होने ही जा रहे है जिसकी तैयारी आप हमारी वेबसाइट के माध्यम से कर सकते है | हम अभ्यर्थियो को अपनी आज की पोस्ट में LLB 1st, 2nd, 3rd, 4th, 5th & 6th Semester Notes in Hindi and English PDF में Free Download करने के लिए शेयर कर रहे है उम्मीद है आप हमारे द्वारा बनाई जा रही इस पोस्ट को पूरा पढ़ रहे होंगे |

दोस्तों LLB Exam Paper देने से पहले आप हमारे द्वारा बनाई गयी पोस्ट LLB Previous Year Questions Answers Papers को पूरा पढ़े जिसका लिंक हमने आपको निचे शेयर किया है | जो अभ्यर्थी LLB Books Online खोज रहे रहे है और हमारी वेबसाइट पर आ चुके है वो अभ्यर्थी हमारी वेबसाइट से LLB Books PDF in Hindi & English दोनों ही भाषा में Semester Wise Free Download कर सकते है | दोस्तों यदि आप भी LLB Course करना चाहते है तो आज की पोस्ट में हम आपको What is LLB सहित LLB new Syllabus in PDF की भी पूरी जानकारी देंगे |

LLB Syllabus for All Semester 1st, 2nd & 3rd Year

LLB First Semester Course Subject

  • Labor Law Subject
  • Family Law –1
  • Crime Subject
  • Law of Contract-1

LLB First Semester Optional Papers Name

  • Women & Law
  • International Economics Law
  • Trust Optional Subject
  • Criminology

LLB Second Semester Course Subject

  • Professional Ethics
  • Family Laws 2
  • Law of Tort and Consumer Protection Act
  • Constitutional Law

LLB Third Semester Course Subject

  • LLB Arbitration, Conciliation & Alternative
  • LLB Human Rights & International Law
  • LLB Law of Evidence
  • LLB Environmental Law

LLB Forth Semester Course Subject

  • Law of Contract 2
  • Practical Training – Legal Aid
  • Property Law including the transfer of Property Act
  • Jurisprudence

LLB Forth Semester Course Optional Papers

  • Law of Contract 2
  • Law of Insurance
  • Comparative Law
  • Conflict of Laws
  • Intellectual Property Law

LLB Fifth Semester Course Subject

  • Interpretation of Statutes
  • Administrative Law
  • Legal Writing
  • Civil Procedure Code
  • Land Laws Including Ceiling and Other Local Laws

LLB Sixth Semester Course Subject

  • Subject Code of Criminal Procedure
  • Subject Practical Training 2 – Drafting
  • Subject Company Law
  • Subject Practical Training – Moot Court

LLB Sixth Semester Course Optional Papers

  • Banking Law including Negotiable Instruments Act
  • Investment & Securities Law
  • Law of Taxation
  • Cooperative Law

LLB Specialization Subject

  • Code of Civil Procedure
  • Criminology
  • Litigation Advocacy
  • Environmental Law
  • Human Rights & International Law
  • Family Law
  • Banking Law
  • Legal Writing
  • Contracts
  • Administrative Law
  • Intellectual Property Law
  • Law of Taxation
  • Law of Evidence
  • Political Science
  • Legal Methods

Download LLB Books and Notes for All Semester in PDF 1st, 2nd & 3rd Year

Principles of Contract Law Book in PDFDownload
Indian Legal System Book in PDFDownload
Family Law Book in PDFDownload
Law of Torts Book in PDFDownload
Constitution Law Book in PDFDownload
Labour Law Book in PDFDownload
Partnership Case Law Book in PDFDownload
Taxation Case Law Book in PDFDownload
International Law Book in PDFDownload
Evidence Law Book in PDFDownload
Property Law Book in PDFDownload
Limitation Case Law Book in PDFDownload

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Download Any Book for Free PDF BA B.Sc B.Com BBA

CCC Books & Notes Study Material in PDF Download

The Constitution of India Book PDF Free Download

The Constitution of India Book PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों एक बार फिर से स्वागत है आप सभी का हमारी Website SscLatestNews.Com में, आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी Constitution of India Original Book in Hindi & English PDF Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको सबसे निचे टेबल में दिया जा रहा है | LLB Course कर रहे अभ्यर्थियो को बता दे की Indian Constitution PDF in Hindi Book आपके लिए बहुत ही महत्वपूर्ण होने जा रही है और हम पहले भी आपके लिए LLB Books and Note for Semester 1st, 2nd, 3rd, 4th, 5th & 6th Year Wise पहले भी बनाकर शेयर कर चुके है जिसका लिंक भी आपको इसी पोस्ट में शेयर भी किया जा रहा है |

The Constitution of India Book PDF Free Download

दोस्तों कुछ अभ्यर्थियो ने हमे कहा था की हम उनके लिए LLL Law Books in Hindi PDF में लेकर आयें जिन्हें अब हम Book/Chapter Wise Share कर रहे है | दोस्तों हमारे द्वारा बनाई जा रही पोस्ट Constitution of India Bare Act PDF आपको निचे टेबल Free Download करने के लिए उपलब्ध कराई हुई है जिस आप Download पर क्लीक करके प्राप्त कर सकते हिया | दोस्तों हम आपको पहले पोस्ट में बता चुके है की LLB Full Form Bachelor of Laws को कहा जाता है जिसे आप एक Under Graduate Degree बोल सकते है |जिसे करने के बाद आप कानून व विनियमों के बारे में सीखते है |

आप LLB Course करने के बाद कानून की पूरी जानकारी प्राप्त कर लेते है | LLB Course दूसरी uder Graduate Degree की तरह ही 3 Year का होता है जिसमे आपको 6 Semester Exam Paper देने होते है यानी की आप हर वर्ष LLB के 2 Semester Exam Questions Papers के रूप में देते है | दोस्तों हम आपको निचे टेबल में The Constitution of India Books in Hindi PDF Free Download करने के लिए शेयर कर रहे है |

Download The Constitution of India Book in PDF

The Constitution of India in PDFDownload

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B.Com Books & Notes for All Semester in PDF 1st 2nd 3rd Year

Download Any Book for Free PDF BA B.Sc B.Com BBA

LLB Books and Notes PDF Free Download 2022

LLB Books and Notes PDF Free Download 2022 : दोस्तों एक फिर से स्वागत है आप सभी का हमारी वेबसाइट SscLatestNews.Com में जिसमे आज आप LLB Notes PDF Free Download करने जा रह है जिसका लिंक सीधा आपको निचे टेबल में दिया जा रहा है | हम पिछली पोस्ट में LLB Previous Year Questions Answers Papers in Hindi and English PDF बनाकर शेयर भी कर चुके है जिसका लिंक आपको इसी पोस्ट में शेयर भी किया जा रहा है | कुछ अभ्यर्थियो ने हमसे मांग की थी हम उनके लिए LLB Books PDF in Hindi Free Law Study Material Post लेकर आयें जो आज आपको इसी पोस्ट में शेयर भी की जा रही है |

LLB Books and Notes PDF Free Download 2022

दोस्तों आपको निचे दिए गये टेबल में LLB 1st, 2nd & 3rd year Books and Notes PDF में दिए गये है जिसे आप Semester wise Free Download कर सकते है | जैसा की आप सभी जानते ही होंगे LLB Course 3 year का होता है जिसमे आपको हर वर्ष 2 Semester Exam के रूप में देने होते है यानी आपको पुरे 6 Semester LLB Exam देने होते है | आपको आज की पोस्ट में LLB 1st, 2nd, 3rd, 4th, 5th & 6th Semester Books in Hindi and English PDF Free Download करने के लिए शेयर की जा रही है जिसे आप निचे दिए गए टेबल से प्राप्त कर सकते है |

LLB Exam Paper 2022 शुरू होने ही जा रहा है जिसकी तैयारी के लिए आपको LLB Previous Year Model Sample Questions Papers in PDF की आवश्यकता पढ़ने वाली है जिसे आप उपर दिए गये मेनूबार पर जाकर प्राप्त कर सकते है | दोस्तों यदि आप BA LLB Course करते है तो उसके लिए आपको 5 Year ही देने होते है | और हम अपनी वेबसाइट पर BA LLB Books and Notes in Hindi English Post बनाकर पहले ही शेयर कर चुके है |

LLB Course Syllabus Semester Wise Details

LLB 1st Semester Syllabus Course

  • LLB Family Law Book 1st
  • LLB Labor Law Book
  • LLB Crime Book
  • LLB Law of Contract Book 1st

LLB Optional Exam Papers

  • LLB Trust Book
  • LLB Criminology Book
  • LLB Women and Law Book
  • LLB International Economics Book

LLB 2nd Semester Syllabus Course

  • LLB Law of Troth and Consumer Protection Act. Book
  • LLB Family Law 2nd Book
  • LLB Constitutional of Law Book
  • LLB Professional Ethics Book

LLB 3rd Semester Syllabus Course

  • LLB Arbitration law Book
  • LLB Law of Evidence Book
  • LLB Human rights Book
  • LLB Environmental Book

LLB 4th Semester Syllabus Course

  • LLB Property Law Book
  • LLB Jurisprudence Book
  • LLB practical Training Book
  • LLB Law Contract 2nd Book

LLB Optional Exam Papers

  • LLB Law of Insurance Book
  • LLB Comparative Law Book
  • LLB Confect of Law Book
  • LLB Intellectual Property Laws Book

LLB 5th Semester Syllabus Course

  • LLB Interpretation of Statutes Book
  • LLB CPC Book
  • LLB Legal Writing Book
  • LLB Administrative Law Book
  • LLB Land Laws Book

LLB 6th Semester Syllabus Course

  • LLB Company law Book
  • LLB Code of Criminal Book
  • LLB Practical Training 1st
  • LLB Practical Training 2nd

LLB Optional Exam Papers

  • LLB Taxation Book
  • LLB Investment Book
  • LLB Cooperative Laws Book
  • LLB Banking Law Book

Download LLB All Books and Notes in PDF 1st, 2nd & 3rd Year

LLB Indian Legal System Book in PDFDownload
LLB Principles of Contract Law Book in PDFDownload
LLB Law of Torts Book in PDFDownload
LLB Family Law Book in PDFDownload
LLB Constitution Law Book in PDFDownload
LLB Labor Law Book in PDFDownload
LLB Partnership Laws Book in PDFDownload
LLB Taxation Law Book in PDFDownload
LLB International Law Book in PDFDownload
LLB Evidence Law Book in PDFDownload
LLB Property Law Book in PDFDownload
LLB Limitation Law Book in PDFDownload

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BA LLB Notes in Hindi PDF Download

B.Sc Nursing Books and Notes for All Semester PDF Download

Download Any Book for Free PDF BA B.Sc B.Com BBA

LLB Books & Notes Study Material For All Semester 1st 2nd 3rd Year

LLB Books & Notes Study Material For All Semester 1st 2nd 3rd Year : Indian Law Books PDF (LLB) की इस नई पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थियो का फिर से स्वागत करते है, दोस्तों आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी BA LLB 1st, Year, 2nd Year, 3rd Year All Semester Books in PDF For Free Download करने जा रहे है जिसे आप सबसे निचे दिए गये टेबल के माध्यम से अपने मोबाइल या कंप्यूटर में हमेशा के लिए सम्भालकर रख सकते है | हम अभ्यर्थियो को आज की पोस्ट में LLB 1st Year, 2nd & 3rd Year All Semester 1st, 2nd, 3rd, 4th, 5th & 6th Books & Notes with Study Material आज आपको इस पोस्ट में मिलने जा रहा है जो अभ्यर्थी Online LLB Books PDF में Download करना चाहते है वो निचे दिए गये टेबल के माध्यम से जाकर प्राप्त कर सकते है |

LLB Books & Notes Study Material For All Semester 1st 2nd 3rd Year

LLB Books in Hindi & English दोनों ही भाषा में PDF को बनाया गया है जिसके लिए अभ्यर्थियो से किसी भी तरह का कोई भी शुल्क नही लिया जायेगा | यदि आप भी LLB Course करना चाहते है तो सबसे पहले आप LLB Syllabus PDF Download कर उसे अच्छे से पढ़े जिसके बाद आपको पता चल जाता है की LLB Law Course में कौनसे Subject आते है | LLB Course में सफल होने के लिए आपको LLB Study Material के साथ में LLB Previous Year Questions Paper Mock Test को भी ध्यानपूर्वक पढ़ना होता है जिसका लिंक भी आपको निचे मिल जायेगा |

B.Ed Books & Notes for All Semester in Hindi Download PDF

What is LLB

LLB Full From (Bachelor of Laws) कहा जाता है | LLB Course एक Graduation Course होता है जिसमे आपको देश के सभी तरह के कानून सीखने के लिए मिलते है |

LLB Course Syllabus Subject for All Semester 1st, 2nd 3rd Year

LLB Subject 1st Semester Subject Name

  • LLB Labor Law Subject
  • LLB Family Law –1 Subject
  • LLB Crime Subject
  • LLB Law of Contract-1 Subject

LLB 1st Semester Optional Papers

  • LLB Women & Law Optional Subject
  • LLB International Economics Law Optional Subject
  • LLB Trust Optional Subject
  • LLB Criminology Optional Subject

LLB 2nd Semester Subject Name

  • LLB Professional Ethics Subject
  • LLB Family Laws 2 Subject
  • LLB Law of Tort & Consumer Protection Act Subject
  • LLB Constitutional Law Subject

LLB Subject 3rd Semester Subject Name

  • LLB Arbitration, Conciliation & Alternative Subject
  • LLB Human Rights & International Law Subject
  • LLB Law of Evidence Subject
  • LLB Environmental Law Subject

LLB Subject 4th Semester Subject Name

  • LLB 4th Semester Law of Contract 2 Subject
  • LLB 4th Semester Practical Training – Legal Aid Subject
  • LLB 4th Semester Property Law including the transfer of Property Act Subject
  • LLB 4th Semester Jurisprudence Subject

LLB 4th Semester Optional Papers

  • LLB 4th Semester Law of Contract 2 Subject
  • LLB 4th Semester Law of Insurance Subject
  • LLB 4th Semester Comparative Law Subject
  • LLB 4th Semester Conflict of Laws Subject
  • LLB 4th Semester Intellectual Property Law Subject

LLB Subject V Semester Subject Name

  • LLB Subject V Interpretation of Statutes Subject name
  • LLB Subject V Administrative Law Subject name
  • LLB Subject V Legal Writing Subject name
  • LLB Subject V Civil Procedure Code Subject name
  • LLB Subject V Land Laws including ceiling and other local laws Subject name

LLB Subject VI Semester Subject Name

  • LLB Subject Code of Criminal Procedure Subject Name
  • LLB Subject Practical Training 2 – Drafting Subject Name
  • LLB Subject Company Law Subject Name
  • LLB Subject Practical Training – Moot Court Subject Name

LLB Subject VI Semester Optional Papers

  • LLB Banking Law including Negotiable Instruments Act Optional Papers Subject
  • LLB Investment & Securities Law Optional Papers Subject
  • LLB Law of Taxation Optional Papers Subject
  • LLB Cooperative Law Optional Papers Subject

LLB Specialization Course Details

  • LLB Specialization Criminology Course Name
  • LLB Specialization Code of Civil Procedure Course Name
  • LLB Specialization Human Rights & International Law Course Name
  • LLB Specialization Litigation Advocacy Course Name
  • LLB Specialization Environmental Law Course Name
  • LLB Specialization Family Law Course Name
  • LLB Specialization Banking Law Course Name
  • LLB Specialization Legal Writing Course Name
  • LLB Specialization Contracts Course Name
  • LLB Specialization Administrative Law Course Name
  • LLB Specialization Intellectual Property Law Course Name
  • LLB Specialization Law of Taxation Course Name
  • LLB Specialization Law of Evidence Course Name
  • LLB Specialization Political Science Course Name
  • LLB Specialization Legal Methods Course Name

Download LLB Books & Notes for All Semester in PDF

LLB Constitution Law Book in PDFDownload
LLB Evidence Law Law Book in PDF Download
LLB Family Law Law Book in PDF Download
LLB Indian Legal System Law Book in PDF Download
LLB International Law Law Book in PDF Download
LLB Labor Law Law Book in PDF Download
LLB Law of Torts Law Book in PDF Download
LLB Limitation Case Law Law Book in PDF Download
LLB Partnership Case Law Law Book in PDF Download
LLB Principles of Contract Law Law Book in PDF Download
LLB Property Law Law Book in PDF Download
LLB Taxation Case Law Law Book in PDF Download

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LLB Notes in Hindi PDF Free Download

LLB Hindu Law Part 6 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Part 6 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Book Part 6 Minority and Guardianship Post 1 Study Material के रूप में पढ़ने जा रहे है जिसे आप अपने मोबाइल या कंप्यूटर में Free PDF Download करके भी रख सकते है |

अध्याय 6 अवयस्कता तथा संरक्षकता (LLB Notes)

(MINORITY AND GUARDIANSHIP) (LLB Hindu Law Books)

(हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 के सहित]

संरक्षक कौन है?

संरक्षकता विधि का आधार अवयस्क व्यक्तियों की बौद्धिक अपरिपक्वता है। कोई भी अवयस्क अपने हितों की देखभाल उचित रूप में स्वयं नहीं कर सकता है और न कोई संविदा ही निष्पन्न कर सकता है। अत: अवयस्क व्यक्तियों की देखभाल करने के लिये एक परिपक्व बुद्धि वाले वयस्क की आवश्यकता होती है। इस प्रकार वह व्यक्ति, जो अवयस्क व्यक्तियों की देखभाल करता है तथा उनकी सम्पत्तियों का प्रबन्ध करता है, वह उसका संरक्षक कहलाता है। संरक्षक को स्वयं वयस्क होना चाहिये जिससे कि वह अवयस्क के लिये संविदा निष्पन्न कर सके तथा उसके हितों को समझ सके।

जहाँ तक संरक्षकता-विधि का प्रश्न है. हिन्द विधि के अन्तर्गत अधिराट् को समस्त अवयस्को का संरक्षक माना जाता है। संरक्षकता का प्राथमिक अधिकार अवयस्क के पिता को सौंपा गया है जिसके विषय में यह धारणा है कि वह अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति का प्रबन्ध करे। पिता के अभाव में माता को यह प्राधिकार संरक्षक के रूप में दिया गया है। किन्तु दोनों के अभाव में न्यायालय को यह अधिकार होगा कि वह ऐसे व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त करे जो पितृपक्ष का सबसे नजदीक का रक्त-सम्बन्धी हो अथवा पितृपक्ष के ऐसे निकट सम्बन्धी के अभाव में मातृपक्ष का निकट रक्त-संरक्षक बनाया जाना चाहिये। जहाँ तक अवयस्क पत्नी की संरक्षकता का प्रश्न है, उस दशा में उसका पति चाहे वह वयस्क हो अथवा अवयस्क, संरक्षक होगा। संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 में भी यही स्थिति कायम रखी गई, किन्तु इस अधिनियम के द्वारा प्राकृतिक संरक्षकों की स्थिति में कुछ परिवर्तन लाये गये हैं। यह उल्लेखनीय है कि इस अधिनियम में प्राकृतिक अथवा वसीयती संरक्षक के विहित अधिकार एवं कर्त्तव्यों को आज भी संरक्षक के अधिकार तथा कर्तव्यों का आधार माना जाता

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 के द्वारा लाये गये परिवर्तनइस अधिनियम द्वारा संरक्षकों की परिस्थिति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये गये हैं। सर्वप्रथम माता की प्रास्थिति में सुधार लाया गया। यदि पिता ने किसी वसीयती संरक्षक को नियुक्त कर दिया तो उसकी मृत्यु के बाद माता दूसरी प्राकृतिक संरक्षक होगी न कि वसीयती संरक्षक (धारा 91)। यदि माता ने किसी वसीयती संरक्षक को नियुक्त किया है तो उसकी मृत्यु के बाद पिता के द्वारा नियुक्त वसीयती संरक्षक की तुलना में माता के द्वारा नियुक्त वसीयती संरक्षक अधिमान्य होगा। पूर्वविधि के अन्तर्गत पिता माता को प्राकृतिक संरक्षकता से वंचित कर सकता था। धारा 6 के अन्तर्गत यह विहित किया गया है कि 5 साल से कम आयु वाली सन्तान माता की अभिरक्षा में होगी यद्यपि पिता उसका प्राकृतिक संरक्षक हो सकता है। वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत वस्तुत: (De facto) संरक्षक को अवयस्क की सम्पत्ति के निर्वर्तन करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। पूर्वविधि के अन्तर्गत धर्म-परिवर्तन कर देने के बाद भी सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार पिता को रहता था, किन्तु वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत जिसने धर्म-परिवर्तन कर दिया है या संन्यासी हो गया है, वह अपनी सन्तान की संरक्षकता से सम्बन्धित अधिकार को खो देता है।

अवयस्कता तथा संरक्षकता की विधि को सरल एवं संहिताबद्ध बनाकर पर्वविधि में अवयस्कता एवं संरक्षकता के सम्बन्ध में उत्पन्न मतभेदों को समाप्त कर दिया गया है। इस अधिनियम के अनुसार के सभी व्यक्ति, जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके है, वयस्क मान लिये जायेंगे।

पूर्वावधि के अन्तर्गत प्राकृतिक संरक्षक को अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में असीम शक्तियाँ प्रदान की गई थी। किन्तु इस अधिनियम के अन्तर्गत प्राकृतिक संरक्षक के अधिकार बहत अधिक सीमित कर दिये गये है। वह अब अवयस्क की सम्पत्ति का निर्वर्तन अथवा हस्तान्तरण उस प्रकार नहीं कर सकता है जैसे कि पूर्वावधि में कर सकता था।

वस्तुतः हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 स्वत: पूर्ण नहीं है। यह केवल एक पूरक विधि है जिसको पूर्णता के लिए संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के उपबन्धों का आश्रय लिया जाना आवश्यक है। इस वर्तमान अधिनियम में ऐसे अनेक प्रावधान हैं जिनमें 1890 के आधनियम का निर्देश किया गया है और उसके प्रावधानों को लाग किया गया है जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान अधिनियम पूरक अधिनियम है।

हिन्दू विधि के अन्तर्गत वयस्कतामनु के अनुसार 16 वर्ष की उम्र पर अवयस्कता समाप्त हो जाती है। मनु का कथन है कि राजा अवयस्कों की सम्पत्ति अपनी अभिरक्षा में रखे जब तक कि उनको बाल्यावस्था (16 वर्ष की आयु) समाप्त न हो जाये। इस प्रकार हिन्दू विधि में अवयस्कता 16 वर्ष की आयु पर समाप्त हो जाती है। किन्तु इस विषय पर मतभेद है कि अवयस्कता सोलहवें वर्ष का प्रारम्भ होने अर्थात् पन्द्रहवे वर्ष की समाप्ति पर समाप्त होती है, अथवा सोलह वर्ष पूर्ण हो जाने पर समाप्त होती है। संस्कृत-पाठ्यकारों ने अधिकतर प्रथम मत को माना है, अर्थात् सोलहवें वर्ष के प्रारम्भ होते ही अवयस्कता समाप्त हो जाती है। बंगाल में भी यही मत प्रचलित है। मिताक्षरा-शाखा अर्थात् मिथिला, बनारस, महाराष्ट्र तथा एक समय पर दक्षिण भारत में 16 वर्ष पूर्ण हो जाने पर अवयस्कता को समाप्त मानते थे।

वर्तमान अधिनियम ने इस प्रकार के मतभेद को समाप्त कर दिया है।

संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम एवं भारतीय वयस्कता अधिनियम-भारतीय वयस्कता अधिनियम के पास हो जाने के बाद उपर्युक्त मतभेद बहुत सीमा तक समाप्त हो चुका था। क्योंकि धारा3 में यह उल्लिखित था कि प्रत्येक अवयस्क, जिसके जीवन तथा सम्पत्ति के लिए न्यायालय द्वारा संरक्षक नियुक्त किया गया है, तथा ऐसा प्रत्येक अवयस्क, जिसकी सम्पत्ति की देखरेख के लिए कोर्ट ऑफ वार्ड्स नियुक्त किया गया है, 21 वर्ष पूरा होने पर वयस्कता प्राप्त किया हुआ मान लिया जाता है। अन्य सभी दशाओं में अवयस्क 18 वर्ष की आयु पूरा करने पर वयस्कता प्राप्त किया मान लिया जाता है।

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956-वस्तुत: यह अधिनियम उपर्युक्त विषय के सम्बन्ध में संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के पूरक रूप में अन्तर्विष्ट किया गया है।

वयस्कता की आयु–अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत अवयस्क की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-“अवयस्क का तात्पर्य उन व्यक्तियों से होगा जिन्होंने 18 वर्ष की उम्र पूरी नहीं की है।” अधिनियम के द्वारा उल्लिखित नियम विवाह को छोड़कर अवयस्कता तथा संरक्षकता सम्बन्धी सभी मामलों में अनुवर्तनीय होगा। अधिनियम की धारा 4 के अनुसार “अवयस्कता 18 वर्ष की आयु में समाप्त हो जायगी” का नियम सभी दशाओं में लागू होगा। भारतीय अवयस्कता अधिनियम में उपर्युक्त दिये गये 21 वर्ष की आयु में वयस्कता प्राप्त करने का नियम समाप्त कर दिया गया है।

अधिनियम की धारा 3 में उन व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है जिनके लिये यह अधिनियम

1. बालदायादिकं रिक्थं तावद्रामाऽनुपालयेत्। यावत्स स्यात्समावृत्तो यावच्चातीत शैशवः।। मनु० 8/27॥

लागू किया जायगा।

यह अधिनियम हिन्दुओं के लिये लागू होगा। यहाँ ‘हिन्दू’ शब्द उन सभी व्यक्तियों का बोध कराता है जो हिन्दू विधि की विभिन्न शाखाओं से प्रशासित होते हैं। धारा 3 में उन व्यक्तियों का भी उल्लेख किया गया है जिनके सम्बन्ध में यह अधिनियम लागू नहीं होगा। यह अधिनियम जम्मू और कश्मीर के प्रान्तों को छोड़कर समस्त भारत में लागू होगा।

यह अधिनियम भूतलक्षी नहीं है।

संरक्षक (Guardian)

“संरक्षक’ से तात्पर्य हिन्दू विधि में उन व्यक्तियों से है जो दूसरों के शरीर या सम्पत्ति की या शरीर और सम्पत्ति दोनों की देखभाल का दायित्व रखते हैं। संरक्षक तथा वार्ड अधिनियम के अन्तर्गत भी संरक्षक की परिभाषा इसी अर्थ में की गई है। वर्तमान अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत संरक्षक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है

संरक्षक से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अवयस्क के शरीर की या उसकी सम्पत्ति की या उसके शरीर एवं सम्पत्ति दोनों की देखभाल करता है। यह निम्नलिखित को सम्मिलित करता है

(1) प्राकृतिक संरक्षक।

(2) अवयस्क के पिता या माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक।

(3) न्यायालय द्वारा घोषित या नियुक्त संरक्षक।

(4) कोर्ट ऑफ वार्ड्स से सम्बद्ध किसी अधिनियम के द्वारा या अन्तर्गत इस रूप में कार्यकरने के लिये अधिकृत व्यक्ति।

संयुक्त परिवार में अवयस्क के अविभक्त हित के लिये संरक्षक न नियुक्त किया जानायह एक उल्लेखनीय बात है कि अधिनियम में अवयस्क के लिये संयुक्त परिवार में उसके अविभक्त हित के हेतु संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता है। धारा 11 के अनुसार, जहाँ किसी अवयस्क का अविभक्त हित संयुक्त परिवार में है तथा यह सम्पत्ति परिवार के किसी एक वयस्क के सम्बन्ध में है तो ऐसी अविभक्त सम्पत्ति के विषय में अवयस्क के लिये कोई संरक्षक नहीं नियक्त किया जा सकता।

परन्तु इस धारा में कोई बात इस प्रकार के हितों के विषय में संरक्षक नियुक्त करने के लिए उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को प्रभावित नहीं करती।

कर्ता की स्थिति संरक्षक के रूप में हिन्दू विधि की मिताक्षरा-शाखा में अवयस्क का सहदायिकी हक उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती वरन् कर्ता ही परिवार की समस्त सम्पत्ति का प्रबन्धक होता है, चाहे उस सम्पत्ति में हक वयस्क सदस्य का हो अथवा अवयस्क सदस्य का। जब तक परिवार में कर्ता जीवित है, अवयस्क सदस्य के हितों के लिये संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में कोई संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता। इसी प्रकार यदि अवयस्क मिताक्षरा-विधि से प्रशासित संयुक्त परिवार का सदस्य है तो उसका पिता संरक्षक के रूप में समस्त सहदायिकी सम्पत्ति का, जिसमें अवयस्क का भी हक सम्मिलित रहता है, प्रबन्ध करने का अधिकारी हो जाता है। पिता की मृत्यु के पश्चात उस संयुक्त परिवार की समस्त सम्पत्ति का प्रबन्ध ज्येष्ठ पुत्र में सन्निहित हो जाता है। माता को अपने अवयस्क पुत्रों के अविभक्त हक के सम्बन्ध में अभिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त होता है। यदि सभी पत्र अवयस्क हैं तो न्यायालय एक संरक्षक नियुक्त कर सकता है जो समस्त अविभक्त

1. धारा 12, अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956, देखिए।

2. हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई (1856), 6 एम० आई० ए० 398; गरीब उल्लाह बनाम खरक सिंह, 25 इला० 407; साधुसरन बनाम ब्रह्मदेव, 61 आई० सी० 201

3. गौरी बनाम गजाधर, 5 कल० 719, श्याम कौर बनाम मोहनचन्द, 19 कल० 3011

सम्पत्ति की देखभाल तब तक करेगा जब तक कि अवयस्क पुत्रों में से कोई वयस्कता प्राप्त नहीं कर लेता। परिणामत: किसी अविभक्त मिताक्षरा परिवार के अवयस्क सदस्य की सम्पत्ति के लिए संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता। क्योंकि जब तक विभाजन नहीं हो जाता, अवयस्क की कोई अलग सम्पत्ति न होने के कारण ऐसी सम्पत्ति के प्रबन्ध के लिए संरक्षक की आवश्यकता नहीं होती।

इस प्रकार के नियम का पुष्टिकरण—(1) अनेक न्यायिक निर्णयों से अब यह एक नियम प्रतिष्ठित हो चुका है कि मिताक्षरा संयुक्त परिवार में एक अवयस्क सदस्य के अविभक्त हक के लिए कोई संरक्षक इस आधार पर नियुक्त नहीं किया जा सकता कि ऐसे संयुक्त परिवार के किसी सदस्य का हक अलग अथवा व्यक्तिगत नहीं रहता। अत: यदि कोई संरक्षक किसी अवयस्क के लिए नियुक्त किया जाता है तो परिवार की सम्पत्ति से उसका कोई मतलब नहीं रहेगा।’

(2) हिन्दू विधि में अविभक्त परिवार के विषय में यह धारणा है कि किसी संयुक्त परिवार का कोई अविभक्त सदस्य, जब तक संयुक्त रूप से रहता है, परिवार की संयुक्त तथा अविभक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में वह यह अभिव्यक्त नहीं कर सकता कि उसमें उसका निश्चित हिस्सा है। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का लाभ सामान्य कोष में जाता है, जिसका परिवार के सभी सदस्य उपभोग करते हैं। विभाजन-पर्यन्त संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के स्वामित्व में पूर्ण इकाई होती है। विभाजन द्वारा प्रत्येक सदस्य को अपने निश्चित अंश तथा उसके निर्धारण के लिए निवेदन करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। विभाजन के बाद अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है जो अवयस्क की सम्पत्ति से प्राप्त लाभ एवं किराये आदि का हिसाब रखेगा तथा अपने संरक्षित की सम्पदा के प्रशासन-सम्बन्धी हिसाब को देने का दायित्व उसी पर होगा।

(3) बिना विभाजन हुए अवयस्क के अनिश्चित तथा अभिनिर्धारित अंश के संरक्षक नियुक्त कर देने से परिवार का गठन छिन्न-भिन्न हो जायेगा तथा विभाजन के पूर्व ही अलगाव आ जायेगा जिसका प्रभाव सम्पत्ति के न्यागमन पर पड़ेगा, इसीलिए अविभक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक नियुक्त करने का कोई प्रावधान नहीं था।

(4) किसी अन्य व्यक्ति को संरक्षक के रूप में कर्ता के प्रबन्ध को देखने के लिये नियुक्त कर देने से गम्भीर कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। यह संयुक्त परिवार के उचित प्रबन्ध को छिन्न-भिन्न कर सकता है जिससे परिवार में कलह तथा वैमनस्य के बीज उत्पन्न हो सकते हैं।

एक संयुक्त हिन्दू परिवार जिसमें अवयस्क सदस्य भी है तथा जिस परिवार की संयुक्त सम्पत्ति में अवयस्क का भी हिस्सा है, उसमें अवयस्क के अविभक्त हिस्से को भी उसके नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विधिक आवश्यकता के लिए अन्यसंक्रामित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ जहाँ अवयस्क सदस्यों की संयुक्त सम्पत्ति मृत पिता के द्वारा लिये गये ऋणों की अदायगी के लिये बेच दी जाती है वह अन्यसंक्रामण मात्र घोषित किया गया। इस प्रकार का अन्यसंक्रामण हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 9 से प्रभावित नहीं होता।

उच्च न्यायालय का अधिकार अधिनियम की धारा 12 में उपर्युक्त नियम के सम्बन्ध में एक अपवाद प्रदान किया गया है। उच्च न्यायालय को अपने सामान्य क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत यह अधिकार है कि वह अवयस्क की अविभक्त सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त कर दे, चाहे वह अविभक्त सम्पत्ति एक संयुक्त मिताक्षरा परिवार की ही हो। इस प्रकार संयुक्त मिताक्षरा परिवार के अवयस्क सदस्य की सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय को भी प्राप्त हुआ। उच्च न्यायालय के अधिकार इस सम्बन्ध में संरक्षकता तथा वार्ड्स अधिनियम तथा हिन्दू अवयस्कता

  1. राम बनाम मिहिर, आई० एल० आर० 36 इलाहाबाद 1851
  2. गरीब उल्लाह बनाम खड़क सिंह, 25 इला0407 (पी० सी०)।
  3. गिरधर सिंह बनाम आनन्द सिंह, ए० आई० आर० 1982 राज० 2201

तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 द्वारा किसी रूप में परिवर्तित नहीं किये गये।

दृष्टान्त

अ तथा उसका पुत्र ब एक संयुक्त परिवार के सदस्य हैं जो मिताक्षरा-विधि द्वारा प्रशासित होता है। परिवार में एक मकान के अतिरिक्त कोई सम्पत्ति नहीं है। मकान के मरम्मत की अत्यन्त आवश्यकता है। परिवार के ऊपर ऋण भी है। इन दोनों कार्यों के हेतु परिवार के पास कोई साधन नहीं है। स ने मकान खरीदने के लिए 40,000 रु० देना स्वीकार किया; किन्तु इस शर्त पर कि अ उच्च न्यायालय से ब की ओर से भी बेचने की स्वीकृति प्राप्त कर ले। इस बात पर अ ने ब की ओर से उच्च न्यायालय द्वारा संरक्षक बनने तथा मकान बेचने की स्वीकृति के लिए आवेदनपत्र दिया। न्यायालय के समक्ष यह सन्तोषजनक रूप से सिद्ध किया गया कि यदि मकान बेचने की अनुमति नहीं प्रदान की जाती तो उतना मूल्य नहीं प्राप्त हो सकता जितना उस समय प्राप्त हो रहा था। इस प्रकार अ को ब की ओर से मकान बेचने का अधिकारी उसका संरक्षक नियुक्त करने के बाद बना दिया गया है।

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत अभी हाल में श्रीमती स्वेता एवं अन्य बनाम धर्म चन्द एवं अन्य के वाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया प्रस्तुत वाद में अ जो कि एक संभ्रांत परिवार का व्यक्ति था उसकी मृत्यु दुर्घटना के कारण हो गयी। अ अपने पीछे एक अवयस्क पुत्री तथा विधवा पत्नी छोड़ गया था। अ की मृत्यु के पश्चात् अवयस्क पुत्री अपने नाना के संरक्षण में, साथ रहने लगी जो कि उसका भरण-पोषण करता था कुछ समय पश्चात् नाना ने अवयस्क पुत्री तथा उसके अविभाज्य पैतृक सम्पत्ति में अपने को संरक्षक नियुक्त कराने के लिए एक आवेदन न्यायालय में प्रस्तुत किया। नाना के आवेदन के साथ-साथ पुत्री के चाचा जो मृतक का सगा भाई था उसने भी इस आशय का आवेदन-पत्र न्यायालय में प्रस्तुत किया। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि अवयस्क पुत्री का चाचा, पुत्री के हितों को ध्यान से रखते हुये संरक्षक नियुक्त नहीं किया जा सकता तथा न्यायालय ने इस वाद में यह भी अभिनिर्धारित किया कि पुत्री के नाना उसके हितों को ध्यान में रखते हुये संरक्षक हो सकता है किन्तु अविभाज्य संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति का संरक्षक नहीं हो सकता क्योंकि यह हिन्दू अवयस्कता संरक्षक अधिनियम 1956 की धारा 12 के विरुद्ध होगा।

संरक्षकों के प्रकार-धारा 4 के अन्तर्गत चार प्रकार के संरक्षकों का उल्लेख किया गया है

(1) नैसर्गिक संरक्षक (Natural Guardian),

(2) पिता अथवा माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक, जिसे वसीयती संरक्षक कहा जा सकता

(3) न्यायालय द्वारा नियुक्त अथवा घोषित संरक्षक,

(4) कोर्ट ऑफ वार्ड्स से सम्बन्धित किसी विधि के अन्तर्गत इस प्रकार (संरक्षक के रूप में) कार्य करने के लिए अधिकृत संरक्षक। उपर्युक्त प्रकार के संरक्षकों के अतिरिक्त निम्नलिखित दो प्रकार के और भी संरक्षक होते हैं

(5) वस्तुत: (De facto) संरक्षक,

(6) तदर्थ (Ad hoc) संरक्षक।

(1) नैसर्गिक संरक्षक-नैसर्गिक संरक्षक वह है जो अवयस्क से प्राकृतिक रूप में सम्बन्धित होने के कारण संरक्षक बन जाता है। दूसरे शब्दों में वह व्यक्ति जो अवयस्क से प्राकृतिक अथवा अन्य किसी रूप से सम्बन्धित होने के कारण उसकी सम्पत्ति या शरीर की देखभाल करने का दायित्व अपने ऊपर लेता है, नैसर्गिक संरक्षक कहा जाता है। यद्यपि हिन्दू विधि में संरक्षकों की सूची सीमित

1. नाना भाई बनाम जनार्दन, (1882) 12 बाम्बे 1101

2. ए० आई० आर० 2001 म०प्र० 231

नहीं है, फिर भी अवयस्क का प्रत्येक सम्बन्धी उसका नैसर्गिक संरक्षक नहीं हो सकता। वर्तमान अधिनियम में इसी दृष्टि से नैसर्गिक संरक्षको की सूची दी गई है।

नैसर्गिक संरक्षक उसका पिता होता है और उसके बाद उसको माता। अवयस्क के पिता-माता को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति को उसका संरक्षक बनने का अधिकार नहीं प्राप्त है। न्यायालय को भी पिता के जीवित रहने को दशा में, यदि वह अवयस्क का संरक्षक बनने के अयोग्य नहीं है, अवयस्क के शरीर आदि के लिये संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार नहीं है।

श्रीमती गीता हरिहरन व अन्य बनाम रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह सम्पेक्षित किया कि यदि पिता अपने नाबालिग बच्चे की जिम्मेदारी नहीं उठा रहा है तो ऐसी स्थिति में संतान की माँ नैसर्गिक संरक्षक की भूमिका निभा सकती है। प्रस्तुत मामले में हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 एवं संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के प्रावधानों की व्याख्या करते हुये दो अलग-अलग लेकिन समान निष्कर्ष के फैसले में यह व्याख्या दी गई। प्रस्तुत बाद में वादी ने रिजर्व बैंक आफ इण्डिया के उस अधिकार को चुनौती दी थी जिसके तहत बैक ने उन्हें नाबालिक पुत्र का नैसर्गिक संरक्षक मानने से इंकार कर दिया था। एक दूसरे अन्य वाद में डा० वंदना शिवा ने उन प्रावधानों को चुनौती देते हुए दावा किया था कि वह अपने नाबालिग पुत्र को नैसर्गिक संरक्षक है। डा. वंदना शिवा के पति ने दिल्ली की एक अदालत में विवाह-विच्छेद का वाद दायर कर रखा है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 6(क) और संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 19 (ख) की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाली दो याचिकाओं में इन दोनों कानूनों के इन प्रावधानों से संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त “समानता के अधिकारों का हनन होता है। अभी तक उपरोक्त दोनों प्रावधानों के अन्तर्गत सिर्फ पिता को हो नाबालिक सन्तान का नैसर्गिक संरक्षक माना जाता था। इस वाद में न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह व्याख्या नये मामलों में ही लागू होगी तथा जिन मामलों में निर्णय हो चुका है, उन्हें इस निर्णय के आधार पर पुनः चुनौती नहीं दी जा सकती। न्यायालय ने यह भी अभिमत प्रकट किया कि माता एवं पिता दोनों का यह दायित्व है कि वह अपने अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा करें। यदि पिता किसी मतभेद के कारण अपने बच्चों की देखभाल नहीं करता और ऐसी सन्तान अपने माता के पास पूरी तरह संरक्षण में है तो ऐसी दशा में उसकी माँ बच्चे की नैसर्गिक संरक्षक होगी। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि पिता के जीवनकाल के दौरान माता द्वारा सभी कार्यवाही वैध होगी और ऐसी दशा में हिन्दू संरक्षकता अधिनियम की धारा 6 (क) एवं प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 19 (ख) के सम्बन्ध में पिता को अनुपस्थित माना जायेगा।

मद्रास उच्च न्यायालय ने एन० पलानी स्वामी बनाम ए० पलानी स्वामी के वाद में यह संप्रेक्षित किया कि पिता का नैसर्गिक संरक्षक का अधिकार पितामह एवं नाना से कहीं अधिक श्रेष्ठकर है। माता-पिता के अभाव में हिन्दू पाठ्यग्रंथों में अनेक संरक्षकों की सूची क्रम से दी गई थी; जैसे-ज्येष्ठ भाई, ज्येष्ठ चचेरा भाई, व्यक्तिगत सम्बन्धी, इन सबके अभाव में मातृपक्ष के सम्बन्धी। किन्तु इन सब सम्बन्धियों के संरक्षकता-सम्बन्धी अधिकार माता-पिता की तरह असीम नहीं थे, क्योंकि इस कोटि के समस्त संरक्षकों को न्यायालय से अनुमति लेनी पड़ती थी। जहाँ सभी सहदायिक अवयस्क हैं, वहां न्यायालय उनकी पारिवारिक सम्पत्तियों के लिये संरक्षक नियुक्त कर सकता है। किन्तु इस प्रकार की संरक्षकता उन अवयस्क सहदायिकों के किसी एक के द्वारा वयस्कता प्राप्त कर लेने पर

1. कौसरा बनाम जोरई, (106) 28 इला० 233; देखें, के० आर० सुधा बनाम पी० आर० शशि कुमार, ए० आई० आर० 2012 केरल 711

2. धारा 19 (बी) संरक्षक तथा वार्ड्स अधिनियम देखिये।

3. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 11491

4. ए० आई० आर० 1998 मद्रास पृ० 2641

5. के० के० लक्ष्मी बनाम मरु देवी, आई० एल० आर० 32 मद्रास 1391

उत्सुक है, उसी को पुत्री की अभिरक्षा सौंप दी जानी चाहिये। वस्तुत: यहाँ अभिरक्षा के प्रश्न पर चयन अवयस्क के नाना-नानी तथा उसके पिता के बीच है, अतएव ऐसी स्थिति में पिता की ही अभिरक्षा में पुत्री को देना अधिक श्रेयस्कर होगा।

कुमार वी० जागीरदार बनाम चेतना रमा तीरथ, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पत्नी अपने पहले पति के सन्तान को उससे मिलने से रोक नहीं लगा सकती क्योंकि वह उसका नैसर्गिक संरक्षण है, और नैसर्गिक संरक्षक होने के नाते उसे इस बात का पूरा अधिकार है, कि वह अपने सन्तान को अपने घर में रख सकता है तथा उससे मिल सकता है। प्रस्तुत वाद में पत्नी अपने पहले पति को छोड़कर अपना विवाह दूसरे पति से रचाया जिस समय वह अपना दूसरा विवाह किया उस समय उसके पास पहले पति की सन्तान मौजूद थी, तथा विवाह उपरान्त पत्नी अपने दूसरे पति के साथ अपने पूर्व पति के सन्तान को भी अपने साथ रखा तथा अपने सन्तान को इस बात के लिए हमेशा भड़काती रहती थी कि उसका पिता एक गन्दे किस्म का व्यक्ति है वह उससे न मिला करे पूर्व पति ने इस बात की चुनौती न्यायालय के समक्ष दी न्यायालय ने पति की याचिका स्वीकार करते हुए उसको अपने सन्तान से मिलने की अनुमति प्रदान किया।

श्रीमती सुरिन्दर कौर बनाम हरबक्स सिंह सिन्धू के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि धारा 6 के अधीन अवयस्क सन्तान की प्रमुख कल्याणकारिता ही सबसे महत्वपूर्ण बात होती है। लड़के की दृष्टि से उसे माता की ही अभिरक्षा में रखा जाना चाहिये। जहाँ पति-पत्नी में पारस्परिक सम्बन्ध खराब हो गये हों वहाँ पति के धन-दौलत तथा सम्पन्नता के आधार पर सन्तान की अभिरक्षा का प्रश्न नहीं तय किया जाना चाहिये बल्कि उसकी भलाई एवं हित को देखकर ही कोई निर्णय लिया जाना चाहिये। यदि अवयस्क से घर का कोई अन्य सदस्य जैसे कि पितामह आदि भावनात्मक रूप से जुड़े हों तो भी उसको माता की ही अभिरक्षा में रखा जायेगा भले ही पितामह आदि को इस बात की अनुज्ञा प्रदान कर दी जायेगी कि वे अवयस्क को अपने घर सप्ताह में एक बार ले जायँ और फिर उसे वापस भेज दें।

जब तक माता की अभिरक्षा अवयस्क के हितों के विरोध में नहीं है, माता को ही अवयस्क की अभिरक्षा का अधिकार प्राप्त होगा। ऐसी माता चाहे जीविका अर्जित कर रही हो अथवा एक घरेलू स्त्री हो। अवयस्क के हित तथा अनुशासन के लिए माता की ही अभिरक्षा अधिक श्रेयस्कर होगी। यदि माता के विरुद्ध जारता का आरोप साबित हो जाता है अथवा कमजोर मिजाज का आरोप साबित हो जाता है तो माता की अभिरक्षा का अधिकार समाप्त हो जाता है।

इसी प्रकार जहाँ माता का अनैतिक सम्बन्ध किसी दूसरे व्यक्ति से है और जानबूझकर पति का. घर छोड़कर चली गई, अवयस्क सन्तान के कल्याण या हित में कोई रुचि नहीं रखती तथा अपने भौतिक सुख के लिये अपने सन्तान हेतु कोई त्याग करने के लिये प्रस्तुत नहीं है वहाँ ऐसी माता को पाँच वर्ष से कम आयु वाले अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार नहीं है हालाँकि सामान्य रूप से पाँच वर्ष तक की सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार माता को ही प्रदान किया गया है।’

श्रीमती मोहिनी बनाम वीरेन्द्र कुमार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा तथा उसके कल्याण की बात विचारण न्यायालय के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण है। जहाँ पति-पत्नी में तलाक की आज्ञप्ति पास कर दी गई वहाँ अवयस्क क हिता

1. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1525..

2. ए० आई० आर० 1984 एस० सी० 12241

3. पूनम दत्त बनाम कृष्णलाल दत्त, ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 401

4. श्रीमती मधुबाला बनाम अरुण खन्ना, ए० आई० आर० 1987 दि०811

5. के० एस० मोहन बनाम सन्ध्या , ए० आई० आर० 1993 मद्रास 511

6. ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 13591

को ध्यान में रखना सबसे महत्वपूर्ण है। वर्तमान परिस्थितियों में जहाँ माता अवयस्क के हितों की रक्षा तथा उसे किसी अच्छी संस्था में शिक्षा देने का वायदा करती है वहाँ माता की ही अभिरक्षा में अवयस्क को रखना अधिक हितकर होगा।

उपर्युक्त इसी मत की पुष्टि उच्चतम न्यायालय ने चन्द्रकला मेनन बनाम विपिन मेनन के मामले में किया। इस मामले में पति-पत्नी के बीच पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद हो गया। उनकी अवयस्क पुत्री नाना के साथ रहती थी। अवयस्क पुत्री की माता अमेरिका में पी-एच० डी० डिग्री के लिये अध्ययनरत थी। पुत्री का अधिक स्नेह माता तथा नाना के साथ पिता से भी था। पुत्री का भरणपोषण नाना ही कर रहे थे। ऐसी स्थिति में न्यायालय ने पुत्री को माता की अभिरक्षा में रखा जाना ही उचित अभिनिर्धारित किया तथा पिता को उससे मिलने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी।

शीला वी० दास बनाम पी० आर० सग्गा जी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पुत्री की बौद्धिक क्षमता अत्यंत तीक्ष्ण हो और वह अपने हितों के बारे में अच्छी तरह सोच समझ सकती है। ऐसी परिस्थिति में उसके इच्छानुसार नैसर्गिक संरक्षक के सम्बन्ध में न्यायालय द्वारा विचार किया जा सकता है। प्रस्तुत मामले में अवयस्क पुत्री जिसकी आयु 12 वर्ष थी के संरक्षक के सम्बन्ध में न्यायालय के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत की गयी। पुत्री के माता का यह कहना था कि जब तक उसकी लड़की अवयस्क है तब तक उसकी संरक्षकता उसको दिया जाय जिससे कि उसका ठीक से पालन-पोषण किया जा सके लेकिन उसकी पुत्री का यह कहना था कि वह अपने दादी के साथ रहना चाहती है जो कि उसके पिता के साथ रह रही थी न्यायालय ने पुत्री की भावनाओं को देखते हये एवं उसकी बौद्धिक क्षमता का आकलन करते हुये उसको उसके पिता के नैसर्गिक संरक्षण में रहने का आदेश दिया।

पून: उच्चतम न्यायालय ने गायत्री बजाज बनाम जीतिन भल्ला. के वाद में उपरोक्त मत की अभिपुष्टि किया, न्यायालय ने पत्नी की याचिका को निरस्त करते हुये यह निर्णीत किया कि बच्चों का भविष्य पिता की अभिरक्षा में ज्यादा सुरक्षित है, और जहाँ सन्तान अपने पिता के साथ ही रहना चाहती हैं वहाँ माता को अपनी सन्तान को अपने साथ रखने का अधिकार नहीं होगा, बल्कि उसे ऐसी परिस्थिति में उससे मिलने एवं सम्पर्क बनाये रखने का ही अधिकार होगा।

2. जारज बालक या जारज अविवाहिता बालिका के मामले में माता और उसके बाद पिता संरक्षक हैं।

पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत भी अवयस्क पत्नी का नैसर्गिक संरक्षक ही उसका पति माना जाता था। जैसा कि अब वर्तमान अधिनियम में दिया गया है, संरक्षकता का यह अधिकार पत्नी की सम्पत्ति तथा व्यक्तित्व दोनों के सम्बन्ध में दिया गया है। किन्तु जहाँ पति भी अवयस्क है तो उस स्थिति में धारा 10 के प्रावधानों के अनुसार वह पति अपनी अवयस्क पत्नी की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में यह प्रतिपादित है कि जो व्यक्ति अवयस्क पति की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिकार रखता है वही उसकी अवयस्क पत्नी की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक-जैसा व्यवहार कर सकेगा।

3. विवाहिता बालिका की अवस्था में उसका पति, परन्तु यदि कोई व्यक्ति

1. हिन्दू नहीं रह गया है, या

2. अंतिम तथा पूर्ण रूप से संसार त्याग चुका है अथवा वानप्रस्थ ग्रहण कर लिया है अथवा संन्यासी हो चुका है,

1. (1993) 2 एस० सी० सी० 61

2. ए० आई० आर०2006 एस० सी० 13431

3. ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 10.

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LLB Hindu Law Part 6 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी Students LLB Hindu Law Book Part 6 Minority and Guardianship Post 2 को पूरा करने जा रहे है जिसे हमने Study Material के रूप में आपके सामने रखा है |

तो वह व्यक्ति प्राकृतिक संरक्षक के रूप में इस धारा के प्रावधानों के अन्तर्गत कार्य करने के लिये हकदार नहीं होगा।

जीजाबाई विठ्ठलराव गजरा बनाम पठान खाँ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह विधि निरूपित किया कि अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत कानन यह है कि सामान्यतः जब पिता जीवित रहता है तो वही अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक होता है और उसके बाद उसकी माता उसकी संरक्षिका होती है और जहाँ पिता जीवित है, अवयस्क पुत्री की माता से अलग हो गया है तथा अवयस्क के हितों का कोई ध्यान नहीं रखता तो ऐसी स्थिति में पिता को अजीवित (Not alive) समझा जायेगा

और माता को ही अवयस्क के शरीर एवं सम्पत्ति का प्राकृतिक संरक्षक माना जायेगा तथा उसे अवयस्क की सम्पत्ति को पट्टे द्वारा बाँधने का हक प्राप्त है। इस प्रकार पिता जहाँ संरक्षक के दायित्वों को निभाने में असफल होता है अथवा अनवधानता बरतता है अथवा असमर्थ हो जाता है तो वहां माता को नैसर्गिक संरक्षक के समस्त अधिकार एवं कर्तव्य बिना न्यायालय के घोषित किये ही प्राप्त हो जाते

सोभादेई बनाम भीमा तथा अन्य के वाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि अवयस्क का पिता उसका स्वाभाविक संरक्षक है। अवयस्क जो पाँच वर्ष से अधिक उम्र का है और माता के साथ रहा है, पिता की संरक्षकता में माना जायेगा। उसकी माता उसके अनन्य मित्र (Next friend) के रूप में उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। केवल पिता को ही उसके विरुद्ध किसी वाद में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। संरक्षकता का प्रथम अधिकार पिता को दिया गया है।

व्याख्याइस धारा में पिता और माता पद के अन्तर्गत सौतेला पिता और सौतेली माता नहीं आते।

इस धारा के अन्तर्गत एक दत्तक पुत्र अथवा दत्तक पुत्री की प्राकृतिक संरक्षकता के विषय में कुछ नहीं कहा गया है, किन्तु जैसा कि दत्तक-ग्रहण में पुत्र अथवा पुत्री प्राकृतिक परिवार से दत्तक-ग्रहीता परिवार में चले जाते हैं, दत्तक-ग्रहीता पिता और उसके बाद दत्तक-ग्रहीता माता उसके नैसर्गिक संरक्षक समझे जायेंगे। यह बात धारा 7 में स्पष्ट की गई है।

जब तक पिता जीवित रहता है, माता अवयस्क की प्राकृतिक संरक्षिका नहीं हो सकती और यदि पिता संरक्षक होने से अस्वीकार करता है अथवा प्राकृतिक संरक्षक के रूप में दायित्वों के निर्वाह में असावधानी करता है तो उस दशा में माता अवयस्क के संरक्षक होने की शक्तियों को प्राप्त करने के लिये विधिक कार्यवाहियाँ अपना सकती है।

इस बात का समर्थन केरल उच्च न्यायालय ने पी० टी० चाथू चेत्तियार बनाम करियत कुन्नूमल कानारन के वाद में किया। न्यायालय के अनुसार अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक उसका पिता होगा यदि वह जीवित है। यदि पिता निर्योग्य हो गया है अथवा मर चुका है तभी माता प्राकृतिक संरक्षकता का अधिकार प्राप्त करती है। पिता के जीवन-काल में यदि वह किसी प्रकार के निर्योग्यता का शिकार नहीं है तो माता को पिता के अधिकार में हस्तक्षेप करने की क्षमता नहीं होती। पिता के जीवन-काल में अवयस्क की सम्पत्ति का माता द्वारा अन्यसंक्रामित किया जाना अनधिकृत एवं शून्य होता है।

पिता एवं माता को अवयस्क की जिस सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिकार प्राप्त होता

1. ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 3151

2. पन्नी लाल बनाम राजिन्दर सिंह, (1993) 4 एस० सी० सी० प० 38: देखिये नारायण बाग सम्पूर्णा, 1968 पटना 318।

3. ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1801

4. नारायण सिंह बनाम सम्पूर्ण कौर, 1968 पटना 318: देखें, रुचि माजू बनाम आई० आर० 2011, एस० सी० 15521

5. ए० आई० आर० 1984 केरल 1181

है, वह अवयस्क की पृथक् सम्पत्ति होती है अथवा वह सम्पत्ति जिस पर उसका सम्पूर्ण आधिपत्य होता है। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अवयस्क का जो अंश होता है, उसके सम्बन्ध में संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता।

इस धारा के अन्तर्गत पिता के बाद माता अवयस्क की सम्पत्ति एवं शरीर की संरक्षिका होती है, उसका पुनर्विवाह संरक्षकता के अधिकार के लिए निर्योग्य नहीं होता।

संरक्षक होने की अयोग्यतायेंअधिनियम की धारा 6 के अनुसार निम्नलिखित दशाओं में कोई व्यक्ति संरक्षक बनने के अयोग्य हो जाता है

(1) धर्म-परिवर्तन से उत्पन्न अयोग्यता।

(2) नागरिक (Civil) मृत्यु से उत्पन्न अयोग्यता।’

(3) अवयस्कता से उत्पन्न अयोग्यता।’

(4) जब संरक्षकता अवयस्क के कल्याण के लिए नहीं है।

(1) धर्म-परिवर्तनइस वर्तमान अधिनियम के पास होने के पूर्व धर्म-परिवर्तन से संरक्षक के अधिकार नहीं प्रभावित होते थे। इस बात से कि पिता ने धर्म-परिवर्तन कर लिया है, उसका पुत्र की अभिरक्षा का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता था। किन्तु यदि धर्म-परिवर्तन के समय पिता ने स्वेच्छा से इस प्रकार के पैतृक अधिकार को त्याग दिया है और पुत्र की अभिरक्षा को दूसरे के हाथ सौंप दिया है तो उस दशा में न्यायालय पुत्र की अभिरक्षा को पिता के हाथ में नहीं दे सकता, यदि वह पुत्र के हितों के विपरीत है। किन्तु जहाँ किसी हिन्दू माता ने अपना धर्म-परिवर्तन किया है वहाँ न्यायालय पुत्र को माता की अभिरक्षा से हटाकर किसी एक हिन्दू संरक्षक के अधीन कर सकता है, यदि वह अवयस्क के हितों के अनुकूल हो। इसी प्रकार जहाँ पत्नी ने विवाह-विच्छेद करके किसी दूसरे धर्मावलम्बी के साथ विवाह कर लिया है उससे अपने पुत्र को अपनी अभिरक्षा में रखने का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता।

वर्तमान अधिनियम ने इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये हैं। अधिनियम द्वारा विहित कोई भी प्राकृतिक संरक्षक अर्थात् पिता, माता अथवा पति के हिन्दू न रह जाने पर संरक्षक बनने का अधिकारी नहीं रह जाता। विजय लक्ष्मी बनाम पुलिस इन्स्पेक्टर के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पिता इस्लाम धर्म को स्वीकार करके एक मुस्लिम महिला से विवाह कर लेता है वहाँ वह नैसर्गिक संरक्षक होने का विधिक अधिकारी नहीं रह जाता।

 (2) सिविल मृत्यु (Civil death)—कोई भी व्यक्ति जिसने पूर्णतया अंतिम रूप से संसार त्याग दिया है अथवा यती अथवा संन्यासी हो चुका है, वह अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक होने का अधिकारी नहीं रह जाता। कोई व्यक्ति संन्यासी अथवा यती कह देने मात्र से संन्यासी या यती नहीं हो जाता। संसार का त्याग यथार्थ रूप में पूर्णतया अन्तिम होना चाहिये।

“वह व्यक्ति जो संन्यासी अथवा यती होने की इच्छा करता है, उसे अपना मृत्यु-संस्कार तथा श्राद्ध विधिवत् करना चाहिये तथा अपनी सभी सम्पत्ति को अपने पुत्रों तथा ब्राह्मणों में विभाजित कर देनी चाहिये। उसके पश्चात् होम आदि की क्रिया करके, जल में खड़ा होकर इस उद्देश्य का मन्त्र

1. बक्शी राम लाधाराम बनाम मु० शीला देवी, ए० आई० आर० 1960 पंजाब 3041

2. खण्ड ए, धारा 61

3. खण्ड ब, धारा 6 का परन्तुक।

4. धारा 101

5. धारा 13 (2)।

6. मकन्द बनाम नहुदी, 25 कलकत्ता 8811

7. मेन : हिन्दू विधि, पृष्ठ 867।

8. ए० आई० आर० 1991 मद्रास।

तीन बार पढ़ना चाहिये कि उसने संसार की समस्त वस्तुएँ, पुत्र तथा सम्पत्ति आदि को त्याग दिया है”

(3) अवयस्कता-अधिनियम की धारा 10 में यह विहित किया गया है कि कोई अवयस्क किसी अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक बनने के अयोग्य है।

(4) अवयस्क के कल्याण के प्रतिकूल-कोई भी ऐसा व्यक्ति संरक्षक नहीं बन सकता जिसकी संरक्षकता न्यायालय की दृष्टि में अवयस्क के कल्याण के विपरीत होगी। धारा 13 के अन्तर्गत अवयस्क के कल्याण को सर्वोपरिता दी गई है। अतएव अवयस्क की संरक्षकता उसके कल्याण की अनुकूलता के आधार पर की जायेगी। श्रीमती गंगाबाई बनाम भेरूलाल के वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह कहा कि विधि में पिता एक प्राकृतिक संरक्षक होता है तथा सामान्यत: उसे पुत्र को अपने साथ रखने के प्राकृतिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। किन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं। कि न्यायालय को एक भिन्न विचारधारा धारण करनी पड़ती है जबकि पिता को एक प्राकृतिक संरक्षक होने के बावजूद अवयस्क को उसकी संरक्षकता में नहीं दिया जा सकता। यदि पिता की संरक्षकता में सन्तान का कल्याण खतरे में प्रतीत हो तथा माता की संरक्षकता में उसका कल्याण समान रूप से अथवा अधिक मात्रा में प्रतीत हो तो पिता आवश्यक रूप से संरक्षकता का दावा नहीं कर सकता।

बम्बई उच्च न्यायालय ने पिता को अपनी अवयस्क सन्तान से मिलने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया। पिता ने न्यायालय के आदेश के बावजूद भी, अपनी अवयस्क सन्तान को, जो माता के साथ रहती थी, चार हजार रुपये की राशि प्रतिमास की दर से प्रदान नहीं कर रहा था। न्यायालय ने कहा कि जब तक पिता न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करता उसे अपनी सन्तान के पास पहुँचने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

के वेकेंट रेड्डी व अन्य बनाम चिनिप्पा रेड्डी विश्वनाथ रेड्डी के मामले में अपवयस्क के पिता इंजीनियरिंग कालेज के किसी पद पर कार्यस्त थे जिन्होंने बहुत सी पुस्तकों का लेखन का कार्य किया, तथा उसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी। उसकी पहली पत्नी की मृत्यु पुत्र के जन्म के पश्चात् हो गयी थी। कुछ समय पश्चात् उसने अपना दूसरा विवाह अपनी सहयोगी महिला के साथ सम्पन्न किया। विवाहोपरान्त पति-पत्नी ने इस बात के लिये समझौता किया कि वह किसी अन्य सन्तान को जन्म नहीं देगे और वह पहली पत्नी के बच्चे का भरण-पोषण अच्छे तरीके से करते रहेंगे। कुछ समय उपरान्त उसकी पहली पत्नी के माता-पिता ने न्यायालय में इस बात का आवेदन किया कि उनके पुत्री के पुत्र को उनकी संरक्षा में दिया जाय क्योंकि उस पुत्र का पालन-पोषण उचित तरीके से नहीं हो पा रहा था, जो अवयस्क के कल्याण के प्रतिकूल था। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर इस बात का अवलोकन किया कि पहली पत्नी के पुत्र का भरण-पोषण तथा संरक्षण उचित रूप से नहीं हो पा रहा था। अत: न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पत्र का हित अनुकूल न होने के कारण ऐसे पुत्र का संरक्षण करने का अधिकार उसके नाना-नानी को दे दिया जाय।

विधवा द्वारा पुनर्विवाह का प्रभाव कोई भी हिन्दू विधवा अपनी अवयस्क सन्तान के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिमान्य अधिकार अपने पुनर्विवाह पर खो नहीं देती। पिता की मृत्यु के बाद प्राकृतिक संरक्षक के रूप में माता के अधिकार असीम होते हैं। यह बात अधिनियम की धारा 6 के अन्तगत दी गई व्याख्या से पूर्णतया स्पष्ट है।

दत्तक पुत्र का प्राकृतिक संरक्षक-अधिनियम की धारा 7 के अनुसार अवयस्क द प्राकृतिक संरक्षकता दत्तकग्रहीता पिता में चली जाती है। दत्तकग्रहीता पिता की मृत्यु के बाद संरक्षता

1. शीला बनाम जीवन लाल, ए० आई० आर० 1988 ए० पी० 2751

2. ए० आई० आर० 1976 राज० 1531

3. विनोद चंद बनाम श्रीमती अनुपमा, ए० आई० आर० 1993 बा० 250

4. ए० आई० आर० 2009 आन्ध्र प्रदेश 011

दत्तकग्रहीता माता में निहित हो जाती है।

दत्तक पुत्र के नैसर्गिक पिता-माता उस पर कोई अधिकार नहीं रखते।

प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक संरक्षक के अधिकार

अधिनियम की धारा 8 में अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति के सम्बन्ध में प्राकृतिक संरक्षक के अधिकारों की विवेचना की गई है।

धारा 8 इस प्रकार है-

(1) हिन्दू अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए ऐसे समस्त कार्यों को कर सकता है जो अवयस्क के लाभ के लिये अथवा उसकी सम्पदा के उगाहने, प्रतिरक्षा या लाभ के लिये आवश्यक, युक्तियुक्त तथा उचित हैं। संरक्षक किसी व्यक्तिगत संविदा द्वारा किसी भी दशा में अवयस्क को बाध्य नहीं कर सकता।

(2) प्राकृतिक संरक्षक न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना

(क) अवयस्क की अचल सम्पत्ति के किसी भाग को बन्धक या भारित (Charge) या विक्रय, दान, विनिमय या अन्य किसी प्रकार से हस्तान्तरित नहीं करेगा, या

(ख) ऐसी सम्पत्ति के किसी भाग को पाँच वर्षों से अधिक होने वाली अवधि के लिये या जिस तारीख को अवयस्क वयस्कता प्राप्त करेगा, उस तारीख से एक वर्ष से अधिक होने वाली अवधि के लिये पट्टे पर नहीं देगा।

(3) प्राकृतिक संरक्षक ने उपधारा (1) या (2) के उल्लंघन में अचल सम्पत्ति का जो कोई व्ययन किया है, वह उस अवयस्क की या उसके अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति की प्रेरणा पर शून्यकरणीय होगा।

(4) कोई न्यायालय प्राकृतिक संरक्षक की उपधारा (2) में वर्णित कार्यों में से किसी को भी करने के लिये अनुज्ञा आवश्यकता के लिये या अवयस्क के स्पष्ट लाभ की दशा के अतिरिक्त अन्य किसी दशा में न देगा।

(5) संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1809 की उपधारा (2) के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए आवेदन तथा उसके सम्बन्ध में, सभी दशाओं में इस प्रकार लागू होगा. जैसे कि यह उस अधिनियम की धारा 29 के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिये आवेदन हो तथा विशिष्ट रूप में

(क) आवेदन से सम्बन्धित कार्यवाहियों के विषय में यह समझा जायगा कि वे उस अधिनियम के अधीन उसकी धारा 4-क के अर्थ में कार्यवाहियाँ हैं।

(ख) न्यायालय उस अधिनियम की धारा 31 की उपधाराओं (2), (3) और (4) में उल्लिखित प्रक्रिया का पालन करेगा और अधिकारों से युक्त होगा। (ग) प्राकृतिक संरक्षक को उन कार्यों में से किसी को, जो इस धारा की उपधारा (2) में वर्णित हैं, करने के लिए अनुज्ञा देने से इन्कार करने वाले न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें साधारणतया उस न्यायालय के निर्णय की अपील होती है। इस धारा में न्यायालय से तात्पर्य नगर-व्यवहार न्यायालय अथवा जिला-न्यायालय अथवा संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 4 के अधीन सशक्त न्यायालय से है, जिसके क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के अन्तर्गत वह अचल सम्पत्ति है जिसके बारे में आवेदन किया गया है और जहाँ अचल सम्पत्ति किसी ऐसे एक से अधिक न्यायालय के क्षेत्राधिकार शित है. वहाँ उस न्यायालय से तात्पर्य है जिसकी स्थानीय सीमाओं के क्षेत्राधिकार

में उस सम्पत्ति का कोई प्रभाग स्थित है। पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत संरक्षक के बहुत विस्तृत अधिकार थे। प्राकृतिक संरक्षक के, अवयस्क के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार के विषय में प्रिवी कौंसिल ने एक महत्वपूर्ण वाद में निर्णीत किया था जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आवश्यकता की दशा में नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति को बन्धक रख सकता है, बेच सकता है, उस पर प्रभार निर्मित कर सकता है तथा अन्य प्रकार से उसका निर्वर्तन कर सकता है, यद्यपि इस प्रकार के अधिकार सीमित नहीं हैं। इस वाद का मूल मन्तव्य यह था कि नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का परम आवश्यकता की दशा में तथा उसकी सम्पदा के लाभार्थ अन्यसंक्रामण कर सकता है। इस प्रकार अन्यसंक्रामण केवल नैसर्गिक संरक्षक का ही विशेषाधिकार माना जाता था।

बम्बई उच्च न्यायालय ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि नैसर्गिक संरक्षक के अधिकार के अन्तर्गत अल्पवयस्क की अभिरक्षा सामान्यतया नैसर्गिक अभिभावक को ही प्रदान जाती है। लेकिन विशेष परिस्थिति में नैसर्गिक अभिभावक के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति उसी स्थिति में नियुक्त किया जा सकता है जबकि नैसर्गिक अभिभावक अपने दायित्वों में अक्षम हो या नैसर्गिक अभिभावक एवं अल्पवयस्क के हितों में स्पष्ट टकराव की स्थिति हो अथवा कोई अन्य अपवादग्रस्त परिस्थिति उत्पन्न हो गयी हो जैसे पिता द्वारा पुनर्विवाह सौतेली माँ एवं सौतेले भाई-बहन के कारण अल्पवस्यक के साथ दुर्व्यवहार करना आदि। उपरोक्त परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये अपवादस्वरूप अल्पवयस्क के हितों के संरक्षक करने वाले व्यक्ति को उसका अभिभावक नियुक्त किया जा सकता है।

गोपालकृष्ण शाह बनाम कृष्णशाह के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार किया तथा यह निरूपित किया कि जहाँ माता ने अपने ऐसे मकान को बेच दिया. जिसके ऊपर बन्धक ऋण का भार था तथा जिसके उन्मोचन की सम्भावना भी नहीं रह गई थी, एक विधिक आवश्यकता समझी जायगी। संरक्षक द्वारा किसी सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण आवश्यकता की दशा में अथवा सम्पदा के लाभार्थ किया जा सकता है। अन्यसंक्रामण की आवश्यकता मकान खरीदने वाले को सिद्ध करनी पड़ेगी। विधिक आवश्यकता का निर्णय प्रत्येक दशा में अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार किया गया था। अवयस्क का भरण-पोषण उसकी सम्पत्ति की मरम्मत, उसके पिता की अन्त्येष्टि क्रिया तथा पिता के ऋण को चुकाना’ आदि विधिक आवश्यकता के अन्तर्गत आते थे, जिनके लिये संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण कर सकता था। श्री रमलू बनाम पुण्डरी कश्यप के वाद में फेडरल कोर्ट ने निम्नलिखित बातों को प्रतिपादित किया था

1. कोई भी ऐसा ऋण जो संरक्षक ने अवयस्क की आवश्यकता अथवा उसकी सम्पदा के लाभों के लिये नहीं लिया है, अवयस्क के ऊपर बाध्यकारी नहीं होगा।

2. ऐसा ऋण जो संरक्षक ने अवयस्क की आवश्यकता के लिये अथवा उसकी सम्पत्ति के लाभों के लिये लिया है, अवयस्क के ऊपर बाध्यकारी होगा।

3. यदि संरक्षक ने परक्राम्य-लिखत द्वारा किसी दायित्व को धारण किया है तो वह दायित्व अवयस्क की सम्पदा के विरुद्ध होगा।

1. हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई, 6 एम० आई० ए० 3931

2. अशोक शंकर राव घटगे बनाम महिपति यशवंत खटाले. ए० आई आर० 20

3. 1961 मद्रास 3481 4. सुन्दर नारायन बनाम वेनदराम,

4 ए० सी० 761

5. हरीमोहन बनाम गनेश चन्दर, 10 ए० सी० 823 पर्णपीठ।

6. नाथराम बनाम छग्गन, 14 बम्बई 5621

7. मुरारी बनाम तयाना, 20 बम्बई 2961

8. 1949 एफ० सी० पृ० 2181

अमिरथा कदम्बन बनाम सोरनथ कदम्बन के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि किसी अवयस्क के संरक्षक द्वारा उसकी अवयस्कता की स्थिति में किये गये अन्यसेक्रामण को अपास्त कराने का दावा करने का अधिकार केवल व्यक्तिगत अधिकार नहीं है। धारा

(3) के अधीन अन्यसंक्रान्ती को इस प्रकार के अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का दावा करने से अपवर्जित नही किया जा सकता। धारा 8 (3) में “उसके अधीन का दावा करने वाले किसी व्यक्ति” पद का अभिप्राय ऐसे किसी व्यक्ति से है जो अवयस्क के संरक्षक द्वारा किये गये अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का अधिकार प्राप्त करता है। इस प्रकार अन्यसंक्रान्ती भी अवैध अन्यसंक्रामण को अपास्त करवा सकता है।

पी० डी० चायू चेत्तियार बनाम के० कुत्रुमक्त कनारन के बाद में पिता की मौजूदगी में माता ने अवयस्क की अचल सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण कर दिया जब कि पिता किसी प्रकार की नियोग्यता का शिकार नहीं था, ऐसी स्थिति में यदि पिता अन्यसंक्रामण प्रलेख में कहीं उल्लिखित हो अथवा साक्षी के रूप में हस्ताक्षर कर दिया हो तो अन्यसंक्रामण वैध नहीं हो सकता। न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना किया गया अन्यसंक्रामण अवयस्क की इच्छानुसार शून्यकरणीय होगा न कि शून्य। किन्तु इस प्रस्तुत मामले में अन्यसंक्रामण माता द्वारा अनधिकृत रूप से किये जाने के कारण शून्य होगा क्योकि माता अन्यसंक्रामण के लिये उपयुक्त प्राकृतिक संरक्षक नहीं थी जब कि पिता जीवित था। पुन: केरल उच्च न्यायालय के अनुसार धारा 8 (2) के अन्तर्गत किसी प्रकार का अन्यसंक्रामण विधिमान्य नहीं समझा जायेगा, यदि न्यायालय से उसके सम्बन्ध में पूर्व अनुज्ञा नहीं प्राप्त कर ली गई है। किन्तु जहाँ अवयस्क की सम्पत्ति का हस्तान्तरण नैसर्गिक संरक्षक द्वारा किया गया हो और न्यायालय की अनुज्ञा न प्राप्त की गई रही हो वहाँ अवयस्क यदि वयस्कता प्राप्त करने के बाद उस हस्तान्तरण का स्वेच्छया अनुसमर्थन कर दे तो हस्तान्तरण विधिमान्य हो जाता है।

(1) अवयस्क के लाभ हेतु आवश्यक अथवा युक्तियुक्त तथा उचित कार्य-उपर्युक्त धारा में प्रयुक्त यह वाक्य इस बात का बोध कराता है कि नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क के लाभ के लिए उसके स्वास्थ्य, पालन-पोषण तथा शिक्षा पर आवश्यक नियन्त्रण रख सकता है। इस प्रकार की देख-रेख के अधिकार को वह शिक्षक तथा मित्र को भी सौंप सकता है। किन्तु उसे यह भी अधिकार होगा कि वह उनके अधिकारों को प्रतिसंहत भी कर सके। संरक्षक को यह अधिकार होगा कि वह अवयस्क के निवास स्थान को निर्धारित करे जिससे अवयस्क कुसंगति में न फँस सके। यह धारा उन अन्यसंक्रामणों के प्रति नहीं लागू होती जहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का प्रबन्धक अवयस्क के संयुक्त हित को अवयस्क के हित के लिए अथवा पारिवारिक आवश्यकता के लिए अन्य संक्रामित करता है। संरक्षक जहाँ किसी संविदा को अवयस्क के हित के लिये करता है किन्तु बाद में यह पता चलता है कि वह संविदा उसके हित के विरुद्ध है तो संविदा अनुयोज्य नहीं होगी।

मानिकचन्द्र बनाम रामचन्द्र के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम के पास हो जाने के बाद अवयस्क का संरक्षक उन सभी कृत्यों को करने का अधिकार रखता है जो अवयस्क के हित के लिये आवश्यक अथवा युक्तियुक्त हों। वह ऐसे समस्त कार्यों को

1. ए० आई० आर० 1970 मद्रास 1271

2. ० आई० आर० 1984 केरल 118; देखिए ए० आई० आर० 1989 ए० ओ० सी० ए० पी०।

3. जनार्दन पिल्ले बनाम भगवती कुट्टी अम्मा, ए० आई० आर० 1989 केरल 303।

4 शेख कासिम साहेब बनाम वसीरड्डी, ए० आई० आर० 1989 एन० ओ० सी० ए० पी०।

5. वजीर खाँ बनाम गनेश, 1926 इलाहाबाद 6871

6. फ्लेमिंग बनाम प्राट, आई० ए० जे० के० बी० (ओ० एस०) 1951

7. सग्गाबाई बनाम श्रीमती हीरालाल, ए० आई० आर० 1969 एम० पी० 321 .

8 दरबारा सिंह बनाम कमीन्दरसिह, ए० आई० आर० 1979 पं० एवं हरि० 2151

9. ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 5191

कर सकता है जो अवयस्क की सम्पदा की रक्षा अथवा हित के लिये जरूरी हो। इसका यह अर्थ कि संरक्षक अवयस्क को प्रसंविदा द्वारा बाध्य कर सकता है यदि ऐसा आवश्यक हो, यह बात अचल सम्पत्ति की खरीददारी के सम्बन्ध में भी लागू होती है। यदि वह अवयस्क की ओर से कोई सम्पत्ति खरीदता है तो अवयस्क का दायित्व क्रय-मूल्य चुकाने का पूरी तौर पर होगा। किन्तु अवयस्क अपने व्यक्तिगत प्रसावदा के द्वारा अवयस्क को बाधित नहीं कर सकता।

उपर्युक्त बाद में अवयस्कों की ओर से उनके नैसर्गिक संरक्षक माता द्वारा एक मकान खरीदने को संविदा की गई। संविदा के समय एक हजार रुपये की धनराशि अंतिम रूप से दे दी गई और यह तय हआ कि शेष धनराशि विक्रयपत्र की रजिस्ट्री के समय दी जायेगी। मकान के विक्रेता ने रजिस्ट्री लिखने से नामंजूर कर दिया। अत: संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वयस्कों की ओर से वाद दायर किया गया जो उच्च न्यायालय द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि संरक्षक को इस प्रकार प्रसंविदा करने का अधिकार नहीं था, क्योंकि संरक्षक की यह व्यक्तिगत प्रसंविदा थी जिससे वह अवयस्को को बाधित नहीं कर सकती। उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया और यह अभिनिर्धारित किया की संरक्षक इस प्रकार की प्रसंविदा करने में पूर्णतया समर्थ हैं यदि बह अवयस्क के हित से सम्बन्धित है।

उच्चतम न्यायालय ने धारा 8 के क्षेत्र की व्याख्या करते हुए यह कहा कि यह धारा नैसर्गिक संरक्षक द्वारा अचल सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण करने के अधिकार की सीमा की विवेचना करता है। जहाँ अवयस्क की माता बिना किसी विधिक आवश्यकता के अथवा सम्पदा के प्रलाभ के बिना उसकी किसी सम्पत्ति को बेच देता है तथा इस आशय की अनुमति न्यायालय से भी नहीं प्राप्त की गई है वहाँ भले ही अवयस्क के पिता ने ऐसे विक्रय को प्रमाणित कर दिया हो, वहाँ ऐसे विक्रयनामा को नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विक्रयनामा नहीं माना जायेगा और वह अन्यसंक्रामण (विक्रय) इस धारा की सीमा के अन्तर्गत शून्य माना जायेगा न कि शून्यकरणीय।

रूमल बनाम श्रीनिवास के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मत को समर्थन देते हुये कहा कि अवयस्क के संरक्षक द्वारा की गई किसी संविदा का अवयस्क द्वारा तथा अवयस्क के विरुद्ध विनिर्दिष्ट रूप से पालन करवाया जा सकता है। हिन्दू विधि के अन्तर्गत नैसर्गिक संरक्षक को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह अवयस्क की ओर से संविदा करे और इस प्रकार की संविदा, यदि अवयस्क के हित में है तो उसके ऊपर बाध्यकारी होगा और वह लागू किया जायेगा। इसी प्रकार जहाँ किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये माता द्वारा अपने अवयस्क पुत्र की ओर से दावा दायर किया जाता है जब कि पिता जीवित है और माता तथा पिता के बीच सम्बन्ध ठीक नहीं है, वहां न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि माता और उसकी अवयस्क सन्तान के हितों में विरोध नहीं है तो इस प्रकार दावा करने का अधिकार माता को प्राप्त है।

हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई के वाद में प्रिवो कौसिल ने यह स्पष्ट रूप से निरूपित किया था जैसा कि पर्व उल्लिखित भी है कि आवश्यकता की दशा में अथवा सम्पदा के लाभ की दशा में अवयस्क को सम्पत्ति के प्रबन्धकर्ता को सीमित तथा सापेक्ष अधिकार प्राप्त है। यहाँ आवश्यकता की दशा से तात्पर्य विधिक आवश्यकता से है।।

ऋणदाता का यह आवश्यक कर्त्तव्य है कि वह ऋण देने के पूर्व इस बात से अपने का सन्तुष्ट कर ले कि जो व्यक्ति ऋण ले रहा है, वह अवयस्क की सम्पदा के लाभ के लिए हा पर ऋणदाता युक्तियुक्त जांच-पड़ताल करने के बाद सद्भाव में ऋण देता है तो उस अब

1. (1993)4 एस० सी० सी०381

2. ए० आई० आर० 1985 दि० 1531

3. मुकेश बनाम देवनरायन, ए० आई० आर० 1987 एम० पी० 85; विशद । स्टेट ऑफ गुजरात, ए० आई० आर० 2013 गुजरात 251.

आवश्यकता से अवगत होने की दशा में विधि में उसके प्रभार को मान्यता प्रदान की जायेगी।

यदि अवयस्क के पास अनुत्पादक सम्पत्ति है जिसे अवयस्क का संरक्षक इस उद्देश्य से देता है कि वह उसके स्थान पर कोई उत्पादक सम्पत्ति खरीद ले तो उस दशा में यह बयनामा अवयस्क पर बाध्यकारी होगा।

अवयस्क की सम्पदा की उगाही-यदि अवयस्क की सम्पत्ति किसी तीसरे व्यक्ति के हाथ में है तो संरक्षक का यह कर्तव्य है कि वह उस सम्पत्ति को उससे वापस ले तथा उसकी उगाही करे। संरक्षक को यह भी अधिकार है कि उसे पुन: प्राप्त करने के लिये जो कुछ उचित व्यय करना पडे. करे।

जहाँ तक नैसर्गिक संरक्षक के अवयस्क की ओर से ऋण लेने की संविदा का प्रश्न है, उसमें इस बात पर न्यायिक निर्णयों में मतभेद है कि क्या इस प्रकार के ऋण की संविदा से अवयस्क की सम्पत्ति पर प्रभार निर्मित किया जा सकता है? एक वाद में यह स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित किया गया कि संरक्षक स्वयं अवयस्क को बाँधने के लिए व्यक्तिगत रूप में कोई प्रसंविदा नहीं कर सकता और यही स्थिति वर्तमान अधिनियम में अपनायी गयी है। प्रिवी कौंसिल ने भी उपर्युक्त मत का समर्थन किया और प्रतिपादित किया कि अवयस्क का संरक्षक कोई भी ऐसी प्रसंविदा नहीं कर सकता जिसके द्वारा भविष्य में वह संरक्षित की सम्पत्ति प्रभारित कर सके।

नैसर्गिक संरक्षक द्वारा सुलहनामासंरक्षक अपने संरक्षित की ओर से किसी मामले में सुलहनामा प्रस्तुत कर सकता है।’

विशुनदेव बनाम शिवगनी राय वाले वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि किसी अवयस्क के संरक्षक के लिए व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 22, नियम 7 के अन्तर्गत न्यायालय की अनुमति लेना आवश्यक नहीं है, अर्थात् किसी मामले में सुलहनामे अथवा अस्थायी समझौता के लिये वह स्वयं सक्षम है तथा इस सम्बन्ध में केवल इतना ही पर्याप्त है कि समझौता अथवा सुलहनामा अवयस्क के प्रलाभ एवं हित के लिये किया गया है।

संरक्षक द्वारा ऋण की अभिस्वीकृति-प्राकृतिक संरक्षक तथा न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक अवयस्क के किसी ऋण अथवा उसके ब्याज की, समय की अवधि को बढ़ाने की दृष्टि से, अभिस्वीकृति कर सकता है, यदि वह अवयस्क की सम्पत्ति के लाभ के लिये अथवा उसकी रक्षा के लिए हो।’ संरक्षक को मृत ऋण को पुनर्जीवित करने का अधिकार नहीं है।

पारिवारिक समझौता-प्राकृतिक संरक्षक को यह भी अधिकार है कि वह अवयस्क की ओर से किसी पारिवारिक मामले का समझौता करके उसको तय कर ले, किन्तु यह उसी दशा में सम्भव है जब कि समझौता सद्विवेक पर आधारित दावे के विषय में हो।’

संरक्षक को यह भी अधिकार है कि वह किसी मामले को, जो परिवार की भलाई के लिये है, विवेचना के लिये भेज दे। पिता के जीवित होने की दशा में माता इस प्रकार के मामले को विवेचन के लिये नहीं भेज सकती।

संरक्षक द्वारा कोई भी कार्य संरक्षक-रूप में किया जाना चाहिये-संरक्षक द्वारा कोई भी

1. विधि प्रधान बनाम डैन्करा, 1963 उड़ीसा 1331

2. अब्दुलरहीम बनाम बरेरा, 61 आई० सी० 8071

3. धारा 530, मुल्ला : हिन्दू विधि देखिये।

4 विशनदेव बनाम शिवगनी राय, ए० आई० आर० 1951 एस० सी० 2851

5. अन्नापगम्दा बनाम सगा दिग्यपा, 26 ब० 2211

6. धारा 531; मुल्ला की हिन्द्र-विधि।

7. बाला जी बनाम नाना, 22 बाम्बे 2071

8. शान्तीलाल मेवाराम बनाम मुन्शीराम केवलराम, 56 बाम्बे 5057

कार्य जो संरक्षक रूप में नहीं किया जाता, अवयस्क को नहीं बाँधता। यह बात सिद्ध करने की है कि वह कार्य संरक्षक द्वारा संरक्षक की हैसियत में किया गया था अथवा अपनी ओर से किया गया था। प्रथम उल्लिखित अवस्था में यह अवयस्क के लिये बाध्यकारी होता है यदि इस प्रकार का कार्य संरक्षक की अधिकार-सीमा के अन्तर्गत है। किन्तु दूसरी अवस्था में वह अवयस्क के लिए बाध्यकारी नहीं होता। केवल इस बात से कि अवयस्क का नाम संविदा में अथवा विक्रय-पत्र या बन्धक में नहीं है, यह प्रमाणित नहीं होता कि वह अवयस्क की ओर से नहीं किया गया है। प्रत्येक दशा में पत्र का भाषा तथा परिस्थितियों के ऊपर विचार करना पड़ता है जिसमें ये बाते सम्पन्न की गई थी।’

अवयस्क व्यक्तिगत प्रसंविदाओं से बाध्य नहीं होता-अधिनियम की धारा 8 (1) के अन्तर्गत यह स्पष्ट कहा गया है कि संरक्षक अवयस्क को अपनी व्यक्तिगत प्रसंविदा द्वारा किसी भी रूप में नहीं बाँध सकता। संरक्षक संरक्षित को साधारण संविदा द्वारा भी नहीं बाँध सकता। प्रिवी काउंसिल ने एक वाद में यह स्पष्ट कहा कि संरक्षक अवयस्क के नाम से कोई भी ऐसी संविदा सम्पन्न नहीं कर सकता जो अवयस्क के ऊपर कोई व्यक्तिगत दायित्व आरोपित करे। किसी भी धनराशि की आज्ञप्ति की निष्पन्नता में किसी अवयस्क को बन्दी नहीं बनाया जा सकता तथा कोई भी आज्ञप्ति अवयस्क के विरुद्ध इस आधार पर जारी नहीं की जा सकती कि संरक्षक ने अवयस्क की ओर से कोई संविदा सम्पन्न की थी जिसकी निष्पन्नता के लिए अवयस्क की सम्पत्ति प्रभारित की जाय अथवा बेच दी जाय। इस विषय में फेडरल कोर्ट ने 1949 में एक निर्णय दिया था जो निम्न प्रकार से निरूपित किया जा सकता है-

(1) किसी हिन्दू अवयस्क के संरक्षक को यह अधिकार नहीं है कि वह अवयस्क के अथवा उसकी सम्पदा पर बिना किसी विधिक आवश्यकता के अथवा उसकी सम्पदा के बिना किसी लाभ के ऋण अथवा कर्ज लेकर व्यक्तिगत आभार उसके ऊपर आरोपित करे।

(2) कोई संरक्षक, यदि वह अवयस्क की सम्पदा में अवांछनीय रूप से हस्तक्षेप नहीं करने वाला है तो अवयस्क की सम्पत्ति से प्रलाभ तथा संरक्षण के लिए कोई ऐसी धनराशि कर्ज के रूप में ले सकता है जो अवयस्क की सम्पदा को प्रभारित कर सकती है।

(3) उपर्युक्त सिद्धान्त उस धनराशि के सम्बन्ध में भी अनुवर्तनीय होती है जो प्रतिभूति के आधार पर ऋण-रूप में लिया जाता है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 68 के अन्तर्गत उपर्युक्त सिद्धान्त का एक अपवाद भी प्रदान किया गया है। हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 9 से यह बात स्पष्ट नहीं होती कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 9 के अन्तर्गत दिया गया नियम, हिन्द अवयस्क के सम्बन्ध में निष्प्रभ हो जाता है अथवा नहीं, किन्तु धारा 8 (2) में यह प्रदान किया गया है कि संरक्षक न्यायालय की स्वीकृति से कुछ जरूरी आवश्यकताओं के लिए अवयस्क की सम्पदा का अन्यसंक्रामण कर सकता है, इसलिये ऋणदाता न्यायालय की स्वीकृति लेकर अवयस्क की सम्पदा के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है।

आवश्यकताएँ क्या हैं?—वे कौन-सी आवश्यकताएँ होंगी, यह प्रमाण का विषय है। “आवश्यक वस्तुएँ वे हैं जिनके बिना कोई भी व्यक्ति उचित रूप से जीवित नहीं रह सकता। भोजन, वस्त्र, मकान तथा बौद्धिक शिक्षण एवं नैतिक तथा धार्मिक परिज्ञान जीवन के आवश्यक अंग मान जा

1. इन्दर चन्दर बनाम राधा किशोर, 19 कल० 507; नन्द प्रसाद बनाम अब्दुल अजीज, 442 8991

2. बघेल बनाम शेख ममुलिद्दीन, 11 बाम्बे 5511

3. महाराणा श्री रणवाल बनाम वादी लाल, 20 बाम्बे 61; केशव बनाम बालाज आर० 9961

4. कोन्डामखी बनाम मिनेगी : तादावरते बनाम सेनेनी (1949) 11 एफ० सा ल,

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LLB Hindu Law Chapter 7 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Chapter 7 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends SscLatestNews.Com Website एक बार फिर से आप सभी का स्वागत करती है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books अध्याय 7 दे तथा उत्तराधिकार Post 1 Study Material में पढ़ने जा रहे है |

अध्याय 7, दाय तथा उत्तराधिकार, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के सहित। (सामान्य सिद्धान्त पूर्व विधि) (Hindu Law Notes)

दाय की दो पद्धतियाँ : मिताक्षरा तथा दायभाग हिन्दू विधि के अनुसार दाय की दो पद्धतियाँ है-

(1) मिताक्षरा पद्धति एवं

(2) दायभाग पद्धति।

दायभाग-पद्धति बंगाल तथा आसाम में प्रचलित है और मिताक्षरा पद्धति भारत के अन्य प्रान्तों में प्रचलित है।

दोनों पद्धतियाँ मनु के इस कथन पर आधारित है कि “दाय सबसे निकट सपिण्ड और उसके बाद क्रम से सकुल्य, वेदाभ्यासी अथवा शिष्य को जाता है।” दायभाग में दाय का मुख्य आधार पारलौकिक हित का सिद्धान्त है, जब कि मिताक्षरा विधि में किसी खास आधार को नहीं अपनाया गया है।

मिताक्षरा में उपर्युक्त पाठ की व्याख्या में सबसे निकट रक्त सम्बन्धी को उत्तराधिकार के योग्य बताया गया है। अत: मिताक्षरा-पद्धति रक्त सम्बन्ध की निकटता पर आधारित मानी जा सकती है। यहाँ सपित्र्य (Agnate) सम्बन्धों को बन्धुओं की अपेक्षा अधिमान्यता प्रदान की जाती है। मिताक्षरा में दाययोग्य सम्पत्ति को दो भागों में विभाजित किया गया है-प्रथम, अप्रतिबन्ध दाय; द्वितीय, सप्रतिबन्ध दाय।

दायभाग-शाखा में भी मनु के पाठ के अनुसार सपिण्ड को दाय का आधार बताया गया है। किन्तु यहाँ सपिण्ड से तात्पर्य पिण्डदान करने वाले से है, अर्थात् जो मृतक को पिण्डदान कर सके। दूसरे शब्दों में, सपिण्ड वह है जो पिण्डदान दे और इस प्रकार मृतक पूर्वज को पारलौकिक लाभ कराये। यही पारलौकिक लाभ का सिद्धान्त दायभाग में दायभाग का आधार बनाया गया। दायभाग-शाखा में उपयुक्त दाय के दो विभाजनों को स्वीकार नहीं किया गया है तथा दाय को सप्रतिबन्ध दाय के रूप में ही स्वीकार किया गया है।

इस प्रकार मिताक्षरा-विधि में दाय प्राप्त करने का आधार रक्त-सम्बन्ध है; जबकि दायभाग विधि में दाय प्राप्त करने का आधार पिण्डदान है। किन्तु मिताक्षरा-विधि में भी पिण्डदान की विचारधारा को पूर्णतया उपेक्षित नहीं किया जाता है। जहाँ रक्त-सम्बन्धियों के मध्य कोई संदेहास्पद मामला उत्पन्न हो जाता है वहाँ पिण्डदान की विचारधारा से सहायता ली जाती है। मिताक्षरा-विधि में सम्पत्ति के न्यागमन के लिए दो रीतियाँ अपनाई गयीं-उत्तरजीविता एवं उत्तराधिकार, जबकि दायभाग में सम्पत्ति के न्यागमन की केवल एक ही रीति है-उत्तराधिकार। उत्तरजीविता का अर्थ है कि किसी भी सम्पत्ति का न्यागमन, गत स्वामी के सहदायिकी सम्पत्ति पर, उसकी मृत्यु के पूर्व ही अधिकार प्राप्त करना। अर्थात् ऐसी सम्पत्ति में किसी पुरुष के उत्पन्न होते ही उसको उस सम्पत्ति में अपना हक प्राप्त हो जाता था जबकि उत्तराधिकार में किसी व्यक्ति की सम्पत्ति में उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद ही स्वामित्व प्राप्त होता था।

  1. बुद्धा सिंह बनाम ललतू सिंह, 1915, पी० सी०701 (245)

मिताक्षरा-विधि के अन्तर्गत न्यागमन जैसा कि पूर्व उल्लिखित है, मिताक्षरा विधि में न्यागमन की दो रीतियाँ अपनायी गयी है-उत्तरजीविता (survivorship) तथा उत्तराधिकार (succession)। सम्पत्ति की प्रकृति के अनुसार न्यागमन निर्धारित किया जाता है। उत्तरजीविता का नियम संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू होता है तथा उत्तराधिकार का नियम गत स्वामी की पृथक् सम्पत्ति के सम्बन्ध में।

सम्पत्ति की प्रकृति सम्पत्ति दो प्रकार की हो सकती है

(1) गत स्वामी की पृथक् सम्पत्ति, अथवा

(2) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति।

निम्नलिखित रीति से प्राप्त की गई सम्पत्ति पृथक् सम्पत्ति मानी जाती है

(अ) सप्रतिबन्ध दायसाम्पाश्विक (collateral) से प्राप्त की हुई सम्पत्ति, अर्थात् भाई, भतीजा, चाचा आदि से प्राप्त सम्पत्ति सप्रतिबन्ध सम्पत्ति कहलाती है। जिस सम्पत्ति में किसी व्यक्ति का अधिकार जन्म से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु गत स्वामी की सन्तानहीन मृत्यु के बाद अधिकार उत्पन्न होता है, उसे ‘सपतिबन्ध’ कहते हैं। इसे प्रतिबन्ध इसलिये कहा जाता है, क्योंकि सम्पत्ति का न्यागमन गत स्वामी के जीवन-काल में बाधित रहता है। दायभाग के अनुसार दाय सदैव सप्रतिबन्ध होता है।

(ब) दान (Gift)—प्रेम तथा स्नेह में पिता द्वारा दी गई कोई सम्पत्ति, चाहे वह पूर्वज की ही सम्पत्ति हो, पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी।

(स) सरकारी अनुदानसंयुक्त परिवार के किसी सदस्य को यदि सरकारी अनुदान प्राप्त हुआ है तो उसकी पृथक् सम्पत्ति होगी। किन्तु यदि अनुदान से यह प्रतिलक्षित होता है कि वह अनुदान पूरे परिवार के प्रलाभ के लिये है, तो वह पृथक् सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी।

(द) पिता द्वारा दानयदि पिता इच्छापत्र द्वारा कोई अपनी पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति किसी एक पुत्र को दे देता है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति होती है।

(य) विवाह में प्राप्त दानकिसी व्यक्ति द्वारा विवाह में प्राप्त सम्पत्ति भी पृथक् सम्पत्ति समझी जाती है।

(२) वह सम्पत्ति जिसे परिवार खो चुका हैयदि पूर्वज की कोई सम्पत्ति परिवार द्वारा खो दी गई है और उस सम्पत्ति को परिवार का कोई सदस्य स्वयं बिना परिवार की सम्पत्ति लगाये हये उसको वापस ले लेता है तो वह सम्पत्ति उस सदस्य की पृथक् सम्पत्ति हो जाती है। यदि पिता ने वापस ली है तो वह पूरी सम्पत्ति का हकदार हो जायेगा, किन्तु यदि किसी सहदायिक ने पुनप्ति की है तो वह चल सम्पत्ति की ही दशा में उसका पूर्ण अधिकारी होगा। यदि अचल सम्पत्ति है तो सहदायिक उसको वापस लाने के प्रतिफल के रूप में उसमें 1/4 अंश का ही हकदार होगा।

(ल) पृथक् सम्पत्ति से प्राप्त आय।

(व) विभाजन से प्राप्त आय।

(श) पर्वज की सम्पत्ति जो अन्यसंक्रामण के बाद संयुक्त परिवार के किसी एक सदस्य ने स्वार्जित सम्पत्ति से पुन: खरीद लिया है।

(घ) अविभाज्य सम्पत्ति तथा उसकी बचत।

(स) पृथक् आमदनी से एकत्र सम्पत्तिा

(ह) अधिगम से प्राप्त लाभ (Gains of learning)।

1. श्री महन्त गोविन्द बनाम सीताराम, 21 इलाहाबाद 531

2. बाजवा बनाम त्र्यम्बक, (1910) 34 बा० 1061

3. कृष्णजी बनाम मरु महादेव, 15 बा० 321

4. बच्चू बनाम मन्कोर बाई, 31 बा० 3731

(क्ष) ऐसे एकमात्र उत्तरजीवी सहदायिक द्वारा अधिकृत सभी सम्पत्ति, जिसके कोई विधवा न हो। इन उपर्युक्त प्रकार की सम्पत्तियों के सम्बन्ध में उत्तराधिकार का नियम लागू होता है। दायभाग में उत्तराधिकार के नियम द्वारा ही सम्पत्ति का न्यागमन होता है।

अप्रतिबन्ध दाय-पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में अप्रतिबन्ध दाय लागू होता है। इसके अन्तर्गत पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र को, यदि कोई जीवित है तो, सम्पत्तिधारक के जीवन-काल में ही सम्पत्ति में एक अंश प्राप्त करने का हक उत्पन्न हो जाता है। दूसरे शब्दों में मृतक के जीवन-काल में ही पुत्र-पौत्रादि की सम्पत्ति में एक अधिकार निश्चित हो जाता है; किन्तु विभाजन हो जाने पर पुत्र का उत्तरजीविता से प्राप्त करने का अधिकार समाप्त हो जाता है।

यहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से अभिप्राय सहदायिकी सम्पत्ति से है। इस प्रकार की सम्पत्ति को उसके स्रोत के अनुसार विभाजित किया गया है

(1) पूर्वजों की सम्पत्ति,

(2) किसी सहदायिक की पृथक् सम्पत्ति जो सामान्य सहदायिकी सम्पत्ति में सम्मिलित हो चुकी है |

उपर्युक्त दोनों प्रकार की सम्पत्तियों का न्यागमन उत्तरजीविता के सिद्धान्त के अनुसार होता है, अर्थात् जिस किसी व्यक्ति ने परिवार में जन्म लिया है, उसके जन्म लेने मात्र से उसका हक सम्पत्ति में हो जाता है। इसलिए इस प्रकार के न्यागमन को अप्रतिबन्ध दाय से उत्पन्न हुआ माना जाता है। उदाहरण के रूप में, “अ” अपने पिता से दायरूप में सम्पत्ति प्राप्त करता है। बाद में अ को पुत्र उत्पन्न हुआ। यह पुत्र अ की सम्पत्ति का जन्मतः सहदायिक हो जाता है तथा अपने पिता की सम्पत्ति में अपने पिता के साथ बराबर, अर्थात् आधे अंश का हकदार हो जाता है। यहाँ अ की सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय है, क्योंकि अ का जीवन-काल उसकी सम्पत्ति में उसके पुत्र को हकदार होने से बाधित नहीं करता।

उपर्यक्त दृष्टान्त में “अ” को कोई पुत्र न होता और केवल भाई ही होता तो उस दशा में अ की सम्पत्ति सप्रतिबन्ध दाय होती, क्योंकि “अ” की सम्पत्ति में उसके जीवन-काल तक उसका भाई कोई हक नहीं प्राप्त कर सकता था। यहाँ “अ’ का जीवन-काल उसके भाई की सम्पत्ति को प्राप्त करने में एक बाधा थी।

यह अप्रतिबन्ध दाय तथा सप्रतिबन्ध दाय का भेद केवल मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत मान्य है। दायभाग के अनुसार दाय सदैव सप्रतिबन्ध होता है।

दायभाग शाखा के अन्तर्गत न्यागमन-दायभाग शाखा के अन्तर्गत न्यागमन की एक ही रीति बताई गई है-वह है उत्तराधिकार। इस शाखा द्वारा उत्तरजीविता के नियम को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के सम्बन्ध में भी मान्य नहीं बताया गया। दायभाग में संयुक्त परिवार का सदस्य अपने अंश को पृथक् रूप में रखता है, अर्थात् गत स्वामी की मृत्यु के बाद सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारियों को, चाहे वे पुरुष हों अथवा स्त्रियाँ, दायरूप में प्राप्त होती थी। उत्तरजीविता तथा उत्तराधिकार-उत्तराधिकार में किसी व्यक्ति की सम्पत्ति में उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद ही स्वामित्व प्राप्त होता था। उस व्यक्ति की मत्य के पहले उसकी सम्पत्ति में कोई हक किसी को प्राप्त नहीं होता था, जब कि उत्तरजीविता में उत्तरजीवी को गत स्वामी की मृत्यु के पहले ही हक प्राप्त हो जाता है। गत स्वामी की मत्य से केवल एक हिस्सेदार ही कम होता है और जिसस उत्तरजीवी के पूर्व हक में अभिवृद्धि हो जाती है, न कि उसका कोई नया हक उत्पन्न हो जाता है।

  1. सूर्य प्रकाश राव बनाम गोविन्द राजुलु, (1957) 69 मद्रास ए० डब्ल्यू

(1) अ तथा ब दो भाई हिन्दू विधि की मिताक्षरा शाखा से प्रशासित संयुक्त परिवार के सदस्य हैं। अ एक पुत्री छोड़कर मर जाता है। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अ का अंश उसके उत्तरजीवी भाई ब को चला जायेगा न कि उसकी पुत्री को; किन्तु यदि अ तथा ब पृथक् होते तो अ की सम्पत्ति उसकी पुत्री को दायरूप में प्राप्त होती न कि भाई को।

 (2) अ तथा ब दो भाई दायभाग-शाखा में प्रशासित संयुक्त तथा अविभक्त परिवार के सदस्य हैं। अ अपनी विधवा पत्नी तथा भाई को छोड़कर मर जाता है। यहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अ का अंश उसकी विधवा पत्नी को उत्तराधिकार द्वारा प्राप्त होगा न कि उसके भाई को।

मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का न्यागमन (पूर्व-विधि)-मिताक्षरा विधि से प्रशासित हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति के न्यागमन की रीति को निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है-

(1) जहाँ मृतक अपनी मृत्यु के समय अविभक्त तथा संयुक्त परिवार का सदस्य है जिसको पारिभाषिक रूप से “सहदायिकी’ कहा जा सकता है, वहाँ उसका अविभक्त हक उसके सहदायिक की उत्तरजीविता के सिद्धान्त के अनुसार हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार अधिनियम के उपबन्धों को छोड़कर न्यागत होगा।

(2) (अ) यदि मृतक मृत्यु के समय संयुक्त परिवार का सदस्य था और उसने पृथक् भाग अथवा स्वार्जित सम्पत्ति छोड़ रखा है तो वह सम्पत्ति उत्तराधिकार से उसके उत्तराधिकारियों को चली जायेगी न कि सहदायिकों को।

(ब) यदि मृत्यु के समय मृतक एकमात्र उत्तरजीवी था, तो उसकी समस्त सम्पत्ति, जिसमें सहदायिकी सम्पत्ति भी शामिल है, उसके उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकार में चली जाती थी।

(स) यदि मृतक मृत्यु के समय सहदायिकी से पृथक् था, तो उसकी समस्त सम्पत्ति उत्तराधिकार से उत्तराधिकारियों में चली जाती थी।

(3) यदि मृतक मृत्यु के समय पुनः संयुक्त हो गया है तो उस दशा में भी उसकी सम्पत्ति उत्तराधिकार से उत्तराधिकारियों में चली जाती थी। उत्तराधिकार का क्रम-मृतक के उत्तराधिकारियों में उत्तराधिकार निम्नलिखित क्रम से निर्धारित किया जाता था-

(1) सपिण्ड (विशेष अर्थ में) अर्थात् गोत्रज सपिण्ड,

(2) समानोदक,

(3) बन्धु,

(4) आचार्य,

(5) शिष्य तथा अन्त में

(6) राज्य।

दायभाग विधि के अन्तर्गत उत्तराधिकार

दायाभाग विधि के अन्तर्गत उत्तराधिकार के क्रम के सम्बन्ध में दो महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं-

(1) मृतक को पारलौकिक प्रलाभ देने की क्षमता,

1. कटमा नाचियार बनाम राज्य ऑफ शिवगौन, (1863) 9 एम० आई० ए० 5431

2. नागलक्ष्मी बनाम गोपूनादराज, (1856) 6 एम० आई० 2091

3. टेकैत दर्गा प्रसाद बनाम दुर्गा कुवाँरी, (1878) 4 कल० 1901

(2) उत्तराधिकार की एक ही रीति।

(1) मृतक को पारलौकिक प्रलाभ देने की क्षमतादायभाग विधि के अन्तर्गत उत्तराधिकार का वही अधिकारी हुआ करता था जिसको मृतक के लिए पारलौकिक प्रलाभ देने की धार्मिक क्षमता प्राप्त है। इस प्रकार दायभाग में दाय प्राप्त करने का आधार मृतक को पारलौकिक उपलब्धि कराना है। यहाँ पारलौकिक उपलब्धि से तात्पर्य मृतक का प्रवण श्राद्ध करना है। बारह प्रकार के श्राद्धों में प्रवण श्राद्ध को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया जाता है। श्राद्ध करने वाला व्यक्ति तीन प्रकार से मृतक को वस्तुएँ अर्पित करता है-

(1) पिण्ड।

(2) पिण्डलेप (पिण्डलेप से तात्पर्य पिण्ड के उस अंश से है जो पिण्डदान के पश्चात् पिण्डदान करने वाले के हाथ में लगा रह जाता है)।

(3) जलदान।

पिण्डदान केवल सपिण्डों द्वारा ही दिया जाता है, पिण्डलेप सकुल्यों द्वारा तथा जलदान समानोदकों द्वारा दिया जाता है।

(2) उत्तराधिकार की एक ही रीति-दायभाग में उत्तराधिकार की केवल एक ही रीति बताई गई है। उत्तराधिकार का अधिकार न तो जन्मत: तथा न उत्तरजीविता से ही प्राप्त था। दाय का नियम इस बात से निर्धारित किया जाता था कि परिवार विभक्त था अथवा अविभक्त, संयुक्त सम्पत्ति थी अथवा पृथक्।

उत्तराधिकार के वर्ग मृतक को तीन प्रकार की वस्तुएँ देने के अनुसार दाय विधि में उत्तराधिकारियों का निर्धारण किया जाता था और इस प्रकार उत्तराधिकारियों को तीन कोटियों में विभाजित किया गया जो इस प्रकार थे

(1) सपिण्ड।

(2) सकुल्य।

(3) समानोदक।

इसके अतिरिक्त चौथी श्रेणी अवशिष्ट उत्तराधिकारियों की थी, जिनमें निम्नलिखित उत्तराधिकारी आते थे-

(अ) आचार्य।

(ब) शिष्य।

(स) सहपाठी।

(द) सम्पत्ति का राजगामी होना।।

दाय प्राप्त करने के लिए निर्योग्यताएँ

डॉ० जोली के अनुसार जो व्यक्ति कार्य करने के अयोग्य हो गये हैं, भौतिक, पारलौकिक अथवा नैतिक अयोग्यताओं के कारण वे दाय प्राप्त करने से अपवर्जित किये जाते हैं। दुष्कर्मों को करने वाला तथा जाति से च्युत व्यक्ति सामाजिक आधारों पर दाय प्राप्त करने से अपवर्जित किया जाता था। यह कहना कि दाय प्राप्त करने की निर्योग्यता धार्मिक भावनाओं पर आधारित थी, निराधार है।।

मनु का कहना है कि “नपुंसक, पतित, जन्मान्ध, बधिर, पागल, जड़, गूंगा तथा इन्द्रियशून्य व्याक्त सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते।”1 अन्य स्मृतिकारों ने भा इसा

कार

1. अनंशौ क्लीवपतितौ जात्यन्धवधिरौ तथा उन्मत्तजड़मूकाश्च ये च काचिन्निरिन्द्रियाः।। मनु० 9।। 201।।

दाय प्राप्त करने को वियोग्यताको का उल्लेख किया है। मामय का कथन है कि जाति से बाहित तथा उसका ससक पुर रागल, जड असा असाथ रोग से पीड़ित व्यजित दाय नहीं प्राप्त कर सकते. किन्तु के भरण-पोषण के कारोह

कोई उतराधिकारी निम्नलिखित निर्योग्ताओ के आधार पर दे प्राप्त करने से अपराजित किया जाता था-

  • शारीरिक नियोग्यताको
  • मानसिक  नियोग्यसायो
  • नैतिक निर्योग्ताये
  • धार्मिक निर्योग्तायें
  • साम्या पर आधारित नियोग्यताको

1. शारीरिक नियोग्यताये के पास जे किसी शारीरिक नियोग्यता, जैसे-जन्मजात अन्धापन, जन्मजात बाधिरता, जन्मजात गंगापन को धारण करते है. वेदाय प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते। इसी प्रकार के अति जो जन्म से लंगडे अपना अंगहीन अथवा नपुंसक है या किसी ऐसे असाध्य व्याधि, जैसे- और एवं कृत्सित प्रकार के कह रोग आदि से पीड़ित होते है, दाय प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते उपजत सभी नियोग्यताये जब जन्मजात तथा असाध्य रूप से विद्यमान होती है तभी दाय प्राप्त करने में बाधक होती है। समस्त नियोग्यताये बाद में हिन्दु दाय (नियोग्यता निवारण) अधिनियम 1928 द्वारा समाप्त कर दी गई जिसके परिणामस्वरूप इन उपर्युक्त आधारों पर कोई व्यक्ति दाय से बचित नहीं किया जा सकता है।

2) मस्तिष्कीय नियोग्यतायें-इसके अन्तर्गत जन्मजात जड़ता एवं पागलपन आता है। पागलपन का जन्मजात अथवा असाध्य होना आवश्यक नहीं था। यदि कोई व्यक्ति दाय प्राप्त करने के समय पागल होता था तो वह दाद प्राप्त करने का अधिकारी नहीं रह जाता था। मिताक्षरा विधि में जन्मजात पागलपन जन्मना पिता को पैतृक सम्मति पर दाय-सम्बन्धी अधिकार को समाप्त कर देता था। जड़ता सदैव जन्मजात होती है। जड़ता अथवा पागलपन जब गम्भीर प्रकार की होती थी तभी कोई व्यक्ति दाय के अधिकार से वाचत होता था। हिन्दू दाद नियोग्यता निवारण अधिनियम, 1928 के अन्तर्गत पागलपन त्था जड़ता को निर्योग्यता के रूप में लागू होने के लिए उनका जन्मजात होना आवश्यक बना दिया गया।

(3) नैतिक निर्योग्यतायें इस प्रकार को नियोग्यता में स्त्री के असतीत्व होने की दशायें आती थीं। मिताक्षरा विधि में मृतक की विधवा पत्नी असाध्वी होने के आधार पर दाय प्राप्त करने से वंचित कर दी जाती थी। किन्तु मृत व्यक्ति की सम्पदा यदि एक बार विधवा में निहित हो जाती थी और वह पति की मृत्यु तक साध्वी रहती थी तो बाद को असाविता उसको उस सम्पदा से अनिहित कर देगी दायभाग में असाविता के आधार पर विधवा पत्नी, पुत्रियाँ एवं माता को भी दाय प्राप्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता था।

जहाँ एक अवयस्क विधवा पत्नी जो अपने मृत पति से दाय में सम्पदा प्राप्त कर लेती है और पति के भाई द्वारा इस उद्देश्य से असाध्वी होने के लिए प्रलुब्ध की जाती है जिससे वह उसको असाध्वी बनाकर स्वयं उसके मृत पति की सम्पदा का अधिकारी बन सके, न्यायालय ने यह निर्णय किया कि

  1. पतितस्तत् सतः क्लीव: पंगुरुन्मत्तको जडः। अन्थ्यो चिकित्सरोगाः भर्तव्यास्ते निरंशका।। याज्ञ०॥
  2. 2 फकीरनाथ बनाम कृष्णचन्द्र नाथ, ए० आई० आर० 1954 उड़ीसा 1761
  3. 3. बलदेव बनाम मथुरा, 33 इला० 7021
  4. 4. गजाधर बनाम ऐलू, 36, बा० 1381
  5. 5. रामानन्द बनाम रामकिशोरी, 22 कलकत्ता 3471

ऐसी परिस्थिति में वह सम्पदा का अधिकारी बनने से रोका जायेगा तथा उसको अपने निजी अपकार से लाभ उठाने का अवसर नहीं दिया जायेगा।

(4) धार्मिक निर्योग्यतायें-जब कोई व्यक्ति जाति से च्युत हो जाता था अथवा धर्म-परिवर्तन कर लेता था तो वह भी दाय प्राप्त करने से वंचित हो जाता था। इसके अतिरिक्त संसार को त्याग कर संन्यास अथवा वैराग्य ग्रहण करने की दशा में भी कोई व्यक्ति दाय नहीं प्राप्त कर सकता था। वस्तुत: संन्यास ग्रहण करने पर उस व्यक्ति की व्यावहारिक दृष्टि से मृत्यु मान ली जाती थी। किन्तु जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1850 द्वारा जातिच्यत एवं धर्म-परिवर्तन के आधार पर उत्पन्न होने वाली निर्योग्यतायें समाप्त कर दी गयीं।

(5) साम्या पर आधारित निर्योग्यतायेंमतक की हत्या करने वाला व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का अधिकारी नहीं रह जाता। यदि मृतक की हत्या करने वाला हिन्दू-विधि के अन्तर्गत मृतक की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने के अयोग्य नहीं ठहराया गया है तो भी न्याय, साम्या एवं सद्विवेक के आधार पर वह इस प्रकार दाय प्राप्त करने के निर्योग्य करार दिया गया था। हत्या करने वाला व्यक्ति न तो स्वयं न उसके माध्यम से कोई अन्य व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है।

इस बात की अभिपुष्टि अभी हाल में वल्ली कानू बनाम आर० सिंगा पेरूमल के मामले में की गई। उपरोक्त मामले में अ ने अपने पिता की हत्या कर दी थी। हत्या करने के कारण वह अपने पिता की सम्पत्ति प्राप्त करने से वंचित हो गया था। उस सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिये अ की पत्नी ङ्केने न्यायालय में इस बात के लिये वाद संस्थित किया कि वह अपने श्वसुर की ऐसी सम्पत्ति प्राप्त करने की अधिकारी है जो उसके पति को मिलना था। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने साम्या के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया कि उसकी पत्नी व उसके माध्यम से अन्य कोई व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति दाय में प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होगा।

किन्तु हत्या करने वाले का पुत्र, यदि जन्म से ही मृतक की सम्पत्ति में हक रखता है तो ऐसी स्थिति में वह उत्तराधिकार प्राप्त करने के अयोग्य नहीं हो जाता। कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति से भी दाय नहीं प्राप्त कर सकता था जिसके साथ उसके जीवन-काल में लड़ाई-झगड़ा करता रहा है तथा दुर्भावना रखता रहा है।

निर्योग्यता व्यक्तिगत होती थी। निर्योग्य व्यक्ति की औरस सन्तान दाय से वंचित नहीं होती थी। किन्तु जातिच्युत एवं हत्या करने वाले व्यक्तियों की सन्तान दाय एवं उसके माध्यम से दाय का दावा करने वाला व्यक्ति भी दाय से वंचित होते थे। निर्योग्य व्यक्ति का दत्तक-पुत्र केवल भरण-पोषण का अधिकारी होता था।

निर्योग्य व्यक्ति केवल दाय प्राप्त करने से वंचित होते थे। भरण-पोषण पाने का अधिकार उसका यथावत् बना रहता था। निर्योग्य व्यक्ति को दाय में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति जिस व्यक्ति को मिलती थी, वह निर्योग्य व्यक्ति को भरण-पोषण देने का उत्तरदायी होता था।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 24 तथा 25 के अन्तर्गत दाय प्राप्त करने के लिए अपवर्जित करने के लिए कुछ आधारों का विवेचन किया गया है। धारा 28 में यह भी कहा गया है कि किसी रोग, दोष अथवा अंगहीनता के आधार पर कोई व्यक्ति दाय से अपवर्जित नहीं किया जायेगा।

1. चिन्दू बनाम मु० चन्दो, ए० आई० आर० 1951 शिमला 2021

2. ए० आई० आर० 2005 एस० सी०25871

3. नकछेद सिंह बनाम विजय बहादुर सिंह, ए० आई० आर० 1953 इला० 7591

4. मुकुन्दी बनाम जर्मनी, 73 आई०सी० 751

5. नकछेद सिंह बनाम विजय बहादुर सिंह, ए० आई० आर० 1953 इला० 7591

(व) उत्तराधिकार (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956) (LLB Hindu Law Study Material)

परिचय-हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 ने उत्तराधिकार के सम्बन्ध में एक क्रान्तिकारी विचारधारा को जन्म दिया। यद्यपि न्यायिक निर्णयों के माध्यम से पूर्व हिन्दू विधि में महत्वपूर्ण परिवर्तनो की दिशा में प्रयास होते रहे हैं तथा अनेक बार उसमें परिवर्तन लाये गये, फिर भी आवश्यकता इस बात की बनी रही कि हिन्दू उत्तराधिकार की वर्तमान विधि को संहिताबद्ध किया जाये।

हिन्दुओं की सम्पत्ति-सम्बन्धी विधि में किसी न किसी प्रकार के सुधार की आवश्यकता बहुत पहले से ही अनुभव की जा रही थी। सन् 1937 में हिन्दू नारी के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम के पास हो जाने पर सरकार ने राव-कमेटी को इसी उद्देश्य से नियुक्त किया था। कमेटी ने हिन्द्र उत्तराधिकार विधि का अध्ययन करने के बाद यह निर्णय दिया कि हिन्दू नारी अथवा पुत्रियों के प्रति अन्यायपूर्ण विचारधारा को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि इसमें सुधार लाये जायें तथा समस्त हिन्दू विधि संहिताबद्ध की जाय। किन्तु कमेटी का यह मत था कि विधि को संहिताबद्ध धीरे-धीरे किया जाय जिससे विधि में आधुनिकता को उचित रूप से नियोजित किया जा सके।

राव-कमेटी के द्वारा स्वीकृत नीति के आधार पर अनेक अधिनियम पास किये गये जिनमें हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 सबसे महत्वपूर्ण अधिनियम है। सुधारवादी दृष्टिकोण को चरम सीमा का उदाहरण हमें इस अधिनियम में प्राप्त है।

उद्देश्य-हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 वस्तुत: एक प्रगतिशील समाज को आवश्यकताओ तथा माँग को पूरा करने के लिए पास किया गया। पूर्व हिन्दू विधि अनेक पाठो तथा न्यायिक निर्णयों पर आधारित होने के कारण ग्राह्य नहीं रह गयी थी। इसीलिये आवश्यकता इस बात की थी कि विधि की एक सर्वमान्य पद्धति अपनायी जाय जो समस्त सम्प्रदाय के हिन्दुओं के लिए ग्राह हो तथा सभी के लिये समान रूप से अनुवर्तनीय हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस अधिनियम का जन्म हुआ। इस अधिनियम में पुरुष तथा स्त्रियों में पूर्वप्रचलित असमानता को दूर करके उत्तराधिकारियो को एक सूची प्रदान की गई जो अत्यन्त ही न्यायसंगत है। इस अधिनियम को उत्तराधिकार से सम्बन्धित विधि में संशोधन एवं परिवर्तन लाने के लिए पास किया गया।

अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ–(1) अधिनियम सभी हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख के लिये लाग होता है। यह उन व्यक्तियों के लिये भी अनुवर्तनीय है जिनके पिता-माता मे कोई एक हिन्दू बौद्ध, जैन अथवा सिक्ख है।

(2) अधिनियम ऐसे व्यक्तियों की सम्पत्ति के लिए भी लागू नहीं होता, जिनके विवाह के लिये विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के उपबन्ध लागू होते है।

(3) अधिनियम मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति के लिए भी लागू नहीं होता, यदि सहदायिक अनसची (1) में उल्लिखित किसी स्त्री नातेदार अथवा ऐसे खी नातेदार के माध्यम से दावा करने वाले प) नातेदार को छोड़कर मरता। यह उल्लेखनीय है कि मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति की पुरी भाग अधिनियम की धारा 6 से प्रभावित हुई है। यदि अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित आठ धिकारियों में से एक को छोड़कर कोई हिन्दू मर जाता है तो उसका सहदायिकी अंश मीलिता के आधार पर नहीं वरन् इस अधिनियम के अनुसार न्यागत होगा जिसके अन्तर्गत खो यादों को समान अंश प्राप्त करने का अधिकार होगा। वस्तुतः मिताक्षरा सहदायिकी का न ही धारा 6 के द्वारा समाप्त कर दिया गया है। मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति का ता के सिद्धान्त के अनुसार केवल पुरुष दायादो में ही होता था, किन्तु अब प्रस्तुत नत स्त्री नातेदार को भी उसमें हक प्रदान कर दिया गया है।

(4) उत्तराधिकार का क्रम, प्रेम तथा स्नेह के आधार पर निश्चित किये गये। पूर्व विधि के अन्तर्गत उल्लिखित रक्त-सम्बन्ध अथवा पिंडदान के आधार पर उत्तराधिकारी निश्चित करके का नियम, जो

मिताक्षरा तथा दायभाग शाखाओं में प्रचलित था, समाप्त कर दिया गया।

(5) अधिनियम में अधिमान्यता के बहुत सरल नियम अपनाये गये तथा जहाँ अधिमान्यता नहीं निर्धारित की जा सकती है, वहाँ उत्तराधिकारी एक ही साथ सम्पत्ति ग्रहण करते हैं।

(6) अधिनियम में दूर के भी सपित्र्यों एवं साम्पार्शिवकों को उत्तराधिकारी बनने का अवसर प्रदान किया गया। सपित्र्यों तथा सांपाश्विकों में उत्तराधिकार का क्रम डिग्री के अनुसार निर्धारित किया गया।

(7) एक हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार का एक समान क्रम प्रदान किया गया। कुछ परिवर्तन मरुमक्कत्तायम तथा अलियसन्तान विधि में लाये गये।

(8) दक्षिण की मातृ-प्रधान पद्धति में प्रचलित उत्तराधिकार से सम्बन्धित विभिन्न अधिनियमों को इस अधिनियम के अन्तर्गत निरस्त कर दिया गया है।

(9) अधिनियम में हिन्दू नारी की सीमित सम्पदा की विचारधारा को समाप्त कर दिया गया। जो भी सम्पत्ति अब किसी नारी को दाय में अथवा किसी भी वैध तरीके से प्राप्त होगी अथवा समस्त सम्पत्ति जो इस अधिनियम में लागू होने के दिन उसके आधिपत्य में होगी उन पर उसको पूर्ण स्वामित्व प्रदान कर दिया गया।

(10) हिन्दू नारी की पूर्ण सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार का एक समान क्रम प्रदान किया गया। यदि कोई स्त्री सम्पत्ति छोड़कर निर्वसीयत मरती है, तो उसकी सन्तान उसकी प्राथमिक उत्तराधिकारी होगी, उसके बाद पति तथा पिता-माता क्रम से होंगे। सन्तान न होने पर उसकी वह सम्पत्ति जो पिता से प्राप्त की गई थी, पिता को अथवा पिता के दायादों को चली आयेगी तथा पिता एवं श्वसुर से प्राप्त सम्पत्ति पति को अथवा उसके दायादों को प्राप्त हो जायेगी।

(11) सहोदर अथवा सगे सम्बन्धी सौतेले अथवा चचेरे सम्बन्धी को अपवर्जित करेंगे।

(12) जहाँ दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी निर्वसीयती सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं, वे अपने अंश को व्यक्तिपरक न कि पितापरक रीति से सह-आभोगी के रूप में प्राप्त करेंगे।

(13) जहाँ किसी व्यक्ति की निर्वसीयती सम्पत्ति दो या दो से अधिक उत्तराधिकारियों को न्यागत होती है और उनमें से कोई एक व्यक्ति उस प्राप्त सम्पत्ति को बेचना चाहता है, तो दूसरे उत्तराधिकारी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह उन व्यक्तियों की अपेक्षा उस सम्पत्ति की प्राप्ति में अधिमान्य समझा जाय। इस प्रकार अधिनियम के पूर्वक्रय (pre-emption) का अधिकार मान्य समझा गया। (धारा 22)।

(14) अधिनियम में विधवा, अविवाहिता स्त्री तथा पति द्वारा परित्यक्त अथवा पृथक् हुई स्त्री को अपने पिता के घर में रहने का अधिकार प्रदान किया गया है।

(15) रोग, दोष तथा अंगहीनता किसी व्यक्ति को दाय प्राप्त करने से अपवर्जित नहीं करती। दाय अपवर्जन के आधार पर अब बदल दिये गये हैं। किसी व्यक्ति की हत्या करने वाला उस हत व्यक्ति की सम्पत्ति को उत्तराधिकार में पाने से अपवर्जित कर दिया गया है। इसी प्रकार विधवा स्त्री यदि उत्तराधिकार के अधिकार के प्रारम्भ होने के दिन पुनर्विवाह कर लेती है तो वह भी उत्तराधिकार के निर्योग्य हो जाती है। इसी प्रकार धर्म-परिवर्तन किये हुए हिन्दू का वंश भी दाय प्राप्त करने के निर्योग्य हो जाता है।

(16) अधिनियम के अनुसार कोई भी हिन्दू (पुरुष) सहदायिकी सम्पत्ति में अपने हक को वसीयत द्वारा हस्तान्तरित कर सकता है।

अधिनियम का क्षेत्र तथा विस्तार-भारत के सभी हिन्दुओं के लिये यह अधिनियम लागू किया गया है। भारत के रहने वाले हिन्दुओं के सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियम लागू होते हैं। न्यायालय इस अधिनियम के क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले सभी हिन्दुओं के सम्बन्ध में इसके नियमों को लागू करेंगे।

कुछ पदों की व्याख्या अधिनियम की धारा 3 के अनुसार निम्नलिखित ढंग से की जा सकती है-

सपित्र्य तथा बन्धु (Agnate and Cognate)–सपित्र्य वह व्यक्ति होता है जो (1) रक्त से सम्बन्धित होता है, या (2) दत्तक ग्रहण से सम्बन्धित होता है, किन्तु (3) पूर्णतया पुरुष वर्ग से सम्बन्धित होता है; जब कि बन्धु वह व्यक्ति होता है जो (1) रक्त से सम्बन्धित होता है, अथवा (2) दत्तक-ग्रहण से सम्बन्धित होता है किन्तु (3) पूर्णतया पुरुष वर्ग से सम्बन्धित नहीं होता। सपित्र्य से सम्बन्धित पसल तथा स्त्री हो सकते हैं और यही बात बन्धु के साथ भी लागू होती है। जहाँ कोई व्यक्ति मृतक से एक अथवा एक से अधिक स्त्रियों के द्वारा सम्बन्धित होता है, उसको बन्धु कहा जाता है। बन्ध पर्णतया स्त्रियों के द्वारा अनिवार्य रूप से सम्बन्धित नहीं होता। इस प्रकार पुत्र के पुत्री का पुत्र अथवा पुत्री. बहन का पुत्र अथवा पुत्री, माता के भाई का पुत्र बन्धु होते हैं जबकि पिता, पितामह इत्यादि चाचा. चाचा का पुत्र बन्धु श्रेणी में, पुत्र, पौत्र वंशज श्रेणी में सपित्र्य होते हैं।

प्रथायें तथा रूढ़ियाँइन पदों का प्रयोग अधिनियम में जहाँ कहीं किया गया है, वह उसी अर्थ में किया गया है जिस अर्थ में हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में किया गया है। प्रथायें प्राचीन, निश्चित तथा न्यायसंगत होनी चाहिये।

इस सम्बन्ध में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि यदि अनुसूचित जनजाति के बीच उत्तराधिकार के सम्बन्ध में प्रथायें मौजूद हों और वह अपनी प्रथा के अन्तर्गत ही सम्पत्ति का बँटवारा करते हों वहाँ इस अधिनियम के प्रावधान उनके बीच लागू नहीं होंगे।

उत्तराधिकारी-उत्तराधिकारी से तात्पर्य उन व्यक्तियों से है जो इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी निर्वसीयती सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने के अधिकारी हैं।

निर्वसीयती-कोई व्यक्ति निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मरा हुआ माना जाता है यदि उसने अपनी सम्पत्ति का वसीयती निर्वर्तन नहीं किया है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को वसीयती निर्वर्तन करने का अधिकार रखता है। वसीयती निर्वर्तन करने पर सम्पत्ति इच्छापत्र के अनुसार न्यागत होती है। यदि इच्छापत्र किसी अवैध उद्देश्य से लिखा गया है तो वह विधि द्वारा बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखेगा। अत: आवश्यकता इस बात की है कि इच्छापत्र प्रभावकारी हो अन्यथा इच्छापत्र के शून्य होने पर वह व्यक्ति निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरा हुआ समझा जायेगा।

सम्बन्धित सम्बन्धित से अर्थ है कि वैध बन्धुता से सम्बन्धित बन्धुता जो रक्त से अथवा (हिन्दू विधि में) दत्तक-ग्रहण से स्थापित होती है। इस परिभाषा के साथ एक उपबन्ध है, अवैध सन्तान केवल माता से ही सम्बन्धित मानी जाती है तथा वे एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं तथा उनकी वैध सन्तान माता-पिता दोनों से सम्बन्धित मानी जाती है। अवैध सन्तान अपने पिता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी किसी भी दशा में नहीं हो सकती। माता ही उसका वंशक्रम मानी जाती है तथा उससे ही सम्बन्ध प्रतिष्ठित होता है। अवैध सन्तानों का सम्बन्ध केवल एक ही पीढ़ी तक माना जाता है, उसका उससे अधिक पीढ़ी के पूर्वजों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं माना जाता। उनका अपनी माता, बहन तथा भाई के साथ का सम्बन्ध बना रहता है।

अलियसन्तान विधि-अलियसन्तान विधि का तात्पर्य उस विधि से है जो उन व्यक्तियों पर लाग होती है जो यदि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम न पारित हुआ होता तो मद्रास अलियसन्तान अधिनियम, 1949 द्वारा अथवा प्रथागत विधि द्वारा उन विषयों के सम्बन्ध में प्रशासित होते जिनके लिए उत्तराधिकार अधिनियम में उपबन्ध किया गया है। यह विधि मातृ-पक्ष प्रधान विधि है जो दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित है। इसमें दाय का अधिकार माता के सम्बन्ध के अधिकार पर निर्भर करता था। उत्तराधिकार अधिनियम ने इस विधि को अत्यधिक सीमा तक प्रभावित किया है। 1. श्रीमती बुटकी बाई बनाम सुखवती व अन्य, ए० आई० आर० 2014 छत्तीस० 110.

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