Hindi Vyakaran Book PDF Free Download for CTET UPTET : नमस्कार दोस्तों एक बार फिर से स्वागत है आप सभी का हमारी आज की पोस्ट NCERT Hindi Vyakaran Book for Competitive Exams में जिसे आप खास CTET and UPTET Exam Question Paper के लिए पढ़ सकते है | हम अभ्यर्थियो को अपनी इसी पोस्ट में Hindi Vakaran Handwritten Notes PDF में भी शेयर कर रहे है जो आपको आने वाले CTET and UPTET Exam Paper में बहुत ही काम आने वाले है |
दोस्तों जैसा की आप सभी जानते है की CTET Online Notification 2022 जारी हो चुके है जिसके लिए आप सभी अभ्यर्थी हमारी वेबसाइट के माध्यम से Online Free तैयारी कर सकते है | दोस्तों यदि आप भी CTET And UPTET Exam Question Answer Paper की तैयारी कर रहे है तो सबसे पहले आपको हमारे द्वारा बनाई गयी पोस्ट what is CTET And UPTET Post ओ आखिर तक जरुर पढ़ना चाहिए तभी आप आगे की तैयारी करें |
CTET and UPTET full for Central Teacher Eligibility Test and Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test को कहा जाता है जो शिक्षक बनने के लिए अनिवार्य Certificate होते है | दोस्तों CTET and UPTET 2 Paper में आयोजित किये जाते है जिसमे आपको Paper 1 Primary Teacher के लिए होता है और CTET & UPTET Paper 2 Highar Primary Teacher के लिए आयोजित कराए जाते है | हम अभ्यर्थियो के लिए अपनी इस पोस्ट में CTET and UPTET Books and Notes in Hindi English PDF में पहले ही शेयर कर चुके है उम्मीद है आप सभी को हमारे द्वारा बनाई गयी सभी पोस्ट मिल गयी होगी | दोस्तों यदि आप भी CTET or UPTET Exam Question Paper की तैयारी कर रहे है तो निचे दिए गये टेबल से CTET UPTET Hindi Vakaran Book in Hindi PDF में Free Download कर सकते है |
UPTET CTET Hindi Bhasha Evam Shikshan Question Answer PDF : हैलो दोस्तों फिर से स्वागत है आप सभी का हमारी वेबसाइट SscLatestNews.Com में, दोस्तों आज की पोस्ट में आप CTET UPTET and Other Competitive Exam Question Paper के लिए Important Question with Answer in Hindi PDF में Book Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको सीधा निचे टेबल में शेयर किया जा रहा है |
हम अभ्यर्थियो को बता दे की इस पोस्ट से पहले आपको UPTET and CTET Books Notes in Hindi and English PDF में शेयर भी कर चुके है उम्मीद है आप सभी को हमारे द्वारा बनाई गयी पोस्ट मिल गयी होगी | दोस्तों CTET and UPTET Exam Question Paper में Hindi Bhasha evan Shikshan Subject से काफी Questions आते है जिनकी तैयारी आप हमारी वेबसाइट के माध्यम से घर बैठे कर सकते है | यदि आप भी CTET and UPTET Question Answer Paper की तैयारी कर रहे है तो सबसे पहले आपको हमारे द्वारा बनाई गयी CTET UPTET Syllabus in PDF Post को पढ़ना होगा उसी के बाद आप अच्छे से CTET And UPTET Exam Paper की तैयारी कर सकेंगे |
दोस्तों जैसा की आप सभी जानते है की CTET and UPTET Exam Teacher बननेक के लिए देना होता है जिसके बाद ही आप किसी भी Teacher Bharti Exam Paper में हिस्सा ले पाते है | दोस्तों हमारे द्वारा बनाई जा रही पोस्ट में आप UPTET and CTET Assistant Teacher Objective Question with Answer Book in Hindi PDF में Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया जा रहा है |
Download UPTET and CTET Assistant Teacher Hindi Bhasha Evam Shikshan Book in PDF
CTET Child Development and Pedagogy Class 6 to 8 Solved Papers Sep 2014 : नमस्कार दोस्तों CTET बाल विकास एवं शिक्षा शास्त्र Books Solved Papers in Hindi में आप सभी का फिर से स्वागत है | आज की पोस्ट में आप सभी CTET Class 6 to 8 Second Solved Papers 21 September 2014 in Hindi PDF में Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया जा रहा है |
Central Teacher Eligibility Test (CTET) Exam Question Paper 2022 के लिए हम पहले भी काफी पोस्ट शेयर कर चुके है जिसका लिंक हम आपको अपनी इसी पोस्ट में शेयर भी करने जा रहे है जिसकी सहायता से आप घर बैठे CTET Question Paper की अच्छे से तैयारी भी कर सकते है | CTET Full Details के बारे में हम पहले भी पोस्ट बना चुके है और उम्मीद है आप सभी अभ्यर्थियो ने हमारी पोस्ट को अच्छे से पढ़ा भी होगा अगर अभ्यर्थियो ने हमारे द्वारा बनाई गयी CTET क्या है पोस्ट को नही पढ़ा तो वो अभ्यर्थी हमे कमेंट करके बता सकते है |
अभ्यर्थियो को और बता दे की हमारी आज की पोस्ट में CTET Notes with Study Material in Hindi and English Language में भी दिया जा रहा है जिसे आप उपर दिए गये मेनूबार पर जाकर प्राप्त कर सकते है | अभ्यर्थी निचे दिए गये टेबल से CTET Solved Paper 21 September 2014 in Hindi PDF में Free Download कर सकते है |
Download CTET Class 6 to 8 Second Solved Papers 21 September in PDF
CTET Class VI to VIII Solved Papers September 2014 in PDF
CTET Child Development and Pedagogy Solved Question Papers Class 6 to 8 PDF 2019 : Central Teacher Eligiblity Test (CTET) Class V-VIII की तैयारी कर रहे आप सभी अभ्यर्थियो का एक बार फिर से स्वागत है हमारी वेबसाइट SscLatestNews.Com, दोस्तों आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी CTET Child Development and Pedagogy Questions Papers 2 in Hindi PDF में Free Download करने जा रहे है |
Child Development and Pedagogy Solution of First Question Paper with Example में समझाया हुआ है | आज की पोस्ट में बनाये जा रहे है CTET Questions Papers को 8 December 2019 में आयोजित कराया गया था जिसकी तैयारी कर आप आने वाल CTET Exam Model Sample Questions Answers Papers 2022 में अच्छे अंक प्राप्त कर सकते है | CTET full Form (Central Teacher Eligibility Test) को कहा जाता है जिसे केंद्र सरकर आयोजित कराती है |
CTET Exam Questions Answers Papers में हर वर्ष काफी बड़ी संख्या में भाग लेते है | CTET Exam Paper की तैयारी कर लिए हमारी वेबसाइट रोजाना आपके लिए पोस्ट शेयर करती रहती है | जिन अभ्यर्थियो ने CTET Books and Notes in Hindi English PDF में Download नही किये वो अभ्यर्थी हमें कमेंट कर बता सकते है |
Download CTET Child Development and Pedagogy Class VI – VIII in PDF 2019
CTET Child Development and Pedagogy Class 6 to 8 in PDF
CTET Child Development and Pedagogy Solved Question Papers 1 PDF 2019 : Hello दोस्तों एक बार फिर से स्वागत है आप सभी का आज की पोस्ट Central Teacher Eligibility Test (CTET ) 2019 Child Development and Pedagogy Solution of First Question Paper with Explanation in Hindi PDF Download में |
आज की पोस्ट में आप CTET Exam Question Paper 1 में 2019 में पूछे गये Questions Answers Papers को Hindi Language में शेयर कर रहे है जिसकी तैयारी कर आप आने वाले CTET Exam Paper 2022 की को सफल कर सकते है | CTET Exam Questions Papers को Central आयोजित कराया जाता है जिसे हर वर्ष 2 बार आयोजित कराए जाने का प्रावधान है लेकिन कोरोना महामारी की वजह से CTET Exam paper अभी तक आयोजित नही कराया जा सका है |
उम्मीद है की जल्द ही CTET Exam Paper 2022 के लिए Official Notification जारी कर दिया जायेगा | हम अभ्यर्थियो को निचे टेबल में CTET Solved Questions Answers Papers 1 2019 in Hindi PDF में शेयर कर रहे है जिसे आप Download के Option पर क्लीक करके प्राप्त कर सकते है |
Download CTET Child Development and Pedagogy Question Paper 1 in PDF 2019
CTET Class Child Development and Pedagogy 1 to 5 in PDF 2019
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material : आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET Books and Notes Chapter 5 Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material in Hindi with PDF Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है | अभ्यर्थियो को बता दे की आपको इस पोस्ट में UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter Wise PDF Download का लिंक भी दिया जा रहा है जिसके माध्यम से आप बल विकास एवं शिक्षा शास्त्र के सभी Chapter को PDF में download कर सकते है |
Chapter 5 पियाजे, कोहलबर्ग एवं वाइगोट्स्की | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 6 Study Material in Hindi
पियाजे का सिद्धान्त The Theory of Piaget
पियाजे के अध्ययनों का आधुनिक बाल-विकास विषय पर अधिक प्रभाव पड़ा है। उसने मनोवैज्ञानिकों का ध्यान विकास की अवस्थाओं तथा संज्ञान की महत्व की ओर आकर्षित किया है। पियाजे के सिद्धान्त के कुछ प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं
1. निर्माण और खोज (Construction & Invention) बच्चे उन व्यवहारों और विचारों की समय-समय पर खोज और निर्माण करते रहते हैं, जिन व्यवहारों और विचारों का उन्होंने कभी पहले प्रत्यक्ष नहीं किया होता है। पियाजे का विचार है कि ज्ञानात्मक विकास केवल नकल (Copying)न होकर खोज (Invention) पर आधारित है। नवीनता या खोज (Novelty or Invention) को उद्दीपक-अनुक्रिया सामान्यीकरण के आधार पर नहीं समझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक चार साल का बालक यदि भिन्नभिन्न आकार के प्यालों को प्रथम बार क्रमानुसार लगा देता है, तो यह उसके बौद्धिक वृद्धि की खोज और निर्माण से सम्बन्धित है।
2. कार्य क्रिया का अर्जन (Acquisition of Operation) ऑपरेशन का तात्पर्य उस विशिष्ट प्रकार के मानसिक कार्य (Mental Routine) से है जिसकी मुख्य विशेषता उत्क्र मणशीलता (Reversibility) है । पियाजे के अनुसार, जब तक बालक किशोरावस्था तक नहीं पहुँच जाता है तब तक वह भिन्न-भिन्न विकास-अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वर्गों के ऑपरेशन्स का अर्जन करता रहता है। एक विकास अवस्था से दूसरी विकास अवस्था में पदार्पण के लिए निम्न दो सिद्धान्त आवश्यक है
(सात्मीकरण (Assimilation) सात्मीकरण का अर्थ है—बालक में उपस्थित विचार में किसी नये विचार (Idea) या वस्तु का समावेश हो जाना। पियाजे का विचार (Idea) का अर्थ बालक के प्रत्यक्षात्मक गत्यात्मक समन्वय (Perceptual Motor Coordination’s) से है। प्रत्येक बालक में प्रत्येक आयु-स्तर पर कुछ-न-कुछ क्रियाओं या ऑपरेशन्स के सेट विद्यमान होते हैं। इन पुराने ऑपरेशन्स में नये विचार या क्रियाओं का समावेश हो जाता है।
(b)व्यवस्थापन तथा संतुलन स्थापित करना (Accommodationand Equilibration) • व्यवस्थापन का अर्थ नयी वस्तु या विचार के साथ समायोजन करना है या अपने विचारों और क्रियाओं को नये विचारों और वस्तुओं में फिट करना है। बालकों में बौद्धिक वृद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे वह नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करना सीखता है। मानसिक वद्धि में सात्मीकरण और व्यवस्थापन में उपस्थित अथवा उत्पन्न तनाव का हल (Resolution) निहित होता है।
बालक हर समय नयी घटनाओं या समस्याओं के साथ अपने को व्यवस्थापित करता रहता है, जिससे उसका बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार का व्यवस्थापन संतुलन (Equilibration) कहलाता है।
3. क्रमिक विकासात्मक अवस्थाएँ (Sequential Development Stages): पियाजे ने विकास की चार मुख्य अवस्थाओं का वर्णन किया है
a) संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory-Motor Period) यह जन्म से चौबीस महीने तक की अवस्था है। इस आयु में उसकी बुद्धि उसके कार्यों द्वारा व्यक्त होती है। उदाहरण के लिए—चादर पर बैठा बालक चादर पर पड़े दूर खिलौने को प्राप्त करने के लिए चादर को खींचकर खिलौना प्राप्त कर लेता है।
पियाजे के अनुसार यह एक बौद्धिक कार्य है। पियाजे ने सेन्सोरीमोटर अवस्था को पुनः निम्न छह अवस्थाओं में विभाजित किया है।
★ प्रतिवर्त्त क्रियाएँ (Reflex Activities) : यह जन्म से एक माह तक की अवस्था है।
प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Primary Circular Reactions) : यह एक से तीन माह तक की अवस्था है।
★ गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Secondary Circular Reactions): यह चार से छह माह तक की अवस्था है।
गौण प्रतिक्रियाओं का समन्वय (Co-ordination of Secondary Reactions): यह सात से दस माह तक की अवस्था है।
तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Tertiary Circular Reactions) : यह ग्यारह से अठारह माह तक की अवस्था है ।
★ अन्तिम अवस्था (Final Stage of this period): यह अवस्था वह है जो बालक लगभग चौबीस माह की आयु में प्राप्त करता है। 21वका
(b) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Period) यह दो से सात वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह नयी सूचनाओं और अनुभवों का संग्रह करता है। | वह पहली अवस्था की अपेक्षा अधिक समस्याओं का समाधान करने योग्य हो जाता है। | इस अवस्था में उसमे आत्मकेन्द्रिता (Egocentricity) का विकास होता है। इस अवधि के अन्त तक जब बालक में कुछ सामाजिक विकास उन्नत हो जाता है तब उसकी यह आत्मकेन्द्रिता कुछ कम होने लग जाती है।
पियाजे का विचार है कि छह वर्ष से कम आयु के बालकों में संज्ञानात्मक परिपक्वता का अभाव पाया जाता है। इस अभाव के कारण वह परम्परागत समस्याओं को तभी सीख पाते हैं जब उन्हें कुछ शिक्षण प्रशिक्षण दिये जाते हैं। साव KO) ठोस सक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational Period): यह अवस्था सात से ग्यारह वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह यह विश्वास करने लगता है कि लंबाई, भार तथा अंक आदि स्थिर रहते हैं। वह अनेक कार्यों की मानसिक प्रतिभा प्रस्तुत कर सकता है। वह किसी पूर्व और उसके अंश के संबंध में तर्क कर सकता है।
पियाजे द्वारा वर्णित विकासात्मक अवस्थाएँ एवं उससे सम्बन्धित उपलब्धियाँ
क्र
अवस्था तथा सन्निकट आयु
विचार
तत्संबन्धित उपलिब्धया
1
संवेदी पेशीय अवस्था
संवेदी पेशीय विचार
पूर्व-शाब्दिक, गतियो की पुनरावृत्ति प्रयत्न, मूल व्यवहार का आरम्भ, वस्तु स्थापित विव्त्वरोपण
2
संवेदी पेशीय अवस्था (2-7 वर्ष)
प्रिक्रमानात्म्क विकाह्र, अंत: प्रज्ञात्मक विचार
अहंकेन्द्रिता, नकल करने की प्रवृत्ति, प्रत्याक्षत्म्क तार्किक कल्पनात्मक खेल अस्थिर अनौपचारिक तार्किकता
3
ठोस संक्रियात्मक निगमनात्मक विचार
तर्क का अनुप्रोयोग करना, निश्कस्र्ष निकलना शाब्दिक परिकल्पना, आद्र्श्ताम्क चिंतन, दुसरो के साथ जुडकर कार्य करना स्मनुप्तिकता प्रस्भाव्य्ताव्दी एवं स्न्योजिकीय तार्किकता, अनौपचारिक सम्बन्ध
4
औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Period): यह अवस्था ग्यारह वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह परिकल्पनात्मक ढंग से समस्याओं पर विचार कर सकता है। वह अनेक ऑपरेशन को संगठित कर उच्च स्तर .. के ऑपरेशन का निर्माण कर सकता है और विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए अमूर्त नियमों का निर्माण कर सकता है।
पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ
क्र.
अवस्था
सन्निकट आयु
विशेषताएँ
संवेदी-प्रेरक
0-2 वर्ष
शिशु संवेदी अनुभवों का शारीरिक क्रियाओं के साथ समन्वय करते हुए संसार का अन्वेषण करता है।
2.
पूर्व-संक्रियात्मक
2-7 वर्स
प्रतीकात्मक विचार विकसित होते हैं, वस्तु स्थायित्व उत्पन्न होता है, बच्चा वस्तु के विभिन्न भौतिक गुणों को समन्वित नहीं कर पाता है।
3.
ठोस संक्रियात्मक
7-11 वर्ष
बच्चा ठोस घटनाओं के संबंध में युक्तिसंगत तर्क कर सकता है और वस्तुओं को विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर सकता है। वस्तुओं की मानस प्रतिमाओं पर प्रतिवर्तनीय मानसिक संक्रियाएँ करने में सक्षम होता है।
4.
औपचारिक संक्रियात्मक
11-15 वर्ष
किशोर तर्क का अनुप्रयोग अधिक अमूर्त रूप से कर संक्रियात्मक सकते हैं, परिकल्पनात्मक चिन्तन विकसित होते हैं।
लारस कोहलबर्ग का सिद्धांत Lawrance Kohlberg’s Theory
लॉरस कोहलबर्ग ने 10 से 16 वर्ष के बच्चों से प्राप्त तथ्यों का विश्लेषण करके सिद्धांत प्रतिपादित किया। कोहलबर्ग के अनुसार जब बालकों को नैतिक संघर्षों का सामना करना पड़ता है तो उनकी तार्किकता अधिक महत्वपूर्ण होती है न कि अन्तिम निर्णय। कोहलबर्ग ने धारणा बनायी की बालक अपनी विकास की अवस्था में तीन स्तरों से गुजरकर अपनी नैतिक तार्किकता की योग्यताओं को विकसित कर पाते हैं। जो निम्नलिखित है
(a) प्राकरूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Preconventional Level) यह अवस्था 4 वर्ष से लेकर 10 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्था में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है, न कि सही तथा गलत के अपने आंतरीकृत मानकों (Internalized Standards) के द्वारा । बच्चे यहाँ किसी भी व्यवहार को अच्छा या बुरा, उसके भौतिक परिणामों के आधार पर कहते हैं। इसके अंतर्गत दो अवस्थाएँ होती हैं
(i) दंड एवं आज्ञाकारिता उन्मुखता (Punishment and Obedience Orientation) इस अवस्था के बच्चों में दंड से दूर रहने का अभिप्रेरण अधिक मजबूत होता है। इस अवस्था में बच्चे प्रतिष्ठित या शक्तिशाली व्यक्ति, प्रायः माता पिता के प्रति सम्मान दिखलाता है ताकि उसे दंड नहीं मिल सके। किसी भी कार्य या व्यवहार की नैतिकता को यहाँ व्यक्ति उसके भौतिक परिणामों के रूप में परिभाषित करता है।
(ii) साधनात्मक सापेक्षवादी उन्मुखता (Instrumental Relativist Orientation) – इस अवस्था में यद्यपि बच्चे पारस्परिकता तथा सहभागिता के स्पष्ट सबूत प्रदान करते – हैं। यह छलयोजित (Manipulative) तथा आत्म परिपूरक पारस्परिकता (Self-Serving Reciprocity) होती है न कि सही अर्थ में न्याय, उदारता, सहानुभूति पर आधारित है। यहाँ अदला बदली (Bartering) का भाव मजबूत होता है।
(b) रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Conventional Morality): यह अवस्था 10 से 13 साल की होती है जहाँ बच्चे दूसरों के मानकों (Standards) को अपने में आंतरीकृत कर लेता है तथा उन मानकों के अनुसार सही तथा गलत का निर्णय करता है। – इस स्तर पर बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है। इसकी अवस्थाएँ (Stages) इस प्रकार हैं
उत्तम लड़का अच्छी लड़की की उन्मुखता (Good Boy-Nice Girl Orientation) इस अवस्था में बच्चों में स्वीकृति पाने तथा अस्वीकृति (Disapproval) से दूर रहने का अभिप्रेरण तीव्र होता है।
(c) उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Post Conventional Morality): इस अवस्था में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest Level) होता है और इसमें नैतिकता (True Morality)का ज्ञान बच्चों में होता है। इसके तहत दो अवस्थाएँ (Stages) होती हैं, जो इस प्रकार हैं-
(1) सामाजिक अनुबंध उन्मुखता (Social Contract Orientation) : इस अवस्था में बच्चे या किशोर उन वैयक्तिक आधार (Individual Rights) तथा नियमों का आदर करते हैं, जो प्रजातांत्रिक रूप से (Democratically) मान्य होता है। वे यहाँ लोगों के कल्याण तथा बहुसंख्यकों के इच्छाओं का तर्कसंगत महत्व देते हैं। यहाँ बच्चे यह विश्वास करते हैं कि समाज का उत्तम कल्याण तब होता है जब उसके सदस्य समाज के नियमों का आदरपूर्वक पालन करते हैं।
(ii) सार्वत्रिक नीतिपरक सिद्धांत उन्मुखता (Universal Ethical Principle Orientation) : इस अवस्था में बच्चों में अपने नैतिक नियमों (Ethical Principles) को प्रोत्साहित करने तथा आत्म-निंदा (Self-Condemnation) से बचने का अभिप्रेरण तीव्र होता है। यह उच्चतम सामाजिक स्तर का उच्चतम अवस्था (Highest Stage) होता है, जहाँ किशोरों में सार्वत्रिक नैतिक नियम (Universal Ethical Principles) की नैतिकता बरकरार रहती है।
यहाँ किशोर दूसरों के विचारों तथा नैतिक प्रतिबंधों (Legal Restrictions)से स्वतंत्र होकर अपने आंतरिक मानकों (Internal Standards) के अनुरूप व्यवहार करता है|
कोहलबर्ग के सिद्धांत की सीमाएँ (Limitation of Kohlberg Theory) : कोहलबर्ग द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की सीमाएँ निम्नलिखित हैं–
(i) इस सिद्धांत की सबसे प्रमुख सीमा है कि इसमें वास्तविक व्यवहार की अवस्था की अपेक्षा तार्किकता पर अधिक ध्यान दिया गया है।
(ii) यह एक सामान्य अन्वेषण है इसमें प्रत्येक अवस्था के बालक के आस-पास जब प्रेक्षक न हो तो वे अपने सम-आयु वर्ग की नकल करते हैं या उन्हें उत्तर बताते हैं या प्रेक्षक प्रत्येक बालक को ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित करता है और बेईमानी से व्यवहार करने वाले कुछ बालकों को हतोत्साहित कर सकता है। यह दर्शाता है कि एक बालक का नैतिक व्यवहार बहुत कमजोर हो सकता है।
(iii) कोहलबर्ग का सिद्धांत वास्तव में बहुत सीमित है क्योंकि बालक विभिन्न अवस्थाओं में अपने नैतिक निर्णयों के लिए काफी सीखते हैं लेकिन उनके कार्यों में विभिन्नता होती है। भारतीय दार्शनिक तथा शिक्षाशास्त्रियों का विश्वास है कि मूल्य व्यक्ति का एक अंग होना चाहिए, उसकी तार्किकता तथा निर्णय-निर्माण ऐसा हो कि वह अपने मूल्यों के साथ खुश रह सके।
वाइगोट्स्की के विकास का सिद्धांत Vygostsky Development Theory
वाइगोट्स्की के सिद्धांत के अनुसार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारको (Social Factors) एवं भाषा (Language) का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए वाइगोट्स्की । के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत भी कहा जाता है।
वाइगोट्स्की के अनुसार, वास्तव में संज्ञानात्मक विकास एक अंतर्वैयक्तिक सामाजिक परिस्थिति (Interpersonal Social Context) में संपन्न होता है, जिसमें बच्चों को अपने वास्तविक विकास के स्तर (Level of Actual Development) (अर्थात जहाँ
तक वे बिना किसी मदद के अपने ही कोई कार्य कर सकते हैं) से अलग तथा उनके संभाव्य विकास के स्तर (Level of Potential Development) (अर्थात जिसे वे सार्थक एवं महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सहायता से प्राप्त करने में सक्षम हैं) के तरफ ले जाने की कोशिश की जाती है। इन दोनों स्तरों के बीच के अंतर को वाइगोट्स्की ने समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development or ZPD)कहा है।
समीपस्थ विकास का क्षेत्र से तात्पर्य बच्चों के लिए एक ऐसे कठिन कार्यों की दूरी (Range) से होता है, जिसे वह अकेले नहीं कर सकता है लेकिन अन्य वयस्कों तथा कुशल सहयोगियों (Skilled Peers) की मदद से उसे किया जा सकता है।
वाइगोट्स्की ने संज्ञानात्मक विकास में बच्चों की भाषा एवं चिन्तन को भी महत्वपूर्ण साधन बतलाया है। इनका मत है कि छोटे बच्चों द्वारा भाषा का उपयोग सिर्फ सामाजिक संचार (Social Communication) के लिए नहीं किया जाता है बल्कि इसका उपयोग वे लोग अपने व्यवहार को नियोजित एवं निदेशित करने के लिए भी करते हैं। जब आत्म-नियमन (Self-Regulation) के लिए भाषा का उपयोग किया जाता है, तो इसे आंतरिक भाषण (Inner Speech) या निजी भाषण (Private Speech) कहा जाता है।
वाइगोट्स्की के निकट विकास क्षेत्र (ZPD) में खेल का महत्व
वाइगोट्स्की का मत था कि खेल बच्चों को अपने व्यवहार पर नियन्त्रण की क्षमता देने वाला मानसिक उपकरण है। खेल में जो कल्पित स्थितियाँ खड़ी की जाती हैं, वे बच्चे के व्यवहार को एक खास तरह से नियन्त्रित करने वाली और दिशा देने वाली प्रथम बाधाएँ हैं। खेल व्यवहार को संगठित करता है।
विकास में खेल के महत्व के बारे में वाइगोट्स्की का दृष्टिकोण समन्वयकारी था। इनका मत था कि खेल संज्ञानात्मक, भावात्मक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देता है।
खेल के विकास संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के अलावा स्कूल संबंधी कौशलों को भी लाभ पहुँचाते हैं। अधिगम की अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल के दौरान बच्चों के मानसिक कौशल उच्चतर स्तर पर होते हैं। वाइगोट्स्की ने इसे निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के उच्चतर स्तर की तरह पहचाना है। वाइगोट्स्की के अनुसार खेल विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है
(a) खेल कार्यों और वस्तुओं को विचार से अलग करने का काम करता है।
(b) खेल आत्मनियन्त्रण के विकास में सहायक होता है।
(c) खेल बच्चे के निकट विकास क्षेत्र का निर्माण करता है।
निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के निर्माण में खेल का महत्व
वाइगोट्स्की का मत था कि ‘खेल’ बच्चों के लिए निकट विकास क्षेत्र का निर्माण भी करता है। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित है-
वाइगोट्स्की के अनुसार अधिगम तथा अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल में की गई नयी विकासमान दक्षताएँ पहले प्रकट होती हैं। अतः चार साल की उम्र में बालक की आगामी सम्भावनाओं की भविष्यवाणी के लिए खेल जितना उपयुक्त है उतना अक्षर पहचानने जैसी अकादमिक गतिविधियाँ नहीं।
खेल में विकास की सारी प्रवृत्तियाँ सारभूत रूप से मौजूद होती हैं। इसमें बालक अपने सामान्य स्तर से ऊपर छलांग लगाने को तत्पर रहता है।
खेलने के लिए बालक जिस मानसिक प्रक्रिया में संलग्न (Attached) होता है वह निकट विकास क्षेत्र की रचना करती है। बच्चा निकट विकास क्षेत्र के उच्चतर स्ता पर काम कर सके इसके लिए कल्पित स्थितियों से प्राप्त भूमिकाएँ नियम तथा प्रेरणा सहायक सिद्ध होते हैं।
परीक्षोपयोगी तथ्य
जीन पियाजे (Jean Piaget) ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) को चार अवस्थाओं में बाँटा है संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage) (जन्म से 24 महीन) प्रासंक्रियात्मक अवस्था Preoperational Stage) (2 वर्ष से 7 वर्ष) ठोस संक्रियात्मक की अवस्था (Stage of Concrete Operation) (7 वर्ष से 12 वर्ष) औपचारिक सक्रियात्मक अवस्था (Stage of Formal Operation): (12 वर्ष से वयस्कावस्था)
पियाजे के सिद्धांत के संप्रत्ययों (Concepts) में अनुकूलन (Adaptation), संरक्षण (Conservation), साम्यधारण (Equilibration), स्कीम्स (Schemes), स्कीमा > (Schema) तथा विकेंद्रण (Decentring) प्रमुख है। पियाजे ने संवेदी पेशीय अवस्था को छह उप-अवस्थाओं में विभाजित किया है प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Activities)- जन्म से 30 दिन प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
1 महीने से 4 महीने गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
4 से 8 महीने गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था
8 महीने से 12 महीने तृतीय वृतीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
12 महीने से 18 महीने
मानसिक संयोग द्वारा नये साधनो की खोज की अवस्था
18 महीने से 24 महीने
पियाजे ने प्राकसक्रियात्मक अवस्था को दो भागों में बाँटा है प्राकसंप्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual Period) तथा अंतर्दशी अवधि (Intuitive Period)|
प्राकम्प्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual Period)2 वर्ष से 4 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता (Signifiers) विकसित कर लेते हैं।
अन्तर्दशी अवधि (Intuitive Period) 4 वर्ष से 7 वर्ष की होती है। इस अवधि में बालकों का चिंतन एवं तर्कणा (Reasoning) पहले से अधिक परिपक्व (Mature हो जाते हैं।
ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of Concerte Operation)7 वर्ष से 12 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में बालक ठोस वस्तुओं के आधार पर आसानी से मानसिक संक्रियाएँ (Mental Operations) करके समस्या का समाधान कर लेता है।
औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of Formal Operations) 11 वर्ष से प्रारंभ होकर वयस्कावस्था (Adulthood) तक चलती है।
कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं और इन अवस्थाओं का क्रम निश्चित होता है। ये अवस्थाएँ हैं
★ प्रारूढ़िगत नैतिकता का स्तर (4 वर्ष से 10 वर्ष) * रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (10 वर्ष से 13 वर्ष)
★ उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर
प्रारूढ़िगत नैतिकता स्तर में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है। बच्चे किसी व्यवहार को अच्छा या बुरा उसके भौतिक परिणामों के आधार पर करते हैं।
रूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है।
उत्तररूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest वाइगोट्स्की (Vygostsky) ने बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों एवं भाषा को महत्वपूर्ण बतलाया है।
वाइगोट्स्की के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत (Socio-Cultural Theory) भी कहा जाता है।
वाइगोट्स्की ने वास्तविक विकास के स्तर तथा संभाव्य विकास के स्तर के बीच के अंतर को समीपस्थ विकास का क्षेत्र (ZPD) कहा है।
* पाठ्यक्रम छात्रों की रुचि के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी होना चाहिए।
वातावरण के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम राष्ट्रीय भावनाओं को विकसित करने वाला होना चाहिए। पाठ्यक्रम समाज की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम बालकों के मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए।
★ पाठ्यक्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान रखना चाहिए ।
प्रगतिशील शिक्षा Progressive Education
जॉन डीवी (John Devey) का प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा के विकास में विशेष योगदान रहा है। जॉन डीवी संयुक्त राज्य अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक थे। प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा इस प्रकार है—शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का विकास है।
> प्रगतिशील शिक्षा यह सूचना प्रदान करता है कि शिक्षा बालक के लिए है बालक शिक्षा के लिए नहीं, इसलिए शिक्षा के उद्देश्य से ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए, जिसमें प्रत्येक बालक को सामाजिक विकास का पर्याप्त अवसर मिले। प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य जनतंत्रीय मूल्यों की स्थापना है।
प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत बालक में जनतंत्रीय मूल्यों का विकास किया जाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा हमें ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए जिसमें व्यक्ति व्यक्ति में कोई भेद न हो, सभी पूर्ण स्वतंत्रता और सहयोग से काम करें ।
प्रत्येक मनुष्य को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुसार विकसित होने का अवसर मिले, सभी को समान अधिकार दिये जाएँ। ऐसा समाज तभी बन सकता है, जब व्यक्ति और समाज के हित में कोई मौलिक अन्तर न माना जाय । शिक्षा के द्वारा मनुष्य में परस्पर सहयोग और सामंजस्य की स्थापना होनी चाहिए।
प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षण विधि को अधिक व्यावहारिक करने पर बल दिया जाता है।
जॉन डीवी ने प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है. रुचि और प्रयास । अध्यापक को बालक की स्वाभाविक रुचियों को समझकर उसके लिए उपयोगी कार्यों की व्यवस्था करनी चाहिए। बालक को स्वयं कार्यक्रम बनाने का अवसर दिया जाना चाहिए। डीवी के शिक्षा पद्धति संबंधी स्वयं कार्यक्रम के विचारों के आधार पर प्रोजेक्ट प्रणाली का जन्म हुआ।
इसके अन्तर्गत बालक को ऐसे काम दिये जाने चाहिए, जिनसे उनमें स्फूर्ति, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और मौलिकता का विकास हो। प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसके अनुसार शिक्षक समाज का सेवक है। उसे विद्यालय में ऐसा वातावरण निर्माण करना पड़ता
Download UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 5 पियाजे, कोह्लबर्ग एवं वाइगोटसकी in PDF
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 5 in PDF
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samajikaran ki Prakriya Study Material : नमस्कार दोस्तों आज की पोस्ट UPTET (Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test) Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Study Material in Hindi में स्वागत है | आज आप UP TET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 4 समाजीकरण की प्रक्रियांए in Hindi PDF में Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है |
समाजीकरण की प्रक्रियाएँ (UPTET Bal Viks Evam Shiksha Shastra Chapter 4 Study Material in Hindi)
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म के समय शिशु न सामाजिक (Social) होता है और न ही असामाजिक ( Anti Social), बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ साथ वह सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है और कुछ ही वर्षों बाद वह सामाजिक प्राणी कहलाने लगता है।
बालक सामाजिक गुणों को सामाजिक विकास की अवस्थाओं के अनुसार ग्रहण करता है। प्रारम्भ में बालक में सामाजिक विकास तीव्र गति से होता है, फिर धीमी गति से होता है। समय और परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है और सामाजिक विकास एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ता जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया (Socialization Processes) निरन्तर चलती रहती है।
चाइल्ड (Child 1954) के अनुसार — ‘‘सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता
सारे व टेलफोर्ड (Sare & Taleford) के अनुसार, ‘समाजीकरण की प्रक्रिया शिशु के दूसरे व्यक्तियों के साथ प्रथम सम्पर्क से आरम्भ होती है, और आजीवन चलती रहती है।
हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “सामाजिक विकास का अर्थ उस योग्यता को अर्जित करना है जिसके द्वारा सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार किया है जा सके।” “कोई भी बालक सामाजिक पैदा नहीं होता। वह दूसरों के होते हुए भी अकेला होता है। वह समाज में दूसरों के सम्पर्क में आकर समायोजन की प्रक्रिया सीखता व है। इसलिए समाजीकरण की प्रक्रिया बालक के सामाजिक विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है।”
रॉस (Ross) के अनुसार, “सहयोग करनेवालों में ‘हम’ की भावना का विकास । और उनके साथ काम करने की क्षमता का विकास एवं संकल्प समाजीकरण | कहलाता है।”
सोरेनसन (Sorenson) के अनुसार, “सामाजिक अभिवृद्धि और विकास का अर्थ अपनी और दूसरों की उन्नति के लिए योग्यता की वृद्धि।’ समाजीकरण की प्रक्रिया में तीन प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं –
समाज द्वारा मान्य व्यवहार का विकास करना। प्रत्येक समह के व्यवहार संबंध कुछ मानक (Norms) होते हैं। बच्चे यदि इन्ही व्यवहार मानकों का अधिगम करते है तो उनका व्यवहार समाज द्वारा मान्य होता है।
2. समाज द्वारा मान्य व्यवहारों के अनुसार क्रियाएँ करना। उदाहरण के लिए विद्यार्थियों, अध्यापकों, माता और पिता आदि सबके लिए कुछ निश्चित कार्य होते हैं, इनको न्हीं के अनुसार व्यवहार करना होता है।
3. सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास करना। इन अभिवृत्तियों के विकास के कारण ही बालक सामाजिक कार्यक्रमों, समाज के अन्य व्यक्तियों को पसन्द करता है।
जब किसी व्यक्ति में उपर्युक्त तीन बातें पायी जाती हैं तो वह व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में सफलता प्राप्त करता है ।
सामाजिक विकास की विशेषताएँ Characteristics of Social Development
सामाजिक विकास की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–
1. सामाजिक प्रतिक्रियाएँ ही सामाजिक विकास का प्रारम्भिक चरण है।
2. बालक खेल के माध्यम से समूह में अपनी सामाजिक प्रतिक्रियाएँ करता है।
3. सामाजिक प्रतिक्रियाओं में सामाजिक सदस्यों के साथ अपने विचारों का आदान प्रदान करता है।
अपना सहयोग देकर तथा दूसरों से सहयोग लेकर कोई भी व्यक्ति बड़े से बड़ा कार्य कर सकता है।
5. समाज की सीमा में प्रवेश करके प्रतिस्पर्धा का विकास बालकों में होता है।
6. सामाजिक विकास के साथ बालक में सहयोग और सहानुभूति जैसे सामाजिक व्यवहार विकसित होते हैं।
7. कभी कभी निषेधात्मक (Negative) अवस्था में बालक तर्क भी करने लगते हैं; ऐसे करके बालक अपने सम्मान की रक्षा करते है।
8. बालक समाज व समूहों के आदर्शों, रीति रिवाजों, परम्पराओं, लोकाचार तथा धार्मिक रीति रिवाजों को सीखता है । सामाजिक अन्तःक्रियाएँ करना भी सामाजिक विकास के साथ-साथ सीखता है।
9. सामाजिक विकास द्वारा ही बालक में अहं (Ego) भाव विकसित होता है।
विभिन्न अवस्थाओं में समाजीकरण की प्रक्रिया (Socialization Process in Different Stages) : बालक में जन्म के बाद उसकी विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास भिन्न-भिन्न ढंग से होता है। जो इस प्रकार है1.
शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Infancy) : हरलाक (THurlock) के अनुसार सामाजिक विकास निम्न क्रम में होता है–
महीना मानव और अन्य ध्वनियों में अंतर समझना।
2 महीना मानव ध्वनि को पहचानना और व्यक्तियों का मुस्कान के साथ स्वागत करना।
3 महीना अपनी माता को पहचानना और उससे दूर होने पर दुःखी होना।
4 महीना व्यक्तियों के चेहरों को पहचानना ।
.5 महीना प्यार या क्रोध की आवाज समझना ।
6 और 7 महीना परिचितों का मकान के साथ स्वागत करना ।
8 से 9 महीना अपनी ही परछायी के साथ खेलना तथा उसे चूमना ।
24 महीना बड़ों के विभिन्न कार्यों में हाथ बँटाने का प्रयास करना ।
इस काल में बालक की सामाजिक विकास संबंधी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
★ सामाजिक खेल का विकास ★ माता पिता पर आथित
★ स्पर्धा की भावना ★ सामाजिक स्वीकृति
★ स्वयं केन्द्रित बालक ★ मैत्री और सहयोग
2. बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Childhood) : इस आयु वर्ग में बालक के सामाजिक विकास के कई महत्वपूर्ण पहलू देखने को मिलते हैं । बालक में कई सामाजिक परिवर्तन आ जाते हैं। ये इस प्रकार हैं-
सहयोग की भावना का विकास ★ दूसरों से स्नेह की अपेक्षा
★ छोटे समूहों में खेलना ★ आदतों का निर्माण
★ सामाजिक सूझ का विकास ★ प्रिय कार्यों में रुचि
★ मित्रों का चुनाव
हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, बाल्यावस्था में बालक का सामाजिक विकास निम्न क्रम में होता है-
लगभग 6 वर्ष की आयु में बालक प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश करता है। वह एक नये वातावरण में अनुकूलन करना, सामाजिक कार्यों में भाग लेना और नये मित्र बनाना सीखता है।
अनुकूलन करने के उपरान्त बालक के व्यवहार में उन्नति और परिवर्तन आरम्भ हो जाता है। फलस्वरूप उसमें स्वतन्त्रता, सहायता और उत्तरदायित्व के गुणो का विकास होने लगता है।
विद्यालय में बालक किसी-न-किसी समूह का सदस्य हो जाता है। यह समूह उसके वस्त्रों के रूपों, खेल के प्रकारों और उचित-अनुचित के आदर्शों का निर्धारित करती है। इस प्रकार, बालक के सामाजिक विकास को एक नवीन दिशा प्राप्त होती है।
★ टोली या समूह में बालक में अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है। क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, ”इस अवस्था में बालक अपने शिक्षक का सम्मान तो करता है, पर उसका परिहास करने की अपनी प्रवत्ति का दमन नहीं कर पाता है।”
3. किशोरावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Adolescence) को एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार-‘जब बालक 13 या 14 वर्ष की आयु में प्रवेश करता है तब उसके प्रति दूसरों के और दूसरों के प्रति उसके कुछ दृष्टिकोण से उसके अनुभवों में एक सामाजिक संबंधों में परिवर्तन होने लगता है।” इस परिवर्तन के कारण उसके सामाजिक विकास का स्वरूप निम्नांकित होता है
1. बालकों और बालिकाओं में एक दूसरे के प्रति बहुत आकर्षण उत्पन्न होता है। अतः वे अपनी सर्वोत्तम वेश भूषा और बनाव शृंगार में अपने को एक दूसरे के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
बालक और बालिकाएँ दोनों अपने अपने समूहों का निर्माण करते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य होता है—मनोरंजन जैसे पर्यटन, पिकनिक, नृत्य, संगीत इत्यादि ।
कुछ बालक और बालिकाएँ किसी भी समूह के सदस्य नहीं बनते हैं वे उनसे अलग रहकर अपने या विभिन्न लिंग के व्यक्ति से घनिष्ठता स्थापित कर लेते हैं और उसी के साथ अपना समय व्यतीत करते हैं।
4. बालकों में अपने समूह के प्रति अत्यधिक भक्ति होती है। वे उसके द्वारा स्वीकृत वेश-भूषा, आचार-विचार, व्यवहार आदि को अपना आदर्श बनाते हैं।
5. समूह की सदस्यता के कारण उनमें नेतृत्व, उत्साह, सहानुभूति, सद्भावना आदि । सामाजिक गुणों का विकास होता है।
इस अवस्था में बालकों और बालिकाओं का अपने माता-पिता से किसी-न-किसी बात पर संघर्ष या मतभेद हो जाता है।
किशोर बालक अपने भावी व्यवसाय का चुनाव करने के लिए सदैव चिन्तित रहता है। इस कार्य में उसकी सफलता या असफलता उसके सामाजिक विकास को निश्चित रूप से प्रभावित करती है।
किशोर बालक और बालिकाएँ सदैव किसी-न-किसी चिन्ता या समस्या में उलझे रहते हैं; जैसे—धन, प्रेम, विवाह, कक्षा में प्रगति, पारिवारिक जीवन इत्यादि । ये समस्याएँ उनके सामाजिक विकास की गति को तीव्र या मन्द, उचित या अनुचित दिशा प्रदान करती है।
विभिन्न अवस्थाओं में कुछ विशिष्ट सामाजिक क्रियाएँ Some Special Social Behaviours of Different Stages
बचपनावस्था की विशिष्ट सामाजिक व्यवहार
व्यवहार क्रियाएँ
ध्यानाकर्षण (Attention Seeking) 1 वर्ष 6 महीने
अनुकरण (Imitation) 1 वर्ष
पराश्रितता (Dependency) 0-2 वर्ष
लज्जाशीलता (Shyness) 1-2 वर्ष
ईर्ष्या (Rivalry) 1 वर्ष
सहयोग (Co-operation) 1-1 वर्ष 6 महीने
स्व प्रेमी (Self-Centered) 1 वर्ष
निषेधात्मक प्रवृत्ति (Negativism) 1 वर्ष वर्ष 6 महीने
2. पूर्व-बाल्यावस्था के कुछ प्रमुख सामाजिक व्यवहार
खेल (Play) 2-5 वर्ष
अनुकरण (Imitation) 3.-4 वर्ष
निषेधात्मक (Negativism) 2-5 वर्ष
झगड़ा तथा मार-पीट (Quarrel and Aggression)
सहयोग और सहानुभूति (Co-operation and Sympathy)
चिढ़ाना व तंग करना (Teasing)
आक्रामकता (Aggression)
इर्ष्या (Rivalry)
प्रतियोगिता (Competition)
मित्रता (Friendship)
3. उत्तर-बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
सामुदायिकता (Gregariousness)
सहयोग (Co-operation)
समूह भक्ति (Group Loyalty)
सहानुभूति (Sympathy)
मित्रता (Friendship)
खेल (Play)
यौन-विरोध (Sex Antagonism)
सहिष्णुता (Tolerance)
नेतृत्व (Leadership) प्रतियोगिता एवं स्पर्धा (Competition and Rivalry)
किशोरावस्था में सामाजिक विकास
समूह का सदस्य होना स्पर्धा और प्रतियोगिता
सामाजिक संबंधों की स्थापना नेतृत्व (Leadership)
सामाजिक रुचियों का विकास मित्रता (Friendship)
सामाजिक चेतना का विकाससामाजिक परिपक्वता (Social Maturity)
पारिवारिक संबंधों में सुधार
सामाजिक विकास की कसौटियाँ Criteria of Social Development
बालक के सामाजिक विकास को विभिन्न कसौटियों के आधार पर मापा जा सकता है-
1.सामाजिक समायोजन (SocialAdjustment): जिन बालकों का समायोजन जितना अच्छा होता है उन बालकों का सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होता है। विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ बालक का समायोजन जितना ही अच्छक होगा उसका सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होगा।
2. सामाजिक अनुरूपता (Social Conformity): इसका अर्थ है समाज के मानका आदर्शों और मूल्यों के अनुरूप व्यवहार करना । बालकों के व्यवहार में सामाजिक अनुरूपता जितनी ही अधिक होती है उन बालकों का सामाजिक विकास उतना ही अच्छा होता है। सामाजिक विकास और सामाजिक अनुरूपता में धनात्मक सह संबंध है।
3. सामाजिक परिपक्वता (Social Maturity) समाज के मूल्यों, नियमों, अभिवृत्तियों और सामाजिक व्यवहार, रीति, प्रथाओं और परम्पराओं तथा सामाजिक कार्य आदि की परिपक्वता यदि एक व्यक्ति में समाज की इच्छाओं के अनुसार विकसित हो चुके हैं तो वह व्यक्ति समाज की दृष्टि से पूर्ण रूप से सामाजिक प्रौढ़ता रखता है। सामाजिक परिपक्वता का विकास धीरे धीरे आयु के साथ साथ होता है।
4. सामाजिक अन्तःक्रियाएँ (Social Interactions) सामाजिक अन्तःक्रियाओं का अर्थ है दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक क्रियाएँ । सहयोग, सहानुभूति, व्यवस्थापन, समीकरण आदि कुछ संगठनात्मक प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं। इसी प्रकार से तनाव, संघर्ष आदि कुछ विघटनात्मक प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं। बालक में सामाजिक विकास जितना ही अधिक होता है उसमें संगठनात्मक सामाजिक अन्तः क्रियाएँ उतनी ही अधिक होती हैं ।
5. सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना (Social Participation) बालक दूसरों के साथ खेलने, बातचीत करने और घूमने में अपनी रुचि लगभग 1, वर्ष की अवस्था से ही प्रदर्शित करने लग जाता है। 5-6 वर्ष की अवस्था में सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने का महत्व उसकी समझ में आने लगता है। दूसरे बच्चों के साथ सामूहिक खेलों से समाज के अनेक नियमों और मूल्यों को सीखता है तथा अनेक सामाजिक कौशलों को भी सीखता है।
बालक को सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के जितने ही अधिक अवसर प्राप्त होते हैं, इन अवसरों से वह उतना ही अधिक लाभ उठाता है तथा उस बालक का सामाजिक विकास उतना ही अच्छा माना जाता है।
सामाजिक परिपक्वता की अध्ययन विधि Learning Method of Social Maturity
वाइनलैंड सामाजिक परिपक्वता माप (The Vineland Social Maturity Scale)
> डॉ. एडलर डोल ने सामाजिक परिपक्वता का मापन करने के लिए इस विधि का निर्माण किया है। वाइनलैंड सामाजिक परिपक्वता माप को प्रमाणीकृत कर लिया गया है तथा इसका प्रयोग भिन्न अवस्था के बालकों के सामाजिक व्यवहार का मापन करने के लिए किया जाता है।
डॉ. डोल ने इस माप के अन्तर्गत 117 सामाजिक क्रियाओं को रखा है, जिनका संबंध जन्म से लेकर किशोरावस्था तक है।
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक Factors Influencing Social Development
स्किनर व हैरीमन के शब्दों में- ‘वातावरण और संगठित सामाजिक साधनो के कुछ ऐसे विशेष कारक हैं जिनका बालक के सामाजिक विकास की दशा पर निश्चित और विशिष्ट प्रभाव पड़ता है।‘
वंशानुक्रम (Ileredity) कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बालक के सामाजिक विकास पर वंशानुक्रम का कुछ सीमा तक प्रभाव पड़ता है। इनकी पुष्टि में क्रो एवं क्रो ने लिखा है.. “शिश की पहली मस्कान या उनका कोई विशिष्ट व्यवहार वंशानुक्रम से उत्पन्न होनेवाला हो सकता है।”
2. शारीरिक व मानसिक विकास स्वस्थ और अधिक विकसित मस्तिष्क वाले बालक का सामाजिक विकास अस्वस्थ और कम विकसित मस्तिष्क वाले बालक की अपेक्षा अधिक होता है।
3. संवेगात्मक विकास (Emotional Development) बालकों की संवेगात्मकता उनके सामाजिक विकास को प्रभावित करती है। जो बालक विनोदप्रिय और हँसमख होते हैं उनके दोस्त और साथी समूहों की संख्या अधिक होती है। इस प्रकार के बालकों में सामाजिक विकास भी अन्य प्रकार के बालकों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाया जाता है।
4. पारिवारिक वातावरण (Family Environment) परिवार ही वह स्थान है, जहाँ सबसे पहले बालक का समाजीकरण होता है परिवार के बड़े लोगों का जैसा व्यवहार और आचरण होता है, बालक वैसा ही आचरण और व्यवहार करने का प्रयत्न करता है।
5. आर्थिक स्थिति (Economic Status) माता-पिता की आर्थिक स्थिति का बालक के सामाजिक विकास पर उचित या अनुचित प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ, धार्मिक माता-पिता के बालक अच्छे पड़ोस में रहते हैं, अच्छे व्यक्तियों से मिलते-जुलते हैं और अच्छे विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसे बालकों का सामाजिक विकास उन बालकों से कहीं अधिक उत्तम होता है जिन्हें निर्धन माता-पिता की संतान होने के कारण उपयुक्त सुविधाएँ नहीं मिलती हैं।
6. पालन पोषण की विधि (Methods of Nurture) अभिभावक के द्वारा बालक के पालन पोषण की विधि उसके सामाजिक विकास पर बहुत गहरा प्रभाव डालती है। जैसे—समानता के आधार पर पाला जानेवाला बालक कहीं भी हीनता का अनुभव नही करता है और लाड़ से पाला जाने वाला बालक दूसरे बालकों से दूर रहना पसन्द करता है। अतः दोनों का सामाजिक विकास दो विभिन्न दिशाओं में होता है।
7. पड़ोस और विद्यालय (Neighborhood and School) बालक के सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से परिवार के बाद विद्यालय का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यदि विद्यालय का वातावरण जनतंत्रीय है तो बालक का सामाजिक विकास अविराम गति से उत्तम रूप ग्रहण करता चलता है। इसके विपरीत, यदि विद्यालय का वातावरण एकतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार दण्ड और दमन पर आधारित है तो बालक का सामाजिक विकास कुण्ठित हो जाता है।
8. मनोरंजन (Recreation) जिन बालकों को अच्छे मनोरंजन के जितने अधिक अवसर प्राप्त होते हैं उनका सामाजिक विकास उतना ही अधिक अच्छा होता है। स्वस्थ, नाटक सिनेमा, सर्कस, सैर पार्टियों में जाना आदि बच्चों का मनोरंजन करते हैं। मनोरंजन से बालक स्वस्थ व प्रसन्न रहता है।
9. समूह या टोली (Groups) बालक के समूह के साथी अधिक हैं तो सामाजिक विकास तीव्रता से होता है, क्योकि समूह के बीच ही बालक विभिन्न सामाजिक मल्यो व सामाजिक स्वरूपों को सीखता है।
10. संस्कृति (Culture) मानव की संस्कृति पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके सामाजिक व्यवहार का प्रभाव पड़ता है, जिसके बीच वह प्रारंभ से पलता और बड़ा होता है। भारतीय व पाश्चात्य संस्कृति में पर्याप्त अंतर है। कोई भी समाज अपने सदस्यों से अपनी संस्कृति के विरुद्ध कार्य करने की अपेक्षा नहीं रखता है। अतः सामाजिक प्राणी होने के नाते संस्कृति के अनुसार ही सामाजिक व्यवहारों को किया जाता है।
11. लिंग (SC) लिंग भेद सामाजिक व्यवहारों में भिन्नता पैदा करते हैं। प्रायः लड़कों को प्रारम्भ से अधिक स्वतंत्रता मिलने के कारण वे अधिक क्रोधी झगड़ालू होते हैं, जबकि लडकियाँ सहनशील होती हैं। बालिकाओं में बालकों की अपेक्षा सहनशक्ति, सहिष्णुता, सहानुभूति और त्याग की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ अधिक होती हैं।
12. वृद्धि (Growth) : सामाजिक विकास विभिन्न आयु स्तरों पर वृद्धि के अनुसार अलग अलग होता है। प्रारम्भ में बच्चा पूरी तरह दूसरों पर निर्भर होता है। परन्तु उम्र के साथ साथ वह आत्मनिर्भर होता जाता है। वह स्वयं समाज में नेतृत्व करने योग्य हो जाता है तथा उत्तरोत्तर वृद्धि सामाजिक विकास में परिपक्वता लाती है।
13. भाषा विकास (Language Development) : भाषा एक माध्यम है, जिसके द्वारा बालक अपनी बातों, विचारों आदि का आदान-प्रदान दूसरों से करते हैं। भाषा के उचित प्रयोग से बालक अपना सामाजिक दायरा बढ़ा सकते हैं।
14. हीनता की भावना (Inferiority Complex) प्रायः जिन बालकों में हीनता की _ भावना अधिक मात्रा में पायी जाती है उनमें सामाजिक विकास कम गति से होता है। वे बालक दूसरों से मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते हैं। अपनी हीनता की भावना के कारण उनमें आत्मविश्वास भी कम हो जाता है जिससे उन्हें अपना सामाजिक दायरा बनाने में कठिनाई होती है।
15. व्यक्तित्व विकास (Personality Development): बालकों का व्यक्तित्व भी • उसके सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का निर्माण अलग ढंग से होता है। कुछ बालक बहिर्मुखी तथा कुछ अन्तर्मुखी होते हैं। बहिर्मुखी बालकों का सामाजिक दायरा बड़ा होता है। वे प्रसन्न एवं मिलनसार होते हैं, जिससे वे समाज में लोकप्रिय हो जाते हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास की भावना बढ़ जाती है।
16. सामाजिक व्यवस्था (Social System) सामाजिक व्यवस्था बालक के सामाजिक विकास को एक निश्चित रूप और दिशा प्रदान करती है। समाज के कार्य, आदर्श और प्रतिमान बालक के दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं। यही कारण है कि ग्राम और नगर, जनतंत्र और तानाशाही में बालक का सामाजिक विकास विभिन्न प्रकार से होता है।
परीक्षोपयोगी तथ्य
समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति उसके समूह मानकों (Norms) के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास करता है।
सामाजिक विकास का अर्थ उस योग्यता को अर्जित करना है जिसके द्वारा सामाजिक प्रत्याशाओं (Expectation) के अनुसार व्यवहार किया जा सके।
सामाजीकरण में तीन प्रक्रियाएँ सम्मिलित है(a) वह प्रक्रिया जिससे बालक में
समाज द्वारा मान्य व्यवहार का विकास होता है। (b) बालक समाज में मान्य रोल्स सीखता है। (c) सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास।
सामाजिक प्रौढता (Social Maturity) का अर्थ है- समाज के मूल्यों नियमों अभिवृत्तियों और सामाजिक व्यवहार तथा सामाजिक रोल्स आदि की प्रौढ़ता।
बहिर्मुखी व्यक्तियों में सामाजिक प्रौढ़ता अन्तर्मुखी व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है।
सामाजिक अनुरूपता (Social Conformity)का अर्थ है समाज के मानकों (Norms) आदर्शों तथा मूल्यों इत्यादि के अनुरूप व्यवहार करना।
सामाजिक विकास और सामाजिक अनुरूपता में धनात्मक सह संबंध है।
बालक में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ बालक का समायोजन जितना अच्छा होगा, उसका सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होगा।
सामाजिक अन्तःक्रिया का अभिप्राय है दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक क्रियाएँ।
संगठनात्मक सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं सहयोग, सहानुभूति, व्यवस्थापन, सात्मीकरण इत्यादि।
विघटनात्मक सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं तनाव, संघर्ष इत्यादि।
बालक का सामाजिक विकास उतना अधिक अच्छा माना जाता है जितना ही अधिक वह सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेता है।
बचपनावस्था (Babyhood) में बालकों में होनेवाली सामाजिक अनुक्रियाएँ हैंअनुकरण (Imitation), आश्रितता (Dependency), ईर्ष्या (Rivalry), सहयोग (Cooperation), शर्माहट (Shyness), ध्यान आकर्षित करना (Attention Seeking), अवरोधी व्यवहार (Resistant Behaviour)।
पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood) में होनेवाली सामाजिक अनुक्रियाएँ हैंआक्रामकता झगड़ा (Quarreling), चिढ़ना (Teasing), निषेधात्मक व्यवहार (Negative Behaviour), सहयोग (Co-operation), ईर्ष्या (Rivalry), उदारता (Generosity), सामाजिक अनुमोदन की इच्छा, आश्रितता (Dependency), बालको में मित्रता, सहानुभूति (Sympathy)।
उत्तर बाल्यावस्था (Late Childhood) में होनेवाली सामाजिक अक्रियाएँ हैंसामाजिक अनुमोदन (Social Approval), सुझाव ग्रहणशीलता (Suggestibility), स्पर्धा और प्रतियोगिता (Rivalry and Competition), खेल (Sports), पक्षपात और सामाजिक विभेदीकरण (Prejudice and Social Discrimination), उत्तरदायित्व (Responsibility), सामाजिक सूझ (Social Insight), यौन विरोधी भाव (Sex Antagonism)।
सामाजिक विकास को प्रभावित करनेवाले कारक हैं- शारीरिक बनावट और स्वास्थ्य, परिवार पडोस और वातावरण, मनोरंजन (Recreation), व्यक्तित्व, संवर्द्धन अभिप्रेरक, संवेगात्मक विकास, हीनता की भावना, साथी समूह ।
किशोरावस्था में बालकों में होनेवाले सामाजिक परिवर्तन हैं साथियों के समूह का प्रभाव, सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन, नया सामाजिक समूहन, दोस्तों में चयन का नया मूल्य, सामाजिक स्वीकृति में नया मूल्य इत्यादि ।
ब्रोनफेनब्रेन्नर (Bronfrenbrenner) ने पारिस्थितिपरक सिद्धांत (Ecological Theory) की व्याख्या बच्चे के विकास के सामाजिक संदर्भ (Social Context) में किया है। इस सिद्धांत के अनुसार पर्यावरणी तल के पाँच स्तर होते हैं. लघुमंडल (Micro System), मध्यमंडल (Mesosystem), बाह्यमंडल (ExOSystem), वृहत्तमंडल (Macrosystem), घटनामंडल (Chromosystem)।
इरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत में पूरे जीवन अवधि में विकास को आठ अवस्थाओं में बाँटा गया है।
> सामाजिक विकास में शिक्षकों की भूमिका काफी अधिक है, क्योंकि शिक्षकगण बालकों के सामाजिक विकास को सीधे प्रभावित करते हैं। समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे बच्चे और वयस्क सीखते हैं परिवार से, विद्यालय से और श्रेष्ठ जनों से
Download UPTET Book Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 4 समाजीकरण की प्रक्रियांए in PDF
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 4 in PDF
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Anuvanshikta Evam Vatavaran Ka Prabhav: UPTET (Uttar Prdesh Teacher Eligibility Test) Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book and Notes Chapter 3 आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव Study Material in Hindi में Online पढ़ने जा रहे है | अभ्यर्थियो को बता दे की हम UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter 3 in Hindi PDF में Free download का लिंक भी सबसे निचे दे रहे है |
आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 3 Study Material in Hindi
परिचय Introduction >
प्राचीनकाल के विद्वानों का यह मत था कि बीज के अनुसार वृक्ष और फल उत्पन्न होते हैं अर्थात् माता पिता के अनुसार ही उसकी संतान होती है (Like Begeta Like)। आधुनिक काल में, विशेष रूप से व्यवहारवादियों ने वातावरण को महत्व दिया है। वाटसन (J. B. Watson, 1920) का विचार है कि “वातावरण के प्रभाव से शिश को डॉक्टर, वकील, कलाकार, नेता आदि कुछ भी बनाया जा सकता है, भले ही शिशु का आनुवंशिकी कुछ भी रहा हो तथा एक समाज के व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से असमान होते हैं।” इन असमानताओं या विभिन्नताओं का कारण कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वंशानुक्रम है तथा अन्य के अनुसार, भिन्नताओं का कारण वातावरण है। विज्ञान के क्षेत्र में इन अध्ययनों का आरंभ डार्विन तथा मनोविज्ञान के क्षेत्र में इन अध्ययनों का आरंभ गाल्टन ने किया। जहाँ एक ओर कुछ मनोवैज्ञानिक वंशानुक्रम को महत्व देते हैं और कुछ वातावरण को, वहीं दूसरी ओर दोनों वर्ग के विद्वान एक-दूसरे के विचारों का खंडन भी करते रहे हैं। पीटरसन (Peterson) (1948) के अनुसार, ‘व्यक्ति को उसके माता-पिता के द्वारा उसके पूर्वजों से जो प्रभाव (Stock) प्राप्त होता है, वही उसका वंशानुक्रम है।” वुडवर्थ और मारिक्वस (1956) के अनुसार, ‘वंशानुक्रम में वे सभी कारक अ = जाते हैं, जो व्यक्ति में जीवन आरंभ के समय उपस्थित होते हैं, जन्म के समय नहीं, वरन् गर्भाधान के समय अर्थात् जन्म से लगभग 9 माह पूर्व उपस्थित होते हैं।” डिंकमेयर (Dinkmeyer, 1965) के अनुसार, ‘वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं जो बालक में जन्म के समय से पायी जाती हैं।” माता के रज औ । पिता के वीर्य कणों में बालकों का वंशानुक्रम निहित होता है। गर्भाधान के समय जीन (Genes) भिन्न प्रकार से संयुक्त होते हैं। अतः एक ही माता-पिता की संतान प में भिन्नता दिखायी देती है। यह भिन्नता का नियम (Law of Variation) है म प्रत्यागमन के नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता-पित द की संतानें दुर्बल बुद्धि कि भी हो सकती हैं।
बालकों के विकास में आनुवंशिकता तथा वातावरण का महत्व
Importance of Heredity and Environment in Development of Children व्यक्ति के व्यवहार के निर्धारण में आनुवंशिकता (Heredity) तथा वातावरन (Environment) के तुलनात्मक महत्व (Relative Importance) को दिखाने के लिए मनोवैज्ञानिक ने निम्नांकित दो तरह के अध्ययन (Studies) किये हैं.
। जुड़वाँ बच्चों का अध्ययन (Studies of Tiwin Children)
2. पोष्य बच्चों का अध्ययन (Studies Of Foster Children)
1 जुड़वाँ बच्चों का अध्ययन (Studies of Twin Children) जुड़वाँ बच्चे
(Twin Children) दो तरह के होते हैं एकांकी जुड़वाँ बच्चे (Identical Twin Children) तथा भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चे (Fraternal Twin Children) एकांकी जुड़वाँ बच्चों की आनुवंशिकता ( Heredity) बिल्कुल ही समरूप (Identical) होती है, क्योंकि ऐसे बच्चे का जन्म माँ के एक अंडाणु (Ovum) के गर्भित होने के फलस्वरूप होता है। कोशिका विभाजन (Cell Divison) के दौरान एक ही गर्भित अंडाणु किसी कारण से दो स्वतंत्र भागों में बँटकर दो बच्चे को जन्म देता है। ऐसे बच्चे या तो दोनों लड़का या दोनों ही लड़की होते हैं।
भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चों का जन्म इसलिए हो पाता है कि माँ के दो अंडाणु (Ovum) एक ही साथ पिता के दो अलग अलग शुक्राणु (Sperm) द्वारा गर्भित हो जाते हैं। स्वभावतः ऐसे जुड़वाँ बच्चों की आनुवंशिकता समान या समरूप नहीं होती है, क्योंकि इसमें दो अलग अलग गर्भित अंडाणु होते हैं । ऐसे बच्चों का यौन (Sex)कुछ भी हो सकता है अर्थात् एक लड़का तथा एक लड़की या दोनों लड़का या दोनों लड़की ।
मनोवैज्ञानिकों ने आनुवंशिकता तथा वातावरण के तुलनात्मक महत्व को दिखाने के लिए जुड़वाँ बच्चों पर अध्ययन किया; जो इस प्रकार है
(a) एकांकी जुड़वाँ बच्चे जिनका पालन पोषण एक समान वातावरण में हुआ है सेल तथा थॉम्प्सन (Gesell and Thompson, 1929) ने इस पर अध्ययन किया । इन्होंने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष दिया कि व्यक्तित्व का निर्धारण वातावरण की समानता तथा आनुवंशिकता की समानता दोनों के आधार पर होता है।
(b) एकांकी जुड़वाँ बच्चे जिनका पालन पोषण अलग अलग वातावरण में हुआ है : यह अध्ययन मनोवैज्ञानिक न्यूमैन, फ्रीमैन तथा हालजिगर (Newman, Freeman & Holzinger, 1937) ने किया। इन्होंने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि व्यक्तित्व कुछ तो आनुवंशिकता द्वारा तथा कुछ वातावरण द्वारा निर्धारित होता है। अतः व्यक्तित्व आनुवंशिकता तथा वातावरण दोनों की अंतःक्रिया (Interaction) द्वारा निर्धारित होता है।
2 पोष्य बच्चों का अध्ययन (Studies of Foster Children) मनोवैज्ञानिकों ने पोष्य बच्चों का अध्ययन करके वातावरण तथा आनुवंशिकता (Heredity) के तुलनात्मक महत्व का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के द्वारा मनोवैज्ञानिकों ने दो प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया है.
क्या पोष्य बच्चों के व्यवहार में अपने वास्तविक माता पिता के व्यवहार से अधिक समानता होती है?
यदि अनुकूल वातावरण में ऐसे बच्चों को रखकर पाला पोसा जाय तो क्या उनके कुछ खास गुणों, जैसे बुद्धि (Intelligence) आदि में परिवर्तन आता है ?
पहले प्रश्न के संबंध में मनोवैज्ञानिक बक्स (Burks 192S), स्काल्स (Skeels. 1938) और स्कोडक (Skodak 1930) ने किया। इन सभी मनोवैज्ञानिक के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि बद्धि के निधोरण मे वातावरण तथा आनुवंशिकता दोनों का महत्व है, न कि किसी एक का।
दूसरे प्रश्न के संदर्भ में मनोवैज्ञानिकों ने कुछ अध्ययन करके यह दिखा दिया कि पोष्य बच्चे (Foster Children) को कुछ अनुकूल वातावरण (Fal our able Environment) मिलने पर उनकी बुद्धि के स्तर में थोड़ी सी वृद्धि होती है।
> एच ई गैरेट (H. E. Garrett 1960) का विचार है कि यह निश्चित है कि वशानुक्रम और वातावरण एक दुसरे को सहयोग देनेवाले प्रभाव या कारक है तथा दोनों ही बालक की सफलता के लिए आवश्यक है।
आर एस वुडवर्थ (RS Hoodivorth 1050) का कथन है कि व्यक्ति के जीवन और विकास पर प्रभाव डालने वाली प्रत्येक बात वशानुक्रम और वातावरण के क्षेत्र में आ जाती है, परतु ये बातें इतने पेचीदा ढंग से संयुक्त होती है कि प्राय वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभावों में अंतर करना कठिन हो जाता है।”
अतः बालक के व्यक्तित्व और व्यवहार को समझने में वातावरण और वंशानुक्रम की पारस्परिक अतः क्रियाओं (Interactions) तथा इन प्रभावों से संबंधित कारको की अंत क्रियाओं को समझना आवश्यक है। वंशानुक्रम एक निर्धारक कारक है तथ वातावरण एक सामान्य शक्ति या कारक है। ये दोनों ही कारक एक-दूसरे के पूरक है।
आनुवंशिकता के नियम Law of Heredity
» आनुवंशिकता की क्रियाविधि (Mechanisms) का वर्णन करने के लिए जोहान (गियर मेडल (Johan Gregor Mendel) ने महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने विभिन्न तरह के मटरों (Peas) को संकरित (Crossing) कर आनुवंशिकता के आधारभूत नियमों (Cardinal Principles) का प्रतिपादन किया।
मेंडल ने अपने विस्तृत प्रयोगों के परिणाम को 1866 में प्रकाशित किया, लेकिन कई कारणों से उनके प्रयोगों की ओर 1900 ई. तक लोगों का ध्यान बहुत नहीं गया।
1900 ई. में ही तीन शोधकर्ता (Researcher) नीदरलैंड, आस्ट्रिया तथा जर्मनी में स्वतंत्र रूप से प्रयोग कर उसी परिणाम पर पहुँचे, जिस पर मेडल 34 साल पहले पहँच चके थे। इन तीन शोधकर्ताओं ने मेंडल के नियम को वैध ठहराया और उन्हें आनुवंशिकता का आधारभूत नियम (Cardinal Principle or Larot Heredity) की संज्ञा दी।
मेंडल के इस आनुवंशिकता में दो नियम सम्मिलित हैं
a) पृथक्करण का सिद्धांत (Principle of Segregation)
(b) स्वतंत्रछटायी का सिद्धात (Principle of Independent Assortment पथक्करण का सिद्धांत (Principle of Segregation) यह बताता है कि जो गुण पहली सकर पीढ़ी (First Hybrid Generation) में दबा रहता है या छिपा रहत है, वे समाप्त नहीं हो जाते, बल्कि बाद की संकर पीढ़ी के कुछ सदस्यों में दिखायी देते हैं।
पृथक्करण के सिद्धांत में उनका कहना था कि दबे हुए गुण अन्य गुणों के साथ मिलकर अपना अस्तित्व नहीं खो देते हैं, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी फिर दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी तक अपने मूल रूप मे अलग अस्तित्व (Segregated Enistence) बनाये रखते हैं।
मानव शिशुओं में पृथक्करण के सिद्धांत का क्रियान्वयन स्पष्ट रूप से होता पाया गया है। विशेष रूप से आनुवंशिक रोग (Genetic Disease) में इस सिद्धांत की क्रियान्वयनता देखने को मिलती है।
स्वतंत्र फुटायी का सिद्धांत (Principle of Independent Assortment) यह बताता है कि किसी एक आनुवंशिक गुण (Genetic Treat) का वितरण दूसरे आनुवंशिक गुण के वितरण से प्रभावित नहीं होता, अर्थात् स्वतंत्र होता है। जैसेमेंडल ने अपने प्रयोग में पाया कि मटर के पौधे के फूल का रंग मटर के फली (Pods) के आकार, डंठल की लंबाई इत्यादि गुणों से स्वतंत्र (Independent) होता है। व्यक्तियों की आनुवंशिकता के संबंध में निम्नलिखित बिन्दु महत्वपूर्ण हैं—
(a) बालक की आनुवंशिकता में सिर्फ उसके माता पिता की देन नहीं होती, बल्कि बालक की आनुवंशिकता का आधा भाग माता-पिता से, एक-चौथाई भाग दादा-दादी से, नाना नानी से, शेष भाग परदादा परदादी, परनाना परनानी इत्यादि से मिलता है। अर्थात् एक शिशु पूर्णतः अपने माता-पिता पर ही निर्भर नहीं करता, अपने पूर्वजों के गुणों को अपने में कुछ हद तक सम्मिलित किये रहता है।
(b) क्रोमोजोम्स सदा जोड़े में रहते हैं। क्रोमोजोम्स में जीन भी जोड़े में होते हैं। इन्हीं जीन के आधार पर शिशुओं के गुणों का निर्धारण होता है।
(c) किसी भी नवजात शिशु को 23 क्रोमोजोम्स माता से तथा 23 क्रोमोजोम्स पिता से मिलते हैं। इस तरह कुल 46 क्रोमोजोम्स बालक या नवजात शिशु में होते हैं। इनमें । 22 जोड़े यानी 44 क्रोमोजोम्स बालक या बालिका में आकार एवं विस्तार में समान होते हैं। इन्हें ऑटोजोम्स (Autosomes) कहा जाता है ।
23वाँ जोड़ा यौन क्रोमोजोम्स (Sex Chromosomes) होता है, जो बालिका में । समान अर्थात् XX होता है, परंतु बालक में भिन्न अर्थात् XY होता है। Y क्रोमोजोम्स X क्रोमोजोम्स की अपेक्षा छोटा होता है तथा इसमें X क्रोमोजोम्स की तुलना में कम जीन होते हैं। मानव में शिशु के यौन (Sex) का निर्धारण माता-पिता द्वारा होता है न कि माता द्वारा।
नवंशिकता तथा वातावरण का बालकों की शिक्षा के लिए महत्व importance of Heredity and Environment for Education of Children
बालकों की शिक्षा में आनुवंशिकता ( Heredity)तथा वातावरण (Environment) दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों में शारीरिक, मानसिक, सावेगिक, नैतिक तथा चारित्रिक विकास करना है।
इन उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए आनुवंशिकता और वातावरण दोनों पहलू महत्वपूर्ण हैं, जैसे—अगर बालक की आनुवंशिकता काफी अच्छी है परंतु उसे अच्छा वातावरण नहीं मिल पाया है, तो उसका शैक्षिक विकास (Educational Development) ठीक से नहीं हो पायेगा। यदि बालक आनुवंशिकता के दृष्टिकोण से निम्न तथा पिछड़ा हुआ है, परंतु उसे यदि एक अच्छे, वातावरण, जैसे अच्छे स्कूल में शिक्षा-दीक्षा दी जाये तो तुलनात्मक दृष्टिकोण से उसका विकास भी उतना श्रेष्ठ नहीं होगा। कुछ प्राकृतिक प्रवृतियाँ ऐसी हैं जिनका वातावरण के माध्यम द्वारा काफी हद तक विकास नहीं किया जा सकता। जैसे—कितना भी हम शैक्षिक वातावरण को उन्नत क्यों न कर दें, सभी बालक को वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, चित्रकार, प्रशासक नहीं बनाया जा सकता है।
बालको की आनुवंशिकता तथा वातावरण का शिक्षकों के लिए महत्व
शिक्षकों के लिए बालकों की आनुवंशिकता तथा वातावरण की जानकारी रखना महत्वपूर्ण है। जागरूक एवं अच्छे शिक्षकों को लिए यह आवश्यक होता है कि वे बालकों की आनुवंशिकता एवं अन्य जैविक गुणों (Biological Traits) से परिचित हो जाये तथा उनके घर, परिवार एवं सामाजिक वातावरण, जिसमें वे रहते हैं उससे भलीभाँति अवगत हो जाएँ। उससे बालकों के बौद्धिक विकास, समायोजन तथा अनुशासन संबंधी समस्याओं को शिक्षक स्वयं हल कर सकने में समर्थ हो जायेंगे। उदाहरणस्वरूप-
एक बालक स्कूल में इसलिए दुर्व्यवहार (Misbehave) कर सकता है क्योंकि उसमें एक असामान्य ग्रंथीय अवस्था (Abnormal Glandular Condition) हो सकता है या वह इसलिए भी दुर्व्यवहार कर सकता है क्योंकि वह एक ऐसे परिवार से आता है जहाँ अच्छा तौर-तरीका कभी सिखाया ही नहीं गया हो। वर्ग में एक बालक कुछ सीखने में इसलिए असमर्थ हो सकता है क्योंकि उसमें उपयुक्त विटामिन की मात्रा पर्याप्त नहीं है या वह ढंग से सीखने के लिए प्रेरित भी नहीं हो सकता है।
यदि शिक्षक को बालक की आनुवंशिकता एवं जैविक पृष्ठभूमि का ज्ञान हो तथा साथ ही साथ यदि वह पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण से भली-भाँति परिचित हो, तो वह इससे स्वयं ही शिक्षार्थियों की कई समस्याओं का समाधान आसानी से , कर सकता है।
ब्लेयर, जोन्स तथा सिम्प्सन (Blair, Jones & Simpson, 1965) ने इस सबध में कहा है “बालकों को समझने के लिए शिक्षक (a) उन्हें एक जैविक प्राणी जिनकी अपनी आवश्यकताएँ एवं लक्ष्य होते हैं, के रूप में निश्चित रूप से समझें तथा > (B) उनके सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक वातावरण को पहचानें जिनका वे एक हिस्सा है।
शिक्षक को बालकों की कुछ मूल प्रवृत्तियों के बारे में उनके आनुवंशिक तथ्यों से पता चलता है। इससे शिक्षक को बालकों में वांछनीय प्रवृत्तियों (Desired Tendencies » के विकास के लिए तथा अवांछनीय प्रवृतियों (Undesired Tendencies) को> समाप्त कर उसके प्रभाव से बचाने में मदद मिलती है।
शिक्षक विद्यालय में विभिन्न प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन करके शैक्षिक वातावरण को उन्नत बना सकते हैं, जिसका प्रभाव बालकों के समन्वित विकास पर अनुकूल पड़ सकता है।
आनुवंशिकी/वंशानुक्रम के प्रचलित सिद्धांत
★ बीजकोष की निरंतरता का सिद्धांत * समानता का सिद्धांत
प्रत्यागमन का सिद्धांत * अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धांत
* मेडल का सिद्धांत
बालक पर आनुवंशिकी/वंशानुक्रम का प्रभाव
* मूल शक्तियों पर प्रभाव * शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव
★ प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव ___ * व्यावसायिक योग्यता पर प्रभाव
* सामाजिक स्थिति पर प्रभाव * चरित्र पर प्रभाव
* महानता पर प्रभाव * वृद्धि पर प्रभाव
परीक्षोपयोगी तथ्य
आनुवंशिकता से तात्पर्य शारीरिक एवं मानसिक गुणों के संचरण (Transmission) से होता है, जो माता पिता से बच्चों में जीन के माध्यम से प्रवेश करता है।
वातावरण (Environment) का तात्पर्य व्यक्ति में उन सभी तरह की उत्तेजनाओं (Stimulations) से होता है जो गर्भधारण से मृत्यु तक उसे प्रभावित करती है।
1950 ई. में विशेषज्ञों द्वारा यह पता लगाया कि जीन में मुख्य रूप से दो जैविक अणु (Organic Molecule) होते हैं, जिन्हें DNA (Deoxyribonucleic Acid) तथा RNA (Ribonucleic Acid) कहा जाता है।
जीन द्वारा आनुवंशिक गुणों का संचरण होता है। मानव जीवन की शुरुआत एक गर्भित अंडाणु (Fertilized egg) से होती है। एक गर्भित अंडाणु में क्रोमोजोम्स के 23 जोड़े होते हैं । इस 46 क्रोमोजोम्स में 23 क्रोमोजोम्स माँ से तथा 23 क्रोमोजोम्स पिता से मिलता है।
क्रोमोजोम्स में एक ही विशेष संरचना (Structure) होती है, जिसे जीन (Gene) कहा जाता है। इसी जीन द्वारा माता-पिता या अपने पुरखों के गुण अपने शिशुओं में आते हैं।
बालकों की शिक्षा में आनुवंशिकता एवं वातावरण का महत्वपूर्ण स्थान है। बालको की आनुवंशिकता एवं वातावरण से अच्छी तरह परिचित होने पर शिक्षक बालकों के बौद्धिक विकास, समायोजन तथा अनुशासन संबंधी समस्याओं को हल करने में समर्थ रहते है।
आनुवंशिकता का नियम (Law of Heredity) (जिसे मेण्डल ने अपने शोध के आधार पर प्रतिपादित किया था) से यह पता चलता है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में व्यक्तियों में गुणों में विभिन्नता क्यों और कैसे होती है ?
मानव व्यक्तित्व आनुवंशिकता और वातावरण की अंतःक्रिया का परिणाम है।
व्यक्तित्व एवं बुद्धि में वंशानुक्रम की महत्वपूर्ण भूमिका है।
Download UPTET Book Chapter 3 आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव in Hindi PDF
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bal Vikas ke Siddhant in Hindi PDF Download : UPTET Book in PDF Free Download की आज की पोस्ट में आप सभी का फिर से स्वागत करते है | दोस्तों आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET Books and Notes Paper 1 & Paper 2 Chapter Second Bal Vikas ke Siddhant in Hindi PDF में Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है | UPTET Book Bal Vikas evam Shiksha Shastra in Hindi में Topic Wise/Chapter Wise रोजाना शेयर की जा रही है जिसका लिंक आपको एक दूसरी पोस्ट में शेयर भी किये जा रहे है |
बाल विकास के सिद्धांत | UPTET Chapter 2 Bal Vikas ke Siddhant Study Material in Hindi
बाल विकास (Child Development): बाल विकास का अध्ययन करने के लिए ‘विकासात्मक मनोविज्ञान’ की एक अलग शाखा बनायी गयी, जो बालकों के व्यवहारों का अध्ययन गर्भावस्था से होकर मृत्युपर्यंत करती है। परंतु वर्तमान समय में इसे ‘बाल विकास’ (Child Development) में परिवर्तित कर दिया गया।
हरलॉक (Hurlock) ने इस संबंध में कहा है कि “बाल मनोविज्ञान का नाम बाल विकास इसलिए रखा गया क्योंकि विकास के अंतर्गत अब बालक के विकास के समस्त पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, किसी एक पक्ष पर नहीं।
विभिन्न विद्वानों ने बाल विकास को निम्न प्रकार से परिभाषित किया हैक्रो और क्रो (Crow & Crow, 1958) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान वह वैज्ञानिक अध्ययन है जो व्यक्ति के विकास का अध्ययन गर्भकाल के प्रारंभ से किशोरावस्था की प्रारंभिक अवस्था तक करता है।
जेम्स ड्रेवर (James Drever, 1968) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें जन्म से परिपक्वावस्था तक विकसित हो रहे मानव का अध्ययन किया जाता है।
आइजनेक (Eysenck, 1972) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान का संबंध बालक में मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के विकास से है। गर्भकालीन अवस्था, जन्म, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था और परिपक्वावस्था तक के बालक की मनोवैज्ञानिक विकास प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।
हरलॉक (Hurlock, 1978) के अनुसार, ‘बाल विकास मनोविज्ञान की वह शाखा है जो गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यंत तक मनुष्य के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होनेवाले परिवर्तनों का अध्ययन करता है।
उपयुक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि बाल विकास बाल मनोविज्ञान की ही एक शाखा है जो बालकों के विकास, व्यवहार, विकास को प्रभावित करनेवाले विभिन्न तथ्यों का अध्ययन करता है।
‘बाल मनोविज्ञान तथा बाल विकास में अंतर यह है कि बाल मनोविज्ञान बालक की क्षमताओं का अध्ययन करता है जबकि बाल विकास क्षमताओं के विकास की दशा का अध्ययन करता है। बाल मनोविज्ञान दो शब्दों से मिलकर बना है। बाल + मनोविज्ञान । ‘बाल’ का अर्थ है बालक अर्थात वह प्राणी जो प्रौढ़ की श्रेणी में नहीं आया, हो उसे बालक की श्रेणी में रखा जाता है। मनोविज्ञान से अभिप्राय मन के विज्ञान से है। अतः बाल मनोविज्ञान से तात्पर्य विज्ञान की उस शाखा से है जो बालकों के मन (व्यवहारों का अध्ययन गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक करता है।
बाल विकास की प्रकृति Nature of Child Development
बाल विकास की प्रकृति निम्नलिखित है-
मनोविज्ञान की एक विशिष्ट शाखा के रूप में बाल विकास (Child De as a Special Branch of Psychology): मनोविज्ञान में विभिन्न प्रकार के के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। व्यवहार में कई प्रकार (Aspects) तथा कई आयाम (Dimensions) होते हैं। > बाल विकास मनोविज्ञान की एक महत्वपूर्ण, उपयोगी तथा समाज और गा कल्याणकारी शाखा है ।
मनोविज्ञान की शाखा में केवल मानव-व्यवहार का किया जाता है। गर्भकालीन अवस्था से लेकर युवावस्था तक के विकासशील – के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इस अवस्था में मानव-व्यवहार के विकास तथा विभिन्न आयु-स्तरों पर भी विभिल व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। यहाँ विकास का अर्थ है—मानव की जैविक संरचना (Biological Structure) तथा मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं (Psychological Processes) में होनेवाले क्रमिक परिवर्तन।
2. मनोविज्ञान में विशिष्ट उपागम के रूप में बाल विकास विषय (Child Development as a Special Approach in Psychology): मानव व्यवहारों के अध्ययन के लिए बाल विकास में कई विशिष्ट उपागम या विचार-पद्धतियों का उपयोग किया जाता है। ये उपागम निम्नलिखित हैं
(a) प्रयोगात्मक उपागम (Experimental Approach) : इस उपागम के द्वारा बाल विकास की विभिन्न समस्याओं के अध्ययन में कार्य-कारण संबंध (Cause & Effect Relationship) को जानने का प्रयास किया जाता है। > इस उपागम के द्वारा एक विशिष्ट व्यवहार किस परिस्थिति में उत्पन्न होता है या एक परिस्थिति-विशेष में व्यक्ति किस प्रकार के व्यवहार की अभिव्यक्ति करेगा, यह अध्ययन किया जा सकता है।
(b) दैहिक उपागम (PhysiologicalApproach) : नाड़ी संस्थान (Nervous System) प्राणी के शरीर की संपूर्ण क्रियाओं को नियंत्रित करता है। ये क्रियाएँ शारीरिक भी हो सकती हैं और मनोवैज्ञानिक भी। > शारीरिक वृद्धि, विकास और स्वास्थ्य मुख्यतः हार्मोन्स और ग्रंथियों की क्रियाशालता
से संबंधित होता है। बाल विकास को दैहिकशास्त्र (Physiology) के ज्ञान कर भी समझा जा सकता है, क्योंकि जैविक आत्म (Biological Self) तथा मान आत्म (Psychic Self) एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं। गर्भकालीन शिशु और शिशुओं के व्यवहार से संबंधित समस्याओं का समाधान मुख्य रूप से इस उपागम द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
( विकासात्मक उपागम (Developmental Approach): बाल विकार समस्याओं के अध्ययन के लिए विकासात्मक उपागम भी अपनाया जाता है। उपागम को अपनाने का मुख्य कारण यह है कि जब बालक एक नयी विकास अवस्ता
में पहुँचता है तब उसमें कुछ नई रुचियों, कुछ नई अभिवृत्तियों, कुछ नये लक्षणों, कुछ नये शील-गुणों का एक विशिष्ट समूह (Cluster) निर्मित होता है। इस प्रकार के विशिष्ट समूह कई अवस्थाओं में देखे जा सकते हैं। विकासात्मक उपागम (Approach) के द्वारा विकास की मात्रा, गति और विकास की विशिष्टताओं आदि की जानकारी अलग-अलग तथा सम्पूर्ण रूप में होती है।
(d) व्यक्तित्व-संबंधी उपागम (Personality Approach): किसी बालक का व्यवहार उस बालक के किसी-न-किसी पहलू को अभिव्यक्त करता है। जन्म से ही व्यक्तित्व का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों का व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता है। > व्यक्तित्व के शीलगुणों (Traits) की स्थिरता व्यक्तियों के समायोजन, अभिवृत्तियों
और आदतों आदि के निर्माण से संबंधित होता है। > अतः व्यक्तित्व के शील-गुणों के आधार पर व्यक्ति के समायोजन, अभिवृतियों और
आदतों आदि के संबंध में भविष्यवाणी की जा सकती है। (e) एक विशिष्ट अध्ययन प्रणाली के रूप में बाल विकास (Child Development as a Special Study Approach): बाल विकास बाल मनोविज्ञान का ही एक विकसित रूप है, जिसकी अपनी विशिष्ट अध्ययन-प्रणाली है। बाल विकास की विकासात्मक प्रकृति वाली समस्याओं का अध्य्यन दो प्रणालियों द्वारा किया जाता है। पहली समकालीन अध्ययन-प्रणाली है तथा दूसरी दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली। बाल विकास के क्षेत्र Scope of Child Development
बाल विकास के क्षेत्र के अंतर्गत निम्नलिखित तथ्यों का अध्ययन किया जाता है___ 1. बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन (Study of Various Stages of Development) : बालक के जीवन-प्रसार में अनेक अवस्थाएँ होती हैं । जैसे—गर्भकालीन अवस्था, शैशवावस्था, बचपनावस्था, बाल्यावस्था, वयःसंधि और किशोरावस्था । इन सभी अवस्थाओं का विस्तृत अध्ययन बाल विकास के अंतर्गत किया जाता है।
2. बाल विकास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन (Study of Various Aspects of Child Development): इसके अंतर्गत विकास के विभिन्न पहलुओं जैसे-शारीरिक विकास, मानसिक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास, क्रियात्मक विकास, भाषा विकास, नैतिक विकास, चारित्रिक विकास और व्यक्तित्व विकास सभी का विस्तारवपूर्वक अध्ययन किया जाता है।
3. बाल विकास को प्रभावित करनेवाले तत्वों का अध्ययन (Study of Various Factors Effecting Child Development): बाल विकास उन सभी तत्वों का अध्ययन करता है जो बालक के विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। बालक के विकास पर मुख्य रूप से वंश-परम्परा, वातावरण, परिपक्वता और शिक्षण का प्रभाव पड़ता है।
4. बालकों की विभिन्न असमान्यताओं का अध्ययन (Study of Various Abnormalities of Children): बाल विकास के अंतर्गत बालकों के जीवन-विकास
क्रम में होनेवाली असामान्यताओं और विकृतियों का अध्ययन किया जा असंतुलित व्यवहारों, मानसिक विकारों, बौद्धिक दुर्बलताओं तथा बालको जानने का प्रयास करता है और समाधान हेतु उपाय भी बताता है।
5. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन (StudyofMental Hygiene) . सा बाल मनोविज्ञान और बाल विकास की ही देन है।
6. बाल-व्यवहारों और अंतःक्रियाओं का अध्ययन (Study of Child Bes, and Interactions): बाल विकास, विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होनेवा नवाला बालक की विभिन्न अंतःक्रियाओं का अध्ययन कर यह जानने का प्रयास करता ते क्रियाएँ कौन-सी हैं और इनसे बालकों के व्यवहार में क्या परिवर्तन होते हैं? समायोजन में सहायक हैं या बाधक।
विभिन्न आयु स्तरों पर बालक अपने समायोजन के लिए अपने संपर्क में आने
व्यक्तियों जैसे—परिवार के लोग, पड़ोसी, अध्यापक, खेल के साथी और समान सभी परिचितों के साथ अंतःक्रियाएँ करता रहता है।
7. बालकों की रुचियों का अध्ययन (Study of Childhood Interests): बाल विकास बालकों की रुचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है।
8. बालकों की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन (Study of Various Mental Processes of Children) : बाल विकास बालकों के बौद्धिक विकास की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे-अधिगम, कल्पना, चिंतन, तर्क, स्मृति तथा प्रत्यक्षीकरण इत यादि का अध्ययन करता है।
9. बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं का अध्ययन (Study of Individual Differences of Children): बाल विकास बालकों का शारीरिक और मानसिक स्तर पर वैयक्तिक विभिन्नताओं का अध्ययन करता है। शारीरिक विकास में कुछ बालक : अधिक लंबे, कुछ नाटे तथा कुछ सामान्य लंबाई के होते हैं। इसी प्रकार मानसिक विकास में कुछ प्रतिभाशाली, कुछ सामान्य और कुछ मंद बुद्धि के होते हैं। इसी प्रकार कुछ – बालक सामाजिक तथा बहिर्मुखी होते हैं जबकि कुछ अंतर्मुखी।
10. बालकों में व्यक्तित्व का मूल्यांकन (Evaluation of Children’s Personality): बाल विकास के अंर्तगत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यता का मापन व मूल्यांकन किया जाता है।
11. बालक-अभिभावक संबंधों का अध्ययन (Study of Parenral Relationship) : बालकों के व्यक्तित्व-निर्धारण और समचित विकास में माता-पिता का र महत्वपूर्ण योगदान होता है। जिन बालकों के संबंध अपने माता-पिता के साथ अच्छ बाल विकास, बालक अभिभावक संबंधों के निर्धारक तत्वों तथा समस्या उनके निराकरण का अध्ययन कर माता-पिता तथा बालकों के बीच अच्छ विकसित करने का प्रयास करता है, जिससे बालक परिवार, समाज व राष्ट्र क नागरिक के रूप में विकसित हो सकें।
बाल विकास के संबंध में परंपरागत विश्वास 0Traditional Belief in Relation to Child Development
बाल विकास के संबंध में प्रचलित परंपरागत विश्वास निम्नलिखित हैं
1. बाल्यावस्था के संबंध में : माता-पिता में बालकों के संबंध में भ्रम यह है कि ‘बालक प्रौढ़ व्यक्ति का ही लघु रूप है।” इस भ्रम के कारण माता-पिता अपने बालकों से यह उम्मीद करते हैं कि वे बाल्यावस्था में ही वयस्कों के समान सभी व्यवहार करने लगे।
बालक जब अपने माता की उम्मीद को पूरा करने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें दंड दिया जाता है उनकी आलोचना और अपमान किया जाता है। इससे बच्चों के मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है, वे हीन भावना के शिकार हो जाते हैं और आत्मविश्वास खो देते हैं, जिससे उनका व्यक्तित्व विकास अवरुद्ध हो जाता है।
> मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, “बालक ही प्रौढ़ बनता है, किन्तु बाल्यावस्था में वह प्रौढ़ों के समान परिपक्व नहीं होता है।
02. बालकों के जन्म के संबंध में : बालकों के जन्म के संबंध में भी कुछ धारणाएँ प्रमुख हैं। जैसे—कुछ लोग मानते हैं कि शुभ नक्षत्र में पैदा होनेवाला बच्चा भाग्यशाली होता है और उसका जीवन स्वयं के लिए तथा परिवार के लिए मंगलकारी होता है। इस प्रकार जो बच्चा अशुभ नक्षत्र में पैदा होता है वह अमंगलकारी होता है तथा उसका जीवन परिवार तथा स्वयं के लिए कष्टप्रद होता है। – प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री मैडम मारिया मांटेसरी के अनुसार, ‘बालक में सच्ची शक्ति का निवास होता है तथा उसकी मुस्कुराहट ही सामाजिक प्रेम व उल्लास की आधारशिला है।’
3. वंशानुक्रम के संबंध में : वंशानुक्रम के संबंध में एक प्रचलित अवधारणा यह है कि “जैसे माता-पिता होते हैं वैसे ही संतान भी बनती है।’ यदि माता-पिता शिक्षित, अच्छे संस्कारों से युक्त तथा बुद्धिमान हैं, तो संतानें भी सभ्य तथा अच्छे संस्कारों से युक्त होंगी। यदि माता-पिता निरक्षर तथा दुराचारी हैं तो उनकी संतानें भी मूर्ख और
जोड़ के समान नहीं बल्कि गुणनफल के समान है।” गैरेट (Garrett) के अनुसार, आनुवंशिकता और वातावरण एक-दूसरे को सहयोग देने वाले प्रभाव हैं और दोनों ही बालक की सफलता के लिए अनिवार्य हैं।”
4. गर्भकालीन प्रभावों के संबंध में : कुछ लोगों की यह अवधारणा होती है कि गर्भवती माँ की विभिन्न क्रियाएँ जैसे—भोजन, परंपरागत उपचार, झाड़-फूंक तथा सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरा गर्भस्थ शिशु के विकास को प्रभावित करती हैं। – कॉट, डगलस, स्मिथ और बैगिन के शब्दों में, “इस संसार में पैदा होनेवाला प्रत्येक
बालक भगवान का एक नया विचार है तथा सदैव तरोताजा रहने एवं चमकने वाली संभावना है।”
5. यौन-भेद के संबंध में : आदिकाल से ही स्त्री को कमजोर और पुरुष को शक्तिशाली माना जाता है। धार्मिक ग्रंथ भी पुत्री की तुलना में पुत्र-जन्म की श्रेष्ठता को इसलिए भधिक मानते हैं कि पुत्र माता-पिता को मोक्ष की प्राप्ति करायेगा। कुछ माता-पिता बालक और बालिकाओं में भेद मानते है वे बालको को अधिक सुविधाएँ व देते हैं और बालिकाओं को कम । माता पिता की यह भावना बालिकाओं में हीन का विकास करती है और उनके विकास को अवरुद्ध करती है। – फ्रॉबेल का मानना है कि ‘बालक स्वयं विकासोन्मुख होनेवाला मानव पो
बाल अध्ययन विधियाँ
1. क्रमबद्ध चरित्र लेखन विधि (Systematic Biographical Method): इस का प्रयोग अनेक प्राचीन मनोवैज्ञानिको (W. Preyer, K. C. Moore DP G. S. Gall, V. N. Dearrbor) ने किया है।
प्रेयर (1882) ने इस विधि का प्रयोग काका प्रयाग क्रमबद्ध तरीके से किया। उसने अपने ही बालक का चरित्र-लेखन (Biography) तैयार यह चरित्र-लेखन जन्म से तीन वर्ष की अवस्था का था।प्रेयर ने चरित्र-लेखन द्वारा यह जानने का प्रयास कि जन्म के समय कौन-कौन प्राकृतिक क्रियाएँ पायी जाती हैं। ध्वनि और प्रकाश के प्रति बालक कब प्रथम ना अनुक्रिया करता है तथा उसकी ज्ञानेन्द्रियों का विकास किस प्रकार हुआ? अतः इस विधि से बालक के जीवन और व्यवहार की अनेक विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
इस विधि से अध्ययनकर्ता बालक के व्यवहार का प्रतिदिन निरीक्षण करता है और निरीक्षण के आधार पर व्यवहार की विशेषताओं को क्रमबद्ध ढंग से नोट करके एक रिकार्ड तैयार करता है। यह रिकार्ड चरित्र-लेखन (Biography) कहलाता है। इस रिकार्ड का विश्लेषण करके बालक के व्यवहार के क्रमिक विकास का अध्ययन
क्रमबद्ध चरित्र-लेखन विधि के दोष
(a) इस विधि में बालक के व्यवहार का अध्ययन प्रतिदिन करना होता है, अतः इसका उपयोग उस अवस्था में ठीक हो सकता है जब एक अध्ययनकर्ता बालक के साथ ही रहे। यह एक कठिन कार्य है।
(b) अध्ययनकर्ता बालक के अधिक संपर्क में रहने से बालक के मधुर भावों और क्रियाओं से प्रभावित हो सकता है । इस अवस्था में एकत्रित रिकॉर्ड पक्षपातपूर्ण हो सकता है।
(c) बालकों के प्रति स्नेह-भाव के कारण अक्सर अध्ययनकर्ता बालक के गुणों का । अति-अंकन (Over-Estimation) करता है।
(d) इस विधि द्वारा अध्ययन में अधिक समय व्यय होता है। (e) इस विधि की कोई प्रामाणिक प्रक्रिया विधि नहीं है। निरीक्षण विधि Observation Method यंग (Young, 1954) के अनुसार, “निरीक्षण नेत्रों द्वारा सावधानी से किये गय अध्ययन को सामूहिक व्यवहार, जटिल सामाजिक संस्थाओं और किसी पूर्ण वस्तु को बनाने वाली पृथक इकाइयों का निरीक्षण करने के लिए एक विधि के रूप उपयोग किया जा सकता है।’
मौसर (Moser, 1958) के अनुसार, “निरीक्षण को उचित रूप से वैज्ञानिक पूछताछ की श्रेष्ठ विधि कहा जा सकता है। ठोस अर्थ में— निरीक्षण में कानों और वाणी की अपेक्षा नेत्रों का उपयोग होता है।
गुंडे तथा हाट (Goode & Hatt, 1964) के अनुसार, “विज्ञान निरीक्षण से प्रारंभ होता है और अपने तथ्यों की पुष्टि के लिए अंत में निरीक्षण का सहारा लेता है।” इस विधि का उपयोग छोटे बच्चों और शिशुओं की समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है। बाल मनोविज्ञान की समस्याओं के अध्ययन में इस विधि का सर्वप्रथम उपयोग जर्मनी में हुआ।
अमेरिका में वाटसन (Watson) ने इस विधि का उपयोग बालकों के प्राथमिक संवेगों के अध्ययन में किया।
गेसेल (Gesell) ने इस विधि में ‘मूविंग पिक्चर कैमरा’ का उपयोग किया और व्यवहार चित्रों के विश्लेषण से बालकों के व्यवहार के संबंध में शुद्ध परिणाम प्राप्त किये । इस अध्ययन में उन्होंने एकतरफा दिखायी देने वाला पर्दो (One Way Vision Screens) का उपयोग किया।
इनके द्वारा सिर्फ निरीक्षक बालक को देखते हैं, बालक निरीक्षक को नहीं । निरीक्षण विधि में इस प्रकार एकतरफा दिखायी देनेवाले कैमरे का उपयोग निरीक्षण-कक्ष में किया जाता है।
निरीक्षण विधि के पद Steps of Observation Method
(a) उपयुक्त योजना : निरीक्षण विधि द्वारा अध्ययन करने से पहले निरीक्षणकर्ता को अध्ययन व्यवहार और समस्या के संबंध में उपयुक्त योजना बना लेनी चाहिए। यह निश्चय कर लेना चाहिए कि किन लोगों का निरीक्षण करना है और किस प्रकार के व्यवहार का निरीक्षण करना है। निरीक्षण के लिए क्षेत्र, समय, उपकरण आदि के संबंध में पहले ही योजना बना लेनी चाहिए। पहले योजना बना लेने से यह सुनियोजित हो जाता है और इससे शुद्ध आँकड़े के संकलन में सहायता मिलती है।
(b) व्यवहार का निरीक्षण : निरीक्षण करते समय निरीक्षणकर्ता व्यवहार के उन पक्षों का निरीक्षण अधिक ध्यान से करता है, जो उसकी अध्ययन समस्या से संबंधित हैं एवं पूर्व योजना के अनुसार हैं। वह निरीक्षणों के साथ-साथ विभिन्न उपकरणों की सहायता से व्यवहार को भी नोट करता है।
(c) व्यवहार को नोट करना : निरीक्षणकर्ता व्यवहार को नोट करने के लिए भी उपकरणों का उपयोग करता है। जैसे—मूवी कैमरे के उपयोग से किसी भी प्रकार के व्यवहार के निरीक्षण को सरलता से नोट किया जा सकता है, व्यवहार से संबंधित संवादों को टेपरिकार्डर की सहायता से नोट किया जा सकता है।
(d) विश्लेषण : समस्या से संबंधित व्यवहारों के निरीक्षणों को नोट करने के बाद अध्ययनकर्ता प्राप्त निरीक्षणों को यदि संभव होता है तो अंकों में बदलता है और प्राप्त अकों की सूची बनाने का कार्य करता है और फिर विभिन्न सांख्यिकीय विधियों के आधार पर आँकड़ों का विश्लेषण करता है।
(e) व्याख्या और सामान्यीकरण : निरीक्षण व्यवहार का विश्लेषण करने के व्यवहार की व्याख्या की जाती है। यदि संभव होता है तो व्यवहार की व्याख्या सिद्धांतों के आधार पर की जाती है अथवा व्यवहार के कारणों पर प्रकाश द प्रयास किया जाता है। समान्य रूप में देखा जाता है कि नमना (Sarna परिणाम कहाँ तक सामान्य जनसंख्या पर लागू होते हैं।
निरीक्षण विधि के प्रकार Types of Observation Method
(सरल अथवा अनियंत्रित निरीक्षण विधि (Simpler Uncontrolled Observe Method) : यंग के अनुसार, “अनियंत्रित निरीक्षण में हमें वास्तविक जीवन परिस्थि िक की सूक्ष्म परीक्षा करनी होती है जिसमें विशुद्धता के यंत्रों के प्रयोग का या नही घटना की सत्यता की जाँच का कोई प्रयास नहीं किया जाता है। जब किसी पार का निरीक्षण प्राकृतिक परिस्थितियों में किया जाय तथा प्राकृतिक परिस्थितियों पर कोई स बाह्य दबाव न डाला जाये तो इस प्रकार के निरीक्षण को अनियंत्रित निरीक्षण कहते हैं। स
व्यवस्थित अथवा नियंत्रित निरीक्षण विधि (Systematic or Controlled – Observation Method) जब निरीक्षणकर्ता और घटना दोनों पर नियंत्रण करके अध्ययन किया जाये तो इस प्रकार की निरीक्षण विधि को व्यवस्थित निरीक्षण विधि कहते हैं।
(c) सहभागी निरीक्षण विधि (Participant Observation Method): इस विधि में निरीक्षणकर्ता जिस समूह के व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करना चाहता है वह उस समूह में जाकर एक सदस्य के रूप में घुल-मिल जाता है और फिर उनके व्यवहार : का अध्ययन करता है। इस विधि द्वारा छोटे समूहों का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है। निरीक्षण विधि का महत्व Importance of Observation Method
(a) निरीक्षण विधि का उपयोग उस समय अधिक होता है जब किसी अध्ययनकर्ता : को इस विधि के आधार पर परिकल्पनाएँ (Hypothesis) बनानी हो ।
(b) इस विधि की सहायता से पारस्परिक संबंधों का अध्ययन करना सरल होता है। (c) अन्य विधियों की अपेक्षा यह एक सरल विधि है। (d) इस विधि द्वारा प्राप्त परिणाम अधिक विश्वसनीय होता है।
(e) नियंत्रित और वैज्ञानिक निरीक्षणों द्वारा प्राप्त परिणाम वस्तुनिष्ठ होता है । क्याकि इस विधि का उपयोग जब वैज्ञानिक तरीके से किया जाता है तब व्यवहार संबंधी ‘क्या, ‘कैसे’ और ‘क्यों’ इत्यादि प्रश्नों का निश्चित उत्तर प्राप्त होता है।
(1) इस विधि में समस्याओं का अध्ययन वैज्ञानिक निरीक्षणों द्वारा किया जाता है जिसके कारण प्राप्त परिणाम विश्वसनीय, शुद्ध और सार्वभौमिक (Universal) हात ,
3. प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method): यह विधि पूर्ण रूप से वज्ञान विधि है । बालकों की प्रेरणा, परिपक्वता, अधिगम, अनुबंधन, विभेदीकरण तथा सवाल अनक्रियाओं इत्यादि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन इस विधि द्वारा किया गया।
जहोदा के अनुसार, ‘प्रयोग परिकल्पना के परीक्षण की एक विधि है।“
फेस्टिगर के अनुसार, ‘प्रयोग का मूल आधार स्वतंत्र चर में परिवर्तन करने से परतंत्र चर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना है।”
इस विधि में दो प्रकार के चर होते हैं स्वतंत्र चर और आश्रित चर | प्रयोगात्मक विधि के चरण Steps of Experimental Method
प्रयोगात्मक विधि के चरण निम्नलिखित हैं-
(a) समस्या (Problem): किसी भी प्रयोग को करने से पहले आवश्यक है कि कोई समस्या हो। टाउनसेंड’ (Townsend) के अनुसार, “समस्या तो समाधान के लिए एक प्रस्तावित प्रश्न है।”
(b) संबंधित साहित्य का अध्ययन और उपकल्पना निर्माण : समस्या को चुनने और उसके कथन के बाद प्रयोगकर्ता जिस समस्या को चुनता है उस समस्या से संबंधित साहित्य का अध्ययन करता है।
> साहित्य अध्ययन के द्वारा प्रयोगकर्ता यह जानने का प्रयास करता है कि अब तक समस्या पर कितने व्यक्तियों ने क्या-क्या प्रयोगात्मक अध्ययन किये हैं और उन्हें क्या और कितने विश्वसनीय प्रमाण प्राप्त हुए हैं।
> टाउनसेण्ड के अनुसार, “परिकल्पना अनुसंधान समस्या के लिए एक प्रस्तावित उत्तर है।” > मैक्गुइगन के अनुसार “परिकल्पना दो या अधिक चरों के कार्यक्षम संबंधों का परीक्षण करने योग्य कथन है।” उपकल्पना बना लेने से प्रयोगकर्ता के प्रयोग की समस्या सुनिश्चित होती है।
(c) प्रयोज्य (Subject) : उपकल्पना निर्धारण के बाद प्रयोज्यों का चयन किया जाता है। प्रयोज्य से अभिप्राय उनलोगों से है जिन पर प्रयोग किया जाना है। एक प्रयोग में इनकी संख्या एक भी हो सकती है और अधिक भी हो सकती है। प्रायः एक से अधिक ही होती है।
(d) चर और प्रयोगात्मक अभिकल्प (Variables and Design of the Experiment): करलिंगर के अनुसार, “चर वह गुण है जिसके विभिन्न मूल्य हो सकते हैं। उदाहरण के लिए प्रकाश, ध्वनि, तापक्रम, शोरगुल इत्यादि किसी-न-किसी प्रकार के चर हैं।’ > टाउनसेंड (Townsend) के अनुसार, “आश्रित चर वह कारक है जो प्रयोग द्वारा स्वतंत्र चर के प्रदर्शन पर प्रदर्शित हो, हटाने पर अदृश्य हो तथा मात्रा में परिवर्तन होने पर परिवर्तित हो जाये।“
(e) उपकरण तथा सामग्री (Apparatus and Materials): अध्ययनकर्ता प्रयोग में जिन उपकरणों का उपयोग करता है उनका संक्षेप में विवरण देता है। यदि प्रयोग के लिए वह किसी नये उपकरण को विकसित करता है तो वह उसका विस्तृत वर्णन देता है।
(O नियंत्रण (Controls): समस्या से संबंधित साहित्य का अध्ययन करके तथा विशेषज्ञों की राह और अपने अनुभव के आधार पर वह यह निश्चित करता है कि समस्या को कौन कौन से कारक अथवा चर प्रभावित कर रहे हैं। समस्या को प्रभावित
करने वाले कारक कई क्षेत्रों से संबंधित हो सकते हैं। जैसे प्रयोज्यों से संबंधि वातावरण संबंधी कारक, उपकरण से संबंधित कारक इत्यादि ।
(g) निर्देश तथा विधि (Instructions and Procedure): नियंत्रण को कर लेने के बाद प्रयोगकर्ता प्रयोज्यों अथवा प्रयोज्य के लिए निर्देश निश्चित कि प्रयोज्य के प्रयोग से संबंधित कार्य लेने के लिए क्या क्या निर्देश देने का
(h) परिणाम (Results): पूर्व निश्चित प्रयोग के अनुसार आँको (Collection) करने के बाद आँकड़ों का वर्गीकरण करके सूची बनाने का कार्य फिर प्रयोग अभिकल्प (Design) के अनुसार उच्च सांख्यिकीय विधियों द्वारा जा विश्लेषण करते हैं और सांख्यिकीय विश्लेषण के आधार पर परिणाम ज्ञात कर लेते है |
i) व्याख्या तथा सामान्यीकरण (Discussion and Generalization): आँकड़ों आधार पर प्राप्त परिणामों की व्याख्या करने से पूर्व सर्वप्रथम प्राप्त परिणामों के पर परिकल्पना की जाँच करते हैं और निष्कर्ष निकाल लेते हैं। फिर अपने निष्का व्याख्या विभिन्न सिद्धान्तों के आधार पर करते हैं।
प्रयोगात्मक विधि की उपयोगिता Importance of Experimental Method
(a) कार्य और कारण संबंधों (Cause and Effect Relations) का अध्ययन इस मा विधि द्वारा जितनी शुद्धता से किया जाता है, उतना दूसरी विधि द्वारा नहीं किया जासकता है।
(b) यह विधि अन्य विधियों की अपेक्षा अधिक शुद्ध और संक्षिप्त है, क्योंकि इसमें एक व्यवहार को प्रभावित करने वाले अनेक कारकों को नियंत्रित कर कार्य और कारण के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है।
(c) यह विधि परिकल्पना के परीक्षण की श्रेष्ठ विधि है।
(d) अन्य विधियों की अपेक्षा यह सर्वाधिक वैज्ञानिक विधि (Most Scientific Method) है।
(e) इस विधि द्वारा अध्ययन के आधार पर प्राप्त परिणाम विश्वसनीय, वैध तथा सार्वभौमिक होते हैं।
4. समकालीन एवं दीर्घकालीन अध्ययन प्रणालियाँCross-Sectional and Longitudinal Approaches
बाल मनोविज्ञान की विकासात्मक समस्याओं का अध्ययन करने के लिए इन विायच द्वारा दो प्रणालियों का उपयोग करते हैं—समकालीन प्रणाली एवं दीर्घकालीन प्रणाला
समकालीन अध्ययन प्रणाली (Cross-Sectional Approach): इस अध्ययन में व्यवहार के विभिन्न पहलुओं के विकास के अध्ययन में सर्वप्रथम भिन्न-भिन्न अवस्था के बालकों के समूहों को आदर्श विधियों की सहायता से चुना जाता है। फिर अध समस्या से संबंधित शारीरिक व मानसिक योग्यता वाले विकास के क्रमों का इन विा स्तर के बालकों में निरीक्षण किया जाता है। अंत में आँकडों के औसत मानो कम पर विकास के क्रम को ज्ञात कर लिया जाता है।
उदाहरण के लिए, यदि हम अध्ययन करना चाहते हैं कि भाषा का विकास प्रकार होता है तो सर्वप्रथम भिन्न भिन्न आयु स्तर के बालकों को चुनना होगा|
समकालीन अध्ययन प्रणाली की उपयोगिता
इस प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
(a) इस प्रणाली द्वारा अध्ययनकर्ता बालक के संपूर्ण जीवन में घटित होनेवाले विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन कम समय और कम खर्च में कर सकता है। ___(b) इस प्रणाली में अध्ययनकर्ता को विकासात्मक परिवर्तनों का वर्षों तक इंतजार नहीं करना पड़ता है। __(c) इस प्रणाली में विभिन्न आयु-स्तर के बालकों के क्रमिक विकास का तुलनात्मक -अध्ययन भी संभव है।
(d) इस प्रणाली में अध्ययनकर्ता को किसी भी अगली (Next) विकास की अवस्था का वर्षों तक इंतजार नहीं करना पड़ता है। _दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली (Longitudinal Approach) : इस प्रणाली में एक ही आयु-स्तर के बालक समूह को चुना जाता है, फिर समूह के बालकों की आयु के बढ़ने के साथ-साथ उनकी मानसिक और शारीरिक योग्यताओं के विकास-क्रम का निरीक्षण और मापन किया जाता है और अंत में इस प्रकार प्राप्त आँकड़ों के आधार पर विकास-क्रम को ज्ञात कर लिया जाता है।
> इस प्रणाली की सहायता से शारीरिक ऊँचाई, शारीरिक वजन, बुद्धिलब्धि, भाषा का विकास, सामाजिक और संवेगात्मक विकास इत्यादि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए—यदि हम बालकों में भाषा के विकास का अध्ययन करना चाहते हैं, तो एक वर्ष की आयु के केवल 100 बच्चे को चुनकर प्रत्येक 6 महीने पश्चात उनके भाषा-विकास का निरीक्षण और मापन करेंगे। दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली के उपयोग |
(a) इस विधि में बच्चों के एक ही समूह का अध्ययन चलता रहता है, अतः इस प्रणाली में नमूने त्रुटियों (Sampling Errors) की संभावना नहीं रहती है और न ही प्रतिदर्श की समस्या रहती है।
(b) इस प्रणाली की सहायता से व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक बालक का अध्ययन होता रहता है और समूह स्तर पर भी अध्ययन होता रहता है।
(c) इस विधि में विकास प्रक्रियाओं का अनुमानात्मक ज्ञान प्राप्त न होकर शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है।
(d) विकास प्रक्रियाओं के संबंध का अध्ययन करना अपेक्षाकृत सरल होता है।
(e) बालक के व्यवहार विकास पर पड़ने वाले सामाजिक सांस्कृतिक या वातावरण संबंधी परिवर्तनों के प्रभाव का अध्ययन इस प्रणाली द्वारा किया जा सकता है।
(f) किसी निश्चित अवधि में बालक के विकास के गण तथा मात्रा आदि का ज्ञान नी इस प्रणाली द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
5. साक्षात्कार विधि (Interview Method) मनोविज्ञान में साक्षात्कार विधि का उपयोग बहुत दिनों से होता रहा है। आधुनिक युग में इस विधि का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस विधि में साक्षात्कारकर्ता और सूचनादाता दोनों ही आमने सामने बैठते हैं तथा साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता से अध्ययन समस्या के संबंध में सूचना प्राप्त करने का प्रयास करता है।
आइजनेक के अनुसार, ‘साक्षात्कार वह साधन है जिसके द्वारा मौखिक अथवा लिखित सूचना प्राप्त की जाती है।”
साक्षात्कार विधि के प्रकार Type of Interview Method
(a) प्रामाणिक साक्षात्कार विधि (Standardized or Structured Interview Method) साक्षात्कार की इस विधि द्वारा अध्ययन करते समय अध्ययन समस्या के संबंध में विभिन्न प्रकार के प्रश्न पहले से ही तैयार कर लिये जाते हैं। अध्ययन इकाइयों से पूर्व निश्चित क्रम के अनुसार ही प्रश्नों को उसी क्रम में पूछा जाता है।
(b) अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि (Unstructured or Uncontrolled Interview Method): अप्रामाणिक साक्षात्कार में अध्ययन समस्या के संबंध में प्रश्न पहले से ही तैयार नहीं किये जाते हैं और न ही प्रश्नों की संख्या निश्चित होती है। अध्ययनकर्ता अध्ययन समस्या के संबंध में कोई भी प्रश्न पूछने के लिए स्वतंत्र होता है।
> अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि अधिक विश्वसनीय नहीं होती है फिर भी इस विधि द्वारा प्रयोज्य (Subject) को समझने का अधिक अवसर रहता है, क्योंकि इसमें प्रश्न किसी भी प्रकार के पूछ सकते हैं। साक्षात्कार विधि का महत्व Importance of Interview Method
(a) ऐसे वस्तु जिन्हें हम देख नहीं सकते हैं उनका अध्ययन साक्षात्कार विधि द्वारा किया जा सकता है।
(b) बाल मनोविज्ञान की ऐसी घटनाएँ जिनका वैयक्तिक रूप से निरीक्षण नहीं कर सकते हैं। ऐसी घटनाओं का अध्ययन इस विधि द्वारा किया जा सकता है।
(c) इस विधि में यदि अध्ययनकर्ता प्रशिक्षित होता है और उपयुक्त नियंत्रण के साथ दिये हुए सामग्री एकत्र करता है, तो उससे विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं।
प्रश्नावली विधि (Questionnaire Method): मनोविज्ञान के क्षेत्र में जब अध्ययन इकाइयों का क्षेत्र विस्तृत होता है तथा सूचनादाताओं की संख्या अधिक होती है, तब इस विधि का प्रयोग किया जाता है।
गुडे तथा हाट के अनुसार, ‘प्रश्नावली एक प्रकार का उत्तर प्राप्त करने का साधन है, जिसका स्वरूप ऐसा होता है कि उत्तरदाता उसकी पूर्ति स्वयं करता है।”
> प्रश्नावली तैयार करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए :
प्रश्नावली का आकार या प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक नहीं होनी चाहिए।
* प्रश्न लंबे और कठिन नहीं होने चाहिए।
* प्रश्न स्पष्ट होने चाहिए।
* प्रश्न, प्रश्नावली में पहले सरल फिर कठिन होने चाहिए।
रुचिपूर्ण या ध्यान आकर्षित करने वाले प्रश्न होने चाहिए।
प्रश्नावली विधि के प्रकार Types of Questionnaire Method
(a) अप्रतिबंधित प्रश्नावली (Open Questionnaire) यह प्रश्नावली वह है जिसमें पुचनादाता पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है और वह खुलकर उत्तर दे सकता है उदाहरण के लिए आपके विद्यालय की क्या क्या सीमाएँ हैं ? । आपके विद्यालय में किन किन परिवर्तनों की तुरन्त आवश्यकता है?
(b) प्रतिबंधित प्रश्नावली (Closed Questionnaire) ऐसी प्रश्नावली जिसमें सूचनादाता के किसी चीज के जवाब पर प्रतिबंध होता है। उसे केवल चुने हुए उत्तरों में से ही उत्तर देना होता है। उदाहरण के लिए :
शिक्षक से भय लगता है ? हाँ/नहीं
(c) चित्र प्रश्नावली (Pictorial Questionnaire) इस प्रकार की प्रश्नावली में प्रश्न चित्रों के रूप में होते हैं। ।
प्रश्नावली विधि की उपयोगिताएँ (Advantages of Questionnaire Method) इस विधि की उपयोगिता निम्न प्रकार से है। इस विधि द्वारा कम खर्च और कम समय में अधिक से अधिक अध्ययन किया जा सकता है, क्योंकि प्रश्नावली एक साथ कई प्रयोज्यों को भरने के लिए की जा सकती है। 7. परीक्षण विधियाँ या मनोमिति विधियाँ
Test Methods or Psychometric Methods > बेस्ट के अनुसार, ‘मनोवैज्ञानिक परीक्षण एक उपकरण है जिसे व्यवहार के किसीपक्ष के मापन एवं गणना के लिए तैयार किया जाता है।‘
> मनोवैज्ञानिक परीक्षण वह उपकरण है जिसे विशेषज्ञ वैज्ञानिक ढंग से तैयार करते हैं और जिसकी सहायता से व्यवहार के कुछ पहलुओं का मापन करते हैं।
मनोवैज्ञानिक परीक्षणों (Psychological Tests) के द्वारा भी व्यक्तियों के व्यवहार के विभिन्न पहलुओं को मापा जाता है। वह परीक्षण मानकीकृत (Standardized),
वस्तुनिष्ठ (Objective) विश्वसनीय (Reliable) तथा वैध (Valid) होते हैं।
8. वैयक्तिक इतिहास विधिCase History Method
बीसेंज तथा बीसेंज (Besange & Besange) के अनुसार, “वैयक्तिक इतिहास अध्ययन विधि एक प्रकार की गुणात्मक व्याख्या है, जिसमें एक व्यक्ति, एक परिस्थिति या एक संस्था का अति सावधानी से पूर्ण अध्ययन किया जाता है।”
> शॉ (Shaw) के अनुसार, ‘वैयक्तिक इतिहास विधि एक विधि, एक संस्था, एक समुदाय या समूह हो सकता है जिसे अध्ययन की इकाई माना जाता है।”
यह विधि मानव व्यवहार का उसके संपूर्ण ढाँचे में अध्ययन तथा उपकल्पनाओं के निर्माण में सहायक वैयक्तिक परिस्थितियों के विश्लेषण एवं तुलना से संबंधित है।
वैयक्तिक इतिहास विधि के लाभ Advantages of Case History Method
इस विधि के लाभ निम्नलिखित हैं-
> इस विधि द्वारा जब समस्या का अध्ययन किया जाता है, जो गहन अध्ययन के आधार पर सामान्यीकरण सरलता से किया जा सकता है।
> इस विधि की सहायता से विचलित तथ्यों को ढूँढ़ा जा सकता है। > इस विधि द्वारा अध्ययन में समस्या के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।
समाजमिति विधि (Sociometric Method) ब्रानफेनब्रेनर (Bronfenbrenner) के अनुसार, ‘समूह में व्यक्तियों के मध्य सीमा और स्वीकृति एवं अस्वीकृति को माप कर सामाजिक स्थिति, ढाँचों के विकास को ज्ञात करने, वर्णन करने और मूल्यांकन करने की एक विधि है।”
> इस विधि के द्वारा एक समूह के सदस्यों के बीच पायी जाने वाली स्वीकृति और
अस्वीकृति, आकर्षण और विकर्षण को मापा जाता है । इस विधि का उपयोग समाज मनोविज्ञान में और बाल मनोविज्ञान में अत्यधिक किया जाता है।
प्रक्षेपण विधियाँ (Projective Technique) प्रक्षेपण शब्द का उपयोग मनोविज्ञान में दो अर्थों में हुआ है। इस शब्द का प्रथम उपयोग मानसिक मनोरचनाओं के रूप में हुआ है। इस शब्द का द्वितीय उपयोग प्रक्षेपण विधियों के रूप में हुआ है। प्रक्षेपण शब्द का मानसिक मनोरचनाओं के रूप में उपयोग का श्रेय फ्रायड को है।
प्रक्षेपण विधि के उपयोग
(a) इन विधियों के द्वारा बालकों में समझ तथा अचेतन (Unconscious) की अभिप्रेरणाओं और व्यक्तित्व संरचना का अध्ययन किया जा सकता है।
(b) इन अध्ययन विधियों के द्वारा व्यक्ति के संवेगों, अभिप्रेरणाओं, अनुभवों, विचारों और अभिवृतियों का अध्ययन विश्वसनीय ढंग से किया जा सकता है।
(c) इन विधियों की सहायता से अचेतन स्तर तथा आंतरिक विचारों, भावनाओ और ग्रंथियों का अध्ययन किया जा सकता है।
(d) इन विधियों का उपयोग सामान्य तथा असामान्य दोनों प्रकार के व्यक्तित्व पर किया जा सकता है।
(e) इन विधियों की सहायता से व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को सामान्य विश्वसनीयत के साथ समझा जा सकता है।
परीक्षोपयोगी तथ्य
बाल मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जो प्राणी के विकास का अध्ययन जन्म से परिपक्वावस्था तक करती है।
बाल विकास व्यवहारों का विज्ञान है जो बालक के व्यवहार का अध्ययन गर्भावस्थ से मृत्युपर्यन्त करता है।
बाल मनोविज्ञान बालक की क्षमताओं का अध्ययन करता है।
बाल विकास क्षमताओं के विकास की दशा’ का अध्ययन करता है।
बाल विकास विकास क्रम की सभी अवस्थाओं जैसे बाल्यावस्था, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक बौद्धिक इत्यादि का अध्ययन करता है।
बाल विकास के अंतर्गत बाल विकास को प्रभावित, करनेवाले तत्वों का अध्ययन किया जाता है। जैसे—परिपक्वता और शिक्षण, वंशानुक्रम और वातावरण। बाल विकास के अंतर्गत बालकों के जीवन विकास क्रम में होनेवाली असामान्यताओं और विकृतियों का अध्ययन किया जाता है। बाल विकास और बाल मनोविज्ञान की देन मनोचिकित्सा है।
बाल विकास बालकों की रुचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है।
बाल विकास बालकों के बौद्धिक विकास की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे अधिगम, कल्पना, चिंतन, तर्क, स्मृति तथा प्रत्यक्षीकरण इत्यादि का अध्ययन करता है।
बाल विकास के अन्तर्गत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का मापन व मूल्यांकन किया जाता है।
UPTET Bal Viukas Evam Shiksha Shastra Chapter 2 in PDF Download
CTET Book PDF Free Download in Hindi : Central Teacher Eligibility Test (CTET) Book PDF Download आज की इस पोस्ट में आप सभी का फिर से स्वागत करते है | दोस्तों आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी CTET Books and Notes के साथ Previous Year Questions Answers Paper in Hindi (English) में Free PDF Download करने जा रहे है जिन्हें आप सबसे निचे दिए गये लिंक से जाकर प्राप्त कर सकते है | अभ्यर्थियो को बता दे की CTET Math’s Book PDF के साथ आपको CTET Hindi, English, Sanskrit, Science व सभी Book PDF in Hindi and English दोनों ही भाषा में मिलने वाली है जिसके लिए आपको कोई भी शुल्क हमारी वेबसाइट को नही देना होगा |
आज के समय में NCERT CTET Book को सभी राज्य में अनिवार्य कर दिया गया है जिसकी पोस्ट हम पहले ही बना चुके है | CTET Exam Question Paper पास करने के लिए Arihan and Youth Publication CTET Book PDF Free Download के लिए भी हमारी वेबसाइट पर आपको पोस्ट मिल जाएगी | दोस्तों यदि आप भी Primary Teachers बनने का सपना देख रहे है तो आपके लिए CTET Exam Questions Answers Papers Pass करना जरूरी होता है | जब आप CTET Exam Paper 2022 पास कर लेते है तो आप Class 1 To 8 तक के अभ्यर्थियो को पढ़ाने के योग्य हो जाते है |
जब आप CTET Certificate को हासिल कर लेते है तो आप भारत के किसी भी राज्य में Teachers बनने योग्य माने जाते है | CTET Exam में आप 2 Paper दे सकते है पहले CTET Exam Paper उन अभ्यर्थियो के लिए होता है जो कक्षा 1 से लेकर कक्षा 5 तक के बच्चो को पढ़ा सकते है और CTET Exam Paper 2 उन अभ्यर्थियो के लिए होता है जो अभ्यर्थी कक्षा 6 से 8 तक के बच्चो को पढ़ाने योग्य होते है | हम अभ्यर्थियो को अपनी इस पोस्ट में CTET Syllabus के साथ CTET Study Material in Hindi and English दोनों ही भाषा में शेयर कर रहे है जिसे आप निचे दिए गये लिंक से Free Download कर सकते है |