Tally Erp 9 & Prime With GST Hindi Book PDF Free Download

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LLB Hindu Law Part 6 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Part 6 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Book Part 6 Minority and Guardianship Post 1 Study Material के रूप में पढ़ने जा रहे है जिसे आप अपने मोबाइल या कंप्यूटर में Free PDF Download करके भी रख सकते है |

अध्याय 6 अवयस्कता तथा संरक्षकता (LLB Notes)

(MINORITY AND GUARDIANSHIP) (LLB Hindu Law Books)

(हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 के सहित]

संरक्षक कौन है?

संरक्षकता विधि का आधार अवयस्क व्यक्तियों की बौद्धिक अपरिपक्वता है। कोई भी अवयस्क अपने हितों की देखभाल उचित रूप में स्वयं नहीं कर सकता है और न कोई संविदा ही निष्पन्न कर सकता है। अत: अवयस्क व्यक्तियों की देखभाल करने के लिये एक परिपक्व बुद्धि वाले वयस्क की आवश्यकता होती है। इस प्रकार वह व्यक्ति, जो अवयस्क व्यक्तियों की देखभाल करता है तथा उनकी सम्पत्तियों का प्रबन्ध करता है, वह उसका संरक्षक कहलाता है। संरक्षक को स्वयं वयस्क होना चाहिये जिससे कि वह अवयस्क के लिये संविदा निष्पन्न कर सके तथा उसके हितों को समझ सके।

जहाँ तक संरक्षकता-विधि का प्रश्न है. हिन्द विधि के अन्तर्गत अधिराट् को समस्त अवयस्को का संरक्षक माना जाता है। संरक्षकता का प्राथमिक अधिकार अवयस्क के पिता को सौंपा गया है जिसके विषय में यह धारणा है कि वह अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति का प्रबन्ध करे। पिता के अभाव में माता को यह प्राधिकार संरक्षक के रूप में दिया गया है। किन्तु दोनों के अभाव में न्यायालय को यह अधिकार होगा कि वह ऐसे व्यक्ति को संरक्षक नियुक्त करे जो पितृपक्ष का सबसे नजदीक का रक्त-सम्बन्धी हो अथवा पितृपक्ष के ऐसे निकट सम्बन्धी के अभाव में मातृपक्ष का निकट रक्त-संरक्षक बनाया जाना चाहिये। जहाँ तक अवयस्क पत्नी की संरक्षकता का प्रश्न है, उस दशा में उसका पति चाहे वह वयस्क हो अथवा अवयस्क, संरक्षक होगा। संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 में भी यही स्थिति कायम रखी गई, किन्तु इस अधिनियम के द्वारा प्राकृतिक संरक्षकों की स्थिति में कुछ परिवर्तन लाये गये हैं। यह उल्लेखनीय है कि इस अधिनियम में प्राकृतिक अथवा वसीयती संरक्षक के विहित अधिकार एवं कर्त्तव्यों को आज भी संरक्षक के अधिकार तथा कर्तव्यों का आधार माना जाता

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 के द्वारा लाये गये परिवर्तनइस अधिनियम द्वारा संरक्षकों की परिस्थिति के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये गये हैं। सर्वप्रथम माता की प्रास्थिति में सुधार लाया गया। यदि पिता ने किसी वसीयती संरक्षक को नियुक्त कर दिया तो उसकी मृत्यु के बाद माता दूसरी प्राकृतिक संरक्षक होगी न कि वसीयती संरक्षक (धारा 91)। यदि माता ने किसी वसीयती संरक्षक को नियुक्त किया है तो उसकी मृत्यु के बाद पिता के द्वारा नियुक्त वसीयती संरक्षक की तुलना में माता के द्वारा नियुक्त वसीयती संरक्षक अधिमान्य होगा। पूर्वविधि के अन्तर्गत पिता माता को प्राकृतिक संरक्षकता से वंचित कर सकता था। धारा 6 के अन्तर्गत यह विहित किया गया है कि 5 साल से कम आयु वाली सन्तान माता की अभिरक्षा में होगी यद्यपि पिता उसका प्राकृतिक संरक्षक हो सकता है। वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत वस्तुत: (De facto) संरक्षक को अवयस्क की सम्पत्ति के निर्वर्तन करने के अधिकार से वंचित कर दिया गया। पूर्वविधि के अन्तर्गत धर्म-परिवर्तन कर देने के बाद भी सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार पिता को रहता था, किन्तु वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत जिसने धर्म-परिवर्तन कर दिया है या संन्यासी हो गया है, वह अपनी सन्तान की संरक्षकता से सम्बन्धित अधिकार को खो देता है।

अवयस्कता तथा संरक्षकता की विधि को सरल एवं संहिताबद्ध बनाकर पर्वविधि में अवयस्कता एवं संरक्षकता के सम्बन्ध में उत्पन्न मतभेदों को समाप्त कर दिया गया है। इस अधिनियम के अनुसार के सभी व्यक्ति, जो 18 वर्ष की आयु पूरी कर चुके है, वयस्क मान लिये जायेंगे।

पूर्वावधि के अन्तर्गत प्राकृतिक संरक्षक को अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में असीम शक्तियाँ प्रदान की गई थी। किन्तु इस अधिनियम के अन्तर्गत प्राकृतिक संरक्षक के अधिकार बहत अधिक सीमित कर दिये गये है। वह अब अवयस्क की सम्पत्ति का निर्वर्तन अथवा हस्तान्तरण उस प्रकार नहीं कर सकता है जैसे कि पूर्वावधि में कर सकता था।

वस्तुतः हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 स्वत: पूर्ण नहीं है। यह केवल एक पूरक विधि है जिसको पूर्णता के लिए संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के उपबन्धों का आश्रय लिया जाना आवश्यक है। इस वर्तमान अधिनियम में ऐसे अनेक प्रावधान हैं जिनमें 1890 के आधनियम का निर्देश किया गया है और उसके प्रावधानों को लाग किया गया है जिससे स्पष्ट है कि वर्तमान अधिनियम पूरक अधिनियम है।

हिन्दू विधि के अन्तर्गत वयस्कतामनु के अनुसार 16 वर्ष की उम्र पर अवयस्कता समाप्त हो जाती है। मनु का कथन है कि राजा अवयस्कों की सम्पत्ति अपनी अभिरक्षा में रखे जब तक कि उनको बाल्यावस्था (16 वर्ष की आयु) समाप्त न हो जाये। इस प्रकार हिन्दू विधि में अवयस्कता 16 वर्ष की आयु पर समाप्त हो जाती है। किन्तु इस विषय पर मतभेद है कि अवयस्कता सोलहवें वर्ष का प्रारम्भ होने अर्थात् पन्द्रहवे वर्ष की समाप्ति पर समाप्त होती है, अथवा सोलह वर्ष पूर्ण हो जाने पर समाप्त होती है। संस्कृत-पाठ्यकारों ने अधिकतर प्रथम मत को माना है, अर्थात् सोलहवें वर्ष के प्रारम्भ होते ही अवयस्कता समाप्त हो जाती है। बंगाल में भी यही मत प्रचलित है। मिताक्षरा-शाखा अर्थात् मिथिला, बनारस, महाराष्ट्र तथा एक समय पर दक्षिण भारत में 16 वर्ष पूर्ण हो जाने पर अवयस्कता को समाप्त मानते थे।

वर्तमान अधिनियम ने इस प्रकार के मतभेद को समाप्त कर दिया है।

संरक्षकता तथा प्रतिपाल्य अधिनियम एवं भारतीय वयस्कता अधिनियम-भारतीय वयस्कता अधिनियम के पास हो जाने के बाद उपर्युक्त मतभेद बहुत सीमा तक समाप्त हो चुका था। क्योंकि धारा3 में यह उल्लिखित था कि प्रत्येक अवयस्क, जिसके जीवन तथा सम्पत्ति के लिए न्यायालय द्वारा संरक्षक नियुक्त किया गया है, तथा ऐसा प्रत्येक अवयस्क, जिसकी सम्पत्ति की देखरेख के लिए कोर्ट ऑफ वार्ड्स नियुक्त किया गया है, 21 वर्ष पूरा होने पर वयस्कता प्राप्त किया हुआ मान लिया जाता है। अन्य सभी दशाओं में अवयस्क 18 वर्ष की आयु पूरा करने पर वयस्कता प्राप्त किया मान लिया जाता है।

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956-वस्तुत: यह अधिनियम उपर्युक्त विषय के सम्बन्ध में संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के पूरक रूप में अन्तर्विष्ट किया गया है।

वयस्कता की आयु–अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत अवयस्क की परिभाषा इस प्रकार दी गई है-“अवयस्क का तात्पर्य उन व्यक्तियों से होगा जिन्होंने 18 वर्ष की उम्र पूरी नहीं की है।” अधिनियम के द्वारा उल्लिखित नियम विवाह को छोड़कर अवयस्कता तथा संरक्षकता सम्बन्धी सभी मामलों में अनुवर्तनीय होगा। अधिनियम की धारा 4 के अनुसार “अवयस्कता 18 वर्ष की आयु में समाप्त हो जायगी” का नियम सभी दशाओं में लागू होगा। भारतीय अवयस्कता अधिनियम में उपर्युक्त दिये गये 21 वर्ष की आयु में वयस्कता प्राप्त करने का नियम समाप्त कर दिया गया है।

अधिनियम की धारा 3 में उन व्यक्तियों का उल्लेख किया गया है जिनके लिये यह अधिनियम

1. बालदायादिकं रिक्थं तावद्रामाऽनुपालयेत्। यावत्स स्यात्समावृत्तो यावच्चातीत शैशवः।। मनु० 8/27॥

लागू किया जायगा।

यह अधिनियम हिन्दुओं के लिये लागू होगा। यहाँ ‘हिन्दू’ शब्द उन सभी व्यक्तियों का बोध कराता है जो हिन्दू विधि की विभिन्न शाखाओं से प्रशासित होते हैं। धारा 3 में उन व्यक्तियों का भी उल्लेख किया गया है जिनके सम्बन्ध में यह अधिनियम लागू नहीं होगा। यह अधिनियम जम्मू और कश्मीर के प्रान्तों को छोड़कर समस्त भारत में लागू होगा।

यह अधिनियम भूतलक्षी नहीं है।

संरक्षक (Guardian)

“संरक्षक’ से तात्पर्य हिन्दू विधि में उन व्यक्तियों से है जो दूसरों के शरीर या सम्पत्ति की या शरीर और सम्पत्ति दोनों की देखभाल का दायित्व रखते हैं। संरक्षक तथा वार्ड अधिनियम के अन्तर्गत भी संरक्षक की परिभाषा इसी अर्थ में की गई है। वर्तमान अधिनियम की धारा 4 के अन्तर्गत संरक्षक की परिभाषा इस प्रकार दी गई है

संरक्षक से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जो अवयस्क के शरीर की या उसकी सम्पत्ति की या उसके शरीर एवं सम्पत्ति दोनों की देखभाल करता है। यह निम्नलिखित को सम्मिलित करता है

(1) प्राकृतिक संरक्षक।

(2) अवयस्क के पिता या माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक।

(3) न्यायालय द्वारा घोषित या नियुक्त संरक्षक।

(4) कोर्ट ऑफ वार्ड्स से सम्बद्ध किसी अधिनियम के द्वारा या अन्तर्गत इस रूप में कार्यकरने के लिये अधिकृत व्यक्ति।

संयुक्त परिवार में अवयस्क के अविभक्त हित के लिये संरक्षक न नियुक्त किया जानायह एक उल्लेखनीय बात है कि अधिनियम में अवयस्क के लिये संयुक्त परिवार में उसके अविभक्त हित के हेतु संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता है। धारा 11 के अनुसार, जहाँ किसी अवयस्क का अविभक्त हित संयुक्त परिवार में है तथा यह सम्पत्ति परिवार के किसी एक वयस्क के सम्बन्ध में है तो ऐसी अविभक्त सम्पत्ति के विषय में अवयस्क के लिये कोई संरक्षक नहीं नियक्त किया जा सकता।

परन्तु इस धारा में कोई बात इस प्रकार के हितों के विषय में संरक्षक नियुक्त करने के लिए उच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार को प्रभावित नहीं करती।

कर्ता की स्थिति संरक्षक के रूप में हिन्दू विधि की मिताक्षरा-शाखा में अवयस्क का सहदायिकी हक उसकी व्यक्तिगत सम्पत्ति नहीं होती वरन् कर्ता ही परिवार की समस्त सम्पत्ति का प्रबन्धक होता है, चाहे उस सम्पत्ति में हक वयस्क सदस्य का हो अथवा अवयस्क सदस्य का। जब तक परिवार में कर्ता जीवित है, अवयस्क सदस्य के हितों के लिये संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में कोई संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता। इसी प्रकार यदि अवयस्क मिताक्षरा-विधि से प्रशासित संयुक्त परिवार का सदस्य है तो उसका पिता संरक्षक के रूप में समस्त सहदायिकी सम्पत्ति का, जिसमें अवयस्क का भी हक सम्मिलित रहता है, प्रबन्ध करने का अधिकारी हो जाता है। पिता की मृत्यु के पश्चात उस संयुक्त परिवार की समस्त सम्पत्ति का प्रबन्ध ज्येष्ठ पुत्र में सन्निहित हो जाता है। माता को अपने अवयस्क पुत्रों के अविभक्त हक के सम्बन्ध में अभिरक्षा का अधिकार नहीं प्राप्त होता है। यदि सभी पत्र अवयस्क हैं तो न्यायालय एक संरक्षक नियुक्त कर सकता है जो समस्त अविभक्त

1. धारा 12, अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956, देखिए।

2. हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई (1856), 6 एम० आई० ए० 398; गरीब उल्लाह बनाम खरक सिंह, 25 इला० 407; साधुसरन बनाम ब्रह्मदेव, 61 आई० सी० 201

3. गौरी बनाम गजाधर, 5 कल० 719, श्याम कौर बनाम मोहनचन्द, 19 कल० 3011

सम्पत्ति की देखभाल तब तक करेगा जब तक कि अवयस्क पुत्रों में से कोई वयस्कता प्राप्त नहीं कर लेता। परिणामत: किसी अविभक्त मिताक्षरा परिवार के अवयस्क सदस्य की सम्पत्ति के लिए संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता। क्योंकि जब तक विभाजन नहीं हो जाता, अवयस्क की कोई अलग सम्पत्ति न होने के कारण ऐसी सम्पत्ति के प्रबन्ध के लिए संरक्षक की आवश्यकता नहीं होती।

इस प्रकार के नियम का पुष्टिकरण—(1) अनेक न्यायिक निर्णयों से अब यह एक नियम प्रतिष्ठित हो चुका है कि मिताक्षरा संयुक्त परिवार में एक अवयस्क सदस्य के अविभक्त हक के लिए कोई संरक्षक इस आधार पर नियुक्त नहीं किया जा सकता कि ऐसे संयुक्त परिवार के किसी सदस्य का हक अलग अथवा व्यक्तिगत नहीं रहता। अत: यदि कोई संरक्षक किसी अवयस्क के लिए नियुक्त किया जाता है तो परिवार की सम्पत्ति से उसका कोई मतलब नहीं रहेगा।’

(2) हिन्दू विधि में अविभक्त परिवार के विषय में यह धारणा है कि किसी संयुक्त परिवार का कोई अविभक्त सदस्य, जब तक संयुक्त रूप से रहता है, परिवार की संयुक्त तथा अविभक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में वह यह अभिव्यक्त नहीं कर सकता कि उसमें उसका निश्चित हिस्सा है। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का लाभ सामान्य कोष में जाता है, जिसका परिवार के सभी सदस्य उपभोग करते हैं। विभाजन-पर्यन्त संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के स्वामित्व में पूर्ण इकाई होती है। विभाजन द्वारा प्रत्येक सदस्य को अपने निश्चित अंश तथा उसके निर्धारण के लिए निवेदन करने का पूर्ण अधिकार प्राप्त है। विभाजन के बाद अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक नियुक्त किया जा सकता है जो अवयस्क की सम्पत्ति से प्राप्त लाभ एवं किराये आदि का हिसाब रखेगा तथा अपने संरक्षित की सम्पदा के प्रशासन-सम्बन्धी हिसाब को देने का दायित्व उसी पर होगा।

(3) बिना विभाजन हुए अवयस्क के अनिश्चित तथा अभिनिर्धारित अंश के संरक्षक नियुक्त कर देने से परिवार का गठन छिन्न-भिन्न हो जायेगा तथा विभाजन के पूर्व ही अलगाव आ जायेगा जिसका प्रभाव सम्पत्ति के न्यागमन पर पड़ेगा, इसीलिए अविभक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक नियुक्त करने का कोई प्रावधान नहीं था।

(4) किसी अन्य व्यक्ति को संरक्षक के रूप में कर्ता के प्रबन्ध को देखने के लिये नियुक्त कर देने से गम्भीर कठिनाई उत्पन्न हो सकती है। यह संयुक्त परिवार के उचित प्रबन्ध को छिन्न-भिन्न कर सकता है जिससे परिवार में कलह तथा वैमनस्य के बीज उत्पन्न हो सकते हैं।

एक संयुक्त हिन्दू परिवार जिसमें अवयस्क सदस्य भी है तथा जिस परिवार की संयुक्त सम्पत्ति में अवयस्क का भी हिस्सा है, उसमें अवयस्क के अविभक्त हिस्से को भी उसके नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विधिक आवश्यकता के लिए अन्यसंक्रामित किया जा सकता है। उदाहरणार्थ जहाँ अवयस्क सदस्यों की संयुक्त सम्पत्ति मृत पिता के द्वारा लिये गये ऋणों की अदायगी के लिये बेच दी जाती है वह अन्यसंक्रामण मात्र घोषित किया गया। इस प्रकार का अन्यसंक्रामण हिन्दू अवयस्कता एवं संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 9 से प्रभावित नहीं होता।

उच्च न्यायालय का अधिकार अधिनियम की धारा 12 में उपर्युक्त नियम के सम्बन्ध में एक अपवाद प्रदान किया गया है। उच्च न्यायालय को अपने सामान्य क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत यह अधिकार है कि वह अवयस्क की अविभक्त सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त कर दे, चाहे वह अविभक्त सम्पत्ति एक संयुक्त मिताक्षरा परिवार की ही हो। इस प्रकार संयुक्त मिताक्षरा परिवार के अवयस्क सदस्य की सम्पत्ति के लिए संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार इलाहाबाद उच्च न्यायालय को भी प्राप्त हुआ। उच्च न्यायालय के अधिकार इस सम्बन्ध में संरक्षकता तथा वार्ड्स अधिनियम तथा हिन्दू अवयस्कता

  1. राम बनाम मिहिर, आई० एल० आर० 36 इलाहाबाद 1851
  2. गरीब उल्लाह बनाम खड़क सिंह, 25 इला0407 (पी० सी०)।
  3. गिरधर सिंह बनाम आनन्द सिंह, ए० आई० आर० 1982 राज० 2201

तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 द्वारा किसी रूप में परिवर्तित नहीं किये गये।

दृष्टान्त

अ तथा उसका पुत्र ब एक संयुक्त परिवार के सदस्य हैं जो मिताक्षरा-विधि द्वारा प्रशासित होता है। परिवार में एक मकान के अतिरिक्त कोई सम्पत्ति नहीं है। मकान के मरम्मत की अत्यन्त आवश्यकता है। परिवार के ऊपर ऋण भी है। इन दोनों कार्यों के हेतु परिवार के पास कोई साधन नहीं है। स ने मकान खरीदने के लिए 40,000 रु० देना स्वीकार किया; किन्तु इस शर्त पर कि अ उच्च न्यायालय से ब की ओर से भी बेचने की स्वीकृति प्राप्त कर ले। इस बात पर अ ने ब की ओर से उच्च न्यायालय द्वारा संरक्षक बनने तथा मकान बेचने की स्वीकृति के लिए आवेदनपत्र दिया। न्यायालय के समक्ष यह सन्तोषजनक रूप से सिद्ध किया गया कि यदि मकान बेचने की अनुमति नहीं प्रदान की जाती तो उतना मूल्य नहीं प्राप्त हो सकता जितना उस समय प्राप्त हो रहा था। इस प्रकार अ को ब की ओर से मकान बेचने का अधिकारी उसका संरक्षक नियुक्त करने के बाद बना दिया गया है।

हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 12 के अन्तर्गत अभी हाल में श्रीमती स्वेता एवं अन्य बनाम धर्म चन्द एवं अन्य के वाद में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया प्रस्तुत वाद में अ जो कि एक संभ्रांत परिवार का व्यक्ति था उसकी मृत्यु दुर्घटना के कारण हो गयी। अ अपने पीछे एक अवयस्क पुत्री तथा विधवा पत्नी छोड़ गया था। अ की मृत्यु के पश्चात् अवयस्क पुत्री अपने नाना के संरक्षण में, साथ रहने लगी जो कि उसका भरण-पोषण करता था कुछ समय पश्चात् नाना ने अवयस्क पुत्री तथा उसके अविभाज्य पैतृक सम्पत्ति में अपने को संरक्षक नियुक्त कराने के लिए एक आवेदन न्यायालय में प्रस्तुत किया। नाना के आवेदन के साथ-साथ पुत्री के चाचा जो मृतक का सगा भाई था उसने भी इस आशय का आवेदन-पत्र न्यायालय में प्रस्तुत किया। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि अवयस्क पुत्री का चाचा, पुत्री के हितों को ध्यान से रखते हुये संरक्षक नियुक्त नहीं किया जा सकता तथा न्यायालय ने इस वाद में यह भी अभिनिर्धारित किया कि पुत्री के नाना उसके हितों को ध्यान में रखते हुये संरक्षक हो सकता है किन्तु अविभाज्य संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति का संरक्षक नहीं हो सकता क्योंकि यह हिन्दू अवयस्कता संरक्षक अधिनियम 1956 की धारा 12 के विरुद्ध होगा।

संरक्षकों के प्रकार-धारा 4 के अन्तर्गत चार प्रकार के संरक्षकों का उल्लेख किया गया है

(1) नैसर्गिक संरक्षक (Natural Guardian),

(2) पिता अथवा माता के इच्छापत्र द्वारा नियुक्त संरक्षक, जिसे वसीयती संरक्षक कहा जा सकता

(3) न्यायालय द्वारा नियुक्त अथवा घोषित संरक्षक,

(4) कोर्ट ऑफ वार्ड्स से सम्बन्धित किसी विधि के अन्तर्गत इस प्रकार (संरक्षक के रूप में) कार्य करने के लिए अधिकृत संरक्षक। उपर्युक्त प्रकार के संरक्षकों के अतिरिक्त निम्नलिखित दो प्रकार के और भी संरक्षक होते हैं

(5) वस्तुत: (De facto) संरक्षक,

(6) तदर्थ (Ad hoc) संरक्षक।

(1) नैसर्गिक संरक्षक-नैसर्गिक संरक्षक वह है जो अवयस्क से प्राकृतिक रूप में सम्बन्धित होने के कारण संरक्षक बन जाता है। दूसरे शब्दों में वह व्यक्ति जो अवयस्क से प्राकृतिक अथवा अन्य किसी रूप से सम्बन्धित होने के कारण उसकी सम्पत्ति या शरीर की देखभाल करने का दायित्व अपने ऊपर लेता है, नैसर्गिक संरक्षक कहा जाता है। यद्यपि हिन्दू विधि में संरक्षकों की सूची सीमित

1. नाना भाई बनाम जनार्दन, (1882) 12 बाम्बे 1101

2. ए० आई० आर० 2001 म०प्र० 231

नहीं है, फिर भी अवयस्क का प्रत्येक सम्बन्धी उसका नैसर्गिक संरक्षक नहीं हो सकता। वर्तमान अधिनियम में इसी दृष्टि से नैसर्गिक संरक्षको की सूची दी गई है।

नैसर्गिक संरक्षक उसका पिता होता है और उसके बाद उसको माता। अवयस्क के पिता-माता को छोड़कर अन्य किसी व्यक्ति को उसका संरक्षक बनने का अधिकार नहीं प्राप्त है। न्यायालय को भी पिता के जीवित रहने को दशा में, यदि वह अवयस्क का संरक्षक बनने के अयोग्य नहीं है, अवयस्क के शरीर आदि के लिये संरक्षक नियुक्त करने का अधिकार नहीं है।

श्रीमती गीता हरिहरन व अन्य बनाम रिजर्व बैंक ऑफ इण्डिया के मामले में उच्चतम न्यायालय ने एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह सम्पेक्षित किया कि यदि पिता अपने नाबालिग बच्चे की जिम्मेदारी नहीं उठा रहा है तो ऐसी स्थिति में संतान की माँ नैसर्गिक संरक्षक की भूमिका निभा सकती है। प्रस्तुत मामले में हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम, 1956 एवं संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 के प्रावधानों की व्याख्या करते हुये दो अलग-अलग लेकिन समान निष्कर्ष के फैसले में यह व्याख्या दी गई। प्रस्तुत बाद में वादी ने रिजर्व बैंक आफ इण्डिया के उस अधिकार को चुनौती दी थी जिसके तहत बैक ने उन्हें नाबालिक पुत्र का नैसर्गिक संरक्षक मानने से इंकार कर दिया था। एक दूसरे अन्य वाद में डा० वंदना शिवा ने उन प्रावधानों को चुनौती देते हुए दावा किया था कि वह अपने नाबालिग पुत्र को नैसर्गिक संरक्षक है। डा. वंदना शिवा के पति ने दिल्ली की एक अदालत में विवाह-विच्छेद का वाद दायर कर रखा है। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 6(क) और संरक्षक और प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 19 (ख) की संवैधानिकता को चुनौती देनेवाली दो याचिकाओं में इन दोनों कानूनों के इन प्रावधानों से संविधान के अनुच्छेद 14 में प्रदत्त “समानता के अधिकारों का हनन होता है। अभी तक उपरोक्त दोनों प्रावधानों के अन्तर्गत सिर्फ पिता को हो नाबालिक सन्तान का नैसर्गिक संरक्षक माना जाता था। इस वाद में न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यह व्याख्या नये मामलों में ही लागू होगी तथा जिन मामलों में निर्णय हो चुका है, उन्हें इस निर्णय के आधार पर पुनः चुनौती नहीं दी जा सकती। न्यायालय ने यह भी अभिमत प्रकट किया कि माता एवं पिता दोनों का यह दायित्व है कि वह अपने अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा करें। यदि पिता किसी मतभेद के कारण अपने बच्चों की देखभाल नहीं करता और ऐसी सन्तान अपने माता के पास पूरी तरह संरक्षण में है तो ऐसी दशा में उसकी माँ बच्चे की नैसर्गिक संरक्षक होगी। न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि पिता के जीवनकाल के दौरान माता द्वारा सभी कार्यवाही वैध होगी और ऐसी दशा में हिन्दू संरक्षकता अधिनियम की धारा 6 (क) एवं प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 19 (ख) के सम्बन्ध में पिता को अनुपस्थित माना जायेगा।

मद्रास उच्च न्यायालय ने एन० पलानी स्वामी बनाम ए० पलानी स्वामी के वाद में यह संप्रेक्षित किया कि पिता का नैसर्गिक संरक्षक का अधिकार पितामह एवं नाना से कहीं अधिक श्रेष्ठकर है। माता-पिता के अभाव में हिन्दू पाठ्यग्रंथों में अनेक संरक्षकों की सूची क्रम से दी गई थी; जैसे-ज्येष्ठ भाई, ज्येष्ठ चचेरा भाई, व्यक्तिगत सम्बन्धी, इन सबके अभाव में मातृपक्ष के सम्बन्धी। किन्तु इन सब सम्बन्धियों के संरक्षकता-सम्बन्धी अधिकार माता-पिता की तरह असीम नहीं थे, क्योंकि इस कोटि के समस्त संरक्षकों को न्यायालय से अनुमति लेनी पड़ती थी। जहाँ सभी सहदायिक अवयस्क हैं, वहां न्यायालय उनकी पारिवारिक सम्पत्तियों के लिये संरक्षक नियुक्त कर सकता है। किन्तु इस प्रकार की संरक्षकता उन अवयस्क सहदायिकों के किसी एक के द्वारा वयस्कता प्राप्त कर लेने पर

1. कौसरा बनाम जोरई, (106) 28 इला० 233; देखें, के० आर० सुधा बनाम पी० आर० शशि कुमार, ए० आई० आर० 2012 केरल 711

2. धारा 19 (बी) संरक्षक तथा वार्ड्स अधिनियम देखिये।

3. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 11491

4. ए० आई० आर० 1998 मद्रास पृ० 2641

5. के० के० लक्ष्मी बनाम मरु देवी, आई० एल० आर० 32 मद्रास 1391

उत्सुक है, उसी को पुत्री की अभिरक्षा सौंप दी जानी चाहिये। वस्तुत: यहाँ अभिरक्षा के प्रश्न पर चयन अवयस्क के नाना-नानी तथा उसके पिता के बीच है, अतएव ऐसी स्थिति में पिता की ही अभिरक्षा में पुत्री को देना अधिक श्रेयस्कर होगा।

कुमार वी० जागीरदार बनाम चेतना रमा तीरथ, के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पत्नी अपने पहले पति के सन्तान को उससे मिलने से रोक नहीं लगा सकती क्योंकि वह उसका नैसर्गिक संरक्षण है, और नैसर्गिक संरक्षक होने के नाते उसे इस बात का पूरा अधिकार है, कि वह अपने सन्तान को अपने घर में रख सकता है तथा उससे मिल सकता है। प्रस्तुत वाद में पत्नी अपने पहले पति को छोड़कर अपना विवाह दूसरे पति से रचाया जिस समय वह अपना दूसरा विवाह किया उस समय उसके पास पहले पति की सन्तान मौजूद थी, तथा विवाह उपरान्त पत्नी अपने दूसरे पति के साथ अपने पूर्व पति के सन्तान को भी अपने साथ रखा तथा अपने सन्तान को इस बात के लिए हमेशा भड़काती रहती थी कि उसका पिता एक गन्दे किस्म का व्यक्ति है वह उससे न मिला करे पूर्व पति ने इस बात की चुनौती न्यायालय के समक्ष दी न्यायालय ने पति की याचिका स्वीकार करते हुए उसको अपने सन्तान से मिलने की अनुमति प्रदान किया।

श्रीमती सुरिन्दर कौर बनाम हरबक्स सिंह सिन्धू के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि धारा 6 के अधीन अवयस्क सन्तान की प्रमुख कल्याणकारिता ही सबसे महत्वपूर्ण बात होती है। लड़के की दृष्टि से उसे माता की ही अभिरक्षा में रखा जाना चाहिये। जहाँ पति-पत्नी में पारस्परिक सम्बन्ध खराब हो गये हों वहाँ पति के धन-दौलत तथा सम्पन्नता के आधार पर सन्तान की अभिरक्षा का प्रश्न नहीं तय किया जाना चाहिये बल्कि उसकी भलाई एवं हित को देखकर ही कोई निर्णय लिया जाना चाहिये। यदि अवयस्क से घर का कोई अन्य सदस्य जैसे कि पितामह आदि भावनात्मक रूप से जुड़े हों तो भी उसको माता की ही अभिरक्षा में रखा जायेगा भले ही पितामह आदि को इस बात की अनुज्ञा प्रदान कर दी जायेगी कि वे अवयस्क को अपने घर सप्ताह में एक बार ले जायँ और फिर उसे वापस भेज दें।

जब तक माता की अभिरक्षा अवयस्क के हितों के विरोध में नहीं है, माता को ही अवयस्क की अभिरक्षा का अधिकार प्राप्त होगा। ऐसी माता चाहे जीविका अर्जित कर रही हो अथवा एक घरेलू स्त्री हो। अवयस्क के हित तथा अनुशासन के लिए माता की ही अभिरक्षा अधिक श्रेयस्कर होगी। यदि माता के विरुद्ध जारता का आरोप साबित हो जाता है अथवा कमजोर मिजाज का आरोप साबित हो जाता है तो माता की अभिरक्षा का अधिकार समाप्त हो जाता है।

इसी प्रकार जहाँ माता का अनैतिक सम्बन्ध किसी दूसरे व्यक्ति से है और जानबूझकर पति का. घर छोड़कर चली गई, अवयस्क सन्तान के कल्याण या हित में कोई रुचि नहीं रखती तथा अपने भौतिक सुख के लिये अपने सन्तान हेतु कोई त्याग करने के लिये प्रस्तुत नहीं है वहाँ ऐसी माता को पाँच वर्ष से कम आयु वाले अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार नहीं है हालाँकि सामान्य रूप से पाँच वर्ष तक की सन्तान की अभिरक्षा का अधिकार माता को ही प्रदान किया गया है।’

श्रीमती मोहिनी बनाम वीरेन्द्र कुमार के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अवयस्क सन्तान की अभिरक्षा तथा उसके कल्याण की बात विचारण न्यायालय के समक्ष सबसे महत्वपूर्ण है। जहाँ पति-पत्नी में तलाक की आज्ञप्ति पास कर दी गई वहाँ अवयस्क क हिता

1. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1525..

2. ए० आई० आर० 1984 एस० सी० 12241

3. पूनम दत्त बनाम कृष्णलाल दत्त, ए० आई० आर० 1989 एस० सी० 401

4. श्रीमती मधुबाला बनाम अरुण खन्ना, ए० आई० आर० 1987 दि०811

5. के० एस० मोहन बनाम सन्ध्या , ए० आई० आर० 1993 मद्रास 511

6. ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 13591

को ध्यान में रखना सबसे महत्वपूर्ण है। वर्तमान परिस्थितियों में जहाँ माता अवयस्क के हितों की रक्षा तथा उसे किसी अच्छी संस्था में शिक्षा देने का वायदा करती है वहाँ माता की ही अभिरक्षा में अवयस्क को रखना अधिक हितकर होगा।

उपर्युक्त इसी मत की पुष्टि उच्चतम न्यायालय ने चन्द्रकला मेनन बनाम विपिन मेनन के मामले में किया। इस मामले में पति-पत्नी के बीच पारस्परिक सहमति से विवाह-विच्छेद हो गया। उनकी अवयस्क पुत्री नाना के साथ रहती थी। अवयस्क पुत्री की माता अमेरिका में पी-एच० डी० डिग्री के लिये अध्ययनरत थी। पुत्री का अधिक स्नेह माता तथा नाना के साथ पिता से भी था। पुत्री का भरणपोषण नाना ही कर रहे थे। ऐसी स्थिति में न्यायालय ने पुत्री को माता की अभिरक्षा में रखा जाना ही उचित अभिनिर्धारित किया तथा पिता को उससे मिलने की स्वतंत्रता प्रदान कर दी।

शीला वी० दास बनाम पी० आर० सग्गा जी के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पुत्री की बौद्धिक क्षमता अत्यंत तीक्ष्ण हो और वह अपने हितों के बारे में अच्छी तरह सोच समझ सकती है। ऐसी परिस्थिति में उसके इच्छानुसार नैसर्गिक संरक्षक के सम्बन्ध में न्यायालय द्वारा विचार किया जा सकता है। प्रस्तुत मामले में अवयस्क पुत्री जिसकी आयु 12 वर्ष थी के संरक्षक के सम्बन्ध में न्यायालय के समक्ष एक याचिका प्रस्तुत की गयी। पुत्री के माता का यह कहना था कि जब तक उसकी लड़की अवयस्क है तब तक उसकी संरक्षकता उसको दिया जाय जिससे कि उसका ठीक से पालन-पोषण किया जा सके लेकिन उसकी पुत्री का यह कहना था कि वह अपने दादी के साथ रहना चाहती है जो कि उसके पिता के साथ रह रही थी न्यायालय ने पुत्री की भावनाओं को देखते हये एवं उसकी बौद्धिक क्षमता का आकलन करते हुये उसको उसके पिता के नैसर्गिक संरक्षण में रहने का आदेश दिया।

पून: उच्चतम न्यायालय ने गायत्री बजाज बनाम जीतिन भल्ला. के वाद में उपरोक्त मत की अभिपुष्टि किया, न्यायालय ने पत्नी की याचिका को निरस्त करते हुये यह निर्णीत किया कि बच्चों का भविष्य पिता की अभिरक्षा में ज्यादा सुरक्षित है, और जहाँ सन्तान अपने पिता के साथ ही रहना चाहती हैं वहाँ माता को अपनी सन्तान को अपने साथ रखने का अधिकार नहीं होगा, बल्कि उसे ऐसी परिस्थिति में उससे मिलने एवं सम्पर्क बनाये रखने का ही अधिकार होगा।

2. जारज बालक या जारज अविवाहिता बालिका के मामले में माता और उसके बाद पिता संरक्षक हैं।

पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत भी अवयस्क पत्नी का नैसर्गिक संरक्षक ही उसका पति माना जाता था। जैसा कि अब वर्तमान अधिनियम में दिया गया है, संरक्षकता का यह अधिकार पत्नी की सम्पत्ति तथा व्यक्तित्व दोनों के सम्बन्ध में दिया गया है। किन्तु जहाँ पति भी अवयस्क है तो उस स्थिति में धारा 10 के प्रावधानों के अनुसार वह पति अपनी अवयस्क पत्नी की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता के अधिकार का प्रयोग नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में यह प्रतिपादित है कि जो व्यक्ति अवयस्क पति की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिकार रखता है वही उसकी अवयस्क पत्नी की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक-जैसा व्यवहार कर सकेगा।

3. विवाहिता बालिका की अवस्था में उसका पति, परन्तु यदि कोई व्यक्ति

1. हिन्दू नहीं रह गया है, या

2. अंतिम तथा पूर्ण रूप से संसार त्याग चुका है अथवा वानप्रस्थ ग्रहण कर लिया है अथवा संन्यासी हो चुका है,

1. (1993) 2 एस० सी० सी० 61

2. ए० आई० आर०2006 एस० सी० 13431

3. ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 10.

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LLB Hindu Law Part 6 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Part 6 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी Students LLB Hindu Law Book Part 6 Minority and Guardianship Post 2 को पूरा करने जा रहे है जिसे हमने Study Material के रूप में आपके सामने रखा है |

तो वह व्यक्ति प्राकृतिक संरक्षक के रूप में इस धारा के प्रावधानों के अन्तर्गत कार्य करने के लिये हकदार नहीं होगा।

जीजाबाई विठ्ठलराव गजरा बनाम पठान खाँ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह विधि निरूपित किया कि अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत कानन यह है कि सामान्यतः जब पिता जीवित रहता है तो वही अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक होता है और उसके बाद उसकी माता उसकी संरक्षिका होती है और जहाँ पिता जीवित है, अवयस्क पुत्री की माता से अलग हो गया है तथा अवयस्क के हितों का कोई ध्यान नहीं रखता तो ऐसी स्थिति में पिता को अजीवित (Not alive) समझा जायेगा

और माता को ही अवयस्क के शरीर एवं सम्पत्ति का प्राकृतिक संरक्षक माना जायेगा तथा उसे अवयस्क की सम्पत्ति को पट्टे द्वारा बाँधने का हक प्राप्त है। इस प्रकार पिता जहाँ संरक्षक के दायित्वों को निभाने में असफल होता है अथवा अनवधानता बरतता है अथवा असमर्थ हो जाता है तो वहां माता को नैसर्गिक संरक्षक के समस्त अधिकार एवं कर्तव्य बिना न्यायालय के घोषित किये ही प्राप्त हो जाते

सोभादेई बनाम भीमा तथा अन्य के वाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि अवयस्क का पिता उसका स्वाभाविक संरक्षक है। अवयस्क जो पाँच वर्ष से अधिक उम्र का है और माता के साथ रहा है, पिता की संरक्षकता में माना जायेगा। उसकी माता उसके अनन्य मित्र (Next friend) के रूप में उसका प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती। केवल पिता को ही उसके विरुद्ध किसी वाद में प्रतिनिधित्व करने का अधिकार है। संरक्षकता का प्रथम अधिकार पिता को दिया गया है।

व्याख्याइस धारा में पिता और माता पद के अन्तर्गत सौतेला पिता और सौतेली माता नहीं आते।

इस धारा के अन्तर्गत एक दत्तक पुत्र अथवा दत्तक पुत्री की प्राकृतिक संरक्षकता के विषय में कुछ नहीं कहा गया है, किन्तु जैसा कि दत्तक-ग्रहण में पुत्र अथवा पुत्री प्राकृतिक परिवार से दत्तक-ग्रहीता परिवार में चले जाते हैं, दत्तक-ग्रहीता पिता और उसके बाद दत्तक-ग्रहीता माता उसके नैसर्गिक संरक्षक समझे जायेंगे। यह बात धारा 7 में स्पष्ट की गई है।

जब तक पिता जीवित रहता है, माता अवयस्क की प्राकृतिक संरक्षिका नहीं हो सकती और यदि पिता संरक्षक होने से अस्वीकार करता है अथवा प्राकृतिक संरक्षक के रूप में दायित्वों के निर्वाह में असावधानी करता है तो उस दशा में माता अवयस्क के संरक्षक होने की शक्तियों को प्राप्त करने के लिये विधिक कार्यवाहियाँ अपना सकती है।

इस बात का समर्थन केरल उच्च न्यायालय ने पी० टी० चाथू चेत्तियार बनाम करियत कुन्नूमल कानारन के वाद में किया। न्यायालय के अनुसार अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक उसका पिता होगा यदि वह जीवित है। यदि पिता निर्योग्य हो गया है अथवा मर चुका है तभी माता प्राकृतिक संरक्षकता का अधिकार प्राप्त करती है। पिता के जीवन-काल में यदि वह किसी प्रकार के निर्योग्यता का शिकार नहीं है तो माता को पिता के अधिकार में हस्तक्षेप करने की क्षमता नहीं होती। पिता के जीवन-काल में अवयस्क की सम्पत्ति का माता द्वारा अन्यसंक्रामित किया जाना अनधिकृत एवं शून्य होता है।

पिता एवं माता को अवयस्क की जिस सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिकार प्राप्त होता

1. ए० आई० आर० 1971 एस० सी० 3151

2. पन्नी लाल बनाम राजिन्दर सिंह, (1993) 4 एस० सी० सी० प० 38: देखिये नारायण बाग सम्पूर्णा, 1968 पटना 318।

3. ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1801

4. नारायण सिंह बनाम सम्पूर्ण कौर, 1968 पटना 318: देखें, रुचि माजू बनाम आई० आर० 2011, एस० सी० 15521

5. ए० आई० आर० 1984 केरल 1181

है, वह अवयस्क की पृथक् सम्पत्ति होती है अथवा वह सम्पत्ति जिस पर उसका सम्पूर्ण आधिपत्य होता है। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अवयस्क का जो अंश होता है, उसके सम्बन्ध में संरक्षक नहीं नियुक्त किया जा सकता।

इस धारा के अन्तर्गत पिता के बाद माता अवयस्क की सम्पत्ति एवं शरीर की संरक्षिका होती है, उसका पुनर्विवाह संरक्षकता के अधिकार के लिए निर्योग्य नहीं होता।

संरक्षक होने की अयोग्यतायेंअधिनियम की धारा 6 के अनुसार निम्नलिखित दशाओं में कोई व्यक्ति संरक्षक बनने के अयोग्य हो जाता है

(1) धर्म-परिवर्तन से उत्पन्न अयोग्यता।

(2) नागरिक (Civil) मृत्यु से उत्पन्न अयोग्यता।’

(3) अवयस्कता से उत्पन्न अयोग्यता।’

(4) जब संरक्षकता अवयस्क के कल्याण के लिए नहीं है।

(1) धर्म-परिवर्तनइस वर्तमान अधिनियम के पास होने के पूर्व धर्म-परिवर्तन से संरक्षक के अधिकार नहीं प्रभावित होते थे। इस बात से कि पिता ने धर्म-परिवर्तन कर लिया है, उसका पुत्र की अभिरक्षा का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता था। किन्तु यदि धर्म-परिवर्तन के समय पिता ने स्वेच्छा से इस प्रकार के पैतृक अधिकार को त्याग दिया है और पुत्र की अभिरक्षा को दूसरे के हाथ सौंप दिया है तो उस दशा में न्यायालय पुत्र की अभिरक्षा को पिता के हाथ में नहीं दे सकता, यदि वह पुत्र के हितों के विपरीत है। किन्तु जहाँ किसी हिन्दू माता ने अपना धर्म-परिवर्तन किया है वहाँ न्यायालय पुत्र को माता की अभिरक्षा से हटाकर किसी एक हिन्दू संरक्षक के अधीन कर सकता है, यदि वह अवयस्क के हितों के अनुकूल हो। इसी प्रकार जहाँ पत्नी ने विवाह-विच्छेद करके किसी दूसरे धर्मावलम्बी के साथ विवाह कर लिया है उससे अपने पुत्र को अपनी अभिरक्षा में रखने का अधिकार समाप्त नहीं हो जाता।

वर्तमान अधिनियम ने इस सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये हैं। अधिनियम द्वारा विहित कोई भी प्राकृतिक संरक्षक अर्थात् पिता, माता अथवा पति के हिन्दू न रह जाने पर संरक्षक बनने का अधिकारी नहीं रह जाता। विजय लक्ष्मी बनाम पुलिस इन्स्पेक्टर के मामले में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पिता इस्लाम धर्म को स्वीकार करके एक मुस्लिम महिला से विवाह कर लेता है वहाँ वह नैसर्गिक संरक्षक होने का विधिक अधिकारी नहीं रह जाता।

 (2) सिविल मृत्यु (Civil death)—कोई भी व्यक्ति जिसने पूर्णतया अंतिम रूप से संसार त्याग दिया है अथवा यती अथवा संन्यासी हो चुका है, वह अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक होने का अधिकारी नहीं रह जाता। कोई व्यक्ति संन्यासी अथवा यती कह देने मात्र से संन्यासी या यती नहीं हो जाता। संसार का त्याग यथार्थ रूप में पूर्णतया अन्तिम होना चाहिये।

“वह व्यक्ति जो संन्यासी अथवा यती होने की इच्छा करता है, उसे अपना मृत्यु-संस्कार तथा श्राद्ध विधिवत् करना चाहिये तथा अपनी सभी सम्पत्ति को अपने पुत्रों तथा ब्राह्मणों में विभाजित कर देनी चाहिये। उसके पश्चात् होम आदि की क्रिया करके, जल में खड़ा होकर इस उद्देश्य का मन्त्र

1. बक्शी राम लाधाराम बनाम मु० शीला देवी, ए० आई० आर० 1960 पंजाब 3041

2. खण्ड ए, धारा 61

3. खण्ड ब, धारा 6 का परन्तुक।

4. धारा 101

5. धारा 13 (2)।

6. मकन्द बनाम नहुदी, 25 कलकत्ता 8811

7. मेन : हिन्दू विधि, पृष्ठ 867।

8. ए० आई० आर० 1991 मद्रास।

तीन बार पढ़ना चाहिये कि उसने संसार की समस्त वस्तुएँ, पुत्र तथा सम्पत्ति आदि को त्याग दिया है”

(3) अवयस्कता-अधिनियम की धारा 10 में यह विहित किया गया है कि कोई अवयस्क किसी अवयस्क की सम्पत्ति के सम्बन्ध में संरक्षक बनने के अयोग्य है।

(4) अवयस्क के कल्याण के प्रतिकूल-कोई भी ऐसा व्यक्ति संरक्षक नहीं बन सकता जिसकी संरक्षकता न्यायालय की दृष्टि में अवयस्क के कल्याण के विपरीत होगी। धारा 13 के अन्तर्गत अवयस्क के कल्याण को सर्वोपरिता दी गई है। अतएव अवयस्क की संरक्षकता उसके कल्याण की अनुकूलता के आधार पर की जायेगी। श्रीमती गंगाबाई बनाम भेरूलाल के वाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह कहा कि विधि में पिता एक प्राकृतिक संरक्षक होता है तथा सामान्यत: उसे पुत्र को अपने साथ रखने के प्राकृतिक अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। किन्तु कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं। कि न्यायालय को एक भिन्न विचारधारा धारण करनी पड़ती है जबकि पिता को एक प्राकृतिक संरक्षक होने के बावजूद अवयस्क को उसकी संरक्षकता में नहीं दिया जा सकता। यदि पिता की संरक्षकता में सन्तान का कल्याण खतरे में प्रतीत हो तथा माता की संरक्षकता में उसका कल्याण समान रूप से अथवा अधिक मात्रा में प्रतीत हो तो पिता आवश्यक रूप से संरक्षकता का दावा नहीं कर सकता।

बम्बई उच्च न्यायालय ने पिता को अपनी अवयस्क सन्तान से मिलने की अनुमति देने से इन्कार कर दिया। पिता ने न्यायालय के आदेश के बावजूद भी, अपनी अवयस्क सन्तान को, जो माता के साथ रहती थी, चार हजार रुपये की राशि प्रतिमास की दर से प्रदान नहीं कर रहा था। न्यायालय ने कहा कि जब तक पिता न्यायालय के आदेश का पालन नहीं करता उसे अपनी सन्तान के पास पहुँचने की अनुमति नहीं दी जा सकती।

के वेकेंट रेड्डी व अन्य बनाम चिनिप्पा रेड्डी विश्वनाथ रेड्डी के मामले में अपवयस्क के पिता इंजीनियरिंग कालेज के किसी पद पर कार्यस्त थे जिन्होंने बहुत सी पुस्तकों का लेखन का कार्य किया, तथा उसकी आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुदृढ़ थी। उसकी पहली पत्नी की मृत्यु पुत्र के जन्म के पश्चात् हो गयी थी। कुछ समय पश्चात् उसने अपना दूसरा विवाह अपनी सहयोगी महिला के साथ सम्पन्न किया। विवाहोपरान्त पति-पत्नी ने इस बात के लिये समझौता किया कि वह किसी अन्य सन्तान को जन्म नहीं देगे और वह पहली पत्नी के बच्चे का भरण-पोषण अच्छे तरीके से करते रहेंगे। कुछ समय उपरान्त उसकी पहली पत्नी के माता-पिता ने न्यायालय में इस बात का आवेदन किया कि उनके पुत्री के पुत्र को उनकी संरक्षा में दिया जाय क्योंकि उस पुत्र का पालन-पोषण उचित तरीके से नहीं हो पा रहा था, जो अवयस्क के कल्याण के प्रतिकूल था। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने तथ्यों के आधार पर इस बात का अवलोकन किया कि पहली पत्नी के पुत्र का भरण-पोषण तथा संरक्षण उचित रूप से नहीं हो पा रहा था। अत: न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पत्र का हित अनुकूल न होने के कारण ऐसे पुत्र का संरक्षण करने का अधिकार उसके नाना-नानी को दे दिया जाय।

विधवा द्वारा पुनर्विवाह का प्रभाव कोई भी हिन्दू विधवा अपनी अवयस्क सन्तान के सम्बन्ध में संरक्षकता का अधिमान्य अधिकार अपने पुनर्विवाह पर खो नहीं देती। पिता की मृत्यु के बाद प्राकृतिक संरक्षक के रूप में माता के अधिकार असीम होते हैं। यह बात अधिनियम की धारा 6 के अन्तगत दी गई व्याख्या से पूर्णतया स्पष्ट है।

दत्तक पुत्र का प्राकृतिक संरक्षक-अधिनियम की धारा 7 के अनुसार अवयस्क द प्राकृतिक संरक्षकता दत्तकग्रहीता पिता में चली जाती है। दत्तकग्रहीता पिता की मृत्यु के बाद संरक्षता

1. शीला बनाम जीवन लाल, ए० आई० आर० 1988 ए० पी० 2751

2. ए० आई० आर० 1976 राज० 1531

3. विनोद चंद बनाम श्रीमती अनुपमा, ए० आई० आर० 1993 बा० 250

4. ए० आई० आर० 2009 आन्ध्र प्रदेश 011

दत्तकग्रहीता माता में निहित हो जाती है।

दत्तक पुत्र के नैसर्गिक पिता-माता उस पर कोई अधिकार नहीं रखते।

प्राकृतिक अथवा नैसर्गिक संरक्षक के अधिकार

अधिनियम की धारा 8 में अवयस्क के शरीर तथा सम्पत्ति के सम्बन्ध में प्राकृतिक संरक्षक के अधिकारों की विवेचना की गई है।

धारा 8 इस प्रकार है-

(1) हिन्दू अवयस्क का प्राकृतिक संरक्षक इस धारा के प्रावधानों के अधीन रहते हुए ऐसे समस्त कार्यों को कर सकता है जो अवयस्क के लाभ के लिये अथवा उसकी सम्पदा के उगाहने, प्रतिरक्षा या लाभ के लिये आवश्यक, युक्तियुक्त तथा उचित हैं। संरक्षक किसी व्यक्तिगत संविदा द्वारा किसी भी दशा में अवयस्क को बाध्य नहीं कर सकता।

(2) प्राकृतिक संरक्षक न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना

(क) अवयस्क की अचल सम्पत्ति के किसी भाग को बन्धक या भारित (Charge) या विक्रय, दान, विनिमय या अन्य किसी प्रकार से हस्तान्तरित नहीं करेगा, या

(ख) ऐसी सम्पत्ति के किसी भाग को पाँच वर्षों से अधिक होने वाली अवधि के लिये या जिस तारीख को अवयस्क वयस्कता प्राप्त करेगा, उस तारीख से एक वर्ष से अधिक होने वाली अवधि के लिये पट्टे पर नहीं देगा।

(3) प्राकृतिक संरक्षक ने उपधारा (1) या (2) के उल्लंघन में अचल सम्पत्ति का जो कोई व्ययन किया है, वह उस अवयस्क की या उसके अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति की प्रेरणा पर शून्यकरणीय होगा।

(4) कोई न्यायालय प्राकृतिक संरक्षक की उपधारा (2) में वर्णित कार्यों में से किसी को भी करने के लिये अनुज्ञा आवश्यकता के लिये या अवयस्क के स्पष्ट लाभ की दशा के अतिरिक्त अन्य किसी दशा में न देगा।

(5) संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम, 1809 की उपधारा (2) के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिए आवेदन तथा उसके सम्बन्ध में, सभी दशाओं में इस प्रकार लागू होगा. जैसे कि यह उस अधिनियम की धारा 29 के अधीन न्यायालय की अनुज्ञा प्राप्त करने के लिये आवेदन हो तथा विशिष्ट रूप में

(क) आवेदन से सम्बन्धित कार्यवाहियों के विषय में यह समझा जायगा कि वे उस अधिनियम के अधीन उसकी धारा 4-क के अर्थ में कार्यवाहियाँ हैं।

(ख) न्यायालय उस अधिनियम की धारा 31 की उपधाराओं (2), (3) और (4) में उल्लिखित प्रक्रिया का पालन करेगा और अधिकारों से युक्त होगा। (ग) प्राकृतिक संरक्षक को उन कार्यों में से किसी को, जो इस धारा की उपधारा (2) में वर्णित हैं, करने के लिए अनुज्ञा देने से इन्कार करने वाले न्यायालय के आदेश के विरुद्ध अपील उस न्यायालय में होगी जिसमें साधारणतया उस न्यायालय के निर्णय की अपील होती है। इस धारा में न्यायालय से तात्पर्य नगर-व्यवहार न्यायालय अथवा जिला-न्यायालय अथवा संरक्षक तथा प्रतिपाल्य अधिनियम की धारा 4 के अधीन सशक्त न्यायालय से है, जिसके क्षेत्राधिकार की स्थानीय सीमाओं के अन्तर्गत वह अचल सम्पत्ति है जिसके बारे में आवेदन किया गया है और जहाँ अचल सम्पत्ति किसी ऐसे एक से अधिक न्यायालय के क्षेत्राधिकार शित है. वहाँ उस न्यायालय से तात्पर्य है जिसकी स्थानीय सीमाओं के क्षेत्राधिकार

में उस सम्पत्ति का कोई प्रभाग स्थित है। पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत संरक्षक के बहुत विस्तृत अधिकार थे। प्राकृतिक संरक्षक के, अवयस्क के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार के विषय में प्रिवी कौंसिल ने एक महत्वपूर्ण वाद में निर्णीत किया था जिसमें यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आवश्यकता की दशा में नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति को बन्धक रख सकता है, बेच सकता है, उस पर प्रभार निर्मित कर सकता है तथा अन्य प्रकार से उसका निर्वर्तन कर सकता है, यद्यपि इस प्रकार के अधिकार सीमित नहीं हैं। इस वाद का मूल मन्तव्य यह था कि नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का परम आवश्यकता की दशा में तथा उसकी सम्पदा के लाभार्थ अन्यसंक्रामण कर सकता है। इस प्रकार अन्यसंक्रामण केवल नैसर्गिक संरक्षक का ही विशेषाधिकार माना जाता था।

बम्बई उच्च न्यायालय ने यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि नैसर्गिक संरक्षक के अधिकार के अन्तर्गत अल्पवयस्क की अभिरक्षा सामान्यतया नैसर्गिक अभिभावक को ही प्रदान जाती है। लेकिन विशेष परिस्थिति में नैसर्गिक अभिभावक के अतिरिक्त कोई अन्य व्यक्ति उसी स्थिति में नियुक्त किया जा सकता है जबकि नैसर्गिक अभिभावक अपने दायित्वों में अक्षम हो या नैसर्गिक अभिभावक एवं अल्पवयस्क के हितों में स्पष्ट टकराव की स्थिति हो अथवा कोई अन्य अपवादग्रस्त परिस्थिति उत्पन्न हो गयी हो जैसे पिता द्वारा पुनर्विवाह सौतेली माँ एवं सौतेले भाई-बहन के कारण अल्पवस्यक के साथ दुर्व्यवहार करना आदि। उपरोक्त परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुये अपवादस्वरूप अल्पवयस्क के हितों के संरक्षक करने वाले व्यक्ति को उसका अभिभावक नियुक्त किया जा सकता है।

गोपालकृष्ण शाह बनाम कृष्णशाह के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार किया तथा यह निरूपित किया कि जहाँ माता ने अपने ऐसे मकान को बेच दिया. जिसके ऊपर बन्धक ऋण का भार था तथा जिसके उन्मोचन की सम्भावना भी नहीं रह गई थी, एक विधिक आवश्यकता समझी जायगी। संरक्षक द्वारा किसी सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण आवश्यकता की दशा में अथवा सम्पदा के लाभार्थ किया जा सकता है। अन्यसंक्रामण की आवश्यकता मकान खरीदने वाले को सिद्ध करनी पड़ेगी। विधिक आवश्यकता का निर्णय प्रत्येक दशा में अलग-अलग परिस्थितियों के अनुसार किया गया था। अवयस्क का भरण-पोषण उसकी सम्पत्ति की मरम्मत, उसके पिता की अन्त्येष्टि क्रिया तथा पिता के ऋण को चुकाना’ आदि विधिक आवश्यकता के अन्तर्गत आते थे, जिनके लिये संरक्षक अवयस्क की सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण कर सकता था। श्री रमलू बनाम पुण्डरी कश्यप के वाद में फेडरल कोर्ट ने निम्नलिखित बातों को प्रतिपादित किया था

1. कोई भी ऐसा ऋण जो संरक्षक ने अवयस्क की आवश्यकता अथवा उसकी सम्पदा के लाभों के लिये नहीं लिया है, अवयस्क के ऊपर बाध्यकारी नहीं होगा।

2. ऐसा ऋण जो संरक्षक ने अवयस्क की आवश्यकता के लिये अथवा उसकी सम्पत्ति के लाभों के लिये लिया है, अवयस्क के ऊपर बाध्यकारी होगा।

3. यदि संरक्षक ने परक्राम्य-लिखत द्वारा किसी दायित्व को धारण किया है तो वह दायित्व अवयस्क की सम्पदा के विरुद्ध होगा।

1. हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई, 6 एम० आई० ए० 3931

2. अशोक शंकर राव घटगे बनाम महिपति यशवंत खटाले. ए० आई आर० 20

3. 1961 मद्रास 3481 4. सुन्दर नारायन बनाम वेनदराम,

4 ए० सी० 761

5. हरीमोहन बनाम गनेश चन्दर, 10 ए० सी० 823 पर्णपीठ।

6. नाथराम बनाम छग्गन, 14 बम्बई 5621

7. मुरारी बनाम तयाना, 20 बम्बई 2961

8. 1949 एफ० सी० पृ० 2181

अमिरथा कदम्बन बनाम सोरनथ कदम्बन के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि किसी अवयस्क के संरक्षक द्वारा उसकी अवयस्कता की स्थिति में किये गये अन्यसेक्रामण को अपास्त कराने का दावा करने का अधिकार केवल व्यक्तिगत अधिकार नहीं है। धारा

(3) के अधीन अन्यसंक्रान्ती को इस प्रकार के अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का दावा करने से अपवर्जित नही किया जा सकता। धारा 8 (3) में “उसके अधीन का दावा करने वाले किसी व्यक्ति” पद का अभिप्राय ऐसे किसी व्यक्ति से है जो अवयस्क के संरक्षक द्वारा किये गये अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का अधिकार प्राप्त करता है। इस प्रकार अन्यसंक्रान्ती भी अवैध अन्यसंक्रामण को अपास्त करवा सकता है।

पी० डी० चायू चेत्तियार बनाम के० कुत्रुमक्त कनारन के बाद में पिता की मौजूदगी में माता ने अवयस्क की अचल सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण कर दिया जब कि पिता किसी प्रकार की नियोग्यता का शिकार नहीं था, ऐसी स्थिति में यदि पिता अन्यसंक्रामण प्रलेख में कहीं उल्लिखित हो अथवा साक्षी के रूप में हस्ताक्षर कर दिया हो तो अन्यसंक्रामण वैध नहीं हो सकता। न्यायालय की पूर्व अनुज्ञा के बिना किया गया अन्यसंक्रामण अवयस्क की इच्छानुसार शून्यकरणीय होगा न कि शून्य। किन्तु इस प्रस्तुत मामले में अन्यसंक्रामण माता द्वारा अनधिकृत रूप से किये जाने के कारण शून्य होगा क्योकि माता अन्यसंक्रामण के लिये उपयुक्त प्राकृतिक संरक्षक नहीं थी जब कि पिता जीवित था। पुन: केरल उच्च न्यायालय के अनुसार धारा 8 (2) के अन्तर्गत किसी प्रकार का अन्यसंक्रामण विधिमान्य नहीं समझा जायेगा, यदि न्यायालय से उसके सम्बन्ध में पूर्व अनुज्ञा नहीं प्राप्त कर ली गई है। किन्तु जहाँ अवयस्क की सम्पत्ति का हस्तान्तरण नैसर्गिक संरक्षक द्वारा किया गया हो और न्यायालय की अनुज्ञा न प्राप्त की गई रही हो वहाँ अवयस्क यदि वयस्कता प्राप्त करने के बाद उस हस्तान्तरण का स्वेच्छया अनुसमर्थन कर दे तो हस्तान्तरण विधिमान्य हो जाता है।

(1) अवयस्क के लाभ हेतु आवश्यक अथवा युक्तियुक्त तथा उचित कार्य-उपर्युक्त धारा में प्रयुक्त यह वाक्य इस बात का बोध कराता है कि नैसर्गिक संरक्षक अवयस्क के लाभ के लिए उसके स्वास्थ्य, पालन-पोषण तथा शिक्षा पर आवश्यक नियन्त्रण रख सकता है। इस प्रकार की देख-रेख के अधिकार को वह शिक्षक तथा मित्र को भी सौंप सकता है। किन्तु उसे यह भी अधिकार होगा कि वह उनके अधिकारों को प्रतिसंहत भी कर सके। संरक्षक को यह अधिकार होगा कि वह अवयस्क के निवास स्थान को निर्धारित करे जिससे अवयस्क कुसंगति में न फँस सके। यह धारा उन अन्यसंक्रामणों के प्रति नहीं लागू होती जहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का प्रबन्धक अवयस्क के संयुक्त हित को अवयस्क के हित के लिए अथवा पारिवारिक आवश्यकता के लिए अन्य संक्रामित करता है। संरक्षक जहाँ किसी संविदा को अवयस्क के हित के लिये करता है किन्तु बाद में यह पता चलता है कि वह संविदा उसके हित के विरुद्ध है तो संविदा अनुयोज्य नहीं होगी।

मानिकचन्द्र बनाम रामचन्द्र के निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम के पास हो जाने के बाद अवयस्क का संरक्षक उन सभी कृत्यों को करने का अधिकार रखता है जो अवयस्क के हित के लिये आवश्यक अथवा युक्तियुक्त हों। वह ऐसे समस्त कार्यों को

1. ए० आई० आर० 1970 मद्रास 1271

2. ० आई० आर० 1984 केरल 118; देखिए ए० आई० आर० 1989 ए० ओ० सी० ए० पी०।

3. जनार्दन पिल्ले बनाम भगवती कुट्टी अम्मा, ए० आई० आर० 1989 केरल 303।

4 शेख कासिम साहेब बनाम वसीरड्डी, ए० आई० आर० 1989 एन० ओ० सी० ए० पी०।

5. वजीर खाँ बनाम गनेश, 1926 इलाहाबाद 6871

6. फ्लेमिंग बनाम प्राट, आई० ए० जे० के० बी० (ओ० एस०) 1951

7. सग्गाबाई बनाम श्रीमती हीरालाल, ए० आई० आर० 1969 एम० पी० 321 .

8 दरबारा सिंह बनाम कमीन्दरसिह, ए० आई० आर० 1979 पं० एवं हरि० 2151

9. ए० आई० आर० 1981 एस० सी० 5191

कर सकता है जो अवयस्क की सम्पदा की रक्षा अथवा हित के लिये जरूरी हो। इसका यह अर्थ कि संरक्षक अवयस्क को प्रसंविदा द्वारा बाध्य कर सकता है यदि ऐसा आवश्यक हो, यह बात अचल सम्पत्ति की खरीददारी के सम्बन्ध में भी लागू होती है। यदि वह अवयस्क की ओर से कोई सम्पत्ति खरीदता है तो अवयस्क का दायित्व क्रय-मूल्य चुकाने का पूरी तौर पर होगा। किन्तु अवयस्क अपने व्यक्तिगत प्रसावदा के द्वारा अवयस्क को बाधित नहीं कर सकता।

उपर्युक्त बाद में अवयस्कों की ओर से उनके नैसर्गिक संरक्षक माता द्वारा एक मकान खरीदने को संविदा की गई। संविदा के समय एक हजार रुपये की धनराशि अंतिम रूप से दे दी गई और यह तय हआ कि शेष धनराशि विक्रयपत्र की रजिस्ट्री के समय दी जायेगी। मकान के विक्रेता ने रजिस्ट्री लिखने से नामंजूर कर दिया। अत: संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये वयस्कों की ओर से वाद दायर किया गया जो उच्च न्यायालय द्वारा इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि संरक्षक को इस प्रकार प्रसंविदा करने का अधिकार नहीं था, क्योंकि संरक्षक की यह व्यक्तिगत प्रसंविदा थी जिससे वह अवयस्को को बाधित नहीं कर सकती। उच्चतम न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार नहीं किया और यह अभिनिर्धारित किया की संरक्षक इस प्रकार की प्रसंविदा करने में पूर्णतया समर्थ हैं यदि बह अवयस्क के हित से सम्बन्धित है।

उच्चतम न्यायालय ने धारा 8 के क्षेत्र की व्याख्या करते हुए यह कहा कि यह धारा नैसर्गिक संरक्षक द्वारा अचल सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण करने के अधिकार की सीमा की विवेचना करता है। जहाँ अवयस्क की माता बिना किसी विधिक आवश्यकता के अथवा सम्पदा के प्रलाभ के बिना उसकी किसी सम्पत्ति को बेच देता है तथा इस आशय की अनुमति न्यायालय से भी नहीं प्राप्त की गई है वहाँ भले ही अवयस्क के पिता ने ऐसे विक्रय को प्रमाणित कर दिया हो, वहाँ ऐसे विक्रयनामा को नैसर्गिक संरक्षक द्वारा विक्रयनामा नहीं माना जायेगा और वह अन्यसंक्रामण (विक्रय) इस धारा की सीमा के अन्तर्गत शून्य माना जायेगा न कि शून्यकरणीय।

रूमल बनाम श्रीनिवास के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मत को समर्थन देते हुये कहा कि अवयस्क के संरक्षक द्वारा की गई किसी संविदा का अवयस्क द्वारा तथा अवयस्क के विरुद्ध विनिर्दिष्ट रूप से पालन करवाया जा सकता है। हिन्दू विधि के अन्तर्गत नैसर्गिक संरक्षक को यह शक्ति प्रदान की गई है कि वह अवयस्क की ओर से संविदा करे और इस प्रकार की संविदा, यदि अवयस्क के हित में है तो उसके ऊपर बाध्यकारी होगा और वह लागू किया जायेगा। इसी प्रकार जहाँ किसी संविदा के विनिर्दिष्ट पालन के लिये माता द्वारा अपने अवयस्क पुत्र की ओर से दावा दायर किया जाता है जब कि पिता जीवित है और माता तथा पिता के बीच सम्बन्ध ठीक नहीं है, वहां न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि माता और उसकी अवयस्क सन्तान के हितों में विरोध नहीं है तो इस प्रकार दावा करने का अधिकार माता को प्राप्त है।

हनुमान प्रसाद बनाम मु० बबुई के वाद में प्रिवो कौसिल ने यह स्पष्ट रूप से निरूपित किया था जैसा कि पर्व उल्लिखित भी है कि आवश्यकता की दशा में अथवा सम्पदा के लाभ की दशा में अवयस्क को सम्पत्ति के प्रबन्धकर्ता को सीमित तथा सापेक्ष अधिकार प्राप्त है। यहाँ आवश्यकता की दशा से तात्पर्य विधिक आवश्यकता से है।।

ऋणदाता का यह आवश्यक कर्त्तव्य है कि वह ऋण देने के पूर्व इस बात से अपने का सन्तुष्ट कर ले कि जो व्यक्ति ऋण ले रहा है, वह अवयस्क की सम्पदा के लाभ के लिए हा पर ऋणदाता युक्तियुक्त जांच-पड़ताल करने के बाद सद्भाव में ऋण देता है तो उस अब

1. (1993)4 एस० सी० सी०381

2. ए० आई० आर० 1985 दि० 1531

3. मुकेश बनाम देवनरायन, ए० आई० आर० 1987 एम० पी० 85; विशद । स्टेट ऑफ गुजरात, ए० आई० आर० 2013 गुजरात 251.

आवश्यकता से अवगत होने की दशा में विधि में उसके प्रभार को मान्यता प्रदान की जायेगी।

यदि अवयस्क के पास अनुत्पादक सम्पत्ति है जिसे अवयस्क का संरक्षक इस उद्देश्य से देता है कि वह उसके स्थान पर कोई उत्पादक सम्पत्ति खरीद ले तो उस दशा में यह बयनामा अवयस्क पर बाध्यकारी होगा।

अवयस्क की सम्पदा की उगाही-यदि अवयस्क की सम्पत्ति किसी तीसरे व्यक्ति के हाथ में है तो संरक्षक का यह कर्तव्य है कि वह उस सम्पत्ति को उससे वापस ले तथा उसकी उगाही करे। संरक्षक को यह भी अधिकार है कि उसे पुन: प्राप्त करने के लिये जो कुछ उचित व्यय करना पडे. करे।

जहाँ तक नैसर्गिक संरक्षक के अवयस्क की ओर से ऋण लेने की संविदा का प्रश्न है, उसमें इस बात पर न्यायिक निर्णयों में मतभेद है कि क्या इस प्रकार के ऋण की संविदा से अवयस्क की सम्पत्ति पर प्रभार निर्मित किया जा सकता है? एक वाद में यह स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित किया गया कि संरक्षक स्वयं अवयस्क को बाँधने के लिए व्यक्तिगत रूप में कोई प्रसंविदा नहीं कर सकता और यही स्थिति वर्तमान अधिनियम में अपनायी गयी है। प्रिवी कौंसिल ने भी उपर्युक्त मत का समर्थन किया और प्रतिपादित किया कि अवयस्क का संरक्षक कोई भी ऐसी प्रसंविदा नहीं कर सकता जिसके द्वारा भविष्य में वह संरक्षित की सम्पत्ति प्रभारित कर सके।

नैसर्गिक संरक्षक द्वारा सुलहनामासंरक्षक अपने संरक्षित की ओर से किसी मामले में सुलहनामा प्रस्तुत कर सकता है।’

विशुनदेव बनाम शिवगनी राय वाले वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि किसी अवयस्क के संरक्षक के लिए व्यवहार प्रक्रिया संहिता के आदेश 22, नियम 7 के अन्तर्गत न्यायालय की अनुमति लेना आवश्यक नहीं है, अर्थात् किसी मामले में सुलहनामे अथवा अस्थायी समझौता के लिये वह स्वयं सक्षम है तथा इस सम्बन्ध में केवल इतना ही पर्याप्त है कि समझौता अथवा सुलहनामा अवयस्क के प्रलाभ एवं हित के लिये किया गया है।

संरक्षक द्वारा ऋण की अभिस्वीकृति-प्राकृतिक संरक्षक तथा न्यायालय द्वारा नियुक्त संरक्षक अवयस्क के किसी ऋण अथवा उसके ब्याज की, समय की अवधि को बढ़ाने की दृष्टि से, अभिस्वीकृति कर सकता है, यदि वह अवयस्क की सम्पत्ति के लाभ के लिये अथवा उसकी रक्षा के लिए हो।’ संरक्षक को मृत ऋण को पुनर्जीवित करने का अधिकार नहीं है।

पारिवारिक समझौता-प्राकृतिक संरक्षक को यह भी अधिकार है कि वह अवयस्क की ओर से किसी पारिवारिक मामले का समझौता करके उसको तय कर ले, किन्तु यह उसी दशा में सम्भव है जब कि समझौता सद्विवेक पर आधारित दावे के विषय में हो।’

संरक्षक को यह भी अधिकार है कि वह किसी मामले को, जो परिवार की भलाई के लिये है, विवेचना के लिये भेज दे। पिता के जीवित होने की दशा में माता इस प्रकार के मामले को विवेचन के लिये नहीं भेज सकती।

संरक्षक द्वारा कोई भी कार्य संरक्षक-रूप में किया जाना चाहिये-संरक्षक द्वारा कोई भी

1. विधि प्रधान बनाम डैन्करा, 1963 उड़ीसा 1331

2. अब्दुलरहीम बनाम बरेरा, 61 आई० सी० 8071

3. धारा 530, मुल्ला : हिन्दू विधि देखिये।

4 विशनदेव बनाम शिवगनी राय, ए० आई० आर० 1951 एस० सी० 2851

5. अन्नापगम्दा बनाम सगा दिग्यपा, 26 ब० 2211

6. धारा 531; मुल्ला की हिन्द्र-विधि।

7. बाला जी बनाम नाना, 22 बाम्बे 2071

8. शान्तीलाल मेवाराम बनाम मुन्शीराम केवलराम, 56 बाम्बे 5057

कार्य जो संरक्षक रूप में नहीं किया जाता, अवयस्क को नहीं बाँधता। यह बात सिद्ध करने की है कि वह कार्य संरक्षक द्वारा संरक्षक की हैसियत में किया गया था अथवा अपनी ओर से किया गया था। प्रथम उल्लिखित अवस्था में यह अवयस्क के लिये बाध्यकारी होता है यदि इस प्रकार का कार्य संरक्षक की अधिकार-सीमा के अन्तर्गत है। किन्तु दूसरी अवस्था में वह अवयस्क के लिए बाध्यकारी नहीं होता। केवल इस बात से कि अवयस्क का नाम संविदा में अथवा विक्रय-पत्र या बन्धक में नहीं है, यह प्रमाणित नहीं होता कि वह अवयस्क की ओर से नहीं किया गया है। प्रत्येक दशा में पत्र का भाषा तथा परिस्थितियों के ऊपर विचार करना पड़ता है जिसमें ये बाते सम्पन्न की गई थी।’

अवयस्क व्यक्तिगत प्रसंविदाओं से बाध्य नहीं होता-अधिनियम की धारा 8 (1) के अन्तर्गत यह स्पष्ट कहा गया है कि संरक्षक अवयस्क को अपनी व्यक्तिगत प्रसंविदा द्वारा किसी भी रूप में नहीं बाँध सकता। संरक्षक संरक्षित को साधारण संविदा द्वारा भी नहीं बाँध सकता। प्रिवी काउंसिल ने एक वाद में यह स्पष्ट कहा कि संरक्षक अवयस्क के नाम से कोई भी ऐसी संविदा सम्पन्न नहीं कर सकता जो अवयस्क के ऊपर कोई व्यक्तिगत दायित्व आरोपित करे। किसी भी धनराशि की आज्ञप्ति की निष्पन्नता में किसी अवयस्क को बन्दी नहीं बनाया जा सकता तथा कोई भी आज्ञप्ति अवयस्क के विरुद्ध इस आधार पर जारी नहीं की जा सकती कि संरक्षक ने अवयस्क की ओर से कोई संविदा सम्पन्न की थी जिसकी निष्पन्नता के लिए अवयस्क की सम्पत्ति प्रभारित की जाय अथवा बेच दी जाय। इस विषय में फेडरल कोर्ट ने 1949 में एक निर्णय दिया था जो निम्न प्रकार से निरूपित किया जा सकता है-

(1) किसी हिन्दू अवयस्क के संरक्षक को यह अधिकार नहीं है कि वह अवयस्क के अथवा उसकी सम्पदा पर बिना किसी विधिक आवश्यकता के अथवा उसकी सम्पदा के बिना किसी लाभ के ऋण अथवा कर्ज लेकर व्यक्तिगत आभार उसके ऊपर आरोपित करे।

(2) कोई संरक्षक, यदि वह अवयस्क की सम्पदा में अवांछनीय रूप से हस्तक्षेप नहीं करने वाला है तो अवयस्क की सम्पत्ति से प्रलाभ तथा संरक्षण के लिए कोई ऐसी धनराशि कर्ज के रूप में ले सकता है जो अवयस्क की सम्पदा को प्रभारित कर सकती है।

(3) उपर्युक्त सिद्धान्त उस धनराशि के सम्बन्ध में भी अनुवर्तनीय होती है जो प्रतिभूति के आधार पर ऋण-रूप में लिया जाता है। भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 68 के अन्तर्गत उपर्युक्त सिद्धान्त का एक अपवाद भी प्रदान किया गया है। हिन्दू अवयस्कता तथा संरक्षकता अधिनियम की धारा 9 से यह बात स्पष्ट नहीं होती कि भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 9 के अन्तर्गत दिया गया नियम, हिन्द अवयस्क के सम्बन्ध में निष्प्रभ हो जाता है अथवा नहीं, किन्तु धारा 8 (2) में यह प्रदान किया गया है कि संरक्षक न्यायालय की स्वीकृति से कुछ जरूरी आवश्यकताओं के लिए अवयस्क की सम्पदा का अन्यसंक्रामण कर सकता है, इसलिये ऋणदाता न्यायालय की स्वीकृति लेकर अवयस्क की सम्पदा के विरुद्ध कार्यवाही कर सकता है।

आवश्यकताएँ क्या हैं?—वे कौन-सी आवश्यकताएँ होंगी, यह प्रमाण का विषय है। “आवश्यक वस्तुएँ वे हैं जिनके बिना कोई भी व्यक्ति उचित रूप से जीवित नहीं रह सकता। भोजन, वस्त्र, मकान तथा बौद्धिक शिक्षण एवं नैतिक तथा धार्मिक परिज्ञान जीवन के आवश्यक अंग मान जा

1. इन्दर चन्दर बनाम राधा किशोर, 19 कल० 507; नन्द प्रसाद बनाम अब्दुल अजीज, 442 8991

2. बघेल बनाम शेख ममुलिद्दीन, 11 बाम्बे 5511

3. महाराणा श्री रणवाल बनाम वादी लाल, 20 बाम्बे 61; केशव बनाम बालाज आर० 9961

4. कोन्डामखी बनाम मिनेगी : तादावरते बनाम सेनेनी (1949) 11 एफ० सा ल,

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LLB Hindu Law Chapter 7 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Chapter 7 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends SscLatestNews.Com Website एक बार फिर से आप सभी का स्वागत करती है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books अध्याय 7 दे तथा उत्तराधिकार Post 1 Study Material में पढ़ने जा रहे है |

अध्याय 7, दाय तथा उत्तराधिकार, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के सहित। (सामान्य सिद्धान्त पूर्व विधि) (Hindu Law Notes)

दाय की दो पद्धतियाँ : मिताक्षरा तथा दायभाग हिन्दू विधि के अनुसार दाय की दो पद्धतियाँ है-

(1) मिताक्षरा पद्धति एवं

(2) दायभाग पद्धति।

दायभाग-पद्धति बंगाल तथा आसाम में प्रचलित है और मिताक्षरा पद्धति भारत के अन्य प्रान्तों में प्रचलित है।

दोनों पद्धतियाँ मनु के इस कथन पर आधारित है कि “दाय सबसे निकट सपिण्ड और उसके बाद क्रम से सकुल्य, वेदाभ्यासी अथवा शिष्य को जाता है।” दायभाग में दाय का मुख्य आधार पारलौकिक हित का सिद्धान्त है, जब कि मिताक्षरा विधि में किसी खास आधार को नहीं अपनाया गया है।

मिताक्षरा में उपर्युक्त पाठ की व्याख्या में सबसे निकट रक्त सम्बन्धी को उत्तराधिकार के योग्य बताया गया है। अत: मिताक्षरा-पद्धति रक्त सम्बन्ध की निकटता पर आधारित मानी जा सकती है। यहाँ सपित्र्य (Agnate) सम्बन्धों को बन्धुओं की अपेक्षा अधिमान्यता प्रदान की जाती है। मिताक्षरा में दाययोग्य सम्पत्ति को दो भागों में विभाजित किया गया है-प्रथम, अप्रतिबन्ध दाय; द्वितीय, सप्रतिबन्ध दाय।

दायभाग-शाखा में भी मनु के पाठ के अनुसार सपिण्ड को दाय का आधार बताया गया है। किन्तु यहाँ सपिण्ड से तात्पर्य पिण्डदान करने वाले से है, अर्थात् जो मृतक को पिण्डदान कर सके। दूसरे शब्दों में, सपिण्ड वह है जो पिण्डदान दे और इस प्रकार मृतक पूर्वज को पारलौकिक लाभ कराये। यही पारलौकिक लाभ का सिद्धान्त दायभाग में दायभाग का आधार बनाया गया। दायभाग-शाखा में उपयुक्त दाय के दो विभाजनों को स्वीकार नहीं किया गया है तथा दाय को सप्रतिबन्ध दाय के रूप में ही स्वीकार किया गया है।

इस प्रकार मिताक्षरा-विधि में दाय प्राप्त करने का आधार रक्त-सम्बन्ध है; जबकि दायभाग विधि में दाय प्राप्त करने का आधार पिण्डदान है। किन्तु मिताक्षरा-विधि में भी पिण्डदान की विचारधारा को पूर्णतया उपेक्षित नहीं किया जाता है। जहाँ रक्त-सम्बन्धियों के मध्य कोई संदेहास्पद मामला उत्पन्न हो जाता है वहाँ पिण्डदान की विचारधारा से सहायता ली जाती है। मिताक्षरा-विधि में सम्पत्ति के न्यागमन के लिए दो रीतियाँ अपनाई गयीं-उत्तरजीविता एवं उत्तराधिकार, जबकि दायभाग में सम्पत्ति के न्यागमन की केवल एक ही रीति है-उत्तराधिकार। उत्तरजीविता का अर्थ है कि किसी भी सम्पत्ति का न्यागमन, गत स्वामी के सहदायिकी सम्पत्ति पर, उसकी मृत्यु के पूर्व ही अधिकार प्राप्त करना। अर्थात् ऐसी सम्पत्ति में किसी पुरुष के उत्पन्न होते ही उसको उस सम्पत्ति में अपना हक प्राप्त हो जाता था जबकि उत्तराधिकार में किसी व्यक्ति की सम्पत्ति में उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद ही स्वामित्व प्राप्त होता था।

  1. बुद्धा सिंह बनाम ललतू सिंह, 1915, पी० सी०701 (245)

मिताक्षरा-विधि के अन्तर्गत न्यागमन जैसा कि पूर्व उल्लिखित है, मिताक्षरा विधि में न्यागमन की दो रीतियाँ अपनायी गयी है-उत्तरजीविता (survivorship) तथा उत्तराधिकार (succession)। सम्पत्ति की प्रकृति के अनुसार न्यागमन निर्धारित किया जाता है। उत्तरजीविता का नियम संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू होता है तथा उत्तराधिकार का नियम गत स्वामी की पृथक् सम्पत्ति के सम्बन्ध में।

सम्पत्ति की प्रकृति सम्पत्ति दो प्रकार की हो सकती है

(1) गत स्वामी की पृथक् सम्पत्ति, अथवा

(2) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति।

निम्नलिखित रीति से प्राप्त की गई सम्पत्ति पृथक् सम्पत्ति मानी जाती है

(अ) सप्रतिबन्ध दायसाम्पाश्विक (collateral) से प्राप्त की हुई सम्पत्ति, अर्थात् भाई, भतीजा, चाचा आदि से प्राप्त सम्पत्ति सप्रतिबन्ध सम्पत्ति कहलाती है। जिस सम्पत्ति में किसी व्यक्ति का अधिकार जन्म से उत्पन्न नहीं होता, किन्तु गत स्वामी की सन्तानहीन मृत्यु के बाद अधिकार उत्पन्न होता है, उसे ‘सपतिबन्ध’ कहते हैं। इसे प्रतिबन्ध इसलिये कहा जाता है, क्योंकि सम्पत्ति का न्यागमन गत स्वामी के जीवन-काल में बाधित रहता है। दायभाग के अनुसार दाय सदैव सप्रतिबन्ध होता है।

(ब) दान (Gift)—प्रेम तथा स्नेह में पिता द्वारा दी गई कोई सम्पत्ति, चाहे वह पूर्वज की ही सम्पत्ति हो, पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी।

(स) सरकारी अनुदानसंयुक्त परिवार के किसी सदस्य को यदि सरकारी अनुदान प्राप्त हुआ है तो उसकी पृथक् सम्पत्ति होगी। किन्तु यदि अनुदान से यह प्रतिलक्षित होता है कि वह अनुदान पूरे परिवार के प्रलाभ के लिये है, तो वह पृथक् सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी।

(द) पिता द्वारा दानयदि पिता इच्छापत्र द्वारा कोई अपनी पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति किसी एक पुत्र को दे देता है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति होती है।

(य) विवाह में प्राप्त दानकिसी व्यक्ति द्वारा विवाह में प्राप्त सम्पत्ति भी पृथक् सम्पत्ति समझी जाती है।

(२) वह सम्पत्ति जिसे परिवार खो चुका हैयदि पूर्वज की कोई सम्पत्ति परिवार द्वारा खो दी गई है और उस सम्पत्ति को परिवार का कोई सदस्य स्वयं बिना परिवार की सम्पत्ति लगाये हये उसको वापस ले लेता है तो वह सम्पत्ति उस सदस्य की पृथक् सम्पत्ति हो जाती है। यदि पिता ने वापस ली है तो वह पूरी सम्पत्ति का हकदार हो जायेगा, किन्तु यदि किसी सहदायिक ने पुनप्ति की है तो वह चल सम्पत्ति की ही दशा में उसका पूर्ण अधिकारी होगा। यदि अचल सम्पत्ति है तो सहदायिक उसको वापस लाने के प्रतिफल के रूप में उसमें 1/4 अंश का ही हकदार होगा।

(ल) पृथक् सम्पत्ति से प्राप्त आय।

(व) विभाजन से प्राप्त आय।

(श) पर्वज की सम्पत्ति जो अन्यसंक्रामण के बाद संयुक्त परिवार के किसी एक सदस्य ने स्वार्जित सम्पत्ति से पुन: खरीद लिया है।

(घ) अविभाज्य सम्पत्ति तथा उसकी बचत।

(स) पृथक् आमदनी से एकत्र सम्पत्तिा

(ह) अधिगम से प्राप्त लाभ (Gains of learning)।

1. श्री महन्त गोविन्द बनाम सीताराम, 21 इलाहाबाद 531

2. बाजवा बनाम त्र्यम्बक, (1910) 34 बा० 1061

3. कृष्णजी बनाम मरु महादेव, 15 बा० 321

4. बच्चू बनाम मन्कोर बाई, 31 बा० 3731

(क्ष) ऐसे एकमात्र उत्तरजीवी सहदायिक द्वारा अधिकृत सभी सम्पत्ति, जिसके कोई विधवा न हो। इन उपर्युक्त प्रकार की सम्पत्तियों के सम्बन्ध में उत्तराधिकार का नियम लागू होता है। दायभाग में उत्तराधिकार के नियम द्वारा ही सम्पत्ति का न्यागमन होता है।

अप्रतिबन्ध दाय-पूर्वजों से प्राप्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में अप्रतिबन्ध दाय लागू होता है। इसके अन्तर्गत पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र को, यदि कोई जीवित है तो, सम्पत्तिधारक के जीवन-काल में ही सम्पत्ति में एक अंश प्राप्त करने का हक उत्पन्न हो जाता है। दूसरे शब्दों में मृतक के जीवन-काल में ही पुत्र-पौत्रादि की सम्पत्ति में एक अधिकार निश्चित हो जाता है; किन्तु विभाजन हो जाने पर पुत्र का उत्तरजीविता से प्राप्त करने का अधिकार समाप्त हो जाता है।

यहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से अभिप्राय सहदायिकी सम्पत्ति से है। इस प्रकार की सम्पत्ति को उसके स्रोत के अनुसार विभाजित किया गया है

(1) पूर्वजों की सम्पत्ति,

(2) किसी सहदायिक की पृथक् सम्पत्ति जो सामान्य सहदायिकी सम्पत्ति में सम्मिलित हो चुकी है |

उपर्युक्त दोनों प्रकार की सम्पत्तियों का न्यागमन उत्तरजीविता के सिद्धान्त के अनुसार होता है, अर्थात् जिस किसी व्यक्ति ने परिवार में जन्म लिया है, उसके जन्म लेने मात्र से उसका हक सम्पत्ति में हो जाता है। इसलिए इस प्रकार के न्यागमन को अप्रतिबन्ध दाय से उत्पन्न हुआ माना जाता है। उदाहरण के रूप में, “अ” अपने पिता से दायरूप में सम्पत्ति प्राप्त करता है। बाद में अ को पुत्र उत्पन्न हुआ। यह पुत्र अ की सम्पत्ति का जन्मतः सहदायिक हो जाता है तथा अपने पिता की सम्पत्ति में अपने पिता के साथ बराबर, अर्थात् आधे अंश का हकदार हो जाता है। यहाँ अ की सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय है, क्योंकि अ का जीवन-काल उसकी सम्पत्ति में उसके पुत्र को हकदार होने से बाधित नहीं करता।

उपर्यक्त दृष्टान्त में “अ” को कोई पुत्र न होता और केवल भाई ही होता तो उस दशा में अ की सम्पत्ति सप्रतिबन्ध दाय होती, क्योंकि “अ” की सम्पत्ति में उसके जीवन-काल तक उसका भाई कोई हक नहीं प्राप्त कर सकता था। यहाँ “अ’ का जीवन-काल उसके भाई की सम्पत्ति को प्राप्त करने में एक बाधा थी।

यह अप्रतिबन्ध दाय तथा सप्रतिबन्ध दाय का भेद केवल मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत मान्य है। दायभाग के अनुसार दाय सदैव सप्रतिबन्ध होता है।

दायभाग शाखा के अन्तर्गत न्यागमन-दायभाग शाखा के अन्तर्गत न्यागमन की एक ही रीति बताई गई है-वह है उत्तराधिकार। इस शाखा द्वारा उत्तरजीविता के नियम को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के सम्बन्ध में भी मान्य नहीं बताया गया। दायभाग में संयुक्त परिवार का सदस्य अपने अंश को पृथक् रूप में रखता है, अर्थात् गत स्वामी की मृत्यु के बाद सम्पत्ति उसके उत्तराधिकारियों को, चाहे वे पुरुष हों अथवा स्त्रियाँ, दायरूप में प्राप्त होती थी। उत्तरजीविता तथा उत्तराधिकार-उत्तराधिकार में किसी व्यक्ति की सम्पत्ति में उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद ही स्वामित्व प्राप्त होता था। उस व्यक्ति की मत्य के पहले उसकी सम्पत्ति में कोई हक किसी को प्राप्त नहीं होता था, जब कि उत्तरजीविता में उत्तरजीवी को गत स्वामी की मृत्यु के पहले ही हक प्राप्त हो जाता है। गत स्वामी की मत्य से केवल एक हिस्सेदार ही कम होता है और जिसस उत्तरजीवी के पूर्व हक में अभिवृद्धि हो जाती है, न कि उसका कोई नया हक उत्पन्न हो जाता है।

  1. सूर्य प्रकाश राव बनाम गोविन्द राजुलु, (1957) 69 मद्रास ए० डब्ल्यू

(1) अ तथा ब दो भाई हिन्दू विधि की मिताक्षरा शाखा से प्रशासित संयुक्त परिवार के सदस्य हैं। अ एक पुत्री छोड़कर मर जाता है। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अ का अंश उसके उत्तरजीवी भाई ब को चला जायेगा न कि उसकी पुत्री को; किन्तु यदि अ तथा ब पृथक् होते तो अ की सम्पत्ति उसकी पुत्री को दायरूप में प्राप्त होती न कि भाई को।

 (2) अ तथा ब दो भाई दायभाग-शाखा में प्रशासित संयुक्त तथा अविभक्त परिवार के सदस्य हैं। अ अपनी विधवा पत्नी तथा भाई को छोड़कर मर जाता है। यहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अ का अंश उसकी विधवा पत्नी को उत्तराधिकार द्वारा प्राप्त होगा न कि उसके भाई को।

मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का न्यागमन (पूर्व-विधि)-मिताक्षरा विधि से प्रशासित हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति के न्यागमन की रीति को निर्धारित करने के लिए निम्नलिखित तथ्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है-

(1) जहाँ मृतक अपनी मृत्यु के समय अविभक्त तथा संयुक्त परिवार का सदस्य है जिसको पारिभाषिक रूप से “सहदायिकी’ कहा जा सकता है, वहाँ उसका अविभक्त हक उसके सहदायिक की उत्तरजीविता के सिद्धान्त के अनुसार हिन्दू स्त्रियों के सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार अधिनियम के उपबन्धों को छोड़कर न्यागत होगा।

(2) (अ) यदि मृतक मृत्यु के समय संयुक्त परिवार का सदस्य था और उसने पृथक् भाग अथवा स्वार्जित सम्पत्ति छोड़ रखा है तो वह सम्पत्ति उत्तराधिकार से उसके उत्तराधिकारियों को चली जायेगी न कि सहदायिकों को।

(ब) यदि मृत्यु के समय मृतक एकमात्र उत्तरजीवी था, तो उसकी समस्त सम्पत्ति, जिसमें सहदायिकी सम्पत्ति भी शामिल है, उसके उत्तराधिकारियों के उत्तराधिकार में चली जाती थी।

(स) यदि मृतक मृत्यु के समय सहदायिकी से पृथक् था, तो उसकी समस्त सम्पत्ति उत्तराधिकार से उत्तराधिकारियों में चली जाती थी।

(3) यदि मृतक मृत्यु के समय पुनः संयुक्त हो गया है तो उस दशा में भी उसकी सम्पत्ति उत्तराधिकार से उत्तराधिकारियों में चली जाती थी। उत्तराधिकार का क्रम-मृतक के उत्तराधिकारियों में उत्तराधिकार निम्नलिखित क्रम से निर्धारित किया जाता था-

(1) सपिण्ड (विशेष अर्थ में) अर्थात् गोत्रज सपिण्ड,

(2) समानोदक,

(3) बन्धु,

(4) आचार्य,

(5) शिष्य तथा अन्त में

(6) राज्य।

दायभाग विधि के अन्तर्गत उत्तराधिकार

दायाभाग विधि के अन्तर्गत उत्तराधिकार के क्रम के सम्बन्ध में दो महत्वपूर्ण विशेषताएँ हैं-

(1) मृतक को पारलौकिक प्रलाभ देने की क्षमता,

1. कटमा नाचियार बनाम राज्य ऑफ शिवगौन, (1863) 9 एम० आई० ए० 5431

2. नागलक्ष्मी बनाम गोपूनादराज, (1856) 6 एम० आई० 2091

3. टेकैत दर्गा प्रसाद बनाम दुर्गा कुवाँरी, (1878) 4 कल० 1901

(2) उत्तराधिकार की एक ही रीति।

(1) मृतक को पारलौकिक प्रलाभ देने की क्षमतादायभाग विधि के अन्तर्गत उत्तराधिकार का वही अधिकारी हुआ करता था जिसको मृतक के लिए पारलौकिक प्रलाभ देने की धार्मिक क्षमता प्राप्त है। इस प्रकार दायभाग में दाय प्राप्त करने का आधार मृतक को पारलौकिक उपलब्धि कराना है। यहाँ पारलौकिक उपलब्धि से तात्पर्य मृतक का प्रवण श्राद्ध करना है। बारह प्रकार के श्राद्धों में प्रवण श्राद्ध को सबसे अधिक महत्व प्रदान किया जाता है। श्राद्ध करने वाला व्यक्ति तीन प्रकार से मृतक को वस्तुएँ अर्पित करता है-

(1) पिण्ड।

(2) पिण्डलेप (पिण्डलेप से तात्पर्य पिण्ड के उस अंश से है जो पिण्डदान के पश्चात् पिण्डदान करने वाले के हाथ में लगा रह जाता है)।

(3) जलदान।

पिण्डदान केवल सपिण्डों द्वारा ही दिया जाता है, पिण्डलेप सकुल्यों द्वारा तथा जलदान समानोदकों द्वारा दिया जाता है।

(2) उत्तराधिकार की एक ही रीति-दायभाग में उत्तराधिकार की केवल एक ही रीति बताई गई है। उत्तराधिकार का अधिकार न तो जन्मत: तथा न उत्तरजीविता से ही प्राप्त था। दाय का नियम इस बात से निर्धारित किया जाता था कि परिवार विभक्त था अथवा अविभक्त, संयुक्त सम्पत्ति थी अथवा पृथक्।

उत्तराधिकार के वर्ग मृतक को तीन प्रकार की वस्तुएँ देने के अनुसार दाय विधि में उत्तराधिकारियों का निर्धारण किया जाता था और इस प्रकार उत्तराधिकारियों को तीन कोटियों में विभाजित किया गया जो इस प्रकार थे

(1) सपिण्ड।

(2) सकुल्य।

(3) समानोदक।

इसके अतिरिक्त चौथी श्रेणी अवशिष्ट उत्तराधिकारियों की थी, जिनमें निम्नलिखित उत्तराधिकारी आते थे-

(अ) आचार्य।

(ब) शिष्य।

(स) सहपाठी।

(द) सम्पत्ति का राजगामी होना।।

दाय प्राप्त करने के लिए निर्योग्यताएँ

डॉ० जोली के अनुसार जो व्यक्ति कार्य करने के अयोग्य हो गये हैं, भौतिक, पारलौकिक अथवा नैतिक अयोग्यताओं के कारण वे दाय प्राप्त करने से अपवर्जित किये जाते हैं। दुष्कर्मों को करने वाला तथा जाति से च्युत व्यक्ति सामाजिक आधारों पर दाय प्राप्त करने से अपवर्जित किया जाता था। यह कहना कि दाय प्राप्त करने की निर्योग्यता धार्मिक भावनाओं पर आधारित थी, निराधार है।।

मनु का कहना है कि “नपुंसक, पतित, जन्मान्ध, बधिर, पागल, जड़, गूंगा तथा इन्द्रियशून्य व्याक्त सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते।”1 अन्य स्मृतिकारों ने भा इसा

कार

1. अनंशौ क्लीवपतितौ जात्यन्धवधिरौ तथा उन्मत्तजड़मूकाश्च ये च काचिन्निरिन्द्रियाः।। मनु० 9।। 201।।

दाय प्राप्त करने को वियोग्यताको का उल्लेख किया है। मामय का कथन है कि जाति से बाहित तथा उसका ससक पुर रागल, जड असा असाथ रोग से पीड़ित व्यजित दाय नहीं प्राप्त कर सकते. किन्तु के भरण-पोषण के कारोह

कोई उतराधिकारी निम्नलिखित निर्योग्ताओ के आधार पर दे प्राप्त करने से अपराजित किया जाता था-

  • शारीरिक नियोग्यताको
  • मानसिक  नियोग्यसायो
  • नैतिक निर्योग्ताये
  • धार्मिक निर्योग्तायें
  • साम्या पर आधारित नियोग्यताको

1. शारीरिक नियोग्यताये के पास जे किसी शारीरिक नियोग्यता, जैसे-जन्मजात अन्धापन, जन्मजात बाधिरता, जन्मजात गंगापन को धारण करते है. वेदाय प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते। इसी प्रकार के अति जो जन्म से लंगडे अपना अंगहीन अथवा नपुंसक है या किसी ऐसे असाध्य व्याधि, जैसे- और एवं कृत्सित प्रकार के कह रोग आदि से पीड़ित होते है, दाय प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते उपजत सभी नियोग्यताये जब जन्मजात तथा असाध्य रूप से विद्यमान होती है तभी दाय प्राप्त करने में बाधक होती है। समस्त नियोग्यताये बाद में हिन्दु दाय (नियोग्यता निवारण) अधिनियम 1928 द्वारा समाप्त कर दी गई जिसके परिणामस्वरूप इन उपर्युक्त आधारों पर कोई व्यक्ति दाय से बचित नहीं किया जा सकता है।

2) मस्तिष्कीय नियोग्यतायें-इसके अन्तर्गत जन्मजात जड़ता एवं पागलपन आता है। पागलपन का जन्मजात अथवा असाध्य होना आवश्यक नहीं था। यदि कोई व्यक्ति दाय प्राप्त करने के समय पागल होता था तो वह दाद प्राप्त करने का अधिकारी नहीं रह जाता था। मिताक्षरा विधि में जन्मजात पागलपन जन्मना पिता को पैतृक सम्मति पर दाय-सम्बन्धी अधिकार को समाप्त कर देता था। जड़ता सदैव जन्मजात होती है। जड़ता अथवा पागलपन जब गम्भीर प्रकार की होती थी तभी कोई व्यक्ति दाय के अधिकार से वाचत होता था। हिन्दू दाद नियोग्यता निवारण अधिनियम, 1928 के अन्तर्गत पागलपन त्था जड़ता को निर्योग्यता के रूप में लागू होने के लिए उनका जन्मजात होना आवश्यक बना दिया गया।

(3) नैतिक निर्योग्यतायें इस प्रकार को नियोग्यता में स्त्री के असतीत्व होने की दशायें आती थीं। मिताक्षरा विधि में मृतक की विधवा पत्नी असाध्वी होने के आधार पर दाय प्राप्त करने से वंचित कर दी जाती थी। किन्तु मृत व्यक्ति की सम्पदा यदि एक बार विधवा में निहित हो जाती थी और वह पति की मृत्यु तक साध्वी रहती थी तो बाद को असाविता उसको उस सम्पदा से अनिहित कर देगी दायभाग में असाविता के आधार पर विधवा पत्नी, पुत्रियाँ एवं माता को भी दाय प्राप्त करने के अधिकार से वंचित कर दिया जाता था।

जहाँ एक अवयस्क विधवा पत्नी जो अपने मृत पति से दाय में सम्पदा प्राप्त कर लेती है और पति के भाई द्वारा इस उद्देश्य से असाध्वी होने के लिए प्रलुब्ध की जाती है जिससे वह उसको असाध्वी बनाकर स्वयं उसके मृत पति की सम्पदा का अधिकारी बन सके, न्यायालय ने यह निर्णय किया कि

  1. पतितस्तत् सतः क्लीव: पंगुरुन्मत्तको जडः। अन्थ्यो चिकित्सरोगाः भर्तव्यास्ते निरंशका।। याज्ञ०॥
  2. 2 फकीरनाथ बनाम कृष्णचन्द्र नाथ, ए० आई० आर० 1954 उड़ीसा 1761
  3. 3. बलदेव बनाम मथुरा, 33 इला० 7021
  4. 4. गजाधर बनाम ऐलू, 36, बा० 1381
  5. 5. रामानन्द बनाम रामकिशोरी, 22 कलकत्ता 3471

ऐसी परिस्थिति में वह सम्पदा का अधिकारी बनने से रोका जायेगा तथा उसको अपने निजी अपकार से लाभ उठाने का अवसर नहीं दिया जायेगा।

(4) धार्मिक निर्योग्यतायें-जब कोई व्यक्ति जाति से च्युत हो जाता था अथवा धर्म-परिवर्तन कर लेता था तो वह भी दाय प्राप्त करने से वंचित हो जाता था। इसके अतिरिक्त संसार को त्याग कर संन्यास अथवा वैराग्य ग्रहण करने की दशा में भी कोई व्यक्ति दाय नहीं प्राप्त कर सकता था। वस्तुत: संन्यास ग्रहण करने पर उस व्यक्ति की व्यावहारिक दृष्टि से मृत्यु मान ली जाती थी। किन्तु जाति निर्योग्यता निवारण अधिनियम, 1850 द्वारा जातिच्यत एवं धर्म-परिवर्तन के आधार पर उत्पन्न होने वाली निर्योग्यतायें समाप्त कर दी गयीं।

(5) साम्या पर आधारित निर्योग्यतायेंमतक की हत्या करने वाला व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का अधिकारी नहीं रह जाता। यदि मृतक की हत्या करने वाला हिन्दू-विधि के अन्तर्गत मृतक की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने के अयोग्य नहीं ठहराया गया है तो भी न्याय, साम्या एवं सद्विवेक के आधार पर वह इस प्रकार दाय प्राप्त करने के निर्योग्य करार दिया गया था। हत्या करने वाला व्यक्ति न तो स्वयं न उसके माध्यम से कोई अन्य व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है।

इस बात की अभिपुष्टि अभी हाल में वल्ली कानू बनाम आर० सिंगा पेरूमल के मामले में की गई। उपरोक्त मामले में अ ने अपने पिता की हत्या कर दी थी। हत्या करने के कारण वह अपने पिता की सम्पत्ति प्राप्त करने से वंचित हो गया था। उस सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिये अ की पत्नी ङ्केने न्यायालय में इस बात के लिये वाद संस्थित किया कि वह अपने श्वसुर की ऐसी सम्पत्ति प्राप्त करने की अधिकारी है जो उसके पति को मिलना था। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने साम्या के आधार पर यह अभिनिर्धारित किया कि उसकी पत्नी व उसके माध्यम से अन्य कोई व्यक्ति मृतक की सम्पत्ति दाय में प्राप्त करने का अधिकारी नहीं होगा।

किन्तु हत्या करने वाले का पुत्र, यदि जन्म से ही मृतक की सम्पत्ति में हक रखता है तो ऐसी स्थिति में वह उत्तराधिकार प्राप्त करने के अयोग्य नहीं हो जाता। कोई व्यक्ति किसी ऐसे व्यक्ति से भी दाय नहीं प्राप्त कर सकता था जिसके साथ उसके जीवन-काल में लड़ाई-झगड़ा करता रहा है तथा दुर्भावना रखता रहा है।

निर्योग्यता व्यक्तिगत होती थी। निर्योग्य व्यक्ति की औरस सन्तान दाय से वंचित नहीं होती थी। किन्तु जातिच्युत एवं हत्या करने वाले व्यक्तियों की सन्तान दाय एवं उसके माध्यम से दाय का दावा करने वाला व्यक्ति भी दाय से वंचित होते थे। निर्योग्य व्यक्ति का दत्तक-पुत्र केवल भरण-पोषण का अधिकारी होता था।

निर्योग्य व्यक्ति केवल दाय प्राप्त करने से वंचित होते थे। भरण-पोषण पाने का अधिकार उसका यथावत् बना रहता था। निर्योग्य व्यक्ति को दाय में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति जिस व्यक्ति को मिलती थी, वह निर्योग्य व्यक्ति को भरण-पोषण देने का उत्तरदायी होता था।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 24 तथा 25 के अन्तर्गत दाय प्राप्त करने के लिए अपवर्जित करने के लिए कुछ आधारों का विवेचन किया गया है। धारा 28 में यह भी कहा गया है कि किसी रोग, दोष अथवा अंगहीनता के आधार पर कोई व्यक्ति दाय से अपवर्जित नहीं किया जायेगा।

1. चिन्दू बनाम मु० चन्दो, ए० आई० आर० 1951 शिमला 2021

2. ए० आई० आर० 2005 एस० सी०25871

3. नकछेद सिंह बनाम विजय बहादुर सिंह, ए० आई० आर० 1953 इला० 7591

4. मुकुन्दी बनाम जर्मनी, 73 आई०सी० 751

5. नकछेद सिंह बनाम विजय बहादुर सिंह, ए० आई० आर० 1953 इला० 7591

(व) उत्तराधिकार (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956) (LLB Hindu Law Study Material)

परिचय-हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 ने उत्तराधिकार के सम्बन्ध में एक क्रान्तिकारी विचारधारा को जन्म दिया। यद्यपि न्यायिक निर्णयों के माध्यम से पूर्व हिन्दू विधि में महत्वपूर्ण परिवर्तनो की दिशा में प्रयास होते रहे हैं तथा अनेक बार उसमें परिवर्तन लाये गये, फिर भी आवश्यकता इस बात की बनी रही कि हिन्दू उत्तराधिकार की वर्तमान विधि को संहिताबद्ध किया जाये।

हिन्दुओं की सम्पत्ति-सम्बन्धी विधि में किसी न किसी प्रकार के सुधार की आवश्यकता बहुत पहले से ही अनुभव की जा रही थी। सन् 1937 में हिन्दू नारी के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम के पास हो जाने पर सरकार ने राव-कमेटी को इसी उद्देश्य से नियुक्त किया था। कमेटी ने हिन्द्र उत्तराधिकार विधि का अध्ययन करने के बाद यह निर्णय दिया कि हिन्दू नारी अथवा पुत्रियों के प्रति अन्यायपूर्ण विचारधारा को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक है कि इसमें सुधार लाये जायें तथा समस्त हिन्दू विधि संहिताबद्ध की जाय। किन्तु कमेटी का यह मत था कि विधि को संहिताबद्ध धीरे-धीरे किया जाय जिससे विधि में आधुनिकता को उचित रूप से नियोजित किया जा सके।

राव-कमेटी के द्वारा स्वीकृत नीति के आधार पर अनेक अधिनियम पास किये गये जिनमें हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 सबसे महत्वपूर्ण अधिनियम है। सुधारवादी दृष्टिकोण को चरम सीमा का उदाहरण हमें इस अधिनियम में प्राप्त है।

उद्देश्य-हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 वस्तुत: एक प्रगतिशील समाज को आवश्यकताओ तथा माँग को पूरा करने के लिए पास किया गया। पूर्व हिन्दू विधि अनेक पाठो तथा न्यायिक निर्णयों पर आधारित होने के कारण ग्राह्य नहीं रह गयी थी। इसीलिये आवश्यकता इस बात की थी कि विधि की एक सर्वमान्य पद्धति अपनायी जाय जो समस्त सम्प्रदाय के हिन्दुओं के लिए ग्राह हो तथा सभी के लिये समान रूप से अनुवर्तनीय हो। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए इस अधिनियम का जन्म हुआ। इस अधिनियम में पुरुष तथा स्त्रियों में पूर्वप्रचलित असमानता को दूर करके उत्तराधिकारियो को एक सूची प्रदान की गई जो अत्यन्त ही न्यायसंगत है। इस अधिनियम को उत्तराधिकार से सम्बन्धित विधि में संशोधन एवं परिवर्तन लाने के लिए पास किया गया।

अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ–(1) अधिनियम सभी हिन्दू, बौद्ध, जैन, सिक्ख के लिये लाग होता है। यह उन व्यक्तियों के लिये भी अनुवर्तनीय है जिनके पिता-माता मे कोई एक हिन्दू बौद्ध, जैन अथवा सिक्ख है।

(2) अधिनियम ऐसे व्यक्तियों की सम्पत्ति के लिए भी लागू नहीं होता, जिनके विवाह के लिये विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के उपबन्ध लागू होते है।

(3) अधिनियम मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति के लिए भी लागू नहीं होता, यदि सहदायिक अनसची (1) में उल्लिखित किसी स्त्री नातेदार अथवा ऐसे खी नातेदार के माध्यम से दावा करने वाले प) नातेदार को छोड़कर मरता। यह उल्लेखनीय है कि मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति की पुरी भाग अधिनियम की धारा 6 से प्रभावित हुई है। यदि अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित आठ धिकारियों में से एक को छोड़कर कोई हिन्दू मर जाता है तो उसका सहदायिकी अंश मीलिता के आधार पर नहीं वरन् इस अधिनियम के अनुसार न्यागत होगा जिसके अन्तर्गत खो यादों को समान अंश प्राप्त करने का अधिकार होगा। वस्तुतः मिताक्षरा सहदायिकी का न ही धारा 6 के द्वारा समाप्त कर दिया गया है। मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति का ता के सिद्धान्त के अनुसार केवल पुरुष दायादो में ही होता था, किन्तु अब प्रस्तुत नत स्त्री नातेदार को भी उसमें हक प्रदान कर दिया गया है।

(4) उत्तराधिकार का क्रम, प्रेम तथा स्नेह के आधार पर निश्चित किये गये। पूर्व विधि के अन्तर्गत उल्लिखित रक्त-सम्बन्ध अथवा पिंडदान के आधार पर उत्तराधिकारी निश्चित करके का नियम, जो

मिताक्षरा तथा दायभाग शाखाओं में प्रचलित था, समाप्त कर दिया गया।

(5) अधिनियम में अधिमान्यता के बहुत सरल नियम अपनाये गये तथा जहाँ अधिमान्यता नहीं निर्धारित की जा सकती है, वहाँ उत्तराधिकारी एक ही साथ सम्पत्ति ग्रहण करते हैं।

(6) अधिनियम में दूर के भी सपित्र्यों एवं साम्पार्शिवकों को उत्तराधिकारी बनने का अवसर प्रदान किया गया। सपित्र्यों तथा सांपाश्विकों में उत्तराधिकार का क्रम डिग्री के अनुसार निर्धारित किया गया।

(7) एक हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार का एक समान क्रम प्रदान किया गया। कुछ परिवर्तन मरुमक्कत्तायम तथा अलियसन्तान विधि में लाये गये।

(8) दक्षिण की मातृ-प्रधान पद्धति में प्रचलित उत्तराधिकार से सम्बन्धित विभिन्न अधिनियमों को इस अधिनियम के अन्तर्गत निरस्त कर दिया गया है।

(9) अधिनियम में हिन्दू नारी की सीमित सम्पदा की विचारधारा को समाप्त कर दिया गया। जो भी सम्पत्ति अब किसी नारी को दाय में अथवा किसी भी वैध तरीके से प्राप्त होगी अथवा समस्त सम्पत्ति जो इस अधिनियम में लागू होने के दिन उसके आधिपत्य में होगी उन पर उसको पूर्ण स्वामित्व प्रदान कर दिया गया।

(10) हिन्दू नारी की पूर्ण सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार का एक समान क्रम प्रदान किया गया। यदि कोई स्त्री सम्पत्ति छोड़कर निर्वसीयत मरती है, तो उसकी सन्तान उसकी प्राथमिक उत्तराधिकारी होगी, उसके बाद पति तथा पिता-माता क्रम से होंगे। सन्तान न होने पर उसकी वह सम्पत्ति जो पिता से प्राप्त की गई थी, पिता को अथवा पिता के दायादों को चली आयेगी तथा पिता एवं श्वसुर से प्राप्त सम्पत्ति पति को अथवा उसके दायादों को प्राप्त हो जायेगी।

(11) सहोदर अथवा सगे सम्बन्धी सौतेले अथवा चचेरे सम्बन्धी को अपवर्जित करेंगे।

(12) जहाँ दो या दो से अधिक व्यक्ति किसी निर्वसीयती सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं, वे अपने अंश को व्यक्तिपरक न कि पितापरक रीति से सह-आभोगी के रूप में प्राप्त करेंगे।

(13) जहाँ किसी व्यक्ति की निर्वसीयती सम्पत्ति दो या दो से अधिक उत्तराधिकारियों को न्यागत होती है और उनमें से कोई एक व्यक्ति उस प्राप्त सम्पत्ति को बेचना चाहता है, तो दूसरे उत्तराधिकारी को यह अधिकार प्राप्त है कि वह उन व्यक्तियों की अपेक्षा उस सम्पत्ति की प्राप्ति में अधिमान्य समझा जाय। इस प्रकार अधिनियम के पूर्वक्रय (pre-emption) का अधिकार मान्य समझा गया। (धारा 22)।

(14) अधिनियम में विधवा, अविवाहिता स्त्री तथा पति द्वारा परित्यक्त अथवा पृथक् हुई स्त्री को अपने पिता के घर में रहने का अधिकार प्रदान किया गया है।

(15) रोग, दोष तथा अंगहीनता किसी व्यक्ति को दाय प्राप्त करने से अपवर्जित नहीं करती। दाय अपवर्जन के आधार पर अब बदल दिये गये हैं। किसी व्यक्ति की हत्या करने वाला उस हत व्यक्ति की सम्पत्ति को उत्तराधिकार में पाने से अपवर्जित कर दिया गया है। इसी प्रकार विधवा स्त्री यदि उत्तराधिकार के अधिकार के प्रारम्भ होने के दिन पुनर्विवाह कर लेती है तो वह भी उत्तराधिकार के निर्योग्य हो जाती है। इसी प्रकार धर्म-परिवर्तन किये हुए हिन्दू का वंश भी दाय प्राप्त करने के निर्योग्य हो जाता है।

(16) अधिनियम के अनुसार कोई भी हिन्दू (पुरुष) सहदायिकी सम्पत्ति में अपने हक को वसीयत द्वारा हस्तान्तरित कर सकता है।

अधिनियम का क्षेत्र तथा विस्तार-भारत के सभी हिन्दुओं के लिये यह अधिनियम लागू किया गया है। भारत के रहने वाले हिन्दुओं के सम्बन्ध में अन्तर्राष्ट्रीय विधि के नियम लागू होते हैं। न्यायालय इस अधिनियम के क्षेत्र के अन्तर्गत आने वाले सभी हिन्दुओं के सम्बन्ध में इसके नियमों को लागू करेंगे।

कुछ पदों की व्याख्या अधिनियम की धारा 3 के अनुसार निम्नलिखित ढंग से की जा सकती है-

सपित्र्य तथा बन्धु (Agnate and Cognate)–सपित्र्य वह व्यक्ति होता है जो (1) रक्त से सम्बन्धित होता है, या (2) दत्तक ग्रहण से सम्बन्धित होता है, किन्तु (3) पूर्णतया पुरुष वर्ग से सम्बन्धित होता है; जब कि बन्धु वह व्यक्ति होता है जो (1) रक्त से सम्बन्धित होता है, अथवा (2) दत्तक-ग्रहण से सम्बन्धित होता है किन्तु (3) पूर्णतया पुरुष वर्ग से सम्बन्धित नहीं होता। सपित्र्य से सम्बन्धित पसल तथा स्त्री हो सकते हैं और यही बात बन्धु के साथ भी लागू होती है। जहाँ कोई व्यक्ति मृतक से एक अथवा एक से अधिक स्त्रियों के द्वारा सम्बन्धित होता है, उसको बन्धु कहा जाता है। बन्ध पर्णतया स्त्रियों के द्वारा अनिवार्य रूप से सम्बन्धित नहीं होता। इस प्रकार पुत्र के पुत्री का पुत्र अथवा पुत्री. बहन का पुत्र अथवा पुत्री, माता के भाई का पुत्र बन्धु होते हैं जबकि पिता, पितामह इत्यादि चाचा. चाचा का पुत्र बन्धु श्रेणी में, पुत्र, पौत्र वंशज श्रेणी में सपित्र्य होते हैं।

प्रथायें तथा रूढ़ियाँइन पदों का प्रयोग अधिनियम में जहाँ कहीं किया गया है, वह उसी अर्थ में किया गया है जिस अर्थ में हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में किया गया है। प्रथायें प्राचीन, निश्चित तथा न्यायसंगत होनी चाहिये।

इस सम्बन्ध में छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि यदि अनुसूचित जनजाति के बीच उत्तराधिकार के सम्बन्ध में प्रथायें मौजूद हों और वह अपनी प्रथा के अन्तर्गत ही सम्पत्ति का बँटवारा करते हों वहाँ इस अधिनियम के प्रावधान उनके बीच लागू नहीं होंगे।

उत्तराधिकारी-उत्तराधिकारी से तात्पर्य उन व्यक्तियों से है जो इस अधिनियम के अन्तर्गत किसी निर्वसीयती सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करने के अधिकारी हैं।

निर्वसीयती-कोई व्यक्ति निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मरा हुआ माना जाता है यदि उसने अपनी सम्पत्ति का वसीयती निर्वर्तन नहीं किया है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को वसीयती निर्वर्तन करने का अधिकार रखता है। वसीयती निर्वर्तन करने पर सम्पत्ति इच्छापत्र के अनुसार न्यागत होती है। यदि इच्छापत्र किसी अवैध उद्देश्य से लिखा गया है तो वह विधि द्वारा बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखेगा। अत: आवश्यकता इस बात की है कि इच्छापत्र प्रभावकारी हो अन्यथा इच्छापत्र के शून्य होने पर वह व्यक्ति निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरा हुआ समझा जायेगा।

सम्बन्धित सम्बन्धित से अर्थ है कि वैध बन्धुता से सम्बन्धित बन्धुता जो रक्त से अथवा (हिन्दू विधि में) दत्तक-ग्रहण से स्थापित होती है। इस परिभाषा के साथ एक उपबन्ध है, अवैध सन्तान केवल माता से ही सम्बन्धित मानी जाती है तथा वे एक-दूसरे से सम्बन्धित होते हैं तथा उनकी वैध सन्तान माता-पिता दोनों से सम्बन्धित मानी जाती है। अवैध सन्तान अपने पिता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी किसी भी दशा में नहीं हो सकती। माता ही उसका वंशक्रम मानी जाती है तथा उससे ही सम्बन्ध प्रतिष्ठित होता है। अवैध सन्तानों का सम्बन्ध केवल एक ही पीढ़ी तक माना जाता है, उसका उससे अधिक पीढ़ी के पूर्वजों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं माना जाता। उनका अपनी माता, बहन तथा भाई के साथ का सम्बन्ध बना रहता है।

अलियसन्तान विधि-अलियसन्तान विधि का तात्पर्य उस विधि से है जो उन व्यक्तियों पर लाग होती है जो यदि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम न पारित हुआ होता तो मद्रास अलियसन्तान अधिनियम, 1949 द्वारा अथवा प्रथागत विधि द्वारा उन विषयों के सम्बन्ध में प्रशासित होते जिनके लिए उत्तराधिकार अधिनियम में उपबन्ध किया गया है। यह विधि मातृ-पक्ष प्रधान विधि है जो दक्षिण भारत के कुछ क्षेत्रों में प्रचलित है। इसमें दाय का अधिकार माता के सम्बन्ध के अधिकार पर निर्भर करता था। उत्तराधिकार अधिनियम ने इस विधि को अत्यधिक सीमा तक प्रभावित किया है। 1. श्रीमती बुटकी बाई बनाम सुखवती व अन्य, ए० आई० आर० 2014 छत्तीस० 110.

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LLB Hindu Law Chapter 7 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Chapter 7 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hello Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books Notes Chapter 7 दे तथा उत्तराधिकार Post 2 Study Material पढ़ने जा रहे है |

सगा, सौतेला एवं सहोदर (Full blood, half blood and uterine blood) (Hindu Law Study Material in Hindi)

(अ) कोई दो व्यक्ति एक-दूसरे के सगे-सम्बन्धी तब कहलाते हैं जब कि वे एक ही पूर्वज तथा उसकी एक ही पत्नी की सन्तान हों।

(ब) कोई दो व्यक्ति एक-दूसरे के सौतेले सम्बन्धी तब होते हैं जब कि वे एक ही पूर्वज किन्तु उसकी भिन्न पत्नियों से उत्पन्न हुए हों।

(स) एक-दूसरे के सहोदर सम्बन्धी तब होते हैं जब कि वे एक ही पूर्वजा से किन्तु उसके भिन्न पतियों से उत्पन्न हुए हों।

यहाँ पूर्वज शब्द से पिता एवं पूर्वजा से माता का तात्पर्य है। इस अधिनियम में सहोदर सम्बन्धियों को जो मान्यता प्रदान की गई है, वह हिन्दू विधि में एक नयी बात है। सहोदर सम्बन्धियों को मान्यता प्रदान करने की आवश्यकता हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में विवाह-विच्छेद एवं पुनर्विवाह के अधिकार के प्रावधान को प्रदान करने का परिणाम है। विवाह-विच्छेद के बाद पत्नी दूसरा विवाह कर सकती है। उसके पहले विवाह तथा दूसरे विवाह की सन्ताने परस्पर सम्बन्धित होंगी और उनका यह सम्बन्ध ‘सहोदर’ होगा।

मरुमक्कत्तायम विधि-मरुमक्कत्तायम विधि का उस विधि से तात्पर्य है जो उन व्यक्तियों पर लागू होती है जो यदि उत्तराधिकार अधिनियम न पारित हुआ होता तो मद्रास मरुमक्कत्तायम अधिनियम, 1932, त्रावनकोर नायर अधिनियम, त्रावनकोर ईजवर अधिनियम, त्रावनकोर नान्जिनाड वेल्लाला अधिनियम, त्रावनकोर क्षत्रिय अधिनियम, त्रावनकोर कृष्णवह मरुमक्कत्तायी अधिनियम और कोचीन मरुमक्कत्तायम अधिनियम द्वारा उन विषयों के सम्बन्ध में प्रशासित होते जिनके लिए उत्तराधिकार अधिनियम द्वारा उपबन्ध किया गया है अथवा जो ऐसे समुदाय का है जिसके सदस्य अधिकतर त्रावनकोर कोचीन अथवा मद्रास राज्य के अधिवासी हैं और यदि यह अधिनियम पास न हुआ होता तो उन विषयों के सम्बन्ध में जिनके लिए अधिनियम द्वारा उपबन्ध किया गया है, दाय में ऐसी पद्धति से प्रशासित होते जिनमें वंशानुक्रम स्त्री की वंश-परम्परा से गिना जाता है, किन्तु इसके अन्तर्गत अलियसन्तान विधि सम्मिलित नहीं है।

नम्बूदरी विधि-नम्बूदरी विधि का उस विधि से तात्पर्य है जो कि यदि उत्तराधिकार अधिनियम न पास हुआ होता तो उन विषयों के सम्बन्ध में, जिनके लिए उत्तराधिकार अधिनियम में उपबन्ध किया गया है, मद्रास नम्बूदरी अधिनियम, 1932, कोचीन नम्बूदरी अधिनियम या त्रावनकोर मलापल्ल ब्राह्मण अधिनियम द्वारा प्रशासित होते। यह विधि भी मद्रास तथा त्रावनकोर के एक वर्ग के लोगों की रूढ़िगत विधि थी जो उपर्युक्त अधिनियम द्वारा संहिताबद्ध कर दी गयी थी। वर्तमान उत्तराधिकार अधिनियम के अभाव में उन व्यक्तियों पर उपर्युक्त अधिनियमों में वर्णित विधि लागू होती है।

अधिनियम का सर्वोपरि प्रभाव-धारा 4 के अनुसार इस अधिनियम में अन्यथा उल्लिखित उपबन्ध को छोड़कर-

(1) (क) हिन्दू विधि का कोई पाठ, नियम या निर्वचन या उस विधि की अंशरूप रूढ़ि अथवा प्रथा जो इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के ठीक पूर्व प्रवृत्त थी, ऐसी बात के बारे में प्रभाव-शून्य हो जायेगी जिसके लिए कि इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है।

(ख) कोई अन्य विधि जो इस अधिनियम के प्रारम्भ से अव्यवहित पूर्व प्रवृत्त थी, उस सीमा तक हिन्दुओं को नहीं लागू होगी जहाँ तक कि वह इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट उपबन्धों में से किसी से असंगत है।

(2) शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट किसी भी बात से यह नहीं समझा जायेगा कि वह कृषक जोत के खण्डीकरण (Fragmentation of agricultural holding) के निवारण के लिए अथवा जोत की अधिकतम सीमा को नियत करने के

लिए अथवा जोत-अधिकारों के न्यागमन के लिए उपबन्ध करने वाली प्रचलित विधि को प्रभावित करेगी। इस प्रकार वे सभी प्रथायें अथवा रूढ़ियाँ, पाठ तथा नियम जो वर्तमान अधिनियम के विपरीत तथा उससे असंगत हैं, अधिनियम द्वारा निरस्त कर दिये गये हैं। अधिनियम द्वारा ज्येष्ठाधिकार का नियम, जो पहले प्रचलित था, समाप्त कर दिया गया। किन्तु उन विषयों के सम्बन्ध में पूर्व विधि ही प्रचलित मानी जायगी जहाँ वर्तमान अधिनियम मौन है। यह अधिनियम कृषक जोतों के खण्डीकरण के सम्बन्ध में उपबन्धित विधि को प्रभावित नहीं करता।

अधिनियम प्रथाओं को साररूप से समाप्त करने की व्यवस्था नहीं प्रदान करता वरन् उनको उसी सीमा तक प्रभावित करता है जहाँ तक वे अधिनियम में दिये गये नियमों से असंगत हैं। यदि किसी प्रथा का कुछ अंश अधिनियम के अनुसार समाप्त कर दिया गया है तो उस प्रथा के दूसरे अंश को मान्यता देने का अर्थ यह नहीं होगा कि संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है।

अधिनियम की धारा 4 हिन्दू विधि के केवल उन्हीं प्रावधानों एवं नियमों का निराकरण करती है जो इस अधिनियम के उपबन्धों के विरोध में हैं। यह अधिनियम हिन्दू विधि के उन समस्त नियमों को निराकृत नहीं करता जिनके सम्बन्ध में अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं बनाया गया है। अत: उन सम्पत्तियों के सम्बन्ध में, जहाँ विधवा उसकी पूर्ण स्वामिनी नहीं हुई है तथा उस सम्पत्ति को अधिनियम के लागू होने के पूर्व हस्तान्तरित कर चुकी है तथा हस्तान्तरण बिना किसी आवश्यकता अथवा प्रलाभ के हुआ है, तो उस दशा में उत्तरभोगियों के अधिकार का प्रत्यय अब भी लागू होता है।

पटना उच्च न्यायालय ने अधिनियम के प्रभाव के सम्बन्ध में पुन: यह विचार व्यक्त किया कि उत्तराधिकार अधिनियम पारित होने के पश्चात् यह अधिनियम पूर्व विधियों के प्रभाव पर भी लागू होगा अर्थात् उनका प्रभाव उन पर बना रहेगा।

अधिनियम की योजना-इस अधिनियम के अन्तर्गत तीन प्रकार के उत्तराधिकार की विवेचना की गई है-

(1) मिताक्षरा सहदायिक की मृत्यु के बाद सहदायिकी सम्पत्ति में उसके अंश का न्यागमन (धारा 6)।

(2) हिन्दू पुरुष के निर्वसीयत मरने के बाद उसकी सम्पत्ति का न्यागमन (धारा 8 से 13)। (3) हिन्दू स्त्री की सम्पत्ति का उसके निर्वसीयत मरने के बाद न्यागमन (धारा 15 एवं 16)।

धारा 6 के अधीन यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी मिताक्षरा सहदायिक की मृत्यु हो जाय जिसका मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अपना हिस्सा था तो उसके हिस्से की सम्पत्ति का न्यागमन अनसची के प्रथम वर्ग में बताये गये स्त्री दायादों के अभाव में उत्तरजीविता के सिद्धान्त (Rule of Survivorship) के अनुसार होगी।

किसी भी हिन्दू पुरुष द्वारा निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरने पर अधिनियम के बाद उत्तराधिकार के जो सामान्य नियम लागू किये जायेंगे तथा उत्तराधिकारियों में अंश के निर्धारण में जो नियम प्रतिपादित किये जायेंगे, उनका उल्लेख अधिनियम की धारा 8 से 13 के अन्तर्गत किया गया है। 4 धारा 15 तथा 16 के अन्तर्गत यह व्यवस्था प्रदान की गई है कि स्त्रियों की निर्वसीयती सम्पत्ति का उत्तराधिकार मक रूप से निश्चित किया जायेगा। धारा 17 के अन्तर्गत मालावार तथा अलियसन्तान विधि से पशासित हिन्द परुषों तथा स्त्रियों की सम्पत्ति के उत्तराधिकार में परिवर्तन तथा संशोधन लाये गये हैं। धारा 18 से लेकर 28 तक का वर्णन “उत्तराधिकार के सामान्य नियम’ शीर्षक से सम्बोधित किया

  1. केसर देवी बनाम नानक सिंह, 1958 पंजाब 441
  2. 2 गंगाधर चरन बनाम सरस्वती, आई० एल० आर० 1962 कटक 596; 1962 उड़ीसा 1901
  3. २ राम सिंगारी देवी व अन्य बनाम गोविन्द ठाकुर, ए० आई० आर० 206 पटना 169/
  4. 4 देखें परेरा दामोदर दास महन्त बनाम दामोदर दास महन्त, ए० आई० आर० 2015, बम्बई 24.

गया है तथा वे धारा 5 से लेकर 17 तक के पूरक रूप में अन्तर्विष्ट किये गये हैं।

अब तक मिताक्षरा तथा दायभाग में संयुक्त तथा पृथक् स्वार्जित सम्पत्ति के विषय में जो दो भिन्न पद्धतियाँ प्रचलित थीं, वे अधिनियम में समाप्त कर दी गयी हैं (धारा 8)। अधिनियम के लाग होने के बाद उत्तराधिकारियों का वर्गीकरण जो सपिण्डों, समानोदकों तथा बन्धुओं में किया गया था, समाप्त कर दिया गया है। उत्तराधिकारियों को चार वर्गों में विभाजित किया गया है जो इस प्रकार

(1) अनुसूची के प्रथम वर्ग के उत्तराधिकारी।

(2) अनुसूची के द्वितीय वर्ग के उत्तराधिकारी।

(3) सपित्र्य (Agnates)।

(4) बन्धु (Cognates)।

नारी की सीमित सम्पदा की अवधारणा का अब उन्मूलन कर दिया गया है। अधिनियम के अनुसार किसी स्त्री के द्वारा प्राप्त की गई अथवा अधिकृत सम्पत्ति अब उसकी निधि पूर्ण सम्पत्ति मान ली गई है। अब हिन्दू नारी स्वेच्छा से उस सम्पत्ति का किसी प्रकार से निर्वर्तन कर सकती है। इस अधिनियम के लागू होने के दिन भी यदि कोई सम्पत्ति उसके कब्जे में रही है, जो अधिनियम के लागू होने के पूर्व अथवा बाद में प्राप्त हुई, तो उस सम्पत्ति के विषय में भी पूर्वप्रयुक्त नियन्त्रण तथा बाधायें अब समाप्त कर दी गईं। अब उस सम्पत्ति को हिन्दू नारी पूर्ण स्वामिनी के रूप में न कि बाधित स्वामिनी के रूप में धारण करती है। (धारा 14)।

स्त्रीधन का उत्तराधिकार-नारी-सम्पदा के विषय में न्यागमन का सिद्धान्त नारी के विवाहिता अथवा अविवाहिता रहने की दशा के अनुसार तथा विवाह के प्रकार के अनुसार बदलता रहता था। स्त्रीधन के स्रोत के अनुसार भी उत्तराधिकार के सिद्धान्त में परिवर्तन आते हैं। अधिनियम की धारा 15 के अन्तर्गत उपर्युक्त नियमों को समाप्त कर दिया गया तथा हिन्द्र स्त्री के निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर अधिनियम के लागू होने के बाद मरने पर उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में एक समान नियम अपनाया गया। नारी के निर्वसीयती सम्पत्ति के उत्तराधिकारियों को पाँच श्रेणियों में रखा गया जो धारा 15 के (ए) से (ई) तक की प्रविष्टियों में दिया गया है।

अधिनियम यद्यपि उत्तराधिकार से ही सम्बन्धित है, फिर भी सहदायिकी को विशेष रूप से प्रतिधारित किया गया है। अधिनियम में यह कहा गया है कि जहाँ कोई सहदायिक निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मरता है, मिताक्षरा सहदायिकी विनष्ट नहीं हो जाती। मिताक्षरा विधि से प्रशासित संयुक्त परिवार की विचारधारा के अनुसार संयुक्त परिवार के सदस्य का सहदायिकी सम्पत्ति में हक बढ़ता-घटता रहता है। परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर अन्य शेष सदस्यों का सम्पत्ति में हक बढ़ जाता है तथा किसी व्यक्ति के जन्म लेने पर उन सदस्यों का हक घट जाता है। सदस्यों का हक संयुक्त परिवार के विभाजन होने के बाद ही निश्चित होता है। धारा 6 संयुक्त परिवार को बिना समाप्त किये हुये किसी सहदायिकी की मृत्यु के बाद उसके अधिमान्य उत्तराधिकारियों को संयुक्त सम्पत्ति में हक का दावा करने के अधिकार की व्याख्या करती है। वह हक उसी प्रकार निर्धारित किया जायेगा जैसे कि ठीक उसकी मृत्यु के पूर्व विभाजन होने पर उस सहदायिक का हक निश्चित किया गया होता।

इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व यह एक सुप्रतिष्ठित नियम था कि कोई हिन्दू इच्छापत्र द्वारा किसी ऐसी सम्पत्ति का उत्तरदान (bequeath) नहीं कर सकता जिसका हस्तान्तरण वह दान के रूप में नहीं कर सकता। दायभाग विधि में कोई भी सहभागीदार दान के रूप में अपनी समस्त सम्पत्ति का चाहे वह पैतृक हो अथवा स्वार्जित, निर्वर्तन कर सकता है। मिताक्षरा विधि में कोई भी सहदायिक अपने सहदायिकी हक को दानरूप में देने का अधिकार नहीं रखता। अब कोई भी हिन्दू पुरुष अथवा स्त्री ऐसी सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा अथवा वसीयती व्ययन (Testamentary disposition) द्वारा भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 या अन्य किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के अन्तर्गत (जो हिन्दुओं के लिये

लागू होती है) व्ययित कर सकेगा।

अन्य परिवर्तन जो अधिनियम द्वारा लाया गया, वह यह है कि अधिनियम की धारा 5 (2) तथा 5(3) को छोड़कर अविभाज्य सम्पदा को अन्यत्र मान्यता नहीं प्रदान की गई है।

निर्वसीयती उत्तराधिकार (Hindu Law Model Paper)

इस अध्याय का शीर्षक यद्यपि निर्वसीयती उत्तराधिकार है, किन्तु इसके अन्तर्गत अन्य बातों का, जैसे मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति तथा हिन्दू विधि द्वारा मान्य अन्य विशेष प्रकार की सम्पत्तियों का उल्लेख किया गया है। “निर्वसीयती’ पद का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो बिना किसी वसीयती व्ययन के मर जाता है। यह ऐसी सम्पत्ति की ओर भी संकेत करता है जो उपर्युक्त व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद उत्तराधिकारियों में न्यागत होने के लिये छोड़ता है। यह अध्याय उन दायादों का उल्लेख करता है जो उत्तराधिकार के अधिकारी हैं। इस अध्याय में सम्पत्ति के न्यागमन का भी क्रम दिया गया

यह अधिनियम मृतक हिन्दू के, धारा 5 में दी गई सम्पत्ति को छोड़कर सभी सम्पत्तियों के सम्बन्ध में लागू होता है। धारा 5 इस प्रकार है-

धारा 5-“यह अधिनियम

(1) ऐसी सम्पत्ति के विषय में लागू नहीं होगा जिसका उत्तराधिकार भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के द्वारा विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 21 में अन्तर्विष्ट उपबन्धों के कारण विनियमित होता है;

(2) ऐसी किसी सम्पदा को लागू न होगा जो किसी भारतीय राज्य के शासक द्वारा भारत सरकार से की गई प्रसंविदा या समझौता की शर्तों द्वारा या इस अधिनियम के पूर्व पास किये गये अधिनियम की शर्तों द्वारा केवल एक दायाद (Heir) को न्यागत होती है।

(3) विलियम्स तम्मुशन कोविलकम पोतुस्वत्तु सम्पदा को लागू नहीं होता जो कि महाराजा कोचीन द्वारा 30 जून, 1949 को प्रख्यापित उद्घोषणा (1924 की 9) द्वारा प्रदत्त अधिकारों के आधार पर भरण समिति द्वारा प्रशासित है।

मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में न्यागमन की रीति संशोधन अधिनियम के पूर्व “(Devolution)—जैसा कि पूर्व उल्लिखित है कि मिताक्षरा विधि में सम्पत्ति के न्यागमन को दो क्रम प्रदान किया गया है—प्रथम उत्तरजीविता, दूसरा उत्तराधिकार। परिवार की पैतृक सम्पत्ति में उत्तरजीविता से हक उत्पन्न होता है तथा पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति में उत्तराधिकार द्वारा हक उत्पन्न होता है। हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति पृथक् अथवा स्वार्जित हो सकती है अथवा सहदायिकी हो सकती है। अत: जब संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में न्यागमन का प्रश्न उठता है तो पैतृक तथा अपैतृक सम्पत्ति एवं अप्रतिबन्ध दाय तथा सप्रतिबन्ध दाय में अन्तर किया जाता है।

हिन्दू निर्वसीयती सम्पत्ति में उत्तराधिकार के क्रम को अधिनियम की धारा 5 के प्रतिबन्धों के साथ सन्नियमित किया गया है।

धारा 6 के अन्तर्गत हिन्दू पुरुष की सहदायिकी सम्पत्ति (Coparcenaries property) के न्यागमन का विवेचन किया गया है। धारा 6 इस प्रकार है

जब कोई पुरुष हिन्दू मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अपनी मृत्यु के समय अपने हक को रखते हए इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् मरता है तो उसका हक सहदायिकी में उत्तरजीवी सदस्यों र उत्तरजीविता के आधार पर न कि इस अधिनियम के उपबन्ध के अनकल न्यागत होगा।

किन्त यदि मृतक अनुसूची 1 में उल्लिखित किसी स्त्री नातेदार को या ऐसे किसी नातेदार को, जो ऐसी स्त्री नातेदार के माध्यम द्वारा हक का दावा करता है, छोड़कर मरता है तो मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में मतक का हक इस अधिनियम के अन्तर्गत उल्लिखित नियमों के अनुसार न कि उत्तरजीविता द्वारा

यथास्थिति वसोवती अथवा निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होता है।

व्याख्या-(1) इस धारा के प्रयोजनों के लिए, हिन्द्र मिताक्षरा सहदायिक का हक सम्पत्ति का वह अंश है जो इस बात का विचार किये बिना कि वह सहदायिकी संम्पत्ति के विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं, यदि उसकी मृत्यु के ठीक पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता तो उसे हिस्से के रूप में मिलता।

धारा 6 के स्पष्टीकरण 1 के निर्वचन से यह स्पष्ट होता है कि इसके माध्यम से किसी पैतृक सम्पत्ति के काल्पनिक विभाजन के माध्यम से यह खोजने का प्रयास किया जाता है कि उस व्यक्ति का जिसकी • मृत्यु नहीं हुयी है, उसका उस सम्पत्ति में क्या हिस्सा होता यदि उसकी मृत्यु हो जाती।

(2) इस धारा के परन्तुक में दी गई किसी बात का यह अर्थ न लगाया जायेगा कि जिस व्यक्ति ने मृतक की मृत्यु के पूर्व सहदायिकी से अपने को पृथक् कर लिया है, उसे या उसके किसी दायाद को वह निर्वसीयती की अवस्था में हक पाने का दावा करने के योग्य बनाता है जिसके प्रति उस परन्तुक में निदेश किया गया है।

धारा 6 के इस उपरोक्त प्राविधान द्वारा मिताक्षरा सहदायिकी के मौलिक स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया। स्त्रियों को मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में किसी भी प्रकार से दाय का अधिकार नहीं प्राप्त था और न वे सहदायिकी की सदस्या ही समझी जाती थीं। सम्पत्ति का न्यागमन उत्तरजीविता से होता था, किन्तु अधिनियम की इस धारा में स्त्रियों को सहदायिकी सम्पत्ति में हक प्रदान कर दिया गया और उनकी मौजूदगी में उत्तरजीविता के सिद्धान्त को न लागू करके सम्पत्ति का न्यागमन उत्तराधिकार के उन नियमों के अनुसार किया जायेगा जैसा कि अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत किया गया है। वस्तुत: यदि यह कहा जाय कि मिताक्षरा सहदायिकी की शास्त्रीय विचारधारा धारा 6 के द्वारा यदि ध्वस्त नहीं कर दी गई तो प्रतिकूल रूप से इस प्रकार से प्रभावित हो चुकी है कि उसकी पहिचान (identity) समाप्त हो चुकी है तो गलत नहीं होगा।

इस धारा में सहदायिकी सम्पत्ति के न्यागमन के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण नियम प्रतिपादित किया गया है। धारा के पूर्व में यह कहा गया है कि जब कोई हिन्दू पुरुष अधिनियम के बाद मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अपना हक छोड़कर मरता है तो उसकी सम्पत्ति का न्यागमन मिताक्षरा की उत्तरजीविता के नियम के अनुकूल होगा न कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार; किन्तु धारा के परन्तुक में यह कहा गया है कि यदि उपर्युक्त व्यक्ति अनुसूची (1) में उल्लिखित स्त्री नातेदार को या ऐसे पुरुष नातेदार को, जो स्त्री नातेदार से उत्पन्न हुआ है, छोड़कर मरता है तो सम्पत्ति का न्यागमन इस अधिनियम के नियम के अनुसार होगा। इस धारा में मुख्य बात यह है कि मृतक के यदि कोई स्त्री नातेदार या स्त्री नातेदार से उत्पन्न पुरुष नातेदार नहीं है तो पूर्व विधि के मिताक्षरा नियम के अनुसार सम्पत्ति का न्यागमन होगा अन्यथा उस प्रकार के नातेदार अथवा अनुसूची (1) में दिये गये नातेदारों के रहने पर मृतक का जो हक दायादों में विभाज्य है, व्याख्या में दिये गये नियम के अनुसार निर्धारित होगा। उसका हक वही होगा जो कि अपनी मृत्यु से ठीक पहले सम्पत्ति के विभाजन होने पर अपने वंश में प्राप्त करता। इस दशा में उसका हक इस अधिनियम के नियमों के अनुसार होगा, चाहे वह धारा 30 के अनुसार वसीयती ढंग से हो अथवा धारा 8 के अनुसार निर्वसीयती ढंग से हो। विश्वनाथ बनाम लोकनाथ के वाद में उच्च न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि अधिनियम की धारा 6 में किसी विभाजन की बात नहीं की गई है, बल्कि सम्पत्ति में • मत सहदायिक के हित का न्यागमन उपबन्धित है। काल्पनिक विभाजन जो धारा में बतलाया गया है, इस प्रकार के हित की सीमा को उस स्थिति में अवधारित करने के लिए है जब कि मृत हिन्दू अन्य सहदायिकी से बिना अलग हुए मर गया हो।

शंकर लाला राम प्रसाद लाधा बनाम बसन्त चण्डीदास राव देशमुख के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत सहदायिक सम्पत्ति के सम्बन्ध में

1. जगन्नाथ रंगनाथ चौहान बनाम सुमन घावेट, ए० आई० आर० 2014. एन० ओ० सी० 491 बम्बई।

2. राघोथमन् बनाम एम० पी० कनप्पन, ए० आई० आर० 1982 मद्रास 2351

3. ए० आई० आर० 1977 उड़ीसा 1701

4. ए० आई० आर० 2009 एन० ओ० सी० 2368 बाम्बे। देखें जगन्नाथ रंगनाथ चौहान बनाम सुमन । घावेट, ए० आई० आर० 2014, एन० ओ० सी० 491 मुम्बई।

इस उपर्युक्त आरेख में क संयुक्त सम्पदा का सर्वनिष्ठ पूर्वज है। क के जीवन-काल में उसके पुत्र च, छ, ज, झ, य तथा प, त, थ, द, ध उसके उसके पौत्र तथा फ, ट सहदायिक होंगे। क्योंकि वे सभी क की तीन पीढ़ी के वंशज के अन्तर्गत आते हैं। किन्तु यदि क की मृत्यु उपर्युक्त आरेख में वर्णित सन्तान की उपस्थिति में हो जाती है तो ब तथा ट सहदायिकी में प्रवेश कर जाते हैं, क्योंकि वे अन्तिम सम्पत्तिधारक च तथा य से तीन पीढ़ी के अन्तर्गत आ जाते हैं, किन्तु भ, म तथा ड फिर भी सहदायिक में नहीं आते। यदि च की भी मृत्यु हो जाती है तो भ सहदायिक हो जाता है, किन्तु म तथा ड फिर भी सहदायिक नहीं रह जाते। मान लीजिये य, फ, ब, भ उसके बाद मर जाते हैं तो ड भी सहदायिक हो जाता है, क्योंकि वह ध की तीन पीढ़ी के अन्तर्गत आ जाता है जो द के साथ सम्पत्ति धारण करता था। किन्तु म फिर भी सहदायिक नहीं होता, क्योंकि वह प के तीन पीढ़ी के बाहर हो जाता है जो च की वंशावली में अन्तिम धारक था। यदि बाद में प, ध, ट, ठ तथा झ भी मर जाते हैं तो सर्वनिष्ठ पूर्वज क के पुत्र छ, ज, तीन पौत्र त, थ, द तथा एक प्रपौत्र ड सहदायिकी ङ्केमें SIT जाते हैं, फिन्त म फिर भी सहदायिकी में नहीं आता। क्योंकि वह फिर भी अन्तिम सम्पत्तिधारक की तीन पीढ़ी के अन्तर्गत आने का अवसर नहीं प्राप्त करता। एक बार यदि कोई सदस्य सहदायिक हो जाता है तो वह न केवल अपने पूर्वज की शाखा का सहदायिक हो जाता है वरन् सहदायिकी की अन्य प्रत्येक शाखाओं के सदस्यों का सहदायिक हो जाता है।

सहदायिकी सम्पत्ति-सहदायिकी सम्पत्ति का अर्थ है(1) पैतृक सम्पत्ति, (2) पूर्वज पैतृक सम्पत्ति की सहायता से किसी सहदायिक के द्वारा अर्जित की गई सम्पत्ति, (3) इस प्रकार की सहायता के बिना भी सहदायिकों द्वारा संयुक्त रूप में अर्जित सम्पत्ति, (4) सामान्य कोष में सहदायिक द्वारा दी गई पृथक् सम्पत्ति। किसी हिन्दू पिता द्वारा संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति के विभाजन पर अपने पुत्रों के साथ प्राप्त पृथक् सम्पत्ति, उन पुत्रों के हाथ में सहदायिकी सम्पत्ति नहीं रह जाती जो पिता के जीवन-काल में ही पृथक् हो जाते हैं।

यह धारा ऐसी सहदायिकी की कल्पना करती है जिसमें अन्तिम रूप से सम्पत्तिधारक तथा एक अथवा एक से अधिक पुरुष संतान हों। यदि एक बार विभाजन के परिणामस्वरूप सहदायिकी समाप्त हो जाती है, तो पूर्व सहदायिकी का सदस्य दूसरे सदस्य से सम्पत्ति को उत्तरजीविता से नहीं प्राप्त कर सकता। यह धारा उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में नहीं लागू होती जो विभाजन के परिणामस्वरूप एक सहदायिक प्राप्त करता है और जिसे पृथक् सम्पत्ति की संज्ञा दी जाती थी।

परन्तु जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है वहाँ कोई सहदायिकी सम्पत्ति को किसी सहदायिक के द्वारा दान के माध्यम से अलग नहीं किया जा सकता और यदि किसी सहदायिक के द्वारा ऐसा दान किया गया है तो ऐसा दान प्रारम्भतः शून्य होगा।

किन्तु जहाँ किसी सहदायिकी सम्पत्ति का विभाजन न हुआ हो और सहदायिक एक साथ निवास न कर रहे हों वहाँ किसी सहदायिक की मृत्यु के पश्चात् ऐसी सहदायिकी सम्पत्ति अन्य सहदायिकों को न्यागत होगी।

स्त्री नातेदार तथा स्त्री नातेदार के माध्यम से दावा करने वाले पुरुष-अनुसूची (1) में उल्लिखित दायाद इस प्रकार हैं-(1) पुत्री, (2) विधवा, (3) माता, (4) पूर्वमृत पुत्र की पुत्री, (5) पूर्वमृत पुत्र के पूर्वमृत पुत्र की पुत्री, (6) पूर्वमृत पुत्र के पूर्वमृत पुत्र की विधवा पत्नी, (7) पूर्वमत पत्री का पुत्र, (8) पूर्वमृत पुत्री की पुत्री, (9) पूर्वमृत पुत्र की विधवा। इस प्रकार स्त्री नातेदार के माध्यम से दावा करने वाला पुरुष नातेदार केवल पूर्वमृत पुत्र का पुत्र ही होता है। इससे यह स्पष्ट है कि स्त्री

1. श्रीमती शुभामति देवी व अन्य बनाम अवधेश कुमार सिंह व अन्य, ए० आई० आर० 2012 पटना 451

2. एम० जी० पपन्ना बनाम जय वदाम्मा, ए० आई० आर० 2014 केरल 223 एन० ओ० सी०.

दायाद तथा सी के माध्यम से पुरुष दायादों की संख्या बहुत बड़ी है जिससे यह सदैव सन्देहास्पट बना रहता है कि उत्तरजीविता का नियम कभी लागू होगा अथवा नहीं। इस प्रकार का अवसर तभी उत्पन्न हो सकता है जब कि कोई सहदायिक केवल पुरुष नातेदारों को जैसे, पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र को छोड़कर मरता है तथा मिताक्षरा परिवार संगठित बना रहता है।

दृष्टान्त

अ, जो एक मिताक्षरा सहदायिकी सदस्य है, दो पुत्रों ब एवं स को छोड़कर मरता है। उसके न कोई स्त्री नातेदार है तथा न स्त्री नातेदार के माध्यम से दावा करने वाला पुरुष नातेदार, जैसा कि अनुसूची के वर्ग (1) में दिया गया है। ऐसी दशा में मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अ का हक उत्तरजीविता के अनुसार होगा न कि इस अधिनियम के उपबन्ध के अनुसार। प्रत्येक को समान अंश 1/2 अंश प्राप्त होगा।

उत्तरजीविता द्वारा न्यागमन-जब सहदायिकी का कोई सदस्य मर जाता है तो उसका हक अन्य सहदायिकियों में न्यागत हो जाता है न कि उसके अपने दायादों में जो सहभागीदार नहीं हैं। इस प्रकार मिताक्षरा सहदायिकी में जहाँ तीन भाई हैं, यदि कोई एक भाई मर जाता है तो उस भाई का हक शेष दो भाइयों में उत्तरजीविता से चला जाता है। उसका यह हक उसकी अपनी विधवा पत्नी में अथवा पुत्री या पुत्रों के पुत्र में न्यागत नहीं होता जैसा कि दायभाग शाखा में प्रदान किया गया था। दायभाग संयुक्त परिवार में उत्तरजीविता का नियम कोई महत्व नहीं रखता। यहाँ केवल उत्तराधिकार से सम्पत्ति न्यागत होती है।

जहाँ कोई सहदायिकी अपने को अन्य सहदायिकों से अलग कर लेता है और कोई सहदायिक सम्पत्ति मिताक्षरा शाखा के अन्तर्गत उत्तरजीविता के सिद्धान्त पर न्यागत होती है तो उस स्थिति में अलग हुआ सहदायिक मृतक की सम्पत्ति में किसी भी प्रकार के हिस्से की माँग नहीं कर सकता और न ही ऐसे अलग हुये व्यक्ति को मृतक की सम्पत्ति में किसी भी प्रकार की कोई भी हिस्सेदारी प्राप्त होगी।

जब हिन्दू विमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट अस्तित्व में न हो और किसी सहदायिक की मृत्यु हो गयी हो तो ऐसी स्थिति में सहदायिक सम्पत्ति दूसरे सहदायिक को न्यागत होगी। उसके अन्य दायादों को (पत्नी एवं पुत्री) ऐसी सम्पत्ति में किसी भी प्रकार की कोई हिस्सेदारी प्राप्त नहीं होगी।

मनजीत सिंह बनाम राजेन्द्र सिंह, के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि किसी राज्य में सहदायिकी सम्पत्ति के न्यागत होने के सम्बन्ध में कोई प्रथा मौजूद हो तो वहाँ ऐसी सम्पत्ति का न्यागमन, प्रथा के अनुरूप होगा न कि हिन्दू विधि के प्रावधानों के अन्तर्गत और जहाँ ऐसे राज्य का व्यक्ति जहाँ पर प्रथा मौजूद हो, वह किसी अन्य राज्य में जाकर बस जाता है वहाँ वह मूल राज्य में प्रचलित प्रथा का लाभ नहीं ले सकेगा वहाँ ऐसी सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में हिन्दू विधि के प्रावधान ही लागू होंगे।

लेकिन जहाँ किसी संयुक्त हिन्दू परिवार, सहदायिकी सम्पत्ति में कोई सहदायिक अपने विवाह के पश्चात् ऐसी सम्पत्ति के उपयोग एवं उपभोग में न रहा हो और जहाँ ऐसी सम्पत्ति का विभाजन पूर्व में किया जा चुका हो, यदि ऐसी सम्पत्ति का विक्रय किया जा रहा हो तो वहाँ ऐसी सहदायिकी सम्पत्ति में विक्रय के दौरान हिस्सा प्राप्त करने का वह हकदार नहीं होगा।’

दृष्टान्त

(1) एक मिताक्षरा सहदायिकी में पिता तथा उसके तीन पुत्र हैं। पिता की मृत्यु हो जाती है। तीनों पत्र समस्त सहदायिकी सम्पत्ति को उत्तरजीविता के नियम के अनुसार धारण करेंगे जिसके फलस्वरूप समस्त सम्पत्ति में प्रत्येक को 1/3 अंश प्राप्त होगा, अर्थात् प्रत्येक पुत्र के अंश में वृद्धि हो जायेगी जब कि पहले (पिता के जीवन-काल में) प्रत्येक को 1/4 अंश मिलता।

(2) एक मिताक्षरा संयुक्त परिवार तीन भाइयों से निर्मित है जिनमें से एक की मृत्यु हो जाती है।

1. तिरूपरुष सन्दर बनाम श्री निवासन पिल्लई, ए० आई० आर० 1972 मद्रास 2641

2. मेवा देवी बनाम ओम प्रकाश जगन्नाथ अग्रवाल, ए० आई० आर० 2008 छत्तीसगढ़ 13।

  • भागीरथी बाई चन्द्र भान निम्बार्ड बनाम ताना वाई, ए० आई० आर० 2013 बम्बई 99.
  • ए० आई० आर० 2013 हिमाचल प्रदेश 70.
  • पी० सान्था बनाम एस० अरूमुगंम्, ए० आई० आर० 2014, एन० ओ० सी० 568 मद्रास।

शेष दो भाई उसके सहदायिकी अंश को उत्तरजीविता से ग्रहण करेंगे। अत: प्रत्येक भाई जो मृत भाई के जीवन-काल में 1/3 अंश प्राप्त करते, अब 1/2 अंश प्राप्त करेंगे।

अब मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति का न्यागमन धारा 6 के परन्तुक के प्रावधान से प्रशासित होता है। अतः यदि सहदायिकी में अनुसूची के प्रथम वर्ग के स्त्री दायाद नहीं है और न स्त्री दायादों के माध्यम से परुष दायाद है तो किसी मृतक हिन्दू पुरुष का सहदायिकी सम्पत्ति में हक उपर्युक्त उत्तरजीविता के नियमानुसार न्यागत होगा न कि इस अधिनियम की धाराओं के अनुसार।

धारा के 6 परन्तुक-यह परन्तुक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। यह पहली बार अनुसूची के वर्ग (1) में दिये गये स्त्री नातेदार को उत्तराधिकार का अधिकार प्रदान करता है। इस परन्तुक का व्यापक प्रभाव यह है कि किसी सहदायिक का हक, यदि अनुसूची 1 में विहित कोई स्त्री नातेदार अथवा स्त्री नातेदार के माध्यम से दावा करने वाला पुरुष नातेदार विद्यमान है, तो वह उत्तरजीविता से नहीं वरन् उत्तराधिकार से न्यागत होगा।

जी० वी० किशन राव बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य के मामले में न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी में कोई पुरुष हिन्दू सहदायिकी सम्पत्ति में अपनी सम्पत्ति छोड़ कर मरता है और उसकी मृत्यु के समय अनुसूची के वर्ग (1) में विहित कोई स्त्री नातेदार है तो उसके अंश का न्यागमन इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होगा। इस प्रकार जहाँ कोई पुरुष अपने पीछे एक विधवा तथा तीन पत्रों को छोड़ कर मरता है वहाँ विधवा अपने पुत्रों के साथ सर्वप्रथम एक अंश प्राप्त करेगा। यह उसी प्रकार है कि यदि उसकी मृत्यु के पूर्व सहदायिकी का विभाजन होता तो सम्पत्ति पाँच अंशों में विभाजित होती और उसका पति, वह स्वयं तथा उसके तीन पुत्र बराबर अंश के हकदार होते, यही काल्पनिक विभाजन का आशय है और इस प्रकार प्रत्येक 1/5 अंश प्राप्त करेगा और पति का 1/5 अंश उसकी पत्नी तथा पुत्रों में समान रूप से विभाजित हो जायेगा।

एक दूसरे उदाहरण में वासवस्तिमम्मा बनाम शारदाम्मा का निर्णय उल्लिखित किया जा सकता है। इस वाद में अधिनियम लागू होने के बाद एक विधवा ने अपने पति की मृत्यु के उपरान्त सहदायिकी सम्पत्ति में उसके अंश को प्राप्त किया। परिवार संयुक्त चला आ रहा था और उसका श्वसुर जीवित था। प्रश्न यह उठा कि क्या श्वसुर की मृत्यु हो जाने के बाद वह मृत श्वसुर की सम्पत्ति में कोई हिस्सा ले सकती है? न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधवा अनुसूची की वर्ग 1 की दायाद होने के नाते सहदायिक सम्पत्ति में जो हिस्सा छोड़कर उसका श्वसुर मरा है उसमें अपने हिस्से का दावा कर सकती है।

जया मति नरेन्द्र शाह बनाम नरेन्द्र अमृत लाल शाह, के वाद में बाम्बे उच्च न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि हिन्दू सहदायिक सम्पत्ति में कोई पत्नी विभाजन की माँग नहीं कर सकती बल्कि उसे ऐसी सम्पत्ति में कोई अधिकार तभी उत्पन्न होगा जब उसके पति एवं पुत्र के द्वारा ऐसी सम्पत्ति में विभाजन की माँग की गयी हो या ऐसी सम्पत्ति को विभाजित कर दिया गया हो और पुन: न्यायालय के द्वारा यह भी सम्प्रेक्षित किया गया कि ऐसी सहदायिक सम्पत्ति में विधवा पत्नी को केवल मृतक की सम्पत्ति में अधिकार होगा।

भाग पुरु सेठ बनाम पूर्णी दी व अन्य के मामले में न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि जहाँ किसी संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई पुरुष उत्तराधिकार मौजूद नहीं है अर्थात् सभी की मृत्यु हो गई हो और वहाँ केवल एक मात्र विवाहिता पुत्री ही मौजूद हो तो ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण सहदायिक सम्पत्ति प्राप्त करने का वह दावा कर सकती है।

दृष्टान्त (Hindu Law Notes)

(1) अ तथा ब दो भाई सहदायिकी निर्मित करते हैं। अ एक विधवा पत्नी को छोड़कर मर जाता है। उसकी मृत्यु पर आधा अंश उसकी विधवा पत्नी को चला जायेगा, ब को उत्तरजीविता से नहीं जायेगा।

(2) अ तथा ब दो भाई सहदायिकी निर्मित करते हैं। अ अपनी विधवा पत्नी स, भाई ब, पुत्री 1. ए० आई० आर० 1987 आन्ध्र प्र० 2391

2. ए० आई० आर० 1984 कर्ना० 271

3. ए० आई० आर० 2014, बम्बई 119.

4. ए० आई० आर० 2003, एन० ओ० सी० 171 उड़ीसा।

द तथा माता म को छोड़कर मरता है। उसकी मृत्यु के ठीक पूर्व अ का अंश विभाजित होने पर होता। अधिनियम के अनुसार इस 1/3 अंश का न्यागमन, धारा 8 के अन्तर्गत होगा जिसमें ब को उत्तरजीविता से वह 1/3 अंश में से नहीं प्राप्त होगा, क्योंकि वर्ग में उल्लिखित स्त्री दायाट विजन पत्नी तथा पुत्री वर्तमान हैं।

उपर्युक्त दृष्टान्त (1) में यदि अ पुत्री द को न छोड़कर द के पुत्र को छोड़कर मरता है जब कि उसकी पुत्री द उसके जीवन-काल में ही मर जाती है, तो अ का अंश उसके दायादों को उत्तराधिकार से चला जायेगा। कारण यह है कि अनुसूची (1) में उल्लिखित स्त्री दायाद के माध्यम से दावा करने वाला पुरुष नातेदार भी विद्यमान है।

(3) अ अपने चार पुत्रों क, ख, ग, घ के साथ एक संयुक्त हिन्दू-परिवार का सदस्य है। वह निर्वसीयती सम्पत्ति के साथ तथा चार पुत्रों एवं दो पुत्रियों म, न को छोड़कर मरता है। अ का सहदायिकी में विभक्त हक 1/5 होगा। यह 1/5 अंश इस अधिनियम के अनुसार न्यागत होगा तथा प्रत्येक पत्र एवं पुत्री 1/5 का 1/6 अर्थात् 1/30 अंश उत्तराधिकार से प्राप्त करेगा।

परन्तुक की दूसरी व्याख्याधारा 6 के परन्तुक की दूसरी व्याख्या भी की जा सकती है। मिताक्षरा सहदायिकी का अविभक्त हक इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार तभी न्यागत होगा जब कि कोई हिन्दू अनुसूची 1 में उल्लिखित किसी स्त्री दायाद अथवा स्त्री दायाद के माध्यम से दावा करने वाले किसी पुरुष दायाद को निर्वसीयती सम्पत्ति के साथ छोड़कर मरता है। यदि इस प्रकार के वर्ग (1) में उल्लिखित स्त्री दायादों अथवा स्त्री दायादों के माध्यम से दावा करने वाले पुरुष दायादों के अतिरिक्त वर्ग (1) का कोई दूसरा पुरुष दायाद जो स्त्री दायाद के माध्यम से दावा नहीं करता तथा मृतक के बाद जीवित रहता है, तो उस दशा में सम्पत्ति का न्यागमन उत्तरजीविता से होगा न कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होगा।

दृष्टान्त (Hindu Law Study Material)

(1) अ, एक हिन्दू एक पुत्र तथा एक पुत्री को छोड़कर मरता है। उसने निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़ी है। अ का सहदायिकी हक उसके पुत्र को उत्तरजीविता से चला जायेगा न कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार यदि पुत्री भी बाद में मर जाती है।

(2) उपर्युक्त दृष्टान्त (1) में यदि अ केवल एक पुत्री द को तथा भाई ब को छोड़कर मरता तो अ का अविभक्त हक द को उत्तराधिकार से चला जाता है।

रघुनाथ तिवारी बनाम मु० रिखिया के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त व्याख्या को समर्थन देते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ अ, ब तथा स के बीच संयुक्त हिन्दू सहदायिकी है और बाद में अ की मृत्यु पत्नी तथा एक पुत्री को छोड़कर हो जाती है उसके बाद में ब की भी मृत्यु हो गई किन्तु उसके कोई स्त्री दायाद नहीं थी वहाँ ब का सहदायिकी हिस्सा एकमात्र स को उत्तरजीविता से न्यागत होगा न कि अ की विधवा तथा उसकी पुत्री को क्योंकि अ की विधवा अथवा पत्री सहदायिकी के सदस्य नहीं हो सकते जो उसके पति के साथ निर्मित था। ऐसी स्थिति में अ की विधवा तथा पुत्री मिलकर सहदायिकी सम्पत्ति का 1/3 अंश लेंगे।

जहाँ एक हिन्दू सहदायिक एक पुत्र तथा पूर्वमृत पुत्री के एक पुत्र को छोड़कर मरता है, वहाँ सहदायिकी की सम्पत्ति में उसका अपना अंश पुत्र एवं पूर्वमृत पुत्री के पुत्र में न्यागत होगा। वे दोनों सम्पत्ति में एक साथ हिस्सा प्राप्त करेंगे क्योंकि अनुसूची 1 के अन्तर्गत दोनों उत्तराधिकारी आ जाते हैं।

जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार के कर्ता ने अपनी पुत्री को विवाह के समय कोई मूल्यवान वस्तु टान रूप में दिया है वहाँ इस दान के परिणामस्वरूप वह पुत्री बाद में अपने पिता के दायाद की

1. ए० आई० आर० 1985 पटना 291

2. रंगनाथन् चेट्टियार बनाम अन्नामलाई मुदालियर, 82 मद्रास एल० डब्ल्यू० 2581

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LLB Hindu Law Chapter 7 Post 3 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Chapter 7 Post 3 Book Notes Study Material PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों एक बार से आप सभी अभ्यर्थियो का स्वागत करते है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार पढ़ने जा रहे है |

सियत से पिता की मृत्यु हो जाने पर अपने अंश का दावा करने से अयोग्य नहीं हो जाती। अपने पिता माता से सम्पत्ति दाय में प्राप्त करने का उसका अधिकार आत्यन्तिक है वह सन्तानों की भाँति समान अंश प्राप्त करने की अधिकारिणी बनी रहती है।

इस प्रकार अनुसूची । के स्त्री दायाद की स्थिति में मतक का सहदायिकी सम्पत्ति में जो अंश होता है, वह इस वर्तमान अधिनियम के अनुसार विभाजित होगा।

रमेश वर्मा बनाम लाजेश सक्सेना के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी में कोई पुरुष हिन्दु अपनी पैतृक सम्पत्ति को छोड़कर मरता है,

और उसकी मृत्यु के समय अनुसूची के वर्ग (1) में विहित कोई पुत्री है चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित, ऐसी सम्पत्ति में मृतक के और उत्तराधिकारियों के साथ उस विवाहिता पुत्री का भी बराबर का हिस्सा होगा।

सहदायिकी सम्पत्ति में वसीयती निर्वर्तन-वसीयती निर्वर्तन के सम्बन्ध में भी धारा 6 के परन्तक ने महत्वपूर्ण परिवर्तन कर दिया है जिससे अविभक्त सहदायिक अविभक्त हक को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता है। यह प्रावधान मिताक्षरा विधि के पूर्णतया विरोध में है जहाँ इस प्रकार इच्छापत्र अथवा दान द्वारा हक नहीं निर्वर्तित किया जा सकता था।

मृत सहदायिकी के हक की संगणना (Computation)

व्याख्या 1-मिताक्षरा सहदायिकी में सहदायिक का हक निश्चित नहीं रहता। किन्तु मृत सहदायिक का यह बदलता हुआ हक न्यागमन के प्रयोजनों के लिए व्याख्या द्वारा निश्चित कर दिया गया है। उसका (मृत सहदायिक का) हक वही होगा जो कि वह अपनी मृत्यु के ठीक पूर्व विभाजन होने पर अपने अंश में प्राप्त करता, चाहे वह विभाजन का दावा करने का अधिकारी रहा हो या नहीं। व्याख्या में दी गई भाषा से यह आभास होता है कि यद्यपि मृतक के अंश को निश्चित करने के लिये काल्पनिक विभाजन की उपधारणा उसकी मृत्यु के पूर्व ही कर ली जाती है फिर भी इससे परिवार का गठन छिन्न-भिन्न नहीं होता। अंशों के निर्धारण में हिन्दू-विधि का साधारण नियम अनुवर्तित किया जाता है।

व्याख्या (1) वस्तुत: एक काल्पनिक विभाजन की उपधारणा को संनियोजित करती है। इस प्रकार का विभाजन ऐसे हक के उत्तराधिकार एवं संगणना के उद्देश्य से सोचा गया था जो अन्यथा उत्तरजीविता से न्यागत होता। इस विभाजन का उद्देश्य अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित नातेदारों के अंश को निश्चित करने के लिए है। इस धारा का मुख्य उद्देश्य सहदायिकी सम्पत्ति में मृतक के हित अथवा हक का न्यागमन है।

सुशीला रामचन्द्र बनाम नारायन राव गोपाल राव’ के वाद में बाम्बे उच्च न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि व्याख्या (1) के साथ परन्तुक का यह परिणाम है कि जहाँ परन्तुक में उल्लिखित दायादों में सहदायिक किसी एक को छोड़कर मरता है, वहाँ मृत सहदायिक का अंश इस उपधारणा तथा कल्पना के आधार पर निर्धारित किया जाता है, जैसे कि विभाजन उसकी मृत्यु के ठीक पूर्व ही कर लिया गया था। व्याख्या (1) यह निदेशित करती है कि इस प्रकार की विधिक कल्पना को इस बात के बावजूद भी प्रभावी किया जायेगा कि मृतक सहदायिक विभाजन करवाने का अधिकारी था या नहीं।

व्याख्या (1) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में मृत सहदायिक के अंश की मात्रा को निर्धारित करने का एक यन्त्र प्रदान करती है, किन्तु परन्तुक की भाषा में विभाजन परोक्ष रूप में अन्तर्निहित है। एक

1. मीनाक्षम्मा बनाम एम० सी० नानजूदप्पा, ए० आई० आर० 1993 कर्ना० 121

2. ए० आई० आर० 1998 मध्य प्रदेश, पृ० 461

3. ए० आई० आर० 1975 बा० 2571

काल्पनिक विभाजन, जो धारा 6 की व्याख्या (1) में उल्लिखित हैं, परन्तुक के साथ यह अर्थ देता है कि किसी मृत सहदायिक का संयुक्त परिवार में हित उत्तराधिकार से न्यागत होता है यदि उसने अपने उस हित का इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तन नहीं किया है। इस प्रकार का न्यागमन सूची 1 के दायादों पर ही होता है।

धारा 6 की व्याख्या (1) में काल्पनिक विभाजन पर गुरुपाद खन्दप्पा बनाम हीराबाई खन्दप्पा का महत्वपूर्ण निर्णय उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया है। इस वाद के निर्णय से अब तक धारा 6 की व्याख्या (1) के सम्बन्ध में जो भी द्विविधा थी, समाप्त हो गई। हिन्दू विधि पर लिखी गई पुस्तकों के कुछ लेखकों ने उपर्युक्त व्याख्या के सम्बन्ध में दो मत व्यक्त किये हैं। एक मत के समर्थन में बाम्बे, उड़ीसा तथा गुजरात उच्च न्यायालय के निर्णय तथा दूसरी ओर दूसरे मत के समर्थन में इलाहाबाद, दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय किये गये हैं। किन्तु यह द्रष्टव्य है कि उपर्युक्त व्याख्या (1) का दो अर्थों में व्याख्या करना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि 1960 में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 31 को संशोधित करके हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी अधिनियम, 1937 को पुनरुज्जीवित कर दिया गया है। अत: विधवा को उसके पति की मृत्यु के बाद काल्पनिक विभाजन के अनुसार सहदायिकी सम्पत्ति में एक निश्चित अंश प्रदान किया जायेगा। इलाहाबाद तथा दिल्ली उच्च न्यायालय ने कन्ट्रोल ऑफ इस्टेट डियूटी बनाम अनारी देवी तथा कन्हैया लाल बनाम जमुना देवी के वादों में विधवा को काल्पनिक विभाजन के अनुसार सहदायिकी सम्पत्ति में पति के साथ, पुत्रों के बराबर हिस्सा दिया है। विद्वान् लेखकों ने न तो हिन्दू विमेन्स प्रापर्टी अधिनियम, 1937 के प्रावधान के पुनरुज्जीवित होने की बात पर और न ही इलाहाबाद एवं दिल्ली उच्च न्यायालयों के समग्र निर्णय पर ध्यान देकर एक दूसरे मत का निरूपण किया। व्याख्या (1) को दो अर्थों में व्याख्या करने की गुञ्जाइश नहीं है। उपर्युक्त व्याख्या के विषय में दो मत व्यक्त करना भ्रमपूर्ण है। उच्चतम न्यायालय ने भी व्याख्या (1) का एक ही अर्थ माना है तथा दूसरे तथाकथित मत का खण्डन किया है। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय के अनुसार धारा 6 की व्याख्या (1) के अन्तर्गत जब किसी सहदायिक की मृत्यु हो जाती है तो उसकी विधवा का सहदायिकी सम्पत्ति में हिस्सा निर्धारित करने के लिये यह उपधारणा की जायेगी जैसे कि उसके पति की मृत्यु के ठीक पूर्व ही विभाजन हो गया रहा हो और उसे एक निश्चित हिस्सा मिल गया हो और फिर मृत पति के सहदायिक हिस्से में पुनः वर्ग (1) में अन्य उत्तराधिकारियों के साथ बराबर हिस्सा पाने का अधिकार उत्पन्न हो जायेगा। इस मामले में तथ्य इस प्रकार हैं-खन्दप्पा की मृत्यु 1960 में हुई। उसने अपने पीछे अपनी विधवा स्त्री, दो पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ छोड़ी। सन् 1962 में उसकी विधवा पत्नी हीराबाई ने अपने हिस्से के लिये वाद दायर किया। उसका दावा यह था कि पति की मृत्यु के बाद धारा 6 की व्याख्या (1) में उल्लिखित काल्पनिक विभाजन के अनुसार यह मान लिये जाने पर कि विभाजन ठीक उसकी मृत्यु के पूर्व हो गया था, उसको पति के साथ सहदायिकी सम्पत्ति में सहदायिक के रूप में बराबर हिस्सा पाने का अधिकार होगा। इस नियम के अनुसार सम्पूर्ण सहदायिकी सम्पत्ति 4 भागों में अर्थात् प्रत्येक को 1/4 हिस्सा मिलेगा अर्थात् पति 1/4, दोनों पुत्र 1/4 प्रत्येक तथा वह (विधवा) स्वयं 1/4 भाग पायेगी। इसके बाद मृत पति के अंश की संगणना करके उसके 1/4 अंश को पुनः वर्ग (1) के सभी दायादों में बराबर-बराबर विभाजित कर दिया जायेगा अर्थात् कुल अंश 6 भागों में विभाजित होगा और 1/4 अंश का 1/6 भाग अर्थात् 1/24 भाग प्रत्येक दायाद को मिलेगा। इस प्रकार अंशों का सम्पूर्ण योग जो विधवा हीराबाई को प्राप्त होगा, इस प्रकार है-1/4+1/24=7/241

1. भारत ट्रेडिंग लि० बनाम पी० नचिदार अम्मल, ए० आई० आर० 1976 मद्रास 393।

2. ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 12391

3. ए० आई० आर० 1972 इला० 1791

4. ए० आई० आर० 1973 दि० 1601

5. गुरुपाद खन्दप्पा बनाम हीराबाई, ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 12391

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पुत्र तथा पाँच प्रवियों को छोड़कर मरता है। अ की मृत्यु के समय सहदायिकी भग्न नहीं हुई थी। अ का सहदायिकी सम्पत्ति में अंश निर्धारित करने के लिए यह उपधारणा की गई कि जैसे उसके जीवन-काल में ही विभाजन हो गया था और उस दशा में उसको 1/4 भाग मिलता। यहाँ यह द्रष्टव्य है कि सन् 1937 ई० में हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी ऐक्ट पास किया गया था जिसमें किसी विधवा को मृत पति की सम्पत्ति के सम्बन्ध में सहदायिक-जैसा अधिकार प्रदान कर दिया गया था जिससे वह अपने पुत्रों के साथ एक समान अंश की अधिकारिणी बना दी गई थी। हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 उक्त 1937 के ऐक्ट को उसी रूप में स्वीकार करता है, अत: विधवा पत्नी को 1/4 तथा दोनों पुत्रों में से प्रत्येक को 1/4 भाग प्रदान किया गया। पुन: 1/4 जो मृत अ का अंश था, उसकी विधवा पत्नी, दो पुत्र एवं पाँच पुत्रियों में बाँट दिया गया और इस प्रकार प्रत्येक को 1/32 भाग प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्त में ब को 1/4+1/32=9/32 दोनों पुत्रों में से प्रत्येक को 1/4+1/32=9/32 तथा अन्य शेष दायादों को अर्थात् प्रत्येक पुत्री को 1/32 भाग प्रदान किया गया।

1937 में पास किये गये हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी ऐक्ट के अस्तित्व में बने रहने के ही आधार पर श्रीमती नीलव्वा बनाम भीमव्वा’ का मामला कर्नाटक उच्च न्यायालय ने भी इसी प्रकार निर्णीत किया है जिसमें एक संयुक्त परिवार में म, उसकी दत्तक-ग्रहीता माता ब तथा उसकी पत्नी न के बीच सम्पत्ति के न्यागमन का प्रश्न था। जब म की मृत्यु हो गई तो न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसका अपना अंश जो पूरी सम्पत्ति में 1/2 था उसकी दत्तकग्रहीता माता तथा पत्नी में बराबर न्यागत हो जायेगा अर्थात् प्रत्येक 1/4 अंश प्राप्त करेगी। इस प्रकार दत्तकग्रहीता माता ब 1/2+1/4=3/4 भाग तथा उसकी पत्नी केवल 1/4 अंश प्राप्त करेगी।

नम्बी नारायण राव बनाम नम्बी राजेश्वर राव के वाद में दत्त ग्रहीता पुत्र को अपने पिता के संयुक्त सहदायिक सम्पत्ति में 1/3 भाग का हिस्सेदार माना गया था। प्रस्तुत मामले में विधवा जो कि सहदायिक की पत्नी थी पति के मृत्योपरान्त उसने दत्तक ग्रहण में एक पुत्र लिया। जब उसके पति की मृत्यु हुयी तब 1956 का अधिनियम प्रभाव में नहीं था जिसकी वजह से विधवा को 1937 में पास किये गये हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट के अस्तित्व में बने रहने के आधार पर पति का अंश पत्नी को पूर्ण अधिकार सहित अन्तरित नहीं हुआ परन्तु उसे संयुक्त अंश धारक की भाँति 1937 के अधिनियम की धारा 3 में वर्णित शर्तों के अधीन सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त होगा।

कन्ट्रोलर ऑफ स्टेट ड्यूटी बनाम श्रीमती अनारी देवी के वाद में एक हिन्दू का अविभक्त परिवार था जिसमें ड तथा उसकी दो पत्नियाँ ‘त’ तथा ‘थ’ थी और एक पुत्र तथा तीन पुत्रियाँ थीं। ड 1957 में मर गया और उसकी पत्नी त 1958 में मर गई। न्यायालय ने यह कहा कि त का अंश ङ्केपति से प्राप्त सहायी सति में 119 है। का अंसा सहदायिकी सम्पत्ति में 1/4 सास लिया जायेगा

और फिर 1/4 अंश, तीन पुत्रियाँ, एक पुत्र तथा दो पत्नियाँ मिलकर एक-एक अंश को ही प्राप्त करेंगी। इस प्रकार दोनों पत्नियों के हक को मिलाकर 1/20 अंश आया जिसमें प्रत्येक ने 1/40 अंश को प्राप्त किया। २० के० पत्तम्मल बनाम पी० के० कल्याणी के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई भी पैतृक सम्पत्ति का विभाजन उनके सहदायिकों के बीच होगा क्योंकि प्रत्येक सहदायिकी ऐसी सम्पत्ति में जन्म से अधिकारी होता है। तत्पश्चात् ऐसी विभक्त सम्पत्ति का विभाजन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 से 10 के अन्तर्गत किया जायेगा।

1. ए० आई० आर० 1982 कर्ना० 3071

2. ए० आई० आर० 2008 (एन० ओ० सी०) आ० प्र० 16061

3. ए० आई० आर० 1972 इला० 1791

4. ए० आई० आर० 2001 एन० ओ० सी० 58.

आर० लक्ष्मी व अन्य बनाम एन० तिलागवली व अन्य के वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि काल्पनिक विभाजन के अन्तर्गत हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक को जो सम्पत्ति दी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति पूर्ण सम्पत्ति में परिवर्तित हो जाती है और वह इस अधिनियम के प्रथम वर्ग की सूची के अन्तर्गत न्यागत होती है। इस वाद में न्यायालय ने यह अभिमत व्यक्त किया कि ऐसे व्यक्ति की स्वअर्जित सम्पत्ति का न्यागमन अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत होगा और ऐसी सम्पत्ति में पत्नी, पुत्रों एवं पुत्रियों का विभाजन में बराबर हिस्सा होगा।

सुभाष एकराव खाण्डेकर बनाम प्रज्ञा बाई मनोहर बिरादर’ के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अवैध सन्तानों को सहदायिकी सम्पत्ति में किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं प्राप्त होगा।

दृष्टान्त

विद्यावेन बनाम जगदीश चन्द्र नन्दशंकर’ का वाद इसी प्रकार का एक दूसरा उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस वाद के तथ्यों के अनुसार मृत सहदायिकी अपनी पत्नी. पत्र तथा चार पुत्रियों को छोड़कर मरता है। सहदायिकी सम्पत्ति में न्यायालय ने उपर्युक्त व्याख्या के अनुसार मृत सहदायिक का 1/3 अंश निर्धारित किया। शेष 1/3 अंश पुत्र को तथा 1/3 अंश पत्नी को प्रदान किया हुआ माना गया। 1/3 अंश पत्नी को इसलिए मिला हुआ समझा जायेगा कि हिन्दू नारी के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1937 के अनुसार पत्नी को अपने पति तथा पुत्रों के साथ सहदायिकी सम्पत्ति में एक अंश समान रूप से पाने का हक प्रदान कर दिया गया था। अब मृत सहदायिक का कल्पित 1/3 अंश पुन: उसकी पत्नी, पुत्र तथा चार पुत्रियों में बराबर-बराबर विभाजित हो जायेगा। इस प्रकार उस 1/3 अंश में पत्नी को 1/18, पुत्र को 1/18 तथा प्रत्येक पुत्रियों को 3/18 अंश प्रदान किया जायेगा अर्थात् समस्त सहदायिकी सम्पत्ति में पत्नी 1/3+1/18 अंश, पुत्र 1/3+1/18 अंश तथा प्रत्येक पुत्री केवल 1/18 अंश प्राप्त करेगी।

व्याख्या 2–दृष्टान्त 2 तथा 3 से यह स्पष्ट हो जायेगा कि व्याख्या 2 में पुत्र को संयुक्त रहने की प्रेरणा प्राप्त होती है। अधिनियम में इस बात का ध्यान रखा गया है कि वह व्यक्ति पूरे सहदायिकी से अलग हो गया है और उसमें अपना अंश ले चुका है, अपने पिता की मृत्यु पर पुन: किसी हिस्से का दावा न कर सके तथा अविभक्त पुत्र के अपवर्जन में सम्पत्ति प्राप्त करे। मिताक्षरा सहदायिकी का विभाजन व्यक्तिगत इच्छा पर निर्भर करता है। यह भी उल्लेखनीय है कि यह व्याख्या तभी लागू होगी जबकि न्यागमन निर्वसीयती उत्तराधिकार के द्वारा सम्पन्न होगा। यह व्याख्या स्त्री दायादों के लिए लागू नहीं होगी, क्योंकि वे सहदायिक नहीं होती।

– आरेख 1

-ब (भाई)

क (पुत्र)

ख (पुत्री)

उपर्यक्त आरेख में अ तथा ब तथा क संयुक्त रूप से एक सहदायिकी का निर्माण करते हैं। अ के जीवन-काल में क सहदायिकी से अलग हो गया। बाद में अ की मृत्यु हो जाती है। अ की

1. ए० आई० आर० 2009 एन० ओ० सी० 270 मद्रास।

2. ए० आई० आर० 2008 बम्बई 461

3. ए० आई० आर० 1974 गु० 231

4. गिरजाबाई बनाम सदाशिव, 1919 पी० सी० 1041

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(2) क तथा उसके पुत्र च, छ, ज एक मिताक्षरा सहदायिकी का निर्माण करते हैं, जिनमें 40,000 रु० की सम्पत्ति है। च, छ, ज तथा एक पुत्री म को छोड़कर क मर जाता है। यदि विभाजन मृत्यु के ठीक पूर्व हो जाता तो क को 1/4 अंश प्राप्त होता, अर्थात् 10,000 रु० का अंश सहदायिकी की सम्पत्ति में। यह अंश दायाद च, छ, ज तथा पुत्री म में धारा 10 के अनुसार समान रूप से विभाजित होगा। इस प्रकार म को सम्पूर्ण सम्पत्ति का 1/16 अंश प्राप्त होगा तथा च, छ, ज प्रत्येक को उसमें 1/16 अंश प्राप्त होगा, अर्थात् 2,500 रु० प्राप्त होगा। इस प्रकार च, छ, ज प्रत्येक को 10,000 रु०+2,500 रु० अर्थात् 12,500 रु० प्राप्त होगा तथा म को 2,500 रु० प्राप्त होगा।

(3) उपर्युक्त उदाहरण में यदि च क के जीवन-काल में अलग हो गया है और अपने अंश का 1/4, अर्थात् 10,000 रु० ले चुका है तो क की मृत्यु के बाद 3/4 अंश छ, ज तथा पुत्री म में विभाजित होगा, अर्थात् 30,000 रु० इन व्यक्तियों में विभाजित होगा, च को अपवर्जित किया जायेगा। छ, ज तथा म क के 1/3 अंश अथवा कुल सम्पत्ति के 1/4 अंश को ग्रहण करेंगे, अर्थात् क के 10,000 रु० के अंश में 3333 रु० 5 आना 4 पाई ज , छ तथा म प्रत्येक को अलग-अलग प्राप्त होगा। इस प्रकार छ का कुल अंश 10,000 रु०+3,333 रु० 5 आना 4 पाई, अर्थात् 13,333 रु० 5 आना 4 पाई तथा ज को 10,000 रु०+3,333 रु० 5 आना 4 पाई अर्थात् 13,333 रु० 5 आना 4 पाई तथा म को कुल 3,333 रु० 5 आना 4 पाई प्राप्त होगा। परिणामत: च को छ, ज से कम हिस्सा प्राप्त होता है, क्योंकि वह अलग हो गया था।

किन्तु जहाँ पिता अपने सभी पुत्रों से विभाजन के बाद अलग हो जाता है और बाद में निर्वसीयत मर जाता है वहाँ उसकी सम्पत्ति केवल उसकी विधवा पत्नी में ही नहीं न्यागत होगी। इस धारा की व्याख्या (2) के अनुसार यह नहीं कहा जा सकता है कि उसके वे पुत्र जो अलग हो गये हैं उस सम्पत्ति में हकदार नहीं होंगे। व्याख्या (2) में अलग न हुए पुत्र अलग हुए पुत्रों को दाय प्राप्त करने से अपवर्जित करते हैं किन्तु जहाँ सभी पुत्र अलग हो गये हैं वहाँ सभी समान हैं और ऐसी स्थिति में धारा 6 की व्याख्या (2) लागू नहीं होगी। पटना उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त विधि प्रतिपादना को उल्लिखित करते हुये एक मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पिता जो अपने सभी पत्रों से अलग हो गया था अपनी विधवा पत्नी, दो पुत्रियों, एक पुत्र तथा दो पूर्वमृत पुत्रों के दायादों को छोड़कर मरता है वहाँ पिता की सम्पत्ति सभी उपर्युक्त दायादों में बराबर-बराबर न्यागत हो जायेगी अर्थात् उसकी विधवा पत्नी एक अंश, उसकी प्रत्येक पुत्रियाँ एक-एक अंश, जीवित पुत्र एक अंश तथा दो मृत पुत्रों की सन्ताने एवं दायाद प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक समूह (Set) एक-एक अंश लेंगे। इस प्रकार सम्पूर्ण सम्पत्ति छ: अंशों में विभाजित होगी और प्रत्येक 1/6 अंश लेगा।

प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त-प्रतिनिधित्व का सिद्धान्त हिन्दू विधि में यह अर्थ रखता है कि पुत्र, पौत्र जिसका पिता मर चुका है तथा प्रपौत्र जिसका पिता तथा पितामह मर चुका है, सभी एक होकर पैतृक पूर्वजों की स्वार्जित तथा पृथक् सम्पत्ति को एक साथ उत्तराधिकार में प्राप्त करते हैं। कारण यह है कि पौत्र अपने मृत पिता के अंश का प्रतिनिधित्व करता है तथा प्रपौत्र अपने मृत पिता तथा पितामह दोनों के हक का प्रतिनिधित्व करता है। प्रतिनिधित्व का यह सिद्धान्त अनुसूची के वर्ग (1) में विहित सभी दायादों के लिये अनुवर्तित माना जायेगा। वे एक साथ अंश ग्रहण करेंगे, किन्तु वे उत्तरजीविता के अधिकार से सहदायिक के रूप में नहीं ग्रहण करेंगे न तो समान अंश में ग्रहण करेंगे।

अ एक पत्र ब को तथा पौत्र स जो पूर्वमृत य का पुत्र है, को छोड़कर मरता है। सहदायिकी सम्पत्ति ब तथा स को उत्तरजीविता से चली जायेगी। स अपने पिता य का प्रतिनिधित्व करेगा।

भाग पुरुष सेठ बनाम पूर्णी दी व अन्य, के मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि

1. सतनारायन महतो बनाम रामेश्वर महतो, ए० आई० आर० 1982 पटना 441

2. ए० आई० आर० 2003, एन० ओ० सी० 171 उड़ीसा।

जहाँ किसी संयक्त हिन्दू परिवार में कोई पुरुष उत्तराधिकार मौजूद नहीं है, अर्थात सभी की गयी हो और वहाँ केवल एक मात्र विवाहिता पुत्री ही मौजूद हो तो ऐसी स्थिति में सम्पर्ण सम्पत्ति पत्री को न्यागत होगी।

मिताक्षरा सहदायिकी में न्यागमन की रीति संशोधन

अधिनियम 2005 के पश्चात्

6. सहदायिकी सम्पत्ति में के हित का न्यागमन (1) मिताक्षरा विधि द्वारा शासित संयुक्त हिन्दू परिवार में हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 लागू होने के समय एक सहदायिक के रूप में पुत्री भी होगी।

(अ) जन्म से एक पुत्र की भाँति पुत्री अपने व्यक्तिगत अधिकार से सहदायिक होगी,

(ब) उसका उसी प्रकार से सहदायिक सम्पत्ति में अधिकार होगा जैसा कि उसे एक पुत्र की भाँति होता।

(स) एक पुत्र की भाँति ही सहदायिक सम्पत्ति के सम्बन्ध में दायित्वाधीन होगी। और हिन्दू मिताक्षरा सहदायिक का कोई भी सन्दर्भ एक सहदायिक पुत्र की भाँति सम्मिलित समझा जाएगा।

उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत यह प्राविधान है कि 20 दिसम्बर 2004 से पहले कोई प्रदाय या विक्रय जिसमें कोई बंटवारा अथवा किसी सम्पत्ति का दाय लिखत इस उपधारा में लिखित हो को प्रभावित अथवा अविधिक नहीं करेगा।

(2) इस अधिनियम अथवा तत्समय प्रवृत्त किसी विधि के होते हुए भी उपधारा (1) के कारण कोई सम्पत्ति जिसकी हिन्दू स्त्री अधिकृत है वह सहदायिक स्वामित्व के किसी बिन्दु के कारण धारित करेगी और उसके द्वारा व संदाय लिखत को अन्तरित करने के लिए सक्षम है।

(3) जहाँ हिन्द्र उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम 2005 लागू होने के पश्चात् एक हिन्दू मरता है तो मिताक्षरा विधि से शासित उसकी संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में हित लिखत संदाय अथवा बिना उत्तराधिकार के जैसे भी हो, इस अधिनियम द्वारा न्यागत होगा न ङ्केकि उत्तराधिकार द्वारा और सहायिका सम्पत्ति विभाजित समझी जाएगी जैसा कि उस सम्पत्ति का विभाजन हो गया हो और

(अ) पुत्री को पुत्र की भाँति ही हिस्सा आबंटित होगा।

(ब) पूर्व में मृतक पुत्र अथवा पुत्री का हिस्सा, जैसा कि उनके जीवित होने की अवस्था में विभाजन के समय प्राप्त होता, उस पूर्व मृत पुत्र अथवा पुत्री के जीवित बच्चों को आवंटित होता, और।

(स) पर्व में मृत पत्र के पूर्व में मृतक बच्चा अथवा पूर्व मृत पुत्री का हिस्सा उस रूप में जैसा कि वह बच्चा प्राप्त करता अथवा जैसा कि विभाजन के समय वह जीवित होती वह अंश पूर्व मृत पुत्र अथवा पूर्व मृत पुत्री के पूर्व मृत बच्चे को आवंटित होगा।

स्पष्टीकरण-इस उपधारा के प्रयोजनों के लिए हिन्द्र मिताक्षरा सहदायिकी का हित सम्पत्ति में का वह अंश समझा जायगा जो उसे बंटवारे में मिलता यदि उसकी मृत्यु से अव्यवहित पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता, इस बात का विचार किए बिना कि वह विभाजन का दावा करने का हकदार है या नहीं।

(4) हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के पश्चात् न्यायालय

किसी भी ऋण के निष्पादन के लिए जो कि पिता, दादा परदादा के ऋणों की अदायगी के सम्बन्ध में हिन्दू विधि के अन्तर्गत पवित्र दायित्व के आधार पर पुत्र, पौत्र प्रपौत्र के विरुद्ध कोई भी संज्ञान नहीं लेगा।

परन्तु यह कि हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के पूर्व संविदात्मक किसी ऋण के सम्बन्ध में इस उपधारा में अन्तर्विष्ट को प्रभावित नहीं करेगा।

(अ) देनदार का पुत्र, पौत्र अथवा प्रपौत्र जैसी स्थिति हो, के विरुद्ध वाद संस्थित करने का अधिकार, या

(ब) किसी संतुष्टि अथवा किसी ऋण अथवा कोई ऐसा अधिकार या विक्रय जो इस सम्बन्ध में विक्रय किया गया हो वह पवित्र उत्तरदायित्व के सिद्धान्त के अन्तर्गत किया गया हो यह उसी सीमा तक प्रभावी होगा मानों हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 अधिनियमित न किया गया हो, पर लागू होगा।

स्पष्टीकरण-अनुच्छेद (अ) के उद्देश्य के लिए अभिव्यक्ति “पुत्र”, “पौत्र” या “प्रपौत्र’, पुत्र, पौत्र अथवा प्रपौत्र जैसी कि स्थिति हो, जो हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के लागू होने के पूर्व उत्पन्न हुआ हो या गोद लिया गया हो, से सन्दर्भित समझा जाएगा।

(5) इस धारा में अन्तर्विष्ट कुछ भी ऐसे विभाजन के सम्बन्ध में नहीं लागू होगा जो 20 दिसम्बर 2004 के पूर्व प्रभावी हो चुका हो।’

स्पष्टीकरणइस धारा के उद्देश्य “विभाजन’ विभाजन का अर्थ ऐसा विभाजन है जो विभाजन के लिखत द्वारा निष्पादित किया गया हो तथा रजिस्ट्रेशन अधिनियम, 1908, के अन्तर्गत विधिवत पंजीकृत किया गया हो या न्यायालय की डिक्री द्वारा विभाजन किया गया हो।”

हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के पश्चात् की स्थिति-हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पारित होने के पश्चात् मिताक्षरा सहदायिक की अवधारणा उतनी प्रभावित नहीं हुयी जितना हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के पारित होने से हुयी। इस संशोधन के पश्चात् मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में एक नयी अवधारणा को जन्म दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप सहदायिक सम्पत्तियों में पुत्रियों को भी पुत्रों के समान पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हिस्सा दे दिया गया। इस अधिनियम के द्वारा जो भी असमानतायें सम्पत्ति के सम्बन्ध में स्त्री और पुरुषों के बीच थीं वह पूरी तरह से समाप्त कर दी गयी, जिसकी वजह से हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 4 (2), धारा 6, धारा 23 व 24 तथा धारा 30 प्रभावित हुयी अर्थात् हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 के अन्तर्गत जो व्यवस्था मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति के सम्बन्ध में थी, इस संशोधन के पश्चात् धारा 6 कुछ सीमा तक प्रभावित हुई।

इस अधिनियम के पश्चात् किसी संयुक्त हिन्दू परिवार में ऐसी स्त्रियाँ स्वतः सहदायिक नहीं मानी जायेंगी बल्कि उन्हें पैतृक सम्पत्ति के विभाजन में पुत्रों के बराबर सम्पत्ति प्रदान की जायेगी, और इस अधिनियम के पश्चात् जो भी स्त्रीवर्ग के दायाद, ऐसे संयुक्त हिन्दू परिवार में जन्म लेंगी वे ऐसे परिवार की जन्मतः सहदायिक मानी जायेगी और उनको सहदायिकी सम्पत्ति में जन्मत: अधिकार होगा।

इस संशोधन अधिनियम के पश्चात् प्रत्येक स्त्री (पुत्री) को चाहे वह विवाहिता हो अथवा अविवाहिता हो उसको मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति के अन्तर्गत जन्म से अधिकार दे दिया गया और वह सम्पत्ति के विभाजन में पुत्रों के साथ समान भागिता के अन्तर्गत सम्पत्ति को धारण करेगी अर्थात् मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति के काल्पनिक विभाजन के सिद्धान्त को इस संशोधन के अन्तर्गत पूर्णतया समाप्त कर दिया गया और वे सारे अधिकार पुत्रियों को स्वत: अधिरोपित हो गये जो हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत पुत्रों को प्राप्त थे अर्थात् पुत्रों की भाँति पुत्रियों को भी अपनी पैतृक सम्पत्ति में बराबर की हिस्सेदारी होगी।

इस संशोधन अधिनियम के तहत हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 23 में भी महत्वपूर्ण संशोधन किये गये जिसके अन्तर्गत जो अधिकार पुत्रों को प्रदत्त थे वे सभी अधिकार पुत्रियों तथा विधवा

1. बृजनारायण अग्रवाल बनाम अनूप कुमार गोयल, ए० आई० आर० 2007 दिल्ली 2541

2. वैशाली सतीश गनोरकर बनाम सतीश केशवराव गनोरकर, ए० आई० आर० 2012 मुम्बई 101||

स्त्रियों को भी प्रदत्त कर दिए गए अर्थात् वे निवास के साथ-साथ ऐसी सम्पत्ति के बँटवारे की माँग कभी भी उठा सकती हैं और पैतृक सहदायिक सम्पत्ति का बँटवारा भी करा सकती हैं। इस संशोधन अधिनियम के अन्तर्गत पुत्रियों को इस बात का भी अधिकार दिया गया कि वह अपने पिता के जीवन काल में ही सम्पत्ति विभाजन की माँग कर सकती हैं। इसके साथ ही हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 24 के अन्तर्गत जो व्यवस्थायें थीं उन्हें इस संशोधन के द्वारा पूर्णतया समाप्त कर दिया गया। वर्तमान संशोधन के अन्तर्गत यदि विधवा स्त्री पुनः विवाह कर लेती है तो ऐसी स्थिति में वह अपने पूर्व पति की सम्पत्ति में हिस्सेदारी प्राप्त करने से वंचित नहीं होगी अर्थात् इस संशोधन अधिनियम का परिणाम यह हुआ कि वह अपने पूर्व पति के सम्पत्ति में अपनी सन्तानों के साथ बराबर से सम्पत्ति प्राप्त करने की अधिकारी होगी, इसके साथ ही पूर्व उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 30 में भी परिर्वतन किया गया और परिर्वतन के पश्चात् वसीयती उत्तराधिकार के सम्बन्ध में जो व्यवस्था पुत्रों के सम्बन्ध में थी वे सारी व्यवस्थायें पुत्रियों को भी प्रदत की गयीं।

डॉ० जी० कृष्णा मूर्ति बनाम भारत संघ, के वाद में न्यायालय के द्वारा यह अभिपुष्टि की गयी ङ्केकि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा असाथी 1 में जो परिवर्तन किया गया एवं उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 23 व 24 को समाप्त करने से तथा सहदायिक सम्पत्ति में पुत्रियों को विभाजन का अधिकार देने से भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14, 15(2), व 15(3) एवं अनुच्छेद 16 के माध्यम से लिंग-भेद को दूर करने के विचार से इस संशोधन को असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता है

और पुनः इस सन्दर्भ में बाबू डांगदू अंबरी बनाम बेबी, के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया कि उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पूर्व जन्मी पुत्रियाँ भी पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने की अधिकारी होंगी और वह ऐसी सम्पत्ति के विभाजन के लिये भी न्यायालय में वाद ला सकती हैं।

वर्तमान उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम 2005 एवं पूर्व उत्तराधिकार अधिनियम 1956 को हम निम्न शीर्षों के अन्तर्गत अन्त:स्थापित कर सकते हैं।

स्त्रियों के सम्बन्ध में असंशोधित अधिकार व संशोधित अधिकार

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956

हिन्दू उत्तराधिकार संशोधित के अन्तर्गत

अधिनियम 2005 के अन्तर्गत कृषि भूमि के सम्बन्ध में धारा 4 (ii)

1956 के अधिनियम के अन्तर्गत कृषि भूमि जब कि संशोधित उत्तराधिकार अधिनियम से सम्बन्धित उत्तराधिकार के सम्बन्ध में राज्य 2005 के अन्तर्गत भूमि के सम्बन्ध में जो कि स्तरीय नियम लागू होते हैं न कि हिन्दू उत्तराधिकार राज्य स्तरीय नियम थे, तथा पुत्र एवं पुत्रियों के अधिनियम के अन्तर्गत। यह राज्य स्तरीय नियम बीच भेद उत्पन्न करते थे, उन्हें समाप्त कर दिया (कानून) पुत्र और पुत्रियों के बीच उत्तराधिकार के गया तथा पुत्र एवं पुत्रियों को समान रूप से कृषि सम्बन्ध में विभेद करते हैं।

भूमि में अधिकार प्रदान कर दिया गया।

मिताक्षरा संयुक्त परिवार सम्पत्ति, धारा 6

सूची के अन्तर्गत पुरुष एवं स्त्रियों के बीच इसमें कोई परिर्वतन नहीं किया गया मिताक्षरा संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति के बल्कि अनुसूची 1 के वर्ग 1 के सन्दर्भ में काल्पनिक विभाजन के अन्तर्गत विभेद किया गया उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में विवरण प्रस्तुत किया गया जिसके अन्तर्गत धारा 7 के द्वारा अनुसूची 1 के वर्ग 1 में पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत पुत्री

का पुत्र, पूर्व मृत पुत्री की पूर्व मृत पुत्री की पुत्री,

1. ए० आई० आर० 2015, मद्रास 114.

2. ए० आई० आर० 2015 बम्बई एन० ओ० सी० 446..

पुत्रों को संयुक्त हिन्दू परिवार की पैतृक सम्पत्ति में जन्म से अधिकार था परन्तु पुत्रियों को इस सम्बन्ध में कोई अधिकार नहीं प्राप्त था।

पूर्व मृत पुत्री के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री, पूर्व मृत पुत्र की पूर्व मृत पुत्री की पुत्री का समावेश किया गया।

जब कि संशोधित उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत पुत्र एवं पुत्रियों को जन्म से सहदायिक सम्पत्ति में अधिकार स्वतंत्र रूप से प्रदत्त किया गया।

पैतृक निवास से सम्बन्धित अधिकार धारा 23

पूर्व अधिनियम के अन्तर्गत मृतक के परिवार के पुरुष दायादों को मृतक की सम्पत्ति में रहने अथवा विभाजन करने का अधिकार प्रदत्त था परन्तु पुत्रियों को केवल मृतकं की सम्पत्ति में रहने का ही अधिकार था, जिसमें केवल वे ही पुत्रियाँ जो कि अविवाहित हों, अथवा जिनका पति द्वारा अभित्याग कर दिया गया हो अथवा विधवा हो, अथवा पृथक रहती हो।

जब कि संशोधित अधिनियम के अन्तर्गत पूर्व अधिनियम की धारा 23 को समाप्त कर दिया गया है। अतः अब पुत्रियाँ चाहे वह विवाहित हों अथवा अविवाहित हों, उन्हें मृतक के पुत्रों के समान पैतृक सम्पत्ति में रहने एवं विभाजन का पूर्ण अधिकार प्रदत्त कर दिया गया है।

पुनः विवाहित विधवाओं के अधिकार : धारा 24

पुत्र की विधवा, पौत्र की विधवा, भाई की जब कि अधिनियम 2005 के द्वारा धारा विधवा, यदि उत्तराधिकार का सूत्रपात होने की 24 को समाप्त कर दिया गया है अत: पुत्र की तिथि में पुन: विवाहित है तो वह विधवा के रूप विधवा, पौत्र की विधवा, भाई की विधवा यदि में उत्तराधिकार पाने के लिये हकदार नहीं होगी। पुन: विवाहित है तो भी वह उत्तराधिकार पाने के लिये हकदार होगी।

वसीयती उत्तराधिकार : धारा 30

किसी पुरुष को इस बात का पूर्ण अधिकार था कि वह अपनी सम्पत्ति का अथवा संयुक्त हिन्दू परिवार में प्राप्त सम्पत्ति का वसीयत कर सकता जबकि अधिनियम 2005 के अन्तर्गत पुरुष के साथ ही साथ स्त्री को भी यह अधिकार प्रदान कर दिया गया है कि वह अपने पैतृक सम्पत्ति अथवा संयुक्त हिन्दू परिवार से प्राप्त सम्पत्ति में सम्पत्ति की वसीयत कर सकता है अथवा कर सकती है।

मृतक पुरुष के स्वअर्जित सम्पत्ति के सम्बन्ध में अनुसूची वर्ग-1 –

अनुसूची-वर्ग 1 में हिन्दू पुरुष के जबकि संशोधित अधिनियम 2005 के उत्तराधिकारियों की सूची के अन्तर्गत उसकी सन्तान अन्तर्गत इस सूची में परिर्वतन करते हुये पुत्रियों तथा उसकी सन्तानों के सन्तान (पुत्रों के सम्बन्ध की भी दो पीढ़ियों को भी सम्मिलित किया गया में) के सम्बन्ध में दो पीढ़ियाँ तथा पुत्रियों के जो कि पुत्र एवं पुत्रियों के बीच विभेद को सम्बन्ध में एक पीढ़ी तक के वर्गों को सम्मिलित समाप्त करते हैं। किया गया।

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LLB Hindu Law Chapter 7 Post 4 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Chapter 7 Post 4 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार में पढ़ने जा रहे है

जैसा कि उत्तराधिकार के मूल अधिनियम में मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति के न्यागमन के दो कम प्रदान किये गये है प्रथम उत्तरजीविता तथा दूसरा उत्तराधिकार परिवार की पैतृक सम्पत्ति में उत्तरजीविता सहक उत्पन्न होता है तथा पधक व स्वअर्जित सम्पत्ति में उत्तराधिकार द्वारा हक उत्पन्न होता है। हिन्द्र पुरुष की सम्पत्ति पृथक अथवा स्वअर्जित हो सकती है अथवा सहदायिक हो सकती है। जब भी संयुक्त पारवार को सम्पत्ति में न्यागमन का प्रश्न उठता है तो पैतृक अथवा अपैतृक सम्पत्ति में एवं अप्रतिबन्धदाय तथा उसका सपतिबन्ध दाय में अन्तर किया जाता है हिन्दु निर्वसीयती सम्पत्ति में उत्तराधिकार के क्रम को मूल अधिनियम की धारा 5 के प्रतिबन्धों के साथ सन्नियमित किया गया है तथा धारा 6 के अन्तर्गत हिन्द्र पुरुष के सहदायिक सम्पत्ति के न्यागमन का विवेचना किया गया है अर्थात् जब कोई हिन्दू पुरुष मिताक्षरा सहदाधिक सम्पत्ति में अपनी मृत्यु के समय अपने हक को रखते हुये मूल अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् मरता है तो उसका हक सहदायिकी में उत्तरजीवित सदस्यों पर उत्तरजीविता के आधार पर न कि इस अधिनियम के उपबन्धो के अनुकूल न्यागत होगा किन्तु यदि मृतक अधिनियम को अनुसूची 1 में उल्लिखित किसी सो नातेदार को छोड़कर मरता है तो मिताक्षर सहदायिक सम्पत्ति में मृतक का हक इस अधिनियम के अन्तर्गत उल्लिखित नियमों के अनुसार न कि उत्तरजीविता द्वारा यथास्थिति वसीयती अथवा निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा। धारा 6 के इस उपरोक्त प्रावधान द्वारा मिताक्षरा सहदायिकी के इस मौलिक स्वरूप में जो परिवर्तन किया गया उसमें सियों को मिताक्षरा सहदायिक सम्पत्ति में किसी भी प्रकार से दाय का अधिकार नहीं प्राप्त था और न हो वे सहदायिकी की सदस्य समझी जाती थी लेकिन वर्तमान उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के अन्तर्गत विधायिका ने पुत्र एवं पुत्रियों के इस विभेद को समाप्त कर दिया और पुत्रियों को भी जन्मतः सहदायिक सम्पत्ति में अधिकार पुत्रों के बराबर स्वतंत्र रूप से प्रदान कर दिया अर्थात पुत्रियों को भी अपनी पैतृक सम्पत्ति में पुत्रों के समान जन्मतः रहने एवं विभाजन करने का पूर्ण अधिकार प्रदान कर दिया गया। अभी हाल में अनार देवी व अन्य बनाम परमेश्वरी देवी व अन्य के बाद में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 में हुई संशोधन के पूर्व बँटवारों के सन्दर्भ में तथा पक्षकारों के हितों एवं अधिकारों के सन्दर्भ में संशोधन से पूर्व (उत्तराधिकार अधिनियम, 1956) की विधि ही प्रभावी होगी।

प्रभु दयाल बनाम श्रीमती राम सिया व अन्य के मामले में पुन: मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मत को अभिपुष्टि करते हुये यह अभिनिधारित किया कि हिन्द उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पारित होने के पश्चात् यह निश्चित हो चुका है कि पैतृक सम्पत्ति में पुरुषों के साथ स्त्रियाँ भी सहदायिक के रूप में जन्मतः अधिकार प्राप्त करेगी जिसके परिणामस्वरूप वह उन सम्पत्तियों में बँटवारे को माँग कर सकती है। प्रस्तुत बाद में न्यायालय ने यह भी सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में पक्षकार गणों के द्वारा इस संशोधन अधिनियम के पूर्व कोई बात उठायी गयी हो वहाँ ऐसे मामलों का निस्तारण हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के द्वारा तय किया जायेगा लेकिन जहाँ पर कोई वाद न्यायालय के समक्ष लम्बित है और लम्बित रहने के दौरान यह संशोधन पारित हो गया है तो ऐसी स्थिति में स्त्रियों को इस बात का अधिकार उत्पन्न हो जायेगा कि वह सहदायिक की हैसियत में ऐसे सम्पत्ति में विभाजन के लिये वाद न्यायालय के समक्ष ला सकती है।

पुनः हरिशंकर शर्मा बनाम पूरन सिंह के बाद में इस बात को अभिपुष्टि की कि जहाँ उत्तराधिकार के सम्बन्ध में कोई वाद न्यायालय के समक्ष लम्बित है और उस मामले में न्यायालय द्वारा अन्तिम निर्णय नही दिया गया है और बाद के दौरान संशोधन अधिनियम पारित हो गया हो तो ऐसे मामले में संशोधन अधिनियम के प्रावधान उस पर लागू होगे।

गंधारी कोटेश्वर अम्मा बनाम छाकरी पानदी, के वाद में पुन: उच्चतम न्यायालय ने इस बात

1 . आई. आर० 2006 एस० सी० 3332; विरल कुमार नटवर लाल पटेल बनाम कपिला बेन अनीलाल जीवन भाई व अन्य, ए० आई० आर० 2009 गुजरात 1841

2. ए. आई. आर० 2009 एम० पी० 52; देखें, तसवीर पाल कौर बनाम सुखमिन्दर सिंह, ए० आई आर० 2009 एन० ओ० सी० 2205 पंजाब व हरियाणा।

3. ए० आई० आर० 2012 एन० ओ० सी०215 राजा 11

4. अई. आर० 2012 एस० सी० 169, देखें; प्रेमा बनाम नानजी गोंड़ा, ए० आई० आर० 2011 एस. सी. 20771

की अभिपुष्टि की कि यदि सहदायिकी सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में अधीनस्थ न्यायालयों के द्वारा कोई प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित की गयी हो और ऐसे विचारण में अन्तिम आज्ञप्ति पारित न की गयी हो, तथा विचारण के दौरान हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम पारित हो गया हो तो अन्तिम डिक्री पारित होने के पूर्व, कोई सी वर्ग के दायाद ऐसे बाद में अपने हिस्से का दावा प्रस्तुत कर सकती है। और न्यायालय प्रारम्भिक डिक्री में पारित हिस्से में परिवर्तन कर सकती है। पुन: केरल उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005, पारित होने के पश्चात् कोई भी विवाहिता पुत्री भी अपने सहदायिक सम्पत्ति में हिस्सा पाने की हकदार होगी यदि ऐसी सम्पत्ति का विभाजन होता है और वह सम्पत्ति मिताक्षरा विधि शाखा के द्वारा शासित होती हो। और जहाँ कोई मिताक्षरा संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति के विभाजन के समय यदि मृतक पुत्र की पत्नी मौजूद है वहाँ पुत्रवधू केवल अपने मृतक पति के सम्पत्ति को प्राप्त करने की अधिकारी होगी, किन्तु वह सहदायिकी के रूप में ऐसी सम्पत्ति का विभाजन कराने की हकदार नहीं होगी।

ङ्के एक अन्य बाद में उड़ीसा उस्ल यालय ने यह सित किया कि जहाँ HUMLA अधिनियम के पश्चात् कोई पैतृक सम्पत्ति यदि पुत्री में निहित हो गई है और ऐसा बँटवारा 20 दिसम्बर, 2004 के पूर्व प्रभावी नहीं हुआ था तो ऐसी स्थिति में पैतृक सम्पत्ति में जन्मत: पुत्रियाँ भी सहदायिक के रूप में सम्मिलित कर ली जायेगी और वह जन्मत: ऐसी पैतृक सम्पत्ति में भागीदार हो जायेंगी तथा उन्हें पुत्रों के बराबर सम्पत्ति में अधिकार प्राप्त होगा।

उड़ीसा उच्च न्यायालय ने प्रतिभा रानी त्रिपाठी बनाम विनोद बिहारी त्रिपाठी,’ के वाद में पुनः उपरोक्त मत की अभिपुष्टि करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पैतृक सम्पत्ति का विभाजन हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पश्चात् किया गया हो वहाँ ऐसी सम्पत्तियों में पुत्रों के साथ पुत्रियों को भी सहदायिकी के रूप में सम्मिलित किया जायेगा।

अभी हाल में प्रकाश बनाम फूलवती, के वाद में पुन: उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के द्वारा किसी पैतृक सम्पत्ति में अन्य सहदायिक के साथ पुत्रियाँ भी सहदायिक होगी, चाहे पुत्रियाँ उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पूर्व जन्मी हों या पश्चात् में जन्मी हो, यदि पैतृक सम्पत्ति का विभाजन संशोधन अधिनियम के पश्चात् किया जाता है तो वह अन्य सहदायिकों के बराबर का हिस्सा प्राप्त करेंगी। पुन: मुम्बई उच्च न्यायालय की पूर्ण खण्डपीठ ने बद्री नारायन शंकर भण्डारी बनाम ओम शंकर भण्डारी, के वाद में यह सम्प्रेक्षित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 में संशोधन के पश्चात् ऐसी पुत्रियाँ जो पैतृक सम्पत्ति प्राप्त करने की अधिकारी नहीं थीं, वह इस संशोधन के पश्चात् पैतृक सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त कर सकेंगी चाहे उनका जन्म संशोधन के पूर्व हुआ हो या संशोधन के पश्चात् हुआ हो यदि ऐसी सम्पत्ति का विभाजन संशोधन अधिनियम के पारित होने के बाद किया गया हो तो वह अन्य पुरुष सहदायिकों के साथ ऐसी सम्पत्ति में बराबर से हिस्सा प्राप्त कर सकेंगी।

तारवाड्, तावषि, कुटुम्ब अथवा इल्लम की सम्पत्ति में हक का न्यागमन–(1) जबकि वह हिन्दू, जिसे मरुमक्कत्तायम या नम्बूदरी विधि लागू होती, यदि वर्तमान अधिनियम में परिवर्तन किया गया होता, इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् अपनी मृत्यु के समय यथास्थिति तारवाड्, तावषि, कुटुम्ब या इल्लम की सम्पत्ति में हक रखते हुए मरता है तब सम्पत्ति में उसका हक मरुमक्कत्तायम या नम्बूदरी विधि के अनुकूल वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा न कि इस अधिनियम के अधीन।

व्याख्या-तारवाड्, तावषि तथा इल्लम की सम्पत्ति में एक हिन्दू के हित के विषय में इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये यह समझा जायेगा कि वह यथास्थिति तारवाड्, तावषि एवं इल्लम की सम्पत्ति में वह अंश है जो यदि यथास्थिति तारवाइ, तावषि और इल्लम के समय जीवित सब सदस्यों में उसकी अपनी

1. श्रीमती मैरीटैंगीवा बनाम अनशया व अन्य, ए० आई० आर० 2012 कर्ना० 321

2. ए० आई० आर० 2009 एन० ओ० सी० 862 उड़ीसा। देखें; नन्द किशोर व अन्य बनाम रुक्कमणि देवी, ए० आई० आर० 2012 एन० ओ० सी० 190, राज।

3. ए० आई० आर० 2014 उड़ीसा 74.

4. ए० आई० आर० 2016, एस० सी० 769.

5. ए० आई० आर० 2014, मुम्बई 15 (पूर्ण खण्डपीठ)।

मृत्यु के ठीक पूर्व उस सम्पत्ति का विभाजन व्यक्तिपरक हुआ तो उसे न्यागत होता. चाहे वह अपने अनवर्तनीय मरुमक्कत्तायम या नमत्य म्बूदरी विधि के अन्तर्गत ऐसे विभाजन का दावा करने के लिये हकटार होता या न होता।

(2) जब कि हिन्दू जिसे अलियसंतान विधि लागू होती यदि यह अधिनियम पारित न किया गया होता. इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् यथास्थिति कुटुम्ब या कवरू की सम्पत्ति में अविभक्त हक अपनी मृत्यु के समय रखते हुए मरता है तब सम्पत्ति में उसका अपना हक इस अधिनियम के अन्तर्गत यथास्थिति वसीयती या निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होगा न कि अलियसंतान विधि के अनकला

व्याख्या-कुटुम्ब या कबरू की सम्पत्ति में हिन्दू के हक के बारे में इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये यह समझा जायेगा कि वह यथास्थिति कुटुम्ब की सम्पत्ति में वह अंश है जो यथास्थिति कुटुम्ब या कबरू के उस समय जीवित सब सदस्यों में उसकी अपनी मृत्यु के ठीक पूर्व यदि उस सम्पत्ति का व्यक्तिपरक विभाजन हुआ होता तो उसे न्यागत होता, चाहे वह अलियसंतान विधि के अन्तर्गत ऐसे विभाजन का दावा करने के लिये हकदार हो या न हो।

(3) उपधारा (1) में किसी बात के होते हुए भी जब कोई स्थानम्दार अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् मरता है तो उसकी स्थानम् सम्पत्ति उस परिवार के सदस्यों को, जिसका कि वह स्थानम्दार है, तथा स्थानम्दार दायादों को ऐसे न्यागत होगी जैसे कि स्थानम् सम्पत्ति स्थानम्दार और उस समय जीवित परिवार के सब सदस्यों के मध्य स्थानम्दार की मृत्यु के ठीक पूर्व व्यक्तिपरक रूप से विभाजित कर ली ङ्केपी थी तथा स्था प्रसार के परिवार के सदस्यों और स्थानमार के दामादों को मिलने वाले हफ अपनी पृथक् सम्पत्ति के रूप में धारित किये जायेंगे।

व्याख्याइस उपधारा के प्रयोजनों के लिए स्थानम्दार के परिवार के अन्तर्गत उस परिवार की, चाहे विभक्त हो अथवा अविभक्त, वह शाखा होगी जिसके पुरुष सदस्य यदि यह अधिनियम पारित न किया गया हो तो किसी प्रथा अथवा रूढ़ि के आधार पर स्थानम्दार के स्थान पर उत्तराधिकारी होने के हकदार होते।

न्यागमन की रीति उसी प्रकार है जिस प्रकार मिताक्षरा विधि में धारा 6 के अन्तर्गत एक हिन्दू पुरुष की सहदायिकी सम्पत्ति में हक सम्बन्धी न्यागमन का उल्लेख किया गया है। धारा 7 तारवाड्, तावषि, कुटुम्ब, कबरू तथा इल्लम के सदस्यों की सम्पत्ति में अविभक्त हक के न्यागमन के विषय में उल्लेख करती है। इस धारा में न्यागमन की रीति उसी प्रकार बताई गई है जिस प्रकार धारा 6 में।

हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम उन व्यक्तियों के लिये लागू होता है जो मरुमक्कत्तायम्, अलियसंतान अथवा नम्बूदरी विधि द्वारा प्रशासित होते हैं। मरुमक्कत्तायम् विधि त्रावनकोर कोचीन राज्य में प्रवर्तित है तथा अलियसंतान विधि कन्नड़ तथा मैसूर राज्य के अन्य भागों में लागू होती है। मद्रास व्यवस्थापिका द्वारा तथा त्रावनकोर-कोचीन के राज्य द्वारा बहुत अधिक सीमा तक यह विधि संहिताबद्ध कर दी गयी है। नम्बूदरी लोग सामान्यत: हिन्दू विधि द्वारा प्रशासित होते हैं, किन्तु पश्चिमी घाट की ओर निर्वासित होने के बाद उनकी प्रथाओं एवं रूढ़ियों में बहुत से परिवर्तन आये, जिनका परिणाम यह हुआ है कि नम्बूदरी अधिनियम तथा त्रावनकोर-कोचीन ब्राह्मण अधिनियम उनके लिये अनुवर्तनीय बनाया गया। धारा 7 में यह विशेष प्रावधान बनाया गया है जिससे मरुमक्कत्तायम्, तावड्, अलियसंतान, तावषि तथा नम्बूदरी के पुरुष अथवा स्त्री सदस्य का हक उनके दायादों के वसीयती अथवा निर्वसीयती उत्तराधिकार के द्वारा न्यागत होगा। इसके सम्बन्ध में प्रावधान उसी प्रकार से हैं जिस प्रकार से मिताक्षरा विधि में। धारा 30 में यह स्पष्ट रूप से व्यक्त किया गया है कि तावड्, तावषि, इल्लम, कुटुम्ब अथवा कबरू के किसी सदस्य की सम्पत्ति, जो इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित हो सकती है, उस प्रकार निर्वर्तित की जा सकती है।

टी० सी० राधाकृष्णन बनाम टी० सी० विश्वनाथन नय्यर के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत मरुमक्कतायम् या नम्बूदरी विधि के अन्तर्गत शासित हिन्दू तावषि शाखा के अर्न्तगत एक संयुक्त हिन्दू परिवार के कुछ सदस्यों ने अपनी सम्पत्ति को एक व्यक्ति के पक्ष में कुछ प्रतिफल लेकर हस्तान्तरित किया जबकि उन्होंने अपने बीच ऐसी सम्पत्ति के हिस्से के बारे में कोई हिस्सेदारी का निर्धारण नहीं किया था। उपरोक्त मामले

में न्यायालय के समक्ष जब बँटवारे की बात उठायी गयी तो न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि रस्त तरीके से किया गया संव्यवहार विभाजन का ही भाग है और ऐसी संव्यवहार विभाजन माना जायेगा तथा ऐसा संव्यवहार संयुक्त हिन्दू परिवार के अन्तर्गत शून्य नहीं कहलायेगा।

सम्पत्ति में उत्तराधिकार अधिनियम में सम्पत्ति के न्यागमन के लिए उत्तराधिकार सम्बन्धी भिन्न-भिन्न नियम दिये गये हैं

(1) हिन्दू पुरुष निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरता हुआ।

(2) हिन्दू स्त्री निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरती हुई।

धारा 8 से 13 तक के अन्तर्गत हिन्दू पुरुष के निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरने के बाद के उत्तराधिकार का नियम उल्लिखित है तथा धारा 14 से 16 में हिन्द्र स्त्री की सम्पत्ति के उत्तराधिकार के विषय में वर्णन किया गया है, यदि वह निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरती है। इसका उल्लेख पृथक्-पृथक् किया जायेगा।

हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति के न्यागमन का नियम-अधिनियम की धारा 8 में उत्तराधिकार के वे सामान्य नियम दिये गये हैं जो किसी पुरुष के द्वारा निर्वसीयती निजी सम्पत्ति छोड़कर मरने पर लागू होते हैं। यह धारा किसी पुरुष के पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति में न्यागमन की व्याख्या करती है। इस प्रकार इस धारा के अन्तर्गत जब किसी व्यक्ति को सम्पत्ति दाय में प्राप्त होती है तो वह भी सम्पत्ति उसकी निजी अथवा पृथक् सम्पत्ति मानी जाती है और उसके सम्बन्ध में उसके अपने पुत्रों को कोई जन्मतः अधिकार नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वह संयुक्त सम्पत्ति नहीं मानी जा सकती। इस धारा में दायादों की सम्पत्ति को उत्तराधिकार के उद्देश्य से चार वर्गों में विभाजित किया गया है

(1) अनुसूची के प्रथम वर्ग में उल्लिखित नातेदार;

(2) अनुसूची के द्वितीय वर्ग में उल्लिखित नातेदार;

(3) मृतक के सपित्र्य (गोत्रज) (Agnates);

(4) मृतक के साम्पाश्विक (बन्धु) (Cognates)|

अधिनियम के अन्तर्गत इन दायादों के द्वारा उत्तराधिकार में सम्पत्ति न प्राप्त कर सकने पर मृतक की सम्पत्ति सरकार को न्यागत हो जाती है, जिसको सम्पत्ति का राजगामी होना कहा जाता है। राज्य को दायादों की कोटि में नहीं रखा जा सकता। अत: सरकार (राज्य) को पाँचवें वर्ग के दायादों की कोटि में रख कर एक वर्ग अलग से नहीं बना दिया गया और इसी कारण से दायादों के केवल चार ही वर्ग का अधिनियम में वर्णन किया गया है जो धारा 8 से स्पष्ट हो जायेगा। धारा 8 इस प्रकार है

धारा 8. निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मरने वाले हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति इस अध्याय के उपबन्धों के अनुकूल इस प्रकार न्यागत होगी

(क) प्रथमत: उन दायादों को, जो अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित नातेदार हैं,

(ख) द्वितीय, यदि वर्ग (1) में कोई दायाद न हो तो उन दायादों को जो अनुसूची के वर्ग (2) में उल्लिखित नातेदार हैं,

(ग) तृतीय, यदि उपर्युक्त दोनों वर्गों में किसी के नातेदार न हों तो मृतक के सपित्र्यों (गोत्रजों) को, और अन्त में,

(घ) यदि कोई सपित्र्य भी न हों तो मृतक के साम्पार्शिवकों (बन्धुओं) को न्यागत होगी।

1. ” युधिष्ठिर बनाम अशोक कुमार, ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 558। देखिए हरवंश सिंह बनाम श्रीमती टेकामनी देवी, ए० आई० आर० 1990 पट० 26; सारू भाई बनाम माखन चन्द्र खंतोनायर, ए० आई० आर० 2013 गौहाटी 1751

मद्रास उच्च न्यायालय ने दी एडीशनल कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स बनाम पी० एल० करूबन चेट्टियार के वाद में यह निरूपित किया कि सम्पत्ति सर्वप्रथम मृतक के उन सम्बन्धियों में न्यागत होगी जो अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित किये गये हैं। वर्ग (1) के दायाद सम्पत्ति एक साथ ग्रहण करेंगे और वर्ग (2) की प्रथम प्रविष्टि के दायादों के अपवर्जन में ग्रहण करेंगे। वर्ग (2) की प्रथम प्रविष्टि के दायाद प्रविष्टि (2) के दायादों के अपवर्जन में अधिमान्यता के नियम के अनुसार सम्पत्ति ग्रहण करेंगे।

Hindu-Law-Notes

उपर्युक्त आरेख में सभी नातेदार अनुसूची के वर्ग 1 में उल्लिखित हैं। अत: वे वर्ग 2 में उल्लिखित दायादों के अपवर्जन में क की छोड़ी गई सम्पत्ति में क की मृत्यु के बाद दाय प्राप्त करेंगे। इस आरेख में त, थ तथा द, क के पूर्व मृत पुत्र की सन्तान हैं, इसी प्रकार य तथा र पूर्व मृत पुत्री की सन्तान हैं। अत: वे भी वर्ग 1 के उत्तराधिकारी हैं और वे अपने पिता और माता के अंश को संयुक्त रूप से प्रतिनिधित्व करेंगे तदनुसार उनका अंश अलग-अलग उपर्युक्त के अनुसार होगा।

कृष्ण मुरारी मंगल बनाम प्रकाश नारायण व अन्य के वाद में एक हिन्दू पुरुष अपनी सहदायिकी सम्पत्ति 3 पुत्र एवं 3 पुत्रियों के बीच छोड़कर मरता है तथा मृत्यु के पश्चात् उसके उत्तराधिकारियों ने सम्पत्ति को बाँटने के लिए एक वाद न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया। प्रस्तुत वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि मृतक व प्रत्येक पुत्र को ऐसी सम्पत्ति में 1/4 भाग प्राप्त होगा तत्पश्चात् मृतक के हिस्से में 3 पुत्रों एवं 3 पुत्रियों को बराबर हिस्सा प्राप्त होगा अर्थात् प्रत्येक को 1/24 भाग प्राप्त होगा। इस प्रकार प्रत्येक पुत्र को 1/4 + 1/24 और प्रत्येक पुत्रियों को 1/24 भाग प्राप्त होगा।

भँवर सिंह बनाम पूरन व अन्य के वाद में एक हिन्दू पुरुष अपनी सम्पत्ति एक पुत्र एवं तीन पत्रियों के बीच छोड़कर मरता है तथा मृत्यु के पश्चात् उसके प्रत्येक उत्तराधिकारियों ने ऐसी सम्पत्ति में धारा 8 के अधीन आपस में 1/4 भाग का अंश प्राप्त कर लिया था। प्रस्तुत वाद में वादी के पिता ने संयक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति को बिना किसी जरूरत के ही विक्रय कर दिया था। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि वादी के पिता के द्वारा सम्पूर्ण सम्पत्ति का विक्रय अवैध था. वह केवल अपने हिस्से की सम्पत्ति को ही विक्रय कर सकता है, जो सम्पत्ति उसने बँटवारे के परिणामस्वरूप अपने हिस्से में प्राप्त किया था।

_1. ए० आई० आर० 1979 मद्रास 1।

2 ए० आई० आर० 2003 एन० ओ० सी० 37 म०प्र०। देखें; मान सिंह बनाम राम कला, ए. आई० आर० 2011 एस० सी० 1542।।

  • ए० आई० आर० 2008 एस० सी० 1490।

रामाबाई पद्माकर बनाम रुक्मणिबाई विष्णु विखण्ड, के वाद में एक हिन्दू पुरुष अपनी पनि सात पुत्रियों एवं विधवा पत्नी के बीच छोड़कर मरता है। जिस समय उसके पति की मृत्यु हुई भी उस समय उसकी पुत्रियाँ अवयस्क थीं। अतः सम्पूर्ण सम्पत्ति उसके पत्नी के संरक्षण में थी। प्रस्तुत ले में पुत्रियों की माँ ने ऐसी सम्पूर्ण सम्पत्ति जो अपने पति की मृत्यु के पश्चात् प्राप्त किया था विधवा पुत्री के पक्ष में वसीयत के माध्यम से हस्तांतरित कर दिया था। इस बात पर उसके अन्य निराधिकारियों ने सम्पत्ति को बाँटने के लिये न्यायालय के समक्ष एक वाद प्रस्तुत किया। प्रस्तुत मामले के न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधवा माँ जो सम्पत्ति अपने पति के मृत्योपरान्त प्राप्त की थी उस सम्पत्ति में उसके अलावा उसके सात पुत्रियों का भी बराबर से हिस्सा लगेगा अर्थात् प्रत्येक को 1/8 भाग प्राप्त होगा। न्यायालय ने इस वाद में विधवा द्वारा प्रतिपादित की गयी वसीयत की वैधता को भी उचित ठहराया और यह अभिनिर्धारित किया कि वह पुत्री जिसके पक्ष में वह वसीयत की गयी थी अपनी माँ का 1/8 भाग को हिस्से में प्राप्त करेगी अर्थात् वह पुत्री 1/8 भाग अपनी माँ के वसीयत के माध्यम से तथा 1/8 भाग विभाजन के माध्यम से ऐसी सम्पत्ति प्राप्त करेगी।

श्रीमती पद्मारानी कर्माकर बनाम भोला नाथ चन्द्रा, के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई हिन्दू पुरुष निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मरता है और उसके मृत्युपरान्त उसके पत्र एवं पुत्रियाँ मौजूद हों वहाँ उसके द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति का न्यागमन उसके पुत्र एवं पुत्रियों के बीच होगा अर्थात् उसके पुत्र एवं उसकी पुत्रियों को ऐसी सम्पत्ति में बराबर से हिस्सा प्राप्त होगा। अभी हाल में पुनः उच्चतम न्यायालय ने रोहित चौहान बनाम सुरेन्द्र सिंह, के मामले में यह निर्णीत किया कि जब किसी सहदायिकी सम्पत्ति का विभाजन हो चुका है तो विभाजन के पश्चात् ऐसी सम्पत्ति को प्राप्त करने वाले व्यक्ति की सम्पत्ति स्व-अर्जित सम्पत्ति के रूप में मानी जायेगी और उस सम्पत्ति का विभाजन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 के अन्तर्गत होगा। उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि ऐसी सहदायिक सम्पत्ति के विभाजन के पश्चात् उसके परिवार में किसी पुत्र अथवा पुत्री का जन्म हुआ हो तो ऐसी सम्पत्ति में पुत्र अथवा पुत्री का जन्मत: कोई अधिकार उत्पन्न नहीं होगा।

“निर्वसीयत मरने’ का अर्थ- “निर्वसीयती मरना” केवल मृतक की स्थिति का संकेत करता है, उसे हिन्दू पुरुष की मृत्यु के समय का कोई संकेत नहीं प्राप्त होता। उसका अर्थ यह है कि हिन्दू पुरुष के “निर्वसीयती होने की अवस्था में’ महत्वपूर्ण बात उत्तराधिकार की क्रियाशीलता की तिथि है। धारा 8 में प्रयुक्त “निर्वसीयती मरना’ पद मृतक की प्रास्थिति से आशय रखता है। वह पुरुष हिन्दू के मरने के समय से कोई आशय नहीं रखता। यह अधिनियम उन अवस्थाओं में लागू होता है जहाँ उत्तराधिकार का प्रश्न अधिनियम के पास होने के बाद उठाया जाता है।

अधिनियम की धारा 8 के प्रावधानों के अनुसार कोई विवाहित पुत्री भी अपने मृतक पिता जिसकी निर्वसीयत में मृत्यु हो गई, की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होने का हक रखने वाली प्रथम वर्ग की

1. ए० आई० आर० 2003 एस० सी० 3109.

2. ए० आई० आर० 2013 कलकत्ता एन० ओ० सी० 166.

3. ए० आई० आर० 2013 एस० सी० 3525, देखें सुशान्त बनाम सुन्दर श्याम, ए० आई० आर०  2014 एन० ओ० सी० 90, दिल्ली।

4. हारा लाल बनाम कुमुद बिहारी, 1957 कल० 571: शकुन्तला देवी बनाम कौशल्या देवी, 1936 लाहार 124; संपत कुमारी बनाम लक्ष्मी अम्मल, ए० आई० आर० 1963 मद्रास 50; नथुनी मिसिर बनाम रतना कौर, ए० आई० आर० 1968 पटना 337: शिवराज सिंह बनाम मुनिया, ए० आइ० आर० 1953 एम० पी० 601 नरायन बनाम साक्षम्मा तथा अन्य,

5. जे० सतनरायन बनाम साक्षम्मा तथ ए० आई० आर० 1977 मैसूर 2241 देखिए कुमारस्वामी गान्दर बनाम डी० आर० नन्जप्पा, ए० आई० आर० 1978 मद्रास 2581

उत्तराधिकारी है।

वर्ग 1 के दायाद-धारा 9 के अनुसार अनुसूची के प्रथम वर्ग के दायाद एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। दूसरे शब्दों में वे दायादों का एक समूह निर्मित करते हैं तथा एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते है। द्वितीय वर्ग के दायाद तब तक अपवर्जित किये जाते हैं जब तक प्रथम वर्ग का कोई भी दायाद प्राप्त होता है। प्रथम वर्ग के दायाद द्वितीय वर्ग के दायादों की समकक्षता में अधिमान्य होते हैं। उदाहरणार्थ, यदि कोई हिन्द्र वर्ग (1) में उल्लिखित दायाद के रूप में एक पुत्री मात्र को छोड़कर निर्वसीयत मरता है तो वह द्वितीय वर्ग की प्रथम प्रविष्टि के दायाद, पिता की अधिमान्यता में उत्तराधिकार प्राप्त करेगी। धारा 9 इस प्रकार है

वर्ग (1) के दायाद एक साथ और अन्य सब दायादों को अपवर्जित करके अंशभागी होंगे। वर्ग 2 में प्रथम प्रविष्टि में के दायाद दूसरी प्रविष्टि में के दायादों की अपेक्षा अधिमान्य होंगे। द्वितीय प्रविष्टि में के दायादों को तृतीय प्रविष्टि में के दायादों की अपेक्षा अधिमान्यता प्राप्त होगी और इसी प्रकार से अन्य प्रविष्टि के लोग क्रम से अधिमान्य होंगे।”

वर्ग (1) में उल्लिखित दायादों की सूची-वर्ग (1) में उल्लिखित मृतक के दायादों की सूची इस प्रकार है

(1) पुत्र।

(2) पुत्री।

(3) विधवा पत्नी।

(4) माता।

(5) पूर्व मृत पुत्र का पुत्र।

(6) पूर्व मृत पुत्र की पुत्री।

(7) पूर्व मृत पुत्री का पुत्र।

(8) पूर्व मृत पुत्री की पुत्री।

9. पूर्व मृत पुत्र की विधवा पत्नी।

10. पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र का पुत्र।

(11) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री।

(12) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की विधवा पत्नी।

उदाहरण

(1) एक हिन्दू पुरुष एक विधवा पत्नी तथा पिता को छोड़कर निर्वसीयत मर जाता है। विधवा पत्नी पिता को अपवर्जित करके समस्त सम्पत्ति की दायाद होगी।

(2) एक हिन्दू पुरुष निर्वसीयत एक माता तथा पिता को छोड़कर मरता है। माता वर्ग (1) की दायाद होने के कारण पिता को अपवर्जित करके समस्त सम्पत्ति को प्राप्त करेगी।

इन उपर्युक्त दायादों पर पृथक् रूप से प्रकाश डालना आवश्यक है क्योंकि वे समस्त दायाद एक निश्चित अर्थ में ही प्रयुक्त किये गये हैं

पुत्र-यहाँ “पुत्र” शब्द से तात्पर्य औरस तथा दत्तक दोनों प्रकार के पत्रों से है। दत्तक-पत्र दत्तक-ग्रहण के लिये जाने के बाद दत्तकग्रहीता के औरस पुत्र की भाँति स्थान प्राप्त कर लेता है और उसके समस्त सम्बन्ध नैसर्गिक परिवार से समाप्त हो जाते हैं। पुत्र के अन्तर्गत जारज पुत्र नहीं आते, दस विधि के अन्तर्गत कोई प्रास्थिति नहीं प्रदान की गई है। इसी प्रकार ‘सौतेला पत्र’ भी ‘पुत्र’

शब्द अर्थ में नहीं आता। गर्भस्थ पुत्र जो बाद में जीवित उत्पन्न होता है तथा संयुक्त परिवार-विभाजन र में उत्पन्न पुत्र इस अधिनियम के अन्तर्गत वही प्रास्थिति रखते हैं जो औरस पुत्र रखता है।

2) पुत्री-पुत्र की भाँति ही ‘पुत्री’ शब्द के अन्तर्गत औरस तथा दत्तक दोनों प्रकार की पुत्रियाँ दी हैं। साथ ही गर्भ में स्थित और बाद में जीवित उत्पन्न होने वाली पुत्री भी इसमें आती है। जारज मौतेली पुत्री इसके अन्तर्गत नहीं आती। उनको पिता की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का पुत्र की जति अधिकार प्राप्त है। पुत्री का अस्तित्व उसके दाय प्राप्त करने में बाधक नहीं होता।

उच्चतम न्यायालय ने रामेश्वरी देवी बनाम बिहार राज्य एवं अन्य के वाद में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण निर्णय में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पति अपनी पहली पत्नी के होते हुये किसी अन्य स्त्री से दूसरा विवाह रचाता है और उस विवाह के परिणामस्वरूप यदि उस स्त्री से उसको सन्तान उत्पन्न होती है तो ऐसी सन्तान वैध सन्तान मानी जायेंगी और वह हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 से 10 के अन्तर्गत पिता की सम्पत्ति में पहली पत्नी के सन्तान के साथ बराबर के हिस्सेदार होंगे यद्यपि कि उसका दूसरा विवाह हिन्दू विधि के अन्तर्गत शून्य माना जायेगा। प्रस्तुत वाद में “अ’ एक सरकारी नौकर था। उसने अपनी पहली पत्नी के जीवित रहते हुये “ब’ नामक स्त्री से दूसरा विवाह रचाया जिससे उस स्त्री को चार सन्तानें उत्पन्न हुईं। कुछ समय पश्चात् “अ” की मृत्यु हो गयी। अ के मृत्योपरान्त उसके विधिक उत्तराधिकारियों ने पेंशन एवं ग्रेच्यूटी के लिये अपना दावा प्रस्तुत किया। अ की पहली स्त्री के विधिक उत्तराधिकारियों के साथ अ की दूसरी पत्नी के सन्तानों ने भी इस आशय का अपना दावा प्रस्तुत किया। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि अ की सम्पत्ति में उसकी पहली पत्नी की सन्तानों के साथ-साथ उसकी दूसरी पत्नी की सन्तानें भी बराबर की हिस्सेदार होंगी। न्यायालय ने इस वाद में यह भी स्पष्ट किया कि दूसरी पत्नी की अवयस्क सन्ताने पेंशन की राशि में तब तक बराबर का हिस्सा प्राप्त करेंगी जब तक वे सन्तान वयस्क न हो जायें।

(3) विधवा-विधवा से तात्पर्य मृतक की मृत्यु के समय विधित: पत्नी से है। यदि पत्नी मृत्यु के पूर्व ही पति को तलाक दे चुकी है तो पूर्व पति की मृत्यु के बाद वह विधवा नहीं होगी। किन्तु दाम्पत्य-अधिकारों की प्रस्थापना अथवा न्यायिक पृथक्करण की आज्ञप्ति दी गई पत्नी भी पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी विधवा होगी। उसका असतीत्व अथवा अनैतिक जीवन उसको दाय प्राप्त करने के अधिकार से वंचित नहीं कर देता। एक बार दाय निहित हो जाने पर उसका पुनर्विवाह उसको उससे पुनः अनिहित नहीं करता। दाय में प्राप्त सम्पत्ति की वह पूर्ण स्वामिनी हो जाती है।

पुन: लक्ष्मी बाई बनाम अनुसुष्या, के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने विधवा शब्द के आशय को स्पष्ट करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि वह स्त्री जिसका विधिक विवाह हिन्दू विवाह अधिनियम के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ हो, अथवा विशेष विवाह अधिनियम के अन्तर्गत सम्पन्न हुआ हो और उसका पति जीवित न हो। जहाँ उसका विवाह शून्य है उसका पति. जीवित नहीं है तो उक्त परिस्थिति में वह विधवा नहीं समझी जायेगी।

(4) माता-माता से तात्पर्य नैसर्गिक तथा दत्तकग्रहीता दोनों माता से है, किन्तु इसमें सौतेली माता नहीं आती। माता की सम्पत्ति में जारज पुत्र का भी हक होता है तथा जारज पुत्र में माता भी दाय प्राप्त करने की अधिकारिणी होती है। उसका असतीत्व एवं पुनर्विवाह उसको पुत्र से दाय प्राप्त करने के अधिकार को समाप्त कर देगा। माता दाय में प्राप्त सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जाती है।

 (5) पूर्व मृत पुत्र का पुत्र-पूर्व मृत पुत्र का पुत्र औरस एवं दत्तक, दोनों एक ही कोटि में रख जाते हैं। पूर्व मृत पुत्र का पुत्र यदि जारज है तो दायाद नहीं हो सकता। कोई पौत्र पितामह के

1. ए० आई० आर० 2000 एस० सी० 735–देखिये नागर थम्मा बनाम वेंकेट लक्षम्मा, ए० आई० आर० 2000 कर्नाटक 1811

2. ए० आई० आर० 2013 कर्नाटक 24.

जीवन-काल में दायाद नहीं हो सकता। यदि पितामह की मृत्यु के समय वह हिन्दू नहीं रह गया है। तो वह दाय प्राप्त करने का अधिकारी नहीं रह जाता।

(6) पूर्व मृत पुत्र की पुत्री-जिस प्रकार पुत्र को दाय प्राप्त करने के सम्बन्ध में अधिकार प्रदान किये गये है, उसी प्रकार पूर्व मृत पुत्र की पुत्री को भी अधिकार प्राप्त है। पूर्व मृत पुत्र की पुत्री को इस प्रकार के अधिकार तभी प्राप्त होते है जब कि उसके पिता की मृत्यु हो जाती है। पिता के जीवन-काल में उसे दायाद होने के अधिकार नहीं होते। यदि पितामह की मृत्यु के समय उसने धर्म-परिवर्तन कर लिया हो और हिन्दू न रह गयी हो तो पितामह से वह दाय नहीं ग्रहण कर सकती।

(7) पूर्व मृत पुत्री का पुत्र-पूर्व मृत पुत्री का पत्र, चाहे वह औरस हो अथवा दत्तक, अपनी माता के पिता का दायाद होता है। उसे जारज नहीं होना चाहिए। अपनी माता के जीवन-काल में वह दायाद नहीं होता। यदि माता दाय-ग्रहण के निर्योग्य है तो उस दशा में माता के जीवन काल में भी उसे दायाद होने का अधिकार प्राप्त हो जाता है।

(8) पूर्व मृत पुत्री की पुत्री-पूर्व मृत पुत्री की पुत्री को दायाद होने का अधिकार उसी प्रकार प्राप्त है जिस प्रकार पूर्व मृत पुत्री के पुत्र को। पूर्व मृत पुत्री की पुत्री को अपनी माता के जीवन-काल में कोई अधिकार नहीं प्राप्त. होता।

(9) पूर्व मृत पुत्र की विधवा-पूर्व मृत पुत्र की विधवा को दायाद होने का अधिकार उसी प्रकार प्राप्त है जिस प्रकार विधवा को प्राप्त है। किन्तु अन्तर यह है कि यदि दाय प्राप्त करने के समय उसने पुनर्विवाह कर लिया है तो वह दाय नहीं प्राप्त कर सकती। श्वसुर की विधवा की तुलना में पुत्र की विधवा का दाय में अंश कम होता है।

(10) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र का पुत्र-पुत्र एवं पूर्व मृत पुत्र के सम्बन्ध में दाय के जो अधिकार हैं, उसी प्रकार के अधिकार पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र के पुत्र को प्राप्त हैं। प्रपत्र प्रपितामह का दायाद तब तक नहीं होता जब तक उसके पिता तथा पितामह जीवित हों।

(11) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की पुत्री-दायाद के रूप में पौत्र की पुत्री की वही स्थिति होती है जो पुत्र के पुत्री की होती है।

 (12) पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की विधवा-पूर्व मृत पुत्र के पूर्व मृत पुत्र की विधवा की स्थिति दायाद के रूप में वही होती है जो पूर्व मृत पुत्र की विधवा की होती है। यदि दाय प्राप्त करने के समय वह पुनर्विवाह कर लेती है अथवा हिन्दू नहीं रह जाती तो वह दाय प्राप्त करने से वंचित हो जाती है।

अनुसूची के वर्ग 1 के दायादों में सम्पत्ति का वितरण-धारा 10 के वर्ग 1 में उल्लिखित दायादों के अंश में आयी हुई सम्पत्ति का निर्धारण किया गया है। इस धारा में सम्पत्ति के वितरण के सम्बन्ध में चार नियम प्रदान किये गये हैं। धारा 10 इस प्रकार है-“निर्वसीयती की सम्पत्ति उसके दायादों में जो अनुसूची के वर्ग 1 में दिये गये हैं, निम्नलिखित नियमों के अनुकूल विभाजित की जायेगी

नियम 1 निर्वसीयत विधवा या यदि एक से अधिक विधवा हों तो सब विधवायें मिल कर एक अंश लेंगी।

नियम 2-निर्वसीयत के उत्तरजीवी पुत्र और पुत्रियाँ और माता प्रत्येक एक-एक अंश प्राप्त करेंगी।

नियम 3–निर्वसीयत के पूर्व मृत पुत्र या पूर्व मृत पुत्रियों में से प्रत्येक की शाखा में आने वाले दायाद मिलकर एक अंश लेंगे।

नियम 4-नियम 3 में निर्दिष्ट अंश का वितरण (i) पूर्व मृत पुत्र की शाखा में वर्तमान दायादों के बीच इस प्रकार किया जायेगा कि उसकी अपनी विधवा या विधवाओं को (मिलाकर) और उत्तरजीवी

पुत्र, पुत्रियों को समान प्रभाग प्राप्त हों, और उनके पूर्व मृत पत्रों की शाखा को वैसा ही प्रभाग प्राप्त

हो।

(ii) पूर्व मृत पुत्री की शाखा में आने वाले दायादों में वितरण इस प्रकार किया जायेगा कि उत्तरजीवी पुत्र और पुत्रियों को समान प्रभाग प्राप्त हो।

नियम 5-इस नियम के अनुसार निर्वसीयत की विधवा पत्नी एक अंश की हकदार है। जहाँ निर्वसीयत एक से अधिक विधवाओं को छोड़कर मरा है, वहाँ सभी विधवायें एक साथ एक अंश की हकदार होगी तथा यह एक अंश पुत्र अथवा पुत्री के अंश के बराबर होगा।

दृष्टान्त

(1) एक हिन्दू एक विधवा पत्नी को छोड़कर निर्वसीयत मर जाता है। विधवा पत्नी सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त करेगी।

(2) यदि उपर्युक्त दृष्टान्त में वह दो पत्नियों को छोड़कर मरता है, तो प्रत्येक विधवा आधा-आधा अंश प्राप्त करेगी।

(3) उपर्युक्त दृष्टान्त 2 में से वह यदि दो विधवाओं तथा एक पुत्र को छोड़कर मरता है तो दोनों विधवायें मिलकर 1/2 (आधा) अंश प्राप्त करेंगी जिसमें प्रत्येक विधवा 1/4 अंश की हकदार होगी और पुत्र 1/2 अंश प्राप्त करेगा। विधवा जो अंश प्राप्त करेगी, उसकी वह पूर्ण स्वामिनी होगी। दो अथवा दो से अधिक विधवायें सम्पत्ति को सह-आभागी के रूप में ग्रहण करेंगी न कि संयुक्त आभोगी के रूप में। नीलव्वा बनाम बसप्पा के मामले में दो सह-विधवाओं की सहदायिकी सम्पत्ति में अंश निर्धारित करते हुये कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया कि जहाँ कोई व्यक्ति दो विधवा, चार पुत्र तथा एक पुत्री को सहदायिकी सम्पत्ति में अपना अंश छोड़कर मर जाता है वहाँ उसके सहदायिकी सम्पत्ति के अंश को, जो वह छोड़कर मरता है, दोनों सह-विधवायें मिलकर एक अंश अन्य दायादों के साथ प्राप्त करेंगी अर्थात् जहाँ कोई पुरुष सहदायिकी सम्पत्ति में अपना अंश छोड़कर दो विधवाओं को, चार पुत्रों को तथा एक पुत्री को छोड़कर मरता है तो उस स्थिति में सहदायिकी सम्पत्ति में उसका अंश धारा 6 की व्याख्या (1) के अनुसार 11 माना जायेगा। इसी प्रकार प्रत्येक विधवा को 17 अलग-अलग तथा प्रत्येक पुत्रों को 1/7 अंश मिलेगा। अब 17 अंश को छ: भागों में इस अधिनियम के अनुसार बाँटा जायेगा अर्थात् दो सह-विधवायें मिलकर एक अंश=1/6 अंश प्रत्येक को 1/12 अंश तथा प्रत्येक पुत्रों को 1/6 अलग-अलग तथा पुत्री को 1/6 अंश। इस प्रकार 1/7 अंश का 1/6 अंश दोनों विधवायें मिलकर प्राप्त करेंगी फिर प्रत्येक उसमें बराबर बाँट लेंगे अर्थात् प्रत्येक विधवा को 1/84 अंश प्राप्त होगा। इस प्रकार प्रत्येक विधवा 1/7+1/84 अंश प्राप्त करेंगी तथा प्रत्येक पुत्र 1/7+1/42 अंश प्राप्त करेंगे तथा पुत्री 1/42 अंश प्राप्त करेगी।

यहाँ यह द्रष्टव्य है कि हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट, 1937 के अन्तर्गत प्रत्येक विधवा सहदायिक सम्पत्ति में पति के मर जाने के बाद अपने पुत्रों के साथ समान अंश की अधिकारिणी थी अतएव प्रारम्भ में उन्हें चार पुत्रों के साथ 1/7 अंश (प्रत्येक) पाने की अधिकारिणी हो गयी। काल्पनिक विभाजन, जो वर्तमान अधिनियम की धारा 6 के प्रथम स्पष्टीकरण में दिया गया है उसके अनुसार मृत पति को 17 अंश दिया गया।

1. ए० आई० आर० 1982 कर्ना० 126)

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LLB Hindu Law Chapter 7 Post 5 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Chapter 7 Post 5 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Students आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी Hindu Law Books Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार Study Material पढ़ने जा रहे है |

अभिनिर्धारित किया कि जहाँ जोरीदारी प्रथा के अन्तर्गत किसी पुरुष के द्वारा कोई सम्पत्ति निर्वसीयती दी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति के विभाजन के बीच पूर्ण रक्त सम्बन्धियों एवं अर्ध रक्त सम्बन्धियों

बीच सम्पत्ति के विभाजन के समय किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा बल्कि उनके बीच ऐसी सम्पत्ति का विभाजन सामान्य रूप से की जायेगी।

1956 के हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम पारित होने के पश्चात् विधायिका ने ऐसे विवाह की परम्परा को अविधिमान्य घोषित कर दिया और न्यायालय ने ऐसी सम्पत्ति के विभाजन के मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि वर्ग (1) के दायाद मौजूद होने पर वर्ग (2) के दायादों को सम्पत्ति न्यागत नहीं होगी और वर्ग (2) के दायाद ऐसी छोड़ी गयी सम्पत्ति तभी प्राप्त कर पायेगें जब वर्ग एक (1) के सूची के कोई दायाद मौजूद न हों।

अनुसूची के वर्ग 2 में उल्लिखित दायादों की सूची

(1) पिता।

(2) (क) पुत्र की पुत्री का पुत्र, (ख) पुत्र की पुत्री की पुत्री, (ग) भाई, (च) बहिन।

(3) (क) पुत्री के पुत्र का पुत्र, (ख) पुत्री के पुत्र की पुत्री, (ग) पुत्री की पुत्री का पुत्र, (घ) पुत्री की पुत्री की पुत्री।

(4) (क) भाई का पुत्र, (ख) बहिन का पुत्र, (ग) भाई की पुत्री तथा (घ) बहिन की पुत्री।

(5) (1) पिता का पिता तथा (2) पिता की माता।

(6) (1) पिता की विधवा तथा (2) भाई की विधवा पत्नी।

(7) (1) पिता का भाई तथा (2) पिता की बहिन।

(8) (1) माता का पिता तथा (2) माता की माता।

(9) (1) माता का भाई तथा (2) माता की बहिन योग 23।

व्याख्याइस अनुसूची में उल्लिखित भाई तथा बहिन सहोदर मातृपक्ष के भाई बहिन को सम्मिलित नहीं करते।

के० राज बनाम मुथ्थमा के वाद में उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 की अनुसूची 2 के अन्तर्गत यह निर्णय दिया कि अनुसूची 2 में बहन शब्द के अन्तर्गत सहोदर बहन अपने पितृपक्ष की सम्पत्ति में किसी प्रकार का कोई दावा अन्य पिता की सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए नहीं कर सकती, अर्थात् जहाँ एक ही माता हो लेकिन सन्तान कई पिता से उत्पन्न हुयी हों ऐसी स्थिति में सहोदर बहनों को अन्य पिता की सम्पत्ति में कोई अधिकार उत्पन्न नहीं होगा।

दृष्टान्त

(1) अ एक हिन्द्र परुष पिता, भाई तथा बहिन की पुत्री को छोड़कर मर जाता है। पिता वर्ग (2) की प्रथम प्रविष्टि में आने के कारण भाई तथा बहिन की पुत्री को अपवर्जित करके समस्त सम्पत्ति को ग्रहण कर लेगा, क्योंकि भाई तथा बहिन की पुत्रियाँ प्रविष्टि 3 तथा 4 में क्रमश: आती हैं।

(2) निर्वसीयती ने (1) पुत्री के पुत्र की पुत्री, (2) पुत्री की पुत्री के पुत्र, (3) पुत्री की पुत्री की पुत्री, (4) भाई का पत्र तथा (5) पिता के पिता को अपने पीछे छोड़ा है। दायाद 1 से लेकर 3 तक तृतीय प्रविष्टि के हैं, चौथा दायाद चौथी प्रविष्टि का है तथा पाँचवाँ दायाद पाँचवीं प्रविष्टि का है। अत: तृतीय प्रविष्टि के दायाद अधिमान्य होंगे तथा 1 से लेकर 3 तक के दावेदार बराबर अंश में सम्पत्ति प्राप्त करेंगे, अर्थात् प्रत्येक को 1/2 अंश प्राप्त होगा।

जहाँ दो भाई किसी भूमि सम्पत्ति के समान स्वामी थे। एक भाई लापता हो गया और कई वर्षों

  1. ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1720।

उपर्युक्त आरेख में प, फ, ट, ठ तथा य एवं र वंशज-बन्धु हैं जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुसंगत

डिग्रियों की संगणना (Computation of Degrees)—धारा 13 में डिग्री की परिभाषा दी गई है तथा संगणना की विधि विहित की गई है। धारा 13 इस प्रकार है-

(1) गोत्रजों एवं बन्धुओं में उत्तराधिकार-क्रम के निर्धारण के प्रयोजन के लिए निर्वसीयत से दायाद की नातेदारी की गणना यथास्थिति ऊपर की या नीचे की डिग्री या दोनों के अनुसार होगी।

(2) ऊपर की डिग्री तथा नीचे की डिग्री की गणना निर्वसीयत को सम्मिलित करके की जायेगी।

(3) प्रत्येक पीढ़ी या तो ऊपर की या नीचे की डिग्री निर्मित करती है।

ऊपर की तथा नीचे की डिग्री-दायाद मृतक का पूर्वज अथवा वंशज अथवा बन्धु हो सकता है। प्रथम दशा में सम्बन्ध ऊपर से ही हो सकता है, द्वितीय दशा में सम्बन्ध नीचे की डिग्री से हो सकता है, किन्तु तीसरी दशा में सम्बन्ध ऊपर तथा नीचे दोनों ढंग से हो सकता है।

ऊपर तथा नीचे की डिग्री की संगणना मृतक को सम्मिलित करके की जायेगी; अत: निर्वसीयत को स्वयं एक (प्रथम) डिग्री मान लिया जाता है, उसका पिता दूसरी डिग्री और इस प्रकार ऊपर का क्रम चला जाता है। उसी प्रकार निर्वसीयत प्रथम डिग्री माना जाता है, उसका पुत्र द्वितीय डिग्री और इस प्रकार नीचे का क्रम चला जायेगा। बन्धु की दशा में, जैसे भाई का पुत्र आदि में, ऊपर तथा नीचे की दोनों डिग्रियों को देखा जाता है। निर्वसीयत, ऊपर की प्रथम डिग्री, उसका पिता द्वितीय डिग्री तथा नीचे से उसका भाई प्रथम डिग्री तथा उसके भाई का पुत्र द्वितीय डिग्री माना जाता है।

गोत्रजों एवं बन्धुओं के मध्य उत्तराधिकार का क्रम-धारा 12, जो अधिकार के क्रम का उल्लेख करती है, इस प्रकार है

“यथास्थिति गोत्रजों एवं बन्धुओं में उत्तराधिकार का क्रम नीचे दिये हुए अधिमान नियमों के अनुसार होगा-

नियम 1-दो दायादों में परस्पर उसे अधिमान्यता प्राप्त होगी जिसकी ऊपर की डिग्रियाँ अपेक्षाकृत कम हैं या बिल्कुल नहीं हैं।

नियम 2-जहाँ ऊपर की ओर की डिग्रियों की संख्या समान है अथवा बिल्कुल नहीं है, वहाँ उस दायाद को अधिमान्यता प्राप्त होगी जिसकी नीचे की ओर डिग्रियाँ अपेक्षाकृत कम हैं अथवा बिल्कुल नहीं हैं।

नियम 3–जहाँ नियम 1 अथवा 2 के अन्तर्गत एक दायाद दूसरे की तुलना में अधिमान्यता प्राप्त करने के हकदार नहीं हैं वहाँ वे एक अंशभागी होंगे।”

लिंग के आधार पर अधिमान्यता का कोई नियम नहीं है कोई पुरुष दायाद स्त्री दायाद की अपेक्षा लिंग के आधार पर अधिमान्य नहीं समझा जायेगा।

नियम 1-प्रथम नियम निम्नलिखित चार अवस्थाओं में अनुवर्तित किया जाता है

(1) जहाँ दोनों दायाद ऊपर की पीढ़ी के हैं वहाँ वह अधिमान्य होता है जिसके ऊपर डिग्री अपेक्षाकृत कम है।

दृष्टान्त

दो गोत्रज परस्पर स्पर्द्धा दायाद हैं–(1) पिता के पिता के पिता के पिता तथा (2) पिता के पिता की माता। इससे पूर्वोक्त ऊपर की पाँच डिग्री में है तथा दूसरा ऊपर से चार डिग्री में है; अत: दूसरी यद्यपि एक स्त्री है, पूर्वोक्त की अपेक्षा अधिमान्य होगी।

(2) जहाँ एक दायाद ऊपर की पीढ़ी का है तथा दूसरा नीचे की पीढ़ी का है, वहाँ वह अधिमान्य

होगा जिसके ऊपर कोई डिग्री नहीं है।

दृष्टान्त

परस्पर स्पर्द्धा दायाद (1) पुत्र के पुत्र के पुत्र के पुत्र तथा (2) पिता के पिता के पिता हैं। इनमें पूर्वोक्त पाँच डिग्री नीचे से है तथा दूसरा चार डिग्री ऊपर से है। पूर्वोक्त को ऊपर से किसी डिग्री के न होने के कारण अधिमान्य समझा जायेगा।

(3) जहाँ दो दायाद बन्धु पीढ़ी के हैं, किन्तु ऊपर की डिग्री की संख्या वही नहीं है, वहाँ ऊपर की कम डिग्री वाले दायाद अधिमान्य समझे जायेंगे।

दृष्टान्त

स्पर्धी दायाद (1) बहन की पुत्री की पुत्री तथा (2) माता के भाई के पुत्र की पुत्री है। यहाँ पूर्वोक्त, दूसरे की अपेक्षा ऊपर से दो डिग्री होने के कारण अधिमान्य होगी।

(4) जब एक दायाद नीचे की पीढ़ी का है तथा दूसरा बन्धु वर्ग का है, उस अवस्था में पहला दूसरे की अपेक्षा अधिमान्य होगा; क्योंकि पहली अवस्था में उस दायाद के ऊपर की डिग्री कोई नहीं

दृष्टान्त

स्पर्द्धा दायाद (1) माता के पिता की पुत्री तथा (2) पुत्री के पुत्र के पुत्र का पुत्र है। पूर्वोक्त बन्धु पीढ़ी में ऊपर की तीन डिग्री तथा नीचे की दो डिग्री होने के कारण तथा दूसरा नीचे की पाँच डिग्री के अन्तर्गत है। दूसरा ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त की अपेक्षा अधिमान्य समझा जायेगा, क्योंकि दूसरे की ऊपर की कोई डिग्री नहीं है।

नियम 2–दूसरा नियम निम्नलिखित अवस्थाओं में अनुवर्तनीय होता है

(1) जब ऊपर की डिग्री की संख्या समान है तो यह दायाद जिसके नीचे की डिग्री अपेक्षाकृत ङ्केका है, अधिमान्य सHD जायेगा।

दृष्टान्त

स्पर्धी दायाद (1) भाई के पुत्र के पुत्र का पुत्र तथा (2) भाई के पुत्र की पुत्री है। यहाँ दोनों दायाद ऊपर की दो डिग्री के हैं, किन्तु प्रथम नीचे की चार डिग्री का है तथा दूसरा नीचे की तीन डिग्री का है; अत: दूसरा यद्यपि स्त्री है, फिर भी अधिमान्य होगा।

(2) जहाँ ऊपर की डिग्री समान है, वहाँ वह अधिमान्य होगा जिसके नीचे की डिग्री में कोई नहीं है।

दृष्टान्त

स्पर्धी दायाद (1) माता के पिता की माता तथा (2) पिता के पिता की बहन का पुत्र है। दोनों दायादों के ऊपर की डिग्री की संख्या समान है, किन्तु प्रथम की नीचे की डिग्री नहीं किन्तु दूसरे की ऐसी दो डिग्री हैं। प्रथम, इसलिये अधिमान्य होगा। __(3) जब ऊपर की डिग्री की संख्या कुछ नहीं है तो वह दायाद अधिमान्य होगा जिसकी नीचे की संख्या अपेक्षाकृत कम है।

दृष्टान्त

स्पर्धी दायाद (1) पुत्र के पुत्र की पुत्री के पुत्रं का पत्र तथा (2) पत्र की पुत्री की पुत्री की पुत्रा है। दोनों प्रकार की डिग्री में कोई नहीं है, किन्तु प्रथम 6 डिग्री नीचे का है, जब कि दूसरा पाँच डिग्री

का है; अत: दूसरा अधिमान्य होगा।

4) जब नीचे की डिग्री की संख्या कुछ नहीं है, तो वह दायाद अधिमान्य होगा जिसका नीचे डिग्री का कोई नहीं है। यह तभी सम्भव है जब कि मृतक की विधवायें परस्पर-विरोधी दावेदार है।

नियम 3-एक साथ उत्तराधिकार ग्रहण करने वाले दायाद-इस नियम के अनुसार जब कोई टायाद एक-दूसरे की तुलना में अधिमान्य नहीं है जैसा कि नियम 1, 2 में दिया गया है, तो वे क साथ मिलकर ग्रहण करते हैं। ऐसी अवस्था में दोनों दायाद एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। वितरण की किसी स्पष्ट रीति के अभाव में वे सम्पत्ति व्यक्तिपरक रूप में प्राप्त करते है तथा सह-आभोगी के रूप में धारण करते हैं। यह स्थिति निम्नलिखित दशाओं में उत्पन्न हो सकती है

1) जहाँ दोनों दायाद नीचे की पीढ़ी के हैं तथा उनमें प्रत्येक नीचे की एक ही डिग्री का है।

दृष्टान्त स्पर्द्धा दायाद (1) पुत्र के पुत्र की पुत्री का पुत्र तथा (2) पुत्र की पुत्री के पुत्र का पुत्र है। इनमें किसी का ऊपर की डिग्री का कोई नहीं है तथा प्रत्येक पाँच डिग्री नीचे का है; अत: दोनों एक साथ ग्रहण करेंगे।

(2) जब दोनों दायाद ऊपर की पीढ़ी के हैं, किन्तु उनमें से प्रत्येक ऊपर की एक ही डिग्री का है तथा नीचे की डिग्री का कोई नहीं है।

दृष्टान्त

स्पर्धी दायाद (1) पिता के माता के पिता तथा (2) माता के पिता के पिता हैं। इन दोनों अवस्थाओं में ऊपर की डिग्री की संख्या समान है तथा नीचे की डिग्री का कोई नहीं है; अत: वे एक साथ ग्रहण करेंगे।

(3) जहाँ दोनों दायाद बन्धु दायादों में से हैं, किन्तु प्रत्येक ऊपर तथा नीचे की समान डिग्री

दृष्टान्त स्पर्धी दायाद (1) बहिन के पुत्र के पुत्र तथा (2) बहिन की पुत्री का पुत्र है। दोनों दायाद समान रूप से एक ही डिग्री के हैं। अत: वे एक ही अंश ग्रहण करेंगे।

उपर्युक्त नियम उस दशा में अनुवर्तित किया जाता है जबकि दोनों दायाद गोत्रज है अथवा बन्धु। किन्तु जब एक दायाद गोत्रज होता है तथा दूसरा बन्धु तो गोत्रज दायाद अधिमान्य माना जाता

जहाँ दो दायाद एक साथ ग्रहण करते हैं, वहाँ सगा नातेदार चचेरे नातेदार की अपेक्षा अधिमान्य समझा जाता है, यदि अन्य मामलों में सम्बन्ध एक ही प्रकार का हो (धारा 18)।

दायादों के अभाव में सम्पत्ति का राजगामी होना-निर्वसीयत के सभी दायादों के अभाव में सम्पत्ति सरकार में न्यागत हो जाती है। वस्तुत: उस दशा में सम्पत्ति राजगामिता द्वारा सरकार को चली जाता है। सरकार के ऊपर यह प्रमाणित करने का भार होता है कि निर्वसीयत बिना ऐसे किसी दायाद

मर गया जो इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार दायाद होने का अधिकारी था। राजगामी हुई। सम्पदा ऐसे समस्त प्रभारों तथा न्यासों से प्रतिबन्धित रहती है जो उसके पहले प्रभावित करते थे। पानयम की धारा 29 में इस प्रकार की सम्पत्ति का उल्लेख किया गया है जो इस प्रकार है

 “यदि निर्वसीयती ऐसा कोई दायाद अपनी मृत्यु के बाद नहीं छोड़ता जो उसकी सम्पत्ति का इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुकूल उत्तराधिकार में प्राप्त करने के लिए सक्षम है तो एसी सम्पत्ति सरकार को न्यागत होगी। ऐसी सम्पत्ति उन सभी प्रभारों और दायित्वों के अधीन

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