LLB Hindu Law Chapter 8 Post 3 Book Notes Study Material PDF Free Download
LLB Hindu Law Chapter 8 Post 3 Book Notes Study Material PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों एक बार फिर से आप सभी का स्वागत करते है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books से लिए गये Part 3 अन्धिनियमित पूर्व हिन्दू विधि Chapter 8 संयुक्त परिवार तथा मिताक्षरा सह्दायिकी सम्पत्ति Post 3 Online पढ़ने जा रहे है, निचे अभ्यर्थियो को LLB 1st, 2nd, 3rd year All Semester Books Free PDF में डाउनलोड करने के लिए भी मिल जाएगी |
जायेगी। जहाँ कोई व्यक्ति पारिवारिक पुजारी की वृत्ति चलाता है तो उसे जो आय प्राप्त होगी वह उसकी पथक सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त सम्पत्ति। मदन लाल फूलचन्द्र जैन बनाम महाराष्ट राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कोई हिन्दू पुरुष पैतृक सम्पत्ति में एक अंश होने के साथ-साथ अपनी पृथक् सम्पत्ति भी रख सकता है। यदि वह कोई भूमि अपने चाचा से दाय में प्राप्त करता है और उसे उस सम्पत्ति को बेचने का (absolute) अधिकार प्राप्त है वह उसकी पृथक सम्पत्ति होगी। भाई के नि:सन्तान मर जाने पर उससे, दाय में प्राप्त की गई सम्पत्ति स्वार्जित पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी।
डॉ० गुरुमुख राम मदान बनाम भगवान दास मदान के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पर किसी पक्षकार के द्वारा न्यायालय में इस बात का कोई साक्ष्य प्रस्तुत न किया गया हो, जिससे यह सिद्ध हो सके कि उस सम्पत्ति के बनाने में उसका भी पूरा योगदान है, तो ऐसी सम्पत्ति में उसका कोई हिस्सा नहीं होगा, और न ही ऐसी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति की संज्ञा दी जा सकती है अर्थात् ऐसी सम्पत्ति एक पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति मानी जाएगी।
(3) संयुक्त परिवार के विभाजन पर जो सम्पत्ति किसी हिन्दू को वंश रूप में प्राप्त होती है, ऐसे हिन्दू व्यक्ति के कोई पुरुष सन्तान जैसे पुत्र या पौत्र नहीं होना चाहिये।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ विभाजन के बाद किसी व्यक्ति ने पारिवारिक सम्पत्ति के माध्यम से नयी सम्पदा को अर्जित किया हो और यह अर्जन संयुक्त परिवार की ओर से नहीं हुआ है वहाँ वह सम्पदा स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगी।
(4) अकेले उत्तरजीवी सहदायिक को न्यागत होने वाली सम्पत्ति, यदि उस सहदायिक की कोई ऐसी विधवा नहीं है जो दत्तक-ग्रहण करने का अधिकार रखती हो अथवा उसके गर्भ में कोई सन्तान
(5) दान अथवा इच्छापत्र इस दृष्टि से नहीं किया गया है कि वह परिवार के प्रलाभ के लिए हो अथवा उसके अपने लिए।
(6) पिता द्वारा पैतृक चल-सम्पत्ति दान द्वारा प्राप्त होना जो उसने स्नेह एवं प्रेम में दी हो।।
(7) सरकार से अनुदान के रूप में प्राप्त सम्पत्ति।
(8) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति जो खो चुकी हो तथा बाद में किसी सदस्य द्वारा संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से पुनः प्राप्त कर ली गई हो।
(9) ज्ञानार्जन का लाभ–संयुक्त परिवार के किसी सदस्य की अपने विज्ञान अथवा विद्या से अर्जित सम्पत्ति उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जाती है, चाहे उसका ज्ञानार्जन संयुक्त परिवार के व्यय पर प्राप्त किया गया हो, अथवा उसकी शिक्षा-प्राप्ति के समय उसके परिवार का भरण-पोषण संयुक्त परिवार द्वारा किया गया हो।
विधि में यह विषय विवादित रहा है कि यहाँ ‘विज्ञान’ शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त किया जाय? यदि परिवार की सम्पत्ति को लगाकर विज्ञान का उपार्जन किया गया है तो उसके आधार पर अर्जित की गई सम्पत्ति के स्वभाव के निर्धारण में न्यायालयों में मतभेद रहा है। इस मतभेद को समाप्त करने के लिए हिन्दू गेन्स ऑफ लर्निंग अधिनियम, 1930 पास किया गया जिसके अन्तर्गत यह उपबन्ध प्रदान किया गया कि किसी भी नियम, उपनियम अथवा व्याख्या के बावजूद यदि संयुक्त परिवार के किसी सदस्य द्वारा उसके अपने ज्ञानार्जन से कोई सम्पत्ति प्राप्त की गई है तो वह सम्पत्ति उसकी’ पृथक्
1. लक्ष्मी चन्द्र जजूरिया बनाम श्रीमती ईशरू देवी, ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 19641
2. ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 12541
3. ए० आई० आर० 1995 एच० पी० 921
4. ए० आई० आर० 1998 एस० सी०, पृ०27761
5. विदारी बासम्मा बनाम कान्चिकेरी विदारी सद्यजथप्पा, ए०आई०आर० 1984, एन० ओ० सी० 2371
सम्पत्ति होगी न कि परिवार की संयुक्त सम्पत्ति, भले ही उसका ज्ञानार्जन संयुक्त परिवार के व्यय से प्राप्त किया गया हो अथवा उसकी शिक्षा-प्राप्ति के समय उसके परिवार का भरण-पोषण संयुक्त परिवार के धन से किया गया हो।
जहाँ किसी संयुक्त परिवार का सदस्य अपने स्वतन्त्र स्रोत से आय अर्जित करता है और धन का अर्जन हिन्दू गेन्स ऑफ लर्निग अधिनियम, 1930 के अधीन किया गया है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति का स्वरूप नहीं धारण करती।
वेतन एवं पारिश्रमिक
संयुक्त परिवार का कोई सदस्य संयुक्त सम्पत्ति के किसी अंश का प्रयोग करके व्यक्तिगत पृथक् धनलाभ नहीं कर सकता और न उसे वह स्वार्जित सम्पत्ति केवल इस आधार पर कह सकता है कि उसने अपनी निजी बुद्धि अथवा प्रज्ञा से उसे अर्जित की है। जहाँ परिवार के कर्ता को किसी कम्पनी के डाइरेक्टर होने के लिए आवश्यक अंशों की धनराशि संयुक्त परिवार के कोश से दी गयी थी तो मद्रास उच्च न्यायालय ने यह कहा था कि संयुक्त परिवार लाभांश तथा कर्ता/डाइरेक्टर वेतन तथा अन्य पारिश्रमिक को भी पाने का अधिकारी है। किन्तु उच्चतम न्यायालय ने इस मत को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को कम्पनी के लाभांश पाने के लिए लगाया गया था न कि कर्ता को डाइरेक्टर बनाने के लिए। अतएव कर्ता को प्रबन्धक/डाइरेक्टर के रूप में काम करने का जो कमीशन तथा वेतन आदि मिलता था वह उसकी स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगी। धनवन्तारे बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जो वेतन अथवा पारिश्रमिक कोई सहदायिक किसी फर्म में भागीदार होने के नाते प्राप्त करता है, वह संयुक्त सम्पत्ति कहलायेगी। इस मामले में सहदायिकों ने संयुक्त सम्पत्ति आयकर से बचाने के उद्देश्य से एक भागिता फर्म में लगा दिया तथा आपस में यह समझौता किया कि वे भागिता फर्म के लाभ को व्यक्तिगत वेतन के रूप में ग्रहण करेंगे। न्यायालय में यह दलील दी गई कि भागीदार अपनी व्यक्तिगत प्रज्ञा तथा बुद्धि के द्वारा वेतन ले रहे थे, किन्तु न्यायालय ने इस दलील को अस्वीकार कर दिया और कहा कि भागीदार का तथाकथित वेतन अथवा पारिश्रमिक संयुक्त सम्पत्ति का भाग माना जायेगा।
जहाँ कर्ता को किसी व्यवसाय का प्रबन्धक नियुक्त करवाने के लिये उसकी ईमानदारी की जमानत लेनी पड़ी और उसके लिए संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगाई गई जिसके एवज में परिवार को ब्याज मिल रहा था वहाँ उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कर्ता/प्रबन्धक का वेतन और पारिश्रमिक उसकी अपनी सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति। संयुक्त परिवार को दी गई जमानत राशि पर ब्याज मिल रहा था।
कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स बनाम डी० सी० शाह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुनः यह कहा कि जहाँ भागिता लेख से यह परिलक्षित होता है कि किसी सहदायिक को भागीदार के रूप में उसकी विवेक, बुद्धि, कार्यकुशलता एवं अनुभव के आधार पर वेतन एवं पारिश्रमिक देने का निश्चय किया गया था वहाँ वह वेतन अथवा पारिश्रमिक उसकी स्वार्जित सम्पत्ति समझी जायेगी, भले ही फर्म की पूँजी अधिकांशत: संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से लगायी गयी थी।
पी० एस० सांई राम व अन्य बनाम पी० एस० रामा राव, के मामले में उच्चतम न्यायालय
1. प्राणनाथ कौशिक बनाम राजिन्दर नाथ कौशिक, ए० आई० आर० 1986 दि० 121
2. 1968 एम० सी० 6781
3. ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 6131
4. प्यारे लाल बनाम इन्कम टैक्स कमिश्नर, ए० आई० आर० 1966 एस० सी० 9171
5. 1969 ए० सी० 9271
6. ए० आई० आर० 2004 एस० सी० 1619.
ने यह कहा कि जहाँ कोई सहदायिक (कर्ता) अपने स्व-विवेक बुद्धि एवं कार्य कुशलता तथा अनुभव के आधार पर कोई सम्पत्ति अर्जित करता है, भले ही ऐसी सम्पत्ति में संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति लगाई गई हो, ऐसी सम्पत्ति कर्ता की स्वअर्जित सम्पत्ति समझी जायेगी।
भगवन्त जी सुलाखे बनाम दिगम्बर गोपाल सलाखे में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य किसी कम्पनी में मैनेजिंग डाइरेक्टर नियुक्त किया गया हो और उसकी एवज में अच्छा पारिश्रमिक प्राप्त कर रहा हो वहाँ भले ही उस कम्पनी के कुछ शेयरों को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में से खरीदा गया हो. किन्तु उस सदस्य को प्राप्त पारिश्रमिक उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी।
उच्चतम न्यायालय ने संयुक्त हिन्दू परिवार के सम्बन्ध में एक नयी प्रतिपादना की जिसमें यह कहा गया कि परिवार के अविभक्त सदस्य के बीच भी संविदा हो सकती है। कोई सहदायिक सहभागिता कायम करने के लिये परिवार के कर्ता के साथ संविदा कर सकता है और यदि वह अपनी बुद्धि-कुशलता अथवा विशिष्ट ज्ञान एवं श्रम द्वारा सहभागिता में योगदान देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपनी पृथक् सम्पत्ति का निवेश न करने के कारण उसका सहभागीदार नहीं है। उसकी बुद्धि-कुशलता एवं श्रम ही सहभागिता फर्म की एक पूँजी मानी जाती है। किसी व्यवसाय का उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है। व्यवसाय के निमित्त कोई व्यक्ति पूँजी लगाकर सहभागीदार बनता है एवं कोई अन्य अपनी बुद्धि-कुशलता एवं श्रम द्वारा व्यवसाय को चलाने में सहायता दे सकता है और इस प्रकार सहभागीदार हो सकता है। ऐसी स्थिति में जो लाभ वह अन्य सहदायिकों के साथ सहभागीदारिता से अर्जित करेगा वह उसकी निजी अर्थात् पृथक् सम्पत्ति होगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति।
बीमा पालिसी से प्राप्त धन-जहाँ किसी सहदायिक की बीमा पालिसी की किश्तों की रकम संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से दी जाती है वहाँ उससे उपार्जित आय मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति न मान कर सहदायिक की पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी। मैसूर उच्च न्यायालय ने यह कहा कि जहाँ सहदायिक पुत्र के बीमा पालिसी की किश्तें पिता प्रेम एवं स्नेहवश चुकाता है तो वहाँ पालिसी का लाभ सहदायिक की पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी। उच्चतम न्यायालय के अनुसार यदि सहदायिक की बीमा पालिसी के किश्तों की रकम संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से दी जाती है।
और परिवार का कोई अहित उससे नहीं होता तो वह प्राप्त लाभ सहदायिक की निजी सम्पत्ति होगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति। किन्तु यदि किश्तों की रकम अदा करने में संयुक्त परिवार का अहित होता है तो उस बीमा पालिसी से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी।
पृथक् सम्पत्ति के लक्षण-पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति किसी हिन्दू की अकेले की सम्पत्ति होती है, चाहे वह संयुक्त परिवार का ही सदस्य हो। उसकी पुरुष-सन्तान भी जन्मत: उसमें किसी हक का दावा नहीं कर सकती। वह उसका निर्वर्तन किसी भी रूप में कर सकता है। वह विभाजन के लिये प्रतिबन्धित नहीं है तथा गत स्वामी के निर्वसीयत मर जाने के बाद वह उसके दायादों को उत्तराधिकार से न कि उत्तरजीविता से न्यागत होता है।
संयक्त परिवार के सदस्यों के ऊपर प्रतिबन्ध नहीं है कि वे अपनी पृथक सम्पत्ति नहीं रख सकते। किन्तु जहाँ ऐसा केन्द्र-बिन्दु है कि जिससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि सम्पत्ति पथक है. वहाँ यह उपधारणा बना ली जाती है कि सम्पत्ति संयुक्त है और बाद में भी जो सम्पत्ति अर्जित की जायेगी वह भी संयुक्त ही होगी। हालाँकि यह उपधारणा खण्डनीय है और जो इसका खण्डन करता है, प्रमाण-भार उसी पर होता है। किन्तु पटना उच्च न्यायालय ने यह कहा कि एक केन्द्र-बिन्दु मात्र से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सम्पत्ति संयुक्त है।
1. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 791
2. चंद्रकान्त मनीलाल शाह बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स, ए०आई०आर० 1992 एस० सी० 661
3. त्रिवेनी मिश्र बनाम रामपूजन, ए० आई० आर० 1970, पटना 131
मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का वर्गीकरण-मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का पोकरण दो रोतियों से होता है ) अप्रतिबन्ध दाय (Unobstructed Heritage) और (2) सप्रतिबन्ध (Obstructed Heritage)
वह संयुका सम्पत्ति अथवा पैतृक सम्पत्ति जिसमे पुरुष सन्तान पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र जन्म से हक पार करते है, अप्रतिजभ दाय कहलाती है, जबकि किसी व्यक्ति की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति, जिसमे जन्मतः कोई हक उत्पन्न नहीं होता किन्तु गत स्वामी की मृत्यु के बाद हक उत्पन्न होता है, सातिबा दाय कहलाती है।
(0 अप्रतिषय दाय-जैसा कि पूर्व उल्लिखित है जिस सम्पत्ति में जन्म से हक प्राप्त हो जाता है, उसे अप्रतिबन्ध दाय को संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार की सम्पत्ति में गत स्वामी का अस्तित्व हक प्राप्त करने में बाधा नहीं उत्पन्न करता। इस प्रकार पिता, पितामह, प्रपितामह से दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसको अपनी पुरुष सन्तानो के लिये (जैसे पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र के लिए) अप्रतिबन्ध दाय होती है। इस प्रकार का अधिकार परिवार में जन्म मात्र से उत्पन्न हो जाता है और वे व्यक्ति जिनको यह अधिकार (हक) प्राप्त होता है, सहदायिक कहे जाते है। इस प्रकार पैतृक सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय होती
दृष्टान्त
अ अपने पिता से दाय में सम्पत्ति प्राप्त करता है। बाद में उसको एक पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र अपने पिता के साथ जन्म से सहदायिक तथा सम्पत्ति में समान रूप से आधे अंश का हकदार हो जायेगा। अ के समीप सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय होगी; क्योकि अ के जीवन में उसके पुत्र को हक प्राप्त करने में कोई बाधा नहीं होगी।
C) सप्रतिबय दाय-वह सम्पत्ति जिसमें जन्म से नहीं वरन् गत स्वामी की मृत्यु के बाद हक उत्पन्न होता है, सप्रतिबन्ध दाय कही जाती है। यह सप्रतिबन्ध दाय इसलिये कहा जाता है, क्योंकि सम्पत्ति में हक गत स्वामी के अस्तित्व में होने के कारण बाधित होता है। इस प्रकार वह सम्पत्ति जो पिता, भाई, भतीजा तथा चाचा को गत स्वामी की मृत्यु के बाद न्यागत होती है, उसे सप्रतिबन्ध दाय कहा जाता है। इस प्रकार के नातेदार जन्म से कोई हक नहीं प्राप्त करते। उनके अधिकार गत स्वामी को मृत्यु के बाद उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के अनुसार किसी हिन्दू पुरुष द्वारा अपने पिता, पितामह, एवं प्रपितामह से अन्य सम्बन्धियों से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति सप्रतिबन्ध दाय कहलायेगी न कि पैतृका
दृष्टान्त
उपर्यस्त दृष्टान्त में यदि अ बिना किसी पुरुष-सन्तान के मरता है, किन्तु उसके पृथक हआ भाई है, तो अ की सम्पत्ति भाई के लिए सप्रतिबन्ध दाय होगी; क्योंकि भाई उसमें तब तक कोई हक नहीं प्राप्त करता जब तक अ को मृत्यु नहीं हो जाती। अ का जीवन-काल उसके भाई के लिए हक प्राप्त करने में एक बाधा होगी।
संयुक्त परिवार के सदस्यों की भागिता-संयुक्त परिवार के सदस्य साझीदार नहीं है–साझीदार का सम्बन्ध संविदा से उत्पन्न होता है न कि प्रास्थिति से। संयुक्त परिवार के सदस्य परिवार के किसी कारोबार में साझीदार नहीं होते। (धारा 5, भागिता अधिनियम)
यद्यपि संयुक्त परिवार के सदस्य कोई फर्म नहीं निर्मित कर सकते, फिर भी वे संयुक्त परिवार को सम्पत्ति का विभाजन करवा सकते हैं, अथवा परिवार के कारोबार को विभाजित करवा सकते हैं
और फिर परिवार के कारोबार के सम्बन्ध में साझेदारी की संविदा सम्पन्न कर सकते हैं।। संयुक्त परिवार के कारोबार का लेखा-जोखा, जो कर्ता द्वारा रखा जाता है, भागिता से भिन्न होता है। प्रथम व्यक्तिगत सदस्यो के लाभ एवं हानि के अंश का लेखा-जोखा नहीं किया जाता, जबकि भागिता में उसका लेखा-जोखा किया जाता है।
अब यह एक मान्य सिद्धान्त है कि संयुक्त परिवार का कर्ता अथवा वयस्क सदस्य किसी बाहरी व्यक्ति के साथ साझेदारी की संविदा सम्पन्न कर सकता है। परिवार का कर्ता अथवा वयस्क सदस्य अपने अधिकारो की सीमा के अन्तर्गत कार्य करता हआ साझेदारी की शर्ते इस प्रकार तय करता है। कि पूरे परिवार को पूण के लिए दायित्वाधीन ठहरा सके। जहाँ कर्ता किसी बाहरी व्यक्ति के साथ साझेदारी सम्पन्न करता है वहाँ परिवार के सदस्य कारोबार में स्वत: साझेदार नहीं हो जाते। संयुक्त परिवार के अविभक्त सदस्य आपस में संविदा कर सकते हैं। वे कर्ता के साथ भी साझेदारी की संविदा कर सकते है, ऐसी साझेदारी संविदा के फर्म में उनका अपना श्रम तथा बुद्धि कौशल्य पूँजी के रूप में हो सकता है जो साझेदारी के आवश्यक लक्षण को पूरा करता है।’
संयुक्त हिन्दू-परिवार तथा भागिता में प्रभेद-भागिता तथा संयुक्त हिन्दू-परिवार में प्रभेद के निम्नलिखित तर्क है
(1) मृत्यु से विघटन—किसी साझेदार की मृत्यु से साझेदारी भंग हो जाती है, किन्तु संयुक्त हिन्दू-परिवार किसी सदस्य की मृत्यु से भंग नहीं होता।
(2) विभाजन से विघटन-विभाजन के सम्बन्ध में संयुक्त परिवार के किसी भी सदस्य की इच्छा से अभिव्यक्तिकरण पर संयुक्त हिन्दू-परिवार के फर्म का विघटन हो जाता है। किन्तु साधारण भागिता निश्चित अवधि से समाप्त होने के पूर्व, कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर भंग नहीं हो सकती है।
(3) कारोबार में अंश—साधारण भागिता में प्रत्येक भागीदार की संविदा के आधार पर एक निश्चित अंश प्राप्त होता है, किन्तु संयुक्त हिन्दू-परिवार की फर्म के सम्बन्ध में सदस्यों में हकों की सामूहिकता होती है तथा भागिता में किसी सहदायिक का कोई निश्चित अंश नहीं होता।
(4) पुरुष-सन्तान द्वारा हक की प्राप्ति—साधारण साझेदार की पुरुष-सन्तान जन्मत: कोई हक नहीं प्राप्त करती, जबकि संयुक्त हिन्दू-परिवार की फर्म में पुरुष-सन्तान, अर्थात् पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र जो एक समान पूर्वज से उत्पन्न होते हैं, जन्म से हक उसी प्रकार प्राप्त करते हैं जिस प्रकार परिवार को अन्यसंयुक्त सम्पत्ति में।।
दायित्व की सीमा साधारण साझेदारी में साझेदार अपने अंश की सीमा तक ही दायित्व नहीं रखते वरन् वे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं, अर्थात् साझेदारों की पृथक् सम्पत्ति भागिता के ऋणों की देनगी के लिए उत्तरदायी होती है।
संयक्त परिवार तथा स्वार्जित सम्पत्ति के विषय में प्रकल्पनायें-जहाँ किसी सम्पत्ति के विषय में एक सहदायिक अपनी सम्पत्ति स्वार्जित बनाता है तथा दूसरे उसके विषय में संयुक्त सम्पत्ति होने का दावा करते हैं, वहाँ जो सहदायिक उस सम्पत्ति को स्वार्जित होने का दावा करता है, उसी के ऊपर यह सिद्ध करने का भार होता है अन्यथा संयुक्त परिवार हिन्दू-समाज की एक सामान्य दशा मानी जाती है तथा प्रत्येक हिन्दू-परिवार न केवल सम्पदा के मामले में वरन् पूजा एवं खान-पान के मामले में भी सामान्यत: संयुक्त समझा जाता है। किन्तु यह प्रकल्पना नहीं की जा सकती कि संयक्त परिवार में सम्पत्ति संयुक्त ही होगी। परिवार में एक बार कुछ सदस्यों के पृथक् हो जाने पर परिवार
1. 1952 आई०टी० आर० 2641
2. नानचन्द गंगाराम बनाम मलप्पा महालिंगप्पा, ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 8351
3. चन्द्रकान्त मनीलाल शाह बनाम कमिश्नर इन्कम टैक्स, ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 661
4. रामकिशन बनाम टुण्डामल, 10 आई०सी० 543; निसार अहमद बनाम मोहन, 67 आई० ए० 4311
की संयक्तता समाप्त हो जाती है। यदि कुछ सदस्य फिर भी संयुक्त रहते हैं तो यह प्रमाण-भार उन ता है। जहाँ किसी सदस्य ने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का एक छोटा-सा भी अंश लेकर दूसरी पनि अर्जित की, वहाँ वह अर्जित सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति समझी जायेगी। किस सीमा तक उसमें उसका योगदान था अथवा संयुक्त परिवार का योगदान था, यह प्रश्न अप्रासंगिक है। सम्पत्ति का अर्जित किया जाना ही यह प्रकल्पना निर्धारित करता है कि यह संयुक्त सम्पत्ति हो गई। इसके पर्व कि किसी सहदायिक के पास स्थित सम्पत्ति को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति माना जाय, संयुक्त सम्पत्ति के ऐसे केन्द्र-बिन्दु होने की बात सिद्ध करना आवश्यक है जिस केन्द्र-बिन्दु से सहदायिक के हाथ में सम्पत्ति का प्रादुर्भाव हुआ।’ किन्तु जहाँ यह प्रमाणित किया जाता है कि केन्द्र-बिन्दु से इतनी मात्रा में सम्पत्ति नहीं ली जा सकती थी कि उससे दूसरी सम्पत्ति अर्जित की जा सके, वहाँ अर्जित सम्पत्ति संयक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी। केन्द्र-बिन्दु से जब तक आयाधिक्य (Excess income) न हो, उसके सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि उससे कोई नई सम्पत्ति अर्जित की गई है। जब केन्द्र-बिन्दु से आयाधिक्य और उससे सहायता लेकर कोई सम्पदा बनाई गई हो, तभी वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलायेगी। जब केन्द्र-बिन्दु की पर्याप्त सम्पत्ति प्रदर्शित की जाती है तो प्रमाण-भार उस व्यक्ति पर हो जाता है कि वह अर्जित सम्पत्ति के विषय में यह सिद्ध करे कि उसने बिना किसी सहायता के (केन्द्र-बिन्दु की सम्पत्ति के बिना) सम्पत्ति अर्जित की थी।
सहदायिकी के अधिकार
संयुक्त परिवार के प्रत्येक सहदायिक को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं__
(1) समान कब्जे तथा उपभोग का अधिकार-सहदायिकों को सम्पत्ति में हकों की सामूहिकता तथा सम्मिलित कब्जे का अधिकार प्राप्त होता है। प्रिवी कौंसिल ने यह कहा है कि सम्पत्ति का संस्वामित्व तथा सम्मिलित कब्जा सहदायिकी का विशेष लक्षण है तथा किसी एक सहदायिक की मृत्यु हो जाने पर दूसरे सदस्य उत्तरजीविता से उस सम्पत्ति को ग्रहण कर सकते हैं जिसमें वे समान हक तथा सम्मिलित कब्जा रखते थे। कोई सदस्य सहदायिकी में कोई विशेष हक नहीं रखता तथा न कोई सम्पत्ति के किसी भाग में एकाधिकार ही रख सकता है।
(2) हकों का संस्वामित्व-सहदायिकी सम्पत्ति में किसी सहदायिक का कोई निश्चित हक नहीं होता तथा न सम्पत्ति की आय में ही किसी का निर्धारित हक होता है। परिवार की समस्त आय सामान्य कोश में डाल दी जाती है जो अविभक्त परिवार के सदस्यों द्वारा उपयुक्त होती है। किसी सहदायिकी का कोई निर्धारित अंश नहीं होता।’
किन्तु परिवार का कर्त्ता किसी एक सदस्य की आय से कुछ अंश उसके अपने भरण-पोषण के लिए निर्धारित कर सकता है। उस आय की बचत तथा उससे खरीदी हुई सम्पत्ति उस सदस्य की पृथक् एवं स्वार्जित सम्पत्ति हो जाती है।
1. मंगल सिंह बनाम हरकेश, 1958 इला० 421
2. रामकिशन बनाम टुण्डामल, 8 ए० एल० जे० 723; हरगौरी बनाम आशुतोष, 1937 कल० 4181
3. नरसिंह मूर्ति बनाम नागभूषनम्, 1956 आन्ध्र 225; रामकृष्ण बनाम विष्णु मूर्ति, (1956) 2 एम० एस० जे० 559; श्री निवास कृष्णराव बनाम नारायन, 1954 एस० सी० 379; रुक्का बाई बनाम लक्ष्मी नारायण, 1960 एस० सी० 3351
4. नारायण स्वामी अय्यर बनाम रामकृष्ण अय्यर, 1962 एस० सी० 289; त्रिवेणी मिश्र बनाम रामपूजन, 1970 पटना 131
5. मुदी गौड़ बनाम रामचन्द्र 1969 एस० सी० 10761
6. कामता नचियर बनाम राजा ऑफ शिवगंगा, 9 एम० आई० ए० 543, 6111
7. गिरजानन्दिनी बनाम ब्रजेन्द्र, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 11241
8. आई० एल० आर० 1936 मद्रास 9901
(3) सम्मिलित कब्जे का अधिकार प्रत्येक सहदायिक की सम्मिलित कब्जे तथा परिवार की सम्पत्ति से उपभोग का अधिकार प्राप्त है। यह सम्पत्ति के विभाजन के लिए विभाजन का दावा संस्थापित कर सकता है। इस प्रकार जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य अपने कब्जे से किसी कमरे में प्रवेश पाने के किसी दरवाजे अथवा जीने के प्रयोग से रोका जाता है, वहाँ वह उस सदस्य (अर्थात् जो रोकता है) के विरुद्ध निषेधाज्ञा का वाद इस उद्देश्य से संस्थापित कर सकता है कि उसे इस प्रकार के प्रयोग से न रोका जाय।
(4) विभाजन की माँग प्रस्तुत करने का अधिकार प्रत्येक सहदायिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने अंश के विभाजन की माँग अपने पिता, भाई अथवा पितामह के विरुद्ध कर सकता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार पृथक् होने का अधिकार रखता है, चाहे परिवार के सदस्य इसकी स्वीकृति दें अथवा नहीं।
किन्तु पृथक् होने वाले सहदायिक को अपनी इच्छा का अभिव्यक्तिकरण अन्य सदस्यों को स्पष्ट रूप से कराना चाहिये, किन्तु वह किसी रीति से दूसरों को अपनी इच्छा से अवगत कराये, वह भिन्न मामलों में भिन्न-भिन्न रीतियों से हो सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि परिवार के अन्य सदस्यों को उनकी इच्छा के विषय में औपचारिक सूचना हो। इस बात की सूचना किसी भी प्रकार हो सकती है और एक बार सहदायिक द्वारा इस आशय की बात कहे जाने पर संयुक्त परिवार की स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। इसके बाद पृथक् होने वाले सहदायिक के लिये यह सम्भव नहीं रह जाता कि वह परिवार की पूर्वस्थिति को पुनर्स्थापित कर सके, यद्यपि सदस्यों के मध्य पुनः समझौता होने पर परिवार का पुन: एकीकरण हो सकता है।
(5) अनधिकृत कार्यों को करने से रोकने का अधिकार—एक सहदायिक दूसरे सहदायिक की सहदायिकी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अनधिकृत कार्यों को करने से रोक सकता है, यदि इस प्रकार का कार्य सम्मिलित उपभोग में बाधा उत्पन्न करता है।
(6) हिसाब का लेखा-जोखा माँगने का अधिकार-सहदायिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का हिसाब माँगने का अधिकार रखता है जिससे वह यह जान सके कि परिवार की सम्पत्ति के प्रबन्ध में कितना व्यय होता है अथवा परिवार के कोश की क्या स्थिति है? इस प्रकार जहाँ एक सहदायिक संयुक्त परिवार की दूकान में प्रवेश करने से रोका गया, बही-खाता के निरीक्षण से मना किया गया तथा दूकान के प्रबन्ध में भाग लेने से रोका गया, वहाँ न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि वह सदस्य अन्य सदस्यों के विरुद्ध सम्पत्ति के सम्मिलित कब्जे तथा प्रबन्ध के सम्बन्ध में निषेधाज्ञा का वाद संस्थापित कर सकता है जिसके द्वारा इस प्रकार बाधा उत्पन्न करने वाले सहदायिक ऐसा करने से रोके जायेंगे
(7) अन्यसंक्रामण-एक सहदायिक अन्य सहदायिक की सहमति से अपने अविभक्त हक का अन्यसंक्रामण दान, बन्धक अथवा विक्रय द्वारा कर सकता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में यह अभिनिर्धारित किया है कि मिताक्षरा विधि, जैसा कि उत्तर प्रदेश में लागू होती है, उसके अनुसार किसी सहदायिक द्वारा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को जब तक परिवार के प्रलाभ अथवा पूर्वकालिक ऋण की अदायगी अथवा आवश्यकता के लिये न हो, अन्यसंक्रामित नहीं की जा सकती। इस प्रकार का अन्यसंक्रामण (Alienation) पूर्ण रूप से शून्य है। कोई सहदायिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अपने अविभक्त अंश को भी अन्यसंक्रामित नहीं कर सकता, यदि वह अन्यसंक्रामण पूरे परिवार की
1. अनन्त बनाम गोपाल, 11 बाम्बे 2691
2. रामेश्वर बनाम लक्ष्मी, 21 कल० 111।
3. पुत्ता रंगम्मा बनाम एम० एस० रंगम्मा, 1962 एस० सी० 1018।
4. गुनपत बनाम अन्ना जी, 23, बा० 1441
5. शंभू बनाम रामदेव, ए० आई० आर० 1982 इला० 508।
आवश्यकता अथवा प्रलाभ के लिए नहीं है। मद्रास, बम्बई, मध्य प्रदेश में सहदायिक ही किसी की सहमति के बिना अपने अविभक्त हक का अन्यसंक्रामण कर सकता है। किन्तु इच्छापत्र द्वारा अविभक्त हक का निर्वर्तन कोई भी सहदायिक नहीं कर सकता।
थम्मा वेन्कट सुब्बम्मा बनाम थम्मा रत्तम्मो के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी सहदायिक द्वारा सहदायिकी सम्पत्ति में किया गया दान शून्य होता है। इस प्रकार का दान शून्य इसलिये होता है कि सहदायिक का अंश जब तक विभाजन नहीं होता अनिश्चित रहता है, इसलिए दान में दी जाने वाली सम्पत्ति का निर्धारण नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की व्यवस्था का उद्देश्य यह है कि सहदायिकी सम्पत्ति में स्वामित्व एवं कब्जे की संयुक्तता बनी रहे। हालाँकि यह सत्य है कि विधिग्रंथों के पाठों में कहीं कोई विनिषेध नहीं है कि वह दान द्वारा सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण नहीं कर सकता किन्तु इस प्रकार की विधि धीरे-धीरे विकसित हुई जिसका उद्देश्य यह था कि संयुक्त परिवार की अखण्डनीयता बनी रहे।
अत: यदि अन्य सहदायिक प्रलक्षित आचरण से अपनी सहमति देते हैं तो दान वैध है। सहमति का समय अनावश्यक है।
(8) अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का अधिकार—किसी सहदायिकी द्वारा अथवा कर्ता एवं पिता द्वारा अपने अधिकार के बाहर किये गये अन्यसंक्रामण को अपास्त कराने का अधिकार प्रत्येक सहदायिक को प्राप्त है। इस प्रकार के अनधिकृत अन्यसंक्रामण को बाद में उत्पन्न हुआ सहदायिक भी अपास्त करवा सकता है। यदि इन तीनों उद्देश्यों के अलावा किसी अन्य उद्देश्य से सम्पत्ति अन्यसंक्रामित की जाती है तो उसे अवैध एवं शून्य करार करवाया जा सकता है। जहाँ सम्पूर्ण घर की जमीन दूसरी जमीन को खरीदने के तथा उस पर नया मकान बनवाने के लिये बेच दी जाती है जब कि उस विक्रय को बुद्धिमानी का कार्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पुराना मकान एकदम ठीक था। उस विक्रय से अधिक धन भी नहीं प्राप्त हो सका था कि यह कहा जाता कि अधिक मूल्य पर बेच कर कम मूल्य की जमीन खरीद कर मकान बनवाया गया, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार के अन्यसंक्रामण को अपास्त करवाया जा सकता है।
जैसा कि पूर्व उल्लिखित है संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को तीन उद्देश्यों के लिये अन्यसंक्रामित किया जा सकता था
(1) पारिवारिक प्रलाभ,
(2) विधिक आवश्यकता,
(3) पूर्ववर्ती ऋण की अदायगी।
जहाँ अन्यसंक्रामण में अन्य सभी सहदायिक सहमति दे चुके हैं, किन्तु कुछ ने सहमति नहीं दी है, वहाँ सहमति न देने वाले सहदायिकों को अन्यसंक्रामण बाध्यकारी नहीं होगा। पिता के द्वारा वैध अन्यसंक्रामण को पुत्रगण अपास्त नहीं करा सकते। पुत्र अन्यसंक्रामण के चाहे पूर्व उत्पन्न हुआ हो या बाद में, उसको अपास्त करवा सकता है यदि अन्यसंक्रामण अनधिकृत है।
(9) भरण-पोषण का अधिकार-सहदायिक की पत्नी तथा सन्तान सहदायिकी सम्पत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकारी हैं तथा संयुक्त परिवार के प्रबन्धक का यह विधिक दायित्व है कि वह सभी पुरुष-सदस्यों, उनकी पत्नियों एवं अविवाहिता पुत्रियों का भरण-पोषण करे।
(10) सहदायिकी सम्पत्ति में अपने हक का परित्याग करने का अधिकार-मद्रास उच्च
1. लक्ष्मन बनाम रामचन्द्र, 7 आई० सी० आर० 1811
2. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 17571
3. सुरेन्द्रनाथ दास अधिकारी बनाम सुधीर कुमार बहेरा, ए० आई० आर० 1952 उड़ीसा 301
4. आई० एल० आर० 1940 मद्रास 8301
न्यायालय के अनुसार कोई सहदायिकी सम्पत्ति में अपने हक को अन्य सभी सहदायिकों के पक्ष में अथवा किसी एक सहदायिक के पक्ष में छोड़ सकता है। किन्तु इलाहाबाद तथा बम्बई उच्च न्यायालय के अनुसार सहदायिक द्वारा हक का परित्याग सभी सहदायिकों के पक्ष में ही हो सकता है। मद्रास उच्च न्यायालय के नवीनतम निर्णय के अनुसार जब कभी सहदायिकी सम्पत्ति में का सहदायिक अपने हक को अन्य सभी सहदायिकों के पक्ष में परित्याग कर देता है वहाँ वह हक सभी सहदायिकों में चला जाता है। यदि ऐसे सहदायिक के कोई पत्र हक के परित्याग के बाद उत्पन्न होते हैं तो उन पुत्रों को बँटवारा करने का अधिकार नहीं रह जाता।
(11) उत्तरजीविता का अधिकार किसी सहदायिक की मृत्यु के बाद उसका हक उत्तरजीविता के आधार पर अन्य सहदायिकों में न्यागत होता है। यह न्यागमन उसके दायादों को उत्तराधिकार के आधार पर नहीं होता।
मिताक्षरा विधि के अनुसार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सहदायिक का हक जन्म से उत्पन्न होता है तथा उसे संयुक्त सम्पत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार तब तक बना रहता है जब तक परिवार संयुक्त रहता है तथा विभाजन नहीं हुआ रहता। विभाजन के उपरान्त प्रत्येक सहदायिक का हक अलग हो जाता है। हिन्दू विधि वयस्क तथा अवयस्क सहदायिकों में, जहाँ तक संयुक्त सम्पत्तियों में उनके अधिकार का सम्बन्ध है, प्रभेद करता है।
उत्तरजीविता का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है तथा किसी सहदायिकी की मृत्यु हो जाने से उसका हक उत्तरजीविता से अवशिष्ट सहदायिकों को चला जाता है। अविभक्त संयुक्त सम्पत्ति में सहदायिकों को कोई अपना अलग अधिकार नहीं प्राप्त है। मेन ने इसलिये कहा था कि “संयुक्त हिन्दू-परिवार में इसी कारण से संयुक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार-जैसी कोई बात नहीं होती।”
उत्तरजीविता का अधिकार कब विफल हो जाता है-उत्तरजीविता से किसी सहदायिक का हक प्राप्त करने का अधिकार निम्नलिखित अवस्थाओं में विफल हो जाता है
(1) जहाँ सहदायिक जन्मतः पागल अथवा जड़ होने के कारण अयोग्य हो जाता है।
(2) वह दत्तक-ग्रहण से दूसरे परिवार में चला जाता है।
(3) वह सहदायिकी हक का अभ्यर्पण (Surrender) कर देता है।
(4) प्रतिकूल कब्जा से सहदायिकी सम्पत्ति में अपना हक खो देता है।
(5) जब मृत सहदायिक ने-
(1) अपने पीछे पुरुष सन्तान को छोड़ रखा है।
(2) अपने हक को बेच दिया या बन्धक कर दिया है।
(6) जब किसी सहदायिक का हक किसी आज्ञप्ति के निष्पादन में कुर्क कर लिया गया हो।
(7) जब आज्ञप्ति उसके जीवन-काल में पास की गई हो, चाहे उसके जीवन-काल में उसका हक कुर्क न किया गया हो, यदि निर्णीत-ऋणी (Judgement-debtor) उत्तरजीवी सहदायिकों के पिता, पितामह तथा प्रपितामह के नातेदारी में है।
(8) यदि सहदायिक का हक राजकीय समनुदेशिती (Assignee) में निहित हो गया हो। हिन्दू नारी सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1957 के द्वारा उत्तरजीविता सम्बन्धी अधिकार में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया गया। अधिनियम में मिताक्षरा संयुक्त परिवार में मृत सहदायिक की विधवा को सहदायिक सम्पत्ति में वही हक प्रदान किया गया जो मृत सहदायिक रखता था। वस्तुत: इस प्रकार के प्रावधान से उत्तरजीविता के सिद्धान्त को बहुत बड़ी ठेस पहुँची, क्योंकि मृत सहदायिकी के
1. सरथामबल बनाम सीरलान तथा अन्य, ए० आई० आर० 1981 मद्रास 591
2. पेदसुमय्या बनाम अक्कम्मा, ए० आई० आर० 1958 एस० सी० 10421
पुरुष-सन्तान होने के बाद भी, उसकी विधवा को सहदायिकी सम्पत्ति में वही हक प्राप्त हुआ जो मृत सहदायिक को प्राप्त था।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 का प्रभाव-इस अधिनियम की धारा 6 मे मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति तथा उत्तरजीविता से सहदायिक के हक के न्यागमन की धारा का निर्मूलन पूर्ण रूप से नहीं किया गया। वह परन्तक के प्रावधानों की सीमा तक ही विकृत किया गया है। इस बात को दृष्टि में रखते हए कि स्त्री-दायादों तथा स्त्री-दायादों के माध्यम से दावा करने वाले पुरुष-दायादों की सूची बहुत बड़ी है तथा किसी पुरुष के उस सूची से किसी एक दायाद को बिना छोड़े हुए मरने की सम्भावना बहुत कम है, ऐसा अवसर कदाचित ही कभी आये कि सहदायिक का हक उत्तरजीविता से न्यागत हो। यह अवसर तभी आ सकता है जब कि सहदायिक केवल पुरुष नातेदारों को छोड़ कर मरे।
साहेब रेड्डी बनाम शरनप्या, के बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ निर्वसीयती हिन्दू पुरुष की मृत्योपरान्त उसके दत्तक पुत्र एवं तीन पुत्रियाँ मौजूद हों वहाँ प्रत्येक सन्तान को एक चौथाई अंश प्राप्त होगा।
संयुक्त हिन्दू-परिवार का प्रबन्धक (कर्ता), उसके अधिकार एवं कर्त्तव्य-परिवार के अवयस्क सदस्यों तथा स्त्रियों के हितों की देखभाल करने के लिए एक प्रबन्धक की आवश्यकता होती है। संयुक्त हिन्दू-परिवार के ऐसे प्रबन्धक को ‘कर्ता’ कहते हैं। परिवार का कर्ता अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करता है, क्योंकि समस्त परिवार के कार्यों का प्रबन्ध एवं देख-रेख का दायित्व प्रबन्धक के ऊपर होता है। कर्त्ता संयुक्त परिवार का प्रधान माना जाता है तथा उसका स्थान परिवार में सर्वोपरि होता है।
प्रबन्धक कौन होता है?—साधारणत: संयुक्त परिवार का कर्ता पिता है, यदि वह जीवित है। इस प्रकार एक वाद में कहा गया था कि पिता सभी मामलों में, सामान्यत: अवयस्क पुत्री के सम्बन्ध में, अनिवार्यत: संयुक्त सम्पदा का प्रबन्धक होता है। जहाँ पिता जीवित नहीं है तथा परिवार भाइयों से निर्मित होता है, वहाँ ज्येष्ठ भाई किसी प्रतिकूल साक्ष्य के अभाव में, परिवार का प्रबन्धक मान लिया जाता है। एक अवयस्क सदस्य संयुक्त हिन्दू-परिवार का प्रबन्धक नहीं हो सकता। नागपुर के जुडीशियल कमिश्नर के न्यायालय ने पूर्ण पीठ द्वारा यह निर्णय दिया कि संयुक्त परिवार का कोई वयस्क सदस्य कर्ता बनने का अधिकारी है। यह निर्णय नागपुर के उच्च न्यायालय द्वारा भी मान्य समझा गया था। सामान्यत: सहदायिकी का ज्येष्ठ (senior) सदस्य ही कर्ता होता है, किन्तु अन्य सहदायिकों की सहमति से कोई अवर (Junior) सदस्य भी कर्त्ता बनाया जा सकता है। सभी अन्य सहदायिकों की सहमति से उसको कर्ता के पद से अपदस्थ भी किया जा सकता है, क्योंकि अन्य सहदायिकों की पारस्परिक सहमति से ही वह कर्त्ता नियुक्त किया जाता है। कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स बनाम सेठ गोविन्दराम सुगर मिल्स के वाद में यह निर्णय किया गया कि प्रबन्धक होने के लिए सहदायिकत्व (Coparcener ship) एक आवश्यक अर्हता है; अतएव एक विधवा, जो कि सहदायिक नहीं होती, संयुक्त परिवार की प्रबन्धक नहीं हो सकती।
उपर्युक्त मत का अनुमोदन पटना उच्च न्यायालय ने सहदेव बनाम रामछबीला सिंह के मामले में किया, जिसमें यह कहा गया कि एक विधवा सहदायी न होने के कारण संयुक्त परिवार की कर्त्ता नहीं
1. ए० आई० आर० 2013 कर्ना० 152.
2. आई० एल० आर० (1949) मद्रास 7521
3. मोदीदीन इब्राहिम नाची बनाम मु० इब्राहिम साहब, 39 मद्रास 6081
4. केशो भारती बनाम जगन्नाथ, ए० आई० आर० 1926 नागपुर 811
5. आई० एल० आर० 1947 नागपुर 2991
6. देखिए नरेन्द्र कुमार बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स, ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 1953।
7. 1966 एस० सी० 24; हद पारीद बनाम समू गोविन्द, (1970) उड़ीसा 20। देखें श्रेया विद्यार्थी बनाम अशोक विद्यार्थी व अन्य, ए० आई० आर० 2016, एस० सी० 136.
8. ए० आई० आर० 1978 पटना 2581
Leave a Reply