LLB Hindu Law Chapter 8 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download
LLB Hindu Law Chapter 8 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों SscLatestNews.Com Website एक बार फिर से आप सभी का स्वागत करती है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB 1st, 2nd, 3rd Year All Semester Hindu Law Books Part 3 अनधिनिय्मित Chapter 8 संयुक्त परिवार तथा मिताक्षरा सह्दायिकी सम्पत्ति Post 2 Notes Study Material in Hindi and English में पढ़ने जा रहे है जिसे आप Free PDF भी Download कर सकते है |
जो संयुक्त परिवार के सदस्य हैं।
(4) स्त्रियों का अपवर्जन-मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत कोई स्त्री सहदायिकी नहीं हो सकती। यहाँ तक कि एक पत्नी, जो भरण-पोषण की अधिकारी है, पति की सम्पत्ति में केवल भरण-पोषण का ही अधिकार रखती है, किन्तु उसमें सहदायिक नहीं हो सकती। __ इसीलिए किसी स्त्री सदस्य को संयुक्त परिवार में विभाजन का दावा करने का अधिकार नहीं प्राप्त था। कोई विधवा सहदायिक नहीं हो सकती अतएव संयुक्त हिन्दू परिवार की वह कर्ता भी नहीं हो सकती इसलिए उसके द्वारा संयुक्त परिवार की किसी सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण उसके अपने पुत्रों अथवा पुत्रियों पर बाध्यकारी नहीं हो सकता। उसका अपना जो भी अंश है उस अंश तक का अन्यसंक्रामण उसके स्वयं के ऊपर बाध्यकारी है।
नरेश झा व अन्य बनाम राकेश कुमार के मामले में एक मिताक्षरा सहदायिकी की मृत्यु सन् 1929 में हो गया था। मृतक अपने पीछे दो पुत्र एवं अपनी विधवा पत्नी को छोड़कर मरता है। मृतक के मृत्यु के पश्चात् उसकी सारी सम्पत्ति उसके दोनों पुत्रों के बीच बराबर हिस्से में बँट गई। उपरोक्त वाद में मृतक की पत्नी ने न्यायालय के समक्ष अपने भरण-पोषण के दावा किया। उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसकी विधवा पत्नी को ऐसी सम्पत्ति किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था क्योंकि हिन्दू विमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट 1937, के अधिनियम पारित होने के पूर्व ही यह सम्पत्ति उसके पुत्रों में न्यागत हो चुकी थी। अतः मृतक की पत्नी भरण-पोषण पाने की अधिकारिणी नहीं है।
यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट, 1937 के पास होने के बाद सहदायिकी की विधवा को एक विशेष प्रकार की प्रास्थिति प्रदान कर दी गई थी। एक सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में अविभक्त हित उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा को उत्तराधिकार में प्रदान कर दिया गया। वस्तुत: उसकी स्थिति एक सहदायिक जैसी हो गई। यदि परिवार में उसके अपने पुत्र हैं तो भी विधवा को सहदायिक-जैसा मान कर पुत्री के साथ एक हिस्सा पुत्री के बराबर दे दिया जायेगा। उदाहरणार्थ, अ, एक पुरुष हिन्दू संयुक्त-परिवार का सदस्य है। वह अपनी पत्नी ब को छोड़कर मरता है तो ब, अ की समस्त सम्पत्ति, जिसमें सहदायिकी सम्पत्ति का अंश भी शामिल है, में उत्तराधिकार प्राप्त करेगी। पुन: मान लीजिए, अ के दो पुत्र म तथा न हैं और पत्नी ब है। अ की मृत्यु के बाद ब, म तथा न को अ की सम्पत्ति उत्तराधिकार में पाने का हक दे दिया गया था।
(5) उत्तरजीविता से न्यागमन–सहदायिकी का यह एक महत्वपूर्ण लक्षण है कि इसमें किसी पुरुष सन्तान के जन्म लेने मात्र से सदस्यता प्राप्त हो जाती है। इसमें किसी सहदायिक की मृत्यु हो जाने पर सहदायिकी सम्पत्ति में दायादों का हक उत्तराधिकार से नहीं वरन् उत्तरजीविता से न्यागत होगा। जब मृत सहदायिक अपने पीछे पुरुष सन्तानों को छोड़ता है तो वे विभाजन के समय उसके हक का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भरण-पोषण सम्बन्धी प्रावधान-सहदायिक के समस्त सदस्यों को संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों के साथ भरण-पोषण का आजन्म अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार तब तक कायम रहता है। जब तक कि परिवार में सहदायिकी की स्थिति बनी रहती है। विभाजन हो जाने के बाद भी जिन पुरुष सदस्यों को किसी कारणवश कोई हिस्सा नहीं मिला रहा होता, भरण-पोषण का अधिकार बना रहता है। विभाजन के समय इनके लिये भरण-पोषण का प्रावधान आवश्यक रूप से किया जाता है।
हिन्दू विधि के अन्तर्गत किसी विकृतचित्त वाले व्यक्ति को सहदायिकी की सदस्यता से वंचित नहीं किया जा सकता। हालाँकि ऐसे विकृतचित्त वाले सदस्य को सहदायिकी के विभाजन करने का
1. पुन्ना बीबी बनाम राजा किशन दास (1904) 31 कल० 4761
2. कांजी बनाम परमानन्द, ए० आई० आर० 1992 एम० पी० 2081
3. ए० आई० आर० 2004 झारखण्ड 2.
अधिकार नहीं है और न ही विभाजन होने पर हिस्सा प्राप्त करने का हक है। फिर भी उसकी सहदायिकी सदस्यता समाप्त नहीं होती और उसे भरण-पोषण का अधिकार बना रहता है।
कोई सहदायिक विशेष विवाह अधिनियम (Special Mariage Act) के अधीन विवाह कर लेता है तो सहदायिकी में उसका हित अलग हो जाता है और वह सहदायिकी का सदस्य नहीं रह जाता, परन्तु वह अपनी पुरुष सन्तानों के साथ नयी सहदायिकी निर्मित कर सकता है। सम्पत्ति का वर्गीकरण-पूर्व हिन्दू विधि में सम्पत्ति दो भागों में विभाजित की गयी थी
(अ) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति, तथा
(ब) पृथक् सम्पत्ति अथवा स्वार्जित सम्पत्ति।
(अ) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति
इस सम्पत्ति में सभी सहदायिकों के स्वामित्व की एकता तथा हकों की सामूहिकता होती है। सहदायिकी सम्पत्ति में निम्नलिखित सम्मिलित हैं-
(1) पैतृक सम्पत्ति।
(2) संयुक्त परिवार के सदस्यों के द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित सम्पत्ति।
(3) सदस्यों की पृथक् सम्पत्ति जो सम्मिलित कोश में डाल दी गई है।
(4) वह सम्पत्ति जो सभी सदस्यों द्वारा अथवा किसी सहदायिक द्वारा संयुक्त परिवार के कोश की सहायता से अर्जित की गई है।
भगवन्त पी० सुलाखे बनाम दिगम्बर गोपाल सुलाखे के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि संयुक्त परिवार की प्रास्थिति में विघटन हो जाने से किसी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की प्रकृति नहीं बदल जाती। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति संयुक्त बनी रहती है जब तक कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अस्तित्व में रहती है, और विभाजित नहीं की जाती, कोई एक सदस्य अपने अकेले कृत्य द्वारा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को व्यक्तिगत सम्पत्ति में नहीं बदल सकता। शेर सिंह बनाम गम्दूर सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति तब तक संयुक्त बनी रहती है, जब तक वह अस्तित्व में रहती है; और विभाजित नहीं की जाती। संयुक्त परिवार की प्रास्थिति में विघटन हो जाने से उस पर कोई असर नहीं पड़ता।
संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति के सम्बन्ध में यह अवधारणा की जाती है कि वह संयुक्त सम्पत्ति होगी यदि उसका केन्द्र बिन्दु मौजूद है। इस बात को साबित करने का दायित्व कर्ता था प्रबन्धक पर अथवा परिवार की व्यवस्था देखने वाले सदस्य पर होता है।
(1) पैतृक सम्पत्ति—वह सम्पत्ति जो सभी सदस्यों की संयुक्त आभोगिता के लिये है, पैतृक सम्पत्ति कहलाती है। यह सहदायिकी सम्पत्ति अथवा संयुक्त सम्पत्ति का एक प्रकार है। पैतृक सम्पत्ति का तात्पर्य उस सम्पत्ति से है जो पुरुष-वंशानुक्रम से पुरुष-क्रम में आती है। इस सम्पत्ति में पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र जन्म से ही हक प्राप्त करते हैं। (याज्ञवल्क्य)
निम्नलिखित प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने प्रासंगिक लक्षणों के कारण पैतृक सम्पत्ति निर्मित करती है-
(1) इस प्रकार की सम्पत्ति उत्तरजीविता से न कि उत्तराधिकार से न्यागत होगी।
(2) यह ऐसी सम्पत्ति होती है जिसमें सहदायिक की पुरुष सन्तान जन्म से हक प्राप्त करती है।
1. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 76 तथा शेर सिंह बनाम गम्दूर सिंह ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 13331
2. ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 13331
3. दद्रप्पा रुद्रप्पा बनाम रेनुकप्पा, ए० आई० आर० 1993 कर्ना० 1481
उस सम्पत्ति को हिन्दू पुरुष अपने पिता, पितामह अथवा प्रपितामह से प्राप्त करता है। यह एक उल्लेखनीय बात है कि अपने तीन उपर्युक्त पैतृक पूर्वजों से दाय में प्राप्त सम्पत्ति ही पैतृक सम्पत्ति कहलाती है तथा केवल वे व्यक्ति जो उसमें जन्म से हक प्राप्त करते है, पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र है।
इस बात पर मतभेद रहता है कि मातृपक्ष के पूर्वज से (उसी चार पीढ़ी के अन्तर्गत) प्राप्त सम्पत्ति भी क्या पैतृक सम्पत्ति की कोटि में आवेगी और उस सम्पत्ति में किसी सदस्य का हक जन्म से उत्पन्न हो जायेगा? मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार पैतृक सम्पत्ति का तात्पर्य उस सम्पत्ति से है जो मातपक्ष तथा पितृपक्ष से दाय में प्राप्त हुई हो। पारिभाषिक रूप में ‘पैतृक’ शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त है कि वह केवल तीन अव्यवहित पर्वजों को सम्मिलित करे। यह मत मद्रास उच्च न्यायालय ने प्रिवी काउन्सिल की कुछ आलोचनाओं पर निर्भर किया था।
प्रिवी कौसिल के अनुसार जहाँ दो भाई संयक्त रूप से कोई सम्पत्ति अपने नाना से उत्तराधिकार में प्राप्त करते है, वहाँ वह सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति मानी जायेगी, हालाँकि यह बात शास्त्रीय विधि के विपरीत है।
इलाहाबाद तथा पटना उच्च न्यायालय का मत इसके विपरीत था। इन उच्च न्यायालयों के अनुसार पैतृक सम्पत्ति में केवल वही सम्पत्ति आती है जो पितृपक्ष के पूर्वजों से प्राप्त की गई हो और पूर्वज चार पीढ़ी के ही अन्तर्गत हो। दूसरे शब्दों में मातृपक्ष के पूर्वजों से दाय में प्राप्त सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति नहीं है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार—पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत पिता अथवा पिता के पिता आदि से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति आती है। किसी स्त्री सम्बन्धी से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत नहीं आती। इसी प्रकार जहाँ कोई सम्पत्ति कोई भाई अपनी बहिन को दान में दे देता है और बहिन की मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति उसके पुत्र दाय में प्राप्त करते है वह सम्पत्ति इन पुत्रों की पैतृक सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी।
अब प्रिवी कौसिल के निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पैतृक सम्पत्ति का अर्थ वह सम्पत्ति नहीं है जो कोई व्यक्ति अपने किसी पूर्वज से प्राप्त करता है। केवल वह सम्पत्ति जो किसी व्यक्ति को अपने पिता, पितामह तथा प्रपितामह से प्राप्त होती है, पैतृक सम्पत्ति कहलायेगी। जहाँ तक पिता, पितामह एवं प्रपितामह से दान अथवा इच्छापत्र द्वारा प्राप्त सम्पत्ति का सम्बन्ध है, उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि यह दानपत्र तथा इच्छापत्र की शर्तों में उल्लिखित बातों से स्पष्ट होगा कि दानकर्ता अथवा वसीयत करने वाले का उद्देश्य उसके विषय में क्या यही था कि वह पैतृक सम्पत्ति जैसी व्यवहत की जाय। यदि पितामह की यही इच्छा रही हो कि पिता उस सम्पत्ति को पूर्णतया पृथक् रूप में रखे तो पिता के समीप में वह उसकी पृथक् सम्पत्ति समझी जायेगी। यदि पिता का यह उद्देश्य रहा हो कि पिता उस सम्पत्ति को प्रलाभ के लिये ग्रहण करे तो वह सम्पत्ति अपने पुत्रों के लिये पैतृक समझी जायेगी क्योंकि पुत्र उसके साथ उसमें समान अधिकारी होंगे।
संयुक्त परिवार के विभाजन के दिन तक जो भी सम्पत्ति उस परिवार के केन्द्र बिन्द से संलग्न थी उस संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विभाजन के बाद भाइयों द्वारा अर्जित की गयी सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में सम्मिलित नहीं की जायेगी।
1. वेन्कयामा बनाम वेन्करामया, 29 आई० ए० 2291
2. वियज कालेज ट्रस्ट बनाम कुन्ता कोआपरेटिव सोसाइटी लि०, ए० आई० आर० 1995 कर्नाटक 3571
3. म० हसेन बनाम केशव नन्दन सहाय, 64 आई० ए० 2501
4. अरुणाचल मुदालियर बनाम मुरूधर नाथ मुदालियर, 1953 एस० सी० 4591
5. कोन्दीराम भीखू बनाम कृष्ण भीखू, ए० आई० आर० 1995 एस० सी० 2951
कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स बनाम पी० चेट्टियार के वाद में यह निरूपित किया गया कि जहाँ दानपत्र में पिता द्वारा यह नहीं इंगित किया गया कि आदाता सम्पत्ति को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के रूप में ग्रहण करेगा, वह सम्पत्ति आदाता की निर्बाध सम्पत्ति होगी जिसमें पुत्रों को जन्मना कोई अधिकार नहीं उत्पन्न होगा।
हिन्दू विधि में पैतृक व्यवसाय एक दाय-योग्य सम्पत्ति (Assets) माना गया है। जब एक हिन्दू अपना व्यवसाय छोड़ कर मरता है तो अन्य दाय-योग्य सम्पत्ति की तरह वह भी उसके दायादा का चला जाता है। यदि पुरुष संतान, जैसे—पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र छोड़कर मरता है, तो व्यवसाय उन्हीं पुरुष सन्तानों को चला जायेगा तथा वह परिवार का संयुक्त व्यवसाय हो जाता है तथा ‘संयुक्त परिवार की फर्म’ बन जाता है।
एक संयुक्त हिन्दू परिवार का पैतृक व्यापार एक पैतृक सम्पत्ति समझा जाता है जिसमें प्रत्येक मिताक्षरा संयुक्त परिवार का सदस्य जन्म से अपना हक अर्जित कर लेता है।
संयुक्त परिवार का प्रबन्धक कोई नया व्यवसाय इस रीति से प्रारम्भ नहीं कर सकता कि वह अन्य अवयस्क सहदायिकों के ऊपर बाध्यकर हो। किन्तु ऐसे वयस्क सदस्यों की अस्पष्ट अथवा स्पष्ट सहमति से वह नया व्यवसाय प्रारम्भ कर सकता है।
यदि कोई पैतृक सम्पत्ति परिवार से पूर्णतया खो चुकी और परिवार का कोई सदस्य उसको स्वयं अपने अकेले कोश से पुनः अन्य सदस्यों की स्पष्ट या अस्पष्ट स्वीकृति से वापस ले लेता है तो उस सदस्य का पुन: प्राप्त सम्पत्ति में विशेष हक उत्पन्न हो जाता है।’
दिलीप सिंह बनाम कमिश्नर आगरा मण्डल, के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पैतृक सम्पत्ति में हित का सृजन गर्भस्थ शिशु के पक्ष में उसके गर्भ में आने के दिन से ही सृजित हो जाता है। यद्यपि कि अजन्मा व्यक्ति सम्पत्ति पर उसका वास्तविक नियन्त्रण नहीं होता परन्तु वह ऐसी सम्पत्ति पर अहस्तान्तरणीय स्वामी के रूप में अपना अधिकार स्थापित करता है।
पटेल छोटे लाल सोमचन्द बनाम पटेल चन्दू भाई सोम चन्द, के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी पैतृक सम्पत्ति में पुत्रों को ऐसी सम्पत्ति में बराबर का अधिकार होगा अर्थात् प्रत्येक पुत्र ऐसी सम्पत्ति में विभाजन के दौरान बराबर से हिस्सा प्राप्त करेगा उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि किसी भी पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में पक्षकारों के द्वारा किसी भी शर्त को अधिरोपित नहीं किया जा सकता, यदि पैतृक सम्पत्ति के सम्बन्ध में कोई शर्त विलेख पक्षकारों के बीच निष्पादित की गई है तो ऐसा विलेख पत्र पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के सन्दर्भ में शून्य माना जायेगा।
(2) संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित सम्पत्ति-जहाँ संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा उनके संयुक्त परिश्रम से संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से कोई सम्पत्ति अर्जित की जाती है, वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति हो जाती है। बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि सम्पत्ति संयुक्त परिवार के सदस्यों के संयुक्त श्रम से अर्जित की गई है, चाहे उसमें संयुक्त कोष की सहायता न ली गई हो तो भी वह किसी विपरीत उद्देश्य के
1. (1969) 71 आई० टी० आर० 601 (मद्रास); देखिए पार्थ सारथी बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स, 1967 मद्रास 2271
2.45 नाग० 2811
3. विशेशर बनाम शीतल चन्दर, 9 डब्ल्यू० आर० 691
4. लैण्ड रेवन्यू, पार्ट 94, 2012 पृ० सं० 29।
5. ए० आई० आर० 2013 गुजरात 01.
6. लाल बहादुर बनाम कन्हैया लाल, 34 आर० ए० 651
अभाव में, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती है।
हिन्दू विधि का यह दूसरा सिद्धान्त है कि संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित की गई सम्पत्ति, जो कि संयुक्त परिवार की किसी सहायता के बिना प्राप्त हुई है, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। जहाँ दो भाई कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार में अपने संयुक्त परिश्रम से अर्जित करते है, वहाँ विरुद्ध आशय के अभाव में यह उपधारणा होगी कि वे लोग उसे संयुक्त रूप से धारण कर रहे थे। उसकी पुरुष सन्तान उस सम्पत्ति में आवश्यक रूप से जन्मत: अधिकार प्राप्त कर लेगी।
उच्चतम न्यायालय ने भगवान बनाम दिगम्बर’ के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इसमें संयुक्त परिवार के दो सदस्यों ने सहभागिता फर्म किसी कम्पनी के प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य देखने के लिये निर्माण किया और यह तय किया कि इस कारोबार से जो भी पारिश्रमिक प्राप्त होगा वह पारिश्रमिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विशेषकर उस स्थिति में जब कि सहभागिता की शर्ते यह प्रदर्शित करती है कि दो सदस्य प्रबन्धक अभिकर्ता (Managing Agency) का कारोबार संयुक्त परिवार के लाभ के लिए कर रहे हैं। किसी प्रकार का विवाद फर्म के गठन के समय नहीं उठा और कम्पनी में शेयरों की खरीददारी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से किया गया और उससे समस्त आय निर्विवाद रूप से संयुक्त सम्पत्ति समझा जाता रहा। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विधि की दृष्टि में वही स्थिति उस सम्पत्ति की समझी जाती रहेगी जब तक सहभागिता और प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य चलता रहेगा। यदि कोई सदस्य संयुक्त स्थिति से अलग हो रहा है तथा उससे पूरे संयुक्त परिवार को इस कारोबार से प्राप्त आय की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं आता और जब तक परिवार की सम्पत्ति में पूर्ण विभाजन नहीं हो जाता इस प्रकार के व्यापार से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती रहेगी तो उस सदस्य के अलग हो जाने से इस सम्पत्ति की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
श्रीमती स्वर्णलता बनाम कुलभूषण पाल, के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार के अन्तर्गत कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है अथवा कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम से खरीदी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की ही सम्पत्ति मानी जायेंगी, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार होगा।
(3) सम्पत्ति जो समान कोश में डाल दी गई है—यदि कोई स्वार्जित सम्पत्ति समान कोश में इस उद्देश्य से डाल दी गई है कि अपने हक का परित्याग कर दे तो वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति हो जाती है, जो परिवार के सभी सदस्यों में विभाज्य है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस उद्देश्य से कोई विचार अभिव्यक्त किया जाय। उसको समान कोश में डाल देना तथा उसमें एवं अन्य संयुक्त सम्पत्ति में कोई अन्तर न मानना इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि वह संयुक्त सम्पत्ति-जैसी मान ली जाय।’
1. हरी दास बनाम देव कुँवर बाई, 50 बाम्बे 443; देखें गुरुनाम सिंह बनाम प्रीतम सिंह व अन्य, – ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 983 पंजाब एवं हरियाणा।
2. सिद्धा साहू बनाम झूमा देई, ए० आई० आर० 1977 उड़ीसा 45; देखिए विनोद जेना बनाम अब्दुल हमीद खान, ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1591
3. भगवान दयाल बनाम रेवती, 1962 एस० सी० 2871
4. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 791
5. ए० आई० आर० 2014 दिल्ली 86.
6. कामता प्रसाद बनाम शिवचरन, 10 एम० आई० ए० 190, पृ० 2851
7. लाल बहादुर बनाम कन्हैया लाल, 24 इला० 2441
के. अवेबुल रेड्डी बनाम वी० वेन्कट नारायन’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि एक बार यदि मान लिया जाता है कि परिवार संयुक्त है और संयुक्त सम्पत्ति धारण करता है तो विधिक उपधारणा यह होगी कि किसी सदस्य अथवा सभी सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है। इस उपधारणा के सन्दर्भ में यदि परिवार का कोई सदस्य उस सम्पत्ति के किसी भाग पर अपना पृथक् दावा करता है तो सबूत का भार उसके ऊपर होगा कि वह उसको अपना पृथक् सम्पत्ति साबित करे।
जहाँ संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति नहीं होती, वहाँ सहदायिकों की पृथक् सम्पत्ति मिलकर उस रूप में परिणत नहीं हो जाती। फिर भी सहदायिकों के लिए यह सम्भव है कि वे अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को परिवार की सम्पत्ति समझे। वह अन्य सहदायिकों को यह अनुमति दे सकता है कि वह उस सम्पत्ति को अपनी भी सम्पत्ति समझे। जहाँ कहीं यह धारणा होती है कि स्वार्जित सम्पत्ति कोश में डाल दी जाय और अपने पृथक् अधिकारों का परित्याग कर दिया जाय, वहाँ यह बात स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित की जानी चाहिये अन्यथा इसकी उपधारणा अन्य सहदायिक के परस्पर प्रेम-भाव पर नहीं बनायी जा सकती। इस प्रकार के आशय का अनुमान इस बात से भी नहीं लगाया जा सकता कि सहदायिक ने अपनी पृथक सम्पत्ति को अन्य सदस्यों के उपयोग अथवा उनके संयुक्त आधिपत्य की अनुमति दे दी है।
लकी रेडी बनाम लक्की रेडी’ में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त सम्पत्ति के पृथक् सम्पत्ति के मिश्रित होने से सम्बन्धित विधि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो चुकी है। संयुक्त हिन्दू परिवार के किसी सदस्य की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में परिणत हो सकती है, यदि इस सम्पत्ति के स्वामी द्वारा वह सामान्य कोश में इस उद्देश्य से डाल दी जाय कि वह उसके विषय में पृथक् अधिकार की भावना का परित्याग कर दे। केवल इस बात से कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी उस सम्पत्ति का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया था, अथवा उस सम्पत्ति की आय का उपभोग सौजन्यवश अन्य सदस्यों द्वारा भी किया गया था जो वस्तुत: उसके अधिकारी नहीं थे, अथवा सौजन्यवश लेखा नहीं बनाये रखा गया था, यह परिणाम नहीं निकाला जा सकता है कि पृथक् सम्पत्ति नहीं है।
पिपरी लाल बनाम नानक चन्द के प्रमुख वाद में प्रिवी कौसिल ने यह निरूपित किया था कि जहाँ पुत्र यह दावा करता है कि पिता के द्वारा उसकी संरक्षकता में किया हुआ व्यापार संयुक्त परिवार का व्यापार हो गया है क्योंकि वह भी उसमें अपना सहयोग देता रहा है, वहाँ पुत्र के ऊपर यह भार होता है कि वह पैतृक सम्पत्ति के अभाव में यह प्रमाणित करे कि पिता उस व्यापार को संयुक्त परिवार का व्यापार बनाने की भावना रखता था और वास्तविक रूप में वह संयुक्त परिवार के रूप में माना जाता था। यदि एक बार वह संयुक्त परिवार का व्यापार मान लिया गया है तो बाद में पिता की भावना परिवर्तित हो जाने पर भी उसके स्वभाव में परिवर्तन नहीं आता और संयुक्त परिवार का व्यापार माना जायेगा।
किसी हिन्दू सहदायिक की स्वार्जित सम्पत्ति उस समय पृथक् नहीं मानी जाती जबकि वह उसको इस आशय से समझ रहा है कि वह संयुक्त है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह भौतक
1.ए.आई० आर० 1984 एस० सी० 1171 देखिए श्रीमती रामकुंवर बाई ब० रानी बहू तथा अन्य, ए० आई० आर० 1985, एम०पी०731
2 आशतोष बनात तारापाद, 58 सी० एल० जे० 372; वेन्कट राजू बनाम ये कन्दाल, 1958 आन्धा 1०147; नारायन बनाम मदूरी देवी, आई०एल० आर० 1960 राज० 1219: रमय बनाम कपिलपाद कन्य, 1966 केरल एल० जे०9641
3.ए० आई० आर० 1963 एस०सी०16011
4. श्रीमती मीनाक्षी बनाम श्रीमती वेल्लाकुट्टी, ए० आई० आर० 1991 केरल 1481
5.61 एल० डब्ल्यू. 4371
रूप से उसकी सम्पत्ति में मिला दे, बल्कि यदि उसने स्वेच्छा से उसको पृथक् मानना बन्द कर दिया है. उसके पृथकत्व होने के अधिकार को त्याग दिया है तो वह संयुक्त मान लिया जायेगा। यह एक प्रभाव सिद्ध है। यह मिताक्षरा विधि का एक विचित्र नियम है। इसी प्रकार जब कोई सहदायिक अपनी सम्पत्ति को सामान्य कोष में डाल देता है तो वह कोई दान नहीं दे देता; अत: यह कोई हस्तान्तरण नहीं होगा।
बसन्त बनाम सखाराम के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त परिवार का सदस्य जैसा कि स्त्रियाँ भी होती हैं उनकी अपनी कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में मिश्रित नहीं की जा सकती। स्त्री सदस्य की चाहे सम्पर्ण स्वामित्व की अथवा सीमित स्वामित्व की सम्पत्ति हो संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में डाली नहीं जा सकती। केवल सहदायिक अपनी सम्पत्ति को वैध रूप से संयुक्त सम्पत्ति में मिश्रित कर सकता है, और कोई स्त्री सहदायिकी की सदस्या नहीं हो सकती। वह अपनी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति में नहीं मिला सकती।
(4) वह सम्पत्ति जो परिवार की संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से प्राप्त की गई थी—संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से अर्जित की गई सम्पत्ति भी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कही जाती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से प्राप्त आय का अर्जित किया जाना एवं अर्जित आय से नयी सम्पत्ति का खरीदना, किसी सम्पत्ति के बेचने अथवा बन्धक रख कर धनराशि का अर्जित करना अथवा उससे कोई नयी सम्पत्ति का खरीदना, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलाती है।
यदि संयुक्त परिवार में उसके किसी सदस्य के नाम से कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है तो वह संयुक्त सम्पत्ति ही कहलायेगी न कि स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति। यदि उसने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के बिना किसी सहायता के कोई सम्पत्ति खरीदी है अथवा अर्जित की है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जा सकती है। जहाँ कोई संयुक्त परिवार का सदस्य अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को सामूहिक अथवा संयुक्त सम्पत्ति में मिला देता है अथवा समान कोष में डाल देता है तो वह सब मिलकर संयुक्त सम्पत्ति हो जाती है।
जहाँ कर्ता कोई सम्पत्ति अपने नाम से खरीदता है और यह नहीं कहता कि संयुक्त पारिवारिक राशि उस सम्पत्ति को खरीदने के लिये पर्याप्त नहीं थी वहाँ यह प्रमाण भार उसके ऊपर है कि वह साबित करे कि उसने अपनी पृथक् आय से उस सम्पत्ति को खरीदा है। इस प्रकार का प्रमाण न देने पर उसके द्वारा खरीदी गयी सम्पत्ति संयुक्त पारिवारिक राशि से खरीदी गयी समझी जायेगी और वह संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति होगी।
डी० लट्चन्दोरा बनाम चिन्नाबादू के वाद में न्यायालय ने यह कहा कि यदि परिवार का कोई सदस्य, जिसको भरण-पोषण के लिए सम्पत्ति मिली थी, उस सम्पत्ति से प्राप्त लाभ से अन्य सम्पत्ति अर्जित कर लेता है तो उस दशा में समस्त अर्जित सम्पत्तियाँ उसकी स्वार्जित सम्पत्तियाँ मानी जायेंगी। मद्रास के एक वाद में यह कहा गया था कि इस प्रकार का अर्जन उसके अपने पुत्रों के सम्बन्ध में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति समझी जायेगी।
1. गोली ईश्वरिया बनाम गिफ्ट टैक्स कमिश्नर, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 17221 देखिए हेमचन्द्र बनाम दानचन्द्र, ए० आई० आर० 1981 एन० ओ० सी० 751
2. ए० आई० आर० 1983 बम्बई 4951
3. बाजीराव बनाम राम खनरिस, आई० एल० आर० 1941 नाग० 7071
4. विशेशर बनाम शीतल चन्दर, 9 डब्ल्यू० आर० 691
5. नानक चन्द बनाम चन्द किशोर, ए० आई० आर० 1982 दि० 521। देखिए मदनलाल फूलचन्द जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए० आई० आर० 1992 एस० सी० 12541
6. परमानन्द बनाम सुदामा राम, ए० आई० आर० 1994 एच० पी० 871
7. 1963 आन्ध्र प्रदेश 311
8. वेन्कटेश्वर मनिया बनाम अय्यर, आई० एल० आर० (1966) मद्रास 468।।
श्रीमती परबतिया देवी बनाम मु० शकुन्तला देवी के मामले में न्यायालय ने यह कहा कि संयुक्त परिवार के किसी एक सदस्य के नाम में खरीदी गई कोई सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति समझी जायेगी। संयुक्तता का प्रमाण-भार उस पर होगा जो उसे संयुक्त सम्पत्ति होने का दावा करता है। जब यह साबित हो जाता है कि परिवार के केन्द-बिन्दु में से लगाई गई सम्पत्ति से सम्पत्ति का अर्जन किया गया था तो विधि में यह उपधारणा होती है। सम्पत्ति संयुक्त होगी कि नहीं यह प्रमाण भार उस व्यक्ति पर हो जाता है जो कि यह कहता है कि सम्पत्ति उसकी पृथक् है और उसने उस सम्पत्ति को परिवार की बिना किसी सहायता के अर्जित की थी।
दाय भाग शाखा के अन्तर्गत किसी सहदायिक द्वारा पृथक् रूप से संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगा कर जहाँ कोई व्यवसाय प्रारम्भ किया गया है, वह व्यवसाय संयुक्त परिवार का व्यवसाय नहीं माना जायेगा। जहाँ एक दायभाग सहदायिक ने अपने नाम किसी सिनेमा लाइसेन्स को प्राप्त कर संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगा कर सिनेमा का व्यवसाय प्रारम्भ करता है वहाँ वह सिनेमा का व्यवसाय संयुक्त सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी।
मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति एवं संयुक्त परिवार सम्पत्ति के मध्य आज भी मतभेद विद्यमान है जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी एक निश्चित अवधारणा पर चलती है तथा जो व्यक्तियों का एक निकाय और वह संयुक्त हिन्दू परिवार से भिन्न विधि द्वारा उत्पन्न किया गया है जो कि पक्षों द्वारा गठित हो सकता है। मिताक्षरा सहदायिकी को विधि द्वारा उत्पन्न किया जाता है, जिसमें सम्पत्ति में किसी हित प्रदान करने के उद्देश्य से यह आवश्यक है कि सहदायिकों में अनिवार्य बँटवारा होना चाहिये और जब सहदायिकी सम्पत्ति के बँटवारे का आशय व्यक्त हो जाता है तो प्रत्येक सहदायिक का अंश स्पष्ट अभिनिश्चय योग्य हो जाता है और जब एक बार सहदायिकी का अंश निर्धारित हो जाता है तो वह सहदायिक सम्पत्ति नहीं रह जाती है और ऐसी स्थिति में पक्षकार सम्पत्ति को संयुक्त काश्तकार के रूप में धारित नहीं करेगा बल्कि सामान्य काश्तकार के रूप में जाना जायेगा और जहाँ सहदायिकी सम्पत्ति में कोई सहदायिक अपना निश्चित अंश लेता है तो सामान्य काश्तकार के रूप में ही जाना जायेगा और वह उस अंश का स्वामी होगा जिसे अपने तरीके से विक्रय या बन्धक द्वारा अन्तरित कर सकता है जैसा कि वह अपनी सम्पत्ति का निस्तारण कर सकता है। और जहाँ एक सहदायिकी हित उस शर्त के अध्यधीन अन्तरित किया जा सकता है कि क्रेता उसके अन्य सहदायिकों की सम्मति के बिना कब्जा नहीं प्राप्त कर सकता है।
(ब) पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति
पृथक् सम्पत्ति क्या है? वह सम्पत्ति जो संयुक्त नहीं है, पृथक् सम्पत्ति कहलाती है। ‘पृथक’ शब्द से यह बोध होता है कि परिवार पहले संयुक्त था, किन्तु अब पृथक् हो चुका है। जब कोई व्यक्ति अपने भाइयों से अलग हो जाता है तो वह सम्पत्ति, जिसका वह उपयोग स्वयं करता है, भाइयों के प्रसंग में पृथक् सम्पत्ति कहलाती है। किन्तु जहाँ तक उसके पुत्रों का सम्बन्ध है, उस सन्दर्भ में वह संयुक्त सम्पत्ति होगी। जहाँ तक ‘स्वार्जित’ शब्द का अर्थ है, वह यह इंगित करता है कि सम्पत्ति उसमें इस ढंग से न्यागत हुई कि इस संसार में उसके अतिरिक्त उसमें किसी का हक नहीं हो सकता।
निम्नलिखित रीतियों में से किसी एक रीति से प्राप्त सम्पत्ति एक हिन्दू की स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति कहलायेगी, चाहे वह संयुक्त हिन्दू परिवार का ही सदस्य हो
(1) अपने स्वयं के श्रम से अर्जित की गई सम्पत्ति पृथक् सम्पत्ति होगी; क्योंकि वह परिवार के
1. ए० आई० आर० 1986 पटना।
2. सच्चिदानन्द सामन्त बनाम रंजन कुमार बसु, ए० आई० आर० 1992 कल० 223।
3. हरदेव राय बनाम शकुन्तला देवी, ए० आई० आर० 2008, एस० सी० 24891
अन्य सदस्यों के संयुक्त बम का परिणाम नहीं होती किन्त शर्त यह है कि पृथक सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के लिए अहितकर न हो।
इसी प्रकार 12 वर्ष की अवधि तक विरुद्ध कब्जा के परिणामस्वरूप यदि कोई सम्पत्ति प्राप्त की जाती है तो यह पृथक सम्पत्ति हो जायेगी। इस प्रकार की सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत नहीं आ सकती है।
जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य संयक्त परिवार की सम्पत्ति की बिना कोई सहायता लिये हुये स्वयं एक चिकित्सक के रूप में आयुर्वेदीय औषधि का व्यवसाय करता है तथा उससे बहुत सारी सम्पत्ति अर्जित करता है और उसकी आय से बन्धक पर फण भी देता है और उससे भी आय एकत्र करता है वहाँ उसको सम्पत्ति एवं आय को उसकी पृथक सम्पत्ति माना जायेगा।
के० एस० सुब्बया पिल्लई बनाम कमिश्नर आयकर के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि कोई संयुक्त हिन्दू परिवार में कर्ता अपनी व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता से कोई सम्पत्ति स्वार्जित करता है तो ऐसी सम्पत्ति उसकी पृथक् सम्पत्ति कहलायेगी। प्रस्तुत वाद में आयकर न्यायाधिकरण ने कर्ता के द्वारा अर्जित सम्पत्ति को संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति माना था लेकिन उच्चतम न्यायालय ने आयकर न्यायाधिकरण के द्वारा दिये गये निर्णय को निरस्त करते हुये यह सम्पक्षित किया कि कर्ता द्वारा अपनी योग्यता से बनायी गयी सम्पत्ति उसकी स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगीन कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति।
हरिहर सेठी बनाम लहूकिशोर सेठी के बाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि कोई संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई सदस्य अपनी बौद्धिक क्षमता से कोई सम्पत्ति अर्जित करता है तो ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति न होकर उस व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्पत्ति होगी और ऐसी सम्पत्ति का विभाजन उत्तराधिकार के नियम के द्वारा किया जायगा।
माखन सिंह बनाम कुलवन्त सिंह के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई सदस्य अपने वेतन की राशि से कोई सम्पत्ति अर्जित करता है
और उस सम्पत्ति में परिवार के किसी अन्य सदस्य का योगदान नहीं है तब ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति स्वअर्जित सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति। ऐसी सम्पत्ति का विभाजन उत्तराधिकार नियम के द्वारा किया जायेगा।
पुन: डॉ० प्रेम भटनागर बनाम रवि भटनागर, के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मत की अभिपुष्टि करते हुये यह सम्पेक्षित किया कि जहाँ किसी संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य के द्वारा कोई सम्पत्ति अपनी मेहनत से स्व अर्जित की जाती है, वहाँ ऐसी सम्पत्ति का न्यागमन उस परिवार में जन्म लेने व्यक्तियों के बीच नहीं होगा बल्कि ऐसी सम्पत्ति जो उसकी स्वअर्जित सम्पत्ति है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके विधिक उत्तराधिकारियो को प्राप्त होगी। पुनः इस बात की अभिपुष्टि मदास उच्च न्यायालय ने के० गोविन्द राम बनाम के० सुखाहमणियम, के मामले में किया।
(2) वह सम्पत्ति जो अपने पिता, पितामह तथा प्रपितामह के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति से दाय में प्राप्त होती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि किसी पारिवारिक व्यवसाय चलाने से प्राप्त जो भी आमदनी किसी व्यक्ति को होती है वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं मानी
1. जानस्थवी बनाम प्रहलाद दत्तात्रेय, ए० आई० आर० 1978 बा० 2201
2. एस० ए० कुडूस बनाम एस० वीरप्पा, ए० आई० आर० 1904 कर्ना० 201
3. ए० आई० आर० 1909 एस० सी० 12201
4. ए० आई० आर० 2002 उड़ीसा 1100
5. ए० आई० आर० 2007 एस० सी० 18081
6. ए० आई० आर० 2013 दिल्ली 20,
7. ए० आई० आर० 2013 मदास 80.
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