LLB Hindu Law Chapter 7 Post 8 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hello friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books Notes Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार Post 7 Study Material in Hindi and English में पढ़ने जा रहे है | आप सभी अभ्यर्थियो LLB 1st Year, 2nd Year, 3rd Year All Semester Books Free Download in PDF में भी मिल जाएगी जिसका लिंक आपको निचे दिया गया है |
जायेगी। न्यायालय ने उपरोक्त मामले में यह मत व्यक्त किया कि जहाँ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं वहाँ न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह इस बात का अवलोकन करें कि प्राप्त की गयी सम्पत्ति का मूल स्रोत क्या था यदि ऐसी सम्पत्ति पति के पक्ष से प्राप्त की गई हो तो वह पति के दायाटों को वापस चली जायेगी और यदि ऐसी सम्पत्ति का स्रोत पत्नी के माता पिता के पक्ष द्वारा प्राप्त की गई हों तो ऐसी सम्पत्ति उसके माता-पिता के दायादों को न्यागत होगी।
जहाँ किसी स्त्री ने कोई सम्पत्ति अपने माता-पिता से दाय में नहीं प्राप्त की है बल्कि किसी अन्य तरीके से प्राप्त की है वहाँ उस स्त्री को सम्पत्ति का न्यागमन धारा 15 (1) के अनुसार होगा। इस विषय पर श्रीमती अमर कौर बनाम श्रीमती रमन कुमारी का वाद महत्वपूर्ण है। इसमें एक हिन्दू स्त्री ने अपनी समस्त सम्पत्ति अपनी दो पुत्रियों अ तथा स के पक्ष में दान कर दी। वह दान अधिनियम (हिन्दू उत्तराधिकार) के लागू होने के पूर्व का था। 1972 में स की मृत्यु हो गई और उस समय उसका पति जीवित नहीं था और न उसका कोई उत्तराधिकारी जीवित था। स की मृत्यु के समय उसके पति की दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र जीवित था जो स की मृत्यु के बाद मर गया। यह पुत्र अपने पीछे अपनी विधवा पत्नी और पुत्रों को छोड़ कर मरा। उसकी विधवा पत्नी तथा पुत्रों ने दान में प्राप्त की गई स की संपत्ति को दाय में प्राप्त करने का दावा दायर किया। उनका यह तर्क था कि यह संपत्ति स ने अपनी माता से दान में प्राप्त किया था, इसलिये इसके सम्बन्ध में धारा 15 (1) लागू होगी न कि धारा 15 (2) के प्राविधान। ड के पुत्र ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि स की संपत्ति ड ने दाय में प्राप्त की थी, अत: धारा 15 (2) के अनुसार स के कोई सन्तान न होने के कारण संपत्ति स के पिता तथा माता के अंश में उनके दायादों को वापस चली जायेगी। न्यायालय ने विरोध के तर्क को स्वीकार नहीं किया और अभिनिर्धारित किया कि स ने संपत्ति उत्तराधिकार में नहीं प्राप्त की थी इसलिये सम्पत्ति उसके मरने के बाद उसके पति के दायादों में धारा 15 (1) के अनुसार न्यागत हो जायेगी।
सीता लक्ष्मी अम्मल बनाम मैथ्यू वेंकट रामा अयंगर के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इस वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि यदि किसी हिन्दू महिला की मृत्यु हो जाय और उस समय उसका कोई पुत्र, पुत्री या पति जीवित न हो तो ऐसी दशा में उसकी पुत्रवधू स्वतः ही उसकी वारिस बन जायेगी। इस वाद में न्यायालय ने यह भी प्रतिपादित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (1) (ब) के अन्तर्गत आने वाले हिन्दू महिला का वारिस कौन हो, इस बात का निर्णय करने के क्रम में न्यायालय ने कहा कि इस मामले में उत्तराधिकारी तय करने के लिये उसकी मृत्यु की तिथि तक जाने की जरूरत नहीं है। उत्तराधिकारी का निर्धारण, पति की मृत्यु के समय से नहीं बल्कि पत्नी की मृत्यु के समय से किया जाना चाहिये। क्योंकि उत्तराधिकार का सवाल सामान्यत: उसकी मृत्यु के बाद ही उठता है। उच्चतम न्यायालय ने इस बात के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते हुये कहा कि यदि सास की मृत्यु के समय, उसके पति का कोई उत्तराधिकारी है, जो उसके मृत पुत्र की विधवा के मानदंडों पर सही है तो वह भी उत्तराधिकारी माना जायेगा।
पुत्र’ शब्द नैसर्गिक एवं दत्तकग्रहीता पुत्रों को सम्मिलित करता है तथा वह पुनर्विवाह से उत्पन्न पुत्रों को एवं वैध पुत्रों को भी सम्मिलित करता है।
भगवान दास बनाम प्रभाती राम के वाद में प्रथम अपीलीय न्यायालय के समक्ष यह विधिक प्रश्न था कि क्या मृतक का सौतेला पुत्र उसके विधिक उत्तराधिकारी के रूप में सम्पदा का उत्तराधिकारी
1. ए० आई० आर० 1985 पं० एवं हरि० 861
2. एस० सी० (एम० डी०) 1998 पृ० 2161
3. गुरुवचन सिंह बनाम केशर सिंह, ए० आई० आर० 1971 पंजाब तथा हरियाणा 2401
4. ए० आई० आर० 2004 दिल्ली 1371
(द) बन्धु (Cognates)|
(3) तृतीय प्रविष्टि के दायाद
(अ) माता, जिसमें सौतेली माता नहीं आती,
(ब) पिता।
(4) चतुर्थ प्रविष्टि के दायाद–निर्वसीयती हिन्दू स्त्री के पिता के दायाद इस प्रविष्टि में आते हैं-
(अ) अनुसूची के वर्ग 1 में उल्लिखित दायाद,
(ब) अनुसूची के वर्ग 2 में उल्लिखित दायाद,
(स) सपित्र्य गोत्रज (Agnates),
(द) बन्धु (Cognates)।
(5) पाँचवीं प्रविष्टि के दायाद-दायाद इस प्रकार हैं-
(1) उसके पुत्र, पुत्री तथा पति,
(2) उसके पति के दायाद,
(3) उसके माता-पिता,
(4) उसके पिता के दायाद,
(5) उसकी माता के दायाद।
इसके अनुसार भाई, बहिन (सगी तथा चचेरी), सौतेली माता संपत्ति प्राप्त करेंगे। धारा 15 की उपधारा (2) उपर्युक्त सामान्य नियम का अपवाद है। उपधारा (2) के उपबन्ध तभी अनुवर्तित किये जाते हैं जब हिन्दू स्त्री अपने पीछे पुत्र, पुत्री अथवा पूर्वमृत पुत्र अथवा पुत्री की कोई सन्तान छोड़ कर नहीं मरती। इन अवस्थाओं में हिन्दू-स्त्री द्वारा अपने पिता, माता तथा श्वसुर से दाय में प्राप्त संपत्तियाँ उपधारा (1) में उल्लिखित क्रम से न्यागत नहीं होतीं। इस नियम के पीछे तर्क यह है कि संपत्ति ऐसे परिवार को न चली जाय जो उसकी किंचित भी आशा नहीं रखते।
पिता तथा माता से दाय में प्राप्त सम्पत्ति-इस प्रकार दाय में प्राप्त संपत्ति पिता के दायादों को न्यागत होगी, यदि निर्वसीयत हिन्दू स्त्री बिना किसी पुत्र, पुत्री अथवा पूर्वमृत पुत्र या पुत्री की सन्तान को छोड़कर मरी है। यह प्रथम प्रविष्टि द्वितीय तथा तृतीय प्रविष्टि के दायादों को अपवर्जित करती है। अत: पति तथा पति के दायाद भी इससे अपवर्जित हो जाते हैं जो प्रथम तथा द्वितीय प्रविष्टि में दिये गये हैं। इसके द्वारा माता तथा पिता भी दाय प्राप्त करने से अपवर्जित कर दिये जाते हैं, किन्तु फिर भी माता के रूप में नहीं वरन् पिता की विधवा के रूप में संपत्ति प्राप्त कर सकती है।
अरुणाचल थम्मल बनाम रामचन्द्र पिल्लई व अन्य वाले वाद में यह कहा गया है कि जहाँ एक सन्तानहीन स्त्री, जो अपने पिता से प्राप्त तथा परिवार के विभाजन हो जाने पर उससे प्राप्त संपत्ति को छोड़कर मरती है, वहाँ उत्तराधिकार धारा 15 तथा 16 के नियमों से प्रशासित होगा, अर्थात् समस्त संपत्ति को पिता से प्राप्त हुआ मान कर उसका न्यागमन तय किया जायेगा।
इस मत की अभिपुष्टि भगत राम बनाम तेजा सिंह के वाद में की गयी। प्रस्तुत मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ कोई विधवा स्त्री नि:सन्तान तथा निर्वसीयत अपने पिता से प्राप्त सम्पत्ति को छोड़कर मरती है जिसकी वह एक मात्र स्वामिनी है तो ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति उसके पति के दायदों में न जाकर उसके पिता के दायादों में न्यागत होगी अर्थात् वहाँ ऐसी सम्पत्ति हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 तथा 16 के नियम से प्रशासित होगी।
1. ए० आई० आर० 1963 मद्रास 2551
2. ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 01.
श्वसुर तथा पति से दाय में प्राप्त सम्पत्ति—इस प्रकार की संपत्ति उसके पति के उन टाया को न्यागत होगी जो द्वितीय प्रविष्टि के अन्तर्गत आते हैं। इस उपबन्ध से यह परिणाम निकलता है कि यह निर्वसीयत हिन्दू स्त्री के पिता-माता तथा पिता-माता के दायादों को दाय प्राप्त करने से अपवर्जित करता है।
दृष्टान्त
(1) एक हिन्दू स्त्री निर्वसीयत, एक पुत्री, पति, पिता तथा भाई को छोड़कर मरती है। संपत्ति पुत्री तथा पति को चली जायेगी और वे एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे।
(2) एक हिन्द्र स्त्री पिता, भाई, बहिन तथा सौतेले पुत्र को छोड़कर निर्वसीयत मर जाती है। सौतेला पुत्र उसके पति का दायाद है और वह पिता, भाई तथा बहिन को अपवर्जित करेगा जो तृतीय प्रविष्टि तथा चतुर्थ प्रविष्टि में आते हैं।
(3) एक स्त्री अपने पिता से दाय में सम्पत्ति प्राप्त करती है। वह पति, माता, सौतेला पुत्र तथा भाई को छोड़कर निर्वसीयत मर जाती है। जैसा कि सम्पत्ति पिता से प्राप्त की गई थी और उसके कोई पुत्री अथवा पुत्र नहीं था, उपधारा (2) का उपबन्ध ऐसी दशा में अनुवर्तनीय होगा और सम्पत्ति पिता के दायादों को चली जायेगी। इस मामले में भाई तथा माता (पिता का पुत्र तथा विधवा पत्नी) समान अंश में एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे तथा वे पति एवं सौतेले पुत्र को अपवर्जित करेंगे।
यह प्रावधान किसी स्त्री द्वारा दान में अपने माता-पिता से प्राप्त संपत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होता। ऐसे बहुत से उदाहरण प्राप्त होते हैं जहाँ दाय की समस्त सम्पत्ति पति द्वारा ले ली जाती है। वस्तुत: अधिनियम की धारा 15 (2) में कुछ संशोधन की आवश्यकता है। इसके अन्तर्गत दान द्वारा अथवा अन्य विधि से प्राप्त धन को भी सम्मिलित कर लेना चाहिये।
नियम 1-धारा 15 (2) की प्रथम प्रविष्टि के दायाद द्वितीय प्रविष्टि के दायाद की अपेक्षा अधिमान्य समझे जायेंगे। प्रथम प्रविष्टि के दायादों के अभाव में द्वितीय प्रविष्टि के दायाद अधिमान्य होंगे और इसी प्रकार का क्रम अपनाया जायगा।
उत्तराधिकार का क्रम धारा 16 में वर्णित है।
दृष्टान्त
(1) पुत्रों, पुत्रियों, तथा पति के मामले में समस्त सम्पत्ति, अन्य दायादों के अपवर्जन में, उनको बराबर अंशों में चली जायगी।
(2) एक हिन्दू स्त्री दो पुत्रों, तीन पुत्रियों, पति, सौतेले पुत्रों तथा पिता और भाई को छोड़कर मर जाती है। ऐसी दशा में उसके पुत्र, पुत्रियाँ, पति अन्य सभी दायादों के अपवर्जन में सम्पत्ति ग्रहण करेंगे और उनसे प्रत्येक 1/6 अंश प्राप्त करेंगे।
नियम 2–पूर्वमृत पुत्र तथा पुत्री की सन्तानें आपस में सम्पत्ति उसी प्रकार से वितरित कर लेंगे जैसा कि वे माता की मृत्यु के समय जीवित होते तो प्राप्त करते, अर्थात् सन्तान में सम्पत्ति का विभाजन पितृपरक होगा।
स्पर्धी दायाद (1) पुत्र ‘अ’, (2) पुत्रियाँ व, स, (3) पूर्वमृत पुत्र के तीन पुत्र द, य, र तथा
पर्वमत पत्र य की दो पुत्रियाँ प, म हैं। वे सब प्रथम प्रविष्टि के अन्तर्गत होने के कारण एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे। अ, ब, स तथा ज एवं य’ की सन्तान, प्रत्येक 1/5 अंश के अधिकारी होंगे। ज का अंश उसके पुत्र द, य, र में बराबर भागों में बँट जायेगा, उसमें प्रत्येक 1/15 अंश प्राप्त करेगा। या का अंश उसकी पुत्रियों प एवं म में विभाजित हो जायगा, प्रत्येक सम्पत्ति में 1/10 अंश प्राप्त करेंगे।
नियम 3 नियम 3 यह अधिकार प्रदान करता है कि पिता के दायादों, माता के दायादों अथवा
पति के दायादों में सम्पत्ति का न्यागमन उसी क्रम तथा नियम के अनुसार होगा जैसा कि यदि पिता, साता अथवा पति उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में निर्वसीयत स्त्री की मृत्यु के ठीक बाद में मर गये होते।
दृष्टान्त
एक हिन्दू स्त्री निर्वसीयत (1) दो भाइयों ब, स, (2) दो बहिनों द, य, (3) सौतेली माता प, (4) मत भाई के दो पुत्रों त, थ, (5) पूर्वमृत बहिन की तीन पुत्रियों क, ख, ग, (6) चाचा म, (7) पितामह
तथा (8) सौतेले पिता छ को छोड़कर मर जाती है। प्रथम सात पिता के दायाद हैं तथा चतुर्थ प्रविष्टि से आते हैं। आठवाँ पिता का नहीं वरन् माता का दायाद है तथा पाँचवी प्रविष्टि में आता है। ये प्रथम पाँच अनसची के वर्ग (1) में आते हैं तथा नं० 6 तथा 7 अनुसूची वर्ग (2) में आते हैं। इस प्रकार वर्ग (1) टायादों की उपस्थिति में छठाँ तथा सातवाँ अपवर्जित किया जायेगा। 21,000 रु० की सम्पत्ति में ब तथा सद तथा य, सौतेली माता प तथा पूर्वमृत भाई तथा पूर्वमृत बहिन की सन्तान प्रत्येक एक अंश ग्रहण करेंगे। वे प्रत्येक 1/7 अंश प्राप्त करेंगे, अर्थात् ब, स, द, य तथा प प्रत्येक को 3,000 रु० प्राप्त होगा तथा पर्वमत पुत्र के दो पुत्रों में प्रत्येक को 1,500 रु० प्राप्त होगा तथा पूर्वमृत बहिन की तीन पुत्रियों क, ख, ग प्रत्येक को 1,000 रु० प्राप्त होगा।
बसन्ती देवी रवि प्रकाश बनाम राम प्रसाद जयसवाल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई हिन्दू स्त्री अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को निर्वसीयत छोड़कर मर जाती है और उसके परिवार में उसका कोई वारिस मौजूद नहीं है तो ऐसी स्थिति में ऐसी सम्पत्ति का न्यागमन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में उल्लिखित नियमों के अन्तर्गत सपित्र्य गोत्रज को प्राप्त होगी।
पुनः राजस्थान उच्च न्यायालय के द्वारा श्रीमती उमराव देवी बनाम हुलासमल, के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि कोई विधवा स्त्री जो नि:सन्तान है यदि वह अपनी निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मर जाती है और अनुसूची 1 एवं 2 के दायाद मौजूद न हों तो ऐसी परिस्थिति में वह सम्पत्ति सपित्र्य गोत्रजों को न्यागत होगी। लेकिन जहाँ कोई हिन्दू स्त्री जिसने अपने माता-पिता से सम्पत्ति प्राप्त की हो वहाँ उसकी मृत्यु के पश्चात ऐसी सम्पत्ति उसके दायादों एवं उसके पति को प्राप्त होगी।’
मरुमक्कत्तायम और अलियसन्तान में उत्तराधिकार-जब कोई ऐसी हिन्दू स्त्री अथवा पुरुष निर्वसीयत मरता है जो मरुमक्कत्तायम तथा अलियसन्तान विधि द्वारा प्रशासित होता है तो उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकार के विषय में धारा 17 का प्रावधान अनुवर्तित किया जायगा। धारा 17 इस प्रकार है-
“धारा 8, 10, 15 और 23 के प्रावधान उन व्यक्तियों के सम्बन्ध में, जो यदि अधिनियम पारित न किया गया होता तो मरुमक्कत्तायम विधि और अलियसन्तान विधि द्वारा शासित होते, प्रभावशील होंगे, जैसे कि
(i) धारा 8 की उपधारा (ग) तथा (घ) के बदले में निम्नवर्ती रख दिया गया हो, (ग) तृतीय रूप में यदि दोनों वर्गों में से किसी का कोई दायाद न हो तो उसके नातेदारों का चाहे वे गोत्रज हों अथवा बन्धु हों, (ii) धारा 15 की उपधारा (1) के खण्ड (क) से लेकर (ङ) तक के बदले में निम्नवर्ती रख दिया गया हो, अर्थात्(क) प्रथमतः पुत्र तथा पुत्रियों को (जिसमें किसी पूर्वमृत पुत्र अथवा पुत्री की सन्तान भी सम्मिलित है) तथा माता को, (ख) द्वितीय रूप में पिता तथा पति को, (ग) तृतीय रूप में माता के दायादों को, (घ) चतुर्थ रूप में पिता के दायादों को, (iii) धारा 15 की उपधारा (2) का खण्ड (क) लुप्त कर दिया गया है। (iv) धारा 23 लुप्त कर दी गयी है।
1. ए० आई० आर० 2008 एस० सी०2951
2. ए० आई० आर० 2014, एन० ओ० सी० राजस्थान 604.
3. लक्ष्मी धर साहू बनाम बाटा क्रूसन साहू, ए० आई० आर० 2015 उड़ीसा 01.
दायादो को उसके आधार पर निर्वसीयत की सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने से अलग कर देता है। ये नियोग्यतायें इस प्रकार है
(1) पुनर्विवाह से उत्पन्न निर्योग्यतायें (धारा 2411
(2) हत्या का अपराध (धारा 25)।
(3) धर्म परिवर्तन से उत्पन्न निर्याग्यता (धारा 26)1
यह उल्लेखनीय है कि पूर्व हिन्दू विधि में उत्तराधिकार से अपवर्जित करने के लिये अनेक योग्यताय विहित की गई थी जिनको शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा धार्मिक इत्यादि कोटियों में सियाजित किया गया था। किन्तु वर्तमान अधिनियम में इन निर्योग्यताओं को अब समाप्त कर दिया गया तथा अधिनियम की धारा 24, 25 तथा 26 में उनका पुन: उल्लेख किया गया है। खगेन्द्र नाथ घोष बनाम करुणाघर के बाद में कलकता उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम की धारा 24, 25 तथा 26 को छोड़कर अन्य कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जिसमें दायसम्बन्धी नियोग्यता विहित की गई हो। धारा 24 से 26 तक के अधीन विधवा का असतीत्व होना (अनैतिक जीवन व्यतीत करना) उसे दाय प्राप्त करने के निर्याग्य नहीं बना देता। पत्नी का असतीत्व होना पली को पति की सम्पत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त करने से अब अलग नहीं कर सकता। दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसे असतीत्व के आधार पर अनिहित नहीं कर सकती।
(1) पुनर्विवाह से उत्पन्न निर्योग्यता-धारा 241 में इस निर्योग्यता के विषय में उल्लेख किया गया है
“जब कोई दायाद पूर्वमृत पुत्र की विधवा, पूर्वमृत पुत्र के पुत्र की विधवा या भाई की विधवा के रूप में निर्वसीयत से नातेदारी रखती है यदि उत्तराधिकार के सूत्रपात होने की तिथि में पुनः विवाह कर लेती है तो वह निर्वसीयत की सम्पत्ति में ऐसी विधवा के रूप में उत्तराधिकार प्राप्त करने की हकदार नहीं होगी।” इस धारा के अन्तर्गत पुनर्विवाह केवल निम्नलिखित के लिये निर्योग्यता होगा
(1) निर्वसीयत के पूर्वमृत पुत्र की विधवा,
(2) पूर्वमृत पुत्र के पूर्वमृत पुत्र की विधवा, अथवा
(3) निर्वसीयत के भाई की विधवा। यदि विधवा ने निर्वसीयत के जीवन काल में पुनर्विवाह कर लिया है, अर्थात् उत्तराधिकार के सूत्रपात होने के पूर्व पुनः विवाह कर लिया है।
श्रीमती कस्तूरी देवी बनाम डिप्टी डाइरेक्टर कान्सालिडेशन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि माता को पुनर्विवाह के आधार पर सम्पत्ति में उसके हक से अनिहित नहीं किया जा सकता है। पत्रवधु को दाय से अपवर्जित करने का विशेष तथा पुनीत कारण है और वह कारण पति से उसका पवित्र सम्बन्ध है। जब वह पुनर्विवाह करके वह सम्बन्ध तोड़ लेती है तो उस दाय प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता और न ही दाय में प्राप्त सम्पत्ति को धारित किये जाने काही अधिकार बना रहता है। किन्तु यह बात माता के लिये लागू नहीं होती, वह दाय म सम्पत्ति प्राप्त कर लेने के बाद भी उससे अनिहित नहीं की जा सकती।
उत्तराधिकार के सुत्रपात हो जाने के बाद विधवा का पुनर्विवाह उसको, यदि उसने एक दायाद के रूप में दाय प्राप्त कर लिया है, अंशभागी बनने के निर्योग्य बना देता है। यह धारा निर्वसीयत की
1. धारा 24, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (39 सन् 2005) द्वारा विलोपित हो
2. ए. आई. आर० 1978 कल 4311
3. ए. आई. आर० 1976 एस० सी० 25951
विधवा अथवा उसके पिता की विधवा के सम्बन्ध में लागू नहीं होती। इस धारा में उल्लिखित विधवा जब एक बार पुन: विवाह कर लेती है तो यह समझा जाता है कि निर्वसीयत के जीवन-काल में उस विधवा के पति की मृत्यु हो गई। इस प्रकार पुनः विवाह कर लेने पर वह निर्वसीयती की विधवा नहीं। रह जाती और अन्य सम्बन्धियों से दाय प्राप्त करने का अधिकार भी खो देती है। इस प्रकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पास हो जाने के बाद कोई हिन्दू विधवा अपने पति से दाय में प्राप्त करने वाली सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी धारा 14 के अन्तर्गत हो जाती है और पुनः विवाह करने पर उसे उस सम्पत्ति से अनिहित नहीं किया जा सकता है।
अभी आल में पुन: उच्चतम् न्यायालय ने चिरोट सुगथन बनाम चिरोट भारथी के मामले में इस बात की अभिपुष्टि की। प्रस्तुत मामले में पत्नी ने अपने पति से कुछ सम्पत्ति विरासत में प्राप्त किया था और सम्पत्ति प्राप्त करने के कुछ वर्ष पश्चात् उसके पति की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के उपरान्त उसकी पत्नी ने किसी अन्य व्यक्ति के साथ पुनर्विवाह सम्पन्न किया। विवाह के पश्चात् मृतक पति के अन्य उत्तराधिकारियों ने न्यायालय के समक्ष इस बात को उठाया कि विधवा के पुनर्विवाह की वजह से वह ऐसी सम्पत्ति की अधिकारी नहीं होगी जो सम्पत्ति उसने पूर्व पति से प्राप्त किया था। उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पास हो जाने के बाद कोई हिन्दू विधवा अपने पति से दाय में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी धारा 14 के अन्तर्गत हो जाती है और पुनर्विवाह करने से उसे उस सम्पत्ति से अनिहित नहीं किया जा सकता।
किन्तु यदि विधवा निर्वसीयत से किसी अन्य प्रकार से सम्बन्धित होती है, उदाहरणार्थ माता की पुत्री, चाचा की पुत्री आदि के रूप में, तो वह उस दशा में मृतक का बन्धु होने के नाते दाय प्राप्त करने की अधिकारिणी हो जाती है, यदि मृतक के निकट के दायाद उसको अपवर्जित नहीं करते।
पिता की विधवा, अर्थात् सौतेली माता इस धारा में उल्लिखित नहीं की गई है, यद्यपि वह वर्ग (2) की चतुर्थ प्रविष्टि के दायादों में विहित है। पिता की विधवा का तात्पर्य माता से नहीं है, क्योंकि माता वर्ग (1) की दायाद है। माता अपने पुत्र की सम्पत्ति पिता की विधवा के रूप में नहीं प्राप्त करती वरन् अपने रक्त-सम्बन्ध के आधार पर माता के रूप में प्राप्त करती है।
सौतेली माता सौतेले पुत्र की सम्पत्ति पिता की विधवा के ही रूप में प्राप्त करती है। कोई सौतेली माता, जो अपने सौतेले पुत्र के पूर्व ही विवाह कर लेती है तथा दूसरे परिवार में अपना पति बना लेती है तो उसका वही स्थान होता है जो इस धारा में उल्लिखित अन्य तीन विधवाओं का।
(2) हत्यारा-धारा 25 हत्यारे को उस व्यक्ति की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने के निर्योग्य बना देती है जिसकी हत्या की गयी है। धारा 25 इस प्रकार है
“जो व्यक्ति हत्या करता है या हत्या करने में अभिप्रेरणा करता है, वह हत व्यक्ति की सम्पत्ति या किसी अन्य सम्पत्ति को, जिसके उत्तराधिकार को अग्रसर करने के लिए उसने हत्या की थी या हत्या करने में अभिप्रेरण किया था, प्राप्त करने के निर्योग्य होगा।’ हत्यारे के विषय में यह धारणा बनायी जाती है कि वह अस्तित्व में नहीं है।
हत्या के आधार पर हत्यारे को हत व्यक्ति की सभी प्रकार की सम्पत्तियों को प्राप्त करने के निर्योग्य बना दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, हत्यारे को ऐसे दूसरे व्यक्ति की भी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करने से अपवर्जित कर दिया जाता है जिसकी सम्पत्ति, यदि वह हत्या न करता तो उत्तराधिकार में प्राप्त करता। हत्यारे व्यक्ति का दायाद भी हत व्यक्ति की सम्पत्ति दाय में प्राप्त करने के निर्योग्य हो जाता है, क्योंकि सम्पत्ति हत्यारे में निहित नहीं होती, अत: वह हत्यारे के दायाद को भी नहीं प्राप्त हो सकती। इस धारा के उद्देश्य के लिए ‘हत्या की अभिप्रेरणा’ भी सम्मिलित करता है।
1. चन्दो महताइन बनाम खूब लाल, ए० आई० आर० 1983 पटना 331
2. ए० आई० आर० 2008 एस० सी० 14681
3. कंचन बनाम गिरिमलप्पा, 48 बा० 569 पी० सी०।
चमनलाल बनाम मोहन लाल तथा अन्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि जहाँ किसी विधवा का अभियोजन अपने पति की हत्या के आरोप में किया ता है और बाद में वह उस दोष के आरोप से छूट जाता है वहाँ उसे अपने पति की संपत्ति को दाय में प्राप्त करने से अपवर्जित नहीं किया जा सकता।
(3) धर्म-परिवर्तन : वंशज पर धर्म-परिवर्तन का प्रभाव-धारा 26 में ऐसे व्यक्तियों के बाजों की निर्योग्यता के विषय में उल्लेख किया गया है जिसने दूसरा धर्म ग्रहण कर लिया है। उदाहरणार्थ, एक पुरुष अथवा स्त्री दूसरा धर्म ग्रहण कर लेती है। ऐसी अवस्था में उसके वंशज यदि उत्तराधिकार के सूत्रपात के समय हिन्दू नहीं हैं तो पुरुष अथवा स्त्री के किसी नातेदार से भी दाय में सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकते। यह एक उल्लेखनीय बात है कि धर्म-परिवर्तन करने वाला व्यक्ति स्वयं टाय प्राप्त करने के निर्योग्य नहीं होता। धर्म-परिवर्तन उस व्यक्ति के वंशजों के दाय प्राप्त करने के अधिकार को प्रभावित करता है जिसने दूसरा धर्म ग्रहण कर लिया है। यह धारा भूतलक्षी है तथा यह उन व्यक्तियों के लिये भी लागू होती है जो इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व दूसरा धर्म ग्रहण कर चुके हों। यह बात अधिनियम की धारा 26 से स्पष्ट होती है जो इस प्रकार है
“जहाँ इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् कोई हिन्दू दूसरा धर्म ग्रहण करने के कारण हिन्दू नहीं रह गया था या नहीं रह जाता है, वहाँ ऐसे धर्म-परिवर्तन के पश्चात् हुई सन्तति तथा उस सन्तति के वंशज अपने हिन्दू नातेदारों में से किसी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करने के लिए निर्योग्य होंगे, जब तक कि ऐसी सन्तति या वंशज उत्तराधिकार के सूत्रपात के समय हिन्दू नहीं हैं।”
इस धारा के अनुसार धर्म-परिवर्तन करने वाले दायाद पर दाय-अपवर्जन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु धर्म-परिवर्तन के बाद उत्पन्न होने वाली उनकी सन्तान ही अपवर्जन का शिकार होती है। दायाद के धर्म-परिवर्तन के पूर्व उत्पन्न होने वाली सन्तान यदि धर्म-परिवर्तन नहीं करती और हिन्दू बनी रह जाती है तो उसे दाय से अपवर्जित नहीं किया जा सकता।
गनचारी विराह शंकरय्या बनाम गनचारी शिवा रंजनी, के मामले में पुत्री विवाह करने के कारण से दूसरे धर्म में परिवर्तित हो गई थी। विवाह के कुछ समय बाद वह अपनी पैतृक सम्पत्ति में सहदायिकी की हैसियत से अपनी सम्पत्ति लेने के लिये न्यायालय के समक्ष एक वाद संस्थित किया। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पारित होने के पश्चात् पुत्री सहदायिकी की हैसियत से अपनी सम्पत्ति प्राप्त करने के लिये विभाजन के लिये वाद ला सकती है। उसका दूसरे धर्म में विवाह कर लेने से उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसके विवाह कर लेने से यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये उसने स्वयं को उस धर्म में परिवर्तित कर लिया है।
पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत बधिर, गूंगा, पागल, जड़, कुष्ठ रोग से पीड़ित तथा जन्मजात अन्धा तथा ऐसा व्यक्ति जो किसी असाध्य रोग से पीड़ित था, दाय प्राप्त करने से अपवर्जित किया जाता था। हिन्दू दाय (निर्योग्यता-निवारण) अधिनियम, 1928 ने पागलपन, जड़ता (जन्म से) के अतिरिक्त अन्य सभी निर्योग्यताओं का निवारण कर दिया। यह अधिनियम धारा 28 के द्वारा यह घोषित करता है कि कोई दोष, रोग अथवा अंगहीनता किसी व्यक्ति को दाय प्राप्त करने के निर्योग्य नहीं बना देती। अधिनियम की धारा 243 से लेकर 26 तक के अन्तर्गत इन निर्योग्यताओं को विहत किया गया है। इस अधिनियम के अन्तर्गत असाध्विता अथवा असतीत्वता कोई निर्योग्यता नहीं मानी गई।
1. ए० आई० आर० 1977 दिल्ली 971
2. ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 351, अ० प्र०.
3. धारा 24, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (39 सन् 2005) द्वारा विलोपित हो गयी है।