LLB Hindu Law Chapter 7 Post 6 Book Notes Study Material PDF Free Download

LLB Hindu Law Chapter 7 Post 6 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hello Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार Post 6 Study Material in Hindi भाषा में पढ़ने जा रहे है |

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रद्द कर दी जायेगी जिसके अधीन दायाद होता।”

अधिनियम के अन्तर्गत स्त्री का सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार : धारा 14—पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत वह सम्पत्ति, जो कोई स्त्री विवाह के पूर्व अपने सम्बन्धियों से दानरूप में प्राप्त करती थी अथवा विवाह के समय प्राप्त करती थी, पारिभाषिक रूप से स्त्री-धन कहलाता था। स्त्री-धन तथा विवाह के बाद दाय के द्वारा प्राप्त सम्पत्ति अथवा परिवार के विभाजन के फलस्वरूप प्राप्त सम्पत्ति में अन्तर था। कुछ सीमित दशाओं में दाय रूप में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति अथवा परिवार के विभाजन के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली सम्पत्ति स्त्री को विधवा रूप में प्राप्त होती थी और वह भी उसके जीवन-काल तक के लिए। इस प्रकार इस अधिनियम के पूर्व हिन्दू स्त्री की सम्पत्ति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—(1) स्त्री-धन, (2) हिन्दू नारी-सम्पदा। स्त्री-धन के ऊपर स्त्री का पूर्ण स्वामित्व होता था और उसकी मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति उसके दायादों को चली जाती थी, किन्तु नारी-सम्पदा के विषय में स्थिति भिन्न थी। उस सम्पत्ति की वह स्वामिनी होती थी; किन्तु नारी सम्पत्ति के निर्वतन सम्पदा का अधिकार सीमित होता था और उसकी मृत्यु के बाद सम्पत्ति गत स्वामी के दायादों को न कि उसके अपने दायादों को चली जाती थी। अब वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत धारा 14 में हिन्दू नारी-सम्पदा को समाप्त कर दिया गया है तथा स्त्री को ऐसी सभी सम्पत्ति पर पूर्ण स्वामित्व प्रदान कर दिया गया है जो उसके द्वारा धारा 14 के उपखण्ड (2) को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार से प्राप्त की गयी हो। यह बात धारा 14 से स्पष्ट हो जायेगी जो इस प्रकार है

“हिन्दू नारी द्वारा अधिकृत कोई सम्पत्ति, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारम्भ होने से पूर्व या पश्चात् अर्जित की गई हो, पूर्ण स्वामी के रूप में न कि सीमित स्वामी के रूप में धारित की जायेगी।”

व्याख्या (1) इस उपधारा में “सम्पत्ति’ के अन्तर्गत वह चल और अचल सम्पत्ति आती है जो हिन्दू नारी ने दाय या विभाजन में या भरण-पोषण के बकाया के बदले में या दान द्वारा किसी व्यक्ति से, चाहे वह नातेदार हो या न हो, अपने विवाह के पूर्व प्राप्त किया हो या उसके पश्चात् या अपने कौशल या परिश्रम द्वारा चिरभोग द्वारा या अन्य किसी रीति से अर्जित की है और कोई ऐसी सम्पत्ति भी है जो इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के अव्यवहित पूर्व स्त्रीधन के रूप में स्वयं उसके द्वारा धारित थी।

(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट कोई बात किसी ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होगी जो दान के द्वारा या इच्छापत्र या किसी लिखत के अधीन या व्यवहार न्यायालय की आज्ञप्ति या आदेश के अधीन या पंचाट के अधीन अर्जित सम्पत्ति हो जिसमें कि दान, इच्छापत्र या अन्य लिखत या आज्ञप्ति या आदेश या पंचाट की शर्त निर्बन्धित स्वत्व ही विहित करती है।

अब इस धारा के अनुसार दाय में प्राप्त सम्पत्ति को स्त्री इच्छापत्र द्वारा अथवा अन्य प्रकार से निर्वर्तित कर सकती है और यदि वह निर्वसीयत मर जाती है तो सम्पत्ति उसके दायादों में धारा 15 तथा 16 अथवा 17 के अनुसार न्यागत होगी।

इस धारा का प्रभाव-इस धारा का उद्देश्य एक हिन्दू स्त्री को पूर्ण स्वामित्व प्रदान करना है। दसरे शब्दों में अन्तिम पुरुष सम्पत्तिधारक की विधवा को मृत पुरुष द्वारा छोड़ी गई उस समस्त सम्पत्ति में, जो उसके कब्जे में इस अधिनियम के प्रारम्भ होने की तिथि को थी, पूर्ण स्वामित्व प्रदान कर दिया गया है, चाहे वह पुरुष हिन्दू इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के बहुत पूर्व मर चुका हो। पति के मरने पर भले ही विधवा ने सम्पत्ति को सीमित स्वामिनी के रूप में धारण किया रहा हो, अधिनियम के लाग होते ही वह उसके पूर्ण स्वामिनी के रूप में धारण कर लेगी। इस उपबन्ध के लागू होने पर जो भी सम्पत्ति कोई विधवा हिन्दू नारी के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1937 के अन्तर्गत

1 पंचकरी लाहा बनाम अन्नपूर्णा लाहा, ए० आई० आर० 1990 एन० ओ० सी० 89 कल०; देखें भागीरथी बाई चन्द्रभान निम्बासटे बनाम टेना बाई, ए० आई० आर० 2013 बम्बई 991

प्राप्त करती है, उसकी पूर्ण स्वामिनी हो जाने से परिवार की संयुक्त प्रास्थिति पर कोई प्रभाव नहीं इस प्रकार दाय में सम्पत्ति पाने मात्र से परिवार की संयुक्त स्थिति टूट नहीं जाती। वह संयुक्त कार की सदस्या बनी रहती है और संयुक्त परिवार का कर्ता उसका प्रत्येक वाद में प्रतिनिधित्व कर कता है। धारा 14 जो नारी की सीमित सम्पदा को पूर्ण सम्पदा में परिवर्तित कर देती है, संयुक्त वार की स्थिति का तथा संयुक्त परिवार के अधिकारों को नहीं प्रभावित करती।

इस उपबन्ध के बनने के पूर्व जो सम्पत्ति स्त्रियों द्वारा धारित की जाती थी. वह या तो उसकी पूर्ण सम्पत्ति हुआ करती थी, जिसको वह स्वेच्छा से निर्वर्तित कर सकती थी, या उसकी सीमित सम्पदा हुआ अती थी जिसका एक विचित्र स्वरूप था जो अन्य विधिशास्त्र में अज्ञात था। हिन्दू स्त्री को उसकी सम्पत्ति

पर्ण स्वामित्व प्रदान करके अधिनियम ने दायादों की एक संशोधित तथा परिवर्तित रूपरेखा प्रस्तुत किया। पति से दाय में प्राप्त सम्पत्ति, जो स्त्री धारण करती है, उसमें दायादों का क्रम अपने पिता से दाय में प्राप्त सम्पत्ति में दायादों के क्रम से भिन्न होता है। उपधारा (1) में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि कोई भी सम्पत्ति जो स्त्री के अधिकार में है, उसकी पूर्ण स्वामिनी स्त्री ही होगी; वह सम्पत्ति की सीमित स्वामिनी नहीं होगी। उपधारा (2) में यह प्रावधान किया गया है कि उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट कोई बात ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होगी जो दानरूप में अथवा किसी इच्छापत्र द्वारा अथवा अन्य लिखत द्वारा अथवा आज्ञप्ति अथवा आदेश की शर्तों के अन्तर्गत अर्जित की गई है। इस प्रकार की सम्पत्ति में निर्बन्धित (Restricted estate) ही विहित करती है।

इस धारा के पहले खण्ड के अनुसार जो भी सम्पत्ति एक हिन्दू स्त्री के कब्जे में आती है, वह उसकी सम्पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। उसके इस सम्पूर्ण स्वामित्व को विधि के किसी पाठ, नियम या व्याख्या द्वारा संकुचित नहीं किया जा सकता है। सुखाराम बनाम गौरीशंकर के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया कि मिताक्षरा की बनारस-शाखा का एक पुरुष हिन्दू संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अपने हक को निर्वर्तित करने के लिए प्रतिबन्धित है, किन्तु एक विधवा जो उस सम्पत्ति में अधिनियम लागू होने के बाद कोई हक प्राप्त करती है, किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध से बाधित नहीं है अर्थात् हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत ऐसी विधवा स्त्री को सम्पत्ति प्राप्त करने के लिये तथा अपने अधिकारों का प्रवर्तन कराने के लिये न्यायालय में वाद संस्थित करने का अधिकार है तथा उसे अपनी सम्पत्ति प्राप्त करने के लिये अन्य दायाद्रों की सहमति आवश्यक नहीं है।’ उच्चतम न्यायालय ने एक दूसरे मामले में यह कहा कि कोई भी सम्पत्ति, जो एक हिन्दू स्त्री इस अधिनियम के लागू होने के दिन धारित करती है, चाहे वह सम्पत्ति उसके कब्जे में अधिनियम के आने के पूर्व आयी हो या अधिनियम के लागू होने के बाद कब्जे में आयी हो, वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी।

उच्चतम न्यायालय ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मामला जगन्नाथ पिल्ले बनाम कुज्जीपादम् पिल्ले निर्णीत किया। इसमें न्यायालय ने उड़ीसा तथा आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मत का खण्डन किया तथा मद्रास, बाम्बे, गुजरात एवं पंजाब उच्च न्यायालय के मत का पुष्टिकरण किया। जहाँ किसी स्त्री को कोई सम्पत्ति पति की मृत्यु के बाद प्राप्त होती है वह अधिनियम के लागू होने के पूर्व उसकी संपदा मानी जाती थी। ऐसी सम्पदा को इस मामले में अधिनियम के लागू होने के पूर्व रजिस्टर्ड बयनामा द्वारा अन्यसंक्रामित कर दिया गया। अधिनियम के लागू होने के बाद उस अन्यसंक्रामिती (transferee) ने उस सम्पत्ति को पुन: उसी विधवा के नाम हस्तान्तरित कर दिया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वह हस्तान्तरित सम्पत्ति उस विधवा की पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी न कि सीमित सम्पदा। सीमित सम्पदा अधिनियम के लागू होने के बाद समाप्त कर दी गई। यह कथन कि उसने (विधवा ने) सीमित सम्पदा का ही अन्यसंक्रामण

1. फतीमुन्निसा बेगम बनाम तमी रासा राजगोपाल चार्यल. ए० आई० आर० 1977 ए० पी० 24/

2. ए० आई० आर० 1968 एस० सी० 356: देखें जयलक्ष्मी शर्मा बनाम द्रोपदी देवी, ए० आई० आर० 2010 दिल्ली 371 देखें श्रीमती उमराव देवी बनाम हलासमल, ए० आई० आर० 2014, एन० ओ० सी० 604 राजस्थान।

3. सन्तोष पोपट चौहान बनाम सुलोचना राजीव, ए० आई० आर० 2016, बम्बई 29… 7301

4. कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स बनाम कोकिला देवी. ए० आई० आर० 1970 एस० सा ।

5. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 14931

किया था इसलिए वह सम्पदा उसके पास पुन: वापस (हस्तान्तरण द्वारा) आने पर सीमित सम्पदा ही बनी रहेगी, गलत है। ऐसी सम्पत्ति (सम्पदा) उसके कब्जे में अधिनियम के लागू होने के बाद आई है, इसलिये वह उसकी पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी और वह उसकी पूर्ण स्वामिनी।

जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती बेनी बाई बनाम रघुवीर प्रसाद के मामले में उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 (1) व (II) के अन्तर्गत पुन: अपने पूर्व निर्णयों का समर्थन करते हुए एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। न्यायालय ने उपरोक्त वाद में यह अभिमत प्रकट किया कि विधवा द्वारा हस्तान्तरित की गयी सम्पत्ति उचित एवं वैध थी क्योंकि जो सम्पत्ति उसे भरण-पोषण में दी गयी थी, अधिनियम के लागू होने के पश्चात् वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी होगी और ऐसी सम्पत्ति का हस्तान्तरण वह अपनी पुत्री के पक्ष में कर सकती है।

लेकिन जहाँ किसी स्त्री ने जो ऐसी सम्पत्ति की पूर्व स्वामिनी है यदि वह ऐसी सम्पत्ति को वसीयत के माध्यम से सीमित अधिकार के रूप में किसी को हस्तान्तरित करती है तो वह ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामी नहीं होगा केवल वसीयत के द्वारा प्रदत्त अधिकारों का वह ऐसी सम्पत्ति में प्रयोग कर सकता है।

जैसा कि जे० बी० शिन्दे बनाम सी० पी० शिन्दे के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि जहाँ पैतृक सम्पत्ति एवं उसका उत्तराधिकारी (प्रथम पत्नी का पुत्र) विद्यमान हो, वहाँ यदि मृतक की सम्पत्ति का पूरा भाग भरण-पोषण के एवज में उसकी द्वितीय पत्नी के पास हो तो ऐसी दशा में ऐसी सम्पत्ति का पूर्ण स्वामित्व उसे प्राप्त नहीं होगा, अर्थात् ऐसी सम्पत्ति में मृतक की पहली पत्नी एवं बच्चों को भी हिस्सा प्राप्त होगा। वह अपने-अपने हिस्से के पूर्ण स्वामी होंगे।

पी० रामेश्वर राव बनाम आई संजीव राव, के मामले में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने अधिनियम की धारा 14(1) के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि सम्पत्ति कब्जा के अन्तर्गत कोई खास प्रकृति का कब्जा ही नहीं होगा बल्कि ऐसा कब्जा भी मान्य होगा जो उस स्त्री को भरण-पोषण के सम्बन्ध में दिया जाता है। उपरोक्त मामले में विधवा पुत्र वधू ने एक सम्पत्ति सीमित अधिकार के रूप में अपने श्वसुर से भरण-पोषण के सम्बन्ध में प्राप्त किया था, जिस समय सम्पत्ति उसके कब्जे में थी, उसी दौरान, यह अधिनियम पारित कर दिया गया, अधिनियम पारित होने के पश्चात् वह विधवा ऐसी सम्पत्ति की स्वतः पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी जो सम्पत्ति उसके कब्जे में भरण-पोषण हेतु प्रदत्त की गई थी।

जया लक्ष्मी अम्मल बनाम काली पेरूमल, के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने पुन: यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ पति ने समझौते के आधार पर अपनी पहली पत्नी को अपनी सम्पत्ति के हिस्से में कुछ सम्पत्ति उसके भरण पोषण के लिये उसे सीमित अधिकार के रूप में दिया हो, वहाँ यदि उस सम्पत्ति का उपयोग एवं उपभोग करने के दौरान हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के प्रावधान यदि लागू हो गये हैं वहाँ ऐसी स्त्री सीमित अधिकार के अन्तर्गत प्रयोग की जा रही सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। और ऐसी प्राप्त सम्पत्ति की वह किसी भी रूप में उपयोग एवं उपभोग करने की हकदार होगी।

चामू जिनप्पा शेरी बनाम सावित्री यशवतंए व वागुले के वाद में पक्षकार को अपने भरण पोषण के लिए मिताक्षरा विधि के मुम्बई शाखा द्वारा सम्पत्ति दी गई थी जो पंजीकृत विलेख के माध्यम से इस शर्त के साथ दी गई थी कि वह ऐसी सम्पत्ति का प्रयोग अपने जीवनकाल में करती रहेगी तत्पश्चात् वह ऐसी सम्पत्ति अपनी सन्तान को हस्तान्तरित कर देगी। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहाँ किसी स्त्री को सीमित अधिकार के साथ कोई सम्पित्त दी गई हो वहाँ ऐसी स्त्री अधिनियम लागू होने

1. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 1147। देखें कृपा देवी बनाम पूनम देवी, ए० आई० आर०

2013 पटना 1311

2. सत्यादेवी बनाम बुआदास, ए० आई० आर० 2016 पंजाब एवं हरियाणा प० 1.

3. ए० आई० आर० 2003 एस० सी०2121

4. ए० आई० आर० 2004 ए० पी० 117.

5. ए० आई० आर० 2014. मद्रास 185..

6 ए० आई० आर० 2005 कर्नाटक 30। देखें राय पुरी बनाम उषा शर्मा, ए० आई० आर० 2013 उत्तरांचल 96। गुरुदयाल सिंह मार्शलिग विन्द्रा बनाम वसंत सिंह मार्शलिंग विन्द्रा, ए० आई० आर० 2015, बम्बई 15.

के बाद  सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी होगी। ऐसी सम्पत्ति का वह किसी भी रूप में उपयोग कर सकती है |

धारा भूतलक्षी है-धारा 14 इस अर्थ में भूतलक्षी है कि कोई भी स्त्री इस अधिनियम के प्रारम्भ के पर्व किसी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करके सीमित स्वामिनी के रूप में धारण करती थी, अब वह सम्पत्ति को पूर्ण स्वामिनी के रूप में धारण करेगी। सम्पत्ति में चाहे उसका सीमित स्वत्व ही रहा हो, किन्त अधिनियम के बाद अब स्त्री का उसमें पूर्ण स्वत्व हो गया। किन्तु यह धारा ऐसी सम्पत्तियों के विषय लाग नहीं होती जिनको उसने अधिनियम लागू होने के पूर्व दाय में प्राप्त किया था और अधिनियम लागू के पर्व ही अन्यसंक्रामित कर दिया था, क्योंकि वह ऐसी सम्पत्ति की स्वामिनी नहीं मानी जा सकती है जिसको उसने अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व पूर्ण रूप से अन्यसंक्रामित कर दिया है। यह धारा केवल उसी सम्पत्ति के लिये लागू होगी जो अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय उसके कब्जे में थी। यह पद कि ‘कोई भी सम्पत्ति जो हिन्दू स्त्री के कब्जे में थी’ धारा 14 के अन्तर्गत इस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है कि कोई भी सम्पत्ति जो अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय स्त्री के कब्जे में थी। कोई भी सम्पत्ति जो अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व प्राप्त की गई थी, वह उसकी निर्बाध सम्पत्ति होगी। यह अभिव्यक्तिकरण कि चाहे वह अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व अथवा बाद में प्राप्त की गई है, यह प्रदर्शित करता है कि धारा 14 भूतलक्षी प्रभाव की है। वह सम्पत्ति जो स्त्री के आधिपत्य में थी, आधिपत्य वास्तविक रहा है अथवा प्रलक्षित (constructive), उसकी निर्बाध सम्पत्ति समझी जायेगी, सम्पत्ति चाहे अधिनियम के लागू होने के पूर्व अथवा बाद में उसके आधिपत्य में आयी रही हो। यदि कोई विधवा स्त्री ऐसी सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण कर देती है, चाहे अन्यसंक्रामण अनुचित एवं बिना किसी आवश्यकता के ही हो, उत्तरभोगी उसके सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं उठा सकता।’ जहाँ किसी स्त्री को कोई सम्पत्ति किसी वसीयत के अन्तर्गत दी जाती है और उसमें उसको जीवन हित (life interest) ही प्रदान किया जाता है जिससे वह अपना भरण-पोषण कर सके वहाँ अधिनियम के लागू होने के बाद वह जीवनहित से सम्बद्ध सम्पदा उसके पूर्ण स्वामित्व में बदल जायेगी जैसा कि धारा 14 (1) में दिया गया है।’

बल्लभ उर्फ गिन्नू नारायण बनाम श्रीमती गिन्नी देवी के बाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि विधवा स्वामित्व का सीमित अधिकार प्राप्त करती है जो धारा 14 (1) के द्वारा पूर्ण स्वामित्व में बदल जाता है। अत: विधवा की मृत्यु के पश्चात् उसकी एक मात्र उत्तराधिकारी उसकी बेटी उसके पिता की विवादित सम्पत्तियों की पूर्ण रूपेण स्वामिनी होगी।

बद्री प्रसाद बनाम कंसो देवी के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया कि उपधारा (6) में “कब्जे में आई हई सम्पत्ति’ का अर्थ बहुत ही व्यापक रूप में लिया जाना चाहिये। ऐसा इसलिये है कि वाद में दी गई व्याख्या की भाषा ऐसी समस्त सम्पत्ति को सम्मिलित करती है जो व्याख्या में दिये गये तरीकों से अर्जित की जाती है। उपर्युक्त वाद में हिन्दू विधवा अपने पति की सम्पत्ति को हिन्दू नारी के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1937 के अन्तर्गत प्राप्त करती है और बाद में उस परिवार में विभाजन होता है जिसमें पंचाट द्वारा प्रत्येक का अंश निर्धारित होता है और उसमें एक अंश हिन्दू विधवा के कब्जे में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने की विधि पर बना रहता है वहाँ न्यायालय न यह अभिनिर्धारित किया कि वह सम्पत्ति विधवा की सम्पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी।

सम्पत्ति जो स्त्री के कब्जे में थीयह धारा उसी स्थिति में अनुवर्तनीय है जबकि सम्पत्ति अधिनियम क लागू होने के पूर्व प्राप्त की गई हो तथा अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय स्त्री के कब्जे में हो। यदि वह इस प्रकार की सम्पत्ति के कब्जे से अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व ही अलग हो गई है तो यह

1. हरक सिंह बनाम कैलाश सिंह, 1958 पटना 5811

2. कमला देवी बनाम बच्चू लाल, 1957 एस० सी० 4341 चारज कुवर बनाम लक्ष्मन सिंह, 1967 एम० पी० 38: कोटय्या स्वामी बनाम वीरप्पा, 1959 ए० सा० जे० 4371 देखें सकमार भौमिक बनाम सबल भौमिक ए० आई० आर० 2015 त्रिपुरा 12.

१. रगनायकी अम्मल बनाम श्री निवास राघवं, ए० आई० आर० 1990 मद्रास 3791

5. ए० आई० आर० 2004 राजस्थान 2861

6. ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 19631

धारा प्रत्यक्षतः लागू नहीं होती। उसका कब्जा वास्तविक हो सकता है अथवा कानूनी उसके किरायेदार का कब्जा उसका कब्जा माना जायेगा। इसी प्रकार अनुज्ञप्तिधारी, पट्टाधारी तथा बन्धकी का कब्जा, जो स्त्री से प्राप्त किया गया है, इस धारा में प्रयुक्त “कब्जा” के अर्थ में आता है। इस धारा में प्रयुक्त “कब्जा” शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया गया है तथा इस प्रसंग में कब्जा का अर्थ है अपने हाथों में अथवा अधिकार में आई हुई सम्पत्ति। हिन्दू स्त्री जीवित होनी चाहिये तथा अधिनियम के लागू होने के समय सम्पत्ति उसके कब्जे में होनी चाहिये। यदि वह अधिनियम के लाग होने के पूर्व ही मर चुकी है अथवा उसके कब्जे में सम्पत्ति नहीं रह गई है तो यह धारा लाग नहीं की जा सकती। यदि स्त्री ने सम्पत्ति को अधिनियम के लागू होने के पूर्व ही बेच दिया है और इस प्रकार बेच देने से उसके कब्जे में सम्पत्ति नहीं रह गई है तो उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में इस धारा से सहायता नहीं ली जा सकती।’

‘कब्जा में’ शब्द का अर्थ व्यापक रूप में किया गया है। इसके अन्तर्गत न केवल वास्तविक कब्जा का भाव आता है वरन् जहाँ कहीं भी उसके कब्जे का अधिकार होता है यदि सम्पत्ति उसके प्रलक्षित कब्जे में है तब भी उसका कब्जा समझा जायेगा। जहाँ स्त्री को दाय में उस सम्पत्ति को प्राप्त करने का अधिकार था जो अधिकार से दूसरे के द्वारा अपहृत कर लिया गया है और उसको वापस लेने के अधिकार के समाप्त होने के पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाती है, वहाँ न्यायालय द्वारा यह निरूपित किया गया कि वह सम्पत्ति को पूर्ण स्वामिनी थी और उसके दायादों को यह अधिकार है कि वे उसको अवधि के समाप्त होने के पूर्व वापस ले लें। ‘कब्जा’ शब्द उस अर्थ में प्रयोग नहीं किया जाता जहाँ कब्जा का अधिकार नहीं रहता है।’

यह धारा इस प्रकार उसी स्थिति में लागू होती है जब कि सम्पत्ति अधिनियम के पूर्व अर्जित की गई है तथा अधिनियम के लागू होने के समय वह सम्पत्ति उसके कब्जे में है। जहाँ कोई विधवा भरण-पोषण की एवज में कोई सम्पत्ति अपने जीवन-काल तक के लिए ही प्राप्त करती है और कुछ उद्देश्यों के लिये सम्पत्ति में सीमित स्वामित्व प्राप्त कर लेती है, वहाँ वह उस सम्पत्ति में धारा 14 (1) के अनुसार पूर्ण स्वामित्व प्राप्त कर लेती है, भले ही भरण-पोषण को देने वाले लेख में उसको सीमित अधिकार ही प्रदान किये गये रहे हों।’ यदि वह सम्पत्ति के कब्जे में अधिनियम के लागू होने के पूर्व नहीं रह गई है तो धारा 14 नहीं लागू की जायेगी।

भगवान दत्तात्रेय बनाम विश्वनाथ पण्डारीनाथ जोशी के मामले में किसी विधवा ने अधिनियम के लागू होने के पूर्व पति से सम्पत्ति दाय में प्राप्त की और उसको बाद में बेच दिया। पति के उत्तरभोगियों ने विक्रय की वैधता को चुनौती दिया और न्यायालय ने इस विक्रय को अविधिमान्य घोषित किया। न्यायालय की इस घोषणा के बाद विधवा ने उस सम्पत्ति को पुनः खरीद लिया और पुन: बेच दिया। उत्तरभोगियों ने उस विक्रय को पुन: चुनौती दिया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय की पूर्व-घोषणा के बावजूद भी सम्पत्ति वर्तमान अधिनियम के लागू होने के बाद उस विधवा के कब्जे में आयी थी इसलिये वह सम्पूर्ण स्वामिनी हो गई। अधिनियम के लागू होने के बाद उत्तरभोगी को इसके अन्यसंक्रामण को चुनौती देने का हक नहीं रहा।

इसी आशय का वाद मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि कोई विधवा संयुक्त हिन्दू परिवार में भरण-पोषण के एवज में किसी घर पर बिना किसी नियन्त्रण के कब्जा पाती है और वह अधिनियम के लागू होने की तिथि तक कब्जा में बनी रहती है

1. हरी किशन बनाम हीरा, 1957 पंजाब 891

2. गद्दम् बेंकयम्मा बनाम गद्दम् बोरय्या, 1956 आन्ध्र प्रदेश डब्ल्यू० आर० 9881

3. कोटरुस्वामी बनाम वीरव्वा, 1959 एस० सी० 577; बाबूराव बनाम नीरोजी, 1961 बा० 3001

4. मंगल सिंह बनाम रत्नो, 1967 एस० सी० 1986; इरम्मा बनाम बेरूपन्ना, 1966 ए० सी० 19791

5. विन्दवासिनी सिंह बनाम शिवरती कौर, ए० आई० आर० 1971 पटना 104; सुमेश्वर बनाम स्वामीनाथ, ए० आई० आर० 1970 पटना 348; देखिए रामस्वरूप बनाम श्रीमती तोती, ए० आई० आर० 1972 बा० 16; चेल्लाम्मल तथा अन्य बनाम बल्लियम्मल, ए० आई० आर० 1978 मद्रास 21; देखिए श्रीराम बनाम श्रीमती हुक्मी, ए० आई० आर० 1979 एच० पी० 461 6.

हरीकिशन बनाम हीरा, 1957 पंजाब 891 7. ए० आई० आर० 1979 बा० 11

तो उसको सम्पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। इस विषय पर वी० तुलसम्मा बनाम शेषरेड्डी का एक दसरा मामला उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया। इसमें अपीलार्थी ने अपने मृत पति के भाई के विरुद्ध संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से भरण-पोषण पाने का दावा किया। दावा अपीलार्थी के पक्ष में निर्णीत हो गया और आज्ञप्ति के दौरान पक्षकारों में एक समझौता हो गया, जिसके परिणामस्वरूप एक सीमित हित की सम्पत्ति उसको भरण-पोषण के निमित्त दे दी गई। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चूंकि सम्पत्ति भरण-पोषण के एवज में दी गई थी; अतएव धारा 14 (1) का उपबन्ध लागू होगा न कि उपधारा (2)। अपीलार्थी ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। जहाँ विधवा पुत्रवधू को अपने श्वसुर की सम्पत्ति में भरण-पोषण पाने का अधिकार है और उसके लिए भरण-पोषण का दावा किये जाने पर न्यायालय ने समझौता-डिक्री पास कर दिया वहाँ न्यायालय द्वारा निर्धारित की गयी भरण-पोषण की रकम उसकी पूर्ण सम्पत्ति मानी जायेगी।

श्रीमती जमुना बाई बनाम भोला राम व अन्य के मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ कोई पत्नी अपने भरण-पोषण के सम्बन्ध में सीमित अधिकार के रूप में कोई सम्पत्ति 1956 के अधिनियम के पूर्व पति के सम्पत्ति में प्राप्त करती है, वहाँ 1956 के अधिनियम के पारित होने के पश्चात् ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी और वह ऐसी सम्पत्ति को किसी भी रूप में उपयोग एवं उपभोग कर सकती है।

धारा 14 एक बहुत ही विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त की गई है जिससे कि सभी प्रकार की अर्जित सम्पत्तियाँ; जो अधिनियम के लागू होने के दिन उसके कब्जे में थीं, उसके पूर्ण स्वामित्व में आ जायेंगी। धारा 14 की उपधारा (2) एक प्रकार से उपधारा (1) के अपवादस्वरूप है और कुछ प्रकार की अर्जित सम्पत्तियों को पूर्ण स्वामित्व से अपवर्जित करती है। विभाजन तथा भरण-पोषण के परिणामस्वरूप प्राप्त की गई सम्पत्तियों के सम्बन्ध में धारा 14 की उपधारा (1) लागू होगी और इस प्रकार की सम्पत्ति पर उसको सम्पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जाता है।

साधू सिंह बनाम गुरुद्वारा साहिब नारिक के वाद में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम लागू होने के पश्चात् एक हिन्दू पुरुष निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मर जाता है जिसको कोई भी सन्तान नहीं थी। उसके परिवार में केवल उसकी पत्नी ही एक मात्र उत्तराधिकारी थी जो सम्पत्ति उसके कब्जे में थी। पति के अन्य दायदों ने न्यायालय में इस बात की चुनौती दी कि वह विधवा पत्नी अनुसूची के अन्तर्गत उत्तराधिकारी न होने के कारण वह ऐसी सम्पत्ति को प्राप्त करने की अधिकारी नहीं है। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि मृतक की पत्नी धारा 14(1) के अन्तर्गत ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी जिस सम्पत्ति में उसका कब्जा बना रहा अर्थात उपरोक्त मामले में मृतक की सम्पत्ति पर विधवा का निरन्तर कब्जा बना हुआ था। अत: सम्पूर्ण सम्पत्ति उसको न्यागत् होगी।

इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय ने संथानम के० गुरुक्कल बनाम सुब्रह्मण्यम गुरुक्कल’ के

1: देखिए भूषनलाल बनाम सुरेश, ए० आई० आर० 1987 इला० 251

2. ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 19441

3. तीरथ बनाम मनमोहन सिंह, ए० आई० आर० 1981 प० और हरि० 174; देखिए नामो देवी बनाम रतनचन्द, ए० आई० आर० 1990 हिमा० 47।

4. ए० आई० आर० 2003 म०प्र० 40 पूर्ण खण्डपीठ।

5. गुल्लापाली कृष्णदास बनाम विष्णु मलकल बेन्कय्या. ए० आई० आर० 1978 एस० सी० 361; दाखए सेल्लाम्मल बनाम नेलाम्मल, ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 1265; देखिए धमविता बाई बनाम शिवसिंह, ए० आई० आर० 1991 म० प्र० 18।

6. ए० आई० आर० 2006 सु० कोर्ट 32821 1. ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 20241 देखिए लक्ष्मी देवी बनाम शंकर झा, ए० आइ० आर० 1974 पटना 871

बाद में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ किसी मृत सहदायिकी की विधवा आंशिक संयुक्त सम्पत्ति के कब्जे में भरण-पोषण के एवज में थी और उसको उस सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण का कोई अधिकार नहीं प्राप्त था वहाँ धारा 14 (1) के अन्तर्गत वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी, भले ही अन्यसंक्रामण के अधिकार को न देकर उसके स्वामित्व को सीमित कर दिया गया रहा हो।

बी० मुथ्थु स्वामी बनाम अनंगामल’ के बाद में पुन: उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ पति की मृत्यु के बाद पत्नी अपने भरण-पोषण के लिए कुछ सम्पत्ति सीमित अधिकार के रूप में प्राप्त करती है वहाँ धारा 14 (1) के अन्तर्गत उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायगी. और ऐसी सम्पत्ति का संक्रामण किसी भी रूप में कर सकती है।

बाई बाजिया बनाम ठाकुर भाई चेला भाई के बाद में उच्चतम न्यायालय ने पुन: यह संप्रेक्षित किया कि जहाँ किसी स्त्री को कोई सम्पत्ति भरण-पोषण के एवज में पाने का अधिकार है और भरण-पोषण के अधिकार के परिणामस्वरूप सम्पत्ति बकाया में भी पाने का अधिकार होता है, वहाँ यह अधिकार उसके पूर्ण सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार में भले ही न परिणत होता हो किन्तु इस प्रकार की प्राप्तव्य सम्पत्ति पर उसे पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। भरण-पोषण के सम्बन्ध में कोई लेखपत्र लिखा जाय या न लिखा जाय उसके लिखे जाने के पूर्व से ही उसका अधिकार अस्तित्व में बना रहता है; अतएव वह उस सम्पत्ति की धारा 14 (1) के अधीन पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। इस प्रकार यदि कोई सम्पत्ति उसके कब्जे में विधिक तरीके से आई है और वह उस सम्पत्ति से उत्पन्न लाभों को प्राप्त करता है तो वह उसकी पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी। भरण-पोषण के एवज में प्राप्त की गई सम्पत्ति के विषय में उसे कोई स्वामित्व स्थापित करने की आवश्यकता नहीं है और वह धारा 14 (1) के अन्तर्गत सम्पूर्ण स्वत्व प्राप्त कर लेगी।

श्रीमती पालचूरी हनुम्यम्मा बनाम टी० कोटिलिंगम के वाद में पति ने अपनी सम्पत्ति को वसीयत के माध्यम से अपनी पत्नी को भरण पोषण हेतु जीवन पर्यन्त के लिये दिया तथा उसी वसीयत के माध्यम से पत्नी की मृत्यु हो जाने की दशा में वह सम्पत्ति उसकी पुत्रियों में बराबर भाग में बांट देने की बात कही। इसी दौरान हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 पारित हो गया। प्रस्तुत मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जो सम्पत्ति पति द्वारा पत्नी को उसके भरण पोषण के लिये प्रदत्त की गयी थी, ऐसी सम्पत्ति की वह धारा 14 (1) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत पूर्ण स्वामित्व प्राप्त करेगी तथा ऐसी सम्पत्ति में पत्नी की मृत्यु के पश्चात पुत्रियों को कोई अधिकार नहीं प्राप्त होगा।

रघुवीर सिंह बनाम गुलाब सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि एक विधवा महिला को अपने पति की सम्पत्ति में भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। विधवा के पति ने ऐसी सम्पूर्ण सम्पत्ति की वसीयत अपने पौत्र के पक्ष में कर दिया था, जिसके अन्तर्गत उस सम्पत्ति को भी देने की बात कही गयी थी जो विधवा के कब्जे में थी। ऐसे मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ विधवा किसी सम्पत्ति को अपने भरण-पोषण के सम्बन्ध में प्राप्त करती है और उस सम्पत्ति पर उसका पूर्ण नियन्त्रण, निरन्तर बना रहता है तो ऐसी स्थिति में वह धारा 14 (1) के अन्तर्गत उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी मानी जायेगी और ऐसी स्थिति में पौत्र उस सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिये किसी भी प्रकार कोई वाद न्यायालय में नहीं ला सकता, अर्थात् विधवा के पति के वसीयत का कोई प्रभाव उस सम्पत्ति पर नहीं पड़ेगा जो विधवा के कब्जे में थी।

1. ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 12791

2. ए० आई० आर० 1979 एस० सी० 9931

3. गुलवंत कौर बनाम मोहिन्दर सिंह, ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 2251

4. ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 3062.

5. ए० आई० आर० 1998 एस० सी०; पृ० 2401।

चेराटी सुगथन बनाम चेराटी भागीरथी एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ हिन्दू विधवा स्त्री ने अपने पूर्व पति से कोई सम्पत्ति प्राप्त किया हो और ऐसी सम्पत्ति पर उनका पूर्ण अधिकार स्थापित हो चुका हो, तथा कुछ समय पश्चात् वह दूसरा विवाह सम्पन्न कर लेती है तो ऐसी दशा में पूर्व पति की सम्पत्ति जो उसमें निहित हो गयी हो, उसके पुनर्विवाह से ऐसी सम्पत्ति अनिहित नहीं होगी क्योंकि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पारित होने के पश्चात् वह ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी होगी।

विभाजन के परिणामस्वरूप समझौते से जो भी सम्पत्ति विधवा के नाम आती है, भले ही अपने जीवन-काल में वह उसकी सीमित स्वामिनी रही हो, किन्तु अधिनियम के लागू होने के बाद वह उसकी पूर्ण स्वामिनी हो जाती है। यह बात पर्याप्त है कि वह सम्पत्ति पर स्वामित्व का अधिकार रखती थी, भले ही उसका स्वामित्व-अधिकार सीमित रहा हो। शम्भूचरन शुक्ला बनाम श्री ठाकुर लाडली राधा चन्द्र मदन गोपाल जी महराज के मामले में उच्चतम न्यायालय ने संप्रेक्षित किया कि शिवायती एक अचल हस्तान्तरणीय सम्पत्ति की भाँति है जो इस पद के अन्तिम धारक के बाद उसकी विधवा में न्यागत हो जाता है। जहाँ कोई मूर्ति स्थापित की जाती है और उसके नाम चल-अचल सम्पत्ति समर्पित की जाती है तो उसका प्रबन्धक शिवायत उस सम्पत्ति की देख-रेख करता है। इस मामले में शिवायती पद को प्रबन्धक ने अपने इच्छापत्र द्वारा पत्नी को दे दिया था किन्तु पत्नी को सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण करने का कोई अधिकार नहीं दिया, वहाँ अधिनियम के लागू होने के बाद वह सीमित अधिकार (शिवायती अधिकार) पूर्ण स्वामित्व के अधिकार में परिणित हो जायेगा।

उच्चतम न्यायालय ने इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण वाद दीनदयाल बनाम राजाराम निर्णीत किया है जिसमें एक विधवा अपने पति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति दाय में प्राप्त करती है और उसको अपनी पुत्री को दान में दे देती है। पुत्री की मृत्यु के बाद वह उस सम्पत्ति पर पुनः अपना कब्जा स्थापित कर लेती है। हिन्द्र उत्तराधिकार अधिनियम के लागू होने के समय वह उस सम्पत्ति के कब्जे में बनी रहती है। ऐसी सम्पत्ति पर उसका कब्जा अतिचारी-जैसा माना जायेगा और वह अतिचारी-जैसा उस पर मृत्युपर्यन्त कब्जा बनाये रखेगी। उसको धारा 14 (1) के अन्तर्गत सम्पूर्ण स्वामित्व नहीं प्राप्त होगा और न ऐसी सम्पत्ति के कब्जे के सम्बन्ध में उपधारा (1) का प्रावधान लागू किया जायेगा। अधिनियम में कब्जा को दो अर्थों में प्रयुक्त किया गया है

प्रथम यह कि, उसको सम्पत्ति पर आधिपत्य रखने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए और दूसरा यह कि उसे सम्पत्ति के वस्तुतः प्रलक्षित कब्जे में होना चाहिए।

हरीदत्त बनाम शिवराम के वाद में एक हिन्दू स्त्री ने अपने श्वसुर से संयुक्त सम्पत्ति के एक भाग को भरण-पोषण के रूप में दान में अधिनियम के पूर्व प्राप्त किया। उसके पति ने पिता के इस दान को चुनौती दी और उसे अविधिमान्य घोषित करने के सम्बन्ध में वाद दायर कर दिया। बाद में उनमें आपसी समझौता हो गया और इस समझौता-डिक्री के आधार पर उपर्युक्त स्त्री को उस दान की सम्पत्ति में जीवनहित प्रदान कर दिया गया। उस स्त्री ने अधिनियम के पास हो जाने के पश्चात् 1963 में उस सम्पत्ति के विषय में एक इच्छापत्र लिख दिया। इच्छापत्र की वैधता पर विचार करते हुए न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इच्छापत्र विधिमान्य होगा, क्योंकि वह स्त्री उस सम्पत्ति की, जिसे प्रथमत: दान में प्राप्त की थी, अधिनियम के लागू हो जाने के बाद पूर्ण स्वामिनी हो गयी थी; अतएव इच्छापत्र वैध हो जायेगा। न्यायालय की यह अभिधारणा थी कि पूर्व दान को शून्य घोषित

1. एस० सी० सी० डी० (2008) एस० सी० 6751

2. आशाराम बनाम सरजूबाई, ए० आई० आर० 1976 बा० 2721

3. ए० आई० आर० 1985 एस० सी० 9051

4. ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 10191

5. दीनदयाल बनाम राजाराम, ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 10191

6. ए० आई० आर० 1979 एच० पी० 41

नहीं किया जा सकता था, बीच में आपसी समझौता हो गया था जिससे दान में दी गयी सम्पत्ति पर उसका अधिकार बना रहा। अतएव धारा 14 (1) का उपबन्ध मामले में आकर्षित हो गया।

गोपाल सिंह बनाम विलेराम के मामले में उपर्युक्त अवधारणा को न्यायालय ने पुन: दोहराया। इस मामले में अधिनियम के लागू होने के पूर्व एक विधवा ने सीमित सम्पदा के सम्बन्ध में एक दानपत्र लिखा, जिसकी वैधता को चुनौती दे दी गयी। बाद में एक समझौता आज्ञप्ति पक्षकारों के बीच पास हो गयी और दानपत्र निष्प्रभावी घोषित कर दिया गया और इस प्रकार वह सम्पत्ति पुन: उस विधवा के पास लौट आयी और वह उसकी सीमित अधिकारिणी बनी रही। ऐसी सम्पत्ति के कब्जे में वह अधिनियम लागू होने के दिन तक बनी रही और बाद में उस सम्पत्ति को वसीयतनामे द्वारा दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित कर दिया गया। इस वसीयतनामा की वैधता का प्रश्न उठा जिस पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अधिनियम लागू होने के बाद वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो गयी थी और इस प्रकार जो वसीयतनामा उसने किया वह पूर्णरूप से वैध हो गया।

इस अधिनियम के माध्यम से शास्त्रीय हिन्दू विधि में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह लाया गया कि हिन्दू विधवायें उत्तराधिकार एवं दाय के मामले में उत्तराधिकारियों के साथ समान स्थिति में लायी गयी हैं। धारा 146) यह आख्या करती है कि एक हिन्दू स्त्री द्वारा धारित कोई सम्पत्ति चाहे यह अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् अर्जित की गयी हो, उसकी पूर्ण स्वामिनी के रूप में उसके द्वारा धारित की जायेगी, अर्थात् पति के मृत्यु के पश्चात् उसका सम्पूर्ण हिस्सा विधवा में निहित होगा यदि अन्य उत्तराधिकारी मौजूद न हो। पुन: उच्चतम न्यायालय ने सन्तोष व अन्य बनाम सरस्वती बाई व अन्य के वाद में यह अभिनिर्धारित करते हुये यह स्पष्ट किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14(1) के अन्तर्गत न केवल वह भूमि शामिल है जिसकी महिला कब्जाधारी है, बल्कि वह भूमि भी शामिल है जिस पर महिला को कब्जा धारण करने का अधिकार है और ऐसी विधवा महिला का उत्तराधिकार धारा 6, 8 एवं 12 द्वारा शासित होगा।

अधिनियम के पूर्व अन्यसंक्रामण-कोई भी हिन्दू स्त्री, जो सीमित सम्पदा अधिनियम के लागू होने के पूर्व रखती थी, और उसे विधिक आवश्यकता के लिए अन्यसंक्रामित कर सकती थी, यदि उसने इस प्रकार की आवश्यकता के बिना सम्पत्ति को हस्तान्तरित किया है तो वह अमान्य घोषित किया जा सकता है।

नरेश कुमारी बनाम सरवई लाल’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इस वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ कोई विधवा जो सीमित सम्पदा की उत्तराधिकारिणी है और उसने उस सम्पत्ति का बिना विधिक आवश्यकता के अन्तरण कर दिया है तो उसके द्वारा अन्तरण की गयी सम्पत्ति को अमान्य माना जायेगा। न्यायालय ने उपरोक्त वाद में यह सम्प्रेक्षित किया कि विधवा ने ऐसा अन्तरण 1956 के पूर्व किया था। अत: उसके द्वारा किया गया ऐसा अन्तरण अमान्य माना जायेगा।

लेकिन जहाँ किसी सम्पत्ति का अन्तरण इस अधिनियम के पश्चात् किया गया हो वहाँ ऐसा अन्तरण वैध होगा।

नल्लन बनाम वेल्लियन कुडुम्बन के मामले में ‘अ’ नामक एक विधवा स्त्री, जो कि अपने पति के मृत्योपरान्त सम्पत्ति की सीमित स्वामिनी थी, अ ने उस सम्पत्ति को हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम

1. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 23941

2. चेरोटे शुत्राधन बनाम चेरोटे भारथी, ए० आई० आर० 2008 एस० सी० 1467.

3. ए० आई० आर० 2008, एस० सी० 5001

4. ए० आई० आर० 1999 एस० सी० 9281

5. रामधर सिंह बनाम देवसरन सिंह, ए० आई० आर० 2013 पटना 155.

6. ए० आई० आर० 2001 मद्रास 71

1956 के पारित होने के पूर्व बिना विधिक आवश्यकता के “ब” नामक व्यक्ति को बेंच दिया। विधवा द्वारा बेची गयी सम्पत्ति को उसके उत्तराधिकारियों ने न्यायालय के समक्ष चुनौती दिया। इस वाद में उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कोई भी विधवा स्त्री जो सीमित सम्पदा की स्वामिनी है वह उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 का लाभ 1956 के एक्ट पारित होने के पूर्व नहीं ले सकती क्योंकि 1956 के पूर्व ऐसी स्त्री जो पति की मत्य के पश्चात् कोई सम्पत्ति प्राप्त करती है वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी नहीं होगी। यदि ऐसी कोई सम्पत्ति अधिनियम के पूर्व विक्रय की जाती है तो ऐसा विक्रय विधिमान्य नहीं माना जायेगा, एवं ऐसी सम्पत्ति उस विधवा स्त्री के मृत्योपरान्त उसके विधिक उत्तराधिकारियों को न्यागत होगी।

जब स्त्री सम्पत्ति को इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व बेच देती है तो उससे यह समझा ___ जायेगा कि वह उस सम्पत्ति के कब्जे से अलग हो चुकी है और यह नहीं कहा जा सकता है कि

अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय सम्पत्ति उसके कब्जे में थी और यदि इस प्रकार है तो धारा 14

(1) भी अनुवर्तित नहीं की जा सकती है। धारा 14 का उद्देश्य अन्यसंक्रामिती को लाभ देने का नहीं __ है। जहाँ अधिनियम के पूर्व एक विधवा, सम्पत्ति की सीमित अधिकारिणी थी, उस सीमित हक को

दूसरी स्त्री को हस्तान्तरित कर देती है, वहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि उस स्त्री के कब्जे में

वह सीमित हक धारा 14 के अनुसार पूर्ण हक में बदल जायेगा। धारा 14 केवल उसी सम्पत्ति के _ विषय में पूर्ण स्वत्व प्रदान करती है जो किसी भी विहित तरीके से उसके कब्जे में आती है। इसका

यह उद्देश्य नहीं है कि सम्पत्ति को बेच देने अथवा दान में देने के बाद उसको पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। जहाँ कोई हिन्दू स्त्री स्थायी रखैल पत्नी की हैसियत से मासिक भरण-पोषण प्राप्त करती है तथा मकान के एक भाग में उसे आजीवन हित (Life estate) प्रदान कर दिया जाता है और इस आशय का एक पारिवारिक समझौता उसके निवास के अधिकार को मान्यता देते हुए कर लिया जाता है वहाँ उसका आजीवन हित, जो मकान के भाग से सम्बद्ध है, सम्पूर्ण हित में धारा 14 (1) के अन्तर्गत परिवर्तित हो जायेगा।

उच्चतम न्यायालय ने कलावती बाई बनाम सोर्याबाई का महत्वपूर्ण वाद निर्णीत किया है जिसमें यह कहा गया कि धारा 14 (1) के अन्तर्गत किसी सम्पत्ति के सम्पूर्ण या आत्यंतिक सम्पत्ति होने के लिए यह आवश्यक है कि हिन्दू स्त्री उस सम्पत्ति की सीमित अधिकारिणी इस वर्तमान अधिनियम के लागू होने के दिन के पूर्व तक रही हो। यदि ऐसा नहीं है और वह उस सम्पत्ति को अनधिकृत रूप से धारण कर रही है तो धारा 14 (1) का लाभ नहीं मिलेगा। प्रस्तुत मामले में एक हिन्दू विधवा ने जो सम्पत्ति अधिनियम लागू होने के पूर्व अपने पति से उसके मर जाने के बाद दाय में प्राप्त किया था अपनी एक पुत्री को 1954 में दान में दे दिया। इस दान की वैधता को उसकी दूसरी पुत्री ने चुनौती दिया। दानग्रहीता पुत्री ने अधिनियम लागू हो जाने पर उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में धारा 14 (1) के अधीन सम्पूर्ण स्वामित्व का दावा किया किन्तु न्यायालय ने इस बात को मानने से अस्वीकार कर दिया और दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया। न्यायालय का कथन है कि हिन्दू विधवा द्वारा किया गया दान बिना किसी विधिक आवश्यकता के था और इस प्रकार दान इसलिए शून्य था। अत: दानग्रहीता जो अधिनियम के पूर्व से उस सम्पत्ति को धारण कर रही थी निराधार था और उस पर उसका कब्जा बिना किसी विधिक अधिकार के था। उसे उस सम्पत्ति पर न तो सीमित स्वामित्व और न ही किसी प्रकार का स्वामित्व प्राप्त हुआ था अतः ऐसी सम्पत्ति के कब्जे में बने रहने का कोई लाभ धारा 14 (1) के अन्तर्गत नहीं प्राप्त होगा, अर्थात् उस सम्पत्ति की वह पूर्ण स्वामिनी नहीं होगी।

“हिन्दू स्त्री के कब्जे में थी” इस पद के अर्थ एवं प्रभाव के विषय में बहुत अधिक न्यायिक

1. श्रीमती मनगम्मा बनाम एम० बी० सुब्बारमप्पा, ए० आई० आर० 1994 ए० पी० 147||

2. आनन्दबन्धु सेन बनाम श्रीमती चंचलबाई दासी, ए० आई० आर० 1976 कल० 2031

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