LLB Hindu Law Chapter 7 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download

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सगा, सौतेला एवं सहोदर (Full blood, half blood and uterine blood) (Hindu Law Study Material in Hindi)

(अ) कोई दो व्यक्ति एक-दूसरे के सगे-सम्बन्धी तब कहलाते हैं जब कि वे एक ही पूर्वज तथा उसकी एक ही पत्नी की सन्तान हों।

(ब) कोई दो व्यक्ति एक-दूसरे के सौतेले सम्बन्धी तब होते हैं जब कि वे एक ही पूर्वज किन्तु उसकी भिन्न पत्नियों से उत्पन्न हुए हों।

(स) एक-दूसरे के सहोदर सम्बन्धी तब होते हैं जब कि वे एक ही पूर्वजा से किन्तु उसके भिन्न पतियों से उत्पन्न हुए हों।

यहाँ पूर्वज शब्द से पिता एवं पूर्वजा से माता का तात्पर्य है। इस अधिनियम में सहोदर सम्बन्धियों को जो मान्यता प्रदान की गई है, वह हिन्दू विधि में एक नयी बात है। सहोदर सम्बन्धियों को मान्यता प्रदान करने की आवश्यकता हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 में विवाह-विच्छेद एवं पुनर्विवाह के अधिकार के प्रावधान को प्रदान करने का परिणाम है। विवाह-विच्छेद के बाद पत्नी दूसरा विवाह कर सकती है। उसके पहले विवाह तथा दूसरे विवाह की सन्ताने परस्पर सम्बन्धित होंगी और उनका यह सम्बन्ध ‘सहोदर’ होगा।

मरुमक्कत्तायम विधि-मरुमक्कत्तायम विधि का उस विधि से तात्पर्य है जो उन व्यक्तियों पर लागू होती है जो यदि उत्तराधिकार अधिनियम न पारित हुआ होता तो मद्रास मरुमक्कत्तायम अधिनियम, 1932, त्रावनकोर नायर अधिनियम, त्रावनकोर ईजवर अधिनियम, त्रावनकोर नान्जिनाड वेल्लाला अधिनियम, त्रावनकोर क्षत्रिय अधिनियम, त्रावनकोर कृष्णवह मरुमक्कत्तायी अधिनियम और कोचीन मरुमक्कत्तायम अधिनियम द्वारा उन विषयों के सम्बन्ध में प्रशासित होते जिनके लिए उत्तराधिकार अधिनियम द्वारा उपबन्ध किया गया है अथवा जो ऐसे समुदाय का है जिसके सदस्य अधिकतर त्रावनकोर कोचीन अथवा मद्रास राज्य के अधिवासी हैं और यदि यह अधिनियम पास न हुआ होता तो उन विषयों के सम्बन्ध में जिनके लिए अधिनियम द्वारा उपबन्ध किया गया है, दाय में ऐसी पद्धति से प्रशासित होते जिनमें वंशानुक्रम स्त्री की वंश-परम्परा से गिना जाता है, किन्तु इसके अन्तर्गत अलियसन्तान विधि सम्मिलित नहीं है।

नम्बूदरी विधि-नम्बूदरी विधि का उस विधि से तात्पर्य है जो कि यदि उत्तराधिकार अधिनियम न पास हुआ होता तो उन विषयों के सम्बन्ध में, जिनके लिए उत्तराधिकार अधिनियम में उपबन्ध किया गया है, मद्रास नम्बूदरी अधिनियम, 1932, कोचीन नम्बूदरी अधिनियम या त्रावनकोर मलापल्ल ब्राह्मण अधिनियम द्वारा प्रशासित होते। यह विधि भी मद्रास तथा त्रावनकोर के एक वर्ग के लोगों की रूढ़िगत विधि थी जो उपर्युक्त अधिनियम द्वारा संहिताबद्ध कर दी गयी थी। वर्तमान उत्तराधिकार अधिनियम के अभाव में उन व्यक्तियों पर उपर्युक्त अधिनियमों में वर्णित विधि लागू होती है।

अधिनियम का सर्वोपरि प्रभाव-धारा 4 के अनुसार इस अधिनियम में अन्यथा उल्लिखित उपबन्ध को छोड़कर-

(1) (क) हिन्दू विधि का कोई पाठ, नियम या निर्वचन या उस विधि की अंशरूप रूढ़ि अथवा प्रथा जो इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के ठीक पूर्व प्रवृत्त थी, ऐसी बात के बारे में प्रभाव-शून्य हो जायेगी जिसके लिए कि इस अधिनियम में उपबन्ध किया गया है।

(ख) कोई अन्य विधि जो इस अधिनियम के प्रारम्भ से अव्यवहित पूर्व प्रवृत्त थी, उस सीमा तक हिन्दुओं को नहीं लागू होगी जहाँ तक कि वह इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट उपबन्धों में से किसी से असंगत है।

(2) शंकाओं को दूर करने के लिए यह घोषित किया जाता है कि इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट किसी भी बात से यह नहीं समझा जायेगा कि वह कृषक जोत के खण्डीकरण (Fragmentation of agricultural holding) के निवारण के लिए अथवा जोत की अधिकतम सीमा को नियत करने के

लिए अथवा जोत-अधिकारों के न्यागमन के लिए उपबन्ध करने वाली प्रचलित विधि को प्रभावित करेगी। इस प्रकार वे सभी प्रथायें अथवा रूढ़ियाँ, पाठ तथा नियम जो वर्तमान अधिनियम के विपरीत तथा उससे असंगत हैं, अधिनियम द्वारा निरस्त कर दिये गये हैं। अधिनियम द्वारा ज्येष्ठाधिकार का नियम, जो पहले प्रचलित था, समाप्त कर दिया गया। किन्तु उन विषयों के सम्बन्ध में पूर्व विधि ही प्रचलित मानी जायगी जहाँ वर्तमान अधिनियम मौन है। यह अधिनियम कृषक जोतों के खण्डीकरण के सम्बन्ध में उपबन्धित विधि को प्रभावित नहीं करता।

अधिनियम प्रथाओं को साररूप से समाप्त करने की व्यवस्था नहीं प्रदान करता वरन् उनको उसी सीमा तक प्रभावित करता है जहाँ तक वे अधिनियम में दिये गये नियमों से असंगत हैं। यदि किसी प्रथा का कुछ अंश अधिनियम के अनुसार समाप्त कर दिया गया है तो उस प्रथा के दूसरे अंश को मान्यता देने का अर्थ यह नहीं होगा कि संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार समानता के सिद्धान्त का उल्लंघन हुआ है।

अधिनियम की धारा 4 हिन्दू विधि के केवल उन्हीं प्रावधानों एवं नियमों का निराकरण करती है जो इस अधिनियम के उपबन्धों के विरोध में हैं। यह अधिनियम हिन्दू विधि के उन समस्त नियमों को निराकृत नहीं करता जिनके सम्बन्ध में अधिनियम में कोई प्रावधान नहीं बनाया गया है। अत: उन सम्पत्तियों के सम्बन्ध में, जहाँ विधवा उसकी पूर्ण स्वामिनी नहीं हुई है तथा उस सम्पत्ति को अधिनियम के लागू होने के पूर्व हस्तान्तरित कर चुकी है तथा हस्तान्तरण बिना किसी आवश्यकता अथवा प्रलाभ के हुआ है, तो उस दशा में उत्तरभोगियों के अधिकार का प्रत्यय अब भी लागू होता है।

पटना उच्च न्यायालय ने अधिनियम के प्रभाव के सम्बन्ध में पुन: यह विचार व्यक्त किया कि उत्तराधिकार अधिनियम पारित होने के पश्चात् यह अधिनियम पूर्व विधियों के प्रभाव पर भी लागू होगा अर्थात् उनका प्रभाव उन पर बना रहेगा।

अधिनियम की योजना-इस अधिनियम के अन्तर्गत तीन प्रकार के उत्तराधिकार की विवेचना की गई है-

(1) मिताक्षरा सहदायिक की मृत्यु के बाद सहदायिकी सम्पत्ति में उसके अंश का न्यागमन (धारा 6)।

(2) हिन्दू पुरुष के निर्वसीयत मरने के बाद उसकी सम्पत्ति का न्यागमन (धारा 8 से 13)। (3) हिन्दू स्त्री की सम्पत्ति का उसके निर्वसीयत मरने के बाद न्यागमन (धारा 15 एवं 16)।

धारा 6 के अधीन यह व्यवस्था की गई है कि यदि किसी मिताक्षरा सहदायिक की मृत्यु हो जाय जिसका मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अपना हिस्सा था तो उसके हिस्से की सम्पत्ति का न्यागमन अनसची के प्रथम वर्ग में बताये गये स्त्री दायादों के अभाव में उत्तरजीविता के सिद्धान्त (Rule of Survivorship) के अनुसार होगी।

किसी भी हिन्दू पुरुष द्वारा निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मरने पर अधिनियम के बाद उत्तराधिकार के जो सामान्य नियम लागू किये जायेंगे तथा उत्तराधिकारियों में अंश के निर्धारण में जो नियम प्रतिपादित किये जायेंगे, उनका उल्लेख अधिनियम की धारा 8 से 13 के अन्तर्गत किया गया है। 4 धारा 15 तथा 16 के अन्तर्गत यह व्यवस्था प्रदान की गई है कि स्त्रियों की निर्वसीयती सम्पत्ति का उत्तराधिकार मक रूप से निश्चित किया जायेगा। धारा 17 के अन्तर्गत मालावार तथा अलियसन्तान विधि से पशासित हिन्द परुषों तथा स्त्रियों की सम्पत्ति के उत्तराधिकार में परिवर्तन तथा संशोधन लाये गये हैं। धारा 18 से लेकर 28 तक का वर्णन “उत्तराधिकार के सामान्य नियम’ शीर्षक से सम्बोधित किया

  1. केसर देवी बनाम नानक सिंह, 1958 पंजाब 441
  2. 2 गंगाधर चरन बनाम सरस्वती, आई० एल० आर० 1962 कटक 596; 1962 उड़ीसा 1901
  3. २ राम सिंगारी देवी व अन्य बनाम गोविन्द ठाकुर, ए० आई० आर० 206 पटना 169/
  4. 4 देखें परेरा दामोदर दास महन्त बनाम दामोदर दास महन्त, ए० आई० आर० 2015, बम्बई 24.

गया है तथा वे धारा 5 से लेकर 17 तक के पूरक रूप में अन्तर्विष्ट किये गये हैं।

अब तक मिताक्षरा तथा दायभाग में संयुक्त तथा पृथक् स्वार्जित सम्पत्ति के विषय में जो दो भिन्न पद्धतियाँ प्रचलित थीं, वे अधिनियम में समाप्त कर दी गयी हैं (धारा 8)। अधिनियम के लाग होने के बाद उत्तराधिकारियों का वर्गीकरण जो सपिण्डों, समानोदकों तथा बन्धुओं में किया गया था, समाप्त कर दिया गया है। उत्तराधिकारियों को चार वर्गों में विभाजित किया गया है जो इस प्रकार

(1) अनुसूची के प्रथम वर्ग के उत्तराधिकारी।

(2) अनुसूची के द्वितीय वर्ग के उत्तराधिकारी।

(3) सपित्र्य (Agnates)।

(4) बन्धु (Cognates)।

नारी की सीमित सम्पदा की अवधारणा का अब उन्मूलन कर दिया गया है। अधिनियम के अनुसार किसी स्त्री के द्वारा प्राप्त की गई अथवा अधिकृत सम्पत्ति अब उसकी निधि पूर्ण सम्पत्ति मान ली गई है। अब हिन्दू नारी स्वेच्छा से उस सम्पत्ति का किसी प्रकार से निर्वर्तन कर सकती है। इस अधिनियम के लागू होने के दिन भी यदि कोई सम्पत्ति उसके कब्जे में रही है, जो अधिनियम के लागू होने के पूर्व अथवा बाद में प्राप्त हुई, तो उस सम्पत्ति के विषय में भी पूर्वप्रयुक्त नियन्त्रण तथा बाधायें अब समाप्त कर दी गईं। अब उस सम्पत्ति को हिन्दू नारी पूर्ण स्वामिनी के रूप में न कि बाधित स्वामिनी के रूप में धारण करती है। (धारा 14)।

स्त्रीधन का उत्तराधिकार-नारी-सम्पदा के विषय में न्यागमन का सिद्धान्त नारी के विवाहिता अथवा अविवाहिता रहने की दशा के अनुसार तथा विवाह के प्रकार के अनुसार बदलता रहता था। स्त्रीधन के स्रोत के अनुसार भी उत्तराधिकार के सिद्धान्त में परिवर्तन आते हैं। अधिनियम की धारा 15 के अन्तर्गत उपर्युक्त नियमों को समाप्त कर दिया गया तथा हिन्द्र स्त्री के निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर अधिनियम के लागू होने के बाद मरने पर उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में एक समान नियम अपनाया गया। नारी के निर्वसीयती सम्पत्ति के उत्तराधिकारियों को पाँच श्रेणियों में रखा गया जो धारा 15 के (ए) से (ई) तक की प्रविष्टियों में दिया गया है।

अधिनियम यद्यपि उत्तराधिकार से ही सम्बन्धित है, फिर भी सहदायिकी को विशेष रूप से प्रतिधारित किया गया है। अधिनियम में यह कहा गया है कि जहाँ कोई सहदायिक निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मरता है, मिताक्षरा सहदायिकी विनष्ट नहीं हो जाती। मिताक्षरा विधि से प्रशासित संयुक्त परिवार की विचारधारा के अनुसार संयुक्त परिवार के सदस्य का सहदायिकी सम्पत्ति में हक बढ़ता-घटता रहता है। परिवार के किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर अन्य शेष सदस्यों का सम्पत्ति में हक बढ़ जाता है तथा किसी व्यक्ति के जन्म लेने पर उन सदस्यों का हक घट जाता है। सदस्यों का हक संयुक्त परिवार के विभाजन होने के बाद ही निश्चित होता है। धारा 6 संयुक्त परिवार को बिना समाप्त किये हुये किसी सहदायिकी की मृत्यु के बाद उसके अधिमान्य उत्तराधिकारियों को संयुक्त सम्पत्ति में हक का दावा करने के अधिकार की व्याख्या करती है। वह हक उसी प्रकार निर्धारित किया जायेगा जैसे कि ठीक उसकी मृत्यु के पूर्व विभाजन होने पर उस सहदायिक का हक निश्चित किया गया होता।

इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व यह एक सुप्रतिष्ठित नियम था कि कोई हिन्दू इच्छापत्र द्वारा किसी ऐसी सम्पत्ति का उत्तरदान (bequeath) नहीं कर सकता जिसका हस्तान्तरण वह दान के रूप में नहीं कर सकता। दायभाग विधि में कोई भी सहभागीदार दान के रूप में अपनी समस्त सम्पत्ति का चाहे वह पैतृक हो अथवा स्वार्जित, निर्वर्तन कर सकता है। मिताक्षरा विधि में कोई भी सहदायिक अपने सहदायिकी हक को दानरूप में देने का अधिकार नहीं रखता। अब कोई भी हिन्दू पुरुष अथवा स्त्री ऐसी सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा अथवा वसीयती व्ययन (Testamentary disposition) द्वारा भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 या अन्य किसी तत्समय प्रवृत्त विधि के अन्तर्गत (जो हिन्दुओं के लिये

लागू होती है) व्ययित कर सकेगा।

अन्य परिवर्तन जो अधिनियम द्वारा लाया गया, वह यह है कि अधिनियम की धारा 5 (2) तथा 5(3) को छोड़कर अविभाज्य सम्पदा को अन्यत्र मान्यता नहीं प्रदान की गई है।

निर्वसीयती उत्तराधिकार (Hindu Law Model Paper)

इस अध्याय का शीर्षक यद्यपि निर्वसीयती उत्तराधिकार है, किन्तु इसके अन्तर्गत अन्य बातों का, जैसे मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति तथा हिन्दू विधि द्वारा मान्य अन्य विशेष प्रकार की सम्पत्तियों का उल्लेख किया गया है। “निर्वसीयती’ पद का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से है जो बिना किसी वसीयती व्ययन के मर जाता है। यह ऐसी सम्पत्ति की ओर भी संकेत करता है जो उपर्युक्त व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद उत्तराधिकारियों में न्यागत होने के लिये छोड़ता है। यह अध्याय उन दायादों का उल्लेख करता है जो उत्तराधिकार के अधिकारी हैं। इस अध्याय में सम्पत्ति के न्यागमन का भी क्रम दिया गया

यह अधिनियम मृतक हिन्दू के, धारा 5 में दी गई सम्पत्ति को छोड़कर सभी सम्पत्तियों के सम्बन्ध में लागू होता है। धारा 5 इस प्रकार है-

धारा 5-“यह अधिनियम

(1) ऐसी सम्पत्ति के विषय में लागू नहीं होगा जिसका उत्तराधिकार भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के द्वारा विशेष विवाह अधिनियम, 1954 की धारा 21 में अन्तर्विष्ट उपबन्धों के कारण विनियमित होता है;

(2) ऐसी किसी सम्पदा को लागू न होगा जो किसी भारतीय राज्य के शासक द्वारा भारत सरकार से की गई प्रसंविदा या समझौता की शर्तों द्वारा या इस अधिनियम के पूर्व पास किये गये अधिनियम की शर्तों द्वारा केवल एक दायाद (Heir) को न्यागत होती है।

(3) विलियम्स तम्मुशन कोविलकम पोतुस्वत्तु सम्पदा को लागू नहीं होता जो कि महाराजा कोचीन द्वारा 30 जून, 1949 को प्रख्यापित उद्घोषणा (1924 की 9) द्वारा प्रदत्त अधिकारों के आधार पर भरण समिति द्वारा प्रशासित है।

मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में न्यागमन की रीति संशोधन अधिनियम के पूर्व “(Devolution)—जैसा कि पूर्व उल्लिखित है कि मिताक्षरा विधि में सम्पत्ति के न्यागमन को दो क्रम प्रदान किया गया है—प्रथम उत्तरजीविता, दूसरा उत्तराधिकार। परिवार की पैतृक सम्पत्ति में उत्तरजीविता से हक उत्पन्न होता है तथा पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति में उत्तराधिकार द्वारा हक उत्पन्न होता है। हिन्दू पुरुष की सम्पत्ति पृथक् अथवा स्वार्जित हो सकती है अथवा सहदायिकी हो सकती है। अत: जब संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में न्यागमन का प्रश्न उठता है तो पैतृक तथा अपैतृक सम्पत्ति एवं अप्रतिबन्ध दाय तथा सप्रतिबन्ध दाय में अन्तर किया जाता है।

हिन्दू निर्वसीयती सम्पत्ति में उत्तराधिकार के क्रम को अधिनियम की धारा 5 के प्रतिबन्धों के साथ सन्नियमित किया गया है।

धारा 6 के अन्तर्गत हिन्दू पुरुष की सहदायिकी सम्पत्ति (Coparcenaries property) के न्यागमन का विवेचन किया गया है। धारा 6 इस प्रकार है

जब कोई पुरुष हिन्दू मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अपनी मृत्यु के समय अपने हक को रखते हए इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पश्चात् मरता है तो उसका हक सहदायिकी में उत्तरजीवी सदस्यों र उत्तरजीविता के आधार पर न कि इस अधिनियम के उपबन्ध के अनकल न्यागत होगा।

किन्त यदि मृतक अनुसूची 1 में उल्लिखित किसी स्त्री नातेदार को या ऐसे किसी नातेदार को, जो ऐसी स्त्री नातेदार के माध्यम द्वारा हक का दावा करता है, छोड़कर मरता है तो मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में मतक का हक इस अधिनियम के अन्तर्गत उल्लिखित नियमों के अनुसार न कि उत्तरजीविता द्वारा

यथास्थिति वसोवती अथवा निर्वसीयती उत्तराधिकार द्वारा न्यागत होता है।

व्याख्या-(1) इस धारा के प्रयोजनों के लिए, हिन्द्र मिताक्षरा सहदायिक का हक सम्पत्ति का वह अंश है जो इस बात का विचार किये बिना कि वह सहदायिकी संम्पत्ति के विभाजन का दावा करने का हकदार था या नहीं, यदि उसकी मृत्यु के ठीक पूर्व सम्पत्ति का विभाजन किया गया होता तो उसे हिस्से के रूप में मिलता।

धारा 6 के स्पष्टीकरण 1 के निर्वचन से यह स्पष्ट होता है कि इसके माध्यम से किसी पैतृक सम्पत्ति के काल्पनिक विभाजन के माध्यम से यह खोजने का प्रयास किया जाता है कि उस व्यक्ति का जिसकी • मृत्यु नहीं हुयी है, उसका उस सम्पत्ति में क्या हिस्सा होता यदि उसकी मृत्यु हो जाती।

(2) इस धारा के परन्तुक में दी गई किसी बात का यह अर्थ न लगाया जायेगा कि जिस व्यक्ति ने मृतक की मृत्यु के पूर्व सहदायिकी से अपने को पृथक् कर लिया है, उसे या उसके किसी दायाद को वह निर्वसीयती की अवस्था में हक पाने का दावा करने के योग्य बनाता है जिसके प्रति उस परन्तुक में निदेश किया गया है।

धारा 6 के इस उपरोक्त प्राविधान द्वारा मिताक्षरा सहदायिकी के मौलिक स्वरूप में क्रांतिकारी परिवर्तन हो गया। स्त्रियों को मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में किसी भी प्रकार से दाय का अधिकार नहीं प्राप्त था और न वे सहदायिकी की सदस्या ही समझी जाती थीं। सम्पत्ति का न्यागमन उत्तरजीविता से होता था, किन्तु अधिनियम की इस धारा में स्त्रियों को सहदायिकी सम्पत्ति में हक प्रदान कर दिया गया और उनकी मौजूदगी में उत्तरजीविता के सिद्धान्त को न लागू करके सम्पत्ति का न्यागमन उत्तराधिकार के उन नियमों के अनुसार किया जायेगा जैसा कि अधिनियम के प्रावधानों के अन्तर्गत किया गया है। वस्तुत: यदि यह कहा जाय कि मिताक्षरा सहदायिकी की शास्त्रीय विचारधारा धारा 6 के द्वारा यदि ध्वस्त नहीं कर दी गई तो प्रतिकूल रूप से इस प्रकार से प्रभावित हो चुकी है कि उसकी पहिचान (identity) समाप्त हो चुकी है तो गलत नहीं होगा।

इस धारा में सहदायिकी सम्पत्ति के न्यागमन के सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण नियम प्रतिपादित किया गया है। धारा के पूर्व में यह कहा गया है कि जब कोई हिन्दू पुरुष अधिनियम के बाद मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अपना हक छोड़कर मरता है तो उसकी सम्पत्ति का न्यागमन मिताक्षरा की उत्तरजीविता के नियम के अनुकूल होगा न कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार; किन्तु धारा के परन्तुक में यह कहा गया है कि यदि उपर्युक्त व्यक्ति अनुसूची (1) में उल्लिखित स्त्री नातेदार को या ऐसे पुरुष नातेदार को, जो स्त्री नातेदार से उत्पन्न हुआ है, छोड़कर मरता है तो सम्पत्ति का न्यागमन इस अधिनियम के नियम के अनुसार होगा। इस धारा में मुख्य बात यह है कि मृतक के यदि कोई स्त्री नातेदार या स्त्री नातेदार से उत्पन्न पुरुष नातेदार नहीं है तो पूर्व विधि के मिताक्षरा नियम के अनुसार सम्पत्ति का न्यागमन होगा अन्यथा उस प्रकार के नातेदार अथवा अनुसूची (1) में दिये गये नातेदारों के रहने पर मृतक का जो हक दायादों में विभाज्य है, व्याख्या में दिये गये नियम के अनुसार निर्धारित होगा। उसका हक वही होगा जो कि अपनी मृत्यु से ठीक पहले सम्पत्ति के विभाजन होने पर अपने वंश में प्राप्त करता। इस दशा में उसका हक इस अधिनियम के नियमों के अनुसार होगा, चाहे वह धारा 30 के अनुसार वसीयती ढंग से हो अथवा धारा 8 के अनुसार निर्वसीयती ढंग से हो। विश्वनाथ बनाम लोकनाथ के वाद में उच्च न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि अधिनियम की धारा 6 में किसी विभाजन की बात नहीं की गई है, बल्कि सम्पत्ति में • मत सहदायिक के हित का न्यागमन उपबन्धित है। काल्पनिक विभाजन जो धारा में बतलाया गया है, इस प्रकार के हित की सीमा को उस स्थिति में अवधारित करने के लिए है जब कि मृत हिन्दू अन्य सहदायिकी से बिना अलग हुए मर गया हो।

शंकर लाला राम प्रसाद लाधा बनाम बसन्त चण्डीदास राव देशमुख के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत सहदायिक सम्पत्ति के सम्बन्ध में

1. जगन्नाथ रंगनाथ चौहान बनाम सुमन घावेट, ए० आई० आर० 2014. एन० ओ० सी० 491 बम्बई।

2. राघोथमन् बनाम एम० पी० कनप्पन, ए० आई० आर० 1982 मद्रास 2351

3. ए० आई० आर० 1977 उड़ीसा 1701

4. ए० आई० आर० 2009 एन० ओ० सी० 2368 बाम्बे। देखें जगन्नाथ रंगनाथ चौहान बनाम सुमन । घावेट, ए० आई० आर० 2014, एन० ओ० सी० 491 मुम्बई।

इस उपर्युक्त आरेख में क संयुक्त सम्पदा का सर्वनिष्ठ पूर्वज है। क के जीवन-काल में उसके पुत्र च, छ, ज, झ, य तथा प, त, थ, द, ध उसके उसके पौत्र तथा फ, ट सहदायिक होंगे। क्योंकि वे सभी क की तीन पीढ़ी के वंशज के अन्तर्गत आते हैं। किन्तु यदि क की मृत्यु उपर्युक्त आरेख में वर्णित सन्तान की उपस्थिति में हो जाती है तो ब तथा ट सहदायिकी में प्रवेश कर जाते हैं, क्योंकि वे अन्तिम सम्पत्तिधारक च तथा य से तीन पीढ़ी के अन्तर्गत आ जाते हैं, किन्तु भ, म तथा ड फिर भी सहदायिक में नहीं आते। यदि च की भी मृत्यु हो जाती है तो भ सहदायिक हो जाता है, किन्तु म तथा ड फिर भी सहदायिक नहीं रह जाते। मान लीजिये य, फ, ब, भ उसके बाद मर जाते हैं तो ड भी सहदायिक हो जाता है, क्योंकि वह ध की तीन पीढ़ी के अन्तर्गत आ जाता है जो द के साथ सम्पत्ति धारण करता था। किन्तु म फिर भी सहदायिक नहीं होता, क्योंकि वह प के तीन पीढ़ी के बाहर हो जाता है जो च की वंशावली में अन्तिम धारक था। यदि बाद में प, ध, ट, ठ तथा झ भी मर जाते हैं तो सर्वनिष्ठ पूर्वज क के पुत्र छ, ज, तीन पौत्र त, थ, द तथा एक प्रपौत्र ड सहदायिकी ङ्केमें SIT जाते हैं, फिन्त म फिर भी सहदायिकी में नहीं आता। क्योंकि वह फिर भी अन्तिम सम्पत्तिधारक की तीन पीढ़ी के अन्तर्गत आने का अवसर नहीं प्राप्त करता। एक बार यदि कोई सदस्य सहदायिक हो जाता है तो वह न केवल अपने पूर्वज की शाखा का सहदायिक हो जाता है वरन् सहदायिकी की अन्य प्रत्येक शाखाओं के सदस्यों का सहदायिक हो जाता है।

सहदायिकी सम्पत्ति-सहदायिकी सम्पत्ति का अर्थ है(1) पैतृक सम्पत्ति, (2) पूर्वज पैतृक सम्पत्ति की सहायता से किसी सहदायिक के द्वारा अर्जित की गई सम्पत्ति, (3) इस प्रकार की सहायता के बिना भी सहदायिकों द्वारा संयुक्त रूप में अर्जित सम्पत्ति, (4) सामान्य कोष में सहदायिक द्वारा दी गई पृथक् सम्पत्ति। किसी हिन्दू पिता द्वारा संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति के विभाजन पर अपने पुत्रों के साथ प्राप्त पृथक् सम्पत्ति, उन पुत्रों के हाथ में सहदायिकी सम्पत्ति नहीं रह जाती जो पिता के जीवन-काल में ही पृथक् हो जाते हैं।

यह धारा ऐसी सहदायिकी की कल्पना करती है जिसमें अन्तिम रूप से सम्पत्तिधारक तथा एक अथवा एक से अधिक पुरुष संतान हों। यदि एक बार विभाजन के परिणामस्वरूप सहदायिकी समाप्त हो जाती है, तो पूर्व सहदायिकी का सदस्य दूसरे सदस्य से सम्पत्ति को उत्तरजीविता से नहीं प्राप्त कर सकता। यह धारा उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में नहीं लागू होती जो विभाजन के परिणामस्वरूप एक सहदायिक प्राप्त करता है और जिसे पृथक् सम्पत्ति की संज्ञा दी जाती थी।

परन्तु जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में कोई साक्ष्य मौजूद नहीं है वहाँ कोई सहदायिकी सम्पत्ति को किसी सहदायिक के द्वारा दान के माध्यम से अलग नहीं किया जा सकता और यदि किसी सहदायिक के द्वारा ऐसा दान किया गया है तो ऐसा दान प्रारम्भतः शून्य होगा।

किन्तु जहाँ किसी सहदायिकी सम्पत्ति का विभाजन न हुआ हो और सहदायिक एक साथ निवास न कर रहे हों वहाँ किसी सहदायिक की मृत्यु के पश्चात् ऐसी सहदायिकी सम्पत्ति अन्य सहदायिकों को न्यागत होगी।

स्त्री नातेदार तथा स्त्री नातेदार के माध्यम से दावा करने वाले पुरुष-अनुसूची (1) में उल्लिखित दायाद इस प्रकार हैं-(1) पुत्री, (2) विधवा, (3) माता, (4) पूर्वमृत पुत्र की पुत्री, (5) पूर्वमृत पुत्र के पूर्वमृत पुत्र की पुत्री, (6) पूर्वमृत पुत्र के पूर्वमृत पुत्र की विधवा पत्नी, (7) पूर्वमत पत्री का पुत्र, (8) पूर्वमृत पुत्री की पुत्री, (9) पूर्वमृत पुत्र की विधवा। इस प्रकार स्त्री नातेदार के माध्यम से दावा करने वाला पुरुष नातेदार केवल पूर्वमृत पुत्र का पुत्र ही होता है। इससे यह स्पष्ट है कि स्त्री

1. श्रीमती शुभामति देवी व अन्य बनाम अवधेश कुमार सिंह व अन्य, ए० आई० आर० 2012 पटना 451

2. एम० जी० पपन्ना बनाम जय वदाम्मा, ए० आई० आर० 2014 केरल 223 एन० ओ० सी०.

दायाद तथा सी के माध्यम से पुरुष दायादों की संख्या बहुत बड़ी है जिससे यह सदैव सन्देहास्पट बना रहता है कि उत्तरजीविता का नियम कभी लागू होगा अथवा नहीं। इस प्रकार का अवसर तभी उत्पन्न हो सकता है जब कि कोई सहदायिक केवल पुरुष नातेदारों को जैसे, पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र को छोड़कर मरता है तथा मिताक्षरा परिवार संगठित बना रहता है।

दृष्टान्त

अ, जो एक मिताक्षरा सहदायिकी सदस्य है, दो पुत्रों ब एवं स को छोड़कर मरता है। उसके न कोई स्त्री नातेदार है तथा न स्त्री नातेदार के माध्यम से दावा करने वाला पुरुष नातेदार, जैसा कि अनुसूची के वर्ग (1) में दिया गया है। ऐसी दशा में मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अ का हक उत्तरजीविता के अनुसार होगा न कि इस अधिनियम के उपबन्ध के अनुसार। प्रत्येक को समान अंश 1/2 अंश प्राप्त होगा।

उत्तरजीविता द्वारा न्यागमन-जब सहदायिकी का कोई सदस्य मर जाता है तो उसका हक अन्य सहदायिकियों में न्यागत हो जाता है न कि उसके अपने दायादों में जो सहभागीदार नहीं हैं। इस प्रकार मिताक्षरा सहदायिकी में जहाँ तीन भाई हैं, यदि कोई एक भाई मर जाता है तो उस भाई का हक शेष दो भाइयों में उत्तरजीविता से चला जाता है। उसका यह हक उसकी अपनी विधवा पत्नी में अथवा पुत्री या पुत्रों के पुत्र में न्यागत नहीं होता जैसा कि दायभाग शाखा में प्रदान किया गया था। दायभाग संयुक्त परिवार में उत्तरजीविता का नियम कोई महत्व नहीं रखता। यहाँ केवल उत्तराधिकार से सम्पत्ति न्यागत होती है।

जहाँ कोई सहदायिकी अपने को अन्य सहदायिकों से अलग कर लेता है और कोई सहदायिक सम्पत्ति मिताक्षरा शाखा के अन्तर्गत उत्तरजीविता के सिद्धान्त पर न्यागत होती है तो उस स्थिति में अलग हुआ सहदायिक मृतक की सम्पत्ति में किसी भी प्रकार के हिस्से की माँग नहीं कर सकता और न ही ऐसे अलग हुये व्यक्ति को मृतक की सम्पत्ति में किसी भी प्रकार की कोई भी हिस्सेदारी प्राप्त होगी।

जब हिन्दू विमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट अस्तित्व में न हो और किसी सहदायिक की मृत्यु हो गयी हो तो ऐसी स्थिति में सहदायिक सम्पत्ति दूसरे सहदायिक को न्यागत होगी। उसके अन्य दायादों को (पत्नी एवं पुत्री) ऐसी सम्पत्ति में किसी भी प्रकार की कोई हिस्सेदारी प्राप्त नहीं होगी।

मनजीत सिंह बनाम राजेन्द्र सिंह, के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि किसी राज्य में सहदायिकी सम्पत्ति के न्यागत होने के सम्बन्ध में कोई प्रथा मौजूद हो तो वहाँ ऐसी सम्पत्ति का न्यागमन, प्रथा के अनुरूप होगा न कि हिन्दू विधि के प्रावधानों के अन्तर्गत और जहाँ ऐसे राज्य का व्यक्ति जहाँ पर प्रथा मौजूद हो, वह किसी अन्य राज्य में जाकर बस जाता है वहाँ वह मूल राज्य में प्रचलित प्रथा का लाभ नहीं ले सकेगा वहाँ ऐसी सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में हिन्दू विधि के प्रावधान ही लागू होंगे।

लेकिन जहाँ किसी संयुक्त हिन्दू परिवार, सहदायिकी सम्पत्ति में कोई सहदायिक अपने विवाह के पश्चात् ऐसी सम्पत्ति के उपयोग एवं उपभोग में न रहा हो और जहाँ ऐसी सम्पत्ति का विभाजन पूर्व में किया जा चुका हो, यदि ऐसी सम्पत्ति का विक्रय किया जा रहा हो तो वहाँ ऐसी सहदायिकी सम्पत्ति में विक्रय के दौरान हिस्सा प्राप्त करने का वह हकदार नहीं होगा।’

दृष्टान्त

(1) एक मिताक्षरा सहदायिकी में पिता तथा उसके तीन पुत्र हैं। पिता की मृत्यु हो जाती है। तीनों पत्र समस्त सहदायिकी सम्पत्ति को उत्तरजीविता के नियम के अनुसार धारण करेंगे जिसके फलस्वरूप समस्त सम्पत्ति में प्रत्येक को 1/3 अंश प्राप्त होगा, अर्थात् प्रत्येक पुत्र के अंश में वृद्धि हो जायेगी जब कि पहले (पिता के जीवन-काल में) प्रत्येक को 1/4 अंश मिलता।

(2) एक मिताक्षरा संयुक्त परिवार तीन भाइयों से निर्मित है जिनमें से एक की मृत्यु हो जाती है।

1. तिरूपरुष सन्दर बनाम श्री निवासन पिल्लई, ए० आई० आर० 1972 मद्रास 2641

2. मेवा देवी बनाम ओम प्रकाश जगन्नाथ अग्रवाल, ए० आई० आर० 2008 छत्तीसगढ़ 13।

  • भागीरथी बाई चन्द्र भान निम्बार्ड बनाम ताना वाई, ए० आई० आर० 2013 बम्बई 99.
  • ए० आई० आर० 2013 हिमाचल प्रदेश 70.
  • पी० सान्था बनाम एस० अरूमुगंम्, ए० आई० आर० 2014, एन० ओ० सी० 568 मद्रास।

शेष दो भाई उसके सहदायिकी अंश को उत्तरजीविता से ग्रहण करेंगे। अत: प्रत्येक भाई जो मृत भाई के जीवन-काल में 1/3 अंश प्राप्त करते, अब 1/2 अंश प्राप्त करेंगे।

अब मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति का न्यागमन धारा 6 के परन्तुक के प्रावधान से प्रशासित होता है। अतः यदि सहदायिकी में अनुसूची के प्रथम वर्ग के स्त्री दायाद नहीं है और न स्त्री दायादों के माध्यम से परुष दायाद है तो किसी मृतक हिन्दू पुरुष का सहदायिकी सम्पत्ति में हक उपर्युक्त उत्तरजीविता के नियमानुसार न्यागत होगा न कि इस अधिनियम की धाराओं के अनुसार।

धारा के 6 परन्तुक-यह परन्तुक अत्यन्त ही महत्वपूर्ण है। यह पहली बार अनुसूची के वर्ग (1) में दिये गये स्त्री नातेदार को उत्तराधिकार का अधिकार प्रदान करता है। इस परन्तुक का व्यापक प्रभाव यह है कि किसी सहदायिक का हक, यदि अनुसूची 1 में विहित कोई स्त्री नातेदार अथवा स्त्री नातेदार के माध्यम से दावा करने वाला पुरुष नातेदार विद्यमान है, तो वह उत्तरजीविता से नहीं वरन् उत्तराधिकार से न्यागत होगा।

जी० वी० किशन राव बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य के मामले में न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी में कोई पुरुष हिन्दू सहदायिकी सम्पत्ति में अपनी सम्पत्ति छोड़ कर मरता है और उसकी मृत्यु के समय अनुसूची के वर्ग (1) में विहित कोई स्त्री नातेदार है तो उसके अंश का न्यागमन इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होगा। इस प्रकार जहाँ कोई पुरुष अपने पीछे एक विधवा तथा तीन पत्रों को छोड़ कर मरता है वहाँ विधवा अपने पुत्रों के साथ सर्वप्रथम एक अंश प्राप्त करेगा। यह उसी प्रकार है कि यदि उसकी मृत्यु के पूर्व सहदायिकी का विभाजन होता तो सम्पत्ति पाँच अंशों में विभाजित होती और उसका पति, वह स्वयं तथा उसके तीन पुत्र बराबर अंश के हकदार होते, यही काल्पनिक विभाजन का आशय है और इस प्रकार प्रत्येक 1/5 अंश प्राप्त करेगा और पति का 1/5 अंश उसकी पत्नी तथा पुत्रों में समान रूप से विभाजित हो जायेगा।

एक दूसरे उदाहरण में वासवस्तिमम्मा बनाम शारदाम्मा का निर्णय उल्लिखित किया जा सकता है। इस वाद में अधिनियम लागू होने के बाद एक विधवा ने अपने पति की मृत्यु के उपरान्त सहदायिकी सम्पत्ति में उसके अंश को प्राप्त किया। परिवार संयुक्त चला आ रहा था और उसका श्वसुर जीवित था। प्रश्न यह उठा कि क्या श्वसुर की मृत्यु हो जाने के बाद वह मृत श्वसुर की सम्पत्ति में कोई हिस्सा ले सकती है? न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि विधवा अनुसूची की वर्ग 1 की दायाद होने के नाते सहदायिक सम्पत्ति में जो हिस्सा छोड़कर उसका श्वसुर मरा है उसमें अपने हिस्से का दावा कर सकती है।

जया मति नरेन्द्र शाह बनाम नरेन्द्र अमृत लाल शाह, के वाद में बाम्बे उच्च न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि हिन्दू सहदायिक सम्पत्ति में कोई पत्नी विभाजन की माँग नहीं कर सकती बल्कि उसे ऐसी सम्पत्ति में कोई अधिकार तभी उत्पन्न होगा जब उसके पति एवं पुत्र के द्वारा ऐसी सम्पत्ति में विभाजन की माँग की गयी हो या ऐसी सम्पत्ति को विभाजित कर दिया गया हो और पुन: न्यायालय के द्वारा यह भी सम्प्रेक्षित किया गया कि ऐसी सहदायिक सम्पत्ति में विधवा पत्नी को केवल मृतक की सम्पत्ति में अधिकार होगा।

भाग पुरु सेठ बनाम पूर्णी दी व अन्य के मामले में न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि जहाँ किसी संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई पुरुष उत्तराधिकार मौजूद नहीं है अर्थात् सभी की मृत्यु हो गई हो और वहाँ केवल एक मात्र विवाहिता पुत्री ही मौजूद हो तो ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण सहदायिक सम्पत्ति प्राप्त करने का वह दावा कर सकती है।

दृष्टान्त (Hindu Law Notes)

(1) अ तथा ब दो भाई सहदायिकी निर्मित करते हैं। अ एक विधवा पत्नी को छोड़कर मर जाता है। उसकी मृत्यु पर आधा अंश उसकी विधवा पत्नी को चला जायेगा, ब को उत्तरजीविता से नहीं जायेगा।

(2) अ तथा ब दो भाई सहदायिकी निर्मित करते हैं। अ अपनी विधवा पत्नी स, भाई ब, पुत्री 1. ए० आई० आर० 1987 आन्ध्र प्र० 2391

2. ए० आई० आर० 1984 कर्ना० 271

3. ए० आई० आर० 2014, बम्बई 119.

4. ए० आई० आर० 2003, एन० ओ० सी० 171 उड़ीसा।

द तथा माता म को छोड़कर मरता है। उसकी मृत्यु के ठीक पूर्व अ का अंश विभाजित होने पर होता। अधिनियम के अनुसार इस 1/3 अंश का न्यागमन, धारा 8 के अन्तर्गत होगा जिसमें ब को उत्तरजीविता से वह 1/3 अंश में से नहीं प्राप्त होगा, क्योंकि वर्ग में उल्लिखित स्त्री दायाट विजन पत्नी तथा पुत्री वर्तमान हैं।

उपर्युक्त दृष्टान्त (1) में यदि अ पुत्री द को न छोड़कर द के पुत्र को छोड़कर मरता है जब कि उसकी पुत्री द उसके जीवन-काल में ही मर जाती है, तो अ का अंश उसके दायादों को उत्तराधिकार से चला जायेगा। कारण यह है कि अनुसूची (1) में उल्लिखित स्त्री दायाद के माध्यम से दावा करने वाला पुरुष नातेदार भी विद्यमान है।

(3) अ अपने चार पुत्रों क, ख, ग, घ के साथ एक संयुक्त हिन्दू-परिवार का सदस्य है। वह निर्वसीयती सम्पत्ति के साथ तथा चार पुत्रों एवं दो पुत्रियों म, न को छोड़कर मरता है। अ का सहदायिकी में विभक्त हक 1/5 होगा। यह 1/5 अंश इस अधिनियम के अनुसार न्यागत होगा तथा प्रत्येक पत्र एवं पुत्री 1/5 का 1/6 अर्थात् 1/30 अंश उत्तराधिकार से प्राप्त करेगा।

परन्तुक की दूसरी व्याख्याधारा 6 के परन्तुक की दूसरी व्याख्या भी की जा सकती है। मिताक्षरा सहदायिकी का अविभक्त हक इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार तभी न्यागत होगा जब कि कोई हिन्दू अनुसूची 1 में उल्लिखित किसी स्त्री दायाद अथवा स्त्री दायाद के माध्यम से दावा करने वाले किसी पुरुष दायाद को निर्वसीयती सम्पत्ति के साथ छोड़कर मरता है। यदि इस प्रकार के वर्ग (1) में उल्लिखित स्त्री दायादों अथवा स्त्री दायादों के माध्यम से दावा करने वाले पुरुष दायादों के अतिरिक्त वर्ग (1) का कोई दूसरा पुरुष दायाद जो स्त्री दायाद के माध्यम से दावा नहीं करता तथा मृतक के बाद जीवित रहता है, तो उस दशा में सम्पत्ति का न्यागमन उत्तरजीविता से होगा न कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार होगा।

दृष्टान्त (Hindu Law Study Material)

(1) अ, एक हिन्दू एक पुत्र तथा एक पुत्री को छोड़कर मरता है। उसने निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़ी है। अ का सहदायिकी हक उसके पुत्र को उत्तरजीविता से चला जायेगा न कि इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार यदि पुत्री भी बाद में मर जाती है।

(2) उपर्युक्त दृष्टान्त (1) में यदि अ केवल एक पुत्री द को तथा भाई ब को छोड़कर मरता तो अ का अविभक्त हक द को उत्तराधिकार से चला जाता है।

रघुनाथ तिवारी बनाम मु० रिखिया के मामले में पटना उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त व्याख्या को समर्थन देते हुए यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ अ, ब तथा स के बीच संयुक्त हिन्दू सहदायिकी है और बाद में अ की मृत्यु पत्नी तथा एक पुत्री को छोड़कर हो जाती है उसके बाद में ब की भी मृत्यु हो गई किन्तु उसके कोई स्त्री दायाद नहीं थी वहाँ ब का सहदायिकी हिस्सा एकमात्र स को उत्तरजीविता से न्यागत होगा न कि अ की विधवा तथा उसकी पुत्री को क्योंकि अ की विधवा अथवा पत्री सहदायिकी के सदस्य नहीं हो सकते जो उसके पति के साथ निर्मित था। ऐसी स्थिति में अ की विधवा तथा पुत्री मिलकर सहदायिकी सम्पत्ति का 1/3 अंश लेंगे।

जहाँ एक हिन्दू सहदायिक एक पुत्र तथा पूर्वमृत पुत्री के एक पुत्र को छोड़कर मरता है, वहाँ सहदायिकी की सम्पत्ति में उसका अपना अंश पुत्र एवं पूर्वमृत पुत्री के पुत्र में न्यागत होगा। वे दोनों सम्पत्ति में एक साथ हिस्सा प्राप्त करेंगे क्योंकि अनुसूची 1 के अन्तर्गत दोनों उत्तराधिकारी आ जाते हैं।

जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार के कर्ता ने अपनी पुत्री को विवाह के समय कोई मूल्यवान वस्तु टान रूप में दिया है वहाँ इस दान के परिणामस्वरूप वह पुत्री बाद में अपने पिता के दायाद की

1. ए० आई० आर० 1985 पटना 291

2. रंगनाथन् चेट्टियार बनाम अन्नामलाई मुदालियर, 82 मद्रास एल० डब्ल्यू० 2581

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