UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Aaklan Evam Mulyankan Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Aaklan Evam Mulyankan Study Material : नमस्कार दोस्तों आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET and CTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book and Notes chapter 14 आकलन एवं मुल्यांकन Study Material in Hindi With PDF Free Download करने जा रहे है | UPTET Bal Vikas Evam shiksha Shastra Chapter 14 in PDF Free Download करने का लिए सबसे निचे दिए गये Table पर जाकर क्लीक करें |

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आकलन एवं मूल्यांकन | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 14 Study Material in Hindi

मल्यांकन शिक्षण प्रक्रिया का एक महत्वपूर्ण अंग है। वैदिक काल में शिक्षार्थी का मल्यांकन मौखिक परीक्षाओं के रूप में होता था। इनका मुख्य उद्देश्य विद्यार्थी की स्मृति तथा स्वीकृति (Recall and Recognition) की क्षमता का मूल्यांकन करना होता था। हमारे देश में 1854 ई. में वुड (Wood) के घोषणा-पत्र के पश्चात् तथा अंग्रेजी शिक्षा पद्धति के प्रसार के फलस्वरूप परीक्षाओं को महत्व मिलने लगा। – मूल्यांकन की प्रक्रिया मापन एवं परीक्षा के अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत प्रक्रिया है।

मूल्यांकन के अन्तर्गत शिक्षण और अधिगम की प्रक्रिया, शिक्षण विधियों, शैक्षिक उद्देश्यों, शिक्षण प्रभावशीलता, विद्यार्थी की सफलता को जानकर उसको उचित निर्देश देना इत्यादि आता है। -कोठारी आयोग (1964-66) का मत है कि “मूल्यांकन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो शिक्षा की सम्पूर्ण प्रणाली का अभिन्न अंग है तथा जिसका शैक्षिक उद्देश्यों से घनिष्ठ सम्बन्ध है। यह शिक्षार्थी की आदतों तथा अध्यापक के पढ़ाने की पद्धतियों पर गहरा प्रभाव डालती है तथा इस प्रकार यह शैक्षिक उपलब्धि के मापन एवं सुधार में सहायक होता है।” मुदालियर कमीशन ने कहा है-‘परीक्षा और मूल्यांकन का शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान है। शिक्षार्थियों ने अपने अध्ययनकाल में किस सीमा तक उन्नति की है,

इसकी जाँच शिक्षक तथा अभिभावक दोनों के लिए आवश्यक है।क्षिक मूल्यांकन के उद्देश्य ims of Educational Evaluationशैक्षिक मूल्यांकन निम्नलिखित उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किया जाता है—

विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि के स्तर का निर्धारण करने के लिए। विद्यार्थियों की शैक्षिक निष्पत्ति के आधार पर निर्देशन एवं परामर्श प्रदान करने के लिए।

* विद्यार्थियों की असफलताओं का कारण पता कर उनका उपचार करने हेतु।

* विद्यार्थियों की ग्रेडिंग, वर्गीकरण तथा प्रोन्नति करने के लिए।

* विधार्थियों की योग्यता के आधार पर पुरस्कार एवं छात्रवृत्ति प्रदान करने हेतु ।

* शिक्षण में गुणात्मक सुधार हेतु अधिगम के वातावरण में सुधार करने के लिए। * समाज तथा अभिभावकों को जवाबदेही हेतु नियमित रूप से उनके बच्चों की उपलब्धि एवं उन्नति का पता लगाने हेतु ।

* शिक्षक की शिक्षण प्रभावशीलता को जानने के लिए।

शिक्षण विधियों में परिवर्तन या सुधार करने हेतु

। _* पाठ्यक्रम एवं पाठ्य-पुस्तकों में ऐसे बिन्दुओं का पता लगाना जिनमें परिजन या परिमार्जन की आवश्यकता है।

मूल्यांकन के प्रकार Kinds of Evaluation

मूल्यांकन मुख्य रूप से दो प्रकार का होता है-

1. अल्पकालीन या क्रमानुसार मूल्यांकन (Short Term or Formative Evaluation अल्पकालीन मूल्यांकन का अभिप्राय उस मूल्यांकन से है जो सत्र के बीच में अनेक का विद्यार्थियों की शैक्षिक एवं व्यक्तित्व सम्बन्धी उन्नति एवं विकास को जानने के लि किया जाता है। इस मूल्यांकन द्वारा विद्यार्थी के विकास तथा पाठ्यक्रम के विकास पता लगाया जाता है।

> इस मूल्यांकन से शिक्षण और अधिगम की प्रक्रियाओं को पुनर्बलन मिलता है।

> इस मूल्यांकन के अन्तर्गत कक्षा में दिन-प्रतिदिन किया जाने वाला मूल्यांक – साप्ताहिक तथा मासिक मूल्यांकन, प्रयोगशाला में मूल्यांकन एवं अनेक कार्यक्र/ का  ल्यांकन आता है।

> कुछ विद्यालयों में इसे आन्तरिक मूल्यांकन (Internal ssessment) भी कहते है। लाभ S emaller System Merits LaT oo अल्पकालीन मूल्यांकन से होने वाले लाभ निम्नलिखित हैं> इस प्रकार का मूल्यांकन विद्यार्थी को व्यक्तिगत रूप देने में सहायक होता है। > इससे विद्यार्थी अपनी उन्नति को जानकर अपनी शैक्षिक उपलब्धि में सुधार सकता है।

इस मूल्यांकन के अंतर्गत विषय-वस्तु को छोटी-छोटी इकाइयों में बाँटा जाता जिससे छात्रों को सम्पूर्ण विषय को समझना सरल हो जाता है। शिक्षक तथा विद्या दोनों ही व्यवस्थित ढंग से शिक्षण और अधिगम का कार्य कर सकते है।

> इस विधि के द्वारा विद्यार्थी विषय का अध्ययन अधिक गहनता से करता है। पर के समय छात्रों को गेस पेपर या गाइड जैसी पुस्तकों का सहारा लेना नहीं पड़ता। दोष Demertis अल्पकालीन मूल्यांकन के दोष निम्नलिखित हैं> इसमें शिक्षक को अधिक कार्य करना पड़ता है। शिक्षण के कार्यों के अतिति शिक्षक को अनेक प्रतिलेखो एवं पंजिकाओं का रख-रखाव करना पड़ता है। ~ समय एवं अर्थ के दृष्टिकोण से ये अधिक खर्चीले होते हैं। कभी-कभी शिक्षक का पक्षपातपूर्ण व्यवहार बार-बार मूल्यांकन को प्रभावित लगता है।

2. दीर्घकालीन या योगात्मक मूल्यांकन (Long Term or Summative Evaluatil योगात्मक मूल्यांकन का अभिप्राय उस मूल्यांकन से है जो सत्र के अन्त में वार्षिक परीक

किया जाता है। अतः इसके अन्तर्गत वे एकत्रित मूल्यांकन करते हैं जिनके मोन्नति, चयन, पदोन्नति, भविष्यवाणी इत्यादि की जाती है। इस प्रकार मल्यांकन में पूरे सत्र का कुल मूल्यांकन आता है।

लाभ Merits

दीर्घकालीन मूल्यांकन के लाभ निम्नलिखित हैं-

(a) समय एवं अर्थ के दृष्टिकोण से यह कम खर्चीली होती है। प्रशासनिक दृष्टिकोण से भी यह आसान होती है, क्योंकि इनकी तैयारी अवस्था. प्रतिलेखन भी एक ही बार तैयार करना पड़ता है। शिक्षक के लिए भी अधिक कार्य नहीं बढ़ता है। (d) पूरे पाठ्यक्रम को इकाइयों में विभाजित नहीं करना पड़ता और एक ही बार में पूरे विषय की परीक्षा ले ली जाती है। Demerits । दीर्घकालीन मूल्यांकन में निम्नलिखित दोष होते हैं

(a) दीर्घकालीन परीक्षाओं की वैधता एवं विश्वसनीयता कम होती है, क्योंकि पूरे ठ्यक्रम के कुछ ही अंशों का प्रतिनिधित्व प्रश्नपत्र में होता है।

(b) इससे गेस पेपर, गाइड, चयनित अध्ययन, कोचिंग को बढ़ावा मिलता है। वैद्यार्थी विषय की गहनता से अध्ययन नहीं करता। | (c) विद्यार्थी को अपने में सुधार लाने का अवसर नहीं दिया जाता है।

(d) शिक्षक भी अपनी प्रभावशीलता को नहीं जान पाता है।

दानो प्रकार के मूल्यांकन लाभप्रद हैं। अतः एक विद्यालय में दोनों ही प्रकार की मूल्यांकन प्रणाली को अपनाना चाहिए। ये दोनों प्रकार के मूल्यांकन एक-दूसरे के

पूरक भी हैं। – विद्यालय में वार्षिक मूल्यांकन के अलावा साप्ताहिक, मासिक मूल्यांकन भी अवश्य लाना चाहिए तभी विद्यालय के शिक्षण एवं अधिगम में सुधार किया जा सकता है।

मूल्यांकन प्रक्रिया के पद (Steps of Evaluation Process) सामान्य उद्देश्यों का निर्धारण करना विशिष्ट उद्देश्यों का निर्धारण करना शिक्षण बिन्दुओं का चयन करना अधिगम क्रियाएँ व्यवहार परिवर्तन विद्यार्थी का मूल्यांकन करना पृष्ठपोषण

शैक्षिक मूल्यांकन का क्षेत्र Scope of Educational Evaluation

1. शारीरिक विकास का मूल्यांकन (Evaluation of Physical Development शारीरिक विकास का तात्पर्य विद्यार्थी के स्वास्थ्य सम्बन्धी मूल्यांकन से है। विद्यार्थी उचित मानसिक विकास के लिए उसे स्वस्थ भी होना चाहिए। शारीरिक विकास मूल्यांकन हेतु विद्यार्थी का समय समय पर अच्छे चिकित्सक द्वारा निरीक्षण होना चाहि और किसी भी प्रकार के शारीरिक दोषों को दूर करने हेतु सही समय पर चिकित्सक की राय लेनी चाहिए।

> शारीरिक विकास हेतु एक विद्यालय को निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना चाहिए।

(a) विद्यार्थी की प्रत्येक सत्र में एक बार शारीरिक जांच, कुशल चिकित्सक द्वार करवायी जाय।

(b) ऐसे विद्यार्थियों की जिनमें किसी प्रकार की शारीरिक अपंगता है, उनका रिकाः रखना चाहिए। ___(c) विद्यार्थियों की शारीरिक क्षमता का मूल्यांकन एक निश्चित समयावधि के बाद अवश्य होना चाहिए।

(d) अगर किसी विद्यार्थी में कोई असामान्यता हो तो उसके अभिभावक को तुरन. सूचना देना चाहिए।

2. Athifor fact CT Areich (Evaluation of Social Development) = विद्यार्थी विद्यालय में शिक्षकों तथा अनेक अन्य विद्यार्थियों के सम्पर्क में आते हैं और अपने विचारों का आदान-प्रदान करते हैं। इसके परिणामस्वरूप विद्यार्थी में सहानुभूति सहयोग, सहभागिता तथा अनुशासन जैसी क्षमताओं का विकास होता है, जो उन्हें एक कुशल सामाजिक प्राणी बनाते हैं। इस उद्देश्य हेतु विद्यालय को निम्नलिखित कार्य कर चाहिए-

(a) विद्यार्थी की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों जैसे प्रार्थना सभा में भाषण, खेल-ककार्यक्रम, गाइडिंग या स्काउटिंग इत्यादि की ओर ध्यान दिया जाय तथा उन्हें रिका कर लिया जाय।

(b) इन कार्यक्रमों के प्रति विद्यार्थी का दृष्टिकोण किस प्रकार का है।

(c) विद्यार्थी का अपने मित्रों एवं सहपाठियों के साथ व्यवहार किस प्रकार का प्र सामाजिक विकास का पता लगाने के लिए सामान्यतः शिक्षक निरीक्षण विधि ही प्रयोग करते हैं, परन्तु विशेष परिस्थितियों में रेटिंग स्केल या प्रश्नावली की समाजमिति की सहायता ली जा सकती है।

व्यक्तित्व के विकास का मूल्यांकन (Evaluation of Personality Developmem व्यक्तित्व के अन्तर्गत मनोवैज्ञानिक गुण जैसे मिलनसारिता, समाजसेवा, बुनि चरित्र स्वभाव मनोवैज्ञानिक तथा वेशभूषा, शारीरिक गठन वाणी जैसेशागार गुण समाहित होते हैं।

विधालय का यह प्रयास होता है कि वह विद्यार्थी में इन सब गणों का विकास कर के अच्छे व्यक्तित्व को विकसित कर सके। विद्यालय में व्यक्तित्व विकास के लिए निम्नलिखित प्रयास किये जाने चाहिए-

विद्यार्थी को प्रतिदिन अपनी डायरी बनाने को कहना चाहिए, जिसमें वह अपनी प्रतिदिन की घटनाओं का विवरण लिखें।

को शिक्षक को विद्यार्थी के व्यवहार का निरीक्षण करना चाहिए और असामान्य वहार करने वाले विद्यार्थियों के बारे में अपनी डायरी में नोट करना चाहिए।

विशेष व्यवहारों का पता लगाने के लिए विभिन्न व्यक्तित्व परीक्षणों की सहायता हनी चाहिए। समय समय पर TAT एवं CAT व्यक्तित्व मापनियों की सहायता से विद्यार्थियों का व्यक्तित्व मापन करना चाहिए।

4. शैक्षिक उपलब्धियों का मापन (Evaluation of Educational Achievement) विद्यालय में शैक्षिक उपलब्धियों का मापन करने के लिए मासिक तथा सात्रिक परीक्षाएँ ली जाती हैं। विद्यार्थी को कक्षोन्नति भी इन्हीं परीक्षाओं के आधार पर दी जाती है। शैक्षिक उपलब्धियों को जाँच करने हेतु विद्यालय में निम्नलिखित क्रियाएँ होनी चाहिए :

(a) विद्यालय का प्रतिदिन कार्य नियमित रूप से जाँचा जाय ।

(b) जब कभी विद्यार्थी को गृह-कार्य दिया जाता है तो शिक्षक को उसका मूल्यांकन अवश्य करना चाहिए।

(c) प्रत्येक शिक्षण इकाई के समाप्त होने पर प्रत्येक माह विद्यार्थियों की परीक्षा लेनी चाहिए।

(d) विद्यार्थी को जो भी प्रदत्त कार्य (Assignments) दिये जायें, उनका मूल्यांकन भी अवश्य होना चाहिए।

(d) सत्र पूरा होने पर वार्षिक परीक्षाएँ भी अवश्य होनी चाहिए।

भार्नडाइक के सीखने के सिद्धांत का शैक्षिक आशय एवं मूल्यांकन

थार्नडाइक ने सीखने के सिद्धांत में शैक्षिक उपयोगिता एवं शैक्षिक आशय को महत्व दिया है। न्होंने शिक्षा मनोविज्ञान की पुस्तक भी लिखी, जिसका प्रकाशन 1913 में हुआ। थार्नडाइक का मत था कि कक्षा के उद्देश्य (Objective) स्पष्टतः परिभाषित होनी चाहिए तथा वे शिक्षार्थियों की क्षमताओं (Capacities) की पहुँच के भीतर होनी चाहिए।

थानडाइक के सीखने के सिद्धांत का शैक्षिक आशय यह है कि शिक्षार्थी का व्यवहार बाह्य पुनर्बलकों (External Reinforces) से अधिक प्रभावित है, आंतरिक प्रेरणा (Internal Motivations) से कम। शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों को सही अनुक्रि या करने के लिए प्रेरित करें और यदि वे सही अनुक्रिया करते हैं, तो उन्हें पुरस्कार (Reward) दें। यानडाइक का मत था कि कक्षा में छात्रों द्वारा सीखे गये कौशलों (Skills) का वास्तविक जिंदगी (Real Life) में तभी हस्तांतरण होगा जब दोनों परिस्थितियाँ काफी समान हों। यह बात थार्नडाइक द्वारा प्रतिपादित शिक्षण हस्तांतरण के समरूपता सिद्धांत से स्पष्ट हो जाता है।

> छात्रों को प्रायः कठिन विषयों को पढ़ने पर बल नहीं देना चाहिए।

> थार्नडाइक के अनुसार अध्यापन (Tecaching) की सबसे महत्वपूर्ण विधि वह होता है जिसमें शिक्षक को यह स्पष्ट रूप से पता होता है कि उसे क्या पढ़ाना है।

परीक्षोपयोगी तथ्य

> मूल्यांकन एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है, जो शिक्षा की सम्पूर्ण प्रणाली के अभिन्न अंग है तथा जिसका शैक्षिक उद्देश्यों से घनिष्ठ संबंध है। अल्पकालीन मूल्यांकन के द्वारा विद्यार्थी के विकास तथा पाठ्यक्रम के विकास के पता लगाया जाता है। सतत एवं व्यापक मूल्यांकन में, व्यापक मूल्यांकन का तात्पर्य शैक्षिक एवं सह-शैक्षित क्षेत्र के मूल्यांकन से है।

> बच्चों का मूल्यांकन सतत एवं व्यापक मूल्यांकन द्वारा होना चाहिए। विद्यालय आधारित आकलन में बाह्य परीक्षकों की अपेक्षा शिक्षक अपने शिक्षार्थिय की क्षमताओं को बेहतर जानते हैं।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Sharirik Vikas Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Sharirik Vikas Study Material : नमस्कार दोस्तों आज की पोस्ट UPTET & CTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter 13 शरीरिक विकास, क्रियात्मक विकास एवं मानसिक विकास Study Material in Hindi में स्वागत है | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books Chapter 13 in Hindi PDF में Free Download करने के लिए सबसे निचे दिए गए टेबल पर क्लीक करें |

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शारीरिक विकास, क्रियात्मक विकास एवं मानसिक विकास | UPTET बाल विकास एवं शिक्षा शास्त्र Chapter 13 Study Material in Hindi

शारीरिक विकास से तात्पर्य बालकों में उम्र के अनुसार आकार (Body Size), शारीरिक अनुपात (Body Proportions), हड्डियों (Bones), माँसपेशियों (Muscles), दाँत (Teeth) तथा तंत्रिकातंत्र (Nervous System) में समुचित विकास से होता है।

बालकों में शारीरिक विकास एकसमान गति से हमेशा नहीं होता है। कभी यह तेजी से होता है, तो कभी मंद गति से।

मेरेडिथ (Meredith) तथा टेन्नर (Tanner) के अनुसार, “शारीरिक विकास की चार विभिन्न अवस्थाएँ हैं जिनमें दो में शारीरिक विकास की गति मंद होती है और दो में शारीरिक विकास की गति तीव्र होती है।”

पूर्व प्रसूतिकाल तथा जन्म के प्रथम 6 महीनों में शारीरिक विकास की गति काफी तीव्र होती है। जन्म के 7-8 महीने के बाद से शारीरिक विकास की गति मंद पड़ने लगती है और एकसमान गति (Uniform Rate) से लगभग 12 वर्ष तक चलती रहती है। 12 से 15/16 वर्ष की उम्र में शारीरिक विकास की गति एक बार फिर तीव्र हो जाती है। इसे मनोवैज्ञानिकों ने तारूण्य विकास लहर (Puberty Growth Spurt) कहा है। इसके बाद पूर्ण परिपक्वता की प्राप्ति तक बालकों के शारीरिक विकास की गति में मंदता आ जाती है। इस अवस्था में उनका शारीरिक विकास जिस ऊँचाई तक पहुँच जाता है वह बुढ़ापे तक बना रहता है। सिर्फ वजन घटताबढ़ता रहता है।

हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “एक क्रमिक (Orderly) एवं संगत (Coherent) परिवर्तनों के उत्तरोत्तर शृंखला (Progressive Sequence)को विकास कहा जाता है। अर्थात् विकास में गुणात्मक परिवर्तन (Qualitative Changes) तथा परिमाणात्मक परिवर्तन (Quantitative Changes) दोनों सम्मिलित रहते हैं।”

शरीर के अंगों के आकार तथा संरचना में परिवर्तन परिमाणात्मक परिवर्तन (Quantitative Changes) के उदाहरण हैं।

गसल (Gesell) के अनुसार, “परिपक्वता का तात्पर्य बालकों में होनेवाली उन शारीरिक प्रक्रिया से होता है जो स्वयं (Sel तथा आनवंशिक रूप से (Genetically) निर्धारित तथ्यों द्वारा निदेशित होते हैं।

गसल के अनुसार, “बालकों में होनेवाले सभी फिलोजेनेटिक क्रियाएँ परिपक्वता पर आधारित होते हैं। फिलोजेनेटिक क्रियाओं का तात्पर्य वैसी क्रियाओं से होता है, “समा प्रजाति के बच्चों में पायी जाती है। जैसे-छोटे शिशुओं द्वारा सरकना या कना (Creeping),घुटने के बल चलना (Crawling), बैठना, चलना (Walking) इत्यादि ।’

फिलोजेनेटिक क्रियाओं में प्रशिक्षण (Training) से बहुत कम लाभ होता है।

विकास (Development)का संबंध सभी तरह के शारीरिक परिमाणात्मक तथा गणा. मक परिवर्तन से होता है। परंतु परिपक्वता का संबंध बालकों में आनुवंशिकता से प्राप्त अंतःशक्तियों (Potentialities) की खुली अभिव्यक्ति से होता है।

शारीरिक विकास की अवस्थाएँ Stages of Physical Development

मनोवैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थओं को 10 भागों में बाँटा है

1.पूर्वप्रसूतिकाल (Prenatal Period): यह अवस्था गर्भधारण से प्रारंभ होकर जन्म तक की होती है।

2. शैशवावस्था (Infancy): यह अवस्था जन्म से प्रथम 10-14 दिनों तक की है।

3. बचपनावस्था (Babyhood): यह अवस्था जन्म के 2 सप्ताह से प्रारंभ होकर 2 साल तक की होती है।

4. बाल्यावस्था (Childhood): यह अवस्था 2 वर्ष से प्रारंभ होकर 12 वर्ष तक की ___ होती है। मनोवैज्ञानिकों ने इसे दो भगों में बाँटा है

(a) प्रारंभिक बाल्यावस्था (Early Childhood): यह अवस्था 2 वर्ष से प्रारंभ होकर 6 वर्ष की होती है। इसे शिक्षकों द्वारा प्राक् स्कूल अवस्था (Pre School Age) या प्राक्टोली अवस्था (Pre Gang Stage) भी कहा जाता है।

इसी अवस्था में बालकों में महत्वपूर्ण शारीरिक विकास (Physical Development), भाषा विकास (Language Development), प्रत्यक्षणात्मक एवं संज्ञानात्मक विकास (Perceptual and Cognitive Development), afisch facote (Intellectual Development), सामाजिक विकास (Social Development) तथा सांवेगिक विकास (Emotional Development) होता है। 6 वर्ष की उम्र में बालकों के शरीर का औसत वजन 50 पौंड तथा ऊँचाई लगभग 45 ईंच के बराबर होता है।

बालकों के शारीरिक गठन में भी अंतर होने लगता है। कुछ बालकों का शारीरिक गठन मोटा होता है यानी वे एंडोमॉर्फिक (Endomorphic Build) होते हैं।

कुछ का शारीरिक गठन हृष्ट-पुष्ट (Muscular) होता है, अर्थात् मेसोमॉर्फिक गठन (Mesomorphic Build) के होते हैं। कुछ का शारीरिक गठन दुबला-पतला होता है। अर्थात् वे एक्टोमॉर्फिक गठन के होते हैं।

उत्तर बाल्यावस्था (Late Childhood): यह अवस्था 6 वर्ष से प्रारंभ होकर बालिकाओं में 10 वर्ष की उम्र तक तथा बालकों में 6 वर्ष से प्रारंभ होकर 12 वर्ष की उम्र तक होती है। इस अवस्था से बालक-बालिकाओं मे यौन परिपक्वता आ जाता है।

इस अवस्था को माता-पिता, शिक्षकों तथा मनोवैज्ञानिकों द्वारा बालकों के कार्यों के आधार पर विभिन्न नाम दिये गये हैं। माता-पिता द्वारा इस अवस्था को उत्पाती अवस्था (Troublesome Stage)कहा गया है, क्योंकि अक्सर बालक अपने माता पिता की बातें न मानकर अपने साथियों की बातें अधिक मानते हैं।

शिक्षकों ने इस अवस्था को प्रार कहा है, क्योंकि इस प्रारंभ कर देते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने इस अवस्थ नकों ने इस अवस्था को गिरोह अवस्था (Gang Age) कहा है, क्योंकि इस में बालकों में अपने गिरोह या समूह के अन्य सदस्यों द्वारा स्वीकत किया जाना सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है। अवस्था में बालकों में महत्वपूर्ण शारीरिक विकास, भाषा विकास, सांवेगिक सामाजिक विकास, मानसिक विकास तथा संज्ञानात्मक विकास होते हैं, जनका ज्ञान होने से शिक्षक आसानी से बालकों का मार्ग-निर्देशन कर पाते हैं।

यावस्था में बालकों की ऊँचाई में औसतन 2 से 3 इंच की वार्षिक वृद्धि ___ होती है। 11 वर्ष की लड़की की औसत ऊँचाई 58 इंच तथा उसी उम्र में लड़का की औसत ऊँचाई 57.5 इंच होती है। इस अवस्था में शरीर का वजन 3 से 5 पौंड तक औसतन प्रति वर्ष बढ़ता है। बालकों में पेशीय उत्तक (Muscle Tissue) की अपेक्षा चर्बी उत्तक (Fat Tissue) का अधिक विकास होता है।

इस अवस्था के अंत तक बालकों में 28 स्थायी दाँत निकल आते हैं और 4 स्थायी दाँत किशोरावस्था (Adolescence) में निकलते हैं। – पियाजे के अनुसार, “इस अवस्था में बालक चिंतन के मूर्त परिचालन की अवस्था में होता है, जहाँ इससे पहले सीखे गये संप्रत्यय को अधिक मजबूत, स्पष्ट एवं मूर्त्त (Concrete) बनाने का प्रयास करता है। -5. तरुणावस्था या प्राक-किशोरावस्था (Puberty or Pre-Adolescence) लड़कियो म यह अवस्था 11 वर्ष की तथा लड़कों में यह अवस्था 12 वर्ष से 14 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालिका का शरीर एक वयस्क के शरीर का रूप ले लेता है।

6. प्रारंभिक किशोरावस्था (Early Adolescence) : यह अवस्था महाकर 17 वर्ष तक की होती है। इस अवस्था में शारीरिक विकास तथा मानसिक विकास बालकों में अधिकतम होता है और उनमें विवेक तथा उचित-अनुचित का ख्याल अधिक नहीं रहता है।

7. परवर्ती किशोरावस्था (Later Adore वर्ष तक की होती है। इस अवस्था म से स्वतंत्र हो जाता है और अपने भाव कर देता है। बालक तथा बालिका के प्रति अभिरुचि अधिक हो जाती है।

8.प्रारंभिक वयस्कता (Early Adul होती है। इस अवस्था में व्या व्यवसाय (Occupation) में लग को मजबूत कर आगे बढ़ता है।

शारावस्था (Later Adolescence): यह अवस्था 17 वर्ष से 19-20 ता है। इस अवस्था में बालक पर्णरूपेण शारीरिक तथा मानसिक रूप

ता है और अपने भविष्य के बारे में तरह-तरह की योजनाएँ बनाना शुरू । बालक तथा बालिकाओं में विपरीत लिंग (Opposite Sex) क व्य क वयस्कता (EarlVAdulthod): यह अवस्था 21 वर्ष से 40 वर्ष का शादी कर अपना घर-परिवार बसाता है और किसी tion) में लग जाता है तथा अपने आत्मविकास (Self-Development)

9.मध्यावस्था (Middle Age): यह अवस्था 40-60 वर्ष की होती है। इसमें  व्यक्ति द्वारा पूर्वप्राप्त उपलब्धि (Achievement)तथा आकांक्षाओं को बहुत सुदृढ़ (Consolidatel किया जाता है।

10. बुढ़ापा या सठियावस्था (Old Age or Senescence) : यह अवस्था 60 वर्ष से) मृत्यु तक की होती है। इस अवस्था में शारीरिक तथा मानसिक शक्ति धीरे-धीरे क्षीण ” होती जाती है और सामाजिक कार्यों में व्यक्ति का लगाव कम होता चला जाता है।

विकासात्मक पाठ एवं शिक्षा Development Task and Education >

हेभिगहर्स्ट (Havighurst) के अनुसार, “विकासात्मक पाठ वह पाठ है जो व्यक्ति की जिंदगी की किसी खास अवधि से या अवधि के बारे में संबंधित होता है तथा जिसकी सफल उपलब्धि से व्यक्ति में खुशी होती है और परवर्ती कार्यों को करने में उसे आनंद आता है, परंतु असफल होने से व्यक्ति को दुःख होता है, समाज में तिरस्कार मिलता है और परवर्ती कार्यों को करने में उसे कठिनाई भी होती है।” | विकासात्मक पाठ के द्वारा निम्नांकित तीन तरह की पूर्ति होती है4 विकासात्मक पाठ से शिक्षकों तथा अभिभावकों को यह जानने में सुविधा होती है कि एक खास उम्र पर बालक क्या सीखते हैं और क्या नहीं।

★ विकासात्मक पाठ बालकों को उन व्यवहारों को सीखने में एक प्रेरणा का काम करता है, जिसे सामाजिक समूह (Social Group) उसे सीखने के लिए उम्मीद | करता है।

विकासात्मक पाठ शिक्षकों तथा माता-पिता को यह बताता है कि उन्हें अपने बच्चों से निकट भविष्य तथा सुदूर (Remote) भविष्य में क्या उम्मीद करना चाहिए। अतः विकासात्मक पाठ शिक्षकों तथा अभिभावकों को अपने बच्चों को । इस ढंग से तैयार करने की प्रेरणा देते हैं ताकि वे भविष्य की नयी चुनौतियों का सामना कर सकें। हेभिंगहर्स्ट ने बाल्यावस्था (Childhood), किशोरावस्था (Adolescence) तथा प्रारंभिक वयस्कावस्था के लिए निम्नलिखित विकासात्मक पाठ तैयार किये हैं

(a) प्रारंभिक बाल्यावस्था के लिए विकासात्मक पाठ (Development Task for Early Childhood (0-6 वर्ष)

★ चलना सीखना (Learning to Walk)

★ ठोस आहार लेना सीखना

★ बोलना सीखना

मल-मूत्र त्याग करना सीखना

यौन अंतरों तथा यौन शालीनता (Sex Modesty) को सीखना

शारीरिक संतुलन बनाये रखना सीखना

+ सामाजिक एवं भौतिक वास्तविकता के सरलतम संप्रत्यय को सीखना

अपने-आपको माता-पिता, भाई-बहनों तथा अन्य लोगों के साथ सांवेगिक रूप से संबंधित करना सीखना।

सही तथा गलत के बीच विभेद करना सीखना तथा अपने में एक विवेक (Conscience) विकसित करना।

उत्तर बाल्यावस्था के लिए विकासात्मक पाठ (Developmental Task for er Childhood) (6-12 वर्ष)

साधारण खेलों के लिए आवश्यक शारीरिक कौशल (Physical Skills) को सीखना। अपने-आपके प्रति एक हितकर मनोवृति (Wholesome Attitude) विकसित करना।

अपने ही उम्र के साथियों के साथ मिलना-जुलना सीखना। उपयक्त पुरुषोचित (Masculine)तथा स्त्रियोचित (Feminine) यौन भूमिकाओं को सीखना। पढना. लिखना तथा गिनती करने से संबंधित मौलिक कौशल (Fundamental Skills) विकसित करना। * दिन-प्रतिदिन की सुचारु जिंदगी के लिए आवश्यक संप्रत्ययों को सीखना ।

★ नैतिकता, मूल्य (Values) तथा विवेक (Conscience) को सीखना।

★ व्यक्तिगत स्वतंत्रता (Personal Independence) प्राप्त करने की कोशिश करना।

★ सामाजिक समूहों एवं संस्थानों के प्रति मनोवृति विकास करना।

(c) किशोरावस्था के लिए विकासात्मक पाठ (Developmental Task for adolescence) (13 से 19/20 वष)

★ दोनों यौनों (Sex) की समान उम्र के साथियों (Agemates) के साथ नया एवं एक परपिक्व संबंध कायम रखना।

★ उचित पुरुषोचित या स्त्रियोचित भूमिकाएँ सीखना। * माता-पिता तथा अन्य वयस्कों (Adults) से हटकर एक सांवेगिक स्वतंत्रता कायम करना।

* किसी व्यवसाय का चयन करना तथा उसके लिए अपने-आपको तैयार करना।

★ जीवन की प्रतियोगिताओं के लिए आवश्यक संप्रत्यय (Concepts) तथा बौद्धिक कौशलों (Intellectual Skill) को सीखना। * पारिवारिक जीवन तथा शादी के लिए अपने-आपको तैयार करना। * सामाजिक रूप से उत्तरदायी व्यवहार का निर्धारण करना तथा उसे प्राप्त करने की भरपूर कोशिश करना।

★ आर्थिक स्वतंत्रता की प्राप्ति की ओर अग्रसर होना।

प्राराभक वयस्कता के लिए विकासात्मक पाठ (Developmental Task for Early Adulthood) (21-40 वर्ष)

★ अपना जीवनसाथी चुनना।

* शादी करके अपने जीवनसाथी के साथ रहना सीखना।

★ एक पारिवारिक जिंदगी प्रारंभ करना।

* बाल-बच्चों का लालन-पालन करना सीखना।

★ घर-परिवार को ठीक ढंग से चलाना सीखना ।

★ किसी व्यवसाय में लग जाना।

★ नागरिक उत्तरदायित्व ग्रहण करना।

★ एक अनुकूल सामाजिक समूह तैयार करना ।

क्रियात्मक विकास Motor Development

क्रियात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में उनकी माँसपेशियों तथा तंत्रिका के समन्वि कार्य द्वारा अपनी शारीरिक क्रियाओं (Bodily Activities) पर पूर्ण नियंत्रण प्रार करने से होता है।

हरलॉक के अनुसार, “माँसपेशियों, तंत्रिकाओं (Nerves) तथा तांत्रिक-केंद्रों के समन्वित क्रियाओं द्वारा शारीरिक गति पर नियंत्रण प्राप्त करना क्रियात्मक विका कहलाता है।” जैसे—जिस शिशु के हाथ तथा पैर की माँसपेशियाँ तथा तंत्रिका विकसित रहती हैं और उन दोनों के बीच ठीक ढंग से समन्वय (Co-ordination _ होता है, उस शिशु में हाथ-पैर के सहारे चलना या सिर्फ पैर के सहारे चलने के प्रक्रिया अधिक तेजी से होती है। क्रियात्मक विकास के सिद्धांत Principles of Motor Development

क्रियात्मक विकास के नियम निम्नलिखित हैं(a) क्रियात्मक विकास माँसपेशियों तथा तंत्रिकाओं की परिपक्वता पर निर्भर करत ।’

जन्म के समय शिशुओं में निचली तंत्रिका केंद्र (Lower Nerve Center) (जो मेरुदा (Spinal Cord) में अवस्थित होता है) ऊपरी तंत्रिका केंद्र (Upper Nerve Centre (जो मस्तिष्क में अवस्थित होता है) की अपेक्षा अधिक विकसित होता है। मेरुद – द्वारा मूलतः सहज क्रियाओं (Reflex Actions) का नियंत्रण होता है।

जन्म के कुछ समय बाद से ही बालकों में सहज क्रिया (Reflex Action) का होन पाया जाता है। एक साल की उम्र में बालकों के मस्तिष्क का कुछ भाग जैसे लघु मस्तिष्क (Cerebellun Na तथा वृहत् मस्तिष्क (Cerebrum) का विकास हो जाता है, जिसके फलस्वरूप बालक ऐच्छिक क्रियाएँ (Voluntary Actions) करना प्रारंभ कर देता है। लघ मस्तिष्क के विकास होने से शिशु के क्रियात्मक व्यवहार जैसे-चलना, पका इत्यादि अधिक संतुलित दिखते हैं। 5 वर्ष की अवस्था हो जाने पर लघु मस्तिष्क परिपक्व हो जाता है और बच्चों क्रियात्मक व्यवहार पूर्णतः संतुलित हो जाते हैं।

क्रियात्मक विकास माँसपेशियों की परिपक्वता पर भी निर्भर करता है। माँसपेशियाँ रूप से दो प्रकार की होती हैं-धारीदार पेशियाँ (Striped Muscles) तथा अधारीदार पेशियाँ (Unstriped Muscles)।

धारीदार पेशियों का संबंध क्रियात्मक व्यवहार से सीधा है और इसके द्वारा सभी ऐच्छिक क्रियाएँ (VoluntaryActions) नियंत्रित होती हैं। ऐसे माँसपेशियों का विकास बाल्यावस्था (Childhood) में धीरे-धीरे होता है। अतः बालकों में ऐच्छिक क्रियाओं का विकास भी धीरे-धीरे होता है। को किसी भी क्रियात्मक निपुणता को तब तक नही सीखा जा सकता जब तक कपर्णरूपेण उसे करने के लिए परिपक्व न हो गया हो: बालकों को किसी प्रकार की क्रियात्मक निपुणता (Motor Skill) तब तक नहीं सिखायी जा सकती है जब तक उनका परिपक्वन (Maturation) पूर्ण न हो गया हो।

परिपक्वन के अभाव में दिया गया प्रशिक्षण (Training) तथा खुद बालक द्वारा किये गये प्रयास (Effort) से कुछ क्षणिक लाभ (Temporary Advantage) हो भी सकता है, परंतु स्थायी लाभ नहीं हो सकता।

(c) क्रियात्मक विकास में एक पूर्वानुमेय पैटर्न होता है (Motor Development Follows a Predictable Pattern) क्रियात्मक विकास एक निश्चित क्रम (Sequence) के अनुसार सभी बालकों में होता है। अतः यह पूर्वानुमेय (Predictable) होता है। बालकों में क्रियात्मक विकास दो प्रकार के क्रम (Sequence) द्वारा होता है मस्तकाधोमुखी क्रम (Cephalocaudal Sequence) तथा निकट-दूर विकास क्रम (Proximodistal Development Sequence) • मस्तकाधोमुखी क्रम (Cephalocaudal Sequence) में विकास सिर से पैर की ओर होता है। निकट-दूर का विकास क्रम (Proximodistal Development Sequence)के अनुसार बालकों के शरीर के उन अंगों का विकास पहले होता है, जो शरीर के केंद्र में होते है और शरीर के छोर (Periphery) पर आनेवाले अंगों का विकास बाद में होता निकट-दूर विकासात्मक क्रम के अनुसार बालकों के पेट, छाती, बाँह तथा जाँघ में क्रियात्मक विकास पहले तथा घटना (Knee), हाथ की अँगुलियों, पैर की अंगुलियो आदि में विकास बाद में होता है।

(d) क्रियात्मक विकास के लिए मानक बनाना संभव है (It is Possible to Establish 15 TOr Motor Development) : शिशु के विभिन्न प्रकार के क्रियात्मक विकासो 1ए मनावज्ञानिकों द्वारा एक मानक (Norm) तैयार किया गया है। इस मानक पता चलता है कि किस उम्र के शिशु द्वारा किस तरह का क्रियात्मक व्यवहार toror behaviour) किया जाता है। इससे माता-पिता तथा शिक्षक दोनों को ही एक दशन (Guidance) प्राप्त होता है और वे किसी विशेष उम्र के बालक से तो ज्यादा और न ही कम उम्मीद करते हैं।

(e) क्रियात्मक विकास में वैयक्तिक भिन्नता होती है।

क्रियात्मक विकास के क्रम

Sequence of Motor Development

जन्म के समय शारीरिक मुद्रा

1 महीना टुड्ढी उठाना

2 महीना धड़ उठाना

3 महीना खिलौना पकड़ने की कोशिश करना

4 महीना सहारा देकर बैठना

5 महीना गोद में बैठकर किसी खिलौना को पकड़ना

6 महीना ऊँची कुर्सी पर बैठकर झूलते खिलौनों को पकड़ना

7 महीना बिना सहारे के स्वयं बैठना

8 महीना सहारा देने पर खड़ा होना

9 महीना फर्नीचर पकड़कर खड़ा होना

10 महीना रेंगना

11 महीना सहारा देने पर चलना

12 महीना फर्नीचर या किसी चीज को पकड़कर चलना

13 महीना सीढ़ी चढ़ना

14 महीना स्वयं खड़े हो जाना

15 महीना स्वयं चलना

मानसिक विकास Mental Deelopment

मानसिक विकास से तात्पर्य मानसिक क्षमताओं के विकास से होता है। इस मानसिक क्षमता में चिंतन करने की क्षमता, तर्क करने की क्षमता, याद रखने की क्षमता सही-सही प्रत्यक्षणात्मक विभेद करने की क्षमता इत्यादि सम्मिलित होते हैं।

जेम्स ड्रेवर (James Drever) के अनुसार, “व्यक्ति के जन्म से परिपक्वता तक के मानसिक क्षमताओं एवं मानसिक कार्यों के उत्तरोत्तर प्रकटन एवं संगठन की प्रति या को मानसिक विकास कहा जाता है।” मानसिक विकास की विशेषताएँ: (a) मानसिक विकास शिशुओं की आयु के साथ बढ़ता है। (b) आवश्यकताओं एवं अभिरुचियों में विस्तार । (c) नवीन विचारों एवं चिंतन का विकास । (d) समय का ज्ञान। (e) अपनी इच्छा एवं मनोवृत्ति की अभिव्यक्ति । (0 योजना बनाने की क्षमता। (8) गत अनुभवों से लाभ उठाने की क्षमता। (h) मानसिक विकास में एक क्रमबद्धता होती है।

मानसिक विकास की अवस्थाएँ age of Mental Development

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार मुख्य रूप से मानसिक विकास की तीन अवस्थाएँ होती हैं.

a) प्रतिवर्त या सहज क्रियाओं की अवस्था Stage of Reflex Action

जन्म के समय से 10-11 महीने की आयु तक शिशुओं में सहज क्रियाओं (Reflex Actions) की प्रधानता होती है। उनमें चूसना, निगलना, कंडरा प्रतिवर्त (Tendon Reflex), घुटना या जानु प्रतिवर्त (Knee Reflex), बेबिन्स्की प्रतिक्षेप (Babinski Reflex) इत्यादि प्रधान हैं।

1 वर्ष की उम्र हो जाने पर इनमें कुछ प्रतिवर्त, पादतलीय प्रतिवर्त तथा करतल प्रतिवर्त अपने-आप समाप्त हो जाता है। इस समय तक मस्तिष्क का कुछ भाग जैसे लघ मस्तिष्क तथा वृहत् मस्तिष्क का विकास हो जाता है, जिसके फलस्वरूप बालक कुछ ऐच्छिक क्रियाएँ करना आरंभ कर देता है। इस प्रकार 13-14 महीने की उम्र तक बालक प्रतिवर्त प्राणी से चिंतनशील या परावर्तक प्राणी (Reflective Organism) हो जाता है।

(b) इच्छित या ऐच्छिक क्रियाओं की अवस्था (Stage of Desired or Voluntary Activities): मानसिक विकास की यह दूसरी अवस्था होती है जो 17-18 महीने की उम्र से प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में बालकों का वृहत् मस्तिष्क अधिक परिपक्व हो जाता है। फलस्वरूप बालकों में भाषा का विकास हो जाता है और वे तरह-तरह की ऐच्छिक क्रियाएँ करने लगता है।

(c) उद्देश्यपूर्ण कार्य करने की अवस्था (Stage of purposeful action) यह अवस्था 2 वर्ष की आयु से प्रारंभ हो जाती है। इस अवस्था में बालक उद्देश्यपूर्ण कार्य, जैसे—किसी खिलौना को पकड़ने, लिखने के लिए कलम पकड़ने, दौड़ने आदि का कार्य प्रारंभ कर देते हैं। > मानसिक विकास की यह अंतिम अवस्था मानी गई है और आनेवाले वर्षों में बालक में अन्य तरह-तरह के मानसिक क्षमताओं का विकास होता जाता है।

शैशवावस्था तथा बचपनावस्था में मानसिक विकास (Mental Development During Infancy and Babyhood): जन्म से 2 वर्ष की अवधि में होनेवाले मानसिक विकास के प्रमुख तत्व निम्नलिखित हैं

सवेदन की क्षमता का विकास: शिशुओं में विभिन्न प्रकार के संवेदन क्षमता का कास होता है। जैसे—दृष्टि संवेदन, श्रवण संवेदन, घ्राण संवेदन, स्वाद संवेदन तथा वक संवेदन (Skin or Cutancous Sensation) इत्यादि। शिशु उम्र संवेदन 3-4 महीने दृष्टि संवेदन/दृष्टि प्रत्यक्षण (Visual Perception) 5-6 महीने श्रवण संवेदन ध्वनि के आधार पर माता-पिता की पहचान 8-9 महीने

2/समझ का विकास (Growth of Understanding): नवजात शिशु पहले उद्दीप का अर्थ नहीं समझता है। जैसे जैसे उम्र बढ़ता है उसका मानसिक विकास होता जान है, उसमें समझ की शक्ति का विकास होता है। सबसे पहले शिशु अपनी माता पहचानता है तब पिता एवं परिवार के अन्य सदस्यों को। – प्रारंभ में शिशु उन उद्दीपनों, वस्तुओं एवं व्यक्तियों के प्रति अनुक्रिया करता जिनके तत्वों में काफी समानता होती है। 12 महीने के उम्र हो जाने पर बाल उद्दीपनों एवं व्यक्तियों में विभेद करना पूर्णतः सीख लेते हैं।

3. दिकस्थान संप्रत्यय (Concept of Space): नवजात शिशु में दिकस्थान संप्रत्या अविकसित होता है अर्थात् एक नवजात शिशु यह नहीं समझ पाता है कि कोई वस किस दिशा में है और कितनी दूरी पर है।

> 13वें महीने से अधिकतर शिशु उन वस्तुओं को छूने की कोशिश नहीं करते। इ उनसे 20 इंच से अधिक दूरी पर होती है। परंतु, जब वस्तु 20 इंच से कम दू पर होती है, तब वह उसे छूने या पकड़ने की कोशिश करता है। अतः इससे य सिद्ध होता है कि इस अवस्था में मानसिक विकास होने के साथ-साथ शिशुओं। दिकस्थान संप्रत्यय भी विकसित हो जाता है।

4. भार का संप्रत्यय (Concept of Weight): शिशु को भार का ज्ञान ठीक से नह होता है। वह भार की मात्रा का अंदाज वस्तु के आकार के आधार पर लगाता है। शिशु यह समझता है कि बड़े आकार की सभी वस्तुएँ छोटे आकार की सभी वस्तुओं से भारी । होती है। उम्र बढ़ने के साथ-साथ मानसिक विकास में भी वृद्धि होती है।

5. समय का संप्रत्यय (Concept of Time): शिशुओं में समय का ज्ञान प्रारंभ में कुछ नहीं होता है। वह सुबह, शाम, दोपहर, रात नहीं समझता है। जब शिश 22-23 महीने का होता है तब वह सुबह, शाम, दोपहर का हल्का अर्थ समझने लगता और जब वह पूर्णतः 24 महीने का हो जाता है तब उसमें ‘आज’, ‘कल’ एवं ‘परस का भी कुछ-कुछ ज्ञान होने लगता है।

6. आत्म-संप्रत्यय (Self Concept): अपने-आपके बारे में जो शिशु एक प्रतिमDOI बनाता है उसे आत्म-संप्रत्यय (Self Concept) कहा जाता है। शिशुओं में इस अवस्प्रक्रि में पहले शारीरिक आत्म-संप्रत्यय का विकास होता है। 2 वर्ष बाद बालकों में मानसि चिंता आत्म-संप्रत्यय (Mental Self Concept) विकसित होता है जिसमें उसके संवेग, चिंतन स्मृति इत्यादि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

7. यौन भूमिका संप्रत्यय (Sex Role Concepts): नवजात शिशुओं में यह ज्ञा नहीं होता है कि लड़का तथा लड़की की आवाज, वेश-भूषा व्यवहार में क्या अंतर हाMa है। 2 साल की उम्र में मानसिक विकास में वृद्धि के साथ यह विकास हो जाता है।

8. सामाजिक संप्रत्यय (Social Concepts): नवजात शिशु में माता-पिता के क्रियाओं एवं संवेगों के प्रति अनुक्रिया करने की क्षमता नहीं होती है। परंत, 8वें मही से वे माता-पिता द्वारा दिखाये गये संवेगों के प्रति विशेष आनन अभिव्यक्ति (Facial Expression) अपनी प्रतिक्रिया अर्थात् सांवेगिक प्रतिक्रियाओं (Emotional Reaction द्वारा व्यक्त करते हैं।

पारंभिक बाल्यावस्था में मानसिक विकास Mental Development During Early Childhood भिक बाल्यावस्था 2 वर्ष से प्रारंभ होकर 6 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था में बालकों का मानसिक विकास अधिक तीव्र गति से होता है। बालकों की बौद्धिक क्षमताएँ बढ़ जाती हैं। बालक में वस्तुओं एवं घटनाओं के बीच संबंध को समझने तथा परखने की असता तीव्र हो जाती है। इस अवस्था में बालकों में क्रियात्मक संगठन (Motor Coordination) की क्षमता भी बढ़ जाती है। इस अवस्था में होनेवाले मानसिक विकास निम्नलिखित हैं-

अन्वेषणात्मक प्रवृत्ति का विकास (Development of Exploratory Tendency): इस अवस्था में बालकों में मानसिक विकास का स्तर कुछ ऊँचा हो जाने से उत्सुकता अभिप्रेरण (Curiosity Motive) अधिक प्रबल हो जाता है; फलस्वरूप वह क्या, कहाँ, कैसे एवं क्यूँ से प्रारंभ होनेवाले प्रश्न अधिक पूछते हैं।

प्रायः यह देखा जाता है कि लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ ऐसे प्रश्न अधिक करती हैं तथा उच्च सामाजिक-आर्थिक स्तर के परिवार के बालकों द्वारा निम्न सामाजिकआर्थिक स्तर के परिवार के बालकों की अपेक्षा इस ढंग से अन्वेषणात्मक प्रश्न (Exploratory Questions) अधिक पूछे जाते हैं।

12. जीवन मृत्यु के संप्रत्यय (Concept of Life and Death) इस अवस्था में बालकों में जीवन एवं मृत्यु के संप्रत्यय का विकास हो जाता है। बालक सजीव एवं निर्जीव वस्तुओं में अंतर समझने लगता है। 13. दिकस्थान संप्रत्यय (Concept of Space): चार वर्ष की अवस्था में बालकों में छोटी दूरी का सही-सही प्रत्यक्षण करने की क्षमता विकसित हो जाती है, परंतु लंबी दूरी का सही रूप से प्रत्यक्षण 6 वर्ष के बाद ही संभव हो पाता है। 14. चिंतन एवं तर्क (Thinking and Logic): इस अवस्था में बालकों में चिंतन एवं तर्क का विकास होता है। इस अवस्था में बालकों का मानसिक विकास (Mental Development) इस स्तर का होता है कि वह जोड़, घटाव, गुणा, भाग इत्यादि जैसी प्रक्रियाएँ करता है, परंतु इन सबके पीछे छिपे नियमों को वह नहीं समझ पाता है। अर्थात् चितन तर्कसंगत (Logical) नहीं होता है।

इस अवस्था में बालकों के चिंतन में आत्मकेंद्रिता (Egocentricity) अधिक होती है, क्योंकि उनके चिंतन में उनकी आवश्यकताओं की भूमिका प्रधान होती है।

उत्तर-बाल्यावस्था में मानसिक विकास Mental Development in Later Childhood

उत्तर बाल्यावस्था की अवस्था 6 से 12/13 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालकों का अपने साथियों का एक समूह होता है। उनका सामाजिक विकास अधिक मजबूत हा जाता है जिससे उसका मानसिक विकास भी अत्यधिक प्रभावित होता है। इस अवस्था में बालकों में ठोस एवं संक्रियात्मक चिंतन (Concreteand Operational nking) एवं मुद्रा संबंधी संप्रत्यय (Concept of Money) इत्यादि का विकास होता है।

इस अवस्था में बालक स्पष्ट रूप से इंच, फीट, वर्ग, मील, मीटर तथा किलोक का अर्थ समझने लगता है।

> 9-10 वर्ष के उम्र में बालक 1000 तक की संख्या का अर्थ समझने लगता है।’ तारीख, मास, वर्ष समझने की भी क्षमता विकसित हो जाती है।

> 12-13 वर्ष के उम्र में बालकों में योजना बनाकर काम करने की प्रवृत्ति विका हो जाती है।

किशोरावस्था में मानसिक विकास Mental Development During Adolescence

> किशोरावस्था 13 वर्ष से प्रारंभ होकर 19-20 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था * लड़कों एवं लड़कियों की मानसिक क्षमता का विकास अधिकतम बिन्दु पर होती।

मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, इस अवस्था के अंत तक लड़के-लड़कियों में मानसिक विकास अधिकतम हो जाता है और जीवन के बाद के वर्षों में इस मानसिक क्षम का मात्र सुदृढ़ीकरण होता है।

इस अवस्था में किशोर तथा किशोरियों की अभिरुचियाँ अधिक विस्तृत हो जात् हैं। इन अभिरुचियों में सामाजिक अभिरुचियाँ तथा शैक्षणिक अभिरुचि का महत शिक्षा के दृष्टिकोण से अधिक महत्वपूर्ण है। किशोरावस्था में होनेवाले मानसिक विकास निम्नलिखित हैं

(a) चिंतन में औपचारिक क्रियाएँ (Formal Operations in Thinking): इस अवस्था में किशोरों का चिंतन अधिक क्रमबद्ध होता है और सभी तरह की औपचारिक संक्रियाज (Formal Operations) की मदद से विभिन्न तरह के विश्लेषण करने में सक्षम होते है।

इस अवस्था में बालक किसी समस्या के समाधान में अपनी चिंतन प्रक्रिया को इत+ तार्किक (Logical) एवं क्रमबद्ध (Systematic) बनाकर रखते हैं कि उन्हें कित • तरह की समस्या का समाधान करने में कम-से-कम कठिनाई होती है।

(b) एकाग्रचितता (Concentration) इस अवस्था में किशोरों का मानसिक विका इस स्तर का हो जाता है कि उनमें एकाग्रचित होने की क्षमता बढ़ जाती है।

() तथ्यों को सामान्यीकरण की क्षमता (Ability toGeneralise Facts): किशोरावस में किशोरों में अमूर्त्त ढंग से सामान्यीकरण करने की क्षमता होती है।

(d) दूसरों के साथ संचार करने की क्षमता में वृद्धि (Increase in the Ability Communicate with Others)

(e) समझ एवं पकड़ की क्षमता में वृद्धि (Increase in the Ability to Cati and Understand)

(Oनिर्णय करने की क्षमता में वृद्धि (Increase in the Ability to Make Decision (g) स्मृति शक्ति का विकास (Development of Memory Power) (h) नैतिक संप्रत्ययों की समझ (Understanding Moral Concepts)

समस्या को अमूर्त संकेतों द्वारा समाधान करने की क्षमता (Ability to Solve मनिया के प्रमुख व्यक्तित्व एवं परिस्थितियों के साथ तादात्म्य (Identification Problems by Abstract Symbols) बाहरी दुनिया के प्रमाण with Major Personalities and a

परीक्षोपयोगी तथ्य

जीरिक विकास से तात्पर्य बालको की उम्र के अनुसार शारीरिक आकार (Body Size), शारीरिक अनुपात (Body Proportions), हड्डियाँ (Bones), मांसपेशियाँ (Muscles), डाँत तथा तंत्रिका तंत्र (Nervous System) के समुचित विकास से होता है।

भिक बाल्यावस्था में कुछ बालकों का शारीरिक गठन (B बालको का शारीरिक गठन (Body Build) मोटा होता है वे एण्डोमॉर्फिक कहलाते हैं, कुछ का शारीरिक गठन हट्ठा-कट्ठा होता है, मेसोमॉर्फिक गठन के होते है, कुछ का शारीरिक गठन दुबला-पतला होता है, वे एक्टोमॉर्फिक गठन (Ectomorphic Build) के होते हैं।

क्रियात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में उनकी मांसपेशियों तथा तंत्रिकाओं के समन्वित कार्य द्वारा अपनी शारीरिक क्रियाओं (Bodily Activities) पर पूर्ण नियंत्रण प्राप्त करने से होता है।

बालकों के क्रियात्मक विकास के प्रयोगात्मक अध्ययनों से प्राप्त निष्कर्ष के आधार वस्थ पर क्रियात्मक विकास मूलतः मस्तकाधोमुखी विकास क्रम (Cephalocaudal Development Sequence) के अनुसार अर्थात सिर से पैर की दिशा में होता पाया गया है। मानसिक विकास से तात्पर्य व्यक्ति के जन्म से परिपक्वता तक की मानसिक क्षमताओं एवं मानसिक कार्यों के उत्तरोत्तर प्रकटन एवं संगठन की प्रक्रिया से होता है।

मनविज्ञानिकों ने मानसिक विकास की तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है प्रतिवर्त्त या सहज क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Action), इच्छित या ऐच्छिक का अवस्था (Stageof Desived or VoluntaryActivities)तथा उद्देश्यपूर्ण कार्य करने की अवस्था (Stage of Purposeful Action)।

क प्रथम पाँच साल में बालकों के मानसिक विकास की कई विशेषताएँ ‘सवदन की क्षमता का विकास, समाज का विकास, दिकस्थान संप्रत्यय space), भार का संप्रत्यय (Concept of Weight), समय का सप्रत्यय Pror Time) तथा आत्म-संप्रत्यय (Self-Concept), यौन-भूमिका सप्रत्यय, सामाजिक संप्रत्यय इत्यादि महत्वपूर्ण है। स्था (Early Childhood) में बालकों में होनेवाले मानसिक विकास म अन्वेषणात्मक प्रवृति का विकास, जीवन-मृत्यु का संप्रत्यय, oncept of Space),चिंतन एवं तर्क इत्यादि प्रमुख हैं। Later Childhood) में बालकों में होनेवाले मानसिक विकास की

.विशेषताओं में ठोस एवं संक्रियात्मक चिंतन, जीवन-मृत्यु का संप्रत्यय मृत्यु के बा जीवन का संप्रत्यय, मुद्रासंबंधी संप्रत्यय का विकास आदि महत्वपूर्ण हैं।

किशोरावस्था में होनेवाले मानसिक विकास की विशेषताओं में चिंतन में औपचारित) संक्रियाएँ, एकाग्रचित्तता, तथ्यों के सामान्यीकरण की क्षमता, दूसरों के साथ संचा करने की क्षमता, समझ एवं पकड़ की क्षमता में वृद्धि, स्मृति शक्ति का विकार नैतिक संप्रत्ययों की समझ, समस्या का अमूर्त संकेतों द्वारा समाधान करने की क्षम तथा बाहरी दुनिया के प्रमुख व्यक्तित्व एवं परिस्थितियों के साथ तादात्म्य करने क्षमता आदि प्रधान हैं।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Abhikshamta Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Abhikshamta Study Material : UPTET and CTET Chapter 12 अभिक्षमता Study Material in Hindi पोस्ट में आप सभी का फिर से स्वागत है | दोस्तों आज की पोस्ट में आप UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Chapter 12 Abhikshamta in Hindi PDF में Free Download करने जा रहे है |

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Abhikshamta Study Material

अभिक्षमता | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 12 अभिक्षमता Study Material in Hindi

अभिक्षमता (Aptitude) एक महत्वपूर्ण पद है जिसका अर्थ किसी विशेष विषय या में ज्ञान, अभिरुचि, कौशलता इत्यादि विकसित करने की क्षमता से होता है।

मिशता किसी विषय या क्षेत्र में ज्ञान हासिल करने या सीखने की अंतःशक्ति (Potential) है। किसी छात्र की अभिक्षमता को जानकर शिक्षक आसानी से उसके भविष्य के निष्पादनों के बारे में पूर्वानुमान लगा सकते हैं।

फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, “उन गुणों के संयोग जिनसे कुछ विशिष्ट ज्ञान एवं संगठित अनुक्रियाओं के सेट की कौशलता जैसे कोई भाषा बोलना, गायक बनना, यांत्रिक कार्य करना इत्यादि को सीखने की क्षमता का पता चलता है, अभिक्षमता कहा जाता है।

ट्कमैन (Tuckman) के अनुसार, “क्षमताओं एवं अन्य गुणों चाहे जन्मजात हों या अर्जित हों, का एक ऐसा संयोग जिससे व्यक्ति में सीखने की क्षमता या किसी खास क्षेत्र में निपुणता विकसित करने की क्षमता का पता चलता है, अभिक्षमता कहलाता

अभिक्षमता के मापन Measurement of Aptitude

अभिक्षमता का मापन मानक परीक्षणों (Standardized Test) द्वारा किया जाता है। एस परीक्षणों को अभिक्षमता परीक्षण (Aptitude Test) कहा जाता है। इसे दो भागों में विभाजित किया गया है-

Ha) सामान्य अभिक्षमता परीक्षण (General Aptitude Test): सामान्य अभिक्षमता पराक्षण वैसे परीक्षण को कहा जाता है जिसके द्वारा छात्रों के सभी विशिष्ट अभिक्षमताओं का मापन एक साथ किया जाता है। इसलिए इस परीक्षण को बहअभिक्षमता परीक्षणमाला (Multi-Aptitude Batteries) भी कहा जाता है।

बहुअभिक्षमता परीक्षणमाला विभिन्न प्रकार के हैं परंतु DAT (Differential Aptitude Test) Bir GATB (General Aptitude Test Battery) Halterch द्वारा 8वीं कक्षा के परुष छात्र तथा महिला छात्रों की आठ तरह का उ । मापन होता है। इस प्रकार इसमें आठ अभिक्षमता परीक्षण (Aptitude Tests) है, जो इस प्रकार हैं

★ शाब्दिक चिंतन (Verbal Reasoning or VR)

सख्यात्मक क्षमता (Numerical Ability or NR)

अमूर्त चिंतन (Abstract Reasoning or AR)

दैशिक संबंध (Space Relations or SR)

★ यांत्रिक चिंतन (Mechanical Reasoning or MR)

प्रत्यक्षज्ञानात्मक गति और परशुिद्धता (Perceptual Speed & Accuracy or

PSA) * वर्तनी (Spelling or SP) *

भाषा उपयोग (Language Usage or LU)

DAT पूरे विश्व में लोकप्रिय है। इसी लोकप्रियता के परिणामस्वरूप DAT का हिन्दी भाषा में व्यानुकूलन (Adaptation) प्रो. जे. एम. ओझा द्वारा किया गया है, जो ‘मानसायन’ दिल्ली द्वारा प्रकाशित हुआ है।

GATB द्वारा 9 अभिक्षमताओं (Aptitudes) का मापन 12 परीक्षणों द्वारा होता है। 12 में से 8 परीक्षण पेपर-पेंसिल परीक्षण (Paper-Pencil Tests) है तथा 4 परीक्षण ऐसे हैं जिनके क्रियान्वयन (Administer) करने के लिए उपकरण की जरूरत पड़ती है। इस प्रकार पूरी परीक्षणमाला का क्रियान्वयन करने में लगभग 2 घंटे 30 मिनट का समय लगता है।

> GATB द्वारा निम्नलिखित 9 अभिक्षमताओं को मापा जाता है |

1.बुद्धि (Intelligence or G): इसके द्वारा तीन प्रकार की अभिक्षमताएँ मापी जाती है शब्दावली (Voacbulary), अंकगणितीय चिंतन (Arithmetical Reasoning) और त्रिविमीय स्पेस (Tri-Dimensional Space)।

2. शाब्दिक (Verbal or V) : इसके समानार्थक शब्द एवं विलोम शब्दों की शब्दावली | से संबंधित ज्ञान की माप होती है।

3. संख्यात्मक (Numerical or N) : इससे परिकलन (Computation) एवं अंकगणितीय चिंतन (Arithmetical Reasoning) की माप होती है।

4. दैशिक (Spatial or S) : इसके द्वारा वस्तुओं को दो विमाओं में उपस्थित करके त्रिविमीय प्रत्यक्षण (Tri-Dimensional Perception)करने की क्षमता की माप की जाती है।

5. लिपिक प्रत्यक्षण (Clerical Perception or Q): इसके द्वारा नामों के मिलान करने की क्षमता की माप होती है।

6. क्रियात्मक समन्वय (Motor Co-ordination or K) : इसके द्वारा विशिष्ट चिह्नों को कई वर्गों में सजाने की क्षमता की माप होती है।

7. अंगुली निपुणता (Finger Dexterity or F): इसके द्वारा मशीनों के वाशर एवं रिवेट (Rivet) को इकट्ठा करना तथा उसे बिखेरकर पुनः इकट्ठा करने की क्षमता की माप होती है।

8. हस्त निपुणता (Manual Dexterity or M): मशीन की खंटियों तथा धुंडी (Knob) को घुमाने की क्षमता का मापन होता है।

9. आकार  प्रत्यक्षण (Form Perception or P): इसके द्वारा वस्तुओं के विभिन्न हों को स्पष्ट करने की क्षमता की माप होती है।

सभी 9 प्राप्तांकों (Scores) को मानक प्राप्तांक (Standard Score) जिसका aan_100 तथा मानक विचलन (Standard Deviation)= 2 होता है, ATEU (Mean) = 1 के रूप में अभिव्यक्त किया जाता है। और GATB के अलावा अन्य बहुअभिक्षमता परीक्षणमालाएँ हैं FACT Aptitude Classification Test), Guilford-Zimmerman Aptitude Survey. Multiple Aptitude Test तथा Academic Promise Test इत्यादि।

विशिष्ट अभिक्षमता परीक्षण (Specific Aptitude Test): विशिष्ट अभिक्षमता से परीक्षण को कहा जाता है जिसके द्वारा किसी एक ही तरह की अभिक्षमता की जाती है। इसे एककारक अभिक्षमता परीक्षण (Unifactor Aptitude Test) भी कहा जाता है । प्रमुख परीक्षण निम्नलिखित हैं- AL SAT) Minnesota Mechanical Assembly Test: यह परीक्षण यांत्रिक अभिक्षमता को मापता है। इसे मिनेसोटा विश्वविद्यालय में 1930 में बनाया गया था।

2 SRA Mechancial Aptitude Test: यह परीक्षण भी यांत्रिक अभिक्षमता को ही मापता है। इस परीक्षण में 3 उपपरीक्षण है जो यांत्रिक अभिक्षमता के ही तीन विभिन्न पहलुओं को मापते हैं।

3. Test Seashore Measure of Musical Talent: यह परीक्षण छात्रों की संगीत अभिक्षमता मापने का सबसे पहला परीक्षण है। इसके द्वारा चौथे वर्ग के छात्रों से कॉलेज के छात्रों तक की संगीत अभिक्षमता का मापन होता है।

4. Dark Musical Aptitude Test : यह परीक्षण संगीत-अभिक्षमता को दो पहलुओं—संगीत स्मृति (Musical Memory) तथा लय (Rhythm) की माप करता है और इसका प्रयोग 8 वर्ष या ऊपर की आयु के छात्रों पर किया जाता है।

5. Detroit Clerical Aptitude Test : लिपिक अभिक्षमता मापने का यह एक प्रमुख परीक्षण है। जैसे

★ हस्तलेखन, क्रियात्मक गति एवं शुद्धता

* साधारण अंकगणित, साधारण वाणिज्यिक तथा व्यापारिक पदों का ज्ञान

* जाँच करना, आनुवर्णिक क्रम से सजाना

General Clerical Aptitude Test : यह परीक्षण भी सिर्फ लिपिक अभिक्षमता को मापने का परीक्षण है-

अंकगणितीय समस्या Arithmetic Problem

* हिज्जे वर्तनी (Spelling)

* शब्द का अर्थ (Word Meaning)

* भाषा-प्रयोग जिसमें व्याकरण भी सम्मिलित हो।

* पढ़कर समझना (reading कर समझना (Reading Comprehension)

7. Scientific Aptitude Test for College Students (SATC): यह परीक्षण बिहार में स्वर्गीय . के. पी. सिन्हा एवं स्वर्गीय एल. एन. के. सिन्हा द्वारा निर्मित किया गया है। इस परीक्षण द्वारा कॉलेज के छात्रों की वैज्ञानिक अभिक्षमता (Scientific Aptitudel को मापा जाता है।

शिक्षा में अभिक्षमता परीक्षण की उपयोगिता Utility of Aptitude Tests in Education शिक्षा के क्षेत्र में बुद्धि-परीक्षण के समान अभिक्षमता परीक्षण की उपयोगिता निम्नलिखित है-

(a) अभिक्षमता परीक्षण द्वारा छात्रों की समस्या का समाधान किया जाता है। जैसेपठन अभिक्षमता परीक्षण (Readiness Aptitude Test) का प्रयोग कर शिक्षक आसानी से इस बात की पहचान कर लेते हैं कि किस छात्र में तथ्यों को पढ़ने एवं उसे समझने की अभिक्षमता की कमी है तथा किस छात्र में यह अभिक्षमता प्रचुर मात्रा में है।

(b) अभिक्षमता परीक्षण का प्रयोग शिक्षकों एवं स्कूल परामर्शदाताओं द्वारा कुछ विशेष क्षेत्रों जैसे कला, चिकित्साशास्त्र आदि में छात्रों को पुनर्निवेशन प्रदान करने के लिए किया जाता है।

(c) अभिक्षमता परीक्षण द्वारा अभिक्षमता का मापन करके शिक्षक उत्तम अंतःशक्ति (Good Potential) वाले छात्रों का चयन कर लेते हैं।

(d) अभिक्षमता परीक्षण के आधार पर शिक्षक भविष्य में अमुक विषय या क्षेत्र में | छात्रों के निष्पादन के बारे में पूर्वानुमान लगा पाते हैं।

(e) अभिक्षमता परीक्षण का प्रयोग कर शिक्षक छात्रों का श्रेणीकरण कर पाते हैं तथा उसी के अनुसार उनका नियोजन करने में मदद मिलता है।

परीक्षोपयोगी तथ्य

> अभिक्षमता (Aptitude) से तात्पर्य किसी खास क्षेत्र या विषय में ज्ञान, अभिरुचि, कौशल इत्यादि विकसित करने की अंतःशक्ति है।

अभिक्षमता के मापन में दो परीक्षण सर्वाधिक महत्वपूर्ण है सामान्य अभिक्षमता परीक्षण, (General Aptitude Test) तथा विशिष्ट अभिक्षमता परीक्षण (Specific Aptitude Test)।

सामान्य अभिक्षमता परीक्षण को बहुअभिक्षमता परीक्षणमाला कहा जाता है। इनमें  DAT एवं GATB सर्वाधिक प्रचलित हैं।

विशिष्ट अभिक्षमता परीक्षण को एककारक अभिक्षमता परीक्षण कहा जाता है।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Ruchi Abhiruchi Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Ruchi Abhiruchi Study Material : आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET and CTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Chapter 11 अभिरुचि / रूचि Study Material in Hindi में पढ़ने जा रहे है | UPTET Chapter 11 in Hindi PDF में Download करने के लिए सबसे निचे दिए गये टेबल पर जाकर क्लीक करें |

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अभिरुचि/रुचि | UPTET बाल विकास एवं शिक्षा शसस्त्र Chapter 11 अभिरुचि / रूचि in PDF

ड्रेवर एवं वालरस्टीन (Drever and Wallerstein) के अनुसार, रुचि पद का प्रयोग सामान्यतः दो अर्थों में होता है—कार्यात्मक अर्थ (Functional Meaning) तथा संरचना मक अर्थ (Structural Meaning)। कार्यात्मक अर्थ में अभिरुचि का तात्पर्य एक ऐ भाव की अनुभूति से होता है (जिसे एक सार्थक अनुभूति कहा जाता है) जो किसी व पर दिये जानेवाले ध्यान या कोई किये जानेवाले कार्य से संबंधित होता है। » रिली (Reilly) के अनुसार, अभिरुचि बालकों में एक प्रेरणात्मक बल के रूप कार्य करता है, जिसके परिणामस्वरूप वह किसी वस्तु को अन्य वस्तुओं से अला कर उस पर विशेष ध्यान देता है।

अभिरुचि के प्रकार Types of Interest

सुपर एवं क्राइटीस (Super and Crities) द्वारा अभिरुचि को निम्न प्रकार से । वर्गीकृत किया गया है-

बिसान (a) व्यक्त अभिरुचि (Expressed interest): व्यक्त अभिरुचि वैसी अभिरुचि के कहा जाता है जिसमें किसी एक क्रिया (Activity) की तुलना में व्यक्ति किसी दूसरी क्रिया को अधिक पसंद करने की स्पष्ट अभिव्यक्ति करता है। उदाहरण—शिक्षक द्वार पूछने पर छात्र यदि स्पष्ट रूप से यह कहता है कि उसे संस्कृत एवं हिन्दी अन्य विषय की तुलना में अधिक रुचिकर लगता है, तो यह व्यक्त अभिरुचि (Expressed Interest का उदाहरण होगा। ळायव (b) प्रकट अभिरुचि (Manifest iterest): प्रकट अभिरुचि से तात्पर्य वैसी अभिरुदि से होता है जिसकी अभिव्यक्ति व्यक्ति द्वारा स्वतः अपनी इच्छा से कोई काम कर से होती है उदाहरण—यदि कोई छात्र प्रायः खाली समय में क्रिकेट खेलता है, तो ऐस कहा जाता है कि क्रिकेट में उसकी अभिरुचि है और यह अभिरुचि प्रकट अभिरुचि के उदाहरण होगा।

(c) आविष्कारिकात्मक अभिरुचि (Inventoried interest): आविष्कारिकात्मक अभिरुचि वैसी अभिरुचि को कहा जाता है, जिसका ज्ञान मानक अभिरुचि आविष्कारिक (Standard Interest Inventory) का क्रियान्वयन करने के बाद पता चलता है। – शिक्षाशास्त्रियों ने परीक्षित अभिरुचि (Tested Interest) का वर्णन बाद में किया।

परीक्षित अभिरुचि (Tested Interest): परीक्षित अभिरुचि से तात्पर्य वैसी अभिला से होता है जिसकी झलक व्यक्ति की उपलब्धियों (Achievement) से होती व उदाहरण के लिए यदि किसी छात्र को गणित विषय में अधिक अंक मिलते हैं, ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि गणित में उसकी अभिरुचि अधिक है।

स्कूलों में बालकों की अभिरुचि को प्रभावित करनेवाले कारक Factors Influencing Children’s Interest in School

रुचि को प्रभावित करनेवाले कारक निम्नलिखित हैं

प्रारंभिक विद्यालय की अनुभूतियाँ (Early School Experiences): वैसे बालक जो शारीरिक एवं मानसिक रूप से स्कूल जाने के लिए तैयार रहते हैं, उन्हें विद्यालय में समायोजन (Adjustment) करने में काफी सफलता मिलती है। ऐसे बालकों में प्रारंभिक विद्यालय की अनुभूतियाँ (Experiences) आनंददायक होती है।

जब बालक अपने माता-पिता या अभिभावक के मात्र दबाव से विद्यालय भेजे जाते * अर्थात जब बालक शारीरिक एवं मानसिक रूप से तैयार नहीं रहने के बावजूद स्कल में भेज दिये जाते हैं तो उन्हें वहाँ समायोजन करने में काफी दिक्कत होती है और धीरे-धीरे उनकी शैक्षिक अभिरुचि घटती चली जाती है।

(b) माता-पिता का प्रभाव (Parental Influences): माता-पिता का प्रभाव सामान्य रूप से विद्यालय के प्रति बालकों की मनोवृति पर पड़ता है।

(c) भाई-बहनों की मनोवृति (SiblingAttitudes): यदि बड़े भाई-बहनों की मनोवृति किसी विषय या शिक्षक के प्रति प्रतिकूल होती है, तो इसका प्रभाव बालक पर भी पड़ता है। उनमें भी वैसे ही मनोवृत्ति और उसी के अनुरूप अभिरुचि (Interest) विकसित हो जाती है। ऐसे बालक भी उन विषयों या शिक्षकों के प्रति नापसंदगी दिखाना प्रारंभ कर ( देते हैं।

(d) साथी-संगी की मनोवृति (Peers Attitude) : बालकों की अभिरुचि उनके साथी-संगी की मनोवृति द्वारा भी प्रभावित होती है। जब बालकों के साथियों की मनोवृति किसी विषय के प्रति प्रतिकूल हो जाती है तो इसका प्रभाव बालक पर भी पड़ता है और उनमें वैसी ही अभिरुचि विकसित हो जाती है।

(e) शैक्षिक सफलता (Academic Success): बालकों की अभिरुचि पर शैक्षिक सफलता का सीधा प्रभाव पड़ता है। यदि किसी बालक को स्कूल में लगातार शैक्षिक सफलता मिलती जाती है, तो इससे उसमें आत्मसंतोष उत्पन्न होता है और उसकी अभिरुचि शैक्षिक क्रियाकलाप एवं अध्ययन में अधिक बढ़ जाती है।

(1) कार्य के प्रति मनोवति (Attitude toward work): जिस वातावरण में बालक का पालन-पोषण होता है बालकों के कार्यों की रुचि भी उसी प्रकार के वातावरण में होती है।

8) शिक्षक छात्र (Teacher-Pupil Relationship): बालक स्कूल में दी जानेवाली राक्षा म कितनी अभिरुचि दिखाते हैं यह इस बात पर निर्भर करता है कि उनकी शिक्षकों व्याक्तगत अनुभूतियाँ (Personal Experience) कैसी हैं। यदि उनकी व्यक्तिगत तिया दुःखद है तो बालक की शैक्षिक अभिरुचि (Educational Interest) कम हो जायेगी। का सांवेगिक वातावरण, शिक्षको का मना

(h) स्कूल का सांवेगिक वातावरण (Emotional Climate of the school क वातावरण, शिक्षकों की मनोवति (Attitudes) एवं शिक्षकों द्वारा प्रतिपादित अनुशासन के नियम  क नियमों से प्रभावित होता है। वैसे शिक्षक जो कक्षा में प्रजातांत्रिक ढंग से cratically) बालकों को पढाते हैं तथा आकर्षक एवं मनोरंजक ढंग से बालको

के साथ अनुक्रिया करते हैं, छात्रों में स्कूल एवं शिक्षा के प्रति अभिरुचि उत्पन्न करने में सफल होते हैं।

> यदि शिक्षक कक्षा में अधिकारवादी ढंग से (Authoritatively) या अत्याधुनिक ढंग से छात्रों के साथ व्यवहार करते हैं या उनके पढ़ाने का ढंग अधिक ही उबाऊ होता है। ऐसी स्थिति में छात्रों में शिक्षा के प्रति रुचि में कमी आ जाती है या ऐसे छात्र प्रायः स्कूल से अपने आपको दूर रखने का कोई-न-कोई बहाना खोजते रहते हैं |

अभिरुचि का मापन Measurement of Interest

अभिरुचि के मापन के दो तरीके सर्वाधिक लोकप्रिय हैं-

1.शिक्षक-निर्मित प्रविधियाँ (Teacher-made Techniques): छात्रों की अभिरुचियों को मापने की कुछ ऐसी प्रविधियाँ (Techniques) हैं जिन्हें शिक्षकों द्वारा विशेष उद्देश्य से बनाया जाता है। यह विधि निम्नलिखित है-

(a) चिह्नांकन सूची (Check List): चिह्नांकन सूची में शिक्षक विभिन्न शैक्षिक कार्यक्रम (Educational Activities) की एक सूची तैयार करते हैं। छात्रों को यह सूची इस निवेदन के साथ दे दिया जाता है कि जिन शैक्षिक क्रियाओं में उनकी अभिरुचि हो उनमें सही का चिह्न (1) लगा दें। > इससे शिक्षकों को छात्रों की सभी प्रमुख रुचि का कम समय में ही अच्छा ज्ञान हो जाता है। छात्रों की अभिरुचि मापने की यह सरल विधि है।

(b) श्रेणीकरण (Ranking) : इस विधि में शिक्षक विभिन्न तरह की शैक्षिक क्रियाओं की एक सूची तैयार करते हैं जो छात्रों को इस निवेदन के साथ देते हैं कि वे इन क्रियाओं को अपनी अभिरुचि के क्रम में श्रेणीकरण कर दें। 1 की कोटि (Rank) उस क्रिया को दें जिसमें उनकी रुचि सबसे अधिक हो, उससे कम पसंद की रुचि को 2 की कोटि दे और इस प्रकार अंतिम कोटि उसे दें जिसमें उनकी रूचि सबसे कम हो।

> श्रेणीकरण से पहले छात्रों की विशेष रुचि का पता चलता है। दूसरा, जब प्रत्येक क्रिया का प्रत्येक छात्र द्वारा दी गयी कोटि के द्वारा औसत कोटि (Average Rank, ज्ञात कर ली जाती है, तो इससे पूरी कक्षा के अधिमान (Class Preferences) का आसानी से मूल्यांकन हो जाता है।

पसंदगी एवं नापसंदगी की मात्रा को दी गयी मापनी (Scale) के बिन्दुओं में से किस एक पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करके करते हैं। जैसे (A) पत्रिका पढ़ना अत्यधिक पसंद-पसंद-तटस्थ-नापसंद-अत्यधिक नापसद । (B) संगीत सुनना—अत्यधिक पसंद-पसंद-तटस्थ-नापसंद-अत्यधिक नापसदा दिये गये उत्तर का विश्लेषण करके छात्रों की पसंदगी तथा नापसंदगी का पता किय जाता है। सामान्यतः विश्लेषण करने के लिए अत्यधिक पसंद, पसंद, तटस्थ नापसंद तथा अत्यधिक नापसंद के लिए क्रमशः 5, 4, 3, 2 एवं 1 का अंक दिया जाता है।

(d) स्वतंत्र अनुक्रिया प्रविधि (Free Response Technique): इस विधि में शिक्षण छात्रों से कछ ऐसे प्रश्न करते हैं जो उनकी आदत, शोक (Hobby) या उन क्रियाग

से सम्बन्धित होते हैं जिनमें उनकी अभिरुचि अधिक होती है। यहाँ छात्र उन प्रश्नों की भिव्यक्ति करने में अपनी इच्छानुसार शब्दों का प्रयोग करते हैं। मानक अभिरुचि आविष्कारिका (Standard Interest Inventory): अभिरुचि ना विशेषज्ञों द्वारा लगभग 62 मानक अभिरुचि आविष्कारिका उपलब्ध कराये शिक्षा के दृष्टिकोण से तीन मानक अभिरुचि आविष्कारिका महत्वपर्ण हैं. स्ट्राँग अभिरुचि आविष्कारिका (Strong Interest Inventory or SII): इस रिका का निर्माण ई. के. स्ट्राँग (EK Strong) द्वारा किया गया। इस आविष्कारिका स . एक फार्म का प्रयोग पुरुषों की अभिरुचि मापने में किया जाता है और र्म का प्रयोग महिलाओं की रुचि मापने में किया जाता है। दोनों फार्म द्वारा उच्च विद्यालय, कॉलेज के छात्रों एवं वयस्को की रुचि का मापन होता है।

प्रत्येक फार्म में 400-400 एकांश है जिनके द्वारा व्यक्तियों की रुचि मूलतः विभिन्न स्कल के विषयों, पेशा (Occupation), विभिन्न तरह के मनोरंजन (Amusements) इत्यादि के प्रति मापी जाती है।

> SII में व्यक्तियों की अभिरुचि को मानक प्राप्तांक (Standard Score) यानी प्राप्तांक के रूप में व्यक्त किया जाता है। कैंपबेल (Campbell) के अनुसार यदि किसी छात्र या व्यक्ति का प्राप्तांक 57 या 58 से अधिक आता है, तो यह समझा जाता है कि उस व्यक्ति या छात्र की अभिरुचि उस विषय या क्षेत्र में एक सामान्य व्यक्ति की अभिरुचि से श्रेष्ठ है।

SBIV के पुरुष फार्म का दो बार संशोधन हो चुका है—एक बार 1938 में दूसरी बार 1966 में। महिला फार्म का भी दो बार संशोधन हो चुका है—एक बार 1946 में और दूसरी बार 1969 में।

1974 में कैम्पबेल ने SBIV का संशोधित प्रारूप प्रस्तुत किया, जिसे स्ट्राँग कैंपबेल अभिरुचि आविष्कारिका कहा गया। इसमें 325 एकांश थे जिसके द्वारा पेशा (Occupation), स्कूल विषय (School Subjects), क्रियाएँ (Activities), मनोरंजन (Amusements), व्यक्तियों के प्रकार (School Subjects), दो क्रियाओं के बीच वरीयता इत्यादि के प्रति अभिरुचि का मापन होता है। -Bा कुडर परीक्षण (Kuder Tests): इस परीक्षण का निर्माण जी. एफ. कुडर द्वारा 1904 म तथा उसके बाद के भिन्न वर्षों में किया गया। विभिन्न वर्षों में कुडर (Kuder) ने व मापन के लिए कुल 4 परीक्षणों का निर्माण किया है। कडर व्यक्तिगत अधिमान der Personal Preference Record), कुडर वोकेशनल इंटरेस्ट सर्वे, फार्म uder Vocational Interest Survey), औकपेशनल इंटरेस्ट सर्वे, फार्म डी (तथा जेनरल इंटरेस्ट सर्वे । जनरल इंटरेस्ट सर्वे द्वारा 10 विभिन्न क्षेत्रों में व्यक्तियों की अभिरुचि का मापन होता है यांत्रिक (Mechanical), a त्रिक (Mechanical), वैज्ञानिक (Scientific), लिपिक (Clerical), सामाजिक सेवा (Social Service), स वा (Social Service), संगीत (Musical), साहित्यिक (Literary), कलात्मक (Artistic), परिकल्पनात्मक (Artistic), परिकल्पनात्मक (Computational), बाहर (Outdoors) तथा प्रत्ययकारी (Persuasive)।

औकुपेशनल इंटरेस्ट सर्वे, फार्म डी द्वारा 52 विभिन्न पेशाओं में व्यक्तियों की अभिरुचि मापी जाती है तथ फार्म डी द्वारा महिलाओं के लिए 57 विभिन्न पेशा में तथा पुरुषों के लिए 79 विभिन्न पेशा में रुचि मापी जाती है।

( माइनेसोटा वोकेशनल इंटरेस्ट इन्वेंट्री (Minnesota Vocational Interest ___Inventory or MVII): इस परीक्षण का निर्माण 1965 में किया गया था तथा इसके द्वारा 21 पेशाओं में वैसे व्यक्तियों की अभिरुचि की माप की जाती है जिनमें कॉलेज की शिक्षा ठीक से नहीं हो पायी है जिनमें अर्द्ध-कौशल कार्य के प्रति उन्मुखता अधिक होती है।

अभिरुचि में शिक्षा का महत्व Importance of Interest in Education

कक्षा में छात्रों की रुचि पठन-पाठन में बनाये रखने के लिए निम्नलिखित बातों का ध्यान रखना चाहिए-

(a) शिक्षकों को कक्षा में प्रजातंत्रात्मक माहौल बनाना चाहिए ताकि छात्र के मन में शिक्षक या स्कूल के प्रति किसी प्रकार का भय तथा संशय न रहे।

(b) शिक्षक को कक्षा में सरल भाषा या समझने योग्य भाषा का प्रयोग करना चाहिए ताकि शिक्षक की बातों को सुनने तथा समझने में छात्रों की रुचि बना रहे ।

(c) शिक्षकों को कक्षा में छात्रों की रुचि बनाये रखने के लिए पढ़ाते समय चित्र मॉडल तथा श्रव्य-दृश्य उपकरणों का प्रयोग करना चाहिए।

(d) शिक्षकों को कक्षा में पठन-पाठन का स्तर छात्रों के बुद्धि-स्तर के अनुरूप रखना। चाहिए।

(e) शिक्षकों को समय-समय पर छात्रों को गैर-शैक्षिक कार्यक्रम जैसे—खेल-कूद, वादविवाद, प्रतियोगिता तथा भ्रमण इत्यादि में भाग लेने के लिए प्रेरित करते रहना चाहिए ।

(6) प्रत्येक शिक्षक को अभिरुचि के सिद्धांत का ज्ञान होना चाहिए।

परीक्षोपयोगी तथ्य

अभिरुचि में व्यक्ति वस्तुओं या क्रियाओं का चयन करके उसे पसंद-नापसंद विमा में कोटिबद्ध करता है।

अभिरुचि/रुचि (Interest) के कई प्रकार हैं जिनमें व्यक्त अभिरुचि (Expressed Interest),प्रकट अभिरुचि (Manifest Interest) तथा आविष्कारिकात्मक अभिरुचि (Inventoried Interest) प्रधान है।

अभिरुचि को प्रभावित करनेवाले कारक हैं प्रारंभिक विद्यालय की अनुभूतिया माता पिता का प्रभाव, भाई-बहनों की मनोवृत्ति, साथी-संगी की मनोवृत्ति, शैक्षिक सफलता, कार्य के प्रति मनोवृत्ति, शिक्षक, छात्र तथा स्कूल का सांवेगिक वातावरण इत्यादि।

भचिकेमापन की दो विधि है शिक्षक-निर्मित प्रविधियाँ (Teacher Madi Techniques) तथा मानक अभिरुचि आविष्कारिका (Standard Interes Inventories)

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Vyaktigat Vibhinta Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Vyaktigat Vibhinta Study Material : आप सभी अभ्यर्थी आज की पोस्ट में UPTET Books and Notes Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 10 व्यक्तिगत विभिन्नताएँ Study Material in Hindi में पढ़ने जा रहे है | अभ्यर्थी UPTET Chapter 10 व्यक्तिगत विभिन्नताएँ in Hindi PDF में भी Free Download कर सकते है |

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Vyaktigat Vibhinta Study Material

व्यक्तिगत विभिन्नताएँ | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 10 Study Material in Hindi

वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन सर्वप्रथम गाल्टन (Galton) ने प्रारम्भ किया. इनके यह अध्ययन वैज्ञानिक थे। वैयक्तिक भिन्नताओं के ही कारण एक व्यक्ति हजारों रुपये रोज कमाता है और दूसरे केवल कुछ रुपये भी कमाने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक योग्यताएँ समान न होकर भिन्न-भिन्न होती हैं। स्किनर (Skinner) के अनुसार, “आजकल वैयक्तिक भिन्नताओं के अध्ययन में व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के किसी भी मापने योग्य पहलू को सम्मिलित किया जाता है।”

जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “एक समूह के सदस्यों में समूह के औसत से मानसिक या शारीरिक विशेषताओं का विचलन ही वैयक्तिक भिन्नताएँ हैं।

वैयक्तिक भिन्नताओं का विस्तार Range of Individual Differences

वैयक्तिक भिन्नताओं के विस्तार से अभिप्राय है कि सर्वाधिक मात्रा में अच्छे कौशल वाले व्यक्ति तथा सबसे कम मात्रा में कौशल वाले व्यक्ति में कितना अंतर होता है। औद्योगिक मनोविज्ञान में वैयक्तिक भिन्नताओं के विचार का अभिप्राय है कि निम्न लक्षण वाले और श्रेष्ठ लक्षण वाले कर्मचारी में क्या अंतर है?

> हल (Hull) ने अपने एक अध्ययन में 107 हाई स्कूल के छात्रों को चुना। इनसे उसने 35 मानकीकृत परीक्षण भरवाए। परीक्षण के परिणामों के आधार पर उसने श्रेष्ठ कौशल वाले और निम्न कौशल वाले छात्रों को छाँटकर दो समूहों में विभाजित किये। निम्न कौशल वाले और श्रेष्ठ कौशल वाले छात्रों में इसे जो अनुपात प्राप्त हुए, वह इस प्रकार है–1 : 1.2, 1 : 3, 1 : 5.2, 1 : 5.7, 1 : 7.6, 1 : 19 आदि । सभी परीक्षणों के आधार पर औसत अनुपात 1: 5.2 प्राप्त हुआ।

वेश्लर (Wechsler) ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह अनुपात 2 : 1 का प्राप्त किया। वेश्लर ने अपने अध्ययनों में मानकीकृत मानसिक परीक्षणों का उपयोग किया। औद्योगिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में श्रेष्ठ और निम्न में 2 : 1 का अनुपात माना जाता है।

वैयक्तिक विभिन्नता के प्रकार या क्षेत्र Kinds or Areas of Individual Difference

व्यक्ति के जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में वैयक्तिक विभिन्नता (Individual Difference) पायी जाती है। अतः वैयक्तिक विभिन्नता के कई प्रकार हैं-

एक ऐसी विभिन्नता के इसके लिए किसी विशेष होती है। एक ही उम्र के बालक

नारीरिक विकास (Physical Development): शारीरिक विकास में विभिन्नता वभिन्नता है जिसका प्रत्येक व्यक्ति स्पष्ट रूप से प्रत्यक्षण कर सकता है। । किसी विशेष उपकरण (Apparatus) या विशेष प्रशिक्षण की जरूरत नहीं की उम्र के बालकों के शारीरिक विकास एवं परिपक्वता में स्पष्ट अंतर मिलता है। शिक्षकगण इस तरह के ज्ञान का विशेष फायदा शिक्षा के शिक्षण (Classroom Teaching) में उठा सकते हैं।

मानसिक विकास (Mental Development): वैयक्तिक विभिन्नता का दूसरा क्षेत्र मानसिक विकास है। फ्रीमैन तथा फ्लोरी (Freeman & Flory) द्वारा किये अध्ययन से यह स्पष्ट हो गया है कि स्कूल के छात्रों की बुद्धि का मापन करने में में सामान्यता की विभिन्नता (Difference of Normality) पायी जाती है। कछ ही ऐसे बच्चे होते हैं जो तेज बुद्धि के अर्थात जिनकी बुद्धिलब्धि (IQ) 120 या इससे ऊपर होती है और उसी ढंग से कुछ ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो मन्द बुद्धि के अर्थात जिनकी बुद्धि स्तर 90 से नीचे होती है। अधिकतर छात्रों की बुद्धिलब्धि 100 से 110 के बीच होती है।

(c) सांवेगिक विभिन्नता (Emotional Differences): बालकों में सांवेगिक विभिन्नता पायी जाती है। कुछ बालकों में क्रोध, भय, डाह आदि जैसे संवेग अधिक होते हैं तो कुछ बालकों में इन संवेगों की कमी पायी जाती है। कुछ बालकों में स्नेह, प्यार आदि जैसे संवेग की प्रधानता होती है, तो कुछ बालकों में सहानुभूति तथा दूसरों की भलाई के भाव (Altruism) की प्रधानता होती है।

(d) सामाजिक विकास (Social Development): सामाजिक विकास में भी बालकों में स्पष्ट विभिन्नता पायी जाती है। कुछ बालक अधिक संकोचशील होते हैं तो कुछ बालक साहसी एवं बहादुर होते हैं। कुछ बालक कक्षा के नेतृत्व को अपने दामन में समेटना पसंद करते हैं तो कुछ बालक इसे सिरदर्द समझकर अपना दामन छुड़ाना चाहते है। सामाजिक परिस्थिति समान रहने पर भी विभिन्न बालकों द्वारा विभिन्न तरह की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ की जाती हैं।

(e) उपलब्धियों में अंतर (Difference in Achievements): बालको या छात्रों की उपलब्धियों में कई कारणों से विभिन्नता पायी जाती है। एक ही उम्र, एक ही बुद्धि एवं एक ही कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियाँ हमेशा समान नहीं होती हैं। कुछ स छात्र की शैक्षिक उपलब्धियाँ काफी अधिक होती हैं तो कुछ ऐसे छात्र की शैक्षिक “यचा काफी कम होती हैं, ऐसे छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियों में अंतर का प्रमुख उनका अभिरुचि (Interest). प्रेरणा (Motivation) तथा अभ्यास (Iractice) में अंतर होता है।

(1) भाषा विकास (Language Devers भाषा-विकास के क्षेत्र में भी पाया जाता स (Language Development): बालकों में वैयक्तिक विभिन्नता विकसित होती है तो कुछ म होती है। कुछ बालकों में लिखने, बोलने तथा समझने की शक्ति अधिक ता है तो कुछ में कम होती है। इस कारण से भी समान उम्र एवं बुद्धि के का शैक्षिक उपलब्धि में अंतर हो जाता है।

(g) ज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक क्षमताओं में अंतर (Differences in Cognitive and Motor Capacities) : कुछ छात्रों में क्रियात्मक नियंत्रण (Motor Control) तथा ज्ञानात्मक क्रियात्मक समन्वय (Cognitive-Motor Co-ordination) की क्षमता अधिक होती है, जबकि कुछ छात्रों में ऐसी क्षमताएँ सामान्य होती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ छात्र उन कार्यों में अधिक श्रेष्ठ होते हैं जिनमें ज्ञानात्मक क्रियात्मक समन्वय की अधिकता होती है।

(h) व्यक्तित्व विभिन्नता (Differences in Personality) बालकों के व्यक्तित्व में भी विभिन्नता  यी जाती है। कुछ बालक अन्तर्मुखी (Introvert) होते हैं तो कुछ बहिर्मुखी (Extrovert) होते हैं। कुछ में नेतृत्व संबंधी गुण अधिक होते हैं तो कुछ में अनुयायी बनने के गुण अधिक होते हैं।

(i) अभिरुचियों एवं अभिक्षमताओं में विभिन्नता (Differences in Interests and Aptitudes) : कुछ छात्रों की यांत्रिक अभिक्षमता (Machanical Aptitude) अधिक विकसित होती है, तो कुछ छात्रों की संख्यात्मक अभिक्षमता (Numerical Aptitude) अधिक विकसित होती है। इस तरह छात्रों में विभिन्नता अभिक्षमता एवं अभिरुचि के आधार पर भी होता है।

वैयक्तिक विभिन्नता के कारण Causes of Individual Difference

वैयक्तिक विभिन्नता के कारण निम्नलिखित हैं-

(a) आनुवंशिकता (Heredity) : वैयक्तिक विभिन्नता का एक प्रमुख कारण आनुवंशिकता होती है। बुद्धिमान एवं उत्तम शील-गुण वाले माता-पिता के बच्चों में भी उत्तम शीलगुण होते हैं तथा उनका भी बुद्धि-स्तर श्रेष्ठ होता है। मन्द बुद्धि वाले माता-पिता के बच्चों में भी वैसे ही गुण विकसित हो जाते हैं। इसका कारण स्पष्टतः आनुवंशिकता है।

(b) वातावरण (Environment) : वातावरण में भौतिक वातावरण (Physical Environment)तथा सामाजिक वातावरण (Social Environment)का प्रभाव वैयक्तिक विभिन्नता पर सर्वाधिक पड़ता है। जिस देश के भौतिक वातावरण में ठंड की प्रधानता होती है वहाँ के लोग अधिक फुर्तीले एवं गोरे होते हैं। दूसरी तरफ गर्म वातावरण के लोगों में आलसीपन अधिक होता है एवं उनका रंग भी श्याम होता है। – उसी तरह यदि बालक ऐसे परिवार से आता है जिसे सामाजिक रूप से सबल कहा

जाता है तो उसका आचरण, चरित्र एवं व्यक्तित्व, शीलगुण वैसे बालकों से भिन्न होता है जो सामाजिक रूप से दुर्बल परिवार से आते हैं।

(c) आर्थिक स्थिति एवं शिक्षा (Economic Condition and Education) : बालकों में विभिन्नता का एक कारण आर्थिक स्थिति है। आर्थिक स्थिति अच्छा नहीं होने से बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य दोनों ही प्रभावित हो जाता है। शिक्षा से बालकों में विभिन्नता आती है। शिक्षा से सिर्फ बालकों के ही व्यवहार में विभिन्नता नहीं आती है बल्कि वयस्कों के भी व्यवहार में विभिन्नता आती है।

परिपक्वन (Maturation) : वैयक्तिक विभिन्नता का एक कारण परिपक्वन बालक शारीरिक एवं मानसिक रूप से अधिक परिपक्व होते हैं तथा हो में शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वन अपनी उम्र के अनुसार जितनी होनी में अंतर है। कुछ बालक कुछ बालकों में भी चाहिए उतनी नहीं होती है। प्रमुख कारण प्रजाति एवं राष्ट्रीय ति एवं राष्ट्रीयता (Race and Nationality) वैयक्तिक विभिन्नता का एक प्रजाति एवं राष्ट्रीयता है। विभिन्न प्रजाति के बालकों के शारीरिक, मानसिक. संवेगात्मक विकास में कुछ-न-कुछ विभिन्नता अवश्य देखने को मिलती है। राष्ट्र से भी बालकों की आदत, शीलगुण, चरित्र आदि में विभिन्नता पायी जाती है।

लिंग (Sex) वैयक्तिक विभिन्नता का एक प्रमुख स्रोत लिंग होता है। लड़के भारीरिक रूप से अधिक सबल एवं मजबूत होते हैं जबकि लड़कियाँ शारीरिक रूप से एवं मलायम मांसपेशियों वाली होती है। लिंग-भिन्नता के कारण लड़के अधिक मी एवं आक्रामक स्वभाव के होते हैं जबकि लड़कियों में सहनशीलता ज्यादा होती है तथा उनमें क्रोध काफी कम होता है।

(g) आयू एवं बुद्धि (Age and Intelligence): वैयक्तिक विभिन्नता का एक कारण व्यक्ति की आय एवं बुद्धि है। जैसे-जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती जाती है उसका शारीरिक कद भाषा-विकास, सामाजिक विकास एवं मानसिक विकास भी अधिक होता जाता है और स्पष्ट रूप से वैयक्तिक विभिन्नता पायी जाती है। वैयक्तिक विभिन्नता के अध्ययन की विधियाँ Methods of Studying Individual Differences

मनोवैज्ञानिकों ने वैयक्तिक विभिन्नता का अध्ययन करने के लिए कई विधियों का प्रतिपादन किया, जो इस प्रकार है

 (a) बुद्धि-परीक्षण (Intelligence Test) बुद्धि के आधार पर बालकों में स्पष्ट विभिन्नता पायी जाती है। अतः बुद्धि मापकर बद्धि के ख्याल से होनेवाली वैयक्तिक विभिन्नता को माप सकते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने अनेक तरह के बुद्धि-परीक्षण का निर्माण किया है।

सामान्यतः बुद्धि-परीक्षणों से प्राप्तांकों (Scores)के आधार पर बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient) ज्ञात करते हैं और इस बद्धिलब्धि के आधार पर स्पष्ट रूप से हम पालका को बौद्धिक विभिन्नता के अंतर का अध्ययन कर पाते हैं। मामलाच परीक्षण (Interest Test): अभिरुचि परीक्षण के आधार पर भी बालको क विभिन्नता का अध्ययन आसानी से किया जाता है। अभिरुचि के ख्याल से काफी विभिन्नता पायी जाती है। कुछ बालकों की अभिरुचि कुछ खास-खास क होती है जबकि अन्य दूसरे विषयों में उनकी अभिरुचि कम होती है।

क्षण (Achievement Test): बालक में वैयक्तिक विभिन्नता का बात उपलब्धि, विशेषकर शैक्षिक उपलब्धि होती है। शैक्षिक उपलब्धि को विभिन्नता की मात्रा का अंदाज लगा सकते है। नका ने विभिन्न विषयों में शैक्षिक उपलब्धि की माप के लिए अलग-अलग आधार पर हम छात्रों में शैक्षिक उपलब्धि के ख्याल से होनेवाली विभिन्नता का मापन कर सकते हैं।

(d) व्यक्तित्व परीक्षण (Personality Test): छात्रों के व्यक्तित्व शीलगुणों में स्पार विभिन्नता होती है, जिसका अध्ययन विभिन्न तरह के व्यक्तित्व परीक्षणों के आधार आसानी से किया जाता है।

(e) संवेग परीक्षण (Test of Emotion) बालकों की वैयक्तिक विभिन्नता का अध्यय संवेग परीक्षण के आधार पर भी किया गया है। विशेष परीक्षणों एवं उपकरणों के माध्या से बालकों की संवेगात्मकता के स्तर का मापन करके यह आसानी से सुनिश्चित किया जा सकता है कि कौन बालक संवेगात्मक रूप से अधिक स्थिर है तथा कौन बालक संवेगात्मक रूप से कम स्थिर है।

(0) अभिक्षमता परीक्षण (Aptitude Test): मनोवैज्ञानिक ने कई तरह के अभिक्षमता परीक्षणों का निर्माण किया है। इन अभिक्षमता परीक्षणों के माध्यम से यह आसानी से सुनिश्चित कर लिया जाता है कि बालकों में अमुक अभिक्षमता के विचार से कितन विभिन्नता है। इसका विशेष फायदा शिक्षकों को होता है। शिक्षक उसी के अनुसार बालकों के शिक्षण दिये जाने का स्तर तय करते हैं।

वैयक्तिक विभिन्नता के अध्ययन का शिक्षा में महत्व Importance of Study of Individual Difference in Education

वैयक्तिक विभिन्नता के अध्ययन का शिक्षा में निम्नलिखित महत्व है-

(a) समूहीकरण या वगीकरण (Grouping or Classification) : उचित शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों का अलग-अलग समूहीकरण या वर्गीकरण किया जाय वर्तमान में छात्रों के बुद्धि के आधार पर समूहीकरण किया जाता है। इस प्रकार के समूह यदि बुद्धि के अलावा अन्य कारकों जैसे अभिरुचि (Interest), अभिक्षमता (Aptitude C आदि के समरूप बना लिया जाता है, तो इस परिस्थिति में दी गई शिक्षा और अधिक उत्तम होगी।

(b) अध्यापन विधियाँ (Methods of Teaching): शिक्षकों को चाहिए कि अध्यापन विधियों का चयन छात्र की श्रेणी के अनुसार करें। तीव्र बुद्धि के छात्रों को पढ़ाने के विधि कम बुद्धि के छात्रों को पढ़ाने की विधि से भिन्न होनी चाहिए।

(c) पाठ्यक्रम (Curriculum): शिक्षकों को विभिन्न समूहों के छात्रों के लिए एक समान पाठ्यक्रम (Curriculum) नहीं बनाकर उस समूह की बुद्धि, अभिरुचि एव अभिक्षमता (Aptitude) के अनुकूल पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए। इससे छात्रों क अधिक-से-अधिक लाभ होगा।

(d) गृह कार्य का दिया जाना (Assignment of Home Task): शिक्षक छात्रों को ग ह-कार्य देते हैं। गृह कार्य देते समय वैयक्तिक विभिन्नता का ज्ञान शिक्षक के लिए विशेष  उपयोगी सिद्ध होता है। गृह कार्य देते समय शिक्षक छात्र की बुद्धि, अभिक्षमता, रुझान का स्तर एवं उसकी घरेलू परिस्थितियों को यदि ध्यान में रखते हैं तो इससे शिक्षक ठीक मात्रा में गृह कार्य छात्रों को दे पायेंगे।

(e)व्यवसाय संबंधी शिक्षा (Vocational Guidance): सभी बालकों का रुझान विभिन तरह के व्यवसाय के प्रति समान नहीं रहता है। कोई छात्र किसी अमुक व्यवसाय को अधिक पसंद करता है तो दूसरे छात्र दूसरे तरह के व्यवसाय को अधिक पसंद करता

के विभिन्नता के आलोक (Lustre) में शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों अधिक पसंद करता है तो कर है। इस वैयक्तिक विभि को शिक्षा दें।

शारीरिक शिक्षा (Phe शिक्षकों को कक्षा में छात्रों के कम दिखाई एवं सुनाई देनेवाले एक  चाहिए अन्यथा वे कक्षा में ही शिक्षा (Physical Differences) : शारीरिक विभिन्नता के अनसार । कक्षा में छात्रों के बैठने का स्थान सुनिश्चित करना चाहिए। छोटे कद तथा एवं सनाई देनेवाले छात्रों को कक्षा में अगले बेंच पर बैठने की व्यवस्था होनी ने कक्षा में दी जानेवाली शिक्षा से अधिक लाभान्वित नहीं हो पायेंगे।

परीक्षोपयोगी तथ्य

जानिक विभिन्नता से तात्पर्य एक ऐसी मनोवैज्ञानिक घटना से होता है जो उन विशेषताओं या शीलगुणों पर बल डालता है जिनके आधार पर वैयक्तिक जीव भिन्न होते दिखाये जाते हैं।

वैयक्तिक विभिन्नता को दो श्रेणी में रखा जा सकता है—व्यक्ति के अंदर विभिन्नताएँ तथा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में विभिन्नता। वैयक्तिक विभिन्नता के महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं शारीरिक विकास, मानसिक विकास, सांवेगिक विभिन्नता, सामाजिक विभिन्नता, उपलब्धि में अंतर, भाषा-विकास, अभिरुचियों एवं अभिक्षमता में अंतर, यौन विभिन्नताएँ, व्यक्तित्व विभिन्नता तथा ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक क्षमताओं में अंतर ।

 > वैयक्तिक विभिन्नता के कई कारण हैं जिनमें आनुवंशिकता, वातावरण, प्रजाति एवं राष्ट्रीयता, आयु एवं बुद्धि, परिपक्वता, लिंग तथा आर्थिक स्थिति एवं शिक्षा प्रधान हैं। ति वैयक्तिक विभिन्नता के अध्ययन की विधि है—बुद्धि-परीक्षण, उपलब्धि परीक्षण, संवेग परीक्षण, अभिरुचि परीक्षण, अभिक्षमता परीक्षण एवं व्यक्तित्व परीक्षण।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samaj Nirman me Langik Mudde Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samaj Nirman me Langik Mudde Study Material : नमस्कार दोस्तों आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET (Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test) Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book and Notes Chapter 9 समाज निर्माण में लैंगिक मुद्दे Study Material in Hindi में पढ़ने जा रहे है | अभ्यर्थियो को बता बता दे की UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Chapter 9 in Hindi PDF में भी शेयर किया गया है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया जा रहा है |

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samaj Nirman me Langik Mudde Study Material

समाज निर्माण में लैंगिक मुद्दे | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 9 Study Material in Hindi

समाज-निर्माण में लिंग की भूमिका

जब बालक 13 या 14 वर्ष की आयु में प्रवेश करता है तब उसके प्रति दूसरों के और दूसरों के प्रति उसके कुछ दृष्टिकोण से उसके अनुभवों एवं सामाजिक संबंधों में परिवर्तन होने लगता है। इस परिवर्तन के कारण उसके सामाजिक विकास का स्वरूप निम्न होता है

★ बालक और बालिकाएँ दोनों अपने-अपने समूहों का निर्माण करते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य होता है—मनोरंजन, जैसे पर्यटन, पिकनिक, नृत्य, संगीत इत्यादि।

बालक और बालिकाओं में एक-दूसरे के प्रति बहुत आकर्षण उत्पन्न होता जाता है। अतः वे अपनी सर्वोत्तम वेश-भूषा, बनाव-शृंगार और सज-धज में अपने को एक दूसरे के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।

कुछ बालक और बालिकाएँ किसी भी समूह के सदस्य नहीं बनते हैं, वे उनसे अलग रहकर अपने या विभिन्न लिंग के व्यक्ति से घनिष्ठता स्थापित कर लेते हैं और उसी के साथ अपना समय व्यतीत करते हैं।

* बालकों में अपने समूह के प्रति अत्यधिक भक्ति होती है। वे उसके द्वारा स्वीकृत, वेश-भूषा, आचार-विचार, व्यवहार आदि को अपना आदर्श बनाते हैं।

★ समूह की सदस्यता के कारण उनमें नेतृत्व, उत्साह, सहानुभूति, सद्भावना इत्यादि सामाजिक गुणों का विकास होता है।

इस अवस्था में बालकों और बालिकाओं का अपने माता-पिता से किसी-न-किसी बात पर संघर्ष या मतभेद हो जाता है। यदि माता-पिता उनकी स्वतंत्रता का दमन करके, जीवन को अपने आदेशों की तरह ढालने का प्रयत्न करते हैं या इनके समक्ष नैतिक आदर्श प्रस्तुत करके उसका अनुकरण किये जाने पर बल देते हैं। किशोर बालक और बालिकाएँ अपने भावी व्यवसाय का चुनाव करने के लिए सदैव चिन्तित रहते हैं। इस कार्य में उसकी सफलता या असफलता उसके सामाजिक विकास को निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं।

किशोर बालक और बालिकाएँ सदैव किसी-न-किसी चिन्ता या समस्या में उलझे रहते हैं, जैसे-धन, प्रेम, विवाह, कक्षा में प्रगति, पारिवारिक जीवन इत्यादि । ये समस्याएँ उनके सामाजिक विकास की गति को तीव्र श मन्द, उचित या अनुचित दिशा प्रदान करती है।

लैंगिक भेद-भाव

अनेक शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने महिला तथा पुरुषों की उपलब्धि की तुलना को अपने अनुसंधान का विषय बनाया है। उन्होंने अपने प्रतिदर्श को दो भागों में विभाजित

किया है—महिला और महिला और पुरुष। इन शोध के तथ्यों के अनुसार सामाजिक तथा शारीरिक आधार पर महिला और पुरुष में भिन्नता है।

नसंधान का मुख्य लक्ष्य था महिला और पुरुष के भेद को लिंग व्यवहार के द्वारा – इस  नुसंधा प में समझना। इस अनुसंधान का आधार मनोवैज्ञानिक या सामाजिक या। यह तथ्य इस धारणा को सिद्ध करते है कि शारीरिक बनावट के अनसार दोनों की संवेगों में भी अंतर होता है। मला और परुष वर्ग में सामान्य बुद्धि के संबंध में समानता पायी जाती है। इन हों में भेद कछ विशेष योग्यताओं या लक्षणों को लेकर है। औसतन पुरुषों में महिलाओं की तुलना में तर्क करने, वस्तुओं में समानता खोजने तथा सामान्य ज्ञान क्षेत्र में कछ श्रेष्ठता के संकेत मिलते हैं। लड़कियों में स्मरण शक्ति, भाषा तथा सौन्दर्य-बोध के गुण अधिक होते हैं।

शोध से यह पता लगाया गया है कि छात्राओं का भाषायी विकास छात्रों की तुलना में अल्पायु से ही अधिक होता है। विद्यालयपूर्व आयु वर्ग की बालिकाओं की शब्दावली इस आयु वर्ग के बालकों की तुलना में अधिक सक्षम होती है। छात्राओं की पठन गति भी छात्रों से अधिक होती है।

सामान्यतः दोनों वर्गों की बुद्धि अथवा शैक्षिक अभिक्षमता में इतना भेद नहीं होता है कि वे किसी दिये कार्य को असमान क्षमता से सम्पन्न न करें। इन तथ्यों के आधार पर यही निष्कर्ष निकलता है कि शैक्षिक कार्यक्रम तथा पाठ्यक्रम में अन्तर  जन्मजात बौद्धिक स्तर के कारण नहीं होता है।

व्यक्तित्व के विषय में लैंगिक भेद

> व्यक्तित्व भिन्नता के कारण ही बौद्धिक आचरण, व्यवहार तथा उपलब्धि में अंतर आने लगता है। रुचि, आदत, पृष्ठभूमि, जीवन के उद्देश्य तथा बौद्धिक योग्यता में भिन्नता के कारण ही हर व्यक्ति आशानुकूल उपलब्धियों के लिए अपने आचरण का मार्ग खोज निकालता है। कुछ व्यक्ति अन्तर्मुखी तथा कुछ बहिर्मुखी आचरण के होते हैं। किसी को अधिगम का एक विधि अच्छी लगती है तो दूसरे को अन्य विधि। कुछ आक्रामक स्वभाव के हात है तो कुछ स्वभाव से विनम्र होते हैं। इस प्रकार के अबौद्धिक लक्षण तथा गुण उसक विकास तथा मानसिक योग्यताओं की अभिव्यक्ति को अलग-अलग दिशाओं में प्रभावित कर सकते हैं। आयु के विषय में लैंगिक भेद स्था विकास के साथ ही बालक बालिकाओं में व्यक्तिगत रूप से, वर्गगत या त रूप से भेद परिलक्षित होते हैं। जैसे-जैसे अवस्था में विकास होता रहता है कार व्यक्ति में वातावरण से उत्पन्न जटिल समस्याओं के समाधान निकालने की क्षमता भी विकसित होने लगती है। किशोरावर) बालक बालिकाएँ जैसे ही शैशव अवस्था को पार कर प्रौढ़ावस्था त धक विकास भी उसी के साथ-साथ विकसित होता चला जाता हा कार इनकी शारीरिक बनावट, तन्त्रिका तत्र, मास क्षमता आयु के साथ साथ विकसित होते रहते है।

> अतः आय दोनों वर्गों में भेद का महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि बालक-बालिकाओं अनुभव का विकास उनकी बौद्धिक क्षमता को प्रभावित करता है।

जाति के विषय में लैंगिक मुद्दे

> विभिन्न जातियों के समूह पर किये गये शोध से यह ज्ञात होता है कि उच्च बौद्धिक मान्यता के क्षेत्रों, यथा—तर्क, अवधान, अन्तःदृष्टि, निर्णय कुशलता में भेद परिलक्षित हुए हैं। आदिम जाति के लोगों में संवेदी तथा चालक अभिलक्षण (Characteristicil संवेदी अनुक्रिया में सूक्ष्मता तथा प्रत्यक्षण की सूक्ष्मता काफी अधिक थी।

अमिश्रित जातियों पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना बड़ा जटिल कार्य है। जब हम एक ही देश में रहने वाली दो जातियों का अध्ययन करते हैं उनका वर्गीकरण करना कठिन होता है। ऐसे समय में इनके सांस्कृतिक तथा सामाजिक प्रभाव का सम्मिश्रण इतना अधिक हो जाता है कि जातीय संबंधी प्राकृतिक गुणों को अलग कर पाना संभव नहीं है।

मानसिक विकास का स्तर और क्रम वातावरण के प्रभाव तथा व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यताओं के आदान-प्रदान की विचित्र प्रक्रिया है। किसी क्षेत्र-विशेष का भौगोलिक वातावरण, जलवायु, रहन-सहन का ढंग, सांस्कृतिक वातावरण, व्यक्ति के लंबे जीवन को इतना अधिक प्रभावित करता है कि उसके प्रभाव की अलग से जाँच करना बहुत कठिन है।

शिक्षा में लैंगिक मुद्दे

> प्रायः समाज में लड़कियों की शिक्षा का विशेष महत्व नहीं दिया जाता है। लड़की को लड़के से भिन्न समझकर उसे निश्चित रूढ़िगत काम-धंधों में लगा दिया जाता है।

शिक्षण के समय कुछ अध्यापक भी लड़कियों पर अवांछित (Unwanted) टिप्पणी करते हैं, जो शिक्षण की रीति-नीति के अनुकूल नहीं है। ऐसे अध्यापकों की यह धारणा होती है कि लड़कियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए जो उन्हें सुगृहिणी तथा आदर्श माता बनाने में सहायक हो।

बालक तथा बालिकाएँ कुछ क्षेत्रों या योग्यताओं में अवश्य भिन्न हैं, पर इन क्षेत्रों में ये एक-दूसरे से आगे भी निकल जाते हैं। इसी आधार पर जन्मजात योग्यताओं के अधिकतम विकास के लिए विशेष शिक्षण रीति-नीति अपनाने की जरूरत है तथा अभाव के क्षेत्रों को प्रबल करने के लिए विशेष पद्धतियों का आश्रय लेने की आवश्यकता है।

एक अध्यापक को लैंगिक भेदभाव कम करने के लिए लिंग-भेद आधारित भावना के विरुद्ध बहादुरी वाला कदम उठाना होगा तथा लड़के-लड़कियों के बीच पाये जानेवाले वास्तविक भेदों को पहचानना होगा।

लड़कियों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण लैंगिक भेद-भाव का दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है। समाज के निम्न स्तर से आने वाली लड़कियों के सन्दर्भ में इस स्तर पर भेद की बुराई और भी अधिक है।

समाज के निम्न स्तर पर रहने वाली जातियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा इसी प्रकार की अन्य अभावग्रस्त या सुविधाविहीन कई

जातियाँ हैं। इन पर दो दोष आ हन पर दो दोष आरोपित किये जाते हैं- () यह अभावग्रस्त परिवारों अत है। (ii) यह आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा और दलित है। ये दोनों शैक्षिक सामाजिक दृष्टिकोण उनके सामाजिक उन्नति में बाधक होते हैं।

दृष्टि से पिछड़े होने के कारण यह समुदाय अनुभव करते हैं कि लड़की की पर किये जाने वाले खर्च की तुलना में उनके विवाह पर किये जानेवाले खर्च कहीं अधिक लाभप्रद और उपयोगी है। लयों की शिक्षा से सम्बन्धित आर्थिक, शैक्षिक तथा सामाजिक पक्षों के विषय में मिलन करना अध्यापक के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यद्यपि अनेक राज्य सरकारों डाकियों की उचित शिक्षा के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाओं का शुभारम्भ सा है फिर भी लड़कियों की एक बड़ी संख्या विद्यालय की चहारदीवारी में प्रवेश नहीं कर पायी है।

परीक्षोपयोगी तथ्य

सामाज के विकास में बालक एवं बालिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।

अनेक शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों का मत है कि सामाजिक तथा शारीरिक आधार पर महिला और पुरुष में भिन्नता है।

> आय में वृद्धि के साथ ही बालक-बालिकाओं में अनुभव का विकास उनकी बौद्धिक क्षमता को प्रभावित करता है।

> लैंगिक भेद लगभग सभी क्षेत्रों में विद्यमान है जैसे—व्यक्तित्व के विषय में, आयु के विषय में, जाति के विषय में, शिक्षा के विषय में। इन भेदभाव को कम करने के लिए अध्यापक को लिंग-भेद आधारित भावना के विरुद्ध साहसिक कदम उठाना होगा।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bhasha Aur Vichar Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bhasha Aur Vichar Study Material : आज की पोस्ट UPTET and CTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Chapter 8 भाषा और विचार Study Material in Hindi साथ में Free PDF Download करने जा रहे है |

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bhasha Aur Vichar Study Material

भाषा और विचार | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter 8 in PDF

‘स्वीट’ (Siveet)के अनुसार, ”भाषा, ध्वनियों द्वारा मानव के भावों की अभिव्यक्ति है। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, ”भाषा में सम्प्रेषण (विचारों का आदान-प्रदान के वे सभी साधन आते हैं, जिसमें विचारों और भावों को प्रतीकात्मक बना दिया जाता है, जिससे कि अपने विचारों और भावों को दूसरों से अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके। लिखना, पढ़ना बोलना, मुखात्मक अभिव्यक्ति, हाव-भाव संकेतों का प्रयोग तथा कलात्मक अभिव्यक्तियाँ आदि भाषा में ही सम्मिलित हैं। भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है। यदि भाषा का विकास न हो तो निश्चय ही व्यक्ति की मानसिक योग्यताओं का विकास जिस सामान्य ढंग से होता है उस ढंग से नहीं होगा। भाषा के माध्यम से विचारों को प्रकट करने पर उनमें स्पष्टता आ जाती है; अतः प्रत्येक बालक के विकास क्रम में भाषा का विकास होना परम आवश्यक है।

भाषा विकास का महत्व Importance of Language Development

भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है तथ है व्यक्ति को सामाजिक, शारीरिक, मानसिक और शैक्षिक सभी क्षेत्रों में लाभ प्राप्त होत है। इसका महत्व निम्नलिखित है

(a) सामाजिक संबंधों में भाषा का महत्व (Importance of Language in Socies Relations) : भाषा के माध्यम से बालक अपनी बातों को दूसरे से कह सकता है तथ दूसरों की बात समझ भी सकता है तथा वाणी द्वारा वह सामाजिक मूल्यों, नियमों और आदर्शों आदि को सीखता है तथा समाज में समायोजन करने में सफल होता है। – एलिस के अनुसार, “भाषा वह प्राथमिक माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति अप समाज को प्रभावित करता है तथा समाज से प्रभावित होता है

(b) आत्म-मूल्यांकन में महत्व (Importance in Self Evaluation) : बालक ज ( अपने परिवार में होता है या अपने खेल के समूह में होता है अथवा अन्य किसी समूअ में होता है, उस समय दूसरे लोग उसके संबंध में क्या बोलते हैं और किस प्रकार (S मुखात्मक और शारीरिक अभिव्यक्ति करते हैं। इससे एक बालक सरलता से यह ज अ सकता है कि लोग उससे और उसकी वाणी से कितना प्रभावित हुए हैं।

(शैक्षिक उपलब्धि में महत्व (Importance in Academic Achievement): बाल अ को कैसे बोलना है, क्या बोलना है, उसका शब्द-भण्डार कितना है, इन सभी बातो अ उसकी शैक्षणिक उपलब्धियाँ प्रभावित होती हैं। जिनका शब्द-भण्डार बड़ा होता है उस वाक्य विन्यास तथा भाषा प्रस्तुतीकरण अच्छा होता है।

(d) नेतृत्व के विकास में सहायक भाषा के माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपने समूह का नेता बन सकता है। वह अपनी बात दूसरों को समझा सकता है तथा दूसरों की बात को सुन सकता है। विचारों को जो व्यक्ति कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त कर लेते हैं, उनकी वाणी व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। अतः नेतृत्व गुणों के विकास में भाषा सहयोग प्रदान करती है।

() व्यक्ति विकास में सहायक भाषा व्यक्ति विकास की आधारशिला है, जो बालक अपने विचारों का प्रकटीकरण सीमित, सन्तुलित तथा प्रभावशाली भाषा में करते हैं, वे जीवन में विकास की ओर बढ़ते हैं तथा उनका व्यक्तित्व भी प्रभावशाली होता है।

() सामाजिक मूल्यांकन में महत्व (Importance in Social Evaluation): जिस प्रकार सामाजिक परिस्थितियों में बालक दूसरों की वाणी सुनकर अपना या आत्म-मूल्यांकन करता है, ठीक उसी प्रकार सामाजिक परिस्थितियों में एक बालक क्या बोलता है या क्या उसकी वाणी सम्बन्धित अभिव्यक्ति है, इस आधार पर उस बालक का मूल्यांकन समाज के अन्य व्यक्ति करते हैं।

भाषा विकास के सिद्धांत Principle of Language Development

भाषा विकास के सिद्धांत निम्नलिखित हैं-

(a) स्वर यंत्र की परिपक्वता (Maturation of Larynx): भाषा का विकास शरीर के अंग की परिपक्वता जैसे—स्वर यंत्र, जीभ, गला और फेफड़ा इत्यादि पर निर्भर करता है। यह सभी अंग जब तक एक विशेष परिपक्वता स्तर पर नहीं पहुँचते हैं तब तक भाषा का सामान्य विकास संभव नहीं है। इन सभी अंगों के अतिरिक्त भाषा का विकास होंठ, दाँत, तालु और नाक के विकास पर भी निर्भर करता है।

इन अंगों की परिपक्वता के अतिरिक्त वातावरण संबंधी कारक भी भाषा के विकास को प्रभावित करते हैं। भाषा के विकास में वातावरण संबंधी कारकों में अनुकरण के अवसर एक महत्वपूर्ण कारक हैं।

L) अनुबंधन (Conditioning) : अधिगम सिद्धान्तवादियों ने बालक में भाषा के विकास को उद्दीपक अनुक्रिया (S-R) के बीच स्थापित साहचर्य के आधार पर समझाया है। इस दिशा में स्किनर (Skinner) का प्रयास अति सराहनीय है। स्किनर ने पुनर्बलन Reinforcement) के आधार पर भाषा के विकास को समझाया। स्किनर का विचार है के अन्य व्यवहार कार्यों की तरह भाषा का विकास भी ‘आपरेन्ट अनुबंधन’ (Operant Conditioning) पर निर्भर करता है। इस सिद्धांत के अनुसार बालक द्वारा भाषा का अर्जित करना ध्वनि और ध्वनि-संयोजन (Sound Combination)के चयनात्मक पुनर्बलन |Selective Reinforcement) पर निर्भर करता है। स्किनर के अनुसार बालक स्वतः अनायास या अनुकरण के आधार पर बोलते हैं।

उद्दीपक अनुक्रिया के बीच स्थापित साहचर्य के आधार पर भी बालक शब्दों का प्रधिगम करता है। अतः स्किनर के अनसार बालक का शब्दों को सीखना आपरेन्ट अनुबंधन से अधिक सम्बन्धित है।

कोमास्की का सिद्धांत (Chomsky’s Theory):कोमास्की (Chomsky)का विचार कि बालक का शब्दों या भाषा का सीखना अनुकरण और पुनर्बलन पर आधारितअवश्य है परन्तु अनुकरण और पनर्बलन दोनों ही बालक द्वारा शब्दों को सीखने की प्रक्रिया को भली-भाँति स्पष्ट नहीं करते हैं। कोमास्की ने अपने सिद्धांत को निम्नलिखित मॉडल चित्र के द्वारा समझाया हैLinguistic Data T LAD The Ability to Understand & (Input) (Processing) Produce Sentence (Output)

“उपर्युक्त मॉडल के अनुसार बालक जो कुछ भी सुनता है उसे Language Acquisition Device) के द्वारा समझता है तथा उसे पुनरोत्पादित कर सकता है तथा नये शब्द भी बोल सकता है।

(d) सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Social Learning Theory) : इस सिद्धांत के प्रतिपादकों में बन्डुरा (Bandura) का नाम प्रमुख है। इस सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि बालक भाषा के संबंध में जो कुछ भी सीखता है, वह मॉडल के व्यवहार के निरीक्षण .और अनुकरण पर आधारित होता है। इस प्रकार का सीखना पुनर्बलन के साथ भी हो , सकता है और पुनर्बलन की अनुपस्थिति में भी हो सकता है।

इन सिद्धांतवादियों का कहना है कि बिना किसी मॉडल के बच्चे शब्दों और भाष – की संरचना को नहीं सीख सकते हैं। बालक जिस वातावरण में रहते हैं, उसमें रहने । वाले अन्य व्यक्ति जो भाषा और शब्द बोलते हैं, वह बच्चा सुनता रहता है। कई बार कि वह शब्दों का तुरंत अनुकरण नहीं कर पाते हैं। फिर भी वे शब्दों और भाषा के बारे में। कुछ सूचना अवश्य ग्रहण करते हैं।

भाषा-विकास की अवस्थाएँ Stages of Speech Development

बालकों में भाषा-विकास की कई अवस्थाएँ हैं, जो इस प्रकार है-

A. बोलने की तैयारी

क्रन्दन (Crying) शिशु के जन्म से ही क्रन्दन प्रारम्भ हो जाता है, जो उसर्व वा भाषा का प्रारम्भिक रूप है। यदि बालक सामान्य रूप से रोता है तो रोने से उस आवश्यकता की पूर्ति होती है। साथ ही उसकी माँसपेशियों का अभ्यास भी हो जात । है। इस अभ्यास से उसकी माँसपेशियों की वृद्धि होती है और माँसपेशियों का समन्वय (Ordination) बढ़ता है। रोने से उनको अच्छी नींद आती है एवं उनकी भूख बढ़ती है 3 रोने से बच्चों का संवेगात्मक तनाव भी दूर होता है, परन्तु आवश्यकता से अधिध रोना बालक के लिए शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों रूप से हानिकारक होता है।

  • वा तक चलता है। बबलाने से बालकों के स्वर-यन्त्र की परिपक्वता को बल मिलता बालक आय बढ़ने के साथ अधिक से अधिक ध्वनियाँ बोलने लगता है। बबलाने में वा स्वरों को पहले और व्यंजनों को उनके साथ मिलाकर दुहराता है।

हाव भाव (Gestures): बालकों द्वारा हाव-भाव का प्रदर्शन भाषा के पूरक के रूप किया जाता है। बच्चों के हाव-भाव की उत्पत्ति बबलाने के साथ साथ ही हो जाती बच्चा अपने हाव-भाव का प्रदर्शन, मुस्कुराकर, हाथ फैलाकर, अँगुली दिखाकर, मूक में करता है। अतः बच्चों के लिए हाव-भाव विचारों की अभिव्यक्ति का एक सुगम मशन है, जो शब्दों के स्थान पर प्रयुक्त किया जाता है।

वास्तविक भाषा की अभिव्यक्तियाँ

(a) आकलन शक्ति (Comprehensive Power) : बालकों की वह क्षमता जिसके द्वारा वह दूसरों की क्रियाओं तथा हाव-भाव का अनुकरण कर लेता है, ‘आकलन शक्ति कहलाती है। हरलॉक के अनुसार, बालक में आकलन शक्ति का विकास शब्दों के प्रयोग से पहले हो चुका होता है। प्रायः यह देखा गया है कि बालक उन वाक्यों को जल्दी सीखता है, जिनमें शब्दों के साथ-साथ कुछ हाव-भाव भी जुड़े होते हैं।

(b) उच्चारण (Pronunciation): लगभग 1 वर्ष के बालकों में शब्दों के अनुसार उच्चारण की तत्परता (Readiness) एवं योग्यता आ जाती है। इस समय वह अनेक ऐसी सरल ध्वनियों को उच्चारित कर सकता है जिनका उच्चारण उसने पहले कभी नहीं किया था। यह वह अनुकरण द्वारा सीखता है।

(c) शब्द-भण्डार (Vocabulary) : बालक के शब्द-भण्डार में वृद्धि उसके आयु में वृ द्धि के साथ-साथ होती है।

बालक का शब्द-भण्डार Vocabulary of Child

बालक का शब्द भण्डार

विशिष्ट शब्दावली का रूप शिष्टाचार से सम्बन्धित शब्द-भण्डार (Etiquette Vocabulary) गुप्त शब्द भण्डार (Secret Language) अशिष्ट शब्द भण्डार (Slang Vocabulary) धन से सम्बन्धित भण्डार (Money Vocabulary) रंगों से सम्बन्धित भण्डार (Colour Vocabulary) संख्याओं से सम्बन्धित भण्डार (Number Vocabulary) समय संबंधी शब्द (Time Vocabulary) atrafor (Sentence Formation) शुद्ध उच्चारण (Correct Pronunciation) साधारण शब्द भण्डार भाषा या वाणी शब्द (Speech Defects) शब्द-अर्थ से सम्बधित दोष वाक्य-निर्माण में दोष उच्चारण में दोष (Defects in Pronunciation)

> थॉमसन तथा लिपसिट के अनुसार,

10 शब्द 18 माह के बालक का शब्द भण्डार

272 शब्द 2 वर्ष

450 शब्द 2, वर्ष

1000 शब्द 3 वर्ष

1250 शब्द 37 वर्ष

1600 शब्द 4 वर्ष

1900 शब्द 4 वर्ष

2100 शब्द 5 वर्ष

50,000 शब्द छठी कक्षा में पढ़ने वाले बालक का शब्द-भण्डार हाई स्कूल80,000 शब्द >

बालकों की तुलना में बालिकाओं का शब्द-भण्डार अधिक होता है।

सामान्य भाषा या वाणी विकार Some Common Speech Defects

अधिकांशतः वाणी संबंधी विकार उन बच्चों में अधिक पाया जाता है जिनके पारिवारिक संबंध खराब होते हैं। उन बालकों की भाषा धीमी गति से व क्रमिक होता है। सामान्य भाषा में दोष निम्नलिखित प्रकार से होते हैं

(a) भ्रष्ट उच्चारण (Lisping) : सामान्य वाणी दोषों में मुख्यतः भ्रष्ट उच्चारण-दोष पाया जाता है। मुख्य रूप से जबड़ों, दाँतों और होंठों की रचना ठीक न होने के कारण : या परिवार के सदस्यों द्वारा भ्रष्ट उच्चारण करना या फिर शैशवावस्था में बच्चों द्वार । उच्चारित शब्द का माता-पिता द्वारा आनन्द लेना तथा भ्रष्ट उच्चारण को प्रोत्साहित करन = इत्यादि भ्रष्ट उच्चारण-दोष को बढ़ावा देता है।

(b) अस्पष्ट उच्चारण (Slurring) : बच्चे जब शब्दों को अस्पष्ट बोलते हैं तो इस 2 प्रकार का विकार भाषा विकार कहलाता है। लगभग 5 वर्ष की अवस्था तक बच्च में अस्पष्ट उच्चारण करता है लेकिन आयु बढ़ने के साथ-साथ इस प्रकार का विकार स्वाद ही दूर हो जाता है।

(c) तुतलाना (Sluttering) : वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिकांश बालकों में यह भाषा दोष 2 वर्ष की अवस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है। बालकों का समायोजन जैसे जैसे अच्छा होता है, उसका तुतलाना कम हो जाता है।

हकलाना (Stammering) : वैज्ञानिकों का मानना है कि हकलाने का कारण बालकों का भय और घबराहट है। इसके अतिरिक्त स्वरयन्त्र, गला, जीभ, फेफड़ों तहा होंठ सभी का सन्तुलन ठीक न होने पर बालकों में यह दोष उत्पन्न हो जाता है। ट्रेविस मतानुसार, हकलाने का कारण मस्तिष्क में श्रवण एवं वाक् केन्द्रों का विकृत हो जाना के

(e) तीव्र अस्पष्ट वाणी (Cluttering) : बच्चे की वाणी तीव्र अस्पष्ट होती है। इस बच्चे के बोलने की गति तीव्र हो जाती है और साथ साथ शब्द अस्पष्ट होते हैं। तीव्र और अस्पष्ट होने के कारण बोलने वाले की भाषा कहीं कहीं समझ में नहीं आती है।

भाषा और विचार कास को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting Language Development,

भाषा-विकास में वैयक्तिक करनेवाले कारक निम्नलिखित हैं-

में वैयक्तिक भिन्नता पायी जाती है। भाषा-विकास को प्रभावित विभिन्न अंगों की परिपक्वता अ पता (Maturation) : जिस प्रकार क्रियात्मक विकास के लिए शरीर के की परिपक्वता आवश्यक है। उसी प्रकार भाषा-विकास के लिए भी होंठ. साडे स्वरयंत्र और मस्तिष्क आदि की परिपक्वता आवश्यक है। मस्तिष्क का विशेष रूप से परिपक्व होना आवश्यक है। इन विभिन्न अंगों के परिपक्व होने पर ही बालक भाषा सीख सकता है।

बदि (Intelligence) विभिन्न अध्ययन में यह देखा गया है कि जिन बच्चों की

उच्च होती है, उनका कम IQ वाले बालकों की अपेक्षा शब्द-भण्डार अधिक ना है। उच्च IQ वाले बालक शुद्ध और बड़े वाक्य भी बोलते हैं। अधिक बुद्धि वाले बालकों में शब्द-भण्डार एवं वाक्य-रचना की अधिक क्षमता और शुद्ध उच्चारण की क्षमता भी पायी जाती है।

(c) स्वास्थ्य (Health) : यदि बालक लंबी अवधि तक बीमार रहता है, विशेष रूप 5 से दो वर्ष की आयु की अवधि तक तो उसके भाषा का विकास कमजोर स्वास्थ्य और 5 अभ्यास न कर सकने के कारण पिछड़ जाता है। बीमार बालक में भाषा बोलने के लिए (सीखने की प्रेरणा का अभाव भी पाया जाता है।

(d) यौन (Sex) : मैकनील का विचार है कि प्रत्येक आयु के बालक भाषा-विकास ग में बालिकाओं से पीछे रहते हैं। लड़कियों का शब्द-भण्डार, वाक्य में शब्दों की संख्या, – शब्द-चयन और वाक्य-प्रयोग आदि में लड़कों से अच्छा होता है। लड़कियाँ लड़कों की जा अपेक्षा जल्दी बोलना सीखती हैं।

(e) सामाजिक अधिगम के अवसर (Social Learning Opportunity) : बालक को – भाषा सीखने के लिए सामाजिक अवसर जितने ही अधिक प्राप्त होते हैं या जिन परिवार म बच्चे अधिक होते हैं, उन परिवार के बच्चे भाषा बोलना जल्दी सीख जाते हैं, क्योंकि पूसर बच्चे को सुनकर उनका अनुकरण करने के अवसर अधिक प्राप्त होते हैं।

जब परिवार में बच्चे न हों तो माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बालक को पड़ोस क बच्चों के साथ खेलने का अवसर दें जिससे कि बच्चा दूसरे बच्चों का अनुकरण करके भाषा जल्दी सीख जाय।

दशन (Guidance) : बालकों की भाषा के विकास के लिए माता-पिता और का आदि का निर्देशन भी आवश्यक है। बालक की भाषा उतनी ही अच्छी विकसित जितने अच्छे उसके सामने मॉडल प्रस्तुत किये जाते है। | (Motivation): अभिभावकों को चाहिए कि वे बालकों को हमेशा सीखने करते रहें। अभिभावक को बालकों के रोने पर वह चीज उपलब्ध नहीं जसक लिए वह रो रहा है तथा बालक यदि संकेत और हाव-भाव क । ता भी उपलब्ध न कराएँ, क्योंकि इस प्रकार बालक शब्दों को अध्यापकों आदि का निर्देशन भ क) (g) प्रेरणा (Motivation) : आ के लिए प्रेरित करते रहे। अ किराना चाहिए जिसके लिए प्रयोग में कोई चीज माँगे ता सीखने के लिए प्रेरित होंगे।

(h) सामाजिक आर्थिक स्थिति (Socio-Economic Status) : ऐसे बालक जिसक सामाजिक आर्थिक स्तर उच्च रहता है, निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर वाले बालकों की अपेक्षा भाषा ज्ञान में आगे होता है। उच्च सामाजिक स्तर वाले बालक पहले बोलना अधिक बोलना व अच्छा बोलना अपेक्षाकृत शीघ्र सीखते हैं।

(i) शारीरिक स्वास्थ्य व शरीर रचना (Physical Health and Body Structures जो बच्चे स्वस्थ, निरोगी होते हैं उनका भावात्मक विकास शीघ्र होता है। शारीरिक रचन भी भाषा विकास को प्रभावित करती है। शरीर रचना या शारीरिक रचना से अभिप्राय स्वरयंत्र, तालु, जीभ, दाँतों आदि की बनावट से है, क्योंकि ये अंश बोलने की क्रिय में भाग लेता है। ____6) व्यक्तिगत विभिन्नताएँ (Individual Differences) जो बच्चे उत्साही होते। उनमें शान्त प्रकृति के बच्चों की अपेक्षा भाषा शीघ्र विकसित होती है।

(K) कई भाषाओं का प्रयोग (Bilingualism): छोटे बच्चों के माता-पिता की भाष यदि अलग-अलग हो, तो बच्चे में भाषा का विकास अवरुद्ध होकर मन्द गति से होता है |

() पारिवारिक संबंध (Family Relationship) जिन बच्चों के पारिवारिक संबं अच्छे नहीं होते हैं उनमें अनेक भाषा संबंधी दोष उत्पन्न हो जाते हैं। परिवार का आका भी भाषा विकार को प्रभावित करता है। जब परिवार का आकार छोटा होता है तब माता-पिता बालकों की ओर अधिक ध्यान देते हैं। फलस्वरूप उनमें भाषा का विकार शीघ्र होता है। परन्तु यदि माता-पिता ध्यान नहीं देते तो बच्चों में भाषा का विकास दे से होता है।

बालकों की भाषा में सुधार के सुझाव Suggestions for Improving Children’s Speech

बालकों की भाषा में सुधार के सुझाव निम्नलिखित हैं-

(a) बालकों को उसकी उम्र के बराबर के बच्चों में अक्सर रखना चाहिए और बच्च को हमउम्र बच्चों से बात करने के लिए उत्साहित करना चाहिए।

(b) बच्चों की भाषा की ओर ध्यान आकर्षित कर उनमें भाषा के प्रति रुचि उत्पन् करनी चाहिए।

4) बच्चों की त्रुटिपूर्ण, दोषपूर्ण या विकारयुक्त वाणी की आलोचना नहीं कर चाहिए, ताकि बच्चों में भाषा बोलने के प्रति आत्मविश्वास जागृत हो।

(d) बालकों को कठोर नियंत्रण में नहीं रखना चाहिए। (e) जिन बालकों में भाषा-दोष हो उनका उपहास नहीं करना चाहिए।

(6) बालकों में अच्छी वाणी के विकास के लिए उनके सामने अच्छी भाषा का प्रय करना चाहिए ताकि बच्चे वाक्यों का अनुसरण करें। भाषा सीखने के साधन (a) अनुकरण (Imitation) ___(b) खेल (Play) (c) कहानी सुनना (Listening of Stories) (d) वार्तालाप तथा बातचीत (Talking) (e) प्रश्नोत्तर (Question -Answer)

विचार Thought

भाषा-सम्प्रेषण के माध्यम कौशल आदि सीखाने का प्रयास क पण के माध्यम से बालक नये भाव, दृष्टिकोण, सूचना, व्यवहार तथा ल सीखाने का प्रयास करता है। यह प्रक्रिया तभी संभव होती है जब शिक्षक और बालक क लक के उस भाषा का ज्ञान हो। सम्प्रेषण को समझने के बाद बालक अपनी स न अनक्रिया विचार के रूप में व्यक्त करता है।

विचार के प्रकार

शाब्दिक विचार मौखिक विचार

दृष्टि-विचार → मौखिक दृष्टि विचार

लिखित विचार

अशाब्दिक विचार शारीरिक भाषा कूट भाषा

परीक्षोपयोगी तथ्य

 > भाषा विकास से तात्पर्य एक ऐसी क्षमता से होती है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने भावों, विचारों तथा इच्छाओं को दूसरे तक पहुँचाता है तथा दूसरों की इच्छाओं एवं

भावों को ग्रहण करता है।

> मनोवैज्ञानिकों ने भाषा विकास के चरणों की व्याख्या मोटे तौर पर दो भागों में बाँटकर किया है-

बोलने की तैयारी और वास्तविक भाषा की अभिव्यक्तियाँ। बोलने की तैयारी में क्रन्दन, बबलाना एवं हाव-भाव शामिल है। वास्तविक भाषा की अभिव्यक्ति में आकलन शक्ति, उच्चारण, शब्द-भण्डार इत्यादि शामिल है।

शिक्षा मनोवैज्ञानिकों तथा विकासात्मक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भाषा विकास एक खास क्रम में होता है। इस क्रम का पहला चरण ध्वनि की पहचान तथा अंतिम चरण भाषा विकास की पूर्णावस्था है।

बालकों के भाषा विकास कई कारणों से प्रभावित होते हैं जिनमें बुद्धि, स्वास्थ्य, बान-भिन्नता, सामाजिक-आर्थिक स्तर, परिवार का आकार, बहुजन्म, एक से अधिक भाषा-उपयोग, साथियों के साथ संबंध तथा माता-पिता द्वारा प्रेरणा प्रधान है।

बालका में दो तरह के शब्दावली विकसित होते हैं सामान्य शब्दावली तथा विशिष्ट शब्दावली।

भाषा-विकास में घर पर माता-पिता द्वारा दी गई अनौपचारिक शिक्षा तथा स्कूल में ससका द्वारा दी गई अौपचारिक शिक्षा का काफी महत्व होता है।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Buddhi Nirman Avm Bahuayami Buddhi Study Material : आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Notes Chapter 7 Buddhi Nirman Ttha Bahuayami Buddhi Study Material in Hindi PDF Download करने जा रहे है | अभ्यर्थियो को बता दे की Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book के सभी Chapter in PDF में आपको निचे दी गयी UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book and Notes in Hindi PDF में मिल जायेंगे |

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बुद्धि-निर्माण तथा बहुआयामी बुद्धि

बद्धि (Intelligence) वेशलर (IVechsler, 1939) के अनुसार, “बुद्धि एक समुच्चय या सार्वजनिक क्षमता है, जिसके सहारे व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण क्रिया करता है, विवेकशील चिंतन करता है तथा वातावरण के साथ प्रभावकारी ढंग से समायोजन करता है।”

 > रॉबिन्सन तथा रॉबिन्सन (Robinson & Robinson, 1965)के अनुसार, “बुद्धि से तार पर्य संज्ञानात्मक व्यवहारों (Cognitive Behaviours) के संपूर्ण वर्ग से होता है, जो व्यक्ति में सूझ-बूझ द्वारा समस्या समाधान करने की क्षमताएँ, नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करने की क्षमताएँ, अमूर्त रूप से सोचने की क्षमता तथा अनुभवों  से लाभ उठाने की क्षमता को दिखाता है।

> स्टोडार्ड (Stoddard, 1941) के अनुसार, “बुद्धि उन क्रियाओं को समझने की क्षमता है जिनकी विशेषताएँ हैं—कठिनता, जटिलता, अमूर्त्तता, मितव्ययिता, किसी लक्ष्य के प्रति अनुकूलनशीलता, सामाजिक मान (Value) और मौलिकता की उत्पत्ति और कुछ परिस्थिति में वैसी क्रियाओं को करना जो शक्ति की एकाग्रता तथा सांवेगिक कारकों का प्रतिरोध (Resistance) दिखाता है।”

> पी. ई. वर्नन (P. E. Vernon, 1969) बुद्धि संप्रत्यय के तीन अर्थ बतलाये हैं जो लोकप्रिय और आकर्षक दिखते हैं। ये अर्थ इस प्रकार हैं-

(a) जननिक क्षमता के रूप में बुद्धि (Intelligence as Genetic Capacity): इस अर्थ में बुद्धि पूर्णतः वंशागत (Inherited) होती है। इसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘ए’ (Intelligence A)कहा है, जो स्पष्टतः बुद्धि का एक जीनोटाइपिक (Genotypic)प्रकार है तथा इसमें बुद्धि को व्यक्ति का एक आनुवंशिक गुण माना जाता है।

(b) प्रेक्षित व्यवहार के रूप में बुद्धि (Intelligence as Observed Behaviour): इस अर्थ में बुद्धि व्यक्ति के जीन एवं वातावरण की अंतःक्रिया (Interaction) का परिणाम होता है तथा जिस सीमा तक व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से व्यवहार करता है, उस सीमा तक उसे बुद्धिमान समझा जाता है। बुद्धि का यह अर्थ फीनोटाइपिक (Phenotypic) प्रारूप का है। उसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘बी’ (Intelligence ‘B’) कहा है।

(c) परीक्षण प्राप्तांक के रूप में बुद्धि (Intelligence as a Test Score) इस अर्थ में बुद्धि की एक क्रियात्मक परिभाषा दी गई। इस अर्थ में बुद्धि वही है जो बुद्धि परीक्षण मापता है। इसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘सी’ (Intelligence ‘C’) की संज्ञा दी है।

बुद्धि के प्रकार Type of Intelligence

ई. एल. थॉर्नडाइक (E. L. Thorndike) ने बुद्धि के तीन प्रकार बताये हैं20 सामाजिक बुद्धि (Social Intelligence) सामाजिक बुद्धि से तात्पर्य वैसी सामान्य

मानसिक क्षमता से होता है जिसके सहारे व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को ठीक ढंग : समझता है तथा व्यवहारकशलता भी दिखाता है। ऐसे लोगों का सामाजिक संबंध (Socia Relationship) अच्छा होता है।

-ईवर एवं वालरस्टीन (Drever & Vallerstein) के अनुसार, “सामाजिक बुद्धि बुद्धि का एक प्रकार है जो किसी व्यक्ति में अन्य व्यक्तियों एवं सामाजिक संबंधों के प्रति व्यवहार में निहित होता है।” जिन व्यक्तियों में सामाजिक बुद्धि होती है उनमें अन्य लोगों के साथ प्रभावपूर्ण ढंग से व्यवहार करने की क्षमता, अच्छा आचरण करने की क्षमता एवं समाज के अन्य लोगों से मिल जुलकर सामाजिक कार्यों में हाथ बँटाने की क्षमता अधिक होती है। सामाजिक बुद्धि एक ऐसी बुद्धि है जो व्यक्ति को सामाजिक परिस्थितियों में समायोजित होने में मदद करती है।

(ii) अमूर्त बुद्धि (Abstract Intelligence) : अमूर्त्त विषयों के बारे में चिंतन करने की क्षमता को ही अमूर्त बुद्धि (Abstract Intelligence) कहा जाता है। ऐसी बुद्धि में व्यक्ति शब्द, प्रतीक तथा अन्य अमूर्त्त चीजों के सहारे अच्छे से चिंतन कर लेता है। इस प्रकार की क्षमता दार्शनिकों, कलाकारों, कहानीकारों आदि में अधिक होती है।

टरमैन (Terman) के अनुसार, अमूर्त्त बुद्धि का महत्व छात्रों में विद्यमान अन्य दूसरे तरह की बुद्धि से अधिक होती है, अमूर्त्त बुद्धि को कुछ लोगों ने सैद्धान्तिक बुद्धि (Theoretical Intelligence) भी कहा है।

जिन व्यक्तियों में अमूर्त्त बुद्धि अधिक होती है वे सफल कलाकार, पेंटर, गणितज्ञ एवं कहानीकार आदि बनते हैं।

(iii) मूर्त्त बुद्धि (Concrete Intelligence) मूर्त्त बुद्धि से तात्पर्य वैसी मानसिक क्षमता से होता है जिसके सहारे व्यक्ति मूर्त या ठोस वस्तुओं के महत्व को समझता है, उनके बारे में सोचता है तथा अपनी इच्छा एवं आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन लाकर उन्हें उपयोगी बनाता है। इसे व्यावहारिक बुद्धि (Practical Intelligence) भी कहा जाता है।

बुद्धिलब्धि  Intelligence Quotient

बुद्धि मापने के लिए सबसे पहला बुद्धि परीक्षण बिने (Binet)तथा साइमन (Simon) ने 1905 में विकसित किया। इस परीक्षण में बुद्धि को मानसिक आयु (Mental Age) के रूप में मापकर अभिव्यक्त किया गया। 1916 ई० में बिने साइमन परीक्षण का सबसे महत्वपूर्ण संशोधन टरमैन (Terman ने स्टैंडफोर्ड विश्वविद्यालय में किया। इसी संशोधन में बुद्धिलब्धि (IQ) के संप्रत्यय (Concept) का जन्म हुआ और बुद्धि को मापने में मानसिक आय की जगह र बुद्धिलब्धि (IQ) का प्रयोग होने लगा। बद्धिलब्धि (IQ) मानसिक आयु (Mental Age)तथा तैथिक आयु (Chronological Age) का एक ऐसा अनुपात है जिसमें 100 से गुणा कर प्राप्त किया जाता है। इसलिए इसे अनुपात बुद्धिलब्धि (Ratio IQ) भी कहा जाता है।

जहाँ MA मानसिक आय, CA तैथिक आय वाला > मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धिलब्धि के भिन्न भिन्न मानों (Values) के अर्थ को स्पष्ट एवं वस्तुनिष्ठ करने लिए निम्नलिखित मान तथा उनके अर्थ दिये हैं> मनोवैज्ञानिक ने 25 30 वर्ष या इससे ऊपर की आयु के व्यक्ति के बुद्धि को मापने के लिए बुद्धि की जगह एक नयी धारणा (Concept) का प्रयोग किया, जिसे विचलन बुद्धिलब्धि (Deviation IQ) की संज्ञा दी गई है।

विचलन बुद्धिलब्धि ज्ञात करने के लिए पहले मानक प्राप्तांक ज्ञात किया जाता है और फिर इस प्राप्तांक को एक मापनी (Scale) (जिसका माध्य (Mean) 100 तथा मानक विचलन (Standard Deviation) 15 होता है) में बदल दिया जाता है।

बुद्धिलब्धि के मान तथा उनके अर्थ

बुद्धिलब्धि के मान (Value of IQ)

अर्थ (Meaning) 140 या इससे अधिक

प्रतिभाशाली (Genius) 120 से 139 तक

अतिश्रेष्ठ (Very Superior) 110 से 119 तक

श्रेष्ठ (Superior) 90 से 109 तक

सामान्य (Normal) 88 से 89 तक

मन्द (Dull) 70 से 79 तक

सीमांत मन्दबुद्धि (Borderline Feeble Minded) 60 से 69 तक

मूढ़ बुद्धि (Moron) 20 से 59 तक

हीन बुद्धि (Imbecile) 20 या इससे कम बुद्धि

जड़ बुद्धि (Idiot)

उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को एक बुद्धि परीक्षण पर 60 अंक प्राप्त हुए। उसी परीक्षण को उस व्यक्ति के समान उम्र के व्यक्तियों पर (N= 100) क्रियान्वयन करने । पर माध्य = 30 तथा मानक विचलन = 10 प्राप्त हुआ।

Xमानक प्राप्तांक (Standard Score) A,

बुद्धि की माप Measurement of Intelligence

बुद्धि की माप बुद्धि परीक्षण (Intelligence Test) द्वारा की जाती है। सबसे पहला बुद्धि परीक्षण बिने (Binet)तथा साइमन (Simon) ने मिलकर 1905 में बनाया था। यह बुद्धि परीक्षण आनेवाले वर्षों में मनोवैज्ञानिकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। इसमें भी कई मनोवैज्ञानिक द्वारा संशोधन किया गया।

इस परीक्षण का सबसे महत्वपूर्ण संशोधन टरमैन (Terman) द्वारा 1916 में स्टैडफोर्ड विश्वविद्यालय (Standford University) में किया गया। इस संशोधन में सबसे

पहली बार पिलब्धि की धारणा का वृद्धि मापने के सूचक (Index) के रूप में प्रयोग किया |

इसके बाद अनेक मनोवैज्ञानिकों जैसे वेश्लर (Mechsler), अर्थर (Arthur), कैटेल M (Cattees) रेवेन (Ranen) गडएनफ (Goodenough) आदि मनोवैज्ञानिको ने भी बुद्धि परीक्षण बनाकर बुद्धि मापन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत ।। में भी कई मनोवैज्ञानिको ने बुद्धि परीक्षण का निर्माण किया है। इनमें डॉ. एस है जलोटा, डॉ मोहनचंद जोशी, डॉ. एस एस मुहसिन आदि प्रमुख है। इनमें मह मे वपूर्ण बुद्धि परीक्षण निम्नलिखित है-

  1. विने साइमन परीक्षण (Binet Simon Test) इस परीक्षण का निर्माण बिने तथा पर साइमन ने फ्रेंच भाषा में 1005 में किया। यह एक प्रकार का वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण पर (Individual Intelligence Test) 81
  2. पेशलर बद्धि परीक्षण (Techsler Intelligence Test) वेश्लर ने बुद्धि मापने । के दो नियम दिये। वयस्कों की बुद्धिमापने के लिए 193) में एक मापक तैयार किया, जिसका नाम वेश्चर वेलेब्यू मापनी रखा गया। इस परीक्षण में दो फार्म थे, दोनों में 10 10 वि उपपरीक्षण (Subtest)थे। 10 में 5 शाब्दिक मापनी (Terbal Scale) थे, और 5 क्रिया मक मापनी (Performance Scale) थे। इस परीक्षण का 1955 में संशोधन किया गया के और इसका नाम वेश्लर वयस्क बुद्धि मापनी AIAIS) रखा गया। 1981 में इसमें फिर जि संशोधन कर इसका नाम |AIS R रखा गया। इस परीक्षण में वृद्धि की माप तीन तरह ब की बुद्धिलब्धि (IQ) द्वारा होती है।

X शाब्दिक मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)

क्रियात्मक मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)

* सम्पूर्ण मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)

इसके अंतर्गत 16-01 वर्ष के व्यक्तियों की बुद्धि का मापन किया जाता है। वेश्लर ने बच्चों की बुद्धि मापने के लिए दूसरा परीक्षण 1919 में किया, जिसे । ‘वेश्लर’ बुद्धि मापनी बच्चों के लिए (IVISC) कहा गया। इस मापनी द्वारा 6-16 वर्ष तक के बच्चों की बुद्धि की माप की जाती है। इस परीक्षण का संशोधन 1974 में किया गया, इसे ||ISC-Rकहा गया।

  • कैटेल संस्कृतिमुक्त बुद्धि परीक्षण (Cattell Culture Free Intelligence Test) इस परीक्षण का निर्माण कैटेल (Cattel) ने किया है, जिसमें तीन मापक है. मापक-1-1-8 वर्ष के बच्चे तथा मानसिक दोष वाले वयस्क। मापक-11-8-13 वर्ष की आयुवाले बच्चे और औसत वयस्क के लिए।  मापक-1, हाई स्कूल के छात्रों, कॉलेज के छात्रों तथा 14 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों पर।

रेवेन्स प्रोग्रेसिव मैट्रिसेज (Raren’s Progressive Matrices) इस परीक्षण का निर्माण रैवेन (Raven) ने 1938 में किया था। इस परीक्षण के दो फार्म है एक बच्चो के लिए तथा दूसरा वयस्कों के लिए। बच्चों के लिए प्रयोग होनेवाले फार्म को रंगीन

प्रोग्रेसिव मैटिसेज (Coloured Progressive Matrices) कहा जाता है तथा वयस्कों के का प्रयोग होनेवाले मैट्रिसेज को स्टैण्डर्ड प्रोग्रेसिव मेट्रिसेज (Standard Progressive Matrices) कहा जाता है।

कछ प्रमुख भारतीय बुद्धि परीक्षण (Some Important Indian Intelligence Posts) बन्दि मापने का प्रयास भारतीय मनोवैज्ञानिकों द्वारा भी काफी अधिक किया गया है। इनमें प्रमुख है-डॉ. एम. सी. जोशी द्वारा मानसिक योग्यता परीक्षण 1960, डॉ प्रयाग मेहता द्वारा सामूहिक बुद्धि परीक्षण (1962), डॉ. आर. के. टंडन द्वारा सामहिक मानसिक योग्यता परीक्षण (1971), प्रो. आर. के. ओझा तथा प्रो. राय चौधरी द्वारा वाचिक बुद्धि परीक्षण (1971), डॉ. एस. एस. जलोटा द्वारा मानसिक योग्यता की संशोधित सामूहिक परीक्षा (1972) तथा डॉ. एस. एस. मुहसिन द्वारा सामान्य बुद्धि परीक्षण।

बुद्धि परीक्षण के प्रकार Type of Intelligence Test

मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की माप के परीक्षण को दो कसौटी के आधार पर वर्गीकृत किया है-

1.क्रियान्वयन (Administration) के तरीकों (Mode) के आधार पर क्रियान्वयन के तरीकों के आधार पर बुद्धि परीक्षण दो प्रकार का होता है। एक तो वे परीक्षण हैं जिनका क्रियान्वयन एक समय में एक ही व्यक्ति पर किया जा सकता है। इस प्रकार के बुद्धि परीक्षण को मनोवैज्ञानिकों ने वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण की संज्ञा दी है। सबसे पहला वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण बिने (Binet) तथा साइमन (Simon) द्वारा 1905 में विकसित किया गया है। इसे बिने साइमन परीक्षण कहा जाता है।

कोह ब्लॉक डिजाइन परीक्षण (Koh Block Design Test), पास अलाँग परीक्षण (Pass Along Test) तथा घन रचना परीक्षण (Cube Construction Test) भी वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण के उदाहरण हैं।

क्रियान्वयन के आधार पर दूसरे प्रकार के बुद्धि परीक्षण वे हैं जिनको एक समय में एक से अधिक व्यक्ति, अर्थात जिनको व्यक्तियों के समूह में किया जा सकता है। इस प्रकार के परीक्षण को सामूहिक बुद्धि परीक्षण (Group Intelligence Test) की संज्ञा दी गई है। आर्मी अल्फा परीक्षण (Army Alpha Test) तथा आर्मी बीटा परीक्षण (Army Beta Test) इत्यादि सामूहिक बुद्धि परीक्षण के अंतर्गत आते हैं।

2. एकांशों (Items) के स्वरूप के आधार पर : बुद्धि परीक्षणों को एकांश के स्वरूप के आधार पर निम्नांकित चार भागों में बाँटा गया है

a) शाब्दिक बुद्धि परीक्षण (Verbal Intelligence Test): ऐसे बुद्धि परीक्षण जिनमें लिखित शब्दों (Words) अर्थात लिखित भाषा का प्रयोग निर्देश देने तथा परीक्षण के एकाशा या प्रश्नों में किया जाता है. शाब्दिक बद्धि परीक्षण कहलाता है। शाब्दिक बुद्धि परीक्षण को निम्नांकित दो भागों में बाँटा गया है-

* शाब्दिक वैयक्तिक वृद्धि परीक्षण (Verbal Individual Intelligence Test)

शाब्दिक समूह वृद्धि परीक्षण (Verbal Group Intelligence Test)

(b) अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण (Non-Verbal Intelligence Test) : ऐसे बुद्धि को परीक्षण जिसमें भाषा (Language) अर्थात शब्दों, वाक्यों तथा संख्या का प्रयोग निर्देशन (Instruction) में निश्चित रूप से होता है, परन्तु उनके एकांशों (Items) में प्रयोग नहीं होता है। इसलिए इसका प्रयोग छोटे बच्चों, कम पढ़े लिखे व्यक्तियों तथा मानसिक रूप से मंदित बच्चों के लिए आसानी से किया जा सकता है।

(c)क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण (Performance Intelligence Test) फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण वैसे बुद्धि परीक्षण को कहा जाता है, जिनमें भाषा का प्रयोग निर्देश (Instruction) में भी हो सकता है या चित्राभिनय (Pantomine तथा हाव भाव (Gesture) द्वारा निर्देश देने पर भाषा का प्रयोग नहीं भी हो सकता है। क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण की निम्नांकित तीन विशेषताएँ हैं-

★ इस परीक्षण के निर्देश में भाषा या संख्या का प्रयोग कभी होता है और कभी नहीं भी होता है।

★ इस परीक्षण के एकांश (Items) में भाषा का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं होता।

★ इस परीक्षण में व्यक्ति के सामने वस्तुओं को वास्तविक रूप में उपस्थित किया थ जाता है और उसमें जोड़-तोड़ करना पड़ता है।

(d)अभाषायी बुद्धि परीक्षण (Non-Language Intelligence Test) अभाषायी बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहा जाता है जिसमें भाषा का प्रयोग एकांश (Items)और निर्देश में नहीं होता है। प्रायः इस तरह के परीक्षण में निर्देश हाव-भाव (Gesture), निर्देशन (Demonstration)तथा चित्राभिनय (Pantomine) द्वारा दिया जाता है। अभाषायी बुद्धि परीक्षण के निम्नांकित गुण हैं

★ ऐसे परीक्षणों में निर्देश (Instruction) हाव-भाव (Gesture), चित्राभिनय (Pantomine) तथा निर्देशन (Demonstration) द्वारा दिया जाता है, न कि > किसी प्रकार की भाषा द्वारा।

★ इन परीक्षणों के एकांश में भाषा का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं होता।

★ इन परीक्षणों के परीक्षार्थियों (Testees) को कुछ वस्तुएँ (Objects) जैसा कि क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण में दिया जाता है, नहीं दिया जाता है। बद्धि के सिद्धान्त Theories of Intelligence में एक कारक सिद्धान्त (Uni-factor Theory) : इस सिद्धान्त का प्रतिपादन बिन (Binet) ने किया और इस सिद्धान्त का समर्थन तथा इसको आगे बढ़ाने का श्रेय टरमैन और स्टर्न जैसे मनोवैज्ञानिकों को है।

इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि को एक शक्ति या कारक के रूप में माना गया है। इन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बुद्धि, वह मानसिक शक्ति है जो व्यक्ति के समस्त मानसिक कार्यों का संचालन करती है और व्यक्ति के समस्त व्यवहारों को प्रभावित करती है। वर्तमान में इस सिद्धान्त को कोई नहीं मानता है।

2.द्वि कारक सिद्धान्त (Two-factor Theory) इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन (Spearman)है। इनके अनुसार बुद्धि मे दो प्रकार की मानसिक योग्यताओं की आवश्यकत

होती है |  प्रथम, सामान्य मानसिक योग्यता (General Mental Ability G), द्वितीय, शिष्ट मानसिक योग्यता (Specific Mental Ability-S)।

सामान्य योग्यता सभी प्रकार के मानसिक कार्यों में पायी जाती है, जबकि विशिष्ट मानसिक योग्यता केवल विशिष्ट कार्यों से (S, ही सम्बन्धित होती है। प्रत्येक व्यक्ति में सामान्य योग्यता के अतिरिक्त कुछ न कुछ विशिष्ट योग्यताएँ पायी जाती हैं। एक व्यक्ति में एक विशिष्ट योग्यता भी हो सकती है और एक से अधिक विशिष्ट योग्यताएँ भी हो सकती हैं।

दिये हये चित्र में ओवरलैप करने वाला सम्पूर्ण क्षेत्र G कारक का प्रतिनिधित्व कर रहा है। शेष दोनों परीक्षणों का स्वतन्त्र क्षेत्र S, और S, द्वारा प्रदर्शित किया गया है। उपर्युक्त चित्र से यह स्पष्ट है कि विशिष्ट योग्यताएँ एक दूसरे से स्वतंत्र होती हैं तथा सामान्य योग्यता की आवश्यकता भी इन विशिष्ट योग्यताओं में पड़ती है।

प्रतिदर्श (नमूना) सिद्धान्त (Sampling Theory) इस सिद्धान्त का प्रतिपादन थॉम्प्सन (Thompson) ने किया। थॉम्प्सन ने अपने प्रतिदर्श सिद्धान्त का प्रतिपादन स्पीयरमैन के द्वि कारक सिद्धान्त के विरोध में किया।

> थॉम्प्सन के अनुसार, व्यक्ति का बौद्धिक व्यवहार अनेक स्वतंत्र योग्यताओं पर निर्भर करता है। परन्तु, इन स्वतंत्र योग्यताओं का क्षेत्र सीमित होता है। यदि कोई एक बुद्धि परीक्षण भरवाया जाये तो बौद्धिक तत्वों का एक विशिष्ट प्रतिदर्श ही सामने आता है। इसी प्रकार से यदि दूसरा परीक्षण भरवाया जाये तो बौद्धिक तत्वों का एक भिन्न प्रतिदर्श उस परीक्षण के सामने आयेगा।

विभिन्न संज्ञानात्मक अथवा बौद्धिक परीक्षणों में जो धनात्मक सह संबंध पाये जाते हैं वह विभिन्न प्रतिदर्थों के अथवा योग्यताओं के नमूने की ओवरलैपिंग से स्पष्ट होते हैं।

चित्र में छोटे वृत्त विशिष्ट कारकों अथवा मानसिक योग्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि बड़े दोनों वृत्त दो परीक्षणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। परीक्षण A से आठ विशिष्ट कारकों के प्रतिदर्श प्रदर्शित किये गये हैं, जबकि B से ग्यारह विशिष्ट कारकों के प्रतिदर्शों का प्रदर्शन किया गया है। क्योंकि दोनों परीक्षणों में छह विशिष्ट कारक सामान्य हैं अतः इनमें धनात्मक सह संबंध है।

4.. समूह कारक सिद्धान्त (Group Factor Theory) इस सिद्धान्त के प्रतिपादक पटन (Thurston) है। थर्स्टन का सिद्धान्त बुद्धि का एक महत्वपूर्ण और मात्रात्मक सिद्धान्त है। थर्स्टन ने अपने कारक विश्लेषण (Factor Analysis) के आधार पर निम्न 7 मौलिक मानसिक योग्यताओं का पता लगाया है-

पाचिक भाषिक योग्यता (Verbal Ability) यह वह योग्यता है जिसकी सहायता व्याक्त शाब्दिक विचारों को समझता और उनका उपयोग करता है।

(b) सख्यात्मक योग्यता (Number Ability) यह वह योग्यता है जिसके द्वारा व्यक्ति रण गणितीय प्रकार्यों जैसे-जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग आदि को करता है।

वस्त प्रेक्षण योग्यता (Spatial Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति वस्तु प्रेक्षण करता है तथा वस्तु प्रेक्षण सम्बन्धों को समझता है, जैसे ज्यामितीय समस्याओं में।

((d) प्रत्यक्षपरक योग्यता (Perceptual Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति वस्तुओं को शीघ्र पहचानता है तथा उनका शुद्ध प्रत्यक्षीकरण करता है। जैसे पढ़ने के शब्दों को पहचानना।

1) स्पति योग्यता (Memorn Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति अधिगम B करता है तथा प्राप्त सूचना का धारण करता है।

(O तार्किक योग्यता (Reasoning Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति अमूर्त संबंधों का प्रत्यक्षीकरण करता है तथा उनका उपयोग करता है।

(g) शाब्दिक योग्यता (Word Ability) इस योग्यता के द्वारा शब्दों के संबंध में व्यक्ति चिन्तन करता है। थर्स्टन के बाद के अध्ययनों के आधार पर तर्कशक्ति में दो योग्यताएँ मानी गयी हैं—

आगमन योग्यता (Inductive Ability) और निगमन योग्यता : (Deductive Ability)

गिलफोर्ड का सिद्धान्त (Guilford’s Theory) गिलफोर्ड (Guilford) ने बौद्धिक योग्यताओं के 5 मुख्य समूह बतलाये है

ka) संज्ञान (Cognition) इस बौद्धिक योग्यता में खोज, पुनर्योज जैसी योग्यताएँ सम्मिलित है।

(b) अभिसारी चिंतन (Convergent Thinking) यह वह बौद्धिक योग्यताएँ हैं जिसके द्वारा एक व्यक्ति प्राप्त सूचना का उपयोग इस प्रकार करता है कि उपयुक्त उत्तर दे सके।

(c) अपसारी चिंतन (Divergent Thinking) : इस बौद्धिक योग्यता के द्वारा व्यक्ति विभिन्न दिशाओं में चिन्तन करता है या खोज करता है।

(d) स्पति (Memory): इस बौद्धिक योग्यता के द्वारा व्यक्ति संज्ञान (Cognition के द्वारा जो कुछ ग्रहण करता है, उसका धारण करता है।

(e) मूल्यांकन (Evaluation): इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति, शुद्धता और उपयुक्तता आदि के संबंध में निर्णय लेता है।

6. पदानुक्रमिक सिद्धान्त (Hierarchical Theory) : इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन के विचारों के समर्थक रहे हैं। इनमें वरनन (Vernon) का नाम प्रमुख है। इस सिद्धान्त में क्रमबद्धता के आधार पर सामान्य मानसिक योग्यता के दो मुख्य वर्ग बताये गये हैं—प्रथम वर्ग में बुद्धि के प्रायोगिक, शारीरिक कारक हैं तथा द्वितीय वर्ग में मौखिक, सांख्यिकी, शैक्षिक इत्यादि कारक हैं। इन कारकों के आगे क्रम में विशिष्ट मानसिक योग्यताओं से सम्बन्धित कारक हैं। इन कारकों का सम्बन्ध विभिन्न ज्ञानात्मक क्रियाओं से है। यह सिद्धान्त भी कारक विश्लेषण (Factor Analysis) पर आधारित है।

मकरोल का त्रिस्तरीय मॉडल (Carroll’s Three Stratum Model): जॉन बी कैरोल (John B Carroll) ने बुद्धि का त्रिस्तरीय मॉडल विकसित किया। इस मॉडल के अनुसार मानसिक कौशल के तीन स्तर बतलाए गये हैं. सामान्य (General), विस्तृत (Broad), कौशल (Mental Skills)। यह एक समाकलानात्मक मॉडल है, जिसमें स्पीयरमैन

Spearman), थर्टन (Thurston) तथा केटेल हॉर्न के सिद्धातों के तत्वों को समन्वित किया गया है।

General (Stratum II

जिन्नत तरल ठोस सामान्य विस्तृत विस्तृत विस्तृत विस्तृत गति संसाधन Broad बन्दि बन्दि स्मृति एवं दष्टि श्रवण पन प्राप्ति मज्ञानात्मक प्रतिक्रिया समय अधिगम प्रत्यक्षण प्रत्यक्षण क्षमता तीव्रता निगमन गति

(Stratum 1) की स्तर संज्ञानात्मक क्षमता के अध्ययन में व्यवहत संज्ञानात्मक, प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक तथा Narrow प्रगति कार्य (Stratum 1)

गार्डनर का बहबुद्धि सिद्धांत (Gardner’s Theory of Multiple Intelligence) गार्डनर ने इस सिद्धांत में यह स्पष्ट किया कि बुद्धि का स्वरूप एकाकी (Singular) न होकर बहकारकीय होता है। उनके इस सिद्धांत का आधार उनके द्वारा न्यूरोमनोविज्ञान (Neuropsychology) तथा मनोमितिक विधियों (Psychometric Method) के क्षेत्र में किये गये शोध हैं।

गार्डनर ने मुख्य रूप से सात प्रकार की बुद्धि का वर्णन किया। 1998 में उन्होंने इसमें 8वाँ प्रकार तथा 2000 में उन्होंने नौवाँ प्रकार जोड़ा। इस प्रकार वर्तमान में गार्डनर के अनुसार बुद्धि के 9 प्रकार हैं-

भाषाई बुद्धि (Linguistic Intelligence)

तार्किक गणितीय बुद्धि (Logical Mathematical Intelligence)

* स्थानिक बुद्धि (Spatial Intelligence)

* शारीरिक गतिक बुद्धि (Body-Kinesthetic Intelligence)

* सांगीतिक बुद्धि (Musical Intelligence)

व्यक्तिगत आत्मन् बुद्धि (Personal-Self Intelligence) व्यक्तिगत अन्य बुद्धि (Personal-others Intelligence)

प्रकृतिवादी बुद्धि (Naturalistic Intelligence)

अस्तित्ववादी बुद्धि (Existentialistic Intelligence)

स्टनबर्ग का सिद्धात (Sternberg’s Theory) स्टर्नबर्ग के अनुसार बुद्धि भिन्न भिन्न प्रकार के मूल कौशल (Basic Skills) या घटक में बँटी होती है। प्रत्येक घटक के आधार पर व्यक्ति को कुछ विशेष सुचनाएँ मिलती हैं, जिनको वह संसाधित करता है उनकी विवचना करता है और समस्या का समाधान करता है। स्टर्नबर्ग ने बुद्धि के त्रितंत्र का प्रतिपादन किया है। जो इस प्रकार है

(a)विश्लेषणात्मक वृद्धि (Analytical Intelligence) विश्लेषणात्मक बुद्धि से तात्पर्य कमा समस्या समाधान में समस्या को उसके विभिन्न अशों या भागों में बाँटकर समाधान करन की क्षमता से होता है। इस ढंग की क्षमता का मापन बुद्धि परीक्षणों तथा शैक्षिक मिन उपलब्धि परीक्षणों द्वारा होता है। इसे घटकीय बुद्धि भी कहा जाता है।

स्टर्नबर्ग के अनुसार विश्लेषणात्मक बद्धि में सूचना संसाधन क्षमता के कई इकाई जैसे किसी सूचना को संचित करने की क्षमता, उसका प्रत्याह्वान करने की क्षमता, सूचनाओं को अंतरित करने की क्षमता, समस्याओं के बारे में निर्णय लेने की क्षमता, अमूर्त चिंतन करने की क्षमता तथा चिंतन को निष्पादन में बदलने की क्षमता सम्मिलित होती है।

(b) सर्जनात्मक बद्धि (Creative Intelligence) सर्जनात्मक बुद्धि को अनुभवजन्य बुद्धि भी कहा जाता है। सर्जनात्मक बुद्धि में वैसे मानसिक कौशल सम्मिलित होते हैं, जिनकी आवश्यकता नयी समस्याओं के समाधान में पड़ती है तथा व्यक्ति इसमें किसी समस्या के नये समाधान पर पहुँचने की कोशिश करता है। इस तरह की बुद्धि में बदलते पर्यावरण या संदर्भ के समय अनुकूलन करने की क्षमता सम्मिलित होती है।

(c) व्यावहारिक बुद्धि (Practical Intelligence) : इस प्रकार की बुद्धि को__ संदर्भात्मक बुद्धि भी कहा जाता है। इस तरह की बुद्धि में वैसी क्षमता सम्मिलित होती

है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी जिंदगी में सूचनाओं को इस ढंग से उपयोग करने में सफल हो पाता है जिससे उसे अधिकाधिक लाभ हो पाता है। इस प्रकार की बुद्धि । में व्यक्ति में अपने वातावरण को एक खास ढंग से मोड़ने की क्षमता तथा परिवर्तित परिस्थिति के साथ अपने आप को ठीक ढंग से समायोजित करने की क्षमता इत्यादि… सम्मिलित होती है।

बहुआयामी बुद्धि Multidimensional Intelligence

> थर्स्टन एवं कैली नामक वैज्ञानिकों ने बताया कि बुद्धि का निर्माण प्राथमिक मानसिक योग्यताओं के द्वारा होता है।

कैली के अनुसार, बुद्धि का निर्माण इन योग्यताओं से होता है—वाचिक योग्यता गामक योग्यता, सांख्यिकी योग्यता, यान्त्रिक योग्यता, सामाजिक योग्यता, संगीतात्मक योग्यता, स्थानिक सम्बन्धों के साथ उचित ढंग से व्यवहार करने की योग्यता, रुचि और शारीरिक योग्यता।

थर्स्टन का मत है कि बुद्धि इन प्राथमिक मानसिक योग्यताओं का समूह होता है—प्रत्यक्षीकरण संबंधी योग्यता, तार्किक व वाचिक योग्यता, सांख्यिकी योग्यता स्थानिक या दृश्य योग्यता, समस्या समाधान की योग्यता, स्मृति संबंधी योग्यता आगमनात्मक योग्यता और निगमनात्मक योग्यता ।

परीक्षोपयोगी तथ्य

बुद्धि एक सामान्य मानसिक क्षमता (General Mental Ability) है। इसे कई तरह की क्षमताओं का एक संपूर्ण योग माना गया है जिसके सहारे व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण क्रियाएँ करता है, विवेकशील चिंतन करता है तथा वातावरण के साथ प्रभावकार ढंग से समायोजन करता है।

थार्नडाइक ने बुद्धि के तीन प्रकार बतलाये हैं सामाजिक बुद्धि, मूर्त बुद्धि, अमूर्त्त बुद्धि

मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की अभिव्यक्ति बुद्धिलब्धि या IQ के रूप में की है।

मानसिक आयु (Mental Age)को तैथिक आयु (Chronological Age)से विभाजित करके उसमें 100 से गुणा करने के बाद जो मान (Value)प्राप्त होता है, उसे बुद्धिलब्धि कहा जाता है।

मानसिक आयु बुद्धिलब्धि =

– 100

तैथिक आयु

– बद्धि की माप भिन्न भिन्न तरह के परीक्षणों द्वारा की जाती है। इन परीक्षणों में बिने साइमन परीक्षण (Binet-Simon Test), वेशलर बुद्धि परीक्षण (Wechsler Intelligence Test), कैटेल संस्कृति मुक्त बुद्धि परीक्षण, रैवेन प्रोग्रेसिव मैट्रिसेज इत्यादि मुख्य हैं।

मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि परीक्षणों को कई भागों में बाँटा है जिनमें प्रमुख है* शाब्दिक बुद्धि परीक्षण * अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण ★ क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण * अभाषाई बुद्धि परीक्षण मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के स्वरूप की व्याख्या करने के लिए दो तरह के प्रमुख सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है कारक सिद्धांत तथा प्रक्रिया प्रधान सिद्धांत । कारक सिद्धांत में स्पीयरमैन का सिद्धांत, थर्स्टन का सिद्धांत, थार्नडाइक एवं गिलफोर्ड का सिद्धांत तथा पदानुक्रमिक सिद्धांत को रखा गया है। – प्रक्रिया प्रधान सिद्धांत में पियाजे का सिद्धांत, स्टर्नबर्ग का सिद्धांत, जेन्सन का सिद्धांत प्रमुख है।

बहुकारक सिद्धांत में थार्नडाइक एवं गिलफोर्ड के सिद्धांत को रखा गया है। पियाजे के अनुसार, ‘बुद्धि एक ऐसी अनुकूली प्रक्रिया है जिसमें जैविक परिपक्वता का पारस्परिक प्रभाव तथा वातावरण के साथ की गई अंतःक्रिया, दोनों ही सम्मिलित होते हैं।’

पियाजे का मत था कि बौद्धिक विकास संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है जैसे–प्रकृति के नियम को समझना, व्याकरण के नियम को समझना तथा गणितीय नियमों को समझना इत्यादि ।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bal Kendrit Shiksha Study Material

बाल केन्द्रित तथा प्रगतिशील शिक्षा | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 6 Study Material in Hindi

बाल-केन्द्रित शिक्षा Child-Centered Education

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bal Kendrit Shiksha Study Material : बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत उन्हीं शिक्षण विधियों को प्रयोग में लाया जाता है जो बालकों के सीखने की प्रक्रिया, महत्वपूर्ण कारक, लाभदायक व हानिकारक दशाएँ, रुकावटें, सीखने के वक्र तथा प्रशिक्षण इत्यादि तत्वों को सम्मिलित करती हैं तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित होती हैं।

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बाल केन्द्रित शिक्षा का श्रेय शिक्षा मनोविज्ञान को दिया जाता है। जिसका उद्देश्य बालक के मनोविज्ञान को समझते हुए शिक्षण की व्यवस्था करना तथा उसकी अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर करना है।

वर्ष 1919 में प्रगतिशील शिक्षा सुधारकों ने (कोलम्बिया विश्वविद्यालय) बालकों के हितों के लिए सीखने की प्रक्रिया के केन्द्र में बालक को रखने पर बल दिया अर्थात . अधिगम प्रक्रिया में केन्द्रीय स्थान बालक को दिया जाता है।

भारत में गिजभाई बधेका (गुजरात) ने डॉ. मारिया मॉण्टेसरी के शैक्षिक विचारों एवं विधियों से प्रभावित होकर बाल शिक्षा को एक नया आयाम (Dimension) प्रदान किया। उन्होंने 1920 ई० में बाल मन्दिर नामक संस्था की स्थापना की, जिसका केन्द्र बिन्दु उन्होंने बालक को रखा।

बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यताओं के विकास के आधार पर अध्ययन किया जाता है तथा बालक के व्यवहार और व्यक्तित्व में असामान्यता के लक्षण होने पर बौद्धिक दुर्बलता, समस्यात्मक बालक रोगी बालक, अपराधी बालक इत्यादि का निदान किया जाता है।

मनोविज्ञान के ज्ञान के अभाव में शिक्षक मार पीट के द्वारा इन दोषों को दूर करने का प्रयास करता है, परन्तु बालकों को समझने वाला शिक्षक यह जानता है कि इन दोषों का आधार उनकी शारीरिक, सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं में ही कहीं न कहीं है। वैयक्तिक भिन्नता की अवधारणा ने शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया में व्यापक परिवर्तन किया है। इसी के कारण बाल केन्द्रित शिक्षा का प्रचलन शुरू हुआ।

बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यक्रम का स्वरूप बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम विद्यार्थी को शिक्षा प्रक्रिया का केन्द्र बिन्दु माना जाता है। बालक की रुचियों, आवश्यकता एवं योग्यताओं के आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। बाल केन्द्रित शिक्ष के अन्तर्गत पाठ्यक्रम का स्वरूप निम्नलिखित है-

पाठ्यक्रम पूर्वज्ञान पर आधारित होना चाहिए।

है, जिसमें पलकर बालक के सामाजिक व्यक्तित्व का विकास हो सके और व जनतंत्र के योग्य नागरिक बन सके। डीवी ने शिक्षक को समाज में ईश्वर के प्रतिनिधि की संज्ञा दिया है। विद्यालय में स्वतंत्रता और समानता के मूल्य को बनाये रखने के लिए शिक्षक को अपने को बालकों से बड़ा नहीं समझना चाहिए। शिक्षकों को आज्ञाओं और उपदेशों के द्वारा अपने विचारों और प्रवृत्तियों का भार बालकों पर देने का प्रयास नहीं करना चाहिए। बालक को प्रत्यक्ष रूप से उपदेश न देकर उसे सामाजिक परिवेश दिया जाना चाहिए। और उसके सामने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जाने चाहिए कि उसमें आत्मानुशासन उत्पन्न हो और वह सही अर्थों में सामाजिक प्राणी बने । आधुनिक शिक्षा में वैज्ञानिक सामाजिक प्रवृत्ति प्रगतिशील शिक्षा का योगदान है प्रगतिशील शिक्षा के सिद्धान्तों के अनुरूप ही आजकल शिक्षा को अनिवार्य और सार्वभौमिक बनाने पर जोर दिया जाता है। शिक्षा का लक्ष्य व्यक्तित्व का विकास है और प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व का विकास करने के लिए शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाना चाहिए।

परीक्षोपयोगी तथ्य बाल केन्द्रित शिक्षा का उद्देश्य बालक के मनोविज्ञान को समझते हुए शिक्षण की व्यवस्था करना तथा उसकी अधिगम संबंधी कठिनाइयों को दूर करना है। बाल केन्द्रित शिक्षा के अंतर्गत बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यताओं के विकास के आधार पर अध्ययन किया जाता है। > बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम में बालक की रुचियों, आवश्यकताओं एवं योग्यताओं के

आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य बालकों में शिक्षा के माध्यम से जनतंत्रीय मूल्यों की स्थापना करना है। जॉन डीवी का प्रगतिशील शिक्षा के विकास में सराहनीय योगदान है। इन्होंने प्रगतिशील शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है-मचि और प्रयास।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material : आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET Books and Notes Chapter 5 Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material in Hindi with PDF Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है | अभ्यर्थियो को बता दे की आपको इस पोस्ट में UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter Wise PDF Download का लिंक भी दिया जा रहा है जिसके माध्यम से आप बल विकास एवं शिक्षा शास्त्र के सभी Chapter को PDF में download कर सकते है |

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Chapter 5 पियाजे, कोहलबर्ग एवं वाइगोट्स्की | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 6 Study Material in Hindi

पियाजे का सिद्धान्त The Theory of Piaget

पियाजे के अध्ययनों का आधुनिक बाल-विकास विषय पर अधिक प्रभाव पड़ा है। उसने मनोवैज्ञानिकों का ध्यान विकास की अवस्थाओं तथा संज्ञान की महत्व की ओर आकर्षित किया है। पियाजे के सिद्धान्त के कुछ प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं

1. निर्माण और खोज (Construction & Invention) बच्चे उन व्यवहारों और विचारों की समय-समय पर खोज और निर्माण करते रहते हैं, जिन व्यवहारों और विचारों का उन्होंने कभी पहले प्रत्यक्ष नहीं किया होता है। पियाजे का विचार है कि ज्ञानात्मक विकास केवल नकल (Copying)न होकर खोज (Invention) पर आधारित है। नवीनता या खोज (Novelty or Invention) को उद्दीपक-अनुक्रिया सामान्यीकरण के आधार पर नहीं समझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक चार साल का बालक यदि भिन्नभिन्न आकार के प्यालों को प्रथम बार क्रमानुसार लगा देता है, तो यह उसके बौद्धिक वृद्धि की खोज और निर्माण से सम्बन्धित है।

2. कार्य क्रिया का अर्जन (Acquisition of Operation) ऑपरेशन का तात्पर्य उस विशिष्ट प्रकार के मानसिक कार्य (Mental Routine) से है जिसकी मुख्य विशेषता उत्क्र मणशीलता (Reversibility) है । पियाजे के अनुसार, जब तक बालक किशोरावस्था तक नहीं पहुँच जाता है तब तक वह भिन्न-भिन्न विकास-अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वर्गों के ऑपरेशन्स का अर्जन करता रहता है। एक विकास अवस्था से दूसरी विकास अवस्था में पदार्पण के लिए निम्न दो सिद्धान्त आवश्यक है

(सात्मीकरण (Assimilation) सात्मीकरण का अर्थ है—बालक में उपस्थित विचार में किसी नये विचार (Idea) या वस्तु का समावेश हो जाना। पियाजे का विचार (Idea) का अर्थ बालक के प्रत्यक्षात्मक गत्यात्मक समन्वय (Perceptual Motor Coordination’s) से है। प्रत्येक बालक में प्रत्येक आयु-स्तर पर कुछ-न-कुछ क्रियाओं या ऑपरेशन्स के सेट विद्यमान होते हैं। इन पुराने ऑपरेशन्स में नये विचार या क्रियाओं का समावेश हो जाता है।

(b)व्यवस्थापन तथा संतुलन स्थापित करना (Accommodationand Equilibration) • व्यवस्थापन का अर्थ नयी वस्तु या विचार के साथ समायोजन करना है या अपने विचारों और क्रियाओं को नये विचारों और वस्तुओं में फिट करना है। बालकों में बौद्धिक वृद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे वह नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करना सीखता है। मानसिक वद्धि में सात्मीकरण और व्यवस्थापन में उपस्थित अथवा उत्पन्न तनाव का हल (Resolution) निहित होता है।

बालक हर समय नयी घटनाओं या समस्याओं के साथ अपने को व्यवस्थापित करता रहता है, जिससे उसका बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार का व्यवस्थापन संतुलन (Equilibration) कहलाता है।

3. क्रमिक विकासात्मक अवस्थाएँ (Sequential Development Stages): पियाजे ने विकास की चार मुख्य अवस्थाओं का वर्णन किया है

a) संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory-Motor Period) यह जन्म से चौबीस महीने तक की अवस्था है। इस आयु में उसकी बुद्धि उसके कार्यों द्वारा व्यक्त होती है। उदाहरण के लिए—चादर पर बैठा बालक चादर पर पड़े दूर खिलौने को प्राप्त करने के लिए चादर को खींचकर खिलौना प्राप्त कर लेता है।

पियाजे के अनुसार यह एक बौद्धिक कार्य है। पियाजे ने सेन्सोरीमोटर अवस्था को पुनः निम्न छह अवस्थाओं में विभाजित किया है।

★ प्रतिवर्त्त क्रियाएँ (Reflex Activities) : यह जन्म से एक माह तक की अवस्था है।

प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Primary Circular Reactions) : यह एक से तीन माह तक की अवस्था है।

★ गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Secondary Circular Reactions): यह चार से छह माह तक की अवस्था है।

गौण प्रतिक्रियाओं का समन्वय (Co-ordination of Secondary Reactions): यह सात से दस माह तक की अवस्था है।

तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Tertiary Circular Reactions) : यह ग्यारह से अठारह माह तक की अवस्था है ।

★ अन्तिम अवस्था (Final Stage of this period): यह अवस्था वह है जो बालक लगभग चौबीस माह की आयु में प्राप्त करता है। 21वका

(b) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Period) यह दो से सात वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह नयी सूचनाओं और अनुभवों का संग्रह करता है। | वह पहली अवस्था की अपेक्षा अधिक समस्याओं का समाधान करने योग्य हो जाता है। | इस अवस्था में उसमे आत्मकेन्द्रिता (Egocentricity) का विकास होता है। इस अवधि के अन्त तक जब बालक में कुछ सामाजिक विकास उन्नत हो जाता है तब उसकी यह आत्मकेन्द्रिता कुछ कम होने लग जाती है।

पियाजे का विचार है कि छह वर्ष से कम आयु के बालकों में संज्ञानात्मक परिपक्वता का अभाव पाया जाता है। इस अभाव के कारण वह परम्परागत समस्याओं को तभी सीख पाते हैं जब उन्हें कुछ शिक्षण प्रशिक्षण दिये जाते हैं। साव KO) ठोस सक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational Period): यह अवस्था सात से ग्यारह वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह यह विश्वास करने लगता है कि लंबाई, भार तथा अंक आदि स्थिर रहते हैं। वह अनेक कार्यों की मानसिक प्रतिभा प्रस्तुत कर सकता है। वह किसी पूर्व और उसके अंश के संबंध में तर्क कर सकता है।

पियाजे द्वारा वर्णित विकासात्मक अवस्थाएँ एवं उससे सम्बन्धित उपलब्धियाँ

क्रअवस्था तथा सन्निकट आयुविचारतत्संबन्धित उपलिब्धया
1संवेदी पेशीय अवस्थासंवेदी पेशीय विचारपूर्व-शाब्दिक, गतियो की पुनरावृत्ति प्रयत्न, मूल व्यवहार का आरम्भ, वस्तु स्थापित विव्त्वरोपण
2संवेदी पेशीय अवस्था (2-7 वर्ष)प्रिक्रमानात्म्क विकाह्र, अंत: प्रज्ञात्मक विचारअहंकेन्द्रिता, नकल करने की प्रवृत्ति, प्रत्याक्षत्म्क तार्किक कल्पनात्मक खेल अस्थिर अनौपचारिक तार्किकता
3ठोस संक्रियात्मक निगमनात्मक विचार तर्क का अनुप्रोयोग करना, निश्कस्र्ष निकलना शाब्दिक परिकल्पना, आद्र्श्ताम्क चिंतन, दुसरो के साथ जुडकर कार्य करना स्मनुप्तिकता प्रस्भाव्य्ताव्दी एवं स्न्योजिकीय तार्किकता, अनौपचारिक सम्बन्ध
4   

औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Period): यह अवस्था ग्यारह वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह परिकल्पनात्मक ढंग से समस्याओं पर विचार कर सकता है। वह अनेक ऑपरेशन को संगठित कर उच्च स्तर .. के ऑपरेशन का निर्माण कर सकता है और विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए अमूर्त नियमों का निर्माण कर सकता है।

पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ

क्र.अवस्थासन्निकट आयुविशेषताएँ
संवेदी-प्रेरक0-2 वर्ष शिशु संवेदी अनुभवों का शारीरिक क्रियाओं के साथ समन्वय करते हुए संसार का अन्वेषण करता है।
2.पूर्व-संक्रियात्मक2-7 वर्सप्रतीकात्मक विचार विकसित होते हैं, वस्तु स्थायित्व उत्पन्न होता है, बच्चा वस्तु के विभिन्न भौतिक गुणों को समन्वित नहीं कर पाता है।
3.ठोस संक्रियात्मक7-11 वर्षबच्चा ठोस घटनाओं के संबंध में युक्तिसंगत तर्क कर सकता है और वस्तुओं को विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर सकता है। वस्तुओं की मानस प्रतिमाओं पर प्रतिवर्तनीय मानसिक संक्रियाएँ करने में सक्षम होता है।
4.औपचारिक संक्रियात्मक11-15 वर्षकिशोर तर्क का अनुप्रयोग अधिक अमूर्त रूप से कर संक्रियात्मक सकते हैं, परिकल्पनात्मक चिन्तन विकसित होते हैं।

लारस कोहलबर्ग का सिद्धांत Lawrance Kohlberg’s Theory

लॉरस कोहलबर्ग ने 10 से 16 वर्ष के बच्चों से प्राप्त तथ्यों का विश्लेषण करके सिद्धांत प्रतिपादित किया। कोहलबर्ग के अनुसार जब बालकों को नैतिक संघर्षों का सामना करना पड़ता है तो उनकी तार्किकता अधिक महत्वपूर्ण होती है न कि अन्तिम निर्णय। कोहलबर्ग ने धारणा बनायी की बालक अपनी विकास की अवस्था में तीन स्तरों से गुजरकर अपनी नैतिक तार्किकता की योग्यताओं को विकसित कर पाते हैं। जो निम्नलिखित है

(a) प्राकरूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Preconventional Level) यह अवस्था 4 वर्ष से लेकर 10 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्था में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है, न कि सही तथा गलत के अपने आंतरीकृत मानकों (Internalized Standards) के द्वारा । बच्चे यहाँ किसी भी व्यवहार को अच्छा या बुरा, उसके भौतिक परिणामों के आधार पर कहते हैं। इसके अंतर्गत दो अवस्थाएँ होती हैं

(i) दंड एवं आज्ञाकारिता उन्मुखता (Punishment and Obedience Orientation) इस अवस्था के बच्चों में दंड से दूर रहने का अभिप्रेरण अधिक मजबूत होता है। इस अवस्था में बच्चे प्रतिष्ठित या शक्तिशाली व्यक्ति, प्रायः माता पिता के प्रति सम्मान दिखलाता है ताकि उसे दंड नहीं मिल सके। किसी भी कार्य या व्यवहार की नैतिकता को यहाँ व्यक्ति उसके भौतिक परिणामों के रूप में परिभाषित करता है।

(ii) साधनात्मक सापेक्षवादी उन्मुखता (Instrumental Relativist Orientation) – इस अवस्था में यद्यपि बच्चे पारस्परिकता तथा सहभागिता के स्पष्ट सबूत प्रदान करते – हैं। यह छलयोजित (Manipulative) तथा आत्म परिपूरक पारस्परिकता (Self-Serving Reciprocity) होती है न कि सही अर्थ में न्याय, उदारता, सहानुभूति पर आधारित है। यहाँ अदला बदली (Bartering) का भाव मजबूत होता है।

(b) रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Conventional Morality): यह अवस्था 10 से 13 साल की होती है जहाँ बच्चे दूसरों के मानकों (Standards) को अपने में आंतरीकृत कर लेता है तथा उन मानकों के अनुसार सही तथा गलत का निर्णय करता है। – इस स्तर पर बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है। इसकी अवस्थाएँ (Stages) इस प्रकार हैं

उत्तम लड़का अच्छी लड़की की उन्मुखता (Good Boy-Nice Girl Orientation) इस अवस्था में बच्चों में स्वीकृति पाने तथा अस्वीकृति (Disapproval) से दूर रहने का अभिप्रेरण तीव्र होता है।

(c) उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Post Conventional Morality): इस अवस्था में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest Level) होता है और इसमें नैतिकता (True Morality)का ज्ञान बच्चों में होता है। इसके तहत दो अवस्थाएँ (Stages) होती हैं, जो इस प्रकार हैं-

(1) सामाजिक अनुबंध उन्मुखता (Social Contract Orientation) : इस अवस्था में बच्चे या किशोर उन वैयक्तिक आधार (Individual Rights) तथा नियमों का आदर करते हैं, जो प्रजातांत्रिक रूप से (Democratically) मान्य होता है। वे यहाँ लोगों के कल्याण तथा बहुसंख्यकों के इच्छाओं का तर्कसंगत महत्व देते हैं। यहाँ बच्चे यह विश्वास करते हैं कि समाज का उत्तम कल्याण तब होता है जब उसके सदस्य समाज के नियमों का आदरपूर्वक पालन करते हैं।

(ii) सार्वत्रिक नीतिपरक सिद्धांत उन्मुखता (Universal Ethical Principle Orientation) : इस अवस्था में बच्चों में अपने नैतिक नियमों (Ethical Principles) को प्रोत्साहित करने तथा आत्म-निंदा (Self-Condemnation) से बचने का अभिप्रेरण तीव्र होता है। यह उच्चतम सामाजिक स्तर का उच्चतम अवस्था (Highest Stage) होता है, जहाँ किशोरों में सार्वत्रिक नैतिक नियम (Universal Ethical Principles) की नैतिकता बरकरार रहती है।

यहाँ किशोर दूसरों के विचारों तथा नैतिक प्रतिबंधों (Legal Restrictions)से स्वतंत्र होकर अपने आंतरिक मानकों (Internal Standards) के अनुरूप व्यवहार करता है|

कोहलबर्ग के सिद्धांत की सीमाएँ (Limitation of Kohlberg Theory) : कोहलबर्ग द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

(i) इस सिद्धांत की सबसे प्रमुख सीमा है कि इसमें वास्तविक व्यवहार की अवस्था की अपेक्षा तार्किकता पर अधिक ध्यान दिया गया है।

(ii) यह एक सामान्य अन्वेषण है इसमें प्रत्येक अवस्था के बालक के आस-पास जब प्रेक्षक न हो तो वे अपने सम-आयु वर्ग की नकल करते हैं या उन्हें उत्तर बताते हैं या प्रेक्षक प्रत्येक बालक को ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित करता है और बेईमानी से व्यवहार करने वाले कुछ बालकों को हतोत्साहित कर सकता है। यह दर्शाता है कि एक बालक का नैतिक व्यवहार बहुत कमजोर हो सकता है।

(iii) कोहलबर्ग का सिद्धांत वास्तव में बहुत सीमित है क्योंकि बालक विभिन्न अवस्थाओं में अपने नैतिक निर्णयों के लिए काफी सीखते हैं लेकिन उनके कार्यों में विभिन्नता होती है। भारतीय दार्शनिक तथा शिक्षाशास्त्रियों का विश्वास है कि मूल्य व्यक्ति का एक अंग होना चाहिए, उसकी तार्किकता तथा निर्णय-निर्माण ऐसा हो कि वह अपने मूल्यों के साथ खुश रह सके।

वाइगोट्स्की के विकास का सिद्धांत Vygostsky Development Theory

वाइगोट्स्की के सिद्धांत के अनुसार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारको (Social Factors) एवं भाषा (Language) का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए वाइगोट्स्की । के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत भी कहा जाता है।

वाइगोट्स्की के अनुसार, वास्तव में संज्ञानात्मक विकास एक अंतर्वैयक्तिक सामाजिक परिस्थिति (Interpersonal Social Context) में संपन्न होता है, जिसमें बच्चों को अपने वास्तविक विकास के स्तर (Level of Actual Development) (अर्थात जहाँ

तक वे बिना किसी मदद के अपने ही कोई कार्य कर सकते हैं) से अलग तथा उनके संभाव्य विकास के स्तर (Level of Potential Development) (अर्थात जिसे वे सार्थक एवं महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सहायता से प्राप्त करने में सक्षम हैं) के तरफ ले जाने की कोशिश की जाती है। इन दोनों स्तरों के बीच के अंतर को वाइगोट्स्की ने समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development or ZPD)कहा है।

समीपस्थ विकास का क्षेत्र से तात्पर्य बच्चों के लिए एक ऐसे कठिन कार्यों की दूरी (Range) से होता है, जिसे वह अकेले नहीं कर सकता है लेकिन अन्य वयस्कों तथा कुशल सहयोगियों (Skilled Peers) की मदद से उसे किया जा सकता है।

वाइगोट्स्की ने संज्ञानात्मक विकास में बच्चों की भाषा एवं चिन्तन को भी महत्वपूर्ण साधन बतलाया है। इनका मत है कि छोटे बच्चों द्वारा भाषा का उपयोग सिर्फ सामाजिक संचार (Social Communication) के लिए नहीं किया जाता है बल्कि इसका उपयोग वे लोग अपने व्यवहार को नियोजित एवं निदेशित करने के लिए भी करते हैं। जब आत्म-नियमन (Self-Regulation) के लिए भाषा का उपयोग किया जाता है, तो इसे आंतरिक भाषण (Inner Speech) या निजी भाषण (Private Speech) कहा जाता है।

वाइगोट्स्की के निकट विकास क्षेत्र (ZPD) में खेल का महत्व

वाइगोट्स्की का मत था कि खेल बच्चों को अपने व्यवहार पर नियन्त्रण की क्षमता देने वाला मानसिक उपकरण है। खेल में जो कल्पित स्थितियाँ खड़ी की जाती हैं, वे बच्चे के व्यवहार को एक खास तरह से नियन्त्रित करने वाली और दिशा देने वाली प्रथम बाधाएँ हैं। खेल व्यवहार को संगठित करता है।

विकास में खेल के महत्व के बारे में वाइगोट्स्की का दृष्टिकोण समन्वयकारी था। इनका मत था कि खेल संज्ञानात्मक, भावात्मक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देता है।

खेल के विकास संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के अलावा स्कूल संबंधी कौशलों को भी लाभ पहुँचाते हैं। अधिगम की अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल के दौरान बच्चों के मानसिक कौशल उच्चतर स्तर पर होते हैं। वाइगोट्स्की ने इसे निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के उच्चतर स्तर की तरह पहचाना है। वाइगोट्स्की के अनुसार खेल विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है

(a) खेल कार्यों और वस्तुओं को विचार से अलग करने का काम करता है।

(b) खेल आत्मनियन्त्रण के विकास में सहायक होता है।

(c) खेल बच्चे के निकट विकास क्षेत्र का निर्माण करता है।

निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के निर्माण में खेल का महत्व

वाइगोट्स्की का मत था कि ‘खेल’ बच्चों के लिए निकट विकास क्षेत्र का निर्माण भी करता है। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित है-

वाइगोट्स्की के अनुसार अधिगम तथा अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल में की गई नयी विकासमान दक्षताएँ पहले प्रकट होती हैं। अतः चार साल की उम्र में बालक की आगामी सम्भावनाओं की भविष्यवाणी के लिए खेल जितना उपयुक्त है उतना अक्षर पहचानने जैसी अकादमिक गतिविधियाँ नहीं।

खेल में विकास की सारी प्रवृत्तियाँ सारभूत रूप से मौजूद होती हैं। इसमें  बालक अपने सामान्य स्तर से ऊपर छलांग लगाने को तत्पर रहता है।

खेलने के लिए बालक जिस मानसिक प्रक्रिया में संलग्न (Attached) होता है वह निकट विकास क्षेत्र की रचना करती है। बच्चा निकट विकास क्षेत्र के उच्चतर स्ता पर काम कर सके इसके लिए कल्पित स्थितियों से प्राप्त भूमिकाएँ नियम तथा प्रेरणा सहायक सिद्ध होते हैं।

परीक्षोपयोगी तथ्य

जीन पियाजे (Jean Piaget) ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) को चार अवस्थाओं में बाँटा है संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage) (जन्म से 24 महीन) प्रासंक्रियात्मक अवस्था  Preoperational Stage) (2 वर्ष से 7 वर्ष) ठोस संक्रियात्मक की अवस्था (Stage of Concrete Operation) (7 वर्ष से 12 वर्ष) औपचारिक सक्रियात्मक अवस्था (Stage of Formal Operation): (12 वर्ष से वयस्कावस्था)

पियाजे के सिद्धांत के संप्रत्ययों (Concepts) में अनुकूलन (Adaptation), संरक्षण (Conservation), साम्यधारण (Equilibration), स्कीम्स (Schemes), स्कीमा > (Schema) तथा विकेंद्रण (Decentring) प्रमुख है। पियाजे ने संवेदी पेशीय अवस्था को छह उप-अवस्थाओं में विभाजित किया है प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Activities)- जन्म से 30 दिन प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था

1 महीने से 4 महीने गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था

4 से 8 महीने गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था

8 महीने से 12 महीने तृतीय वृतीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था

12 महीने से 18 महीने

मानसिक संयोग द्वारा नये साधनो की खोज की अवस्था

18 महीने से 24 महीने

पियाजे ने प्राकसक्रियात्मक अवस्था को दो भागों में बाँटा है प्राकसंप्रत्ययात्मक अवधि  (Preconceptual Period) तथा अंतर्दशी अवधि (Intuitive Period)|

प्राकम्प्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual Period)2 वर्ष से 4 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता (Signifiers) विकसित कर लेते हैं।

अन्तर्दशी अवधि (Intuitive Period) 4 वर्ष से 7 वर्ष की होती है। इस अवधि में बालकों का चिंतन एवं तर्कणा (Reasoning) पहले से अधिक परिपक्व (Mature हो जाते हैं।

ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of Concerte Operation)7 वर्ष से 12 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में बालक ठोस वस्तुओं के आधार पर आसानी से मानसिक संक्रियाएँ (Mental Operations) करके समस्या का समाधान कर लेता है।

औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of Formal Operations) 11 वर्ष से प्रारंभ होकर वयस्कावस्था (Adulthood) तक चलती है।

कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं और इन अवस्थाओं का क्रम निश्चित होता है। ये अवस्थाएँ हैं

★ प्रारूढ़िगत नैतिकता का स्तर (4 वर्ष से 10 वर्ष) * रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (10 वर्ष से 13 वर्ष)

★ उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर

प्रारूढ़िगत नैतिकता स्तर में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है। बच्चे किसी व्यवहार को अच्छा या बुरा उसके भौतिक परिणामों के आधार पर करते हैं।

रूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है।

उत्तररूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest वाइगोट्स्की (Vygostsky) ने बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों एवं भाषा को महत्वपूर्ण बतलाया है।

वाइगोट्स्की के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत (Socio-Cultural Theory) भी कहा जाता है।

वाइगोट्स्की ने वास्तविक विकास के स्तर तथा संभाव्य विकास के स्तर के बीच के अंतर को समीपस्थ विकास का क्षेत्र (ZPD) कहा है।

* पाठ्यक्रम छात्रों की रुचि के अनुसार होना चाहिए।

* पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए।

* पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी होना चाहिए।

वातावरण के अनुसार होना चाहिए।

* पाठ्यक्रम राष्ट्रीय भावनाओं को विकसित करने वाला होना चाहिए। पाठ्यक्रम समाज की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए।

* पाठ्यक्रम बालकों के मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए।

★ पाठ्यक्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान रखना चाहिए ।

प्रगतिशील शिक्षा Progressive Education

जॉन डीवी (John Devey) का प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा के विकास में विशेष योगदान रहा है। जॉन डीवी संयुक्त राज्य अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक थे। प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा इस प्रकार है—शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का विकास है।

 > प्रगतिशील शिक्षा यह सूचना प्रदान करता है कि शिक्षा बालक के लिए है बालक शिक्षा के लिए नहीं, इसलिए शिक्षा के उद्देश्य से ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए, जिसमें प्रत्येक बालक को सामाजिक विकास का पर्याप्त अवसर मिले। प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य जनतंत्रीय मूल्यों की स्थापना है।

प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत बालक में जनतंत्रीय मूल्यों का विकास किया जाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा हमें ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए जिसमें व्यक्ति व्यक्ति में कोई भेद न हो, सभी पूर्ण स्वतंत्रता और सहयोग से काम करें ।

प्रत्येक मनुष्य को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुसार विकसित होने का अवसर मिले, सभी को समान अधिकार दिये जाएँ। ऐसा समाज तभी बन सकता है, जब व्यक्ति और समाज के हित में कोई मौलिक अन्तर न माना जाय । शिक्षा के द्वारा मनुष्य में परस्पर सहयोग और सामंजस्य की स्थापना होनी चाहिए।

प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षण विधि को अधिक व्यावहारिक करने पर बल दिया जाता है।

जॉन डीवी ने प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है. रुचि और प्रयास । अध्यापक को बालक की स्वाभाविक रुचियों को समझकर उसके लिए उपयोगी कार्यों की व्यवस्था करनी चाहिए। बालक को स्वयं कार्यक्रम बनाने का अवसर दिया जाना चाहिए। डीवी के शिक्षा पद्धति संबंधी स्वयं कार्यक्रम के विचारों के आधार पर प्रोजेक्ट प्रणाली का जन्म हुआ।

इसके अन्तर्गत बालक को ऐसे काम दिये जाने चाहिए, जिनसे उनमें स्फूर्ति, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और मौलिकता का विकास हो। प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसके अनुसार शिक्षक समाज का सेवक है। उसे विद्यालय में ऐसा वातावरण निर्माण करना पड़ता

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