UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Buddhi Nirman Avm Bahuayami Buddhi Study Material

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Buddhi Nirman Avm Bahuayami Buddhi Study Material

बुद्धि-निर्माण तथा बहुआयामी बुद्धि

बद्धि (Intelligence) वेशलर (IVechsler, 1939) के अनुसार, “बुद्धि एक समुच्चय या सार्वजनिक क्षमता है, जिसके सहारे व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण क्रिया करता है, विवेकशील चिंतन करता है तथा वातावरण के साथ प्रभावकारी ढंग से समायोजन करता है।”

 > रॉबिन्सन तथा रॉबिन्सन (Robinson & Robinson, 1965)के अनुसार, “बुद्धि से तार पर्य संज्ञानात्मक व्यवहारों (Cognitive Behaviours) के संपूर्ण वर्ग से होता है, जो व्यक्ति में सूझ-बूझ द्वारा समस्या समाधान करने की क्षमताएँ, नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करने की क्षमताएँ, अमूर्त रूप से सोचने की क्षमता तथा अनुभवों  से लाभ उठाने की क्षमता को दिखाता है।

> स्टोडार्ड (Stoddard, 1941) के अनुसार, “बुद्धि उन क्रियाओं को समझने की क्षमता है जिनकी विशेषताएँ हैं—कठिनता, जटिलता, अमूर्त्तता, मितव्ययिता, किसी लक्ष्य के प्रति अनुकूलनशीलता, सामाजिक मान (Value) और मौलिकता की उत्पत्ति और कुछ परिस्थिति में वैसी क्रियाओं को करना जो शक्ति की एकाग्रता तथा सांवेगिक कारकों का प्रतिरोध (Resistance) दिखाता है।”

> पी. ई. वर्नन (P. E. Vernon, 1969) बुद्धि संप्रत्यय के तीन अर्थ बतलाये हैं जो लोकप्रिय और आकर्षक दिखते हैं। ये अर्थ इस प्रकार हैं-

(a) जननिक क्षमता के रूप में बुद्धि (Intelligence as Genetic Capacity): इस अर्थ में बुद्धि पूर्णतः वंशागत (Inherited) होती है। इसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘ए’ (Intelligence A)कहा है, जो स्पष्टतः बुद्धि का एक जीनोटाइपिक (Genotypic)प्रकार है तथा इसमें बुद्धि को व्यक्ति का एक आनुवंशिक गुण माना जाता है।

(b) प्रेक्षित व्यवहार के रूप में बुद्धि (Intelligence as Observed Behaviour): इस अर्थ में बुद्धि व्यक्ति के जीन एवं वातावरण की अंतःक्रिया (Interaction) का परिणाम होता है तथा जिस सीमा तक व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से व्यवहार करता है, उस सीमा तक उसे बुद्धिमान समझा जाता है। बुद्धि का यह अर्थ फीनोटाइपिक (Phenotypic) प्रारूप का है। उसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘बी’ (Intelligence ‘B’) कहा है।

(c) परीक्षण प्राप्तांक के रूप में बुद्धि (Intelligence as a Test Score) इस अर्थ में बुद्धि की एक क्रियात्मक परिभाषा दी गई। इस अर्थ में बुद्धि वही है जो बुद्धि परीक्षण मापता है। इसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘सी’ (Intelligence ‘C’) की संज्ञा दी है।

बुद्धि के प्रकार Type of Intelligence

ई. एल. थॉर्नडाइक (E. L. Thorndike) ने बुद्धि के तीन प्रकार बताये हैं20 सामाजिक बुद्धि (Social Intelligence) सामाजिक बुद्धि से तात्पर्य वैसी सामान्य

मानसिक क्षमता से होता है जिसके सहारे व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को ठीक ढंग : समझता है तथा व्यवहारकशलता भी दिखाता है। ऐसे लोगों का सामाजिक संबंध (Socia Relationship) अच्छा होता है।

-ईवर एवं वालरस्टीन (Drever & Vallerstein) के अनुसार, “सामाजिक बुद्धि बुद्धि का एक प्रकार है जो किसी व्यक्ति में अन्य व्यक्तियों एवं सामाजिक संबंधों के प्रति व्यवहार में निहित होता है।” जिन व्यक्तियों में सामाजिक बुद्धि होती है उनमें अन्य लोगों के साथ प्रभावपूर्ण ढंग से व्यवहार करने की क्षमता, अच्छा आचरण करने की क्षमता एवं समाज के अन्य लोगों से मिल जुलकर सामाजिक कार्यों में हाथ बँटाने की क्षमता अधिक होती है। सामाजिक बुद्धि एक ऐसी बुद्धि है जो व्यक्ति को सामाजिक परिस्थितियों में समायोजित होने में मदद करती है।

(ii) अमूर्त बुद्धि (Abstract Intelligence) : अमूर्त्त विषयों के बारे में चिंतन करने की क्षमता को ही अमूर्त बुद्धि (Abstract Intelligence) कहा जाता है। ऐसी बुद्धि में व्यक्ति शब्द, प्रतीक तथा अन्य अमूर्त्त चीजों के सहारे अच्छे से चिंतन कर लेता है। इस प्रकार की क्षमता दार्शनिकों, कलाकारों, कहानीकारों आदि में अधिक होती है।

टरमैन (Terman) के अनुसार, अमूर्त्त बुद्धि का महत्व छात्रों में विद्यमान अन्य दूसरे तरह की बुद्धि से अधिक होती है, अमूर्त्त बुद्धि को कुछ लोगों ने सैद्धान्तिक बुद्धि (Theoretical Intelligence) भी कहा है।

जिन व्यक्तियों में अमूर्त्त बुद्धि अधिक होती है वे सफल कलाकार, पेंटर, गणितज्ञ एवं कहानीकार आदि बनते हैं।

(iii) मूर्त्त बुद्धि (Concrete Intelligence) मूर्त्त बुद्धि से तात्पर्य वैसी मानसिक क्षमता से होता है जिसके सहारे व्यक्ति मूर्त या ठोस वस्तुओं के महत्व को समझता है, उनके बारे में सोचता है तथा अपनी इच्छा एवं आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन लाकर उन्हें उपयोगी बनाता है। इसे व्यावहारिक बुद्धि (Practical Intelligence) भी कहा जाता है।

बुद्धिलब्धि  Intelligence Quotient

बुद्धि मापने के लिए सबसे पहला बुद्धि परीक्षण बिने (Binet)तथा साइमन (Simon) ने 1905 में विकसित किया। इस परीक्षण में बुद्धि को मानसिक आयु (Mental Age) के रूप में मापकर अभिव्यक्त किया गया। 1916 ई० में बिने साइमन परीक्षण का सबसे महत्वपूर्ण संशोधन टरमैन (Terman ने स्टैंडफोर्ड विश्वविद्यालय में किया। इसी संशोधन में बुद्धिलब्धि (IQ) के संप्रत्यय (Concept) का जन्म हुआ और बुद्धि को मापने में मानसिक आय की जगह र बुद्धिलब्धि (IQ) का प्रयोग होने लगा। बद्धिलब्धि (IQ) मानसिक आयु (Mental Age)तथा तैथिक आयु (Chronological Age) का एक ऐसा अनुपात है जिसमें 100 से गुणा कर प्राप्त किया जाता है। इसलिए इसे अनुपात बुद्धिलब्धि (Ratio IQ) भी कहा जाता है।

जहाँ MA मानसिक आय, CA तैथिक आय वाला > मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धिलब्धि के भिन्न भिन्न मानों (Values) के अर्थ को स्पष्ट एवं वस्तुनिष्ठ करने लिए निम्नलिखित मान तथा उनके अर्थ दिये हैं> मनोवैज्ञानिक ने 25 30 वर्ष या इससे ऊपर की आयु के व्यक्ति के बुद्धि को मापने के लिए बुद्धि की जगह एक नयी धारणा (Concept) का प्रयोग किया, जिसे विचलन बुद्धिलब्धि (Deviation IQ) की संज्ञा दी गई है।

विचलन बुद्धिलब्धि ज्ञात करने के लिए पहले मानक प्राप्तांक ज्ञात किया जाता है और फिर इस प्राप्तांक को एक मापनी (Scale) (जिसका माध्य (Mean) 100 तथा मानक विचलन (Standard Deviation) 15 होता है) में बदल दिया जाता है।

बुद्धिलब्धि के मान तथा उनके अर्थ

बुद्धिलब्धि के मान (Value of IQ)

अर्थ (Meaning) 140 या इससे अधिक

प्रतिभाशाली (Genius) 120 से 139 तक

अतिश्रेष्ठ (Very Superior) 110 से 119 तक

श्रेष्ठ (Superior) 90 से 109 तक

सामान्य (Normal) 88 से 89 तक

मन्द (Dull) 70 से 79 तक

सीमांत मन्दबुद्धि (Borderline Feeble Minded) 60 से 69 तक

मूढ़ बुद्धि (Moron) 20 से 59 तक

हीन बुद्धि (Imbecile) 20 या इससे कम बुद्धि

जड़ बुद्धि (Idiot)

उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को एक बुद्धि परीक्षण पर 60 अंक प्राप्त हुए। उसी परीक्षण को उस व्यक्ति के समान उम्र के व्यक्तियों पर (N= 100) क्रियान्वयन करने । पर माध्य = 30 तथा मानक विचलन = 10 प्राप्त हुआ।

Xमानक प्राप्तांक (Standard Score) A,

बुद्धि की माप Measurement of Intelligence

बुद्धि की माप बुद्धि परीक्षण (Intelligence Test) द्वारा की जाती है। सबसे पहला बुद्धि परीक्षण बिने (Binet)तथा साइमन (Simon) ने मिलकर 1905 में बनाया था। यह बुद्धि परीक्षण आनेवाले वर्षों में मनोवैज्ञानिकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। इसमें भी कई मनोवैज्ञानिक द्वारा संशोधन किया गया।

इस परीक्षण का सबसे महत्वपूर्ण संशोधन टरमैन (Terman) द्वारा 1916 में स्टैडफोर्ड विश्वविद्यालय (Standford University) में किया गया। इस संशोधन में सबसे

पहली बार पिलब्धि की धारणा का वृद्धि मापने के सूचक (Index) के रूप में प्रयोग किया |

इसके बाद अनेक मनोवैज्ञानिकों जैसे वेश्लर (Mechsler), अर्थर (Arthur), कैटेल M (Cattees) रेवेन (Ranen) गडएनफ (Goodenough) आदि मनोवैज्ञानिको ने भी बुद्धि परीक्षण बनाकर बुद्धि मापन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत ।। में भी कई मनोवैज्ञानिको ने बुद्धि परीक्षण का निर्माण किया है। इनमें डॉ. एस है जलोटा, डॉ मोहनचंद जोशी, डॉ. एस एस मुहसिन आदि प्रमुख है। इनमें मह मे वपूर्ण बुद्धि परीक्षण निम्नलिखित है-

  1. विने साइमन परीक्षण (Binet Simon Test) इस परीक्षण का निर्माण बिने तथा पर साइमन ने फ्रेंच भाषा में 1005 में किया। यह एक प्रकार का वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण पर (Individual Intelligence Test) 81
  2. पेशलर बद्धि परीक्षण (Techsler Intelligence Test) वेश्लर ने बुद्धि मापने । के दो नियम दिये। वयस्कों की बुद्धिमापने के लिए 193) में एक मापक तैयार किया, जिसका नाम वेश्चर वेलेब्यू मापनी रखा गया। इस परीक्षण में दो फार्म थे, दोनों में 10 10 वि उपपरीक्षण (Subtest)थे। 10 में 5 शाब्दिक मापनी (Terbal Scale) थे, और 5 क्रिया मक मापनी (Performance Scale) थे। इस परीक्षण का 1955 में संशोधन किया गया के और इसका नाम वेश्लर वयस्क बुद्धि मापनी AIAIS) रखा गया। 1981 में इसमें फिर जि संशोधन कर इसका नाम |AIS R रखा गया। इस परीक्षण में वृद्धि की माप तीन तरह ब की बुद्धिलब्धि (IQ) द्वारा होती है।

X शाब्दिक मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)

क्रियात्मक मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)

* सम्पूर्ण मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)

इसके अंतर्गत 16-01 वर्ष के व्यक्तियों की बुद्धि का मापन किया जाता है। वेश्लर ने बच्चों की बुद्धि मापने के लिए दूसरा परीक्षण 1919 में किया, जिसे । ‘वेश्लर’ बुद्धि मापनी बच्चों के लिए (IVISC) कहा गया। इस मापनी द्वारा 6-16 वर्ष तक के बच्चों की बुद्धि की माप की जाती है। इस परीक्षण का संशोधन 1974 में किया गया, इसे ||ISC-Rकहा गया।

  • कैटेल संस्कृतिमुक्त बुद्धि परीक्षण (Cattell Culture Free Intelligence Test) इस परीक्षण का निर्माण कैटेल (Cattel) ने किया है, जिसमें तीन मापक है. मापक-1-1-8 वर्ष के बच्चे तथा मानसिक दोष वाले वयस्क। मापक-11-8-13 वर्ष की आयुवाले बच्चे और औसत वयस्क के लिए।  मापक-1, हाई स्कूल के छात्रों, कॉलेज के छात्रों तथा 14 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों पर।

रेवेन्स प्रोग्रेसिव मैट्रिसेज (Raren’s Progressive Matrices) इस परीक्षण का निर्माण रैवेन (Raven) ने 1938 में किया था। इस परीक्षण के दो फार्म है एक बच्चो के लिए तथा दूसरा वयस्कों के लिए। बच्चों के लिए प्रयोग होनेवाले फार्म को रंगीन

प्रोग्रेसिव मैटिसेज (Coloured Progressive Matrices) कहा जाता है तथा वयस्कों के का प्रयोग होनेवाले मैट्रिसेज को स्टैण्डर्ड प्रोग्रेसिव मेट्रिसेज (Standard Progressive Matrices) कहा जाता है।

कछ प्रमुख भारतीय बुद्धि परीक्षण (Some Important Indian Intelligence Posts) बन्दि मापने का प्रयास भारतीय मनोवैज्ञानिकों द्वारा भी काफी अधिक किया गया है। इनमें प्रमुख है-डॉ. एम. सी. जोशी द्वारा मानसिक योग्यता परीक्षण 1960, डॉ प्रयाग मेहता द्वारा सामूहिक बुद्धि परीक्षण (1962), डॉ. आर. के. टंडन द्वारा सामहिक मानसिक योग्यता परीक्षण (1971), प्रो. आर. के. ओझा तथा प्रो. राय चौधरी द्वारा वाचिक बुद्धि परीक्षण (1971), डॉ. एस. एस. जलोटा द्वारा मानसिक योग्यता की संशोधित सामूहिक परीक्षा (1972) तथा डॉ. एस. एस. मुहसिन द्वारा सामान्य बुद्धि परीक्षण।

बुद्धि परीक्षण के प्रकार Type of Intelligence Test

मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की माप के परीक्षण को दो कसौटी के आधार पर वर्गीकृत किया है-

1.क्रियान्वयन (Administration) के तरीकों (Mode) के आधार पर क्रियान्वयन के तरीकों के आधार पर बुद्धि परीक्षण दो प्रकार का होता है। एक तो वे परीक्षण हैं जिनका क्रियान्वयन एक समय में एक ही व्यक्ति पर किया जा सकता है। इस प्रकार के बुद्धि परीक्षण को मनोवैज्ञानिकों ने वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण की संज्ञा दी है। सबसे पहला वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण बिने (Binet) तथा साइमन (Simon) द्वारा 1905 में विकसित किया गया है। इसे बिने साइमन परीक्षण कहा जाता है।

कोह ब्लॉक डिजाइन परीक्षण (Koh Block Design Test), पास अलाँग परीक्षण (Pass Along Test) तथा घन रचना परीक्षण (Cube Construction Test) भी वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण के उदाहरण हैं।

क्रियान्वयन के आधार पर दूसरे प्रकार के बुद्धि परीक्षण वे हैं जिनको एक समय में एक से अधिक व्यक्ति, अर्थात जिनको व्यक्तियों के समूह में किया जा सकता है। इस प्रकार के परीक्षण को सामूहिक बुद्धि परीक्षण (Group Intelligence Test) की संज्ञा दी गई है। आर्मी अल्फा परीक्षण (Army Alpha Test) तथा आर्मी बीटा परीक्षण (Army Beta Test) इत्यादि सामूहिक बुद्धि परीक्षण के अंतर्गत आते हैं।

2. एकांशों (Items) के स्वरूप के आधार पर : बुद्धि परीक्षणों को एकांश के स्वरूप के आधार पर निम्नांकित चार भागों में बाँटा गया है

a) शाब्दिक बुद्धि परीक्षण (Verbal Intelligence Test): ऐसे बुद्धि परीक्षण जिनमें लिखित शब्दों (Words) अर्थात लिखित भाषा का प्रयोग निर्देश देने तथा परीक्षण के एकाशा या प्रश्नों में किया जाता है. शाब्दिक बद्धि परीक्षण कहलाता है। शाब्दिक बुद्धि परीक्षण को निम्नांकित दो भागों में बाँटा गया है-

* शाब्दिक वैयक्तिक वृद्धि परीक्षण (Verbal Individual Intelligence Test)

शाब्दिक समूह वृद्धि परीक्षण (Verbal Group Intelligence Test)

(b) अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण (Non-Verbal Intelligence Test) : ऐसे बुद्धि को परीक्षण जिसमें भाषा (Language) अर्थात शब्दों, वाक्यों तथा संख्या का प्रयोग निर्देशन (Instruction) में निश्चित रूप से होता है, परन्तु उनके एकांशों (Items) में प्रयोग नहीं होता है। इसलिए इसका प्रयोग छोटे बच्चों, कम पढ़े लिखे व्यक्तियों तथा मानसिक रूप से मंदित बच्चों के लिए आसानी से किया जा सकता है।

(c)क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण (Performance Intelligence Test) फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण वैसे बुद्धि परीक्षण को कहा जाता है, जिनमें भाषा का प्रयोग निर्देश (Instruction) में भी हो सकता है या चित्राभिनय (Pantomine तथा हाव भाव (Gesture) द्वारा निर्देश देने पर भाषा का प्रयोग नहीं भी हो सकता है। क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण की निम्नांकित तीन विशेषताएँ हैं-

★ इस परीक्षण के निर्देश में भाषा या संख्या का प्रयोग कभी होता है और कभी नहीं भी होता है।

★ इस परीक्षण के एकांश (Items) में भाषा का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं होता।

★ इस परीक्षण में व्यक्ति के सामने वस्तुओं को वास्तविक रूप में उपस्थित किया थ जाता है और उसमें जोड़-तोड़ करना पड़ता है।

(d)अभाषायी बुद्धि परीक्षण (Non-Language Intelligence Test) अभाषायी बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहा जाता है जिसमें भाषा का प्रयोग एकांश (Items)और निर्देश में नहीं होता है। प्रायः इस तरह के परीक्षण में निर्देश हाव-भाव (Gesture), निर्देशन (Demonstration)तथा चित्राभिनय (Pantomine) द्वारा दिया जाता है। अभाषायी बुद्धि परीक्षण के निम्नांकित गुण हैं

★ ऐसे परीक्षणों में निर्देश (Instruction) हाव-भाव (Gesture), चित्राभिनय (Pantomine) तथा निर्देशन (Demonstration) द्वारा दिया जाता है, न कि > किसी प्रकार की भाषा द्वारा।

★ इन परीक्षणों के एकांश में भाषा का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं होता।

★ इन परीक्षणों के परीक्षार्थियों (Testees) को कुछ वस्तुएँ (Objects) जैसा कि क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण में दिया जाता है, नहीं दिया जाता है। बद्धि के सिद्धान्त Theories of Intelligence में एक कारक सिद्धान्त (Uni-factor Theory) : इस सिद्धान्त का प्रतिपादन बिन (Binet) ने किया और इस सिद्धान्त का समर्थन तथा इसको आगे बढ़ाने का श्रेय टरमैन और स्टर्न जैसे मनोवैज्ञानिकों को है।

इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि को एक शक्ति या कारक के रूप में माना गया है। इन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बुद्धि, वह मानसिक शक्ति है जो व्यक्ति के समस्त मानसिक कार्यों का संचालन करती है और व्यक्ति के समस्त व्यवहारों को प्रभावित करती है। वर्तमान में इस सिद्धान्त को कोई नहीं मानता है।

2.द्वि कारक सिद्धान्त (Two-factor Theory) इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन (Spearman)है। इनके अनुसार बुद्धि मे दो प्रकार की मानसिक योग्यताओं की आवश्यकत

होती है |  प्रथम, सामान्य मानसिक योग्यता (General Mental Ability G), द्वितीय, शिष्ट मानसिक योग्यता (Specific Mental Ability-S)।

सामान्य योग्यता सभी प्रकार के मानसिक कार्यों में पायी जाती है, जबकि विशिष्ट मानसिक योग्यता केवल विशिष्ट कार्यों से (S, ही सम्बन्धित होती है। प्रत्येक व्यक्ति में सामान्य योग्यता के अतिरिक्त कुछ न कुछ विशिष्ट योग्यताएँ पायी जाती हैं। एक व्यक्ति में एक विशिष्ट योग्यता भी हो सकती है और एक से अधिक विशिष्ट योग्यताएँ भी हो सकती हैं।

दिये हये चित्र में ओवरलैप करने वाला सम्पूर्ण क्षेत्र G कारक का प्रतिनिधित्व कर रहा है। शेष दोनों परीक्षणों का स्वतन्त्र क्षेत्र S, और S, द्वारा प्रदर्शित किया गया है। उपर्युक्त चित्र से यह स्पष्ट है कि विशिष्ट योग्यताएँ एक दूसरे से स्वतंत्र होती हैं तथा सामान्य योग्यता की आवश्यकता भी इन विशिष्ट योग्यताओं में पड़ती है।

प्रतिदर्श (नमूना) सिद्धान्त (Sampling Theory) इस सिद्धान्त का प्रतिपादन थॉम्प्सन (Thompson) ने किया। थॉम्प्सन ने अपने प्रतिदर्श सिद्धान्त का प्रतिपादन स्पीयरमैन के द्वि कारक सिद्धान्त के विरोध में किया।

> थॉम्प्सन के अनुसार, व्यक्ति का बौद्धिक व्यवहार अनेक स्वतंत्र योग्यताओं पर निर्भर करता है। परन्तु, इन स्वतंत्र योग्यताओं का क्षेत्र सीमित होता है। यदि कोई एक बुद्धि परीक्षण भरवाया जाये तो बौद्धिक तत्वों का एक विशिष्ट प्रतिदर्श ही सामने आता है। इसी प्रकार से यदि दूसरा परीक्षण भरवाया जाये तो बौद्धिक तत्वों का एक भिन्न प्रतिदर्श उस परीक्षण के सामने आयेगा।

विभिन्न संज्ञानात्मक अथवा बौद्धिक परीक्षणों में जो धनात्मक सह संबंध पाये जाते हैं वह विभिन्न प्रतिदर्थों के अथवा योग्यताओं के नमूने की ओवरलैपिंग से स्पष्ट होते हैं।

चित्र में छोटे वृत्त विशिष्ट कारकों अथवा मानसिक योग्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि बड़े दोनों वृत्त दो परीक्षणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। परीक्षण A से आठ विशिष्ट कारकों के प्रतिदर्श प्रदर्शित किये गये हैं, जबकि B से ग्यारह विशिष्ट कारकों के प्रतिदर्शों का प्रदर्शन किया गया है। क्योंकि दोनों परीक्षणों में छह विशिष्ट कारक सामान्य हैं अतः इनमें धनात्मक सह संबंध है।

4.. समूह कारक सिद्धान्त (Group Factor Theory) इस सिद्धान्त के प्रतिपादक पटन (Thurston) है। थर्स्टन का सिद्धान्त बुद्धि का एक महत्वपूर्ण और मात्रात्मक सिद्धान्त है। थर्स्टन ने अपने कारक विश्लेषण (Factor Analysis) के आधार पर निम्न 7 मौलिक मानसिक योग्यताओं का पता लगाया है-

पाचिक भाषिक योग्यता (Verbal Ability) यह वह योग्यता है जिसकी सहायता व्याक्त शाब्दिक विचारों को समझता और उनका उपयोग करता है।

(b) सख्यात्मक योग्यता (Number Ability) यह वह योग्यता है जिसके द्वारा व्यक्ति रण गणितीय प्रकार्यों जैसे-जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग आदि को करता है।

वस्त प्रेक्षण योग्यता (Spatial Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति वस्तु प्रेक्षण करता है तथा वस्तु प्रेक्षण सम्बन्धों को समझता है, जैसे ज्यामितीय समस्याओं में।

((d) प्रत्यक्षपरक योग्यता (Perceptual Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति वस्तुओं को शीघ्र पहचानता है तथा उनका शुद्ध प्रत्यक्षीकरण करता है। जैसे पढ़ने के शब्दों को पहचानना।

1) स्पति योग्यता (Memorn Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति अधिगम B करता है तथा प्राप्त सूचना का धारण करता है।

(O तार्किक योग्यता (Reasoning Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति अमूर्त संबंधों का प्रत्यक्षीकरण करता है तथा उनका उपयोग करता है।

(g) शाब्दिक योग्यता (Word Ability) इस योग्यता के द्वारा शब्दों के संबंध में व्यक्ति चिन्तन करता है। थर्स्टन के बाद के अध्ययनों के आधार पर तर्कशक्ति में दो योग्यताएँ मानी गयी हैं—

आगमन योग्यता (Inductive Ability) और निगमन योग्यता : (Deductive Ability)

गिलफोर्ड का सिद्धान्त (Guilford’s Theory) गिलफोर्ड (Guilford) ने बौद्धिक योग्यताओं के 5 मुख्य समूह बतलाये है

ka) संज्ञान (Cognition) इस बौद्धिक योग्यता में खोज, पुनर्योज जैसी योग्यताएँ सम्मिलित है।

(b) अभिसारी चिंतन (Convergent Thinking) यह वह बौद्धिक योग्यताएँ हैं जिसके द्वारा एक व्यक्ति प्राप्त सूचना का उपयोग इस प्रकार करता है कि उपयुक्त उत्तर दे सके।

(c) अपसारी चिंतन (Divergent Thinking) : इस बौद्धिक योग्यता के द्वारा व्यक्ति विभिन्न दिशाओं में चिन्तन करता है या खोज करता है।

(d) स्पति (Memory): इस बौद्धिक योग्यता के द्वारा व्यक्ति संज्ञान (Cognition के द्वारा जो कुछ ग्रहण करता है, उसका धारण करता है।

(e) मूल्यांकन (Evaluation): इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति, शुद्धता और उपयुक्तता आदि के संबंध में निर्णय लेता है।

6. पदानुक्रमिक सिद्धान्त (Hierarchical Theory) : इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन के विचारों के समर्थक रहे हैं। इनमें वरनन (Vernon) का नाम प्रमुख है। इस सिद्धान्त में क्रमबद्धता के आधार पर सामान्य मानसिक योग्यता के दो मुख्य वर्ग बताये गये हैं—प्रथम वर्ग में बुद्धि के प्रायोगिक, शारीरिक कारक हैं तथा द्वितीय वर्ग में मौखिक, सांख्यिकी, शैक्षिक इत्यादि कारक हैं। इन कारकों के आगे क्रम में विशिष्ट मानसिक योग्यताओं से सम्बन्धित कारक हैं। इन कारकों का सम्बन्ध विभिन्न ज्ञानात्मक क्रियाओं से है। यह सिद्धान्त भी कारक विश्लेषण (Factor Analysis) पर आधारित है।

मकरोल का त्रिस्तरीय मॉडल (Carroll’s Three Stratum Model): जॉन बी कैरोल (John B Carroll) ने बुद्धि का त्रिस्तरीय मॉडल विकसित किया। इस मॉडल के अनुसार मानसिक कौशल के तीन स्तर बतलाए गये हैं. सामान्य (General), विस्तृत (Broad), कौशल (Mental Skills)। यह एक समाकलानात्मक मॉडल है, जिसमें स्पीयरमैन

Spearman), थर्टन (Thurston) तथा केटेल हॉर्न के सिद्धातों के तत्वों को समन्वित किया गया है।

General (Stratum II

जिन्नत तरल ठोस सामान्य विस्तृत विस्तृत विस्तृत विस्तृत गति संसाधन Broad बन्दि बन्दि स्मृति एवं दष्टि श्रवण पन प्राप्ति मज्ञानात्मक प्रतिक्रिया समय अधिगम प्रत्यक्षण प्रत्यक्षण क्षमता तीव्रता निगमन गति

(Stratum 1) की स्तर संज्ञानात्मक क्षमता के अध्ययन में व्यवहत संज्ञानात्मक, प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक तथा Narrow प्रगति कार्य (Stratum 1)

गार्डनर का बहबुद्धि सिद्धांत (Gardner’s Theory of Multiple Intelligence) गार्डनर ने इस सिद्धांत में यह स्पष्ट किया कि बुद्धि का स्वरूप एकाकी (Singular) न होकर बहकारकीय होता है। उनके इस सिद्धांत का आधार उनके द्वारा न्यूरोमनोविज्ञान (Neuropsychology) तथा मनोमितिक विधियों (Psychometric Method) के क्षेत्र में किये गये शोध हैं।

गार्डनर ने मुख्य रूप से सात प्रकार की बुद्धि का वर्णन किया। 1998 में उन्होंने इसमें 8वाँ प्रकार तथा 2000 में उन्होंने नौवाँ प्रकार जोड़ा। इस प्रकार वर्तमान में गार्डनर के अनुसार बुद्धि के 9 प्रकार हैं-

भाषाई बुद्धि (Linguistic Intelligence)

तार्किक गणितीय बुद्धि (Logical Mathematical Intelligence)

* स्थानिक बुद्धि (Spatial Intelligence)

* शारीरिक गतिक बुद्धि (Body-Kinesthetic Intelligence)

* सांगीतिक बुद्धि (Musical Intelligence)

व्यक्तिगत आत्मन् बुद्धि (Personal-Self Intelligence) व्यक्तिगत अन्य बुद्धि (Personal-others Intelligence)

प्रकृतिवादी बुद्धि (Naturalistic Intelligence)

अस्तित्ववादी बुद्धि (Existentialistic Intelligence)

स्टनबर्ग का सिद्धात (Sternberg’s Theory) स्टर्नबर्ग के अनुसार बुद्धि भिन्न भिन्न प्रकार के मूल कौशल (Basic Skills) या घटक में बँटी होती है। प्रत्येक घटक के आधार पर व्यक्ति को कुछ विशेष सुचनाएँ मिलती हैं, जिनको वह संसाधित करता है उनकी विवचना करता है और समस्या का समाधान करता है। स्टर्नबर्ग ने बुद्धि के त्रितंत्र का प्रतिपादन किया है। जो इस प्रकार है

(a)विश्लेषणात्मक वृद्धि (Analytical Intelligence) विश्लेषणात्मक बुद्धि से तात्पर्य कमा समस्या समाधान में समस्या को उसके विभिन्न अशों या भागों में बाँटकर समाधान करन की क्षमता से होता है। इस ढंग की क्षमता का मापन बुद्धि परीक्षणों तथा शैक्षिक मिन उपलब्धि परीक्षणों द्वारा होता है। इसे घटकीय बुद्धि भी कहा जाता है।

स्टर्नबर्ग के अनुसार विश्लेषणात्मक बद्धि में सूचना संसाधन क्षमता के कई इकाई जैसे किसी सूचना को संचित करने की क्षमता, उसका प्रत्याह्वान करने की क्षमता, सूचनाओं को अंतरित करने की क्षमता, समस्याओं के बारे में निर्णय लेने की क्षमता, अमूर्त चिंतन करने की क्षमता तथा चिंतन को निष्पादन में बदलने की क्षमता सम्मिलित होती है।

(b) सर्जनात्मक बद्धि (Creative Intelligence) सर्जनात्मक बुद्धि को अनुभवजन्य बुद्धि भी कहा जाता है। सर्जनात्मक बुद्धि में वैसे मानसिक कौशल सम्मिलित होते हैं, जिनकी आवश्यकता नयी समस्याओं के समाधान में पड़ती है तथा व्यक्ति इसमें किसी समस्या के नये समाधान पर पहुँचने की कोशिश करता है। इस तरह की बुद्धि में बदलते पर्यावरण या संदर्भ के समय अनुकूलन करने की क्षमता सम्मिलित होती है।

(c) व्यावहारिक बुद्धि (Practical Intelligence) : इस प्रकार की बुद्धि को__ संदर्भात्मक बुद्धि भी कहा जाता है। इस तरह की बुद्धि में वैसी क्षमता सम्मिलित होती

है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी जिंदगी में सूचनाओं को इस ढंग से उपयोग करने में सफल हो पाता है जिससे उसे अधिकाधिक लाभ हो पाता है। इस प्रकार की बुद्धि । में व्यक्ति में अपने वातावरण को एक खास ढंग से मोड़ने की क्षमता तथा परिवर्तित परिस्थिति के साथ अपने आप को ठीक ढंग से समायोजित करने की क्षमता इत्यादि… सम्मिलित होती है।

बहुआयामी बुद्धि Multidimensional Intelligence

> थर्स्टन एवं कैली नामक वैज्ञानिकों ने बताया कि बुद्धि का निर्माण प्राथमिक मानसिक योग्यताओं के द्वारा होता है।

कैली के अनुसार, बुद्धि का निर्माण इन योग्यताओं से होता है—वाचिक योग्यता गामक योग्यता, सांख्यिकी योग्यता, यान्त्रिक योग्यता, सामाजिक योग्यता, संगीतात्मक योग्यता, स्थानिक सम्बन्धों के साथ उचित ढंग से व्यवहार करने की योग्यता, रुचि और शारीरिक योग्यता।

थर्स्टन का मत है कि बुद्धि इन प्राथमिक मानसिक योग्यताओं का समूह होता है—प्रत्यक्षीकरण संबंधी योग्यता, तार्किक व वाचिक योग्यता, सांख्यिकी योग्यता स्थानिक या दृश्य योग्यता, समस्या समाधान की योग्यता, स्मृति संबंधी योग्यता आगमनात्मक योग्यता और निगमनात्मक योग्यता ।

परीक्षोपयोगी तथ्य

बुद्धि एक सामान्य मानसिक क्षमता (General Mental Ability) है। इसे कई तरह की क्षमताओं का एक संपूर्ण योग माना गया है जिसके सहारे व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण क्रियाएँ करता है, विवेकशील चिंतन करता है तथा वातावरण के साथ प्रभावकार ढंग से समायोजन करता है।

थार्नडाइक ने बुद्धि के तीन प्रकार बतलाये हैं सामाजिक बुद्धि, मूर्त बुद्धि, अमूर्त्त बुद्धि

मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की अभिव्यक्ति बुद्धिलब्धि या IQ के रूप में की है।

मानसिक आयु (Mental Age)को तैथिक आयु (Chronological Age)से विभाजित करके उसमें 100 से गुणा करने के बाद जो मान (Value)प्राप्त होता है, उसे बुद्धिलब्धि कहा जाता है।

मानसिक आयु बुद्धिलब्धि =

– 100

तैथिक आयु

– बद्धि की माप भिन्न भिन्न तरह के परीक्षणों द्वारा की जाती है। इन परीक्षणों में बिने साइमन परीक्षण (Binet-Simon Test), वेशलर बुद्धि परीक्षण (Wechsler Intelligence Test), कैटेल संस्कृति मुक्त बुद्धि परीक्षण, रैवेन प्रोग्रेसिव मैट्रिसेज इत्यादि मुख्य हैं।

मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि परीक्षणों को कई भागों में बाँटा है जिनमें प्रमुख है* शाब्दिक बुद्धि परीक्षण * अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण ★ क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण * अभाषाई बुद्धि परीक्षण मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के स्वरूप की व्याख्या करने के लिए दो तरह के प्रमुख सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है कारक सिद्धांत तथा प्रक्रिया प्रधान सिद्धांत । कारक सिद्धांत में स्पीयरमैन का सिद्धांत, थर्स्टन का सिद्धांत, थार्नडाइक एवं गिलफोर्ड का सिद्धांत तथा पदानुक्रमिक सिद्धांत को रखा गया है। – प्रक्रिया प्रधान सिद्धांत में पियाजे का सिद्धांत, स्टर्नबर्ग का सिद्धांत, जेन्सन का सिद्धांत प्रमुख है।

बहुकारक सिद्धांत में थार्नडाइक एवं गिलफोर्ड के सिद्धांत को रखा गया है। पियाजे के अनुसार, ‘बुद्धि एक ऐसी अनुकूली प्रक्रिया है जिसमें जैविक परिपक्वता का पारस्परिक प्रभाव तथा वातावरण के साथ की गई अंतःक्रिया, दोनों ही सम्मिलित होते हैं।’

पियाजे का मत था कि बौद्धिक विकास संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है जैसे–प्रकृति के नियम को समझना, व्याकरण के नियम को समझना तथा गणितीय नियमों को समझना इत्यादि ।

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बाल केन्द्रित तथा प्रगतिशील शिक्षा | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 6 Study Material in Hindi

बाल-केन्द्रित शिक्षा Child-Centered Education

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bal Kendrit Shiksha Study Material : बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत उन्हीं शिक्षण विधियों को प्रयोग में लाया जाता है जो बालकों के सीखने की प्रक्रिया, महत्वपूर्ण कारक, लाभदायक व हानिकारक दशाएँ, रुकावटें, सीखने के वक्र तथा प्रशिक्षण इत्यादि तत्वों को सम्मिलित करती हैं तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित होती हैं।

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बाल केन्द्रित शिक्षा का श्रेय शिक्षा मनोविज्ञान को दिया जाता है। जिसका उद्देश्य बालक के मनोविज्ञान को समझते हुए शिक्षण की व्यवस्था करना तथा उसकी अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर करना है।

वर्ष 1919 में प्रगतिशील शिक्षा सुधारकों ने (कोलम्बिया विश्वविद्यालय) बालकों के हितों के लिए सीखने की प्रक्रिया के केन्द्र में बालक को रखने पर बल दिया अर्थात . अधिगम प्रक्रिया में केन्द्रीय स्थान बालक को दिया जाता है।

भारत में गिजभाई बधेका (गुजरात) ने डॉ. मारिया मॉण्टेसरी के शैक्षिक विचारों एवं विधियों से प्रभावित होकर बाल शिक्षा को एक नया आयाम (Dimension) प्रदान किया। उन्होंने 1920 ई० में बाल मन्दिर नामक संस्था की स्थापना की, जिसका केन्द्र बिन्दु उन्होंने बालक को रखा।

बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यताओं के विकास के आधार पर अध्ययन किया जाता है तथा बालक के व्यवहार और व्यक्तित्व में असामान्यता के लक्षण होने पर बौद्धिक दुर्बलता, समस्यात्मक बालक रोगी बालक, अपराधी बालक इत्यादि का निदान किया जाता है।

मनोविज्ञान के ज्ञान के अभाव में शिक्षक मार पीट के द्वारा इन दोषों को दूर करने का प्रयास करता है, परन्तु बालकों को समझने वाला शिक्षक यह जानता है कि इन दोषों का आधार उनकी शारीरिक, सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं में ही कहीं न कहीं है। वैयक्तिक भिन्नता की अवधारणा ने शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया में व्यापक परिवर्तन किया है। इसी के कारण बाल केन्द्रित शिक्षा का प्रचलन शुरू हुआ।

बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यक्रम का स्वरूप बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम विद्यार्थी को शिक्षा प्रक्रिया का केन्द्र बिन्दु माना जाता है। बालक की रुचियों, आवश्यकता एवं योग्यताओं के आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। बाल केन्द्रित शिक्ष के अन्तर्गत पाठ्यक्रम का स्वरूप निम्नलिखित है-

पाठ्यक्रम पूर्वज्ञान पर आधारित होना चाहिए।

है, जिसमें पलकर बालक के सामाजिक व्यक्तित्व का विकास हो सके और व जनतंत्र के योग्य नागरिक बन सके। डीवी ने शिक्षक को समाज में ईश्वर के प्रतिनिधि की संज्ञा दिया है। विद्यालय में स्वतंत्रता और समानता के मूल्य को बनाये रखने के लिए शिक्षक को अपने को बालकों से बड़ा नहीं समझना चाहिए। शिक्षकों को आज्ञाओं और उपदेशों के द्वारा अपने विचारों और प्रवृत्तियों का भार बालकों पर देने का प्रयास नहीं करना चाहिए। बालक को प्रत्यक्ष रूप से उपदेश न देकर उसे सामाजिक परिवेश दिया जाना चाहिए। और उसके सामने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जाने चाहिए कि उसमें आत्मानुशासन उत्पन्न हो और वह सही अर्थों में सामाजिक प्राणी बने । आधुनिक शिक्षा में वैज्ञानिक सामाजिक प्रवृत्ति प्रगतिशील शिक्षा का योगदान है प्रगतिशील शिक्षा के सिद्धान्तों के अनुरूप ही आजकल शिक्षा को अनिवार्य और सार्वभौमिक बनाने पर जोर दिया जाता है। शिक्षा का लक्ष्य व्यक्तित्व का विकास है और प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व का विकास करने के लिए शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाना चाहिए।

परीक्षोपयोगी तथ्य बाल केन्द्रित शिक्षा का उद्देश्य बालक के मनोविज्ञान को समझते हुए शिक्षण की व्यवस्था करना तथा उसकी अधिगम संबंधी कठिनाइयों को दूर करना है। बाल केन्द्रित शिक्षा के अंतर्गत बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यताओं के विकास के आधार पर अध्ययन किया जाता है। > बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम में बालक की रुचियों, आवश्यकताओं एवं योग्यताओं के

आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य बालकों में शिक्षा के माध्यम से जनतंत्रीय मूल्यों की स्थापना करना है। जॉन डीवी का प्रगतिशील शिक्षा के विकास में सराहनीय योगदान है। इन्होंने प्रगतिशील शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है-मचि और प्रयास।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material : आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET Books and Notes Chapter 5 Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material in Hindi with PDF Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है | अभ्यर्थियो को बता दे की आपको इस पोस्ट में UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter Wise PDF Download का लिंक भी दिया जा रहा है जिसके माध्यम से आप बल विकास एवं शिक्षा शास्त्र के सभी Chapter को PDF में download कर सकते है |

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Chapter 5 पियाजे, कोहलबर्ग एवं वाइगोट्स्की | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 6 Study Material in Hindi

पियाजे का सिद्धान्त The Theory of Piaget

पियाजे के अध्ययनों का आधुनिक बाल-विकास विषय पर अधिक प्रभाव पड़ा है। उसने मनोवैज्ञानिकों का ध्यान विकास की अवस्थाओं तथा संज्ञान की महत्व की ओर आकर्षित किया है। पियाजे के सिद्धान्त के कुछ प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं

1. निर्माण और खोज (Construction & Invention) बच्चे उन व्यवहारों और विचारों की समय-समय पर खोज और निर्माण करते रहते हैं, जिन व्यवहारों और विचारों का उन्होंने कभी पहले प्रत्यक्ष नहीं किया होता है। पियाजे का विचार है कि ज्ञानात्मक विकास केवल नकल (Copying)न होकर खोज (Invention) पर आधारित है। नवीनता या खोज (Novelty or Invention) को उद्दीपक-अनुक्रिया सामान्यीकरण के आधार पर नहीं समझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक चार साल का बालक यदि भिन्नभिन्न आकार के प्यालों को प्रथम बार क्रमानुसार लगा देता है, तो यह उसके बौद्धिक वृद्धि की खोज और निर्माण से सम्बन्धित है।

2. कार्य क्रिया का अर्जन (Acquisition of Operation) ऑपरेशन का तात्पर्य उस विशिष्ट प्रकार के मानसिक कार्य (Mental Routine) से है जिसकी मुख्य विशेषता उत्क्र मणशीलता (Reversibility) है । पियाजे के अनुसार, जब तक बालक किशोरावस्था तक नहीं पहुँच जाता है तब तक वह भिन्न-भिन्न विकास-अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वर्गों के ऑपरेशन्स का अर्जन करता रहता है। एक विकास अवस्था से दूसरी विकास अवस्था में पदार्पण के लिए निम्न दो सिद्धान्त आवश्यक है

(सात्मीकरण (Assimilation) सात्मीकरण का अर्थ है—बालक में उपस्थित विचार में किसी नये विचार (Idea) या वस्तु का समावेश हो जाना। पियाजे का विचार (Idea) का अर्थ बालक के प्रत्यक्षात्मक गत्यात्मक समन्वय (Perceptual Motor Coordination’s) से है। प्रत्येक बालक में प्रत्येक आयु-स्तर पर कुछ-न-कुछ क्रियाओं या ऑपरेशन्स के सेट विद्यमान होते हैं। इन पुराने ऑपरेशन्स में नये विचार या क्रियाओं का समावेश हो जाता है।

(b)व्यवस्थापन तथा संतुलन स्थापित करना (Accommodationand Equilibration) • व्यवस्थापन का अर्थ नयी वस्तु या विचार के साथ समायोजन करना है या अपने विचारों और क्रियाओं को नये विचारों और वस्तुओं में फिट करना है। बालकों में बौद्धिक वृद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे वह नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करना सीखता है। मानसिक वद्धि में सात्मीकरण और व्यवस्थापन में उपस्थित अथवा उत्पन्न तनाव का हल (Resolution) निहित होता है।

बालक हर समय नयी घटनाओं या समस्याओं के साथ अपने को व्यवस्थापित करता रहता है, जिससे उसका बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार का व्यवस्थापन संतुलन (Equilibration) कहलाता है।

3. क्रमिक विकासात्मक अवस्थाएँ (Sequential Development Stages): पियाजे ने विकास की चार मुख्य अवस्थाओं का वर्णन किया है

a) संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory-Motor Period) यह जन्म से चौबीस महीने तक की अवस्था है। इस आयु में उसकी बुद्धि उसके कार्यों द्वारा व्यक्त होती है। उदाहरण के लिए—चादर पर बैठा बालक चादर पर पड़े दूर खिलौने को प्राप्त करने के लिए चादर को खींचकर खिलौना प्राप्त कर लेता है।

पियाजे के अनुसार यह एक बौद्धिक कार्य है। पियाजे ने सेन्सोरीमोटर अवस्था को पुनः निम्न छह अवस्थाओं में विभाजित किया है।

★ प्रतिवर्त्त क्रियाएँ (Reflex Activities) : यह जन्म से एक माह तक की अवस्था है।

प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Primary Circular Reactions) : यह एक से तीन माह तक की अवस्था है।

★ गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Secondary Circular Reactions): यह चार से छह माह तक की अवस्था है।

गौण प्रतिक्रियाओं का समन्वय (Co-ordination of Secondary Reactions): यह सात से दस माह तक की अवस्था है।

तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Tertiary Circular Reactions) : यह ग्यारह से अठारह माह तक की अवस्था है ।

★ अन्तिम अवस्था (Final Stage of this period): यह अवस्था वह है जो बालक लगभग चौबीस माह की आयु में प्राप्त करता है। 21वका

(b) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Period) यह दो से सात वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह नयी सूचनाओं और अनुभवों का संग्रह करता है। | वह पहली अवस्था की अपेक्षा अधिक समस्याओं का समाधान करने योग्य हो जाता है। | इस अवस्था में उसमे आत्मकेन्द्रिता (Egocentricity) का विकास होता है। इस अवधि के अन्त तक जब बालक में कुछ सामाजिक विकास उन्नत हो जाता है तब उसकी यह आत्मकेन्द्रिता कुछ कम होने लग जाती है।

पियाजे का विचार है कि छह वर्ष से कम आयु के बालकों में संज्ञानात्मक परिपक्वता का अभाव पाया जाता है। इस अभाव के कारण वह परम्परागत समस्याओं को तभी सीख पाते हैं जब उन्हें कुछ शिक्षण प्रशिक्षण दिये जाते हैं। साव KO) ठोस सक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational Period): यह अवस्था सात से ग्यारह वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह यह विश्वास करने लगता है कि लंबाई, भार तथा अंक आदि स्थिर रहते हैं। वह अनेक कार्यों की मानसिक प्रतिभा प्रस्तुत कर सकता है। वह किसी पूर्व और उसके अंश के संबंध में तर्क कर सकता है।

पियाजे द्वारा वर्णित विकासात्मक अवस्थाएँ एवं उससे सम्बन्धित उपलब्धियाँ

क्रअवस्था तथा सन्निकट आयुविचारतत्संबन्धित उपलिब्धया
1संवेदी पेशीय अवस्थासंवेदी पेशीय विचारपूर्व-शाब्दिक, गतियो की पुनरावृत्ति प्रयत्न, मूल व्यवहार का आरम्भ, वस्तु स्थापित विव्त्वरोपण
2संवेदी पेशीय अवस्था (2-7 वर्ष)प्रिक्रमानात्म्क विकाह्र, अंत: प्रज्ञात्मक विचारअहंकेन्द्रिता, नकल करने की प्रवृत्ति, प्रत्याक्षत्म्क तार्किक कल्पनात्मक खेल अस्थिर अनौपचारिक तार्किकता
3ठोस संक्रियात्मक निगमनात्मक विचार तर्क का अनुप्रोयोग करना, निश्कस्र्ष निकलना शाब्दिक परिकल्पना, आद्र्श्ताम्क चिंतन, दुसरो के साथ जुडकर कार्य करना स्मनुप्तिकता प्रस्भाव्य्ताव्दी एवं स्न्योजिकीय तार्किकता, अनौपचारिक सम्बन्ध
4   

औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Period): यह अवस्था ग्यारह वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह परिकल्पनात्मक ढंग से समस्याओं पर विचार कर सकता है। वह अनेक ऑपरेशन को संगठित कर उच्च स्तर .. के ऑपरेशन का निर्माण कर सकता है और विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए अमूर्त नियमों का निर्माण कर सकता है।

पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ

क्र.अवस्थासन्निकट आयुविशेषताएँ
संवेदी-प्रेरक0-2 वर्ष शिशु संवेदी अनुभवों का शारीरिक क्रियाओं के साथ समन्वय करते हुए संसार का अन्वेषण करता है।
2.पूर्व-संक्रियात्मक2-7 वर्सप्रतीकात्मक विचार विकसित होते हैं, वस्तु स्थायित्व उत्पन्न होता है, बच्चा वस्तु के विभिन्न भौतिक गुणों को समन्वित नहीं कर पाता है।
3.ठोस संक्रियात्मक7-11 वर्षबच्चा ठोस घटनाओं के संबंध में युक्तिसंगत तर्क कर सकता है और वस्तुओं को विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर सकता है। वस्तुओं की मानस प्रतिमाओं पर प्रतिवर्तनीय मानसिक संक्रियाएँ करने में सक्षम होता है।
4.औपचारिक संक्रियात्मक11-15 वर्षकिशोर तर्क का अनुप्रयोग अधिक अमूर्त रूप से कर संक्रियात्मक सकते हैं, परिकल्पनात्मक चिन्तन विकसित होते हैं।

लारस कोहलबर्ग का सिद्धांत Lawrance Kohlberg’s Theory

लॉरस कोहलबर्ग ने 10 से 16 वर्ष के बच्चों से प्राप्त तथ्यों का विश्लेषण करके सिद्धांत प्रतिपादित किया। कोहलबर्ग के अनुसार जब बालकों को नैतिक संघर्षों का सामना करना पड़ता है तो उनकी तार्किकता अधिक महत्वपूर्ण होती है न कि अन्तिम निर्णय। कोहलबर्ग ने धारणा बनायी की बालक अपनी विकास की अवस्था में तीन स्तरों से गुजरकर अपनी नैतिक तार्किकता की योग्यताओं को विकसित कर पाते हैं। जो निम्नलिखित है

(a) प्राकरूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Preconventional Level) यह अवस्था 4 वर्ष से लेकर 10 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्था में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है, न कि सही तथा गलत के अपने आंतरीकृत मानकों (Internalized Standards) के द्वारा । बच्चे यहाँ किसी भी व्यवहार को अच्छा या बुरा, उसके भौतिक परिणामों के आधार पर कहते हैं। इसके अंतर्गत दो अवस्थाएँ होती हैं

(i) दंड एवं आज्ञाकारिता उन्मुखता (Punishment and Obedience Orientation) इस अवस्था के बच्चों में दंड से दूर रहने का अभिप्रेरण अधिक मजबूत होता है। इस अवस्था में बच्चे प्रतिष्ठित या शक्तिशाली व्यक्ति, प्रायः माता पिता के प्रति सम्मान दिखलाता है ताकि उसे दंड नहीं मिल सके। किसी भी कार्य या व्यवहार की नैतिकता को यहाँ व्यक्ति उसके भौतिक परिणामों के रूप में परिभाषित करता है।

(ii) साधनात्मक सापेक्षवादी उन्मुखता (Instrumental Relativist Orientation) – इस अवस्था में यद्यपि बच्चे पारस्परिकता तथा सहभागिता के स्पष्ट सबूत प्रदान करते – हैं। यह छलयोजित (Manipulative) तथा आत्म परिपूरक पारस्परिकता (Self-Serving Reciprocity) होती है न कि सही अर्थ में न्याय, उदारता, सहानुभूति पर आधारित है। यहाँ अदला बदली (Bartering) का भाव मजबूत होता है।

(b) रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Conventional Morality): यह अवस्था 10 से 13 साल की होती है जहाँ बच्चे दूसरों के मानकों (Standards) को अपने में आंतरीकृत कर लेता है तथा उन मानकों के अनुसार सही तथा गलत का निर्णय करता है। – इस स्तर पर बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है। इसकी अवस्थाएँ (Stages) इस प्रकार हैं

उत्तम लड़का अच्छी लड़की की उन्मुखता (Good Boy-Nice Girl Orientation) इस अवस्था में बच्चों में स्वीकृति पाने तथा अस्वीकृति (Disapproval) से दूर रहने का अभिप्रेरण तीव्र होता है।

(c) उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Post Conventional Morality): इस अवस्था में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest Level) होता है और इसमें नैतिकता (True Morality)का ज्ञान बच्चों में होता है। इसके तहत दो अवस्थाएँ (Stages) होती हैं, जो इस प्रकार हैं-

(1) सामाजिक अनुबंध उन्मुखता (Social Contract Orientation) : इस अवस्था में बच्चे या किशोर उन वैयक्तिक आधार (Individual Rights) तथा नियमों का आदर करते हैं, जो प्रजातांत्रिक रूप से (Democratically) मान्य होता है। वे यहाँ लोगों के कल्याण तथा बहुसंख्यकों के इच्छाओं का तर्कसंगत महत्व देते हैं। यहाँ बच्चे यह विश्वास करते हैं कि समाज का उत्तम कल्याण तब होता है जब उसके सदस्य समाज के नियमों का आदरपूर्वक पालन करते हैं।

(ii) सार्वत्रिक नीतिपरक सिद्धांत उन्मुखता (Universal Ethical Principle Orientation) : इस अवस्था में बच्चों में अपने नैतिक नियमों (Ethical Principles) को प्रोत्साहित करने तथा आत्म-निंदा (Self-Condemnation) से बचने का अभिप्रेरण तीव्र होता है। यह उच्चतम सामाजिक स्तर का उच्चतम अवस्था (Highest Stage) होता है, जहाँ किशोरों में सार्वत्रिक नैतिक नियम (Universal Ethical Principles) की नैतिकता बरकरार रहती है।

यहाँ किशोर दूसरों के विचारों तथा नैतिक प्रतिबंधों (Legal Restrictions)से स्वतंत्र होकर अपने आंतरिक मानकों (Internal Standards) के अनुरूप व्यवहार करता है|

कोहलबर्ग के सिद्धांत की सीमाएँ (Limitation of Kohlberg Theory) : कोहलबर्ग द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की सीमाएँ निम्नलिखित हैं

(i) इस सिद्धांत की सबसे प्रमुख सीमा है कि इसमें वास्तविक व्यवहार की अवस्था की अपेक्षा तार्किकता पर अधिक ध्यान दिया गया है।

(ii) यह एक सामान्य अन्वेषण है इसमें प्रत्येक अवस्था के बालक के आस-पास जब प्रेक्षक न हो तो वे अपने सम-आयु वर्ग की नकल करते हैं या उन्हें उत्तर बताते हैं या प्रेक्षक प्रत्येक बालक को ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित करता है और बेईमानी से व्यवहार करने वाले कुछ बालकों को हतोत्साहित कर सकता है। यह दर्शाता है कि एक बालक का नैतिक व्यवहार बहुत कमजोर हो सकता है।

(iii) कोहलबर्ग का सिद्धांत वास्तव में बहुत सीमित है क्योंकि बालक विभिन्न अवस्थाओं में अपने नैतिक निर्णयों के लिए काफी सीखते हैं लेकिन उनके कार्यों में विभिन्नता होती है। भारतीय दार्शनिक तथा शिक्षाशास्त्रियों का विश्वास है कि मूल्य व्यक्ति का एक अंग होना चाहिए, उसकी तार्किकता तथा निर्णय-निर्माण ऐसा हो कि वह अपने मूल्यों के साथ खुश रह सके।

वाइगोट्स्की के विकास का सिद्धांत Vygostsky Development Theory

वाइगोट्स्की के सिद्धांत के अनुसार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारको (Social Factors) एवं भाषा (Language) का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए वाइगोट्स्की । के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत भी कहा जाता है।

वाइगोट्स्की के अनुसार, वास्तव में संज्ञानात्मक विकास एक अंतर्वैयक्तिक सामाजिक परिस्थिति (Interpersonal Social Context) में संपन्न होता है, जिसमें बच्चों को अपने वास्तविक विकास के स्तर (Level of Actual Development) (अर्थात जहाँ

तक वे बिना किसी मदद के अपने ही कोई कार्य कर सकते हैं) से अलग तथा उनके संभाव्य विकास के स्तर (Level of Potential Development) (अर्थात जिसे वे सार्थक एवं महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सहायता से प्राप्त करने में सक्षम हैं) के तरफ ले जाने की कोशिश की जाती है। इन दोनों स्तरों के बीच के अंतर को वाइगोट्स्की ने समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development or ZPD)कहा है।

समीपस्थ विकास का क्षेत्र से तात्पर्य बच्चों के लिए एक ऐसे कठिन कार्यों की दूरी (Range) से होता है, जिसे वह अकेले नहीं कर सकता है लेकिन अन्य वयस्कों तथा कुशल सहयोगियों (Skilled Peers) की मदद से उसे किया जा सकता है।

वाइगोट्स्की ने संज्ञानात्मक विकास में बच्चों की भाषा एवं चिन्तन को भी महत्वपूर्ण साधन बतलाया है। इनका मत है कि छोटे बच्चों द्वारा भाषा का उपयोग सिर्फ सामाजिक संचार (Social Communication) के लिए नहीं किया जाता है बल्कि इसका उपयोग वे लोग अपने व्यवहार को नियोजित एवं निदेशित करने के लिए भी करते हैं। जब आत्म-नियमन (Self-Regulation) के लिए भाषा का उपयोग किया जाता है, तो इसे आंतरिक भाषण (Inner Speech) या निजी भाषण (Private Speech) कहा जाता है।

वाइगोट्स्की के निकट विकास क्षेत्र (ZPD) में खेल का महत्व

वाइगोट्स्की का मत था कि खेल बच्चों को अपने व्यवहार पर नियन्त्रण की क्षमता देने वाला मानसिक उपकरण है। खेल में जो कल्पित स्थितियाँ खड़ी की जाती हैं, वे बच्चे के व्यवहार को एक खास तरह से नियन्त्रित करने वाली और दिशा देने वाली प्रथम बाधाएँ हैं। खेल व्यवहार को संगठित करता है।

विकास में खेल के महत्व के बारे में वाइगोट्स्की का दृष्टिकोण समन्वयकारी था। इनका मत था कि खेल संज्ञानात्मक, भावात्मक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देता है।

खेल के विकास संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के अलावा स्कूल संबंधी कौशलों को भी लाभ पहुँचाते हैं। अधिगम की अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल के दौरान बच्चों के मानसिक कौशल उच्चतर स्तर पर होते हैं। वाइगोट्स्की ने इसे निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के उच्चतर स्तर की तरह पहचाना है। वाइगोट्स्की के अनुसार खेल विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है

(a) खेल कार्यों और वस्तुओं को विचार से अलग करने का काम करता है।

(b) खेल आत्मनियन्त्रण के विकास में सहायक होता है।

(c) खेल बच्चे के निकट विकास क्षेत्र का निर्माण करता है।

निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के निर्माण में खेल का महत्व

वाइगोट्स्की का मत था कि ‘खेल’ बच्चों के लिए निकट विकास क्षेत्र का निर्माण भी करता है। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित है-

वाइगोट्स्की के अनुसार अधिगम तथा अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल में की गई नयी विकासमान दक्षताएँ पहले प्रकट होती हैं। अतः चार साल की उम्र में बालक की आगामी सम्भावनाओं की भविष्यवाणी के लिए खेल जितना उपयुक्त है उतना अक्षर पहचानने जैसी अकादमिक गतिविधियाँ नहीं।

खेल में विकास की सारी प्रवृत्तियाँ सारभूत रूप से मौजूद होती हैं। इसमें  बालक अपने सामान्य स्तर से ऊपर छलांग लगाने को तत्पर रहता है।

खेलने के लिए बालक जिस मानसिक प्रक्रिया में संलग्न (Attached) होता है वह निकट विकास क्षेत्र की रचना करती है। बच्चा निकट विकास क्षेत्र के उच्चतर स्ता पर काम कर सके इसके लिए कल्पित स्थितियों से प्राप्त भूमिकाएँ नियम तथा प्रेरणा सहायक सिद्ध होते हैं।

परीक्षोपयोगी तथ्य

जीन पियाजे (Jean Piaget) ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) को चार अवस्थाओं में बाँटा है संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage) (जन्म से 24 महीन) प्रासंक्रियात्मक अवस्था  Preoperational Stage) (2 वर्ष से 7 वर्ष) ठोस संक्रियात्मक की अवस्था (Stage of Concrete Operation) (7 वर्ष से 12 वर्ष) औपचारिक सक्रियात्मक अवस्था (Stage of Formal Operation): (12 वर्ष से वयस्कावस्था)

पियाजे के सिद्धांत के संप्रत्ययों (Concepts) में अनुकूलन (Adaptation), संरक्षण (Conservation), साम्यधारण (Equilibration), स्कीम्स (Schemes), स्कीमा > (Schema) तथा विकेंद्रण (Decentring) प्रमुख है। पियाजे ने संवेदी पेशीय अवस्था को छह उप-अवस्थाओं में विभाजित किया है प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Activities)- जन्म से 30 दिन प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था

1 महीने से 4 महीने गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था

4 से 8 महीने गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था

8 महीने से 12 महीने तृतीय वृतीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था

12 महीने से 18 महीने

मानसिक संयोग द्वारा नये साधनो की खोज की अवस्था

18 महीने से 24 महीने

पियाजे ने प्राकसक्रियात्मक अवस्था को दो भागों में बाँटा है प्राकसंप्रत्ययात्मक अवधि  (Preconceptual Period) तथा अंतर्दशी अवधि (Intuitive Period)|

प्राकम्प्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual Period)2 वर्ष से 4 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता (Signifiers) विकसित कर लेते हैं।

अन्तर्दशी अवधि (Intuitive Period) 4 वर्ष से 7 वर्ष की होती है। इस अवधि में बालकों का चिंतन एवं तर्कणा (Reasoning) पहले से अधिक परिपक्व (Mature हो जाते हैं।

ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of Concerte Operation)7 वर्ष से 12 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में बालक ठोस वस्तुओं के आधार पर आसानी से मानसिक संक्रियाएँ (Mental Operations) करके समस्या का समाधान कर लेता है।

औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of Formal Operations) 11 वर्ष से प्रारंभ होकर वयस्कावस्था (Adulthood) तक चलती है।

कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं और इन अवस्थाओं का क्रम निश्चित होता है। ये अवस्थाएँ हैं

★ प्रारूढ़िगत नैतिकता का स्तर (4 वर्ष से 10 वर्ष) * रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (10 वर्ष से 13 वर्ष)

★ उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर

प्रारूढ़िगत नैतिकता स्तर में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है। बच्चे किसी व्यवहार को अच्छा या बुरा उसके भौतिक परिणामों के आधार पर करते हैं।

रूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है।

उत्तररूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest वाइगोट्स्की (Vygostsky) ने बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों एवं भाषा को महत्वपूर्ण बतलाया है।

वाइगोट्स्की के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत (Socio-Cultural Theory) भी कहा जाता है।

वाइगोट्स्की ने वास्तविक विकास के स्तर तथा संभाव्य विकास के स्तर के बीच के अंतर को समीपस्थ विकास का क्षेत्र (ZPD) कहा है।

* पाठ्यक्रम छात्रों की रुचि के अनुसार होना चाहिए।

* पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए।

* पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी होना चाहिए।

वातावरण के अनुसार होना चाहिए।

* पाठ्यक्रम राष्ट्रीय भावनाओं को विकसित करने वाला होना चाहिए। पाठ्यक्रम समाज की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए।

* पाठ्यक्रम बालकों के मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए।

★ पाठ्यक्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान रखना चाहिए ।

प्रगतिशील शिक्षा Progressive Education

जॉन डीवी (John Devey) का प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा के विकास में विशेष योगदान रहा है। जॉन डीवी संयुक्त राज्य अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक थे। प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा इस प्रकार है—शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का विकास है।

 > प्रगतिशील शिक्षा यह सूचना प्रदान करता है कि शिक्षा बालक के लिए है बालक शिक्षा के लिए नहीं, इसलिए शिक्षा के उद्देश्य से ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए, जिसमें प्रत्येक बालक को सामाजिक विकास का पर्याप्त अवसर मिले। प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य जनतंत्रीय मूल्यों की स्थापना है।

प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत बालक में जनतंत्रीय मूल्यों का विकास किया जाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा हमें ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए जिसमें व्यक्ति व्यक्ति में कोई भेद न हो, सभी पूर्ण स्वतंत्रता और सहयोग से काम करें ।

प्रत्येक मनुष्य को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुसार विकसित होने का अवसर मिले, सभी को समान अधिकार दिये जाएँ। ऐसा समाज तभी बन सकता है, जब व्यक्ति और समाज के हित में कोई मौलिक अन्तर न माना जाय । शिक्षा के द्वारा मनुष्य में परस्पर सहयोग और सामंजस्य की स्थापना होनी चाहिए।

प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षण विधि को अधिक व्यावहारिक करने पर बल दिया जाता है।

जॉन डीवी ने प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है. रुचि और प्रयास । अध्यापक को बालक की स्वाभाविक रुचियों को समझकर उसके लिए उपयोगी कार्यों की व्यवस्था करनी चाहिए। बालक को स्वयं कार्यक्रम बनाने का अवसर दिया जाना चाहिए। डीवी के शिक्षा पद्धति संबंधी स्वयं कार्यक्रम के विचारों के आधार पर प्रोजेक्ट प्रणाली का जन्म हुआ।

इसके अन्तर्गत बालक को ऐसे काम दिये जाने चाहिए, जिनसे उनमें स्फूर्ति, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और मौलिकता का विकास हो। प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसके अनुसार शिक्षक समाज का सेवक है। उसे विद्यालय में ऐसा वातावरण निर्माण करना पड़ता

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book in Hindi PDF Download

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Preface

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Table of Contents | UPTET Book Chapter Wise in Hindi PDF Free Download

बाल विकास

विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से सम्बन्ध in PDFPDF Download
बाल विकास के सिद्धांत PDF Download
आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव PDF Download
समाजीकरण की प्रक्रियांए PDF Download
पियाजे, कोह्लबर्ग एवं वैगोटस्की PDF Download
बाल-केन्द्रित तथा प्रगतिशील शिक्षा PDF Download
बुद्धि-निर्माण तथा बहुआयामी बुद्धि PDF Download
भाषा और विचार PDF Download
समाज निर्माण में लैंगिक मुद्दे PDF Download
व्यक्तिगत विभिन्नताएँ PDF Download
अभिरुचि/रूचि PDF Download
अभिक्षमता PDF Download
शारीरिक विकास, क्रियात्मक विकास एवं मानसिक विकास PDF Download
आकलन एवं मुल्यांकन PDF Download
उपलब्धि का आकलन एवं प्रश्नों के निर्माण की तकनीक PDF Download
वस्तुनिष्ठ प्रश्न PDF Download

समावेशी शिक्षा का सिद्धांत

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विविध प्रष्ठभूमि से वंचित बालक PDF Download
पिछड़े, विकलांग तथा मानसिक रूप से पिछड़े बालक PDF Download
प्रतिभाशाली, सर्जनात्मक तथा विशेष आवश्यकता वाले बालक PDF Download
वस्तुनिष्ठ प्रश्न PDF Download

अधिगम और शिक्षाशास्त्र

बच्चो का सोचना एवं सीखना PDF Download
शिक्षण एवं अधिगम PDF Download
बच्चा : एक समस्या-समाधक तथा वैज्ञानिक अनवेषक के रूप में PDF Download
संज्ञान तथा संवेग PDF Download
अभिप्रेरणा और अधिगम PDF Download
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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samajikaran ki Prakriya Study Material

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samajikaran ki Prakriya Study Material : नमस्कार दोस्तों आज की पोस्ट UPTET (Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test) Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Study Material in Hindi में स्वागत है | आज आप UP TET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 4 समाजीकरण की प्रक्रियांए in Hindi PDF में Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है |

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samajikaran ki Prakriya Study Material

समाजीकरण की प्रक्रियाएँ (UPTET Bal Viks Evam Shiksha Shastra Chapter 4 Study Material in Hindi)

मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म के समय शिशु न सामाजिक (Social) होता है और न ही असामाजिक ( Anti Social), बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ साथ वह सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है और कुछ ही वर्षों बाद वह सामाजिक प्राणी कहलाने लगता है।

बालक सामाजिक गुणों को सामाजिक विकास की अवस्थाओं के अनुसार ग्रहण करता है। प्रारम्भ में बालक में सामाजिक विकास तीव्र गति से होता है, फिर धीमी गति से होता है। समय और परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है और सामाजिक विकास एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ता जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया (Socialization Processes) निरन्तर चलती रहती है।

चाइल्ड (Child 1954) के अनुसार — ‘‘सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता

सारे व टेलफोर्ड (Sare & Taleford) के अनुसार, ‘समाजीकरण की प्रक्रिया शिशु के दूसरे व्यक्तियों के साथ प्रथम सम्पर्क से आरम्भ होती है, और आजीवन चलती रहती है।

हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “सामाजिक विकास का अर्थ उस योग्यता को अर्जित करना है जिसके द्वारा सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार किया है जा सके।” “कोई भी बालक सामाजिक पैदा नहीं होता। वह दूसरों के होते हुए भी अकेला होता है। वह समाज में दूसरों के सम्पर्क में आकर समायोजन की प्रक्रिया सीखता व है। इसलिए समाजीकरण की प्रक्रिया बालक के सामाजिक विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है।”

रॉस (Ross) के अनुसार, “सहयोग करनेवालों में ‘हम’ की भावना का विकास । और उनके साथ काम करने की क्षमता का विकास एवं संकल्प समाजीकरण | कहलाता है।”

सोरेनसन (Sorenson) के अनुसार, “सामाजिक अभिवृद्धि और विकास का अर्थ अपनी और दूसरों की उन्नति के लिए योग्यता की वृद्धि।’ समाजीकरण की प्रक्रिया में तीन प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं –

  1. समाज द्वारा मान्य व्यवहार का विकास करना। प्रत्येक समह के व्यवहार संबंध कुछ मानक (Norms) होते हैं। बच्चे यदि इन्ही व्यवहार मानकों का अधिगम करते है तो उनका व्यवहार समाज द्वारा मान्य होता है।
  2. 2. समाज द्वारा मान्य व्यवहारों के अनुसार क्रियाएँ करना। उदाहरण के लिए विद्यार्थियों, अध्यापकों, माता और पिता आदि सबके लिए कुछ निश्चित कार्य होते हैं, इनको  न्हीं के अनुसार व्यवहार करना होता है।
  3. 3. सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास करना। इन अभिवृत्तियों के विकास के कारण ही बालक सामाजिक कार्यक्रमों, समाज के अन्य व्यक्तियों को पसन्द करता है।

 जब किसी व्यक्ति में उपर्युक्त तीन बातें पायी जाती हैं तो वह व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में सफलता प्राप्त करता है ।

सामाजिक विकास की विशेषताएँ Characteristics of Social Development

सामाजिक विकास की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

1. सामाजिक प्रतिक्रियाएँ ही सामाजिक विकास का प्रारम्भिक चरण है।

2. बालक खेल के माध्यम से समूह में अपनी सामाजिक प्रतिक्रियाएँ करता है।

3. सामाजिक प्रतिक्रियाओं में सामाजिक सदस्यों के साथ अपने विचारों का आदान प्रदान करता है।

अपना सहयोग देकर तथा दूसरों से सहयोग लेकर कोई भी व्यक्ति बड़े से बड़ा कार्य कर सकता है।

5. समाज की सीमा में प्रवेश करके प्रतिस्पर्धा का विकास बालकों में होता है।

6. सामाजिक विकास के साथ बालक में सहयोग और सहानुभूति जैसे सामाजिक व्यवहार विकसित होते हैं।

7. कभी कभी निषेधात्मक (Negative) अवस्था में बालक तर्क भी करने लगते हैं; ऐसे करके बालक अपने सम्मान की रक्षा करते है।

8. बालक समाज व समूहों के आदर्शों, रीति रिवाजों, परम्पराओं, लोकाचार तथा धार्मिक रीति रिवाजों को सीखता है । सामाजिक अन्तःक्रियाएँ करना भी सामाजिक विकास के साथ-साथ सीखता है।

9. सामाजिक विकास द्वारा ही बालक में अहं (Ego) भाव विकसित होता है।

विभिन्न अवस्थाओं में समाजीकरण की प्रक्रिया (Socialization Process in Different Stages) : बालक में जन्म के बाद उसकी विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास भिन्न-भिन्न ढंग से होता है। जो इस प्रकार है1.

शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Infancy) : हरलाक (THurlock) के अनुसार सामाजिक विकास निम्न क्रम में होता है

महीना मानव और अन्य ध्वनियों में अंतर समझना।

2 महीना मानव ध्वनि को पहचानना और व्यक्तियों का मुस्कान के साथ स्वागत करना।

3 महीना अपनी माता को पहचानना और उससे दूर होने पर दुःखी होना।

4 महीना व्यक्तियों के चेहरों को पहचानना ।

.5 महीना प्यार या क्रोध की आवाज समझना ।

6 और 7 महीना परिचितों का मकान के साथ स्वागत करना ।

8 से 9 महीना अपनी ही परछायी के साथ खेलना तथा उसे चूमना ।

24 महीना बड़ों के विभिन्न कार्यों में हाथ बँटाने का प्रयास करना ।

इस काल में बालक की सामाजिक विकास संबंधी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

★ सामाजिक खेल का विकास ★ माता पिता पर आथित

★ स्पर्धा की भावना ★ सामाजिक स्वीकृति

★ स्वयं केन्द्रित बालक ★ मैत्री और सहयोग

2. बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Childhood) : इस आयु वर्ग में बालक के सामाजिक विकास के कई महत्वपूर्ण पहलू देखने को मिलते हैं । बालक में कई सामाजिक परिवर्तन आ जाते हैं। ये इस प्रकार हैं-

 सहयोग की भावना का विकास ★ दूसरों से स्नेह की अपेक्षा

★ छोटे समूहों में खेलना ★ आदतों का निर्माण

★ सामाजिक सूझ का विकास ★ प्रिय कार्यों में रुचि

★ मित्रों का चुनाव

हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, बाल्यावस्था में बालक का सामाजिक विकास निम्न क्रम में होता है-

लगभग 6 वर्ष की आयु में बालक प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश करता है। वह एक नये वातावरण में अनुकूलन करना, सामाजिक कार्यों में भाग लेना और नये मित्र बनाना सीखता है।

अनुकूलन करने के उपरान्त बालक के व्यवहार में उन्नति और परिवर्तन आरम्भ हो जाता है। फलस्वरूप उसमें स्वतन्त्रता, सहायता और उत्तरदायित्व के गुणो का विकास होने लगता है।

विद्यालय में बालक किसी-न-किसी समूह का सदस्य हो जाता है। यह समूह उसके वस्त्रों के रूपों, खेल के प्रकारों और उचित-अनुचित के आदर्शों का निर्धारित करती है। इस प्रकार, बालक के सामाजिक विकास को एक नवीन दिशा प्राप्त होती है।

★ टोली या समूह में बालक में अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है। क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, ”इस अवस्था में बालक अपने शिक्षक का सम्मान तो करता है, पर उसका परिहास करने की अपनी प्रवत्ति का दमन नहीं कर पाता है।”

3. किशोरावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Adolescence) को एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार-‘जब बालक 13 या 14 वर्ष की आयु में प्रवेश करता है तब उसके प्रति दूसरों के और दूसरों के प्रति उसके कुछ दृष्टिकोण से उसके अनुभवों में एक सामाजिक संबंधों में परिवर्तन होने लगता है।” इस परिवर्तन के कारण उसके सामाजिक विकास का स्वरूप निम्नांकित होता है

1. बालकों और बालिकाओं में एक दूसरे के प्रति बहुत आकर्षण उत्पन्न होता है। अतः वे अपनी सर्वोत्तम वेश भूषा और बनाव शृंगार में अपने को एक दूसरे के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।

बालक और बालिकाएँ दोनों अपने अपने समूहों का निर्माण करते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य होता है—मनोरंजन जैसे पर्यटन, पिकनिक, नृत्य, संगीत इत्यादि ।

कुछ बालक और बालिकाएँ किसी भी समूह के सदस्य नहीं बनते हैं वे उनसे अलग रहकर अपने या विभिन्न लिंग के व्यक्ति से घनिष्ठता स्थापित कर लेते हैं और उसी के साथ अपना समय व्यतीत करते हैं।

4. बालकों में अपने समूह के प्रति अत्यधिक भक्ति होती है। वे उसके द्वारा स्वीकृत वेश-भूषा, आचार-विचार, व्यवहार आदि को अपना आदर्श बनाते हैं।

5. समूह की सदस्यता के कारण उनमें नेतृत्व, उत्साह, सहानुभूति, सद्भावना आदि । सामाजिक गुणों का विकास होता है।

इस अवस्था में बालकों और बालिकाओं का अपने माता-पिता से किसी-न-किसी बात पर संघर्ष या मतभेद हो जाता है।

किशोर बालक अपने भावी व्यवसाय का चुनाव करने के लिए सदैव चिन्तित रहता है। इस कार्य में उसकी सफलता या असफलता उसके सामाजिक विकास  को निश्चित रूप से प्रभावित करती है।

किशोर बालक और बालिकाएँ सदैव किसी-न-किसी चिन्ता या समस्या में उलझे रहते हैं; जैसे—धन, प्रेम, विवाह, कक्षा में प्रगति, पारिवारिक जीवन इत्यादि । ये समस्याएँ उनके सामाजिक विकास की गति को तीव्र या मन्द, उचित या अनुचित दिशा प्रदान करती है।

विभिन्न अवस्थाओं में कुछ विशिष्ट सामाजिक क्रियाएँ Some Special Social Behaviours of Different Stages

  1. बचपनावस्था की विशिष्ट सामाजिक व्यवहार

व्यवहार क्रियाएँ

ध्यानाकर्षण (Attention Seeking) 1 वर्ष 6 महीने

अनुकरण (Imitation) 1 वर्ष

पराश्रितता (Dependency) 0-2 वर्ष

लज्जाशीलता (Shyness) 1-2 वर्ष

ईर्ष्या (Rivalry)  1 वर्ष

सहयोग (Co-operation) 1-1 वर्ष 6 महीने

स्व प्रेमी (Self-Centered) 1 वर्ष

निषेधात्मक प्रवृत्ति (Negativism) 1 वर्ष वर्ष 6 महीने

2. पूर्व-बाल्यावस्था के कुछ प्रमुख सामाजिक व्यवहार

खेल (Play) 2-5 वर्ष

अनुकरण (Imitation)  3.-4 वर्ष

निषेधात्मक (Negativism) 2-5 वर्ष

झगड़ा तथा मार-पीट (Quarrel and Aggression)

सहयोग और सहानुभूति (Co-operation and Sympathy)

चिढ़ाना व तंग करना (Teasing)

आक्रामकता (Aggression)

इर्ष्या (Rivalry)

प्रतियोगिता (Competition)

मित्रता (Friendship)

3. उत्तर-बाल्यावस्था में सामाजिक विकास

सामुदायिकता (Gregariousness)

सहयोग (Co-operation)

समूह भक्ति (Group Loyalty)

सहानुभूति (Sympathy)

मित्रता (Friendship)

खेल (Play)

यौन-विरोध (Sex Antagonism)

सहिष्णुता (Tolerance)

नेतृत्व (Leadership) प्रतियोगिता एवं स्पर्धा (Competition and Rivalry)

  • किशोरावस्था में सामाजिक विकास

समूह का सदस्य होना  स्पर्धा और प्रतियोगिता

सामाजिक संबंधों की स्थापना नेतृत्व (Leadership)

सामाजिक रुचियों का विकास मित्रता (Friendship)

सामाजिक चेतना का विकास  सामाजिक परिपक्वता (Social Maturity)

पारिवारिक संबंधों में सुधार

सामाजिक विकास की कसौटियाँ Criteria of Social Development

बालक के सामाजिक विकास को विभिन्न कसौटियों के आधार पर मापा जा सकता है-

1.सामाजिक समायोजन (SocialAdjustment): जिन बालकों का समायोजन जितना अच्छा होता है उन बालकों का सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होता है। विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ बालक का समायोजन जितना ही अच्छक होगा उसका सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होगा।

2. सामाजिक अनुरूपता (Social Conformity): इसका अर्थ है समाज के मानका आदर्शों और मूल्यों के अनुरूप व्यवहार करना । बालकों के व्यवहार में सामाजिक अनुरूपता जितनी ही अधिक होती है उन बालकों का सामाजिक विकास उतना ही अच्छा होता है। सामाजिक विकास और सामाजिक अनुरूपता में धनात्मक सह संबंध है।

3. सामाजिक परिपक्वता (Social Maturity) समाज के मूल्यों, नियमों, अभिवृत्तियों और सामाजिक व्यवहार, रीति, प्रथाओं और परम्पराओं तथा सामाजिक कार्य आदि की परिपक्वता यदि एक व्यक्ति में समाज की इच्छाओं के अनुसार विकसित हो चुके हैं तो वह व्यक्ति समाज की दृष्टि से पूर्ण रूप से सामाजिक प्रौढ़ता रखता है। सामाजिक परिपक्वता का विकास धीरे धीरे आयु के साथ साथ होता है।

4. सामाजिक अन्तःक्रियाएँ (Social Interactions) सामाजिक अन्तःक्रियाओं का अर्थ है दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक क्रियाएँ । सहयोग, सहानुभूति, व्यवस्थापन, समीकरण आदि कुछ संगठनात्मक प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं। इसी प्रकार से तनाव, संघर्ष आदि कुछ विघटनात्मक प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं। बालक में सामाजिक विकास जितना ही अधिक होता है उसमें संगठनात्मक सामाजिक अन्तः क्रियाएँ उतनी ही अधिक होती हैं ।

5. सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना (Social Participation) बालक दूसरों के साथ खेलने, बातचीत करने और घूमने में अपनी रुचि लगभग 1, वर्ष की अवस्था से ही प्रदर्शित करने लग जाता है। 5-6 वर्ष की अवस्था में सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने का महत्व उसकी समझ में आने लगता है। दूसरे बच्चों के साथ सामूहिक खेलों से समाज के अनेक नियमों और मूल्यों को सीखता है तथा अनेक सामाजिक कौशलों को भी सीखता है।

बालक को सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के जितने ही अधिक अवसर प्राप्त होते हैं, इन अवसरों से वह उतना ही अधिक लाभ उठाता है तथा उस बालक का सामाजिक विकास उतना ही अच्छा माना जाता है।

सामाजिक परिपक्वता की अध्ययन विधि Learning Method of Social Maturity

वाइनलैंड सामाजिक परिपक्वता माप (The Vineland Social Maturity Scale)

> डॉ. एडलर डोल ने सामाजिक परिपक्वता का मापन करने के लिए इस विधि का निर्माण किया है। वाइनलैंड सामाजिक परिपक्वता माप को प्रमाणीकृत कर लिया गया है तथा इसका प्रयोग भिन्न अवस्था के बालकों के सामाजिक व्यवहार का मापन करने के लिए किया जाता है।

डॉ. डोल ने इस माप के अन्तर्गत 117 सामाजिक क्रियाओं को रखा है, जिनका संबंध जन्म से लेकर किशोरावस्था तक है।

सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक Factors Influencing Social Development

स्किनर व हैरीमन के शब्दों में- वातावरण और संगठित सामाजिक साधनो के कुछ ऐसे विशेष कारक हैं जिनका बालक के सामाजिक विकास की दशा पर निश्चित और विशिष्ट प्रभाव पड़ता है।

  1. वंशानुक्रम (Ileredity) कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बालक के सामाजिक विकास पर वंशानुक्रम का कुछ सीमा तक प्रभाव पड़ता है। इनकी पुष्टि में क्रो एवं क्रो ने लिखा है.. “शिश की पहली मस्कान या उनका कोई विशिष्ट व्यवहार वंशानुक्रम से उत्पन्न होनेवाला हो सकता है।”

2. शारीरिक व मानसिक विकास स्वस्थ और अधिक विकसित मस्तिष्क वाले बालक का सामाजिक विकास अस्वस्थ और कम विकसित मस्तिष्क वाले बालक की अपेक्षा अधिक होता है।

3. संवेगात्मक विकास (Emotional Development) बालकों की संवेगात्मकता उनके सामाजिक विकास को प्रभावित करती है। जो बालक विनोदप्रिय और हँसमख होते हैं उनके दोस्त और साथी समूहों की संख्या अधिक होती है। इस प्रकार के बालकों में सामाजिक विकास भी अन्य प्रकार के बालकों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाया जाता है।

4. पारिवारिक वातावरण (Family Environment) परिवार ही वह स्थान है, जहाँ सबसे पहले बालक का समाजीकरण होता है परिवार के बड़े लोगों का जैसा व्यवहार और आचरण होता है, बालक वैसा ही आचरण और व्यवहार करने का प्रयत्न करता है।

5. आर्थिक स्थिति (Economic Status) माता-पिता की आर्थिक स्थिति का बालक के सामाजिक विकास पर उचित या अनुचित प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ, धार्मिक माता-पिता के बालक अच्छे पड़ोस में रहते हैं, अच्छे व्यक्तियों से मिलते-जुलते हैं और अच्छे विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसे बालकों का सामाजिक विकास उन बालकों से कहीं अधिक उत्तम होता है जिन्हें निर्धन माता-पिता की संतान होने के कारण उपयुक्त सुविधाएँ नहीं मिलती हैं।

6. पालन पोषण की विधि (Methods of Nurture) अभिभावक के द्वारा बालक के पालन पोषण की विधि उसके सामाजिक विकास पर बहुत गहरा प्रभाव डालती है। जैसे—समानता के आधार पर पाला जानेवाला बालक कहीं भी हीनता का अनुभव नही करता है और लाड़ से पाला जाने वाला बालक दूसरे बालकों से दूर रहना पसन्द करता है। अतः दोनों का सामाजिक विकास दो विभिन्न दिशाओं में होता है।

7. पड़ोस और विद्यालय (Neighborhood and School) बालक के सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से परिवार के बाद विद्यालय का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यदि विद्यालय का वातावरण जनतंत्रीय है तो बालक का सामाजिक विकास अविराम गति से उत्तम रूप ग्रहण करता चलता है। इसके विपरीत, यदि विद्यालय का वातावरण एकतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार दण्ड और दमन पर आधारित है तो बालक का सामाजिक विकास कुण्ठित हो जाता है।

8. मनोरंजन (Recreation) जिन बालकों को अच्छे मनोरंजन के जितने अधिक अवसर प्राप्त होते हैं उनका सामाजिक विकास उतना ही अधिक अच्छा होता है। स्वस्थ, नाटक सिनेमा, सर्कस, सैर पार्टियों में जाना आदि बच्चों का मनोरंजन करते हैं। मनोरंजन से बालक स्वस्थ व प्रसन्न रहता है।

9. समूह या टोली (Groups) बालक के समूह के साथी अधिक हैं तो सामाजिक विकास तीव्रता से होता है, क्योकि समूह के बीच ही बालक विभिन्न सामाजिक मल्यो व सामाजिक स्वरूपों को सीखता है।

10. संस्कृति (Culture) मानव की संस्कृति पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके सामाजिक व्यवहार का प्रभाव पड़ता है, जिसके बीच वह प्रारंभ से पलता और बड़ा होता है। भारतीय व पाश्चात्य संस्कृति में पर्याप्त अंतर है। कोई भी समाज अपने सदस्यों से अपनी संस्कृति के विरुद्ध कार्य करने की अपेक्षा नहीं रखता है। अतः सामाजिक प्राणी होने के नाते संस्कृति के अनुसार ही सामाजिक व्यवहारों को किया जाता है।

11. लिंग (SC) लिंग भेद सामाजिक व्यवहारों में भिन्नता पैदा करते हैं। प्रायः लड़कों को प्रारम्भ से अधिक स्वतंत्रता मिलने के कारण वे अधिक क्रोधी झगड़ालू होते हैं, जबकि लडकियाँ सहनशील होती हैं। बालिकाओं में बालकों की अपेक्षा सहनशक्ति, सहिष्णुता, सहानुभूति और त्याग की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ अधिक होती हैं।

12. वृद्धि (Growth) : सामाजिक विकास विभिन्न आयु स्तरों पर वृद्धि के अनुसार अलग अलग होता है। प्रारम्भ में बच्चा पूरी तरह दूसरों पर निर्भर होता है। परन्तु उम्र के साथ साथ वह आत्मनिर्भर होता जाता है। वह स्वयं समाज में नेतृत्व करने योग्य हो जाता है तथा उत्तरोत्तर वृद्धि सामाजिक विकास में परिपक्वता लाती है।

13. भाषा विकास (Language Development) : भाषा एक माध्यम है, जिसके द्वारा बालक अपनी बातों, विचारों आदि का आदान-प्रदान दूसरों से करते हैं। भाषा के उचित प्रयोग से बालक अपना सामाजिक दायरा बढ़ा सकते हैं।

14. हीनता की भावना (Inferiority Complex) प्रायः जिन बालकों में हीनता की _ भावना अधिक मात्रा में पायी जाती है उनमें सामाजिक विकास कम गति से होता है। वे बालक दूसरों से मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते हैं। अपनी हीनता की भावना के कारण उनमें आत्मविश्वास भी कम हो जाता है जिससे उन्हें अपना सामाजिक दायरा बनाने में कठिनाई होती है।

15. व्यक्तित्व विकास (Personality Development): बालकों का व्यक्तित्व भी • उसके सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का निर्माण अलग ढंग से होता है। कुछ बालक बहिर्मुखी तथा कुछ अन्तर्मुखी होते हैं। बहिर्मुखी बालकों का सामाजिक दायरा बड़ा होता है। वे प्रसन्न एवं मिलनसार होते हैं, जिससे वे समाज में लोकप्रिय हो जाते हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास की भावना बढ़ जाती है।

16. सामाजिक व्यवस्था (Social System) सामाजिक व्यवस्था बालक के सामाजिक विकास को एक निश्चित रूप और दिशा प्रदान करती है। समाज के कार्य, आदर्श और प्रतिमान बालक के दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं। यही कारण है कि ग्राम और नगर, जनतंत्र और तानाशाही में बालक का सामाजिक विकास विभिन्न प्रकार से होता है।

परीक्षोपयोगी तथ्य

समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति उसके समूह मानकों (Norms) के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास करता है।

सामाजिक विकास का अर्थ उस योग्यता को अर्जित करना है जिसके द्वारा सामाजिक प्रत्याशाओं (Expectation) के अनुसार व्यवहार किया जा सके।

सामाजीकरण में तीन प्रक्रियाएँ सम्मिलित है(a) वह प्रक्रिया जिससे बालक में

समाज द्वारा मान्य व्यवहार का विकास होता है। (b) बालक समाज में मान्य रोल्स सीखता है। (c) सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास।

सामाजिक प्रौढता (Social Maturity) का अर्थ है- समाज के मूल्यों नियमों अभिवृत्तियों और सामाजिक व्यवहार तथा सामाजिक रोल्स आदि की प्रौढ़ता।

बहिर्मुखी व्यक्तियों में सामाजिक प्रौढ़ता अन्तर्मुखी व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है।

सामाजिक अनुरूपता (Social Conformity)का अर्थ है समाज के मानकों (Norms) आदर्शों तथा मूल्यों इत्यादि के अनुरूप व्यवहार करना।

सामाजिक विकास और सामाजिक अनुरूपता में धनात्मक सह संबंध है।

बालक में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ बालक का समायोजन जितना अच्छा होगा, उसका सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होगा।

सामाजिक अन्तःक्रिया का अभिप्राय है दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक क्रियाएँ।

संगठनात्मक सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं सहयोग, सहानुभूति, व्यवस्थापन, सात्मीकरण इत्यादि।

विघटनात्मक सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं तनाव, संघर्ष इत्यादि।

बालक का सामाजिक विकास उतना अधिक अच्छा माना जाता है जितना ही अधिक वह सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेता है।

बचपनावस्था (Babyhood) में बालकों में होनेवाली सामाजिक अनुक्रियाएँ हैंअनुकरण (Imitation), आश्रितता (Dependency), ईर्ष्या (Rivalry), सहयोग (Cooperation), शर्माहट (Shyness), ध्यान आकर्षित करना (Attention Seeking), अवरोधी व्यवहार (Resistant Behaviour)।

पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood) में होनेवाली सामाजिक अनुक्रियाएँ हैंआक्रामकता झगड़ा (Quarreling), चिढ़ना (Teasing), निषेधात्मक व्यवहार (Negative Behaviour), सहयोग (Co-operation), ईर्ष्या (Rivalry), उदारता (Generosity), सामाजिक अनुमोदन की इच्छा, आश्रितता (Dependency), बालको में मित्रता, सहानुभूति (Sympathy)।

उत्तर बाल्यावस्था (Late Childhood) में होनेवाली सामाजिक अक्रियाएँ हैंसामाजिक अनुमोदन (Social Approval), सुझाव ग्रहणशीलता (Suggestibility), स्पर्धा और प्रतियोगिता (Rivalry and Competition), खेल (Sports), पक्षपात और सामाजिक विभेदीकरण (Prejudice and Social Discrimination), उत्तरदायित्व (Responsibility), सामाजिक सूझ (Social Insight), यौन विरोधी भाव (Sex Antagonism)।

सामाजिक विकास को प्रभावित करनेवाले कारक हैं- शारीरिक बनावट और स्वास्थ्य, परिवार पडोस और वातावरण, मनोरंजन (Recreation), व्यक्तित्व, संवर्द्धन अभिप्रेरक, संवेगात्मक विकास, हीनता की भावना, साथी समूह ।

किशोरावस्था में बालकों में होनेवाले सामाजिक परिवर्तन हैं साथियों के समूह का प्रभाव, सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन, नया सामाजिक समूहन, दोस्तों में चयन का नया मूल्य, सामाजिक स्वीकृति में नया मूल्य इत्यादि ।

ब्रोनफेनब्रेन्नर (Bronfrenbrenner) ने पारिस्थितिपरक सिद्धांत (Ecological Theory) की व्याख्या बच्चे के विकास के सामाजिक संदर्भ (Social Context) में किया है। इस सिद्धांत के अनुसार पर्यावरणी तल के पाँच स्तर होते हैं. लघुमंडल (Micro System), मध्यमंडल (Mesosystem), बाह्यमंडल (ExOSystem), वृहत्तमंडल (Macrosystem), घटनामंडल (Chromosystem)।

इरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत में पूरे जीवन अवधि में विकास को आठ अवस्थाओं में बाँटा गया है।

> सामाजिक विकास में शिक्षकों की भूमिका काफी अधिक है, क्योंकि शिक्षकगण बालकों के सामाजिक विकास को सीधे प्रभावित करते हैं। समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे बच्चे और वयस्क सीखते हैं परिवार से, विद्यालय  से और श्रेष्ठ जनों से

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Anuvanshikta Evam Vatavaran Ka Prabhav : UPTET (Uttar Prdesh Teacher Eligibility Test) Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book and Notes Chapter 3 आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव Study Material in Hindi में Online पढ़ने जा रहे है | अभ्यर्थियो को बता दे की हम UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter 3 in Hindi PDF में Free download का लिंक भी सबसे निचे दे रहे है |

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आनुवंशिकता तथा वातावरण का प्रभाव | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 3 Study Material in Hindi

परिचय Introduction >

प्राचीनकाल के विद्वानों का यह मत था कि बीज के अनुसार वृक्ष और फल उत्पन्न होते हैं अर्थात् माता पिता के अनुसार ही उसकी संतान होती है (Like Begeta Like)। आधुनिक काल में, विशेष रूप से व्यवहारवादियों ने वातावरण को महत्व दिया है। वाटसन (J. B. Watson, 1920) का विचार है कि “वातावरण के प्रभाव से शिश को डॉक्टर, वकील, कलाकार, नेता आदि कुछ भी बनाया जा सकता है, भले ही शिशु का आनुवंशिकी कुछ भी रहा हो तथा एक समाज के व्यक्ति शारीरिक और मानसिक दृष्टि से असमान होते हैं।” इन असमानताओं या विभिन्नताओं का कारण कुछ मनोवैज्ञानिकों के अनुसार वंशानुक्रम है तथा अन्य के अनुसार, भिन्नताओं का कारण वातावरण है। विज्ञान के क्षेत्र में इन अध्ययनों का आरंभ डार्विन तथा मनोविज्ञान के क्षेत्र में इन अध्ययनों का आरंभ गाल्टन ने किया। जहाँ एक ओर कुछ मनोवैज्ञानिक वंशानुक्रम को महत्व देते हैं और कुछ वातावरण को, वहीं दूसरी ओर दोनों वर्ग के विद्वान एक-दूसरे के विचारों का खंडन भी करते रहे हैं। पीटरसन (Peterson) (1948) के अनुसार, ‘व्यक्ति को उसके माता-पिता के द्वारा उसके पूर्वजों से जो प्रभाव (Stock) प्राप्त होता है, वही उसका वंशानुक्रम है।” वुडवर्थ और मारिक्वस (1956) के अनुसार, ‘वंशानुक्रम में वे सभी कारक अ = जाते हैं, जो व्यक्ति में जीवन आरंभ के समय उपस्थित होते हैं, जन्म के समय नहीं, वरन् गर्भाधान के समय अर्थात् जन्म से लगभग 9 माह पूर्व उपस्थित होते हैं।” डिंकमेयर (Dinkmeyer, 1965) के अनुसार, ‘वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं जो बालक में जन्म के समय से पायी जाती हैं।” माता के रज औ । पिता के वीर्य कणों में बालकों का वंशानुक्रम निहित होता है। गर्भाधान के समय जीन (Genes) भिन्न प्रकार से संयुक्त होते हैं। अतः एक ही माता-पिता की संतान प में भिन्नता दिखायी देती है। यह भिन्नता का नियम (Law of Variation) है म प्रत्यागमन के नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता-पित द की संतानें दुर्बल बुद्धि कि भी हो सकती हैं।

बालकों के विकास में आनुवंशिकता तथा वातावरण का महत्व

Importance of Heredity and Environment in Development of Children व्यक्ति के व्यवहार के निर्धारण में आनुवंशिकता (Heredity) तथा वातावरन (Environment) के तुलनात्मक महत्व (Relative Importance) को दिखाने के लिए मनोवैज्ञानिक ने निम्नांकित दो तरह के अध्ययन (Studies) किये हैं.

। जुड़वाँ बच्चों का अध्ययन (Studies of Tiwin Children)

2. पोष्य बच्चों का अध्ययन (Studies Of Foster Children)

1 जुड़वाँ बच्चों का अध्ययन (Studies of Twin Children) जुड़वाँ बच्चे

(Twin Children) दो तरह के होते हैं एकांकी जुड़वाँ बच्चे (Identical Twin Children) तथा भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चे (Fraternal Twin Children) एकांकी जुड़वाँ बच्चों की आनुवंशिकता ( Heredity) बिल्कुल ही समरूप (Identical) होती है, क्योंकि ऐसे बच्चे का जन्म माँ के एक अंडाणु (Ovum) के गर्भित होने के फलस्वरूप होता है। कोशिका विभाजन (Cell Divison) के दौरान एक ही गर्भित अंडाणु किसी कारण से दो स्वतंत्र भागों में बँटकर दो बच्चे को जन्म देता है। ऐसे बच्चे या तो दोनों लड़का या दोनों ही लड़की होते हैं।

भ्रात्रीय जुड़वाँ बच्चों का जन्म इसलिए हो पाता है कि माँ के दो अंडाणु (Ovum) एक ही साथ पिता के दो अलग अलग शुक्राणु (Sperm) द्वारा गर्भित हो जाते हैं। स्वभावतः ऐसे जुड़वाँ बच्चों की आनुवंशिकता समान या समरूप नहीं होती है, क्योंकि इसमें दो अलग अलग गर्भित अंडाणु होते हैं । ऐसे बच्चों का यौन (Sex)कुछ भी हो सकता है अर्थात् एक लड़का तथा एक लड़की या दोनों लड़का या दोनों लड़की ।

मनोवैज्ञानिकों ने आनुवंशिकता तथा वातावरण के तुलनात्मक महत्व को दिखाने के लिए जुड़वाँ बच्चों पर अध्ययन किया; जो इस प्रकार है

(a) एकांकी जुड़वाँ बच्चे जिनका पालन पोषण एक समान वातावरण में हुआ है सेल तथा थॉम्प्सन (Gesell and Thompson, 1929) ने इस पर अध्ययन किया । इन्होंने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष दिया कि व्यक्तित्व का निर्धारण वातावरण की समानता तथा आनुवंशिकता की समानता दोनों के आधार पर होता है।

(b) एकांकी जुड़वाँ बच्चे जिनका पालन पोषण अलग अलग वातावरण में हुआ है : यह अध्ययन मनोवैज्ञानिक न्यूमैन, फ्रीमैन तथा हालजिगर (Newman, Freeman & Holzinger, 1937) ने किया। इन्होंने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला कि व्यक्तित्व कुछ तो आनुवंशिकता द्वारा तथा कुछ वातावरण द्वारा निर्धारित होता है। अतः व्यक्तित्व आनुवंशिकता तथा वातावरण दोनों की अंतःक्रिया (Interaction) द्वारा निर्धारित होता है।

2 पोष्य बच्चों का अध्ययन (Studies of Foster Children) मनोवैज्ञानिकों ने पोष्य बच्चों का अध्ययन करके वातावरण तथा आनुवंशिकता (Heredity) के तुलनात्मक महत्व का अध्ययन किया है। इस अध्ययन के द्वारा मनोवैज्ञानिकों ने दो प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास किया है.

क्या पोष्य बच्चों के व्यवहार में अपने वास्तविक माता पिता के व्यवहार से अधिक समानता होती है?

यदि अनुकूल वातावरण में ऐसे बच्चों को रखकर पाला पोसा जाय तो क्या उनके कुछ खास गुणों, जैसे बुद्धि (Intelligence) आदि में परिवर्तन आता है ?

पहले प्रश्न के संबंध में मनोवैज्ञानिक बक्स (Burks 192S), स्काल्स (Skeels. 1938) और स्कोडक (Skodak 1930) ने किया। इन सभी मनोवैज्ञानिक के अध्ययन के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि बद्धि के निधोरण मे वातावरण तथा आनुवंशिकता दोनों का महत्व है, न कि किसी एक का।

दूसरे प्रश्न के संदर्भ में मनोवैज्ञानिकों ने कुछ अध्ययन करके यह दिखा दिया कि पोष्य बच्चे (Foster Children) को कुछ अनुकूल वातावरण (Fal our able Environment) मिलने पर उनकी बुद्धि के स्तर में थोड़ी सी वृद्धि होती है।

> एच ई गैरेट (H. E. Garrett 1960) का विचार है कि यह निश्चित है कि वशानुक्रम और वातावरण एक दुसरे को सहयोग देनेवाले प्रभाव या कारक है तथा दोनों ही बालक की सफलता के लिए आवश्यक है।

आर एस वुडवर्थ (RS Hoodivorth 1050) का कथन है कि व्यक्ति के जीवन और विकास पर प्रभाव डालने वाली प्रत्येक बात वशानुक्रम और वातावरण के क्षेत्र में आ जाती है, परतु ये बातें इतने पेचीदा ढंग से संयुक्त होती है कि प्राय वंशानुक्रम और वातावरण के प्रभावों में अंतर करना कठिन हो जाता है।”

अतः बालक के व्यक्तित्व और व्यवहार को समझने में वातावरण और वंशानुक्रम की पारस्परिक अतः क्रियाओं (Interactions) तथा इन प्रभावों से संबंधित कारको की अंत क्रियाओं को समझना आवश्यक है। वंशानुक्रम एक निर्धारक कारक है तथ वातावरण एक सामान्य शक्ति या कारक है। ये दोनों ही कारक एक-दूसरे के पूरक है।

आनुवंशिकता के नियम Law of Heredity

» आनुवंशिकता की क्रियाविधि (Mechanisms) का वर्णन करने के लिए जोहान (गियर मेडल (Johan Gregor Mendel) ने महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने विभिन्न तरह के मटरों (Peas) को संकरित (Crossing) कर आनुवंशिकता के आधारभूत नियमों (Cardinal Principles) का प्रतिपादन किया।

मेंडल ने अपने विस्तृत प्रयोगों के परिणाम को 1866 में प्रकाशित किया, लेकिन कई कारणों से उनके प्रयोगों की ओर 1900 ई. तक लोगों का ध्यान बहुत नहीं गया।

1900 ई. में ही तीन शोधकर्ता (Researcher) नीदरलैंड, आस्ट्रिया तथा जर्मनी में स्वतंत्र रूप से प्रयोग कर उसी परिणाम पर पहुँचे, जिस पर मेडल 34 साल पहले पहँच चके थे। इन तीन शोधकर्ताओं ने मेंडल के नियम को वैध ठहराया और उन्हें आनुवंशिकता का आधारभूत नियम (Cardinal Principle or Larot Heredity) की संज्ञा दी।

मेंडल के इस आनुवंशिकता में दो नियम सम्मिलित हैं

a) पृथक्करण का सिद्धांत (Principle of Segregation)

(b) स्वतंत्रछटायी का सिद्धात (Principle of Independent Assortment पथक्करण का सिद्धांत (Principle of Segregation) यह बताता है कि जो गुण पहली सकर पीढ़ी (First Hybrid Generation) में दबा रहता है या छिपा रहत है, वे समाप्त नहीं हो जाते, बल्कि बाद की संकर पीढ़ी के कुछ सदस्यों में दिखायी देते हैं।

पृथक्करण के सिद्धांत में उनका कहना था कि दबे हुए गुण अन्य गुणों के साथ मिलकर अपना अस्तित्व नहीं खो देते हैं, बल्कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी फिर दूसरी पीढ़ी से तीसरी पीढ़ी तक अपने मूल रूप मे अलग अस्तित्व (Segregated Enistence) बनाये रखते हैं।

मानव शिशुओं में पृथक्करण के सिद्धांत का क्रियान्वयन स्पष्ट रूप से होता पाया गया है। विशेष रूप से आनुवंशिक रोग (Genetic Disease) में इस सिद्धांत की क्रियान्वयनता देखने को मिलती है।

स्वतंत्र फुटायी का सिद्धांत (Principle of Independent Assortment) यह बताता है कि किसी एक आनुवंशिक गुण (Genetic Treat) का वितरण दूसरे आनुवंशिक गुण के वितरण से प्रभावित नहीं होता, अर्थात् स्वतंत्र होता है। जैसेमेंडल ने अपने प्रयोग में पाया कि मटर के पौधे के फूल का रंग मटर के फली (Pods) के आकार, डंठल की लंबाई इत्यादि गुणों से स्वतंत्र (Independent) होता है। व्यक्तियों की आनुवंशिकता के संबंध में निम्नलिखित बिन्दु महत्वपूर्ण हैं—

(a) बालक की आनुवंशिकता में सिर्फ उसके माता पिता की देन नहीं होती, बल्कि बालक की आनुवंशिकता का आधा भाग माता-पिता से, एक-चौथाई भाग दादा-दादी से, नाना नानी से, शेष भाग परदादा परदादी, परनाना परनानी इत्यादि से मिलता है। अर्थात् एक शिशु पूर्णतः अपने माता-पिता पर ही निर्भर नहीं करता, अपने पूर्वजों के गुणों को अपने में कुछ हद तक सम्मिलित किये रहता है।

(b) क्रोमोजोम्स सदा जोड़े में रहते हैं। क्रोमोजोम्स में जीन भी जोड़े में होते हैं। इन्हीं जीन के आधार पर शिशुओं के गुणों का निर्धारण होता है।

(c) किसी भी नवजात शिशु को 23 क्रोमोजोम्स माता से तथा 23 क्रोमोजोम्स पिता से मिलते हैं। इस तरह कुल 46 क्रोमोजोम्स बालक या नवजात शिशु में होते हैं। इनमें । 22 जोड़े यानी 44 क्रोमोजोम्स बालक या बालिका में आकार एवं विस्तार में समान होते हैं। इन्हें ऑटोजोम्स (Autosomes) कहा जाता है ।

23वाँ जोड़ा यौन क्रोमोजोम्स (Sex Chromosomes) होता है, जो बालिका में । समान अर्थात् XX होता है, परंतु बालक में भिन्न अर्थात् XY होता है। Y क्रोमोजोम्स X क्रोमोजोम्स की अपेक्षा छोटा होता है तथा इसमें X क्रोमोजोम्स की तुलना में कम जीन होते हैं। मानव में शिशु के यौन (Sex) का निर्धारण माता-पिता द्वारा होता है न कि माता द्वारा।

नवंशिकता तथा वातावरण का बालकों की शिक्षा के लिए महत्व importance of Heredity and Environment for Education of Children

बालकों की शिक्षा में आनुवंशिकता ( Heredity)तथा वातावरण (Environment) दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। शिक्षा का उद्देश्य बच्चों में शारीरिक, मानसिक, सावेगिक, नैतिक तथा चारित्रिक विकास करना है।

इन उद्देश्यों की पूर्ति करने के लिए आनुवंशिकता और वातावरण दोनों पहलू महत्वपूर्ण हैं, जैसे—अगर बालक की आनुवंशिकता काफी अच्छी है परंतु उसे अच्छा वातावरण नहीं मिल पाया है, तो उसका शैक्षिक विकास (Educational Development) ठीक से नहीं हो पायेगा। यदि बालक आनुवंशिकता के दृष्टिकोण से निम्न तथा पिछड़ा हुआ है, परंतु उसे यदि एक अच्छे, वातावरण, जैसे अच्छे स्कूल में शिक्षा-दीक्षा दी जाये तो तुलनात्मक दृष्टिकोण से उसका विकास भी उतना श्रेष्ठ नहीं होगा। कुछ प्राकृतिक प्रवृतियाँ ऐसी हैं जिनका वातावरण के माध्यम द्वारा काफी हद तक विकास नहीं किया जा सकता। जैसे—कितना भी हम शैक्षिक वातावरण को उन्नत क्यों न कर दें, सभी बालक को वैज्ञानिक, इंजीनियर, डॉक्टर, चित्रकार, प्रशासक नहीं बनाया जा सकता है।

बालको की आनुवंशिकता तथा वातावरण का शिक्षकों के लिए महत्व

शिक्षकों के लिए बालकों की आनुवंशिकता तथा वातावरण की जानकारी रखना महत्वपूर्ण है। जागरूक एवं अच्छे शिक्षकों को लिए यह आवश्यक होता है कि वे बालकों की आनुवंशिकता एवं अन्य जैविक गुणों (Biological Traits) से परिचित हो जाये तथा उनके घर, परिवार एवं सामाजिक वातावरण, जिसमें वे रहते हैं उससे भलीभाँति अवगत हो जाएँ। उससे बालकों के बौद्धिक विकास, समायोजन तथा अनुशासन संबंधी समस्याओं को शिक्षक स्वयं हल कर सकने में समर्थ हो जायेंगे। उदाहरणस्वरूप-

एक बालक स्कूल में इसलिए दुर्व्यवहार (Misbehave) कर सकता है क्योंकि उसमें एक असामान्य ग्रंथीय अवस्था (Abnormal Glandular Condition) हो सकता है या वह इसलिए भी दुर्व्यवहार कर सकता है क्योंकि वह एक ऐसे परिवार से आता है जहाँ अच्छा तौर-तरीका कभी सिखाया ही नहीं गया हो। वर्ग में एक बालक कुछ सीखने में इसलिए असमर्थ हो सकता है क्योंकि उसमें उपयुक्त विटामिन की मात्रा पर्याप्त नहीं है या वह ढंग से सीखने के लिए प्रेरित भी नहीं हो सकता है।

यदि शिक्षक को बालक की आनुवंशिकता एवं जैविक पृष्ठभूमि का ज्ञान हो तथा साथ ही साथ यदि वह पारिवारिक एवं सामाजिक वातावरण से भली-भाँति परिचित हो, तो वह इससे स्वयं ही शिक्षार्थियों की कई समस्याओं का समाधान आसानी से , कर सकता है।

ब्लेयर, जोन्स तथा सिम्प्सन (Blair, Jones & Simpson, 1965) ने इस सबध में कहा है “बालकों को समझने के लिए शिक्षक (a) उन्हें एक जैविक प्राणी जिनकी अपनी आवश्यकताएँ एवं लक्ष्य होते हैं, के रूप में निश्चित रूप से समझें तथा > (B) उनके सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक वातावरण को पहचानें जिनका वे एक हिस्सा है।

शिक्षक को बालकों की कुछ मूल प्रवृत्तियों के बारे में उनके आनुवंशिक तथ्यों से पता चलता है। इससे शिक्षक को बालकों में वांछनीय प्रवृत्तियों (Desired Tendencies » के विकास के लिए तथा अवांछनीय प्रवृतियों (Undesired Tendencies) को> समाप्त कर उसके प्रभाव से बचाने में मदद मिलती है।

शिक्षक विद्यालय में विभिन्न प्रकार के शैक्षिक कार्यक्रमों का आयोजन करके शैक्षिक वातावरण को उन्नत बना सकते हैं, जिसका प्रभाव बालकों के समन्वित विकास पर अनुकूल पड़ सकता है।

आनुवंशिकी/वंशानुक्रम के प्रचलित सिद्धांत

★ बीजकोष की निरंतरता का सिद्धांत * समानता का सिद्धांत

प्रत्यागमन का सिद्धांत * अर्जित गुणों के संक्रमण का सिद्धांत

* मेडल का सिद्धांत

बालक पर आनुवंशिकी/वंशानुक्रम का प्रभाव

* मूल शक्तियों पर प्रभाव * शारीरिक लक्षणों पर प्रभाव

★ प्रजाति की श्रेष्ठता पर प्रभाव ___ * व्यावसायिक योग्यता पर प्रभाव

* सामाजिक स्थिति पर प्रभाव * चरित्र पर प्रभाव

* महानता पर प्रभाव * वृद्धि पर प्रभाव

परीक्षोपयोगी तथ्य

आनुवंशिकता से तात्पर्य शारीरिक एवं मानसिक गुणों के संचरण (Transmission) से होता है, जो माता पिता से बच्चों में जीन के माध्यम से प्रवेश करता है।

वातावरण (Environment) का तात्पर्य व्यक्ति में उन सभी तरह की उत्तेजनाओं (Stimulations) से होता है जो गर्भधारण से मृत्यु तक उसे प्रभावित करती है।

1950 ई. में विशेषज्ञों द्वारा यह पता लगाया कि जीन में मुख्य रूप से दो जैविक अणु (Organic Molecule) होते हैं, जिन्हें DNA (Deoxyribonucleic Acid) तथा RNA (Ribonucleic Acid) कहा जाता है।

जीन द्वारा आनुवंशिक गुणों का संचरण होता है। मानव जीवन की शुरुआत एक गर्भित अंडाणु (Fertilized egg) से होती है। एक गर्भित अंडाणु में क्रोमोजोम्स के 23 जोड़े होते हैं । इस 46 क्रोमोजोम्स में 23 क्रोमोजोम्स माँ से तथा 23 क्रोमोजोम्स पिता से मिलता है।

क्रोमोजोम्स में एक ही विशेष संरचना (Structure) होती है, जिसे जीन (Gene) कहा जाता है। इसी जीन द्वारा माता-पिता या अपने पुरखों के गुण अपने शिशुओं में आते हैं।

बालकों की शिक्षा में आनुवंशिकता एवं वातावरण का महत्वपूर्ण स्थान है। बालको की आनुवंशिकता एवं वातावरण से अच्छी तरह परिचित होने पर शिक्षक बालकों के बौद्धिक विकास, समायोजन तथा अनुशासन संबंधी समस्याओं को हल करने में समर्थ रहते है।

आनुवंशिकता का नियम (Law of Heredity) (जिसे मेण्डल ने अपने शोध के आधार पर प्रतिपादित किया था) से यह पता चलता है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में व्यक्तियों में गुणों में विभिन्नता क्यों और कैसे होती है ?

मानव व्यक्तित्व आनुवंशिकता और वातावरण की अंतःक्रिया का परिणाम है।

व्यक्तित्व एवं बुद्धि में वंशानुक्रम की महत्वपूर्ण भूमिका है।

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बाल विकास के सिद्धांत | UPTET Chapter 2 Bal Vikas ke Siddhant Study Material in Hindi

बाल विकास (Child Development): बाल विकास का अध्ययन करने के लिए ‘विकासात्मक मनोविज्ञान’ की एक अलग शाखा बनायी गयी, जो बालकों के व्यवहारों का अध्ययन गर्भावस्था से होकर मृत्युपर्यंत करती है। परंतु वर्तमान समय में इसे ‘बाल विकास’ (Child Development) में परिवर्तित कर दिया गया।

हरलॉक (Hurlock) ने इस संबंध में कहा है कि “बाल मनोविज्ञान का नाम बाल विकास इसलिए रखा गया क्योंकि विकास के अंतर्गत अब बालक के विकास के समस्त पहलुओं पर ध्यान केंद्रित किया जाता है, किसी एक पक्ष पर नहीं।

विभिन्न विद्वानों ने बाल विकास को निम्न प्रकार से परिभाषित किया हैक्रो और क्रो (Crow & Crow, 1958) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान वह वैज्ञानिक अध्ययन है जो व्यक्ति के विकास का अध्ययन गर्भकाल के प्रारंभ से किशोरावस्था की प्रारंभिक अवस्था तक करता है।

जेम्स ड्रेवर (James Drever, 1968) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान मनोविज्ञान की वह शाखा है जिसमें जन्म से परिपक्वावस्था तक विकसित हो रहे मानव का अध्ययन किया जाता है।

आइजनेक (Eysenck, 1972) के अनुसार, “बाल मनोविज्ञान का संबंध बालक में मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं के विकास से है। गर्भकालीन अवस्था, जन्म, शैशवावस्था, बाल्यावस्था, किशोरावस्था और परिपक्वावस्था तक के बालक की मनोवैज्ञानिक विकास प्रक्रियाओं का अध्ययन किया जाता है।

हरलॉक (Hurlock, 1978) के अनुसार, ‘बाल विकास मनोविज्ञान की वह शाखा है जो गर्भाधान से लेकर मृत्युपर्यंत तक मनुष्य के विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होनेवाले परिवर्तनों का अध्ययन करता है।

उपयुक्त परिभाषाओं से यह स्पष्ट होता है कि बाल विकास बाल मनोविज्ञान की ही एक शाखा है जो बालकों के विकास, व्यवहार, विकास को प्रभावित करनेवाले विभिन्न तथ्यों का अध्ययन करता है।

‘बाल मनोविज्ञान तथा बाल विकास में अंतर यह है कि बाल मनोविज्ञान बालक की क्षमताओं का अध्ययन करता है जबकि बाल विकास क्षमताओं के विकास की दशा का अध्ययन करता है। बाल मनोविज्ञान दो शब्दों से मिलकर बना है। बाल + मनोविज्ञान । ‘बाल’ का अर्थ है बालक अर्थात वह प्राणी जो प्रौढ़ की श्रेणी में नहीं आया, हो उसे बालक की श्रेणी में रखा जाता है। मनोविज्ञान से अभिप्राय मन के विज्ञान से है। अतः बाल मनोविज्ञान से तात्पर्य विज्ञान की उस शाखा से है जो बालकों के मन (व्यवहारों का अध्ययन गर्भावस्था से लेकर किशोरावस्था तक करता है।

बाल विकास की प्रकृति Nature of Child Development

बाल विकास की प्रकृति निम्नलिखित है-

मनोविज्ञान की एक विशिष्ट शाखा के रूप में बाल विकास (Child De as a Special Branch of Psychology): मनोविज्ञान में विभिन्न प्रकार के के व्यवहार का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है। व्यवहार में कई प्रकार (Aspects) तथा कई आयाम (Dimensions) होते हैं। > बाल विकास मनोविज्ञान की एक महत्वपूर्ण, उपयोगी तथा समाज और गा कल्याणकारी शाखा है ।

मनोविज्ञान की शाखा में केवल मानव-व्यवहार का किया जाता है। गर्भकालीन अवस्था से लेकर युवावस्था तक के विकासशील – के व्यवहार का अध्ययन किया जाता है। इस अवस्था में मानव-व्यवहार के विकास तथा विभिन्न आयु-स्तरों पर भी विभिल व्यवहारों का अध्ययन किया जाता है। यहाँ विकास का अर्थ है—मानव की जैविक संरचना (Biological Structure) तथा मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं (Psychological Processes) में होनेवाले क्रमिक परिवर्तन।

2. मनोविज्ञान में विशिष्ट उपागम के रूप में बाल विकास विषय (Child Development as a Special Approach in Psychology): मानव व्यवहारों के अध्ययन के लिए बाल विकास में कई विशिष्ट उपागम या विचार-पद्धतियों का उपयोग किया जाता है। ये उपागम निम्नलिखित हैं

(a) प्रयोगात्मक उपागम (Experimental Approach) : इस उपागम के द्वारा बाल विकास की विभिन्न समस्याओं के अध्ययन में कार्य-कारण संबंध (Cause & Effect Relationship) को जानने का प्रयास किया जाता है। > इस उपागम के द्वारा एक विशिष्ट व्यवहार किस परिस्थिति में उत्पन्न होता है या एक परिस्थिति-विशेष में व्यक्ति किस प्रकार के व्यवहार की अभिव्यक्ति करेगा, यह अध्ययन किया जा सकता है।

(b) दैहिक उपागम (PhysiologicalApproach) : नाड़ी संस्थान (Nervous System) प्राणी के शरीर की संपूर्ण क्रियाओं को नियंत्रित करता है। ये क्रियाएँ शारीरिक भी हो सकती हैं और मनोवैज्ञानिक भी। > शारीरिक वृद्धि, विकास और स्वास्थ्य मुख्यतः हार्मोन्स और ग्रंथियों की क्रियाशालता

से संबंधित होता है। बाल विकास को दैहिकशास्त्र (Physiology) के ज्ञान कर भी समझा जा सकता है, क्योंकि जैविक आत्म (Biological Self) तथा मान आत्म (Psychic Self) एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप से संबंधित होते हैं। गर्भकालीन शिशु और शिशुओं के व्यवहार से संबंधित समस्याओं का समाधान मुख्य रूप से इस उपागम द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।

( विकासात्मक उपागम (Developmental Approach): बाल विकार समस्याओं के अध्ययन के लिए विकासात्मक उपागम भी अपनाया जाता है। उपागम को अपनाने का मुख्य कारण यह है कि जब बालक एक नयी विकास अवस्ता

में पहुँचता है तब उसमें कुछ नई रुचियों, कुछ नई अभिवृत्तियों, कुछ नये लक्षणों, कुछ नये शील-गुणों का एक विशिष्ट समूह (Cluster) निर्मित होता है। इस प्रकार के विशिष्ट समूह कई अवस्थाओं में देखे जा सकते हैं। विकासात्मक उपागम (Approach) के द्वारा विकास की मात्रा, गति और विकास की विशिष्टताओं आदि की जानकारी अलग-अलग तथा सम्पूर्ण रूप में होती है।

(d) व्यक्तित्व-संबंधी उपागम (Personality Approach): किसी बालक का व्यवहार उस बालक के किसी-न-किसी पहलू को अभिव्यक्त करता है। जन्म से ही व्यक्तित्व का निर्माण प्रारंभ हो जाता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व वाले व्यक्तियों का व्यवहार भी भिन्न-भिन्न होता है। > व्यक्तित्व के शीलगुणों (Traits) की स्थिरता व्यक्तियों के समायोजन, अभिवृत्तियों

और आदतों आदि के निर्माण से संबंधित होता है। > अतः व्यक्तित्व के शील-गुणों के आधार पर व्यक्ति के समायोजन, अभिवृतियों और

आदतों आदि के संबंध में भविष्यवाणी की जा सकती है। (e) एक विशिष्ट अध्ययन प्रणाली के रूप में बाल विकास (Child Development as a Special Study Approach): बाल विकास बाल मनोविज्ञान का ही एक विकसित रूप है, जिसकी अपनी विशिष्ट अध्ययन-प्रणाली है। बाल विकास की विकासात्मक प्रकृति वाली समस्याओं का अध्य्यन दो प्रणालियों द्वारा किया जाता है। पहली समकालीन अध्ययन-प्रणाली है तथा दूसरी दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली। बाल विकास के क्षेत्र Scope of Child Development

बाल विकास के क्षेत्र के अंतर्गत निम्नलिखित तथ्यों का अध्ययन किया जाता है___ 1. बाल विकास की विभिन्न अवस्थाओं का अध्ययन (Study of Various Stages of Development) : बालक के जीवन-प्रसार में अनेक अवस्थाएँ होती हैं । जैसे—गर्भकालीन अवस्था, शैशवावस्था, बचपनावस्था, बाल्यावस्था, वयःसंधि और किशोरावस्था । इन सभी अवस्थाओं का विस्तृत अध्ययन बाल विकास के अंतर्गत किया जाता है।

2. बाल विकास के विभिन्न पहलुओं का अध्ययन (Study of Various Aspects of Child Development): इसके अंतर्गत विकास के विभिन्न पहलुओं जैसे-शारीरिक विकास, मानसिक विकास, संवेगात्मक विकास, सामाजिक विकास, क्रियात्मक विकास, भाषा विकास, नैतिक विकास, चारित्रिक विकास और व्यक्तित्व विकास सभी का विस्तारवपूर्वक अध्ययन किया जाता है।

3. बाल विकास को प्रभावित करनेवाले तत्वों का अध्ययन (Study of Various Factors Effecting Child Development): बाल विकास उन सभी तत्वों का अध्ययन करता है जो बालक के विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करते हैं। बालक के विकास पर मुख्य रूप से वंश-परम्परा, वातावरण, परिपक्वता और शिक्षण का प्रभाव पड़ता है।

4. बालकों की विभिन्न असमान्यताओं का अध्ययन (Study of Various Abnormalities of Children): बाल विकास के अंतर्गत बालकों के जीवन-विकास

क्रम में होनेवाली असामान्यताओं और विकृतियों का अध्ययन किया जा असंतुलित व्यवहारों, मानसिक विकारों, बौद्धिक दुर्बलताओं तथा बालको जानने का प्रयास करता है और समाधान हेतु उपाय भी बताता है।

5. मानसिक स्वास्थ्य विज्ञान का अध्ययन (StudyofMental Hygiene) . सा बाल मनोविज्ञान और बाल विकास की ही देन है।

6. बाल-व्यवहारों और अंतःक्रियाओं का अध्ययन (Study of Child Bes, and Interactions): बाल विकास, विकास की विभिन्न अवस्थाओं में होनेवा नवाला बालक की विभिन्न अंतःक्रियाओं का अध्ययन कर यह जानने का प्रयास करता ते क्रियाएँ कौन-सी हैं और इनसे बालकों के व्यवहार में क्या परिवर्तन होते हैं? समायोजन में सहायक हैं या बाधक।

विभिन्न आयु स्तरों पर बालक अपने समायोजन के लिए अपने संपर्क में आने

व्यक्तियों जैसे—परिवार के लोग, पड़ोसी, अध्यापक, खेल के साथी और समान सभी परिचितों के साथ अंतःक्रियाएँ करता रहता है।

7. बालकों की रुचियों का अध्ययन (Study of Childhood Interests): बाल विकास बालकों की रुचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है।

8. बालकों की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं का अध्ययन (Study of Various Mental Processes of Children) : बाल विकास बालकों के बौद्धिक विकास की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे-अधिगम, कल्पना, चिंतन, तर्क, स्मृति तथा प्रत्यक्षीकरण इत यादि का अध्ययन करता है।

9. बालकों की वैयक्तिक विभिन्नताओं का अध्ययन (Study of Individual Differences of Children): बाल विकास बालकों का शारीरिक और मानसिक स्तर पर वैयक्तिक विभिन्नताओं का अध्ययन करता है। शारीरिक विकास में कुछ बालक : अधिक लंबे, कुछ नाटे तथा कुछ सामान्य लंबाई के होते हैं। इसी प्रकार मानसिक विकास में कुछ प्रतिभाशाली, कुछ सामान्य और कुछ मंद बुद्धि के होते हैं। इसी प्रकार कुछ – बालक सामाजिक तथा बहिर्मुखी होते हैं जबकि कुछ अंतर्मुखी।

10. बालकों में व्यक्तित्व का मूल्यांकन (Evaluation of Children’s Personality): बाल विकास के अंर्तगत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यता का मापन व मूल्यांकन किया जाता है।

11. बालक-अभिभावक संबंधों का अध्ययन (Study of Parenral Relationship) : बालकों के व्यक्तित्व- निर्धारण और समचित विकास में माता-पिता का र महत्वपूर्ण योगदान होता है। जिन बालकों के संबंध अपने माता-पिता के साथ अच्छ बाल विकास, बालक अभिभावक संबंधों के निर्धारक तत्वों तथा समस्या उनके निराकरण का अध्ययन कर माता-पिता तथा बालकों के बीच अच्छ विकसित करने का प्रयास करता है, जिससे बालक परिवार, समाज व राष्ट्र क नागरिक के रूप में विकसित हो सकें।

बाल विकास के संबंध में परंपरागत विश्वास 0Traditional Belief in Relation to Child Development

बाल विकास के संबंध में प्रचलित परंपरागत विश्वास निम्नलिखित हैं

1. बाल्यावस्था के संबंध में : माता-पिता में बालकों के संबंध में भ्रम यह है कि ‘बालक प्रौढ़ व्यक्ति का ही लघु रूप है।” इस भ्रम के कारण माता-पिता अपने बालकों से यह उम्मीद करते हैं कि वे बाल्यावस्था में ही वयस्कों के समान सभी व्यवहार करने लगे।

बालक जब अपने माता की उम्मीद को पूरा करने में असमर्थ रहते हैं तो उन्हें दंड दिया जाता है उनकी आलोचना और अपमान किया जाता है। इससे बच्चों के मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है, वे हीन भावना के शिकार हो जाते हैं और आत्मविश्वास खो देते हैं, जिससे उनका व्यक्तित्व विकास अवरुद्ध हो जाता है।

 > मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, “बालक ही प्रौढ़ बनता है, किन्तु बाल्यावस्था में वह प्रौढ़ों के समान परिपक्व नहीं होता है।

02. बालकों के जन्म के संबंध में : बालकों के जन्म के संबंध में भी कुछ धारणाएँ प्रमुख हैं। जैसे—कुछ लोग मानते हैं कि शुभ नक्षत्र में पैदा होनेवाला बच्चा भाग्यशाली होता है और उसका जीवन स्वयं के लिए तथा परिवार के लिए मंगलकारी होता है। इस प्रकार जो बच्चा अशुभ नक्षत्र में पैदा होता है वह अमंगलकारी होता है तथा उसका जीवन परिवार तथा स्वयं के लिए कष्टप्रद होता है। – प्रसिद्ध शिक्षाशास्त्री मैडम मारिया मांटेसरी के अनुसार, ‘बालक में सच्ची शक्ति का निवास होता है तथा उसकी मुस्कुराहट ही सामाजिक प्रेम व उल्लास की आधारशिला है।’

3. वंशानुक्रम के संबंध में : वंशानुक्रम के संबंध में एक प्रचलित अवधारणा यह है कि “जैसे माता-पिता होते हैं वैसे ही संतान भी बनती है।’ यदि माता-पिता शिक्षित, अच्छे संस्कारों से युक्त तथा बुद्धिमान हैं, तो संतानें भी सभ्य तथा अच्छे संस्कारों से युक्त होंगी। यदि माता-पिता निरक्षर तथा दुराचारी हैं तो उनकी संतानें भी मूर्ख और

जोड़ के समान नहीं बल्कि गुणनफल के समान है।गैरेट (Garrett) के अनुसार, आनुवंशिकता और वातावरण एक-दूसरे को सहयोग देने वाले प्रभाव हैं और दोनों ही बालक की सफलता के लिए अनिवार्य हैं।

4. गर्भकालीन प्रभावों के संबंध में : कुछ लोगों की यह अवधारणा होती है कि गर्भवती माँ की विभिन्न क्रियाएँ जैसे—भोजन, परंपरागत उपचार, झाड़-फूंक तथा सामाजिक रीति-रिवाज और परंपरा गर्भस्थ शिशु के विकास को प्रभावित करती हैं। – कॉट, डगलस, स्मिथ और बैगिन के शब्दों में, “इस संसार में पैदा होनेवाला प्रत्येक

बालक भगवान का एक नया विचार है तथा सदैव तरोताजा रहने एवं चमकने वाली संभावना है।”

5. यौन-भेद के संबंध में : आदिकाल से ही स्त्री को कमजोर और पुरुष को शक्तिशाली माना जाता है। धार्मिक ग्रंथ भी पुत्री की तुलना में पुत्र-जन्म की श्रेष्ठता को इसलिए भधिक मानते हैं कि पुत्र माता-पिता को मोक्ष की प्राप्ति करायेगा। कुछ माता-पिता बालक और बालिकाओं में भेद मानते है वे बालको को अधिक सुविधाएँ व देते हैं और बालिकाओं को कम । माता पिता की यह भावना बालिकाओं में हीन का विकास करती है और उनके विकास को अवरुद्ध करती है। – फ्रॉबेल का मानना है कि बालक स्वयं विकासोन्मुख होनेवाला मानव पो

बाल अध्ययन विधियाँ

1. क्रमबद्ध चरित्र लेखन विधि (Systematic Biographical Method): इस का प्रयोग अनेक प्राचीन मनोवैज्ञानिको (W. Preyer, K. C. Moore DP G. S. Gall, V. N. Dearrbor) ने किया है।

प्रेयर (1882) ने इस विधि का प्रयोग का का प्रयाग क्रमबद्ध तरीके से किया। उसने अपने ही बालक का चरित्र-लेखन (Biography) तैयार यह चरित्र-लेखन जन्म से तीन वर्ष की अवस्था का था। प्रेयर ने चरित्र-लेखन द्वारा यह जानने का प्रयास कि जन्म के समय कौन-कौन प्राकृतिक क्रियाएँ पायी जाती हैं। ध्वनि और प्रकाश के प्रति बालक कब प्रथम ना अनुक्रिया करता है तथा उसकी ज्ञानेन्द्रियों का विकास किस प्रकार हुआ? अतः इस विधि से बालक के जीवन और व्यवहार की अनेक विशेषताओं का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

इस विधि से अध्ययनकर्ता बालक के व्यवहार का प्रतिदिन निरीक्षण करता है और निरीक्षण के आधार पर व्यवहार की विशेषताओं को क्रमबद्ध ढंग से नोट करके एक रिकार्ड तैयार करता है। यह रिकार्ड चरित्र-लेखन (Biography) कहलाता है। इस रिकार्ड का विश्लेषण करके बालक के व्यवहार के क्रमिक विकास का अध्ययन

क्रमबद्ध चरित्र-लेखन विधि के दोष

(a) इस विधि में बालक के व्यवहार का अध्ययन प्रतिदिन करना होता है, अतः इसका उपयोग उस अवस्था में ठीक हो सकता है जब एक अध्ययनकर्ता बालक के साथ ही रहे। यह एक कठिन कार्य है।

(b) अध्ययनकर्ता बालक के अधिक संपर्क में रहने से बालक के मधुर भावों और क्रियाओं से प्रभावित हो सकता है । इस अवस्था में एकत्रित रिकॉर्ड पक्षपातपूर्ण हो सकता है।

(c) बालकों के प्रति स्नेह-भाव के कारण अक्सर अध्ययनकर्ता बालक के गुणों का । अति-अंकन (Over-Estimation) करता है।

(d) इस विधि द्वारा अध्ययन में अधिक समय व्यय होता है। (e) इस विधि की कोई प्रामाणिक प्रक्रिया विधि नहीं है। निरीक्षण विधि Observation Method यंग (Young, 1954) के अनुसार, “निरीक्षण नेत्रों द्वारा सावधानी से किये गय अध्ययन को सामूहिक व्यवहार, जटिल सामाजिक संस्थाओं और किसी पूर्ण वस्तु को बनाने वाली पृथक इकाइयों का निरीक्षण करने के लिए एक विधि के रूप उपयोग किया जा सकता है।’

मौसर (Moser, 1958) के अनुसार, “निरीक्षण को उचित रूप से वैज्ञानिक पूछताछ की श्रेष्ठ विधि कहा जा सकता है। ठोस अर्थ में— निरीक्षण में कानों और वाणी की अपेक्षा नेत्रों का उपयोग होता है।

गुंडे तथा हाट (Goode & Hatt, 1964) के अनुसार, “विज्ञान निरीक्षण से प्रारंभ होता है और अपने तथ्यों की पुष्टि के लिए अंत में निरीक्षण का सहारा लेता है।” इस विधि का उपयोग छोटे बच्चों और शिशुओं की समस्याओं के समाधान के लिए किया जाता है। बाल मनोविज्ञान की समस्याओं के अध्ययन में इस विधि का सर्वप्रथम उपयोग जर्मनी में हुआ।

अमेरिका में वाटसन (Watson) ने इस विधि का उपयोग बालकों के प्राथमिक संवेगों के अध्ययन में किया।

गेसेल (Gesell) ने इस विधि में ‘मूविंग पिक्चर कैमरा’ का उपयोग किया और व्यवहार चित्रों के विश्लेषण से बालकों के व्यवहार के संबंध में शुद्ध परिणाम प्राप्त किये । इस अध्ययन में उन्होंने एकतरफा दिखायी देने वाला पर्दो (One Way Vision Screens) का उपयोग किया।

इनके द्वारा सिर्फ निरीक्षक बालक को देखते हैं, बालक निरीक्षक को नहीं । निरीक्षण विधि में इस प्रकार एकतरफा दिखायी देनेवाले कैमरे का उपयोग निरीक्षण-कक्ष में किया जाता है।

निरीक्षण विधि के पद Steps of Observation Method

(a) उपयुक्त योजना : निरीक्षण विधि द्वारा अध्ययन करने से पहले निरीक्षणकर्ता को अध्ययन व्यवहार और समस्या के संबंध में उपयुक्त योजना बना लेनी चाहिए। यह निश्चय कर लेना चाहिए कि किन लोगों का निरीक्षण करना है और किस प्रकार के व्यवहार का निरीक्षण करना है। निरीक्षण के लिए क्षेत्र, समय, उपकरण आदि के संबंध में पहले ही योजना बना लेनी चाहिए। पहले योजना बना लेने से यह सुनियोजित हो जाता है और इससे शुद्ध आँकड़े के संकलन में सहायता मिलती है।

(b) व्यवहार का निरीक्षण : निरीक्षण करते समय निरीक्षणकर्ता व्यवहार के उन पक्षों का निरीक्षण अधिक ध्यान से करता है, जो उसकी अध्ययन समस्या से संबंधित हैं एवं पूर्व योजना के अनुसार हैं। वह निरीक्षणों के साथ-साथ विभिन्न उपकरणों की सहायता से व्यवहार को भी नोट करता है।

(c) व्यवहार को नोट करना : निरीक्षणकर्ता व्यवहार को नोट करने के लिए भी उपकरणों का उपयोग करता है। जैसे—मूवी कैमरे के उपयोग से किसी भी प्रकार के व्यवहार के निरीक्षण को सरलता से नोट किया जा सकता है, व्यवहार से संबंधित संवादों को टेपरिकार्डर की सहायता से नोट किया जा सकता है।

(d) विश्लेषण : समस्या से संबंधित व्यवहारों के निरीक्षणों को नोट करने के बाद अध्ययनकर्ता प्राप्त निरीक्षणों को यदि संभव होता है तो अंकों में बदलता है और प्राप्त अकों की सूची बनाने का कार्य करता है और फिर विभिन्न सांख्यिकीय विधियों के आधार पर आँकड़ों का विश्लेषण करता है।

(e) व्याख्या और सामान्यीकरण : निरीक्षण व्यवहार का विश्लेषण करने के व्यवहार की व्याख्या की जाती है। यदि संभव होता है तो व्यवहार की व्याख्या सिद्धांतों के आधार पर की जाती है अथवा व्यवहार के कारणों पर प्रकाश द प्रयास किया जाता है। समान्य रूप में देखा जाता है कि नमना (Sarna परिणाम कहाँ तक सामान्य जनसंख्या पर लागू होते हैं।

निरीक्षण विधि के प्रकार Types of Observation Method

(सरल अथवा अनियंत्रित निरीक्षण विधि (Simpler Uncontrolled Observe Method) : यंग के अनुसार, “अनियंत्रित निरीक्षण में हमें वास्तविक जीवन परिस्थि िक की सूक्ष्म परीक्षा करनी होती है जिसमें विशुद्धता के यंत्रों के प्रयोग का या नही घटना की सत्यता की जाँच का कोई प्रयास नहीं किया जाता है। जब किसी पार का निरीक्षण प्राकृतिक परिस्थितियों में किया जाय तथा प्राकृतिक परिस्थितियों पर कोई स बाह्य दबाव न डाला जाये तो इस प्रकार के निरीक्षण को अनियंत्रित निरीक्षण कहते हैं। स

व्यवस्थित अथवा नियंत्रित निरीक्षण विधि (Systematic or Controlled – Observation Method) जब निरीक्षणकर्ता और घटना दोनों पर नियंत्रण करके अध्ययन किया जाये तो इस प्रकार की निरीक्षण विधि को व्यवस्थित निरीक्षण विधि कहते हैं।

(c) सहभागी निरीक्षण विधि (Participant Observation Method): इस विधि में निरीक्षणकर्ता जिस समूह के व्यक्तियों के व्यवहार का निरीक्षण करना चाहता है वह उस समूह में जाकर एक सदस्य के रूप में घुल-मिल जाता है और फिर उनके व्यवहार : का अध्ययन करता है। इस विधि द्वारा छोटे समूहों का अध्ययन सरलता से किया जा सकता है। निरीक्षण विधि का महत्व Importance of Observation Method

(a) निरीक्षण विधि का उपयोग उस समय अधिक होता है जब किसी अध्ययनकर्ता : को इस विधि के आधार पर परिकल्पनाएँ (Hypothesis) बनानी हो ।

(b) इस विधि की सहायता से पारस्परिक संबंधों का अध्ययन करना सरल होता है। (c) अन्य विधियों की अपेक्षा यह एक सरल विधि है। (d) इस विधि द्वारा प्राप्त परिणाम अधिक विश्वसनीय होता है।

(e) नियंत्रित और वैज्ञानिक निरीक्षणों द्वारा प्राप्त परिणाम वस्तुनिष्ठ होता है । क्याकि इस विधि का उपयोग जब वैज्ञानिक तरीके से किया जाता है तब व्यवहार संबंधी ‘क्या, ‘कैसे’ और ‘क्यों’ इत्यादि प्रश्नों का निश्चित उत्तर प्राप्त होता है।

(1) इस विधि में समस्याओं का अध्ययन वैज्ञानिक निरीक्षणों द्वारा किया जाता है जिसके कारण प्राप्त परिणाम विश्वसनीय, शुद्ध और सार्वभौमिक (Universal) हात ,

3. प्रयोगात्मक विधि (Experimental Method): यह विधि पूर्ण रूप से वज्ञान विधि है । बालकों की प्रेरणा, परिपक्वता, अधिगम, अनुबंधन, विभेदीकरण तथा सवाल अनक्रियाओं इत्यादि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन इस विधि द्वारा किया गया।

जहोदा के अनुसार, ‘प्रयोग परिकल्पना के परीक्षण की एक विधि है।

फेस्टिगर के अनुसार, ‘प्रयोग का मूल आधार स्वतंत्र चर में परिवर्तन करने से परतंत्र चर पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना है।”

इस विधि में दो प्रकार के चर होते हैं स्वतंत्र चर और आश्रित चर | प्रयोगात्मक विधि के चरण Steps of Experimental Method

प्रयोगात्मक विधि के चरण निम्नलिखित हैं-

(a) समस्या (Problem): किसी भी प्रयोग को करने से पहले आवश्यक है कि कोई समस्या हो। टाउनसेंड’ (Townsend) के अनुसार, “समस्या तो समाधान के लिए एक प्रस्तावित प्रश्न है।”

(b) संबंधित साहित्य का अध्ययन और उपकल्पना निर्माण : समस्या को चुनने और उसके कथन के बाद प्रयोगकर्ता जिस समस्या को चुनता है उस समस्या से संबंधित साहित्य का अध्ययन करता है।

> साहित्य अध्ययन के द्वारा प्रयोगकर्ता यह जानने का प्रयास करता है कि अब तक समस्या पर कितने व्यक्तियों ने क्या-क्या प्रयोगात्मक अध्ययन किये हैं और उन्हें क्या और कितने विश्वसनीय प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

> टाउनसेण्ड के अनुसार, “परिकल्पना अनुसंधान समस्या के लिए एक प्रस्तावित उत्तर है।” > मैक्गुइगन के अनुसार “परिकल्पना दो या अधिक चरों के कार्यक्षम संबंधों का परीक्षण करने योग्य कथन है।” उपकल्पना बना लेने से प्रयोगकर्ता के प्रयोग की समस्या सुनिश्चित होती है।

(c) प्रयोज्य (Subject) : उपकल्पना निर्धारण के बाद प्रयोज्यों का चयन किया जाता है। प्रयोज्य से अभिप्राय उनलोगों से है जिन पर प्रयोग किया जाना है। एक प्रयोग में इनकी संख्या एक भी हो सकती है और अधिक भी हो सकती है। प्रायः एक से अधिक ही होती है।

(d) चर और प्रयोगात्मक अभिकल्प (Variables and Design of the Experiment): करलिंगर के अनुसार, “चर वह गुण है जिसके विभिन्न मूल्य हो सकते हैं। उदाहरण के लिए प्रकाश, ध्वनि, तापक्रम, शोरगुल इत्यादि किसी-न-किसी प्रकार के चर हैं।’ > टाउनसेंड (Townsend) के अनुसार, “आश्रित चर वह कारक है जो प्रयोग द्वारा स्वतंत्र चर के प्रदर्शन पर प्रदर्शित हो, हटाने पर अदृश्य हो तथा मात्रा में परिवर्तन होने पर परिवर्तित हो जाये।

(e) उपकरण तथा सामग्री (Apparatus and Materials): अध्ययनकर्ता प्रयोग में जिन उपकरणों का उपयोग करता है उनका संक्षेप में विवरण देता है। यदि प्रयोग के लिए वह किसी नये उपकरण को विकसित करता है तो वह उसका विस्तृत वर्णन देता है।

(O नियंत्रण (Controls): समस्या से संबंधित साहित्य का अध्ययन करके तथा विशेषज्ञों की राह और अपने अनुभव के आधार पर वह यह निश्चित करता है कि समस्या को कौन कौन से कारक अथवा चर प्रभावित कर रहे हैं। समस्या को प्रभावित

करने वाले कारक कई क्षेत्रों से संबंधित हो सकते हैं। जैसे प्रयोज्यों से संबंधि वातावरण संबंधी कारक, उपकरण से संबंधित कारक इत्यादि ।

(g) निर्देश तथा विधि (Instructions and Procedure): नियंत्रण को कर लेने के बाद प्रयोगकर्ता प्रयोज्यों अथवा प्रयोज्य के लिए निर्देश निश्चित कि प्रयोज्य के प्रयोग से संबंधित कार्य लेने के लिए क्या क्या निर्देश देने का

(h) परिणाम (Results): पूर्व निश्चित प्रयोग के अनुसार आँको (Collection) करने के बाद आँकड़ों का वर्गीकरण करके सूची बनाने का कार्य फिर प्रयोग अभिकल्प (Design) के अनुसार उच्च सांख्यिकीय विधियों द्वारा जा विश्लेषण करते हैं और सांख्यिकीय विश्लेषण के आधार पर परिणाम ज्ञात कर लेते है |

i) व्याख्या तथा सामान्यीकरण (Discussion and Generalization): आँकड़ों आधार पर प्राप्त परिणामों की व्याख्या करने से पूर्व सर्वप्रथम प्राप्त परिणामों के पर परिकल्पना की जाँच करते हैं और निष्कर्ष निकाल लेते हैं। फिर अपने निष्का व्याख्या विभिन्न सिद्धान्तों के आधार पर करते हैं।

प्रयोगात्मक विधि की उपयोगिता Importance of Experimental Method

(a) कार्य और कारण संबंधों (Cause and Effect Relations) का अध्ययन इस मा विधि द्वारा जितनी शुद्धता से किया जाता है, उतना दूसरी विधि द्वारा नहीं किया जा सकता है।

(b) यह विधि अन्य विधियों की अपेक्षा अधिक शुद्ध और संक्षिप्त है, क्योंकि इसमें एक व्यवहार को प्रभावित करने वाले अनेक कारकों को नियंत्रित कर कार्य और कारण के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है।

(c) यह विधि परिकल्पना के परीक्षण की श्रेष्ठ विधि है।

(d) अन्य विधियों की अपेक्षा यह सर्वाधिक वैज्ञानिक विधि (Most Scientific Method) है।

(e) इस विधि द्वारा अध्ययन के आधार पर प्राप्त परिणाम विश्वसनीय, वैध तथा सार्वभौमिक होते हैं।

4. समकालीन एवं दीर्घकालीन अध्ययन प्रणालियाँ Cross-Sectional and Longitudinal Approaches

बाल मनोविज्ञान की विकासात्मक समस्याओं का अध्ययन करने के लिए इन विायच द्वारा दो प्रणालियों का उपयोग करते हैं—समकालीन प्रणाली एवं दीर्घकालीन प्रणाला

समकालीन अध्ययन प्रणाली (Cross-Sectional Approach): इस अध्ययन में व्यवहार के विभिन्न पहलुओं के विकास के अध्ययन में सर्वप्रथम भिन्न-भिन्न अवस्था के बालकों के समूहों को आदर्श विधियों की सहायता से चुना जाता है। फिर अध समस्या से संबंधित शारीरिक व मानसिक योग्यता वाले विकास के क्रमों का इन विा स्तर के बालकों में निरीक्षण किया जाता है। अंत में आँकडों के औसत मानो कम पर विकास के क्रम को ज्ञात कर लिया जाता है।

उदाहरण के लिए, यदि हम अध्ययन करना चाहते हैं कि भाषा का विकास प्रकार होता है तो सर्वप्रथम भिन्न भिन्न आयु स्तर के बालकों को चुनना होगा|

समकालीन अध्ययन प्रणाली की उपयोगिता

इस प्रणाली की महत्वपूर्ण विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(a) इस प्रणाली द्वारा अध्ययनकर्ता बालक के संपूर्ण जीवन में घटित होनेवाले विकासात्मक परिवर्तनों का अध्ययन कम समय और कम खर्च में कर सकता है। ___(b) इस प्रणाली में अध्ययनकर्ता को विकासात्मक परिवर्तनों का वर्षों तक इंतजार नहीं करना पड़ता है। __(c) इस प्रणाली में विभिन्न आयु-स्तर के बालकों के क्रमिक विकास का तुलनात्मक -अध्ययन भी संभव है।

(d) इस प्रणाली में अध्ययनकर्ता को किसी भी अगली (Next) विकास की अवस्था का वर्षों तक इंतजार नहीं करना पड़ता है। _दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली (Longitudinal Approach) : इस प्रणाली में एक ही आयु-स्तर के बालक समूह को चुना जाता है, फिर समूह के बालकों की आयु के बढ़ने के साथ-साथ उनकी मानसिक और शारीरिक योग्यताओं के विकास-क्रम का निरीक्षण और मापन किया जाता है और अंत में इस प्रकार प्राप्त आँकड़ों के आधार पर विकास-क्रम को ज्ञात कर लिया जाता है।

> इस प्रणाली की सहायता से शारीरिक ऊँचाई, शारीरिक वजन, बुद्धिलब्धि, भाषा का विकास, सामाजिक और संवेगात्मक विकास इत्यादि से संबंधित समस्याओं का अध्ययन किया जाता है। उदाहरण के लिए—यदि हम बालकों में भाषा के विकास का अध्ययन करना चाहते हैं, तो एक वर्ष की आयु के केवल 100 बच्चे को चुनकर प्रत्येक 6 महीने पश्चात उनके भाषा-विकास का निरीक्षण और मापन करेंगे। दीर्घकालीन अध्ययन प्रणाली के उपयोग |

(a) इस विधि में बच्चों के एक ही समूह का अध्ययन चलता रहता है, अतः इस प्रणाली में नमूने त्रुटियों (Sampling Errors) की संभावना नहीं रहती है और न ही प्रतिदर्श की समस्या रहती है।

(b) इस प्रणाली की सहायता से व्यक्तिगत स्तर पर प्रत्येक बालक का अध्ययन होता रहता है और समूह स्तर पर भी अध्ययन होता रहता है।

(c) इस विधि में विकास प्रक्रियाओं का अनुमानात्मक ज्ञान प्राप्त न होकर शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता है।

(d) विकास प्रक्रियाओं के संबंध का अध्ययन करना अपेक्षाकृत सरल होता है।

(e) बालक के व्यवहार विकास पर पड़ने वाले सामाजिक सांस्कृतिक या वातावरण संबंधी परिवर्तनों के प्रभाव का अध्ययन इस प्रणाली द्वारा किया जा सकता है।

(f) किसी निश्चित अवधि में बालक के विकास के गण तथा मात्रा आदि का ज्ञान नी इस प्रणाली द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

5. साक्षात्कार विधि (Interview Method) मनोविज्ञान में साक्षात्कार विधि का उपयोग बहुत दिनों से होता रहा है। आधुनिक युग में इस विधि का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इस विधि में साक्षात्कारकर्ता और सूचनादाता दोनों ही आमने सामने बैठते हैं तथा साक्षात्कारकर्ता सूचनादाता से अध्ययन समस्या के संबंध में सूचना प्राप्त करने का प्रयास करता है।

आइजनेक के अनुसार, ‘साक्षात्कार वह साधन है जिसके द्वारा मौखिक अथवा लिखित सूचना प्राप्त की जाती है।”

साक्षात्कार विधि के प्रकार Type of Interview Method

(a) प्रामाणिक साक्षात्कार विधि (Standardized or Structured Interview Method) साक्षात्कार की इस विधि द्वारा अध्ययन करते समय अध्ययन समस्या के संबंध में विभिन्न प्रकार के प्रश्न पहले से ही तैयार कर लिये जाते हैं। अध्ययन इकाइयों से पूर्व निश्चित क्रम के अनुसार ही प्रश्नों को उसी क्रम में पूछा जाता है।

(b) अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि (Unstructured or Uncontrolled Interview Method): अप्रामाणिक साक्षात्कार में अध्ययन समस्या के संबंध में प्रश्न पहले से ही तैयार नहीं किये जाते हैं और न ही प्रश्नों की संख्या निश्चित होती है। अध्ययनकर्ता अध्ययन समस्या के संबंध में कोई भी प्रश्न पूछने के लिए स्वतंत्र होता है।

> अप्रामाणिक साक्षात्कार विधि अधिक विश्वसनीय नहीं होती है फिर भी इस विधि द्वारा प्रयोज्य (Subject) को समझने का अधिक अवसर रहता है, क्योंकि इसमें प्रश्न किसी भी प्रकार के पूछ सकते हैं। साक्षात्कार विधि का महत्व Importance of Interview Method

(a) ऐसे वस्तु जिन्हें हम देख नहीं सकते हैं उनका अध्ययन साक्षात्कार विधि द्वारा किया जा सकता है।

(b) बाल मनोविज्ञान की ऐसी घटनाएँ जिनका वैयक्तिक रूप से निरीक्षण नहीं कर सकते हैं। ऐसी घटनाओं का अध्ययन इस विधि द्वारा किया जा सकता है।

(c) इस विधि में यदि अध्ययनकर्ता प्रशिक्षित होता है और उपयुक्त नियंत्रण के साथ दिये हुए सामग्री एकत्र करता है, तो उससे विश्वसनीय परिणाम प्राप्त होते हैं।

प्रश्नावली विधि (Questionnaire Method): मनोविज्ञान के क्षेत्र में जब अध्ययन इकाइयों का क्षेत्र विस्तृत होता है तथा सूचनादाताओं की संख्या अधिक होती है, तब इस विधि का प्रयोग किया जाता है।

गुडे तथा हाट के अनुसार, ‘प्रश्नावली एक प्रकार का उत्तर प्राप्त करने का साधन है, जिसका स्वरूप ऐसा होता है कि उत्तरदाता उसकी पूर्ति स्वयं करता है।”

> प्रश्नावली तैयार करते समय निम्नलिखित तथ्यों का ध्यान रखना चाहिए :

प्रश्नावली का आकार या प्रश्नों की संख्या बहुत अधिक नहीं होनी चाहिए।

* प्रश्न लंबे और कठिन नहीं होने चाहिए।

* प्रश्न स्पष्ट होने चाहिए।

* प्रश्न, प्रश्नावली में पहले सरल फिर कठिन होने चाहिए।

रुचिपूर्ण या ध्यान आकर्षित करने वाले प्रश्न होने चाहिए।

प्रश्नावली विधि के प्रकार Types of Questionnaire Method

(a) अप्रतिबंधित प्रश्नावली (Open Questionnaire) यह प्रश्नावली वह है जिसमें पुचनादाता पर कोई प्रतिबंध नहीं होता है और वह खुलकर उत्तर दे सकता है उदाहरण के लिए आपके विद्यालय की क्या क्या सीमाएँ हैं ? । आपके विद्यालय में किन किन परिवर्तनों की तुरन्त आवश्यकता है?

(b) प्रतिबंधित प्रश्नावली (Closed Questionnaire) ऐसी प्रश्नावली जिसमें सूचनादाता के किसी चीज के जवाब पर प्रतिबंध होता है। उसे केवल चुने हुए उत्तरों में से ही उत्तर देना होता है। उदाहरण के लिए :

शिक्षक से भय लगता है ? हाँ/नहीं

(c) चित्र प्रश्नावली (Pictorial Questionnaire) इस प्रकार की प्रश्नावली में प्रश्न चित्रों के रूप में होते हैं। ।

प्रश्नावली विधि की उपयोगिताएँ (Advantages of Questionnaire Method) इस विधि की उपयोगिता निम्न प्रकार से है। इस विधि द्वारा कम खर्च और कम समय में अधिक से अधिक अध्ययन किया जा सकता है, क्योंकि प्रश्नावली एक साथ कई प्रयोज्यों को भरने के लिए की जा सकती है। 7. परीक्षण विधियाँ या मनोमिति विधियाँ

Test Methods or Psychometric Methods > बेस्ट के अनुसार, ‘मनोवैज्ञानिक परीक्षण एक उपकरण है जिसे व्यवहार के किसी पक्ष के मापन एवं गणना के लिए तैयार किया जाता है।

> मनोवैज्ञानिक परीक्षण वह उपकरण है जिसे विशेषज्ञ वैज्ञानिक ढंग से तैयार करते हैं और जिसकी सहायता से व्यवहार के कुछ पहलुओं का मापन करते हैं।

मनोवैज्ञानिक परीक्षणों (Psychological Tests) के द्वारा भी व्यक्तियों के व्यवहार के विभिन्न पहलुओं को मापा जाता है। वह परीक्षण मानकीकृत (Standardized),

वस्तुनिष्ठ (Objective) विश्वसनीय (Reliable) तथा वैध (Valid) होते हैं।

8. वैयक्तिक इतिहास विधि Case History Method

बीसेंज तथा बीसेंज (Besange & Besange) के अनुसार, “वैयक्तिक इतिहास अध्ययन विधि एक प्रकार की गुणात्मक व्याख्या है, जिसमें एक व्यक्ति, एक परिस्थिति या एक संस्था का अति सावधानी से पूर्ण अध्ययन किया जाता है।”

> शॉ (Shaw) के अनुसार, ‘वैयक्तिक इतिहास विधि एक विधि, एक संस्था, एक समुदाय या समूह हो सकता है जिसे अध्ययन की इकाई माना जाता है।”

यह विधि मानव व्यवहार का उसके संपूर्ण ढाँचे में अध्ययन तथा उपकल्पनाओं के निर्माण में सहायक वैयक्तिक परिस्थितियों के विश्लेषण एवं तुलना से संबंधित है।

वैयक्तिक इतिहास विधि के लाभ Advantages of Case History Method

इस विधि के लाभ निम्नलिखित हैं-

> इस विधि द्वारा जब समस्या का अध्ययन किया जाता है, जो गहन अध्ययन के आधार पर सामान्यीकरण सरलता से किया जा सकता है।

> इस विधि की सहायता से विचलित तथ्यों को ढूँढ़ा जा सकता है। > इस विधि द्वारा अध्ययन में समस्या के संबंध में विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है।

समाजमिति विधि (Sociometric Method) ब्रानफेनब्रेनर (Bronfenbrenner) के अनुसार, ‘समूह में व्यक्तियों के मध्य सीमा और स्वीकृति एवं अस्वीकृति को माप कर सामाजिक स्थिति, ढाँचों के विकास को ज्ञात करने, वर्णन करने और मूल्यांकन करने की एक विधि है।”

> इस विधि के द्वारा एक समूह के सदस्यों के बीच पायी जाने वाली स्वीकृति और

अस्वीकृति, आकर्षण और विकर्षण को मापा जाता है । इस विधि का उपयोग समाज मनोविज्ञान में और बाल मनोविज्ञान में अत्यधिक किया जाता है।

प्रक्षेपण विधियाँ (Projective Technique) प्रक्षेपण शब्द का उपयोग मनोविज्ञान में दो अर्थों में हुआ है। इस शब्द का प्रथम उपयोग मानसिक मनोरचनाओं के रूप में हुआ है। इस शब्द का द्वितीय उपयोग प्रक्षेपण विधियों के रूप में हुआ है। प्रक्षेपण शब्द का मानसिक मनोरचनाओं के रूप में उपयोग का श्रेय फ्रायड को है।

प्रक्षेपण विधि के उपयोग

(a) इन विधियों के द्वारा बालकों में समझ तथा अचेतन (Unconscious) की अभिप्रेरणाओं और व्यक्तित्व संरचना का अध्ययन किया जा सकता है।

(b) इन अध्ययन विधियों के द्वारा व्यक्ति के संवेगों, अभिप्रेरणाओं, अनुभवों, विचारों और अभिवृतियों का अध्ययन विश्वसनीय ढंग से किया जा सकता है।

(c) इन विधियों की सहायता से अचेतन स्तर तथा आंतरिक विचारों, भावनाओ और ग्रंथियों का अध्ययन किया जा सकता है।

(d) इन विधियों का उपयोग सामान्य तथा असामान्य दोनों प्रकार के व्यक्तित्व पर किया जा सकता है।

(e) इन विधियों की सहायता से व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व को सामान्य विश्वसनीयत के साथ समझा जा सकता है।

परीक्षोपयोगी तथ्य

बाल मनोविज्ञान, मनोविज्ञान की वह शाखा है जो प्राणी के विकास का अध्ययन जन्म से परिपक्वावस्था तक करती है।

बाल विकास व्यवहारों का विज्ञान है जो बालक के व्यवहार का अध्ययन गर्भावस्थ से मृत्युपर्यन्त करता है।

बाल मनोविज्ञान बालक की क्षमताओं का अध्ययन करता है।

बाल विकास क्षमताओं के विकास की दशा’ का अध्ययन करता है।

बाल विकास विकास क्रम की सभी अवस्थाओं जैसे बाल्यावस्था, शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक बौद्धिक इत्यादि का अध्ययन करता है।

बाल विकास के अंतर्गत बाल विकास को प्रभावित, करनेवाले तत्वों का अध्ययन किया जाता है। जैसे—परिपक्वता और शिक्षण, वंशानुक्रम और वातावरण। बाल विकास के अंतर्गत बालकों के जीवन विकास क्रम में होनेवाली असामान्यताओं और विकृतियों का अध्ययन किया जाता है।  बाल विकास और बाल मनोविज्ञान की देन मनोचिकित्सा है।

बाल विकास बालकों की रुचियों का अध्ययन कर उन्हें शैक्षिक और व्यावसायिक निर्देशन प्रदान करता है।

बाल विकास बालकों के बौद्धिक विकास की विभिन्न मानसिक प्रक्रियाओं जैसे अधिगम, कल्पना, चिंतन, तर्क, स्मृति तथा प्रत्यक्षीकरण इत्यादि का अध्ययन करता है।

बाल विकास के अन्तर्गत बालकों की विभिन्न शारीरिक और मानसिक योग्यताओं का मापन व मूल्यांकन किया जाता है।

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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Vikas ki Avdharna Evam Iska Adhigam se Sambandh

अभ्यर्थियो का आज की पोस्ट में UPTET & CTET Book and Notes Paper 1 and Paper 2 Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 1 विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से सम्बन्ध Study Material के साथ PDF in Hindi Free Download करने जा रहे है | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book के सभी Chapter Topic Wise आपको रोजाना शेयर किये जायेंगे जिसे आप Study Material के रूप में पढ़ भी सकते है और PDF के रूप में Free Download भी कर सकते है |

UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Vikas ki Avdharna Evam Iska Adhigam se Sambandh

विकास की अवधारणा एवं इसका अधिगम से संबंध | UPTET Chapter 1 in Study Material in Hindi

विकास Development >

विकास एक सार्वभौमिक (Universal) प्रक्रिया है, जो जन्म से लेकर जीवनपर्यन्त तक अविराम होता रहता है। विकास केवल शारीरिक वृद्धि की ओर ही संकेत नहीं करता बल्कि इसके अंतर्गत वे सभी शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और संवेगात्मक परिवर्तन सम्मिलित रहते हैं जो गर्भकाल से लेकर मृत्युपर्यन्त तक निरंतर प्राणी में प्रकट होते रहते हैं। विकास को ‘क्रमिक परिवर्तनों की श्रृंखला’ भी कहा जाता है। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है तथा पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है। प्रौढ़ावस्था में पहुँचकर मनुष्य स्वयं को जिन गुणों से संपन्न पाता है वे विकास की प्रक्रिया के ही परिणाम होते हैं। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “विकास केवल अभिवृद्धि तक ही सीमित नहीं है वरन् वह ‘व्यवस्थित’ तथा ‘समनुगत’ (Coherent Pattern) परिवर्तन है, जिसमें कि प्रौढ़ावस्था के लक्ष्य की ओर परिवर्तनों का प्रगतिशील क्रम निहित रहता है, जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताएँ व योग्यताएँ प्रकट होती हैं।”

‘व्यवस्थित’ (Orderly) शब्द का तात्पर्य यह है कि विकास की प्रक्रिया में होनेवाले परिवर्तनों में कोई-न-कोई क्रम अवश्य होता है और आगे वाले परिवर्तन पूर्व परिवर्तन पर आधारित होता है। ‘समनुगत’ (Coherent Pattern) शब्द का अर्थ है परिवर्तन संबंधविहीन नहीं होते हैं उनमें आपस में परस्पर संबंध होता है। मुनरो (Munro) के अनुसार, “विकास परिवर्तन-शृखंला की वह अवस्था है जिसमें बच्चा भ्रूणावस्था से लेकर प्रौढ़ावस्था तक गुजरता है, विकास कहलाता है।” विकास की प्रक्रिया में होनेवाले परिवर्तन वंशानुक्रम से प्राप्त गुणों तथा वातावरण दोनों का ही परिणाम होता है। विकास की प्रक्रिया में होनेवाले शारीरिक परिवर्तनों को आसानी से देखा जा सकता है किन्तु अन्य दिशाओं में होनेवाले परिवर्तनों को समझने में समय लग सकता है।

विकास के रूप Forms of Development

विकास की प्रक्रिया चार प्रकार के होते हैं-

(a) आकार में परिवर्तन (Change in Size): शारीरिक विकास-क्रम में निरंतर शरीर के आकार में परिवर्तन होता रहता है। आकार में होनेवाले परिवर्तनों को आसानी से देखा जा सकता है। शारीरिक विकास-क्रम में आय-वृद्धि के साथ-साथ शरीर के आकार व भार में निरंतर परिवर्तन होता रहता है।

b) अनपात में परिवर्तन (Change in Proportion): विकास-क्रम में पहले में परिवर्तन होता है लेकिन यह परिवर्तन आनुपातिक होता है। प्राणी अंग विकसित नहीं होते हैं और न ही उनमें एक साथ परिपक्वता शाही अंगों के विकास का एक निश्चित अनुपात नहीं होता है।

उदाहरण—शैशवावस्था में बालक स्वकेंद्रित होता है जबकि बाल आते वह अपने आस-पास के वातावरण तथा व्यक्तियों में रुचि लेने का

का होता है जबकि बाल्यावस्था के आते

नों का समाप्त हो जाना बचपन की

क) परानी रूपरेखा में परिवर्तन (Disappearance of Old Features): प्रार विकास-क्रम में नवीन विशेषताओं का उदय होने से पूर्व पुरानी विशेषता होता रहता है। उदाहरण-बचपन के बालो और दॉतो का समाप्त हो जाना अस्पष्ट ध्वनियाँ, खिसकना, घुटनों के बल चलना, रोना, चिल्लाना इत्यादि हो जाते हैं।

(d) नये गुणों की प्राप्ति (Aquisition of New Features) : विकास-क्रम में जा एक तरफ पुरानी रूपरेखा में परिवर्तन होता है वही उसका स्थान नये गण प्राप्त कर हैं। जैसे कि स्थायी दाँत निकलना, स्पष्ट उच्चारण करना, उछलना-कूदना और भागने दौड़ने की क्षमताओं का विकास इत्यादि विकास-क्रम में नये गुण के रूप में प्राप्त होते हैं। विकास के सिद्धांत Principles of Development

विकास सार्वभौमिक तथा निरंतर चलती रहनेवाली क्रिया है, लेकिन प्रत्येक प्राणी का विकास निश्चित नियमों के आधार पर ही होता है। इन नियमों के आधार पर अनेक शारीरिक व मानसिक क्रियाएँ विकसित होती रहती हैं। विकास के कुछ प्रमुख नियम निम्नलिखित हैं

_____ 1. विकास का एक निश्चित प्रतिरूप होता है (Development Follows a Certain Pattern): मुनष्य का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है—मस्तकाधोमुखी दिशा तथा निकट दूर दिशा।

मस्तकाधोमुखी विकास क्रम (Cephalocaudal Development Sequence)में शारीरिक विकास ‘सिर से पैर की ओर’ होता है। भ्रूणावस्था से लेकर बाद की सभी अवस्थाओं में विकास का यही क्रम रहता है। निकट दूर विकास क्रम (Proximodistal Development Sequence) मे शारीरिक विकास पहले केंद्रीय भागों में प्रारंभ होता है तत्पश्चात केंद्र से दूर के भागों में होता है। उदाहरण के लिए पेट और धड़ में क्रियाशीलता जल्दी आती है।

2. विकास सामान्य से विशेष की ओर होता है (Development Proceeds form General to Specific): विकास-क्रम में कोई भी बालक पहले सामान्य क्रियाएँ करता है तत्पश्चात् विशेष क्रियाओं की ओर अग्रसर होता है। विकास का यह नियम शारारिक, मानसिक, संवेगात्मक, सामाजिक सभी प्रकार के विकास पर लागू होता है।

3.विकास अवस्थाओं के अनुसार होता है (Development Proceeds by stages सामान्य रूप से देखने पर ऐसा लगता है कि बालक का विकास रुक-रुक कर हा है परंतु वास्तव में ऐसा नहीं होता है। उदाहरण के लिए जब बालक के दूध क. निकलते हैं तो ऐसा लगता है कि एकाएक निकल आये परंतु नींव गर्भावस्था क माह में पड़ जाती है और 5-6 माह में आते हैं।

4. विकास में व्यक्तिगत विभेद सदैव स्थिर रहते हैं (Individual Differences Ramain Constant in Development): प्रत्येक बालक की विकास दर तथा स्वरूपी में व्यक्तिगत विभिन्नता पायी जाती है। उदाहरण के लिए, जिस बालक में शारीरिक कियाएँ जल्दी उत्पन्न होती हैं वह शीघ्रता से बोलने भी लगता है जिससे उसके भीतर सामाजिकता का विकास तेजी से होता है । इसके विपरीत जिन बालकों के शारीरिक विकास की गति मंद होती है उनमें मानसिक तथा अन्य प्रकार का विकास भी देर से होता है।

अतः प्रत्येक बालक में शारीरिक व मानसिक योग्यताओं की मात्रा भिन्न-भिन्न होती है। इस कारण समान आयु के दो बालक व्यवहार में समानता नहीं रखते हैं।

5. विकास की गति में तीव्रता व मंदता पायी जाती है (Development Proceeds in a Spiral Fashion): किसी भी प्राणी का विकास सदैव एक ही गति से आगे नहीं बढ़ता है, उसमें निरंतर उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। उदाहरण के लिए विकास की अवस्था में यह गति तीव्र रहती है उसके बाद में मंद पड़ जाती है। ____6. विकास में विभिन्न स्वरूप परस्पर संबंधित होते हैं (Various Forms are InterRelated in Development)

7. विकास परिपक्वता और शिक्षण का परिणाम होता है (Development Results from Maturation and Learning): बालक का विकास चाहे शारीरिक हो या मानसिक वह परिपक्वता व शिक्षण दोनों का परिणाम होता है। > ‘परिपक्वता’ से तात्पर्य व्यक्ति के वंशानुक्रम द्वारा शारीरिक गुणों का विकास है।

बालक के भीतर स्वतंत्र रूप से एक ऐसी क्रिया चलती रहती है, जिसके कारण उसका शारीरिक अंग अपने-आप परिपक्व हो जाता है। उसके लिए वातावरण से सहायता नहीं लेनी पड़ती है। शिक्षण और अभ्यास परिपक्वता के विकास में सहायता प्रदान करते हैं। यह सीखने के लिए परिपक्व आधार तैयार करते है और सीखने के द्वारा बालक के व्यवहार में प्रगतिशील परिवर्तन आते हैं।

8. विकास एक अविराम प्रक्रिया है (Development is Continuous Process): विकास एक अविराम प्रक्रिया है, प्राणी के जीवन में यह निरंतर चलती रहती है। उदाहरण के लिए-शारीरिक विकास गर्भावस्था से लेकर परिपक्वावस्था तक निरंतर चलता रहता है परंतु आगे चलकर वह उठने-बैठने, चलने-फिरने और दौड़ने-भागने की क्रियाएँ करने लगता है।

विकास को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting of Development

बालक के विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित है-

  1. वशानुक्रम (IHeredity) डिंकमेयर (Dinkmeyer; 1965) के अनुसार, “वंशानुगत कारक वे जन्मजात विशेषताएँ हैं जो बालक में जन्म के समय से ही पायी जाती है। प्राणी के विकास में वंशानुगत शक्तियाँ प्रधान तत्व होने के कारण प्राणी के मौलिक स्वभाव और उनके जीवन चक्र की गति को नियन्त्रित करती हैं।” 7/प्राणी का रंग, रूप, लंबाई, अन्य शारीरिक विशेषताएँ, बुद्धि, तर्क, स्मृति तथा अन्य मानसिक योग्यताओं का निर्धारण वंशानुक्रम द्वारा ही होता है।

माता के रज तथा पिता के वीर्य कणों में बालक का वंशानक्रम निखि गर्भाधान के समय जीन (Genes) भिन्न भिन्न प्रकार से संयक्त होते । वंशानक्रम के वाहक हैं। अतः एक ही माता पिता की संतानों में भिन्नता देती है, यह भिन्नता का नियम (Law of Variation) है। प्रतिगमन के नियम (Law of Regression) के अनुसार, प्रतिभाशाली माता

की संतानें दुर्बल बुद्धि के भी हो सकते हैं। 02. वातावरण (Environment): वातावरण में वे सभी बाह्य शक्तियों परिस्तिथियाँ आदि सम्मिलित हैं, जो प्राणी के व्यवहार, शारीरिक और मानसिक को प्रभावित करती हैं। अन्य क्षेत्रों के वातावरण की अपेक्षा बालक के घर का वादा उसके विकास को सर्वाधिक महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।

3. आहार (Nutrition): माँ का आहार गर्भकालीन अवस्था से लेकर जन्म के उपरांत तक शिशु के विकास को प्रभावित करता है। आहार की मात्रा की अपेक्षा आहार में विद्यमान तत्व बालक के विकास को अधिक महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करता है।

4.रोग (Disease) शारीरिक बीमारियाँ भी बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करती हैं। बाल्यावस्था में यदि कोई बालक अधिक दिनों तक बीमार रहता है तो उसका शारीरिक और मानसिक विकास अवरुद्ध हो जाता है।

5. अंतःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands): बालक के अंदर पायी जानेवाली ग्रन्थियों से जो स्राव निकलते हैं, वे बालक के शारीरिक और मानसिक विकास तथा व्यवहार को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करते हैं।

– पैराथाइराइड ग्रन्थि से जो स्राव निकलता है उस पर हड्डियों तथा दाँतों का विकास निर्भर करता है । बालक के संवेगात्मक व्यवहार और शांति को भी इस ग्रंथ का स्राव प्रभावित करता है बालक की लंबाई का संबंध थाइराइड ग्रन्थि के स्राव से होता है। पुरुषत्व के लक्षणों (जैसे—दाढ़ी, मूंछे और पुरुष जैसी आवाजें) तथा स्त्रीत्व के लक्षणों का विकास जनन ग्रंथियों (Gonad Glands) पर निर्भर करता है।

6. बुद्धि (Intelligence): बालक का बुद्धि भी एक महत्वपूर्ण कारक है, जो बालक के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करता है। तीव्र बुद्धि वाले बालकों का विकास मंद बुद्धि वाले बालकों की अपेक्षा तीव्र गति से हाता है। दुर्बल बुद्धि वाले बालकों में बुद्धि का विकास तीव्र बुद्धि वाले बालकों की अपक्षा मंद गति से होता है तथा विभिन्न विकास प्रतिमान अपेक्षाकृत अधिक आयु-स्तरा पर पूर्ण होते हैं।

__7. योन (Sex) यौन भेदों का भी शारीरिक और मानसिक विकास पर प्रभाव पड़ता है। जन्म के समय लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा कम लंबी उत्पन्न होती हैं परंतु वयता अवस्था के प्रारंभ होते ही लड़कियों में परिपक्वता के लक्षण लड़कों की अपेक्षा विकसित होने लगता है। लड़कों की अपेक्षा लड़कियों का मानसिक विकास भाप पहले पूर्ण हो जाता है।

विकास की विभिन्न अवस्थाएँ Stages of Development

विभिन्न वैज्ञानिकों ने विकास की अवस्थाओं को अलग अलग प्रकार से वर्गीकृत किया है। ये अवस्थाएँ इस प्रकार हैं-

रॉस के अनुसार : विकास की अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं

(a) शैशवावस्था 1- 3 वर्ष

(b) पूर्व बाल्यावस्था 3- 6 वर्ष

(c) उत्तर बाल्यावस्था 6 – 12 वर्ष

 (d) किशोरावस्था 12 – 18 वर्ष

बाल विकास और बाल अध्ययन की दृष्टि से हरलॉक के द्वारा किया गया वर्गीकरण सामान्य माना गया है। इनके अनुसार विकास की अवस्थाएँ निम्नलिखित हैं-

1. गर्भावस्था गर्भाधान से जन्म तक

2. शैशवावस्थामायोजनका जन्म से दो सप्ताह तक

3. बचपनावस्था संवेग प्रल्यावस्था तीसरे सप्ताह से दो वर्ष तक

4. पूर्व-बाल्यावस्था तीसरे वर्ष से छह वर्ष तक

5. उत्तर-बाल्यावस्था सातवें वर्ष से बारह वर्ष तक

6. वयःसंधि बारह वर्ष से चौदह वर्ष तक

7. पूर्व-किशोरावस्था तेरह से सतरह वर्ष तक

8. उत्तर-किशोरावस्था अठारह से इक्कीस वर्ष तक

9. प्रौढ़ावस्था इक्कीस से चालीस वर्ष तक

10. मध्यावस्था इकतालीस से साठ वर्ष तक

11. वृद्धावस्था साठ वर्ष के बाद

> इस प्रकार वैज्ञानिकों ने विकास को विभिन्न अवस्थाओं में विभक्त किया है।

1. गर्भकालीन अवस्था (Prenatal Period): यह अवस्था गर्भाधान से जन्म के समय तक मानी जाती है।

इस अवस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं

> इस अवस्था में विकास की गति अन्य अवस्थाओं से तीव्र होती है।

०१ – समस्त रचना, भार और आकार में वृद्धि तथा आकृतियों का निर्माण इसी अवस्था में होता है।

इस अवस्था में होनेवाले परिवर्तन मुख्यतः शारीरिक ही होते हैं।

2. शैशवावस्था (Infancy): जन्म से लेकर 15 दिन की अवस्था को शैशवास्था कहा जाता है। इस अवस्था को ‘समायोजन’ (Adjustment) की अवस्था भी कहा जाता है। उसकी उचित देखभाल के द्वारा नये वातावरण के साथ समायोजन माता-पिता द्वारा किया जाता है।

3. बचपनावस्था (Babyhood): यह अवस्था दो सप्ताह से होकर दो वर्ष तक चलती है। यह अवस्था दूसरों पर निर्भर होने की होती है।

संवेगात्मक विकास की दृष्टि से इस अवस्था में बच्चे के भीतर लगभग सभी प्रमुख संवेग जैसे–प्रसन्नता, क्रोध, हर्ष, प्रेम, घृणा आदि विकसित हो जाते हैं। यह अवस्था संवेग प्रधान होती है।

4. बाल्यावस्था (Childhood) यह अवस्था शारीरिक एवं मानसिक वित दृष्टि से महत्वपूर्ण होती है। अध्ययन की दृष्टि से इसे दो भागों में बाँटा गया

(a) पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood) : 2 से 6 वर्ष (b) उत्तर बाल्यावस्था (Late Childood): 7 से 12 वर्ष इस अवस्था में बालकों में ‘जिज्ञासु’ (Curiosity) प्रवृति अधिक हो जाती है।

बाल्यावस्था में बालकों में समूह-प्रवृति‘ (Gregariousness) का विकास होता है बच्चे साथियों के साथ रहना और खेलना अधिक पसंद करते हैं।

5. वयःसंधि (Puberty): वयःसंधि बाल्यावस्था और किशोरावस्था को मिला सेतु का कार्य करती है। यह अवस्था बहुत कम समय की होती है लेकिन बार विकास की दृष्टि से यह महत्वपूर्ण अवस्था है।

इस अवस्था की प्रमुख विशेषता है यौन अंगों की परिपक्वता का विकास । बालिका ____ में यह अवस्था सामान्यतः 11 से 13 वर्ष के बीच प्रांरभ हो जाती है और ना

में 12 से 13 वर्ष के बीच ।

6. किशोरावस्था (Adolescence): यह अवस्था 13 वर्ष से प्रारंभ होकर 21 वर्ष तक चलती है। इस अवस्था को अध्ययन की दृष्टि से दो भागों में बाँटा गया है(a) पूर्व-किशोरावस्था (Early Adolescence)

(13-16 वर्ष) (b) उत्तर-किशोरावस्था (Late Adolescence)

(17-21 वर्ष) इस अवस्था में बालकों में समस्या की अधिकता, कल्पना की अधिकता और सामाजिक अस्थिरता होती है। इस समय किशोरों को शारीरिक एवं मानसिक समायोजन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। शारीरिक और मानसिक परिवर्तन के फलस्वरूप उनके संवेगात्मक, सामाजिक और नैतिक जीवन का स्वरूप परिवर्तित हो जाता है।

7. प्रौढ़ावस्था (Adulthood): किशोरावस्था के पश्चात् 21 से 40 वर्षों की अवस्था प्रौढ़ावस्था कहलाती है। इस अवस्था में व्यक्ति अपने जीवन के लक्ष्यों को पाने की कोशिश करता है। यह पारिवारिक जीवन में प्रवेश की अवस्था है।

8. मध्यावस्था (Middle Age): 41 से 60 वर्ष की आयु को मध्यावस्था माना गया है। इस अवस्था में प्राणी के अंदर शारीरिक व मानसिक परिवर्तन होते हैं। इस समय व्यक्ति सुख-शांति व प्रतिष्ठा से जीने की कामना करता है। सामाजिक संबंधों के प्रति भी मनोवृत्तियाँ दृढ़ हो जाती हैं।

9. वृद्धावस्था (Old Age): जीवन की अंतिम अवस्था वृद्धावस्था है, जो 60 वर्षस प्रारंभ होकर जीवन के अंत समय तक मानी जाती है। यह अवस्था ‘हास’ की अवस्था होती है । इस अवस्था में शारीरिक व मानसिक क्षमताओं का ह्रास होने लगता है। स्मरण शक्ति कम होने लगती है।

परीक्षोपयोगी तथ्य

→ विकास गर्भाधान से लेकर जीवनपर्यन्त तक चलता है।

~ विकास में होनेवाले परिवर्तन शारीरिक, सामाजिक, मानसिक और संवेगात्मक हातह।

विकास में होनेवाले परिवर्तन गुणात्मक होते हैं। विकास क्रम प्राणी को परिपक्वावस्था प्रदान करता है। विकास परिपक्वता और परिवर्तनों की शृंखला है। विकास को क्रमिक परिवर्तनों की शृंखला कहा जाता है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति में नवीन विशेषताओं का उदय होता है और पुरानी विशेषताओं की समाप्ति हो जाती है।

विकास में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक और विनाशात्मक दोनों प्रकार के होते हैं। – प्रारंभिक अवस्था में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक (Constructive) होते हैं। उत्तरार्द्ध

में होनेवाले परिवर्तन विनाशात्मक (Destructive) होते हैं। रचनात्मक परिवर्तन प्राणी में परिपक्वता लाते हैं और विनाशात्मक परिवर्तन उसे वृद्धावस्था (Maturity) की ओर ले जाते हैं। मानव का शारीरिक विकास दो दिशाओं में होता है मस्तकाधोमुखी विकास और निकट दूर विकास क्रम । मस्तकाधोमुखी विकास सिर से पैर की ओर होता है। भ्रूणावस्था में पहले सिर का विकास होता है बाद में धड़ तथा निचले भागों का विकास होता है। निकट दूर विकास-क्रम में शारीरिक विकास पहले केन्द्रीय भागों में प्रारंभ होता है इसके बाद केन्द्र से दूर के भागों में होता है। विकास-क्रम में कोई भी बालक पहले सामान्य क्रिया करता है इसके बाद विशेष

क्रिया की ओर अग्रसर होता है। सामान > प्रत्येक बालक की विकास-दर तथा प्रतिमानों में व्यक्तिगत भिन्नता (Individual

Difference) पायी जाती है। शरीर के विभिन्न अंगों के विकास की गति समान नहीं होती है। विकास परिपक्वता और शिक्षण दोनों का परिणाम होता है। बालक के विकास में पोषण महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। संतुलित और पौष्टिक भोजन (प्रोटीन, वसा, खनिज-लवण, विटामिन) शारीरिक व मानसिक विकास में सहायक होता है। बालक के विकास को प्रभावित करनेवाले तत्व हैं- पोषण (Nutrition), बुद्धि (Intelligence), यौन (Sex), अन्तःस्रावी ग्रन्थियाँ (Endocrine Glands), प्रजाति (Race), रोग एवं चोट (Disease and Injuries), घर का वातावरण (Family

Environment), पास-पड़ोस का वातावरण (Neighborhood Environment), विद्यालय का वातावरण (School Environment), सांस्कृतिक वातावरण (Cultural Environment) तथा शुद्ध वायु एवं प्रकाश (Fresh Air and Light)। शैशवावस्था शिशु के समायोजन की अवस्थाकहलाती है, क्योंकि इस अवस्था में शिशु गर्भाशय के आन्तरिक वातावरण से निकलकर बाह्य वातावरण के साथ समायोजन का प्रयास करता है। विकास के क्रम में शैशवावस्था की मख्य विशेषताएँ है- अपरिपक्वता, पराश्रितता (Dependency), संवेगशीलता (Emotionality), व्यक्तिगत भिन्नता (Individual Differences) इत्यादि।

बचपनावस्था की विशेषताएँ होती है-खतरनाक अवस्था (Danon अजीबोगरीब अवस्था (Critical Stage), आत्मनिर्भरता की अवस of Independency), उत्तरोत्तर वृद्धि और विकास (Graduate Development), पुनरावृत्ति की प्रवृत्ति (Tendency of Repetition), आत्म (Self Centered) और स्वप्रेमी, नैतिकता का अभाव (Lack of oration की प्रवृत्ति (Tendency of Imitation), मानसिक प्रक्रियाओं के विकास में सामाजिक भावना का उदय (Development of Social Felling)।

पूर्व बाल्यावस्था को तीव्र विकास की अवस्था, स्कूल पूर्व की अवस्था. समर अवस्था और जिज्ञासु प्रवृति की अवस्था कही जाती है। पूर्व बाल्यावस्था में बालक अपनी क्रियाओं में हस्तक्षेप करना पसन्द नहीं करता वह स्वतंत्र रूप से अपने अनुसार कार्य करना चाहता है।

विकास के क्रम में उत्तर बाल्यावस्था को प्रारम्भिक स्कूल की आयु (Element School Age), चुस्ती की आयु (Smart Age), गन्दी आयु (Dirty Age), समह आग (Gang Age), सारस अवस्था और नैतिक विकास की आयु (Age of Moration इत्यादि की अवस्था कहा जाता है। विकास के क्रम में किशोरावस्था को सुनहरी अवस्था कहा जाता है।

किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ हैं

यह परिवर्तन की अवस्था है।

इस अवस्था में ‘विषमलिंगी भावना’ का विकास होता है।

इस अवस्था में बालक में कल्पना की प्रधानता होती है।

यह तनाव और परेशानी की अवस्था है।

यह पूर्ण वृद्धि की अवस्था कहलाती है।

यह आत्मनिर्भरता और व्यवसाय चुनने की अवस्था होती है।

वृद्धि गर्भावस्था से प्रौढ़ावस्था तक चलती है।

वृद्धि में होनेवाले परिवर्तन शारीरिक होते हैं।

वृद्धि के दौरान होनेवाले परिवर्तन मात्रात्मक होते हैं।

वृद्धि में होनेवाले परिवर्तन रचनात्मक होते हैं।

विकास कभी नहीं समाप्त होने वाली प्रक्रिया है, यह निरन्तरता के सिद्धान्त स सम्बन्धित है।

विकास एवं वृद्धि के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार निम्न कक्षाओं में शिक्षण खेल विधि पर आधारित होती है।

विकास में वृद्धि का तात्पर्य है बालकों में सीखने, स्मरण तथा तर्क इत्यादि की क्षमता में वृद्धि होना।

गर्भ में बालक को विकसित होने में 280 दिन लगता है। नवजात शिशु का भार 7 पाउण्ड होता है।

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UPTET Handwritten Notes Free Download PDF in Hindi : दोस्तों में आपका Online Teacher Deepak Kumar एक बार फिर से आप सभी का स्वागत करता हूँ हमारी वेबसाइट SscLatestNews.Com में, यदि आप भी Uttar Pradesh राज्य में Primary and Higher Primary Teachers बनने का सपना देख रहे है तो आज की पोस्ट आपके लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण होने जा रही है | दोस्तों आज की पोस्ट में आप सभी सभी अभ्यर्थी UPTET Book in PDF Hindi and English PDF में Free Download करने जा रहे है |

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UPTET Exam Question Paper 2021-2022 Pattern

हम अभ्यर्थियो को निचे टेबल में UPTET Exam Question Model Paper 2021-2022 के Pattern को दर्शा रहे है जिसे आपको UPTET Exam Paper के लिए तैयार करना होगा |

UPTET SubjectUPTET Number of QuestionsTotal Number
Bal Vikas aur Shikshan VidhiyanQuestion 3030 Number
Hindi Language 1stQuestion 3030 Number
Sanskrit/English/Urdu Language 2ndQuestion 3030 Number
MathematicsQuestion 3030 Number
EVSQuestion 3030 Number
TotalQuestion 150150 Number

Note:- दोस्तों हम आपको बता दे की Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test (UPTET) Exam Question Paper को पास करने के लिए Reserved Category Students के लिए करीब 82 Number लाने अनिवार्य है, और वही Unreserved Category Students करीब 90 Number लाने अनिवार्य होते है | सबसे बड़ी बात यह है की जब आप UPTET Exam Paper देते है तो आपको Negative Marking नही दी जाती है | अभ्यर्थियो को UPTET Exam Questions Papers को हल करने के लिए 150 Minute का समय दिया जाता है |

UPTET Handwritten Notes क्यों जरूरी है

दोस्तों यदि आप Primary and Higher Primary Teachers बनने का सपना देख चुके है तो उम्मीद है आप UPTET Exam Questions Answer Paper के लिए तैयारी भी कर रहे होंगे | कुछ अभ्यर्थी ऐसे भी होते है जो UPTET Exam Paper की तैयारी ठीक UPTET Exam Paper से 2-4 महीने पहले शुरू करते है तो ऐसे में उनका UPTET Study Material in Hindi इतने कम समय में पढ़ पाने मुश्किल होते है | दोस्तों आपके पास भी यदि UPTET Exam Paper की तैयारी करने के लिए कम समय है तो आपके लिए UPTET Handwritten Notes for Primary Level बहुत ही जरूरी है जिसे करने के बाद आप पास होने तक की तैयारी आराम से कर सकते है |

UPTET Hindi Bhasha Books & Notes in PDF Download

हम अभ्यर्थियो को निचे टेबल में Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test (UPTET) Exam Question Paper 2021-2022 के लिए Hindi Bhasha Book and Notes in PDF में Free Download करने के लिए दे रहे है जिसमे अभ्यर्थी खूब मेहनत करते है और अच्छे नंबर प्राप्त करने की कोशिश करते है |

Hindi Bhasha Handwrite Notes in PDFDownload

UPTET Sanskrit Books & Notes in PDF Download

दोस्तों Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test (UPTET) Exam Paper 2021-2022 की तैयारी बहुत सारे अभ्यर्थी कर रहे होंगे लेकिन Sanskrit Subject एक ऐसा सब्जेक्ट होता है जिसे बहुत ही कम अभ्यर्थी करते है लेकिन जो अभ्यर्थी UPTET Sanskrit को अच्छे से समझ लेते है तो वो Sanskrit Subject के अच्छे शिक्षक बन जाते है |

UPTET Sanskrit Handwritten Notes in PDFDownload

UPTET Environment Books & Notes in PDF Download

UPTET Exam Question Paper का एक और Subject Environment भी बहुत लोकप्रिय subject होता है जिसे हम Handwritten Notes के रूप में आपको तैयार करके दे रहे है जिसे आप Free PDF में Download कर सकते है | Environment (EVS) Subject में आपसे पर्यावरण से सम्बन्धित Questions पूछे जाते है जो बहुत ही महत्त्वपूर्ण है |

UPTET Environment Handwritten in PDF Download

UPTET Bal Manovigyan Books & Notes in PDF Download

निचे दिए गये टेबल में आपको UPTET Bal Manovigyan Handwritten Notes in PDF में दिए जा रहे है जिसकी तैयारी के लिए अभ्यर्थी कौचिंग सेंटर का इस्तेमाल करते है लेकिन हम अभ्यर्थियो को बता दे की UPTET Manovigyan Subject को आप घर बैठे आसानी से तैयार कर सकते है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है |

UPTET Bal Manovigyan Handwritten Notes in PDFDownload

UPTET Mathematic Books & Notes in PDF Download

UPTET Exam Question Paper में यदि किसी Subject को सबसे ज्यादा महत्त्व दिया जाता है तो वो है Mathematics Subject जिसकी तैयारी करने के लिए अभ्यर्थी सहारा तलाशते रहते है | दोस्तों हम Mathematic Subject को दो भागो में बाँट रहे है जिन्हें आप PDF में Donwood कर सकते है | UPTET Mathematic Subject के Questions दो खंडो में आते है अंकगणित और ज्यामिति जो दोनों ही महत्त्वपूर्ण है |

UPTET Mathematic Part 1 Handwritten Notes in PDFDownload
UPTET Mathematic Part 2 Handwritten Notes in PDF Download

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