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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Vyaktigat Vibhinta Study Material : आप सभी अभ्यर्थी आज की पोस्ट में UPTET Books and Notes Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 10 व्यक्तिगत विभिन्नताएँ Study Material in Hindi में पढ़ने जा रहे है | अभ्यर्थी UPTET Chapter 10 व्यक्तिगत विभिन्नताएँ in Hindi PDF में भी Free Download कर सकते है |
व्यक्तिगत विभिन्नताएँ | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 10 Study Material in Hindi
वैयक्तिक भिन्नताओं का अध्ययन सर्वप्रथम गाल्टन (Galton) ने प्रारम्भ किया. इनके यह अध्ययन वैज्ञानिक थे। वैयक्तिक भिन्नताओं के ही कारण एक व्यक्ति हजारों रुपये रोज कमाता है और दूसरे केवल कुछ रुपये भी कमाने में असमर्थ होते हैं, क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की शारीरिक और मानसिक योग्यताएँ समान न होकर भिन्न-भिन्न होती हैं। स्किनर (Skinner) के अनुसार, “आजकल वैयक्तिक भिन्नताओं के अध्ययन में व्यक्ति के सम्पूर्ण व्यक्तित्व के किसी भी मापने योग्य पहलू को सम्मिलित किया जाता है।”
जेम्स ड्रेवर के अनुसार, “एक समूह के सदस्यों में समूह के औसत से मानसिक या शारीरिक विशेषताओं का विचलन ही वैयक्तिक भिन्नताएँ हैं।“
वैयक्तिक भिन्नताओं का विस्तार Range of Individual Differences
वैयक्तिक भिन्नताओं के विस्तार से अभिप्राय है कि सर्वाधिक मात्रा में अच्छे कौशल वाले व्यक्ति तथा सबसे कम मात्रा में कौशल वाले व्यक्ति में कितना अंतर होता है। औद्योगिक मनोविज्ञान में वैयक्तिक भिन्नताओं के विचार का अभिप्राय है कि निम्न लक्षण वाले और श्रेष्ठ लक्षण वाले कर्मचारी में क्या अंतर है?
> हल (Hull) ने अपने एक अध्ययन में 107 हाई स्कूल के छात्रों को चुना। इनसे उसने 35 मानकीकृत परीक्षण भरवाए। परीक्षण के परिणामों के आधार पर उसने श्रेष्ठ कौशल वाले और निम्न कौशल वाले छात्रों को छाँटकर दो समूहों में विभाजित किये। निम्न कौशल वाले और श्रेष्ठ कौशल वाले छात्रों में इसे जो अनुपात प्राप्त हुए, वह इस प्रकार है–1 : 1.2, 1 : 3, 1 : 5.2, 1 : 5.7, 1 : 7.6, 1 : 19 आदि । सभी परीक्षणों के आधार पर औसत अनुपात 1: 5.2 प्राप्त हुआ।
वेश्लर (Wechsler) ने अपने अध्ययनों के आधार पर यह अनुपात 2 : 1 का प्राप्त किया। वेश्लर ने अपने अध्ययनों में मानकीकृत मानसिक परीक्षणों का उपयोग किया। औद्योगिक मनोविज्ञान के क्षेत्र में श्रेष्ठ और निम्न में 2 : 1 का अनुपात माना जाता है।
वैयक्तिक विभिन्नता के प्रकार या क्षेत्र Kinds or Areas of Individual Difference
व्यक्ति के जीवन के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में वैयक्तिक विभिन्नता (Individual Difference) पायी जाती है। अतः वैयक्तिक विभिन्नता के कई प्रकार हैं-
एक ऐसी विभिन्नता के इसके लिए किसी विशेष होती है। एक ही उम्र के बालक
नारीरिक विकास (Physical Development): शारीरिक विकास में विभिन्नता वभिन्नता है जिसका प्रत्येक व्यक्ति स्पष्ट रूप से प्रत्यक्षण कर सकता है। । किसी विशेष उपकरण (Apparatus) या विशेष प्रशिक्षण की जरूरत नहीं की उम्र के बालकों के शारीरिक विकास एवं परिपक्वता में स्पष्ट अंतर मिलता है। शिक्षकगण इस तरह के ज्ञान का विशेष फायदा शिक्षा के शिक्षण (Classroom Teaching) में उठा सकते हैं।
मानसिक विकास (Mental Development): वैयक्तिक विभिन्नता का दूसरा क्षेत्र मानसिक विकास है। फ्रीमैन तथा फ्लोरी (Freeman & Flory) द्वारा किये अध्ययन से यह स्पष्ट हो गया है कि स्कूल के छात्रों की बुद्धि का मापन करने में में सामान्यता की विभिन्नता (Difference of Normality) पायी जाती है। कछ ही ऐसे बच्चे होते हैं जो तेज बुद्धि के अर्थात जिनकी बुद्धिलब्धि (IQ) 120 या इससे ऊपर होती है और उसी ढंग से कुछ ही व्यक्ति ऐसे होते हैं जो मन्द बुद्धि के अर्थात जिनकी बुद्धि स्तर 90 से नीचे होती है। अधिकतर छात्रों की बुद्धिलब्धि 100 से 110 के बीच होती है।
(c) सांवेगिक विभिन्नता (Emotional Differences): बालकों में सांवेगिक विभिन्नता पायी जाती है। कुछ बालकों में क्रोध, भय, डाह आदि जैसे संवेग अधिक होते हैं तो कुछ बालकों में इन संवेगों की कमी पायी जाती है। कुछ बालकों में स्नेह, प्यार आदि जैसे संवेग की प्रधानता होती है, तो कुछ बालकों में सहानुभूति तथा दूसरों की भलाई के भाव (Altruism) की प्रधानता होती है।
(d) सामाजिक विकास (Social Development): सामाजिक विकास में भी बालकों में स्पष्ट विभिन्नता पायी जाती है। कुछ बालक अधिक संकोचशील होते हैं तो कुछ बालक साहसी एवं बहादुर होते हैं। कुछ बालक कक्षा के नेतृत्व को अपने दामन में समेटना पसंद करते हैं तो कुछ बालक इसे सिरदर्द समझकर अपना दामन छुड़ाना चाहते है। सामाजिक परिस्थिति समान रहने पर भी विभिन्न बालकों द्वारा विभिन्न तरह की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ की जाती हैं।
(e) उपलब्धियों में अंतर (Difference in Achievements): बालको या छात्रों की उपलब्धियों में कई कारणों से विभिन्नता पायी जाती है। एक ही उम्र, एक ही बुद्धि एवं एक ही कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियाँ हमेशा समान नहीं होती हैं। कुछ स छात्र की शैक्षिक उपलब्धियाँ काफी अधिक होती हैं तो कुछ ऐसे छात्र की शैक्षिक “यचा काफी कम होती हैं, ऐसे छात्रों की शैक्षिक उपलब्धियों में अंतर का प्रमुख उनका अभिरुचि (Interest). प्रेरणा (Motivation) तथा अभ्यास (Iractice) में अंतर होता है।
(1) भाषा विकास (Language Devers भाषा-विकास के क्षेत्र में भी पाया जाता स (Language Development): बालकों में वैयक्तिक विभिन्नता विकसित होती है तो कुछ म होती है। कुछ बालकों में लिखने, बोलने तथा समझने की शक्ति अधिक ता है तो कुछ में कम होती है। इस कारण से भी समान उम्र एवं बुद्धि के का शैक्षिक उपलब्धि में अंतर हो जाता है।
(g) ज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक क्षमताओं में अंतर (Differences in Cognitive and Motor Capacities) : कुछ छात्रों में क्रियात्मक नियंत्रण (Motor Control) तथा ज्ञानात्मक क्रियात्मक समन्वय (Cognitive-Motor Co-ordination) की क्षमता अधिक होती है, जबकि कुछ छात्रों में ऐसी क्षमताएँ सामान्य होती हैं। इसका परिणाम यह होता है कि कुछ छात्र उन कार्यों में अधिक श्रेष्ठ होते हैं जिनमें ज्ञानात्मक क्रियात्मक समन्वय की अधिकता होती है।
(h) व्यक्तित्व विभिन्नता (Differences in Personality) बालकों के व्यक्तित्व में भी विभिन्नता यी जाती है। कुछ बालक अन्तर्मुखी (Introvert) होते हैं तो कुछ बहिर्मुखी (Extrovert) होते हैं। कुछ में नेतृत्व संबंधी गुण अधिक होते हैं तो कुछ में अनुयायी बनने के गुण अधिक होते हैं।
(i) अभिरुचियों एवं अभिक्षमताओं में विभिन्नता (Differences in Interests and Aptitudes) : कुछ छात्रों की यांत्रिक अभिक्षमता (Machanical Aptitude) अधिक विकसित होती है, तो कुछ छात्रों की संख्यात्मक अभिक्षमता (Numerical Aptitude) अधिक विकसित होती है। इस तरह छात्रों में विभिन्नता अभिक्षमता एवं अभिरुचि के आधार पर भी होता है।
वैयक्तिक विभिन्नता के कारण Causes of Individual Difference
वैयक्तिक विभिन्नता के कारण निम्नलिखित हैं-
(a) आनुवंशिकता (Heredity) : वैयक्तिक विभिन्नता का एक प्रमुख कारण आनुवंशिकता होती है। बुद्धिमान एवं उत्तम शील-गुण वाले माता-पिता के बच्चों में भी उत्तम शीलगुण होते हैं तथा उनका भी बुद्धि-स्तर श्रेष्ठ होता है। मन्द बुद्धि वाले माता-पिता के बच्चों में भी वैसे ही गुण विकसित हो जाते हैं। इसका कारण स्पष्टतः आनुवंशिकता है।
(b) वातावरण (Environment) : वातावरण में भौतिक वातावरण (Physical Environment)तथा सामाजिक वातावरण (Social Environment)का प्रभाव वैयक्तिक विभिन्नता पर सर्वाधिक पड़ता है। जिस देश के भौतिक वातावरण में ठंड की प्रधानता होती है वहाँ के लोग अधिक फुर्तीले एवं गोरे होते हैं। दूसरी तरफ गर्म वातावरण के लोगों में आलसीपन अधिक होता है एवं उनका रंग भी श्याम होता है। – उसी तरह यदि बालक ऐसे परिवार से आता है जिसे सामाजिक रूप से सबल कहा
जाता है तो उसका आचरण, चरित्र एवं व्यक्तित्व, शीलगुण वैसे बालकों से भिन्न होता है जो सामाजिक रूप से दुर्बल परिवार से आते हैं।
(c) आर्थिक स्थिति एवं शिक्षा (Economic Condition and Education) : बालकों में विभिन्नता का एक कारण आर्थिक स्थिति है। आर्थिक स्थिति अच्छा नहीं होने से बालकों का शारीरिक स्वास्थ्य एवं मानसिक स्वास्थ्य दोनों ही प्रभावित हो जाता है। शिक्षा से बालकों में विभिन्नता आती है। शिक्षा से सिर्फ बालकों के ही व्यवहार में विभिन्नता नहीं आती है बल्कि वयस्कों के भी व्यवहार में विभिन्नता आती है।
परिपक्वन (Maturation) : वैयक्तिक विभिन्नता का एक कारण परिपक्वन बालक शारीरिक एवं मानसिक रूप से अधिक परिपक्व होते हैं तथा हो में शारीरिक एवं मानसिक परिपक्वन अपनी उम्र के अनुसार जितनी होनी में अंतर है। कुछ बालक कुछ बालकों में भी चाहिए उतनी नहीं होती है। प्रमुख कारण प्रजाति एवं राष्ट्रीय ति एवं राष्ट्रीयता (Race and Nationality) वैयक्तिक विभिन्नता का एक प्रजाति एवं राष्ट्रीयता है। विभिन्न प्रजाति के बालकों के शारीरिक, मानसिक. संवेगात्मक विकास में कुछ-न-कुछ विभिन्नता अवश्य देखने को मिलती है। राष्ट्र से भी बालकों की आदत, शीलगुण, चरित्र आदि में विभिन्नता पायी जाती है।
लिंग (Sex) वैयक्तिक विभिन्नता का एक प्रमुख स्रोत लिंग होता है। लड़के भारीरिक रूप से अधिक सबल एवं मजबूत होते हैं जबकि लड़कियाँ शारीरिक रूप से एवं मलायम मांसपेशियों वाली होती है। लिंग-भिन्नता के कारण लड़के अधिक मी एवं आक्रामक स्वभाव के होते हैं जबकि लड़कियों में सहनशीलता ज्यादा होती है तथा उनमें क्रोध काफी कम होता है।
(g) आयू एवं बुद्धि (Age and Intelligence): वैयक्तिक विभिन्नता का एक कारण व्यक्ति की आय एवं बुद्धि है। जैसे-जैसे व्यक्ति की आयु बढ़ती जाती है उसका शारीरिक कद भाषा-विकास, सामाजिक विकास एवं मानसिक विकास भी अधिक होता जाता है और स्पष्ट रूप से वैयक्तिक विभिन्नता पायी जाती है। वैयक्तिक विभिन्नता के अध्ययन की विधियाँ Methods of Studying Individual Differences
मनोवैज्ञानिकों ने वैयक्तिक विभिन्नता का अध्ययन करने के लिए कई विधियों का प्रतिपादन किया, जो इस प्रकार है
(a) बुद्धि-परीक्षण (Intelligence Test) बुद्धि के आधार पर बालकों में स्पष्ट विभिन्नता पायी जाती है। अतः बुद्धि मापकर बद्धि के ख्याल से होनेवाली वैयक्तिक विभिन्नता को माप सकते हैं। मनोवैज्ञानिकों ने अनेक तरह के बुद्धि-परीक्षण का निर्माण किया है।
सामान्यतः बुद्धि-परीक्षणों से प्राप्तांकों (Scores)के आधार पर बुद्धिलब्धि (Intelligence Quotient) ज्ञात करते हैं और इस बद्धिलब्धि के आधार पर स्पष्ट रूप से हम पालका को बौद्धिक विभिन्नता के अंतर का अध्ययन कर पाते हैं। मामलाच परीक्षण (Interest Test): अभिरुचि परीक्षण के आधार पर भी बालको क विभिन्नता का अध्ययन आसानी से किया जाता है। अभिरुचि के ख्याल से काफी विभिन्नता पायी जाती है। कुछ बालकों की अभिरुचि कुछ खास-खास क होती है जबकि अन्य दूसरे विषयों में उनकी अभिरुचि कम होती है।
क्षण (Achievement Test): बालक में वैयक्तिक विभिन्नता का बात उपलब्धि, विशेषकर शैक्षिक उपलब्धि होती है। शैक्षिक उपलब्धि को विभिन्नता की मात्रा का अंदाज लगा सकते है। नका ने विभिन्न विषयों में शैक्षिक उपलब्धि की माप के लिए अलग-अलग आधार पर हम छात्रों में शैक्षिक उपलब्धि के ख्याल से होनेवाली विभिन्नता का मापन कर सकते हैं।
(d) व्यक्तित्व परीक्षण (Personality Test): छात्रों के व्यक्तित्व शीलगुणों में स्पार विभिन्नता होती है, जिसका अध्ययन विभिन्न तरह के व्यक्तित्व परीक्षणों के आधार आसानी से किया जाता है।
(e) संवेग परीक्षण (Test of Emotion) बालकों की वैयक्तिक विभिन्नता का अध्यय संवेग परीक्षण के आधार पर भी किया गया है। विशेष परीक्षणों एवं उपकरणों के माध्या से बालकों की संवेगात्मकता के स्तर का मापन करके यह आसानी से सुनिश्चित किया जा सकता है कि कौन बालक संवेगात्मक रूप से अधिक स्थिर है तथा कौन बालक संवेगात्मक रूप से कम स्थिर है।
(0) अभिक्षमता परीक्षण (Aptitude Test): मनोवैज्ञानिक ने कई तरह के अभिक्षमता परीक्षणों का निर्माण किया है। इन अभिक्षमता परीक्षणों के माध्यम से यह आसानी से सुनिश्चित कर लिया जाता है कि बालकों में अमुक अभिक्षमता के विचार से कितन विभिन्नता है। इसका विशेष फायदा शिक्षकों को होता है। शिक्षक उसी के अनुसार बालकों के शिक्षण दिये जाने का स्तर तय करते हैं।
वैयक्तिक विभिन्नता के अध्ययन का शिक्षा में महत्व Importance of Study of Individual Difference in Education
वैयक्तिक विभिन्नता के अध्ययन का शिक्षा में निम्नलिखित महत्व है-
(a) समूहीकरण या वगीकरण (Grouping or Classification) : उचित शिक्षा के लिए यह आवश्यक है कि छात्रों का अलग-अलग समूहीकरण या वर्गीकरण किया जाय वर्तमान में छात्रों के बुद्धि के आधार पर समूहीकरण किया जाता है। इस प्रकार के समूह यदि बुद्धि के अलावा अन्य कारकों जैसे अभिरुचि (Interest), अभिक्षमता (Aptitude C आदि के समरूप बना लिया जाता है, तो इस परिस्थिति में दी गई शिक्षा और अधिक उत्तम होगी।
(b) अध्यापन विधियाँ (Methods of Teaching): शिक्षकों को चाहिए कि अध्यापन विधियों का चयन छात्र की श्रेणी के अनुसार करें। तीव्र बुद्धि के छात्रों को पढ़ाने के विधि कम बुद्धि के छात्रों को पढ़ाने की विधि से भिन्न होनी चाहिए।
(c) पाठ्यक्रम (Curriculum): शिक्षकों को विभिन्न समूहों के छात्रों के लिए एक समान पाठ्यक्रम (Curriculum) नहीं बनाकर उस समूह की बुद्धि, अभिरुचि एव अभिक्षमता (Aptitude) के अनुकूल पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए। इससे छात्रों क अधिक-से-अधिक लाभ होगा।
(d) गृह कार्य का दिया जाना (Assignment of Home Task): शिक्षक छात्रों को ग ह-कार्य देते हैं। गृह कार्य देते समय वैयक्तिक विभिन्नता का ज्ञान शिक्षक के लिए विशेष उपयोगी सिद्ध होता है। गृह कार्य देते समय शिक्षक छात्र की बुद्धि, अभिक्षमता, रुझान का स्तर एवं उसकी घरेलू परिस्थितियों को यदि ध्यान में रखते हैं तो इससे शिक्षक ठीक मात्रा में गृह कार्य छात्रों को दे पायेंगे।
(e)व्यवसाय संबंधी शिक्षा (Vocational Guidance): सभी बालकों का रुझान विभिन तरह के व्यवसाय के प्रति समान नहीं रहता है। कोई छात्र किसी अमुक व्यवसाय को अधिक पसंद करता है तो दूसरे छात्र दूसरे तरह के व्यवसाय को अधिक पसंद करता
के विभिन्नता के आलोक (Lustre) में शिक्षकों को चाहिए कि वे छात्रों अधिक पसंद करता है तो कर है। इस वैयक्तिक विभि को शिक्षा दें।
शारीरिक शिक्षा (Phe शिक्षकों को कक्षा में छात्रों के कम दिखाई एवं सुनाई देनेवाले एक चाहिए अन्यथा वे कक्षा में ही शिक्षा (Physical Differences) : शारीरिक विभिन्नता के अनसार । कक्षा में छात्रों के बैठने का स्थान सुनिश्चित करना चाहिए। छोटे कद तथा एवं सनाई देनेवाले छात्रों को कक्षा में अगले बेंच पर बैठने की व्यवस्था होनी ने कक्षा में दी जानेवाली शिक्षा से अधिक लाभान्वित नहीं हो पायेंगे।
परीक्षोपयोगी तथ्य
जानिक विभिन्नता से तात्पर्य एक ऐसी मनोवैज्ञानिक घटना से होता है जो उन विशेषताओं या शीलगुणों पर बल डालता है जिनके आधार पर वैयक्तिक जीव भिन्न होते दिखाये जाते हैं।
वैयक्तिक विभिन्नता को दो श्रेणी में रखा जा सकता है—व्यक्ति के अंदर विभिन्नताएँ तथा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति में विभिन्नता। वैयक्तिक विभिन्नता के महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं शारीरिक विकास, मानसिक विकास, सांवेगिक विभिन्नता, सामाजिक विभिन्नता, उपलब्धि में अंतर, भाषा-विकास, अभिरुचियों एवं अभिक्षमता में अंतर, यौन विभिन्नताएँ, व्यक्तित्व विभिन्नता तथा ज्ञानात्मक एवं क्रियात्मक क्षमताओं में अंतर ।
> वैयक्तिक विभिन्नता के कई कारण हैं जिनमें आनुवंशिकता, वातावरण, प्रजाति एवं राष्ट्रीयता, आयु एवं बुद्धि, परिपक्वता, लिंग तथा आर्थिक स्थिति एवं शिक्षा प्रधान हैं। ति वैयक्तिक विभिन्नता के अध्ययन की विधि है—बुद्धि-परीक्षण, उपलब्धि परीक्षण, संवेग परीक्षण, अभिरुचि परीक्षण, अभिक्षमता परीक्षण एवं व्यक्तित्व परीक्षण।
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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samaj Nirman me Langik Mudde Study Material : नमस्कार दोस्तों आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET (Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test) Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book and Notes Chapter 9 समाज निर्माण में लैंगिक मुद्दे Study Material in Hindi में पढ़ने जा रहे है | अभ्यर्थियो को बता बता दे की UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Chapter 9 in Hindi PDF में भी शेयर किया गया है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया जा रहा है |
समाज निर्माण में लैंगिक मुद्दे | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 9 Study Material in Hindi
समाज-निर्माण में लिंग की भूमिका
जब बालक 13 या 14 वर्ष की आयु में प्रवेश करता है तब उसके प्रति दूसरों के और दूसरों के प्रति उसके कुछ दृष्टिकोण से उसके अनुभवों एवं सामाजिक संबंधों में परिवर्तन होने लगता है। इस परिवर्तन के कारण उसके सामाजिक विकास का स्वरूप निम्न होता है
★ बालक और बालिकाएँ दोनों अपने-अपने समूहों का निर्माण करते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य होता है—मनोरंजन, जैसे पर्यटन, पिकनिक, नृत्य, संगीत इत्यादि।
बालक और बालिकाओं में एक-दूसरे के प्रति बहुत आकर्षण उत्पन्न होता जाता है। अतः वे अपनी सर्वोत्तम वेश-भूषा, बनाव-शृंगार और सज-धज में अपने को एक दूसरे के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
कुछ बालक और बालिकाएँ किसी भी समूह के सदस्य नहीं बनते हैं, वे उनसे अलग रहकर अपने या विभिन्न लिंग के व्यक्ति से घनिष्ठता स्थापित कर लेते हैं और उसी के साथ अपना समय व्यतीत करते हैं।
* बालकों में अपने समूह के प्रति अत्यधिक भक्ति होती है। वे उसके द्वारा स्वीकृत, वेश-भूषा, आचार-विचार, व्यवहार आदि को अपना आदर्श बनाते हैं।
★ समूह की सदस्यता के कारण उनमें नेतृत्व, उत्साह, सहानुभूति, सद्भावना इत्यादि सामाजिक गुणों का विकास होता है।
इस अवस्था में बालकों और बालिकाओं का अपने माता-पिता से किसी-न-किसी बात पर संघर्ष या मतभेद हो जाता है। यदि माता-पिता उनकी स्वतंत्रता का दमन करके, जीवन को अपने आदेशों की तरह ढालने का प्रयत्न करते हैं या इनके समक्ष नैतिक आदर्श प्रस्तुत करके उसका अनुकरण किये जाने पर बल देते हैं। किशोर बालक और बालिकाएँ अपने भावी व्यवसाय का चुनाव करने के लिए सदैव चिन्तित रहते हैं। इस कार्य में उसकी सफलता या असफलता उसके सामाजिक विकास को निश्चित रूप से प्रभावित करते हैं।
किशोर बालक और बालिकाएँ सदैव किसी-न-किसी चिन्ता या समस्या में उलझे रहते हैं, जैसे-धन, प्रेम, विवाह, कक्षा में प्रगति, पारिवारिक जीवन इत्यादि । ये समस्याएँ उनके सामाजिक विकास की गति को तीव्र श मन्द, उचित या अनुचित दिशा प्रदान करती है।
लैंगिक भेद-भाव
अनेक शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों ने महिला तथा पुरुषों की उपलब्धि की तुलना को अपने अनुसंधान का विषय बनाया है। उन्होंने अपने प्रतिदर्श को दो भागों में विभाजित
किया है—महिला और महिला और पुरुष। इन शोध के तथ्यों के अनुसार सामाजिक तथा शारीरिक आधार पर महिला और पुरुष में भिन्नता है।
नसंधान का मुख्य लक्ष्य था महिला और पुरुष के भेद को लिंग व्यवहार के द्वारा – इस नुसंधा प में समझना। इस अनुसंधान का आधार मनोवैज्ञानिक या सामाजिक या। यह तथ्य इस धारणा को सिद्ध करते है कि शारीरिक बनावट के अनसार दोनों की संवेगों में भी अंतर होता है। मला और परुष वर्ग में सामान्य बुद्धि के संबंध में समानता पायी जाती है। इन हों में भेद कछ विशेष योग्यताओं या लक्षणों को लेकर है। औसतन पुरुषों में महिलाओं की तुलना में तर्क करने, वस्तुओं में समानता खोजने तथा सामान्य ज्ञान क्षेत्र में कछ श्रेष्ठता के संकेत मिलते हैं। लड़कियों में स्मरण शक्ति, भाषा तथा सौन्दर्य-बोध के गुण अधिक होते हैं।
शोध से यह पता लगाया गया है कि छात्राओं का भाषायी विकास छात्रों की तुलना में अल्पायु से ही अधिक होता है। विद्यालयपूर्व आयु वर्ग की बालिकाओं की शब्दावली इस आयु वर्ग के बालकों की तुलना में अधिक सक्षम होती है। छात्राओं की पठन गति भी छात्रों से अधिक होती है।
सामान्यतः दोनों वर्गों की बुद्धि अथवा शैक्षिक अभिक्षमता में इतना भेद नहीं होता है कि वे किसी दिये कार्य को असमान क्षमता से सम्पन्न न करें। इन तथ्यों के आधार पर यही निष्कर्ष निकलता है कि शैक्षिक कार्यक्रम तथा पाठ्यक्रम में अन्तर जन्मजात बौद्धिक स्तर के कारण नहीं होता है।
व्यक्तित्व के विषय में लैंगिक भेद
> व्यक्तित्व भिन्नता के कारण ही बौद्धिक आचरण, व्यवहार तथा उपलब्धि में अंतर आने लगता है। रुचि, आदत, पृष्ठभूमि, जीवन के उद्देश्य तथा बौद्धिक योग्यता में भिन्नता के कारण ही हर व्यक्ति आशानुकूल उपलब्धियों के लिए अपने आचरण का मार्ग खोज निकालता है। कुछ व्यक्ति अन्तर्मुखी तथा कुछ बहिर्मुखी आचरण के होते हैं। किसी को अधिगम का एक विधि अच्छी लगती है तो दूसरे को अन्य विधि। कुछ आक्रामक स्वभाव के हात है तो कुछ स्वभाव से विनम्र होते हैं। इस प्रकार के अबौद्धिक लक्षण तथा गुण उसक विकास तथा मानसिक योग्यताओं की अभिव्यक्ति को अलग-अलग दिशाओं में प्रभावित कर सकते हैं। आयु के विषय में लैंगिक भेद स्था विकास के साथ ही बालक बालिकाओं में व्यक्तिगत रूप से, वर्गगत या त रूप से भेद परिलक्षित होते हैं। जैसे-जैसे अवस्था में विकास होता रहता है कार व्यक्ति में वातावरण से उत्पन्न जटिल समस्याओं के समाधान निकालने की क्षमता भी विकसित होने लगती है। किशोरावर) बालक बालिकाएँ जैसे ही शैशव अवस्था को पार कर प्रौढ़ावस्था त धक विकास भी उसी के साथ-साथ विकसित होता चला जाता हा कार इनकी शारीरिक बनावट, तन्त्रिका तत्र, मास क्षमता आयु के साथ साथ विकसित होते रहते है।
> अतः आय दोनों वर्गों में भेद का महत्वपूर्ण कारक है क्योंकि बालक-बालिकाओं अनुभव का विकास उनकी बौद्धिक क्षमता को प्रभावित करता है।
जाति के विषय में लैंगिक मुद्दे
> विभिन्न जातियों के समूह पर किये गये शोध से यह ज्ञात होता है कि उच्च बौद्धिक मान्यता के क्षेत्रों, यथा—तर्क, अवधान, अन्तःदृष्टि, निर्णय कुशलता में भेद परिलक्षित हुए हैं। आदिम जाति के लोगों में संवेदी तथा चालक अभिलक्षण (Characteristicil संवेदी अनुक्रिया में सूक्ष्मता तथा प्रत्यक्षण की सूक्ष्मता काफी अधिक थी।
अमिश्रित जातियों पर मनोवैज्ञानिक अध्ययन करना बड़ा जटिल कार्य है। जब हम एक ही देश में रहने वाली दो जातियों का अध्ययन करते हैं उनका वर्गीकरण करना कठिन होता है। ऐसे समय में इनके सांस्कृतिक तथा सामाजिक प्रभाव का सम्मिश्रण इतना अधिक हो जाता है कि जातीय संबंधी प्राकृतिक गुणों को अलग कर पाना संभव नहीं है।
मानसिक विकास का स्तर और क्रम वातावरण के प्रभाव तथा व्यक्ति की व्यक्तिगत योग्यताओं के आदान-प्रदान की विचित्र प्रक्रिया है। किसी क्षेत्र-विशेष का भौगोलिक वातावरण, जलवायु, रहन-सहन का ढंग, सांस्कृतिक वातावरण, व्यक्ति के लंबे जीवन को इतना अधिक प्रभावित करता है कि उसके प्रभाव की अलग से जाँच करना बहुत कठिन है।
शिक्षा में लैंगिक मुद्दे
> प्रायः समाज में लड़कियों की शिक्षा का विशेष महत्व नहीं दिया जाता है। लड़की को लड़के से भिन्न समझकर उसे निश्चित रूढ़िगत काम-धंधों में लगा दिया जाता है।
शिक्षण के समय कुछ अध्यापक भी लड़कियों पर अवांछित (Unwanted) टिप्पणी करते हैं, जो शिक्षण की रीति-नीति के अनुकूल नहीं है। ऐसे अध्यापकों की यह धारणा होती है कि लड़कियों के लिए शिक्षा की व्यवस्था होनी चाहिए जो उन्हें सुगृहिणी तथा आदर्श माता बनाने में सहायक हो।
बालक तथा बालिकाएँ कुछ क्षेत्रों या योग्यताओं में अवश्य भिन्न हैं, पर इन क्षेत्रों में ये एक-दूसरे से आगे भी निकल जाते हैं। इसी आधार पर जन्मजात योग्यताओं के अधिकतम विकास के लिए विशेष शिक्षण रीति-नीति अपनाने की जरूरत है तथा अभाव के क्षेत्रों को प्रबल करने के लिए विशेष पद्धतियों का आश्रय लेने की आवश्यकता है।
एक अध्यापक को लैंगिक भेदभाव कम करने के लिए लिंग-भेद आधारित भावना के विरुद्ध बहादुरी वाला कदम उठाना होगा तथा लड़के-लड़कियों के बीच पाये जानेवाले वास्तविक भेदों को पहचानना होगा।
लड़कियों के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण लैंगिक भेद-भाव का दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा है। समाज के निम्न स्तर से आने वाली लड़कियों के सन्दर्भ में इस स्तर पर भेद की बुराई और भी अधिक है।
समाज के निम्न स्तर पर रहने वाली जातियों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा इसी प्रकार की अन्य अभावग्रस्त या सुविधाविहीन कई
जातियाँ हैं। इन पर दो दोष आ हन पर दो दोष आरोपित किये जाते हैं- () यह अभावग्रस्त परिवारों अत है। (ii) यह आर्थिक दृष्टि से पिछड़ा और दलित है। ये दोनों शैक्षिक सामाजिक दृष्टिकोण उनके सामाजिक उन्नति में बाधक होते हैं।
दृष्टि से पिछड़े होने के कारण यह समुदाय अनुभव करते हैं कि लड़की की पर किये जाने वाले खर्च की तुलना में उनके विवाह पर किये जानेवाले खर्च कहीं अधिक लाभप्रद और उपयोगी है। लयों की शिक्षा से सम्बन्धित आर्थिक, शैक्षिक तथा सामाजिक पक्षों के विषय में मिलन करना अध्यापक के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण है। यद्यपि अनेक राज्य सरकारों डाकियों की उचित शिक्षा के लिए अनेक कल्याणकारी योजनाओं का शुभारम्भ सा है फिर भी लड़कियों की एक बड़ी संख्या विद्यालय की चहारदीवारी में प्रवेश नहीं कर पायी है।
परीक्षोपयोगी तथ्य
सामाज के विकास में बालक एवं बालिकाओं की भूमिका महत्वपूर्ण होती है।
अनेक शिक्षाविदों तथा मनोवैज्ञानिकों का मत है कि सामाजिक तथा शारीरिक आधार पर महिला और पुरुष में भिन्नता है।
> आय में वृद्धि के साथ ही बालक-बालिकाओं में अनुभव का विकास उनकी बौद्धिक क्षमता को प्रभावित करता है।
> लैंगिक भेद लगभग सभी क्षेत्रों में विद्यमान है जैसे—व्यक्तित्व के विषय में, आयु के विषय में, जाति के विषय में, शिक्षा के विषय में। इन भेदभाव को कम करने के लिए अध्यापक को लिंग-भेद आधारित भावना के विरुद्ध साहसिक कदम उठाना होगा।
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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bhasha Aur Vichar Study Material : आज की पोस्ट UPTET and CTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Chapter 8 भाषा और विचार Study Material in Hindi साथ में Free PDF Download करने जा रहे है |
भाषा और विचार | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter 8 in PDF
‘स्वीट’ (Siveet)के अनुसार, ”भाषा, ध्वनियों द्वारा मानव के भावों की अभिव्यक्ति है। हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, ”भाषा में सम्प्रेषण (विचारों का आदान-प्रदान के वे सभी साधन आते हैं, जिसमें विचारों और भावों को प्रतीकात्मक बना दिया जाता है, जिससे कि अपने विचारों और भावों को दूसरों से अर्थपूर्ण ढंग से कहा जा सके। लिखना, पढ़ना बोलना, मुखात्मक अभिव्यक्ति, हाव-भाव संकेतों का प्रयोग तथा कलात्मक अभिव्यक्तियाँ आदि भाषा में ही सम्मिलित हैं। भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है। यदि भाषा का विकास न हो तो निश्चय ही व्यक्ति की मानसिक योग्यताओं का विकास जिस सामान्य ढंग से होता है उस ढंग से नहीं होगा। भाषा के माध्यम से विचारों को प्रकट करने पर उनमें स्पष्टता आ जाती है; अतः प्रत्येक बालक के विकास क्रम में भाषा का विकास होना परम आवश्यक है।
भाषा विकास का महत्व Importance of Language Development
भाषा के माध्यम से ही व्यक्ति अपने विचारों का आदान-प्रदान कर सकता है तथ है व्यक्ति को सामाजिक, शारीरिक, मानसिक और शैक्षिक सभी क्षेत्रों में लाभ प्राप्त होत है। इसका महत्व निम्नलिखित है
(a) सामाजिक संबंधों में भाषा का महत्व (Importance of Language in Socies Relations) : भाषा के माध्यम से बालक अपनी बातों को दूसरे से कह सकता है तथ दूसरों की बात समझ भी सकता है तथा वाणी द्वारा वह सामाजिक मूल्यों, नियमों और आदर्शों आदि को सीखता है तथा समाज में समायोजन करने में सफल होता है। – एलिस के अनुसार, “भाषा वह प्राथमिक माध्यम है जिसके द्वारा व्यक्ति अप समाज को प्रभावित करता है तथा समाज से प्रभावित होता है
(b) आत्म-मूल्यांकन में महत्व (Importance in Self Evaluation) : बालक ज ( अपने परिवार में होता है या अपने खेल के समूह में होता है अथवा अन्य किसी समूअ में होता है, उस समय दूसरे लोग उसके संबंध में क्या बोलते हैं और किस प्रकार (S मुखात्मक और शारीरिक अभिव्यक्ति करते हैं। इससे एक बालक सरलता से यह ज अ सकता है कि लोग उससे और उसकी वाणी से कितना प्रभावित हुए हैं।
(शैक्षिक उपलब्धि में महत्व (Importance in Academic Achievement): बाल अ को कैसे बोलना है, क्या बोलना है, उसका शब्द-भण्डार कितना है, इन सभी बातो अ उसकी शैक्षणिक उपलब्धियाँ प्रभावित होती हैं। जिनका शब्द-भण्डार बड़ा होता है उस वाक्य विन्यास तथा भाषा प्रस्तुतीकरण अच्छा होता है।
(d) नेतृत्व के विकास में सहायक भाषा के माध्यम से कोई भी व्यक्ति अपने समूह का नेता बन सकता है। वह अपनी बात दूसरों को समझा सकता है तथा दूसरों की बात को सुन सकता है। विचारों को जो व्यक्ति कुशलतापूर्वक अभिव्यक्त कर लेते हैं, उनकी वाणी व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। अतः नेतृत्व गुणों के विकास में भाषा सहयोग प्रदान करती है।
() व्यक्ति विकास में सहायक भाषा व्यक्ति विकास की आधारशिला है, जो बालक अपने विचारों का प्रकटीकरण सीमित, सन्तुलित तथा प्रभावशाली भाषा में करते हैं, वे जीवन में विकास की ओर बढ़ते हैं तथा उनका व्यक्तित्व भी प्रभावशाली होता है।
() सामाजिक मूल्यांकन में महत्व (Importance in Social Evaluation): जिस प्रकार सामाजिक परिस्थितियों में बालक दूसरों की वाणी सुनकर अपना या आत्म-मूल्यांकन करता है, ठीक उसी प्रकार सामाजिक परिस्थितियों में एक बालक क्या बोलता है या क्या उसकी वाणी सम्बन्धित अभिव्यक्ति है, इस आधार पर उस बालक का मूल्यांकन समाज के अन्य व्यक्ति करते हैं।
भाषा विकास के सिद्धांत Principle of Language Development
भाषा विकास के सिद्धांत निम्नलिखित हैं-
(a) स्वर यंत्र की परिपक्वता (Maturation of Larynx): भाषा का विकास शरीर के अंग की परिपक्वता जैसे—स्वर यंत्र, जीभ, गला और फेफड़ा इत्यादि पर निर्भर करता है। यह सभी अंग जब तक एक विशेष परिपक्वता स्तर पर नहीं पहुँचते हैं तब तक भाषा का सामान्य विकास संभव नहीं है। इन सभी अंगों के अतिरिक्त भाषा का विकास होंठ, दाँत, तालु और नाक के विकास पर भी निर्भर करता है।
इन अंगों की परिपक्वता के अतिरिक्त वातावरण संबंधी कारक भी भाषा के विकास को प्रभावित करते हैं। भाषा के विकास में वातावरण संबंधी कारकों में अनुकरण के अवसर एक महत्वपूर्ण कारक हैं।
L) अनुबंधन (Conditioning) : अधिगम सिद्धान्तवादियों ने बालक में भाषा के विकास को उद्दीपक अनुक्रिया (S-R) के बीच स्थापित साहचर्य के आधार पर समझाया है। इस दिशा में स्किनर (Skinner) का प्रयास अति सराहनीय है। स्किनर ने पुनर्बलन Reinforcement) के आधार पर भाषा के विकास को समझाया। स्किनर का विचार है के अन्य व्यवहार कार्यों की तरह भाषा का विकास भी ‘आपरेन्ट अनुबंधन’ (Operant Conditioning) पर निर्भर करता है। इस सिद्धांत के अनुसार बालक द्वारा भाषा का अर्जित करना ध्वनि और ध्वनि-संयोजन (Sound Combination)के चयनात्मक पुनर्बलन |Selective Reinforcement) पर निर्भर करता है। स्किनर के अनुसार बालक स्वतः अनायास या अनुकरण के आधार पर बोलते हैं।
उद्दीपक अनुक्रिया के बीच स्थापित साहचर्य के आधार पर भी बालक शब्दों का प्रधिगम करता है। अतः स्किनर के अनसार बालक का शब्दों को सीखना आपरेन्ट अनुबंधन से अधिक सम्बन्धित है।
कोमास्की का सिद्धांत (Chomsky’s Theory):कोमास्की (Chomsky)का विचार कि बालक का शब्दों या भाषा का सीखना अनुकरण और पुनर्बलन पर आधारितअवश्य है परन्तु अनुकरण और पनर्बलन दोनों ही बालक द्वारा शब्दों को सीखने की प्रक्रिया को भली-भाँति स्पष्ट नहीं करते हैं। कोमास्की ने अपने सिद्धांत को निम्नलिखित मॉडल चित्र के द्वारा समझाया हैLinguistic Data T LAD The Ability to Understand & (Input) (Processing) Produce Sentence (Output)
“उपर्युक्त मॉडल के अनुसार बालक जो कुछ भी सुनता है उसे Language Acquisition Device) के द्वारा समझता है तथा उसे पुनरोत्पादित कर सकता है तथा नये शब्द भी बोल सकता है।
(d) सामाजिक अधिगम सिद्धांत (Social Learning Theory) : इस सिद्धांत के प्रतिपादकों में बन्डुरा (Bandura) का नाम प्रमुख है। इस सिद्धांत के समर्थकों का कहना है कि बालक भाषा के संबंध में जो कुछ भी सीखता है, वह मॉडल के व्यवहार के निरीक्षण .और अनुकरण पर आधारित होता है। इस प्रकार का सीखना पुनर्बलन के साथ भी हो , सकता है और पुनर्बलन की अनुपस्थिति में भी हो सकता है।
इन सिद्धांतवादियों का कहना है कि बिना किसी मॉडल के बच्चे शब्दों और भाष – की संरचना को नहीं सीख सकते हैं। बालक जिस वातावरण में रहते हैं, उसमें रहने । वाले अन्य व्यक्ति जो भाषा और शब्द बोलते हैं, वह बच्चा सुनता रहता है। कई बार कि वह शब्दों का तुरंत अनुकरण नहीं कर पाते हैं। फिर भी वे शब्दों और भाषा के बारे में। कुछ सूचना अवश्य ग्रहण करते हैं।
भाषा-विकास की अवस्थाएँ Stages of Speech Development
बालकों में भाषा-विकास की कई अवस्थाएँ हैं, जो इस प्रकार है-
A. बोलने की तैयारी
क्रन्दन (Crying) शिशु के जन्म से ही क्रन्दन प्रारम्भ हो जाता है, जो उसर्व वा भाषा का प्रारम्भिक रूप है। यदि बालक सामान्य रूप से रोता है तो रोने से उस आवश्यकता की पूर्ति होती है। साथ ही उसकी माँसपेशियों का अभ्यास भी हो जात । है। इस अभ्यास से उसकी माँसपेशियों की वृद्धि होती है और माँसपेशियों का समन्वय (Ordination) बढ़ता है। रोने से उनको अच्छी नींद आती है एवं उनकी भूख बढ़ती है 3 रोने से बच्चों का संवेगात्मक तनाव भी दूर होता है, परन्तु आवश्यकता से अधिध रोना बालक के लिए शारीरिक और मनोवैज्ञानिक दोनों रूप से हानिकारक होता है।
वा तक चलता है। बबलाने से बालकों के स्वर-यन्त्र की परिपक्वता को बल मिलता बालक आय बढ़ने के साथ अधिक से अधिक ध्वनियाँ बोलने लगता है। बबलाने में वा स्वरों को पहले और व्यंजनों को उनके साथ मिलाकर दुहराता है।
हाव भाव (Gestures): बालकों द्वारा हाव-भाव का प्रदर्शन भाषा के पूरक के रूप किया जाता है। बच्चों के हाव-भाव की उत्पत्ति बबलाने के साथ साथ ही हो जाती बच्चा अपने हाव-भाव का प्रदर्शन, मुस्कुराकर, हाथ फैलाकर, अँगुली दिखाकर, मूक में करता है। अतः बच्चों के लिए हाव-भाव विचारों की अभिव्यक्ति का एक सुगम मशन है, जो शब्दों के स्थान पर प्रयुक्त किया जाता है।
वास्तविक भाषा की अभिव्यक्तियाँ
(a) आकलन शक्ति (Comprehensive Power) : बालकों की वह क्षमता जिसके द्वारा वह दूसरों की क्रियाओं तथा हाव-भाव का अनुकरण कर लेता है, ‘आकलन शक्ति कहलाती है। हरलॉक के अनुसार, बालक में आकलन शक्ति का विकास शब्दों के प्रयोग से पहले हो चुका होता है। प्रायः यह देखा गया है कि बालक उन वाक्यों को जल्दी सीखता है, जिनमें शब्दों के साथ-साथ कुछ हाव-भाव भी जुड़े होते हैं।
(b) उच्चारण (Pronunciation): लगभग 1 वर्ष के बालकों में शब्दों के अनुसार उच्चारण की तत्परता (Readiness) एवं योग्यता आ जाती है। इस समय वह अनेक ऐसी सरल ध्वनियों को उच्चारित कर सकता है जिनका उच्चारण उसने पहले कभी नहीं किया था। यह वह अनुकरण द्वारा सीखता है।
(c) शब्द-भण्डार (Vocabulary) : बालक के शब्द-भण्डार में वृद्धि उसके आयु में वृ द्धि के साथ-साथ होती है।
बालक का शब्द-भण्डार Vocabulary of Child
बालक का शब्द भण्डार
विशिष्ट शब्दावली का रूप शिष्टाचार से सम्बन्धित शब्द-भण्डार (Etiquette Vocabulary) गुप्त शब्द भण्डार (Secret Language) अशिष्ट शब्द भण्डार (Slang Vocabulary) धन से सम्बन्धित भण्डार (Money Vocabulary) रंगों से सम्बन्धित भण्डार (Colour Vocabulary) संख्याओं से सम्बन्धित भण्डार (Number Vocabulary) समय संबंधी शब्द (Time Vocabulary) atrafor (Sentence Formation) शुद्ध उच्चारण (Correct Pronunciation) साधारण शब्द भण्डार भाषा या वाणी शब्द (Speech Defects) शब्द-अर्थ से सम्बधित दोष वाक्य-निर्माण में दोष उच्चारण में दोष (Defects in Pronunciation)
> थॉमसन तथा लिपसिट के अनुसार,
10 शब्द 18 माह के बालक का शब्द भण्डार
272 शब्द 2 वर्ष
450 शब्द 2, वर्ष
1000 शब्द 3 वर्ष
1250 शब्द 37 वर्ष
1600 शब्द 4 वर्ष
1900 शब्द 4 वर्ष
2100 शब्द 5 वर्ष
50,000 शब्द छठी कक्षा में पढ़ने वाले बालक का शब्द-भण्डार हाई स्कूल80,000 शब्द >
बालकों की तुलना में बालिकाओं का शब्द-भण्डार अधिक होता है।
सामान्य भाषा या वाणी विकार Some Common Speech Defects
अधिकांशतः वाणी संबंधी विकार उन बच्चों में अधिक पाया जाता है जिनके पारिवारिक संबंध खराब होते हैं। उन बालकों की भाषा धीमी गति से व क्रमिक होता है। सामान्य भाषा में दोष निम्नलिखित प्रकार से होते हैं
(a) भ्रष्ट उच्चारण (Lisping) : सामान्य वाणी दोषों में मुख्यतः भ्रष्ट उच्चारण-दोष पाया जाता है। मुख्य रूप से जबड़ों, दाँतों और होंठों की रचना ठीक न होने के कारण : या परिवार के सदस्यों द्वारा भ्रष्ट उच्चारण करना या फिर शैशवावस्था में बच्चों द्वार । उच्चारित शब्द का माता-पिता द्वारा आनन्द लेना तथा भ्रष्ट उच्चारण को प्रोत्साहित करन = इत्यादि भ्रष्ट उच्चारण-दोष को बढ़ावा देता है।
(b) अस्पष्ट उच्चारण (Slurring) : बच्चे जब शब्दों को अस्पष्ट बोलते हैं तो इस 2 प्रकार का विकार भाषा विकार कहलाता है। लगभग 5 वर्ष की अवस्था तक बच्च में अस्पष्ट उच्चारण करता है लेकिन आयु बढ़ने के साथ-साथ इस प्रकार का विकार स्वाद ही दूर हो जाता है।
(c) तुतलाना (Sluttering) : वैज्ञानिकों का मानना है कि अधिकांश बालकों में यह भाषा दोष 2 वर्ष की अवस्था से ही प्रारम्भ हो जाता है। बालकों का समायोजन जैसे जैसे अच्छा होता है, उसका तुतलाना कम हो जाता है।
हकलाना (Stammering) : वैज्ञानिकों का मानना है कि हकलाने का कारण बालकों का भय और घबराहट है। इसके अतिरिक्त स्वरयन्त्र, गला, जीभ, फेफड़ों तहा होंठ सभी का सन्तुलन ठीक न होने पर बालकों में यह दोष उत्पन्न हो जाता है। ट्रेविस मतानुसार, हकलाने का कारण मस्तिष्क में श्रवण एवं वाक् केन्द्रों का विकृत हो जाना के
(e) तीव्र अस्पष्ट वाणी (Cluttering) : बच्चे की वाणी तीव्र अस्पष्ट होती है। इस बच्चे के बोलने की गति तीव्र हो जाती है और साथ साथ शब्द अस्पष्ट होते हैं। तीव्र और अस्पष्ट होने के कारण बोलने वाले की भाषा कहीं कहीं समझ में नहीं आती है।
भाषा और विचार कास को प्रभावित करने वाले कारक Factors Affecting Language Development,
भाषा-विकास में वैयक्तिक करनेवाले कारक निम्नलिखित हैं-
में वैयक्तिक भिन्नता पायी जाती है। भाषा-विकास को प्रभावित विभिन्न अंगों की परिपक्वता अ पता (Maturation) : जिस प्रकार क्रियात्मक विकास के लिए शरीर के की परिपक्वता आवश्यक है। उसी प्रकार भाषा-विकास के लिए भी होंठ. साडे स्वरयंत्र और मस्तिष्क आदि की परिपक्वता आवश्यक है। मस्तिष्क का विशेष रूप से परिपक्व होना आवश्यक है। इन विभिन्न अंगों के परिपक्व होने पर ही बालक भाषा सीख सकता है।
बदि (Intelligence) विभिन्न अध्ययन में यह देखा गया है कि जिन बच्चों की
उच्च होती है, उनका कम IQ वाले बालकों की अपेक्षा शब्द-भण्डार अधिक ना है। उच्च IQ वाले बालक शुद्ध और बड़े वाक्य भी बोलते हैं। अधिक बुद्धि वाले बालकों में शब्द-भण्डार एवं वाक्य-रचना की अधिक क्षमता और शुद्ध उच्चारण की क्षमता भी पायी जाती है।
(c) स्वास्थ्य (Health) : यदि बालक लंबी अवधि तक बीमार रहता है, विशेष रूप 5 से दो वर्ष की आयु की अवधि तक तो उसके भाषा का विकास कमजोर स्वास्थ्य और 5 अभ्यास न कर सकने के कारण पिछड़ जाता है। बीमार बालक में भाषा बोलने के लिए (सीखने की प्रेरणा का अभाव भी पाया जाता है।
(d) यौन (Sex) : मैकनील का विचार है कि प्रत्येक आयु के बालक भाषा-विकास ग में बालिकाओं से पीछे रहते हैं। लड़कियों का शब्द-भण्डार, वाक्य में शब्दों की संख्या, – शब्द-चयन और वाक्य-प्रयोग आदि में लड़कों से अच्छा होता है। लड़कियाँ लड़कों की जा अपेक्षा जल्दी बोलना सीखती हैं।
(e) सामाजिक अधिगम के अवसर (Social Learning Opportunity) : बालक को – भाषा सीखने के लिए सामाजिक अवसर जितने ही अधिक प्राप्त होते हैं या जिन परिवार म बच्चे अधिक होते हैं, उन परिवार के बच्चे भाषा बोलना जल्दी सीख जाते हैं, क्योंकि पूसर बच्चे को सुनकर उनका अनुकरण करने के अवसर अधिक प्राप्त होते हैं।
जब परिवार में बच्चे न हों तो माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बालक को पड़ोस क बच्चों के साथ खेलने का अवसर दें जिससे कि बच्चा दूसरे बच्चों का अनुकरण करके भाषा जल्दी सीख जाय।
दशन (Guidance) : बालकों की भाषा के विकास के लिए माता-पिता और का आदि का निर्देशन भी आवश्यक है। बालक की भाषा उतनी ही अच्छी विकसित जितने अच्छे उसके सामने मॉडल प्रस्तुत किये जाते है। | (Motivation): अभिभावकों को चाहिए कि वे बालकों को हमेशा सीखने करते रहें। अभिभावक को बालकों के रोने पर वह चीज उपलब्ध नहीं जसक लिए वह रो रहा है तथा बालक यदि संकेत और हाव-भाव क । ता भी उपलब्ध न कराएँ, क्योंकि इस प्रकार बालक शब्दों को अध्यापकों आदि का निर्देशन भ क) (g) प्रेरणा (Motivation) : आ के लिए प्रेरित करते रहे। अ किराना चाहिए जिसके लिए प्रयोग में कोई चीज माँगे ता सीखने के लिए प्रेरित होंगे।
(h) सामाजिक आर्थिक स्थिति (Socio-Economic Status) : ऐसे बालक जिसक सामाजिक आर्थिक स्तर उच्च रहता है, निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर वाले बालकों की अपेक्षा भाषा ज्ञान में आगे होता है। उच्च सामाजिक स्तर वाले बालक पहले बोलना अधिक बोलना व अच्छा बोलना अपेक्षाकृत शीघ्र सीखते हैं।
(i) शारीरिक स्वास्थ्य व शरीर रचना (Physical Health and Body Structures जो बच्चे स्वस्थ, निरोगी होते हैं उनका भावात्मक विकास शीघ्र होता है। शारीरिक रचन भी भाषा विकास को प्रभावित करती है। शरीर रचना या शारीरिक रचना से अभिप्राय स्वरयंत्र, तालु, जीभ, दाँतों आदि की बनावट से है, क्योंकि ये अंश बोलने की क्रिय में भाग लेता है। ____6) व्यक्तिगत विभिन्नताएँ (Individual Differences) जो बच्चे उत्साही होते। उनमें शान्त प्रकृति के बच्चों की अपेक्षा भाषा शीघ्र विकसित होती है।
(K) कई भाषाओं का प्रयोग (Bilingualism): छोटे बच्चों के माता-पिता की भाष यदि अलग-अलग हो, तो बच्चे में भाषा का विकास अवरुद्ध होकर मन्द गति से होता है |
() पारिवारिक संबंध (Family Relationship) जिन बच्चों के पारिवारिक संबं अच्छे नहीं होते हैं उनमें अनेक भाषा संबंधी दोष उत्पन्न हो जाते हैं। परिवार का आका भी भाषा विकार को प्रभावित करता है। जब परिवार का आकार छोटा होता है तब माता-पिता बालकों की ओर अधिक ध्यान देते हैं। फलस्वरूप उनमें भाषा का विकार शीघ्र होता है। परन्तु यदि माता-पिता ध्यान नहीं देते तो बच्चों में भाषा का विकास दे से होता है।
बालकों की भाषा में सुधार के सुझाव Suggestions for Improving Children’s Speech
बालकों की भाषा में सुधार के सुझाव निम्नलिखित हैं-
(a) बालकों को उसकी उम्र के बराबर के बच्चों में अक्सर रखना चाहिए और बच्च को हमउम्र बच्चों से बात करने के लिए उत्साहित करना चाहिए।
(b) बच्चों की भाषा की ओर ध्यान आकर्षित कर उनमें भाषा के प्रति रुचि उत्पन् करनी चाहिए।
4) बच्चों की त्रुटिपूर्ण, दोषपूर्ण या विकारयुक्त वाणी की आलोचना नहीं कर चाहिए, ताकि बच्चों में भाषा बोलने के प्रति आत्मविश्वास जागृत हो।
(d) बालकों को कठोर नियंत्रण में नहीं रखना चाहिए। (e) जिन बालकों में भाषा-दोष हो उनका उपहास नहीं करना चाहिए।
(6) बालकों में अच्छी वाणी के विकास के लिए उनके सामने अच्छी भाषा का प्रय करना चाहिए ताकि बच्चे वाक्यों का अनुसरण करें। भाषा सीखने के साधन (a) अनुकरण (Imitation) ___(b) खेल (Play) (c) कहानी सुनना (Listening of Stories) (d) वार्तालाप तथा बातचीत (Talking) (e) प्रश्नोत्तर (Question -Answer)
विचार Thought
भाषा-सम्प्रेषण के माध्यम कौशल आदि सीखाने का प्रयास क पण के माध्यम से बालक नये भाव, दृष्टिकोण, सूचना, व्यवहार तथा ल सीखाने का प्रयास करता है। यह प्रक्रिया तभी संभव होती है जब शिक्षक और बालक क लक के उस भाषा का ज्ञान हो। सम्प्रेषण को समझने के बाद बालक अपनी स न अनक्रिया विचार के रूप में व्यक्त करता है।
विचार के प्रकार
शाब्दिक विचार मौखिक विचार
दृष्टि-विचार → मौखिक दृष्टि विचार
लिखित विचार
अशाब्दिक विचार शारीरिक भाषा कूट भाषा
परीक्षोपयोगी तथ्य
> भाषा विकास से तात्पर्य एक ऐसी क्षमता से होती है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने भावों, विचारों तथा इच्छाओं को दूसरे तक पहुँचाता है तथा दूसरों की इच्छाओं एवं
भावों को ग्रहण करता है।
> मनोवैज्ञानिकों ने भाषा विकास के चरणों की व्याख्या मोटे तौर पर दो भागों में बाँटकर किया है-
बोलने की तैयारी और वास्तविक भाषा की अभिव्यक्तियाँ। बोलने की तैयारी में क्रन्दन, बबलाना एवं हाव-भाव शामिल है। वास्तविक भाषा की अभिव्यक्ति में आकलन शक्ति, उच्चारण, शब्द-भण्डार इत्यादि शामिल है।
शिक्षा मनोवैज्ञानिकों तथा विकासात्मक मनोवैज्ञानिकों के अनुसार भाषा विकास एक खास क्रम में होता है। इस क्रम का पहला चरण ध्वनि की पहचान तथा अंतिम चरण भाषा विकास की पूर्णावस्था है।
बालकों के भाषा विकास कई कारणों से प्रभावित होते हैं जिनमें बुद्धि, स्वास्थ्य, बान-भिन्नता, सामाजिक-आर्थिक स्तर, परिवार का आकार, बहुजन्म, एक से अधिक भाषा-उपयोग, साथियों के साथ संबंध तथा माता-पिता द्वारा प्रेरणा प्रधान है।
बालका में दो तरह के शब्दावली विकसित होते हैं सामान्य शब्दावली तथा विशिष्ट शब्दावली।
भाषा-विकास में घर पर माता-पिता द्वारा दी गई अनौपचारिक शिक्षा तथा स्कूल में ससका द्वारा दी गई अौपचारिक शिक्षा का काफी महत्व होता है।
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बुद्धि-निर्माण तथा बहुआयामी बुद्धि
बद्धि (Intelligence) वेशलर (IVechsler, 1939) के अनुसार, “बुद्धि एक समुच्चय या सार्वजनिक क्षमता है, जिसके सहारे व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण क्रिया करता है, विवेकशील चिंतन करता है तथा वातावरण के साथ प्रभावकारी ढंग से समायोजन करता है।”
> रॉबिन्सन तथा रॉबिन्सन (Robinson & Robinson, 1965)के अनुसार, “बुद्धि से तार पर्य संज्ञानात्मक व्यवहारों (Cognitive Behaviours) के संपूर्ण वर्ग से होता है, जो व्यक्ति में सूझ-बूझ द्वारा समस्या समाधान करने की क्षमताएँ, नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करने की क्षमताएँ, अमूर्त रूप से सोचने की क्षमता तथा अनुभवों से लाभ उठाने की क्षमता को दिखाता है।
> स्टोडार्ड (Stoddard, 1941) के अनुसार, “बुद्धि उन क्रियाओं को समझने की क्षमता है जिनकी विशेषताएँ हैं—कठिनता, जटिलता, अमूर्त्तता, मितव्ययिता, किसी लक्ष्य के प्रति अनुकूलनशीलता, सामाजिक मान (Value) और मौलिकता की उत्पत्ति और कुछ परिस्थिति में वैसी क्रियाओं को करना जो शक्ति की एकाग्रता तथा सांवेगिक कारकों का प्रतिरोध (Resistance) दिखाता है।”
> पी. ई. वर्नन (P. E. Vernon, 1969) बुद्धि संप्रत्यय के तीन अर्थ बतलाये हैं जो लोकप्रिय और आकर्षक दिखते हैं। ये अर्थ इस प्रकार हैं-
(a) जननिक क्षमता के रूप में बुद्धि (Intelligence as Genetic Capacity): इस अर्थ में बुद्धि पूर्णतः वंशागत (Inherited) होती है। इसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘ए’ (Intelligence A)कहा है, जो स्पष्टतः बुद्धि का एक जीनोटाइपिक (Genotypic)प्रकार है तथा इसमें बुद्धि को व्यक्ति का एक आनुवंशिक गुण माना जाता है।
(b) प्रेक्षित व्यवहार के रूप में बुद्धि (Intelligence as Observed Behaviour): इस अर्थ में बुद्धि व्यक्ति के जीन एवं वातावरण की अंतःक्रिया (Interaction) का परिणाम होता है तथा जिस सीमा तक व्यक्ति बुद्धिमत्तापूर्ण ढंग से व्यवहार करता है, उस सीमा तक उसे बुद्धिमान समझा जाता है। बुद्धि का यह अर्थ फीनोटाइपिक (Phenotypic) प्रारूप का है। उसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘बी’ (Intelligence ‘B’) कहा है।
(c) परीक्षण प्राप्तांक के रूप में बुद्धि (Intelligence as a Test Score) इस अर्थ में बुद्धि की एक क्रियात्मक परिभाषा दी गई। इस अर्थ में बुद्धि वही है जो बुद्धि परीक्षण मापता है। इसे हेब (Hebb) ने बुद्धि ‘सी’ (Intelligence ‘C’) की संज्ञा दी है।
बुद्धि के प्रकार Type of Intelligence
ई. एल. थॉर्नडाइक (E. L. Thorndike) ने बुद्धि के तीन प्रकार बताये हैं20 सामाजिक बुद्धि (Social Intelligence) सामाजिक बुद्धि से तात्पर्य वैसी सामान्य
मानसिक क्षमता से होता है जिसके सहारे व्यक्ति अन्य व्यक्तियों को ठीक ढंग : समझता है तथा व्यवहारकशलता भी दिखाता है। ऐसे लोगों का सामाजिक संबंध (Socia Relationship) अच्छा होता है।
-ईवर एवं वालरस्टीन (Drever & Vallerstein) के अनुसार, “सामाजिक बुद्धि बुद्धि का एक प्रकार है जो किसी व्यक्ति में अन्य व्यक्तियों एवं सामाजिक संबंधों के प्रति व्यवहार में निहित होता है।” जिन व्यक्तियों में सामाजिक बुद्धि होती है उनमें अन्य लोगों के साथ प्रभावपूर्ण ढंग से व्यवहार करने की क्षमता, अच्छा आचरण करने की क्षमता एवं समाज के अन्य लोगों से मिल जुलकर सामाजिक कार्यों में हाथ बँटाने की क्षमता अधिक होती है। सामाजिक बुद्धि एक ऐसी बुद्धि है जो व्यक्ति को सामाजिक परिस्थितियों में समायोजित होने में मदद करती है।
(ii) अमूर्त बुद्धि (Abstract Intelligence) : अमूर्त्त विषयों के बारे में चिंतन करने की क्षमता को ही अमूर्त बुद्धि (Abstract Intelligence) कहा जाता है। ऐसी बुद्धि में व्यक्ति शब्द, प्रतीक तथा अन्य अमूर्त्त चीजों के सहारे अच्छे से चिंतन कर लेता है। इस प्रकार की क्षमता दार्शनिकों, कलाकारों, कहानीकारों आदि में अधिक होती है।
टरमैन (Terman) के अनुसार, अमूर्त्त बुद्धि का महत्व छात्रों में विद्यमान अन्य दूसरे तरह की बुद्धि से अधिक होती है, अमूर्त्त बुद्धि को कुछ लोगों ने सैद्धान्तिक बुद्धि (Theoretical Intelligence) भी कहा है।
जिन व्यक्तियों में अमूर्त्त बुद्धि अधिक होती है वे सफल कलाकार, पेंटर, गणितज्ञ एवं कहानीकार आदि बनते हैं।
(iii) मूर्त्त बुद्धि (Concrete Intelligence) मूर्त्त बुद्धि से तात्पर्य वैसी मानसिक क्षमता से होता है जिसके सहारे व्यक्ति मूर्त या ठोस वस्तुओं के महत्व को समझता है, उनके बारे में सोचता है तथा अपनी इच्छा एवं आवश्यकतानुसार उनमें परिवर्तन लाकर उन्हें उपयोगी बनाता है। इसे व्यावहारिक बुद्धि (Practical Intelligence) भी कहा जाता है।
बुद्धिलब्धि Intelligence Quotient
बुद्धि मापने के लिए सबसे पहला बुद्धि परीक्षण बिने (Binet)तथा साइमन (Simon) ने 1905 में विकसित किया। इस परीक्षण में बुद्धि को मानसिक आयु (Mental Age) के रूप में मापकर अभिव्यक्त किया गया। 1916 ई० में बिने साइमन परीक्षण का सबसे महत्वपूर्ण संशोधन टरमैन (Terman ने स्टैंडफोर्ड विश्वविद्यालय में किया। इसी संशोधन में बुद्धिलब्धि (IQ) के संप्रत्यय (Concept) का जन्म हुआ और बुद्धि को मापने में मानसिक आय की जगह र बुद्धिलब्धि (IQ) का प्रयोग होने लगा। बद्धिलब्धि (IQ) मानसिक आयु (Mental Age)तथा तैथिक आयु (Chronological Age) का एक ऐसा अनुपात है जिसमें 100 से गुणा कर प्राप्त किया जाता है। इसलिए इसे अनुपात बुद्धिलब्धि (Ratio IQ) भी कहा जाता है।
जहाँ MA मानसिक आय, CA तैथिक आय वाला > मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धिलब्धि के भिन्न भिन्न मानों (Values) के अर्थ को स्पष्ट एवं वस्तुनिष्ठ करने लिए निम्नलिखित मान तथा उनके अर्थ दिये हैं> मनोवैज्ञानिक ने 25 30 वर्ष या इससे ऊपर की आयु के व्यक्ति के बुद्धि को मापने के लिए बुद्धि की जगह एक नयी धारणा (Concept) का प्रयोग किया, जिसे विचलन बुद्धिलब्धि (Deviation IQ) की संज्ञा दी गई है।
विचलन बुद्धिलब्धि ज्ञात करने के लिए पहले मानक प्राप्तांक ज्ञात किया जाता है और फिर इस प्राप्तांक को एक मापनी (Scale) (जिसका माध्य (Mean) 100 तथा मानक विचलन (Standard Deviation) 15 होता है) में बदल दिया जाता है।
बुद्धिलब्धि के मान तथा उनके अर्थ
बुद्धिलब्धि के मान (Value of IQ)
अर्थ (Meaning) 140 या इससे अधिक
प्रतिभाशाली (Genius) 120 से 139 तक
अतिश्रेष्ठ (Very Superior) 110 से 119 तक
श्रेष्ठ (Superior) 90 से 109 तक
सामान्य (Normal) 88 से 89 तक
मन्द (Dull) 70 से 79 तक
सीमांत मन्दबुद्धि (Borderline Feeble Minded) 60 से 69 तक
मूढ़ बुद्धि (Moron) 20 से 59 तक
हीन बुद्धि (Imbecile) 20 या इससे कम बुद्धि
जड़ बुद्धि (Idiot)
उदाहरण के लिए, किसी व्यक्ति को एक बुद्धि परीक्षण पर 60 अंक प्राप्त हुए। उसी परीक्षण को उस व्यक्ति के समान उम्र के व्यक्तियों पर (N= 100) क्रियान्वयन करने । पर माध्य = 30 तथा मानक विचलन = 10 प्राप्त हुआ।
Xमानक प्राप्तांक (Standard Score) A,
बुद्धि की माप Measurement of Intelligence
बुद्धि की माप बुद्धि परीक्षण (Intelligence Test) द्वारा की जाती है। सबसे पहला बुद्धि परीक्षण बिने (Binet)तथा साइमन (Simon) ने मिलकर 1905 में बनाया था। यह बुद्धि परीक्षण आनेवाले वर्षों में मनोवैज्ञानिकों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ। इसमें भी कई मनोवैज्ञानिक द्वारा संशोधन किया गया।
इस परीक्षण का सबसे महत्वपूर्ण संशोधन टरमैन (Terman) द्वारा 1916 में स्टैडफोर्ड विश्वविद्यालय (Standford University) में किया गया। इस संशोधन में सबसे
पहली बार पिलब्धि की धारणा का वृद्धि मापने के सूचक (Index) के रूप में प्रयोग किया |
इसके बाद अनेक मनोवैज्ञानिकों जैसे वेश्लर (Mechsler), अर्थर (Arthur), कैटेल M (Cattees) रेवेन (Ranen) गडएनफ (Goodenough) आदि मनोवैज्ञानिको ने भी बुद्धि परीक्षण बनाकर बुद्धि मापन के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। भारत ।। में भी कई मनोवैज्ञानिको ने बुद्धि परीक्षण का निर्माण किया है। इनमें डॉ. एस है जलोटा, डॉ मोहनचंद जोशी, डॉ. एस एस मुहसिन आदि प्रमुख है। इनमें मह मे वपूर्ण बुद्धि परीक्षण निम्नलिखित है-
विने साइमन परीक्षण (Binet Simon Test) इस परीक्षण का निर्माण बिने तथा पर साइमन ने फ्रेंच भाषा में 1005 में किया। यह एक प्रकार का वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण पर (Individual Intelligence Test) 81
पेशलर बद्धि परीक्षण (Techsler Intelligence Test) वेश्लर ने बुद्धि मापने । के दो नियम दिये। वयस्कों की बुद्धिमापने के लिए 193) में एक मापक तैयार किया, जिसका नाम वेश्चर वेलेब्यू मापनी रखा गया। इस परीक्षण में दो फार्म थे, दोनों में 10 10 वि उपपरीक्षण (Subtest)थे। 10 में 5 शाब्दिक मापनी (Terbal Scale) थे, और 5 क्रिया मक मापनी (Performance Scale) थे। इस परीक्षण का 1955 में संशोधन किया गया के और इसका नाम वेश्लर वयस्क बुद्धि मापनी AIAIS) रखा गया। 1981 में इसमें फिर जि संशोधन कर इसका नाम |AIS R रखा गया। इस परीक्षण में वृद्धि की माप तीन तरह ब की बुद्धिलब्धि (IQ) द्वारा होती है।
X शाब्दिक मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)
क्रियात्मक मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)
* सम्पूर्ण मापनी का बुद्धिलब्धि (IQ)
इसके अंतर्गत 16-01 वर्ष के व्यक्तियों की बुद्धि का मापन किया जाता है। वेश्लर ने बच्चों की बुद्धि मापने के लिए दूसरा परीक्षण 1919 में किया, जिसे । ‘वेश्लर’ बुद्धि मापनी बच्चों के लिए (IVISC) कहा गया। इस मापनी द्वारा 6-16 वर्ष तक के बच्चों की बुद्धि की माप की जाती है। इस परीक्षण का संशोधन 1974 में किया गया, इसे ||ISC-Rकहा गया।
कैटेल संस्कृतिमुक्त बुद्धि परीक्षण (Cattell Culture Free Intelligence Test) इस परीक्षण का निर्माण कैटेल (Cattel) ने किया है, जिसमें तीन मापक है. मापक-1-1-8 वर्ष के बच्चे तथा मानसिक दोष वाले वयस्क। मापक-11-8-13 वर्ष की आयुवाले बच्चे और औसत वयस्क के लिए। मापक-1, हाई स्कूल के छात्रों, कॉलेज के छात्रों तथा 14 वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों पर।
रेवेन्स प्रोग्रेसिव मैट्रिसेज (Raren’s Progressive Matrices) इस परीक्षण का निर्माण रैवेन (Raven) ने 1938 में किया था। इस परीक्षण के दो फार्म है एक बच्चो के लिए तथा दूसरा वयस्कों के लिए। बच्चों के लिए प्रयोग होनेवाले फार्म को रंगीन
प्रोग्रेसिव मैटिसेज (Coloured Progressive Matrices) कहा जाता है तथा वयस्कों के का प्रयोग होनेवाले मैट्रिसेज को स्टैण्डर्ड प्रोग्रेसिव मेट्रिसेज (Standard Progressive Matrices) कहा जाता है।
कछ प्रमुख भारतीय बुद्धि परीक्षण (Some Important Indian Intelligence Posts) बन्दि मापने का प्रयास भारतीय मनोवैज्ञानिकों द्वारा भी काफी अधिक किया गया है। इनमें प्रमुख है-डॉ. एम. सी. जोशी द्वारा मानसिक योग्यता परीक्षण 1960, डॉ प्रयाग मेहता द्वारा सामूहिक बुद्धि परीक्षण (1962), डॉ. आर. के. टंडन द्वारा सामहिक मानसिक योग्यता परीक्षण (1971), प्रो. आर. के. ओझा तथा प्रो. राय चौधरी द्वारा वाचिक बुद्धि परीक्षण (1971), डॉ. एस. एस. जलोटा द्वारा मानसिक योग्यता की संशोधित सामूहिक परीक्षा (1972) तथा डॉ. एस. एस. मुहसिन द्वारा सामान्य बुद्धि परीक्षण।
बुद्धि परीक्षण के प्रकार Type of Intelligence Test
मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की माप के परीक्षण को दो कसौटी के आधार पर वर्गीकृत किया है-
1.क्रियान्वयन (Administration) के तरीकों (Mode) के आधार पर क्रियान्वयन के तरीकों के आधार पर बुद्धि परीक्षण दो प्रकार का होता है। एक तो वे परीक्षण हैं जिनका क्रियान्वयन एक समय में एक ही व्यक्ति पर किया जा सकता है। इस प्रकार के बुद्धि परीक्षण को मनोवैज्ञानिकों ने वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण की संज्ञा दी है। सबसे पहला वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण बिने (Binet) तथा साइमन (Simon) द्वारा 1905 में विकसित किया गया है। इसे बिने साइमन परीक्षण कहा जाता है।
कोह ब्लॉक डिजाइन परीक्षण (Koh Block Design Test), पास अलाँग परीक्षण (Pass Along Test) तथा घन रचना परीक्षण (Cube Construction Test) भी वैयक्तिक बुद्धि परीक्षण के उदाहरण हैं।
क्रियान्वयन के आधार पर दूसरे प्रकार के बुद्धि परीक्षण वे हैं जिनको एक समय में एक से अधिक व्यक्ति, अर्थात जिनको व्यक्तियों के समूह में किया जा सकता है। इस प्रकार के परीक्षण को सामूहिक बुद्धि परीक्षण (Group Intelligence Test) की संज्ञा दी गई है। आर्मी अल्फा परीक्षण (Army Alpha Test) तथा आर्मी बीटा परीक्षण (Army Beta Test) इत्यादि सामूहिक बुद्धि परीक्षण के अंतर्गत आते हैं।
2. एकांशों (Items) के स्वरूप के आधार पर : बुद्धि परीक्षणों को एकांश के स्वरूप के आधार पर निम्नांकित चार भागों में बाँटा गया है
a) शाब्दिक बुद्धि परीक्षण (Verbal Intelligence Test): ऐसे बुद्धि परीक्षण जिनमें लिखित शब्दों (Words) अर्थात लिखित भाषा का प्रयोग निर्देश देने तथा परीक्षण के एकाशा या प्रश्नों में किया जाता है. शाब्दिक बद्धि परीक्षण कहलाता है। शाब्दिक बुद्धि परीक्षण को निम्नांकित दो भागों में बाँटा गया है-
* शाब्दिक वैयक्तिक वृद्धि परीक्षण (Verbal Individual Intelligence Test)
शाब्दिक समूह वृद्धि परीक्षण (Verbal Group Intelligence Test)
(b) अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण (Non-Verbal Intelligence Test) : ऐसे बुद्धि को परीक्षण जिसमें भाषा (Language) अर्थात शब्दों, वाक्यों तथा संख्या का प्रयोग निर्देशन (Instruction) में निश्चित रूप से होता है, परन्तु उनके एकांशों (Items) में प्रयोग नहीं होता है। इसलिए इसका प्रयोग छोटे बच्चों, कम पढ़े लिखे व्यक्तियों तथा मानसिक रूप से मंदित बच्चों के लिए आसानी से किया जा सकता है।
(c)क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण (Performance Intelligence Test) फ्रीमैन (Freeman) के अनुसार, क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण वैसे बुद्धि परीक्षण को कहा जाता है, जिनमें भाषा का प्रयोग निर्देश (Instruction) में भी हो सकता है या चित्राभिनय (Pantomine तथा हाव भाव (Gesture) द्वारा निर्देश देने पर भाषा का प्रयोग नहीं भी हो सकता है। क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण की निम्नांकित तीन विशेषताएँ हैं-
★ इस परीक्षण के निर्देश में भाषा या संख्या का प्रयोग कभी होता है और कभी नहीं भी होता है।
★ इस परीक्षण के एकांश (Items) में भाषा का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं होता।
★ इस परीक्षण में व्यक्ति के सामने वस्तुओं को वास्तविक रूप में उपस्थित किया थ जाता है और उसमें जोड़-तोड़ करना पड़ता है।
(d)अभाषायी बुद्धि परीक्षण (Non-Language Intelligence Test) अभाषायी बुद्धि परीक्षण वैसे परीक्षण को कहा जाता है जिसमें भाषा का प्रयोग एकांश (Items)और निर्देश में नहीं होता है। प्रायः इस तरह के परीक्षण में निर्देश हाव-भाव (Gesture), निर्देशन (Demonstration)तथा चित्राभिनय (Pantomine) द्वारा दिया जाता है। अभाषायी बुद्धि परीक्षण के निम्नांकित गुण हैं
★ ऐसे परीक्षणों में निर्देश (Instruction) हाव-भाव (Gesture), चित्राभिनय (Pantomine) तथा निर्देशन (Demonstration) द्वारा दिया जाता है, न कि > किसी प्रकार की भाषा द्वारा।
★ इन परीक्षणों के एकांश में भाषा का प्रयोग बिल्कुल ही नहीं होता।
★ इन परीक्षणों के परीक्षार्थियों (Testees) को कुछ वस्तुएँ (Objects) जैसा कि क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण में दिया जाता है, नहीं दिया जाता है। बद्धि के सिद्धान्त Theories of Intelligence में एक कारक सिद्धान्त (Uni-factor Theory) : इस सिद्धान्त का प्रतिपादन बिन (Binet) ने किया और इस सिद्धान्त का समर्थन तथा इसको आगे बढ़ाने का श्रेय टरमैन और स्टर्न जैसे मनोवैज्ञानिकों को है।
इस सिद्धान्त के अनुसार बुद्धि को एक शक्ति या कारक के रूप में माना गया है। इन मनोवैज्ञानिकों के अनुसार बुद्धि, वह मानसिक शक्ति है जो व्यक्ति के समस्त मानसिक कार्यों का संचालन करती है और व्यक्ति के समस्त व्यवहारों को प्रभावित करती है। वर्तमान में इस सिद्धान्त को कोई नहीं मानता है।
2.द्वि कारक सिद्धान्त (Two-factor Theory) इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन (Spearman)है। इनके अनुसार बुद्धि मे दो प्रकार की मानसिक योग्यताओं की आवश्यकत
होती है | प्रथम, सामान्य मानसिक योग्यता (General Mental Ability G), द्वितीय, शिष्ट मानसिक योग्यता (Specific Mental Ability-S)।
सामान्य योग्यता सभी प्रकार के मानसिक कार्यों में पायी जाती है, जबकि विशिष्ट मानसिक योग्यता केवल विशिष्ट कार्यों से (S, ही सम्बन्धित होती है। प्रत्येक व्यक्ति में सामान्य योग्यता के अतिरिक्त कुछ न कुछ विशिष्ट योग्यताएँ पायी जाती हैं। एक व्यक्ति में एक विशिष्ट योग्यता भी हो सकती है और एक से अधिक विशिष्ट योग्यताएँ भी हो सकती हैं।
दिये हये चित्र में ओवरलैप करने वाला सम्पूर्ण क्षेत्र G कारक का प्रतिनिधित्व कर रहा है। शेष दोनों परीक्षणों का स्वतन्त्र क्षेत्र S, और S, द्वारा प्रदर्शित किया गया है। उपर्युक्त चित्र से यह स्पष्ट है कि विशिष्ट योग्यताएँ एक दूसरे से स्वतंत्र होती हैं तथा सामान्य योग्यता की आवश्यकता भी इन विशिष्ट योग्यताओं में पड़ती है।
प्रतिदर्श (नमूना) सिद्धान्त (Sampling Theory) इस सिद्धान्त का प्रतिपादन थॉम्प्सन (Thompson) ने किया। थॉम्प्सन ने अपने प्रतिदर्श सिद्धान्त का प्रतिपादन स्पीयरमैन के द्वि कारक सिद्धान्त के विरोध में किया।
> थॉम्प्सन के अनुसार, व्यक्ति का बौद्धिक व्यवहार अनेक स्वतंत्र योग्यताओं पर निर्भर करता है। परन्तु, इन स्वतंत्र योग्यताओं का क्षेत्र सीमित होता है। यदि कोई एक बुद्धि परीक्षण भरवाया जाये तो बौद्धिक तत्वों का एक विशिष्ट प्रतिदर्श ही सामने आता है। इसी प्रकार से यदि दूसरा परीक्षण भरवाया जाये तो बौद्धिक तत्वों का एक भिन्न प्रतिदर्श उस परीक्षण के सामने आयेगा।
विभिन्न संज्ञानात्मक अथवा बौद्धिक परीक्षणों में जो धनात्मक सह संबंध पाये जाते हैं वह विभिन्न प्रतिदर्थों के अथवा योग्यताओं के नमूने की ओवरलैपिंग से स्पष्ट होते हैं।
चित्र में छोटे वृत्त विशिष्ट कारकों अथवा मानसिक योग्यताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि बड़े दोनों वृत्त दो परीक्षणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। परीक्षण A से आठ विशिष्ट कारकों के प्रतिदर्श प्रदर्शित किये गये हैं, जबकि B से ग्यारह विशिष्ट कारकों के प्रतिदर्शों का प्रदर्शन किया गया है। क्योंकि दोनों परीक्षणों में छह विशिष्ट कारक सामान्य हैं अतः इनमें धनात्मक सह संबंध है।
4.. समूह कारक सिद्धान्त (Group Factor Theory) इस सिद्धान्त के प्रतिपादक पटन (Thurston) है। थर्स्टन का सिद्धान्त बुद्धि का एक महत्वपूर्ण और मात्रात्मक सिद्धान्त है। थर्स्टन ने अपने कारक विश्लेषण (Factor Analysis) के आधार पर निम्न 7 मौलिक मानसिक योग्यताओं का पता लगाया है-
पाचिक भाषिक योग्यता (Verbal Ability) यह वह योग्यता है जिसकी सहायता व्याक्त शाब्दिक विचारों को समझता और उनका उपयोग करता है।
(b) सख्यात्मक योग्यता (Number Ability) यह वह योग्यता है जिसके द्वारा व्यक्ति रण गणितीय प्रकार्यों जैसे-जोड़ना, घटाना, गुणा, भाग आदि को करता है।
वस्त प्रेक्षण योग्यता (Spatial Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति वस्तु प्रेक्षण करता है तथा वस्तु प्रेक्षण सम्बन्धों को समझता है, जैसे ज्यामितीय समस्याओं में।
((d) प्रत्यक्षपरक योग्यता (Perceptual Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति वस्तुओं को शीघ्र पहचानता है तथा उनका शुद्ध प्रत्यक्षीकरण करता है। जैसे पढ़ने के शब्दों को पहचानना।
1) स्पति योग्यता (Memorn Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति अधिगम B करता है तथा प्राप्त सूचना का धारण करता है।
(O तार्किक योग्यता (Reasoning Ability) इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति अमूर्त संबंधों का प्रत्यक्षीकरण करता है तथा उनका उपयोग करता है।
(g) शाब्दिक योग्यता (Word Ability) इस योग्यता के द्वारा शब्दों के संबंध में व्यक्ति चिन्तन करता है। थर्स्टन के बाद के अध्ययनों के आधार पर तर्कशक्ति में दो योग्यताएँ मानी गयी हैं—
आगमन योग्यता (Inductive Ability) और निगमन योग्यता : (Deductive Ability)
गिलफोर्ड का सिद्धान्त (Guilford’s Theory) गिलफोर्ड (Guilford) ने बौद्धिक योग्यताओं के 5 मुख्य समूह बतलाये है
ka) संज्ञान (Cognition) इस बौद्धिक योग्यता में खोज, पुनर्योज जैसी योग्यताएँ सम्मिलित है।
(b) अभिसारी चिंतन (Convergent Thinking) यह वह बौद्धिक योग्यताएँ हैं जिसके द्वारा एक व्यक्ति प्राप्त सूचना का उपयोग इस प्रकार करता है कि उपयुक्त उत्तर दे सके।
(c) अपसारी चिंतन (Divergent Thinking) : इस बौद्धिक योग्यता के द्वारा व्यक्ति विभिन्न दिशाओं में चिन्तन करता है या खोज करता है।
(d) स्पति (Memory): इस बौद्धिक योग्यता के द्वारा व्यक्ति संज्ञान (Cognition के द्वारा जो कुछ ग्रहण करता है, उसका धारण करता है।
(e) मूल्यांकन (Evaluation): इस योग्यता के द्वारा व्यक्ति, शुद्धता और उपयुक्तता आदि के संबंध में निर्णय लेता है।
6. पदानुक्रमिक सिद्धान्त (Hierarchical Theory) : इस सिद्धान्त के प्रतिपादक स्पीयरमैन के विचारों के समर्थक रहे हैं। इनमें वरनन (Vernon) का नाम प्रमुख है। इस सिद्धान्त में क्रमबद्धता के आधार पर सामान्य मानसिक योग्यता के दो मुख्य वर्ग बताये गये हैं—प्रथम वर्ग में बुद्धि के प्रायोगिक, शारीरिक कारक हैं तथा द्वितीय वर्ग में मौखिक, सांख्यिकी, शैक्षिक इत्यादि कारक हैं। इन कारकों के आगे क्रम में विशिष्ट मानसिक योग्यताओं से सम्बन्धित कारक हैं। इन कारकों का सम्बन्ध विभिन्न ज्ञानात्मक क्रियाओं से है। यह सिद्धान्त भी कारक विश्लेषण (Factor Analysis) पर आधारित है।
मकरोल का त्रिस्तरीय मॉडल (Carroll’s Three Stratum Model): जॉन बी कैरोल (John B Carroll) ने बुद्धि का त्रिस्तरीय मॉडल विकसित किया। इस मॉडल के अनुसार मानसिक कौशल के तीन स्तर बतलाए गये हैं. सामान्य (General), विस्तृत (Broad), कौशल (Mental Skills)। यह एक समाकलानात्मक मॉडल है, जिसमें स्पीयरमैन
Spearman), थर्टन (Thurston) तथा केटेल हॉर्न के सिद्धातों के तत्वों को समन्वित किया गया है।
General (Stratum II
जिन्नत तरल ठोस सामान्य विस्तृत विस्तृत विस्तृत विस्तृत गति संसाधन Broad बन्दि बन्दि स्मृति एवं दष्टि श्रवण पन प्राप्ति मज्ञानात्मक प्रतिक्रिया समय अधिगम प्रत्यक्षण प्रत्यक्षण क्षमता तीव्रता निगमन गति
(Stratum 1) की स्तर संज्ञानात्मक क्षमता के अध्ययन में व्यवहत संज्ञानात्मक, प्रत्यक्ष ज्ञानात्मक तथा Narrow प्रगति कार्य (Stratum 1)
गार्डनर का बहबुद्धि सिद्धांत (Gardner’s Theory of Multiple Intelligence) गार्डनर ने इस सिद्धांत में यह स्पष्ट किया कि बुद्धि का स्वरूप एकाकी (Singular) न होकर बहकारकीय होता है। उनके इस सिद्धांत का आधार उनके द्वारा न्यूरोमनोविज्ञान (Neuropsychology) तथा मनोमितिक विधियों (Psychometric Method) के क्षेत्र में किये गये शोध हैं।
गार्डनर ने मुख्य रूप से सात प्रकार की बुद्धि का वर्णन किया। 1998 में उन्होंने इसमें 8वाँ प्रकार तथा 2000 में उन्होंने नौवाँ प्रकार जोड़ा। इस प्रकार वर्तमान में गार्डनर के अनुसार बुद्धि के 9 प्रकार हैं-
स्टनबर्ग का सिद्धात (Sternberg’s Theory) स्टर्नबर्ग के अनुसार बुद्धि भिन्न भिन्न प्रकार के मूल कौशल (Basic Skills) या घटक में बँटी होती है। प्रत्येक घटक के आधार पर व्यक्ति को कुछ विशेष सुचनाएँ मिलती हैं, जिनको वह संसाधित करता है उनकी विवचना करता है और समस्या का समाधान करता है। स्टर्नबर्ग ने बुद्धि के त्रितंत्र का प्रतिपादन किया है। जो इस प्रकार है
(a)विश्लेषणात्मक वृद्धि (Analytical Intelligence) विश्लेषणात्मक बुद्धि से तात्पर्य कमा समस्या समाधान में समस्या को उसके विभिन्न अशों या भागों में बाँटकर समाधान करन की क्षमता से होता है। इस ढंग की क्षमता का मापन बुद्धि परीक्षणों तथा शैक्षिक मिन उपलब्धि परीक्षणों द्वारा होता है। इसे घटकीय बुद्धि भी कहा जाता है।
स्टर्नबर्ग के अनुसार विश्लेषणात्मक बद्धि में सूचना संसाधन क्षमता के कई इकाई जैसे किसी सूचना को संचित करने की क्षमता, उसका प्रत्याह्वान करने की क्षमता, सूचनाओं को अंतरित करने की क्षमता, समस्याओं के बारे में निर्णय लेने की क्षमता, अमूर्त चिंतन करने की क्षमता तथा चिंतन को निष्पादन में बदलने की क्षमता सम्मिलित होती है।
(b) सर्जनात्मक बद्धि (Creative Intelligence) सर्जनात्मक बुद्धि को अनुभवजन्य बुद्धि भी कहा जाता है। सर्जनात्मक बुद्धि में वैसे मानसिक कौशल सम्मिलित होते हैं, जिनकी आवश्यकता नयी समस्याओं के समाधान में पड़ती है तथा व्यक्ति इसमें किसी समस्या के नये समाधान पर पहुँचने की कोशिश करता है। इस तरह की बुद्धि में बदलते पर्यावरण या संदर्भ के समय अनुकूलन करने की क्षमता सम्मिलित होती है।
(c) व्यावहारिक बुद्धि (Practical Intelligence) : इस प्रकार की बुद्धि को__ संदर्भात्मक बुद्धि भी कहा जाता है। इस तरह की बुद्धि में वैसी क्षमता सम्मिलित होती
है, जिसके माध्यम से व्यक्ति अपनी जिंदगी में सूचनाओं को इस ढंग से उपयोग करने में सफल हो पाता है जिससे उसे अधिकाधिक लाभ हो पाता है। इस प्रकार की बुद्धि । में व्यक्ति में अपने वातावरण को एक खास ढंग से मोड़ने की क्षमता तथा परिवर्तित परिस्थिति के साथ अपने आप को ठीक ढंग से समायोजित करने की क्षमता इत्यादि… सम्मिलित होती है।
बहुआयामी बुद्धि Multidimensional Intelligence
> थर्स्टन एवं कैली नामक वैज्ञानिकों ने बताया कि बुद्धि का निर्माण प्राथमिक मानसिकयोग्यताओं के द्वारा होता है।
कैली के अनुसार, बुद्धि का निर्माण इन योग्यताओं से होता है—वाचिक योग्यता गामक योग्यता, सांख्यिकी योग्यता, यान्त्रिक योग्यता, सामाजिक योग्यता, संगीतात्मक योग्यता, स्थानिक सम्बन्धों के साथ उचित ढंग से व्यवहार करने की योग्यता, रुचि और शारीरिक योग्यता।
थर्स्टन का मत है कि बुद्धि इन प्राथमिक मानसिक योग्यताओं का समूह होता है—प्रत्यक्षीकरण संबंधी योग्यता, तार्किक व वाचिक योग्यता, सांख्यिकी योग्यता स्थानिक या दृश्य योग्यता, समस्या समाधान की योग्यता, स्मृति संबंधी योग्यता आगमनात्मक योग्यता और निगमनात्मक योग्यता ।
परीक्षोपयोगी तथ्य
बुद्धि एक सामान्य मानसिक क्षमता (General Mental Ability) है। इसे कई तरह की क्षमताओं का एक संपूर्ण योग माना गया है जिसके सहारे व्यक्ति उद्देश्यपूर्ण क्रियाएँ करता है, विवेकशील चिंतन करता है तथा वातावरण के साथ प्रभावकार ढंग से समायोजन करता है।
थार्नडाइक ने बुद्धि के तीन प्रकार बतलाये हैं सामाजिक बुद्धि, मूर्त बुद्धि, अमूर्त्त बुद्धि
मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि की अभिव्यक्ति बुद्धिलब्धि या IQ के रूप में की है।
मानसिक आयु (Mental Age)को तैथिक आयु (Chronological Age)से विभाजित करके उसमें 100 से गुणा करने के बाद जो मान (Value)प्राप्त होता है, उसे बुद्धिलब्धि कहा जाता है।
मानसिक आयु बुद्धिलब्धि =
– 100
तैथिक आयु
– बद्धि की माप भिन्न भिन्न तरह के परीक्षणों द्वारा की जाती है। इन परीक्षणों में बिने साइमन परीक्षण (Binet-Simon Test), वेशलर बुद्धि परीक्षण (Wechsler Intelligence Test), कैटेल संस्कृति मुक्त बुद्धि परीक्षण, रैवेन प्रोग्रेसिव मैट्रिसेज इत्यादि मुख्य हैं।
मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि परीक्षणों को कई भागों में बाँटा है जिनमें प्रमुख है* शाब्दिक बुद्धि परीक्षण * अशाब्दिक बुद्धि परीक्षण ★ क्रियात्मक बुद्धि परीक्षण * अभाषाई बुद्धि परीक्षण मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के स्वरूप की व्याख्या करने के लिए दो तरह के प्रमुख सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है कारक सिद्धांत तथा प्रक्रिया प्रधान सिद्धांत । कारक सिद्धांत में स्पीयरमैन का सिद्धांत, थर्स्टन का सिद्धांत, थार्नडाइक एवं गिलफोर्ड का सिद्धांत तथा पदानुक्रमिक सिद्धांत को रखा गया है। – प्रक्रिया प्रधान सिद्धांत में पियाजे का सिद्धांत, स्टर्नबर्ग का सिद्धांत, जेन्सन का सिद्धांत प्रमुख है।
बहुकारक सिद्धांत में थार्नडाइक एवं गिलफोर्ड के सिद्धांत को रखा गया है। पियाजे के अनुसार, ‘बुद्धि एक ऐसी अनुकूली प्रक्रिया है जिसमें जैविक परिपक्वता का पारस्परिक प्रभाव तथा वातावरण के साथ की गई अंतःक्रिया, दोनों ही सम्मिलित होते हैं।’
पियाजे का मत था कि बौद्धिक विकास संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं पर निर्भर करता है जैसे–प्रकृति के नियम को समझना, व्याकरण के नियम को समझना तथा गणितीय नियमों को समझना इत्यादि ।
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बाल केन्द्रित तथा प्रगतिशील शिक्षा | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 6 Study Material in Hindi
बाल-केन्द्रित शिक्षा Child-Centered Education
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Bal Kendrit Shiksha Study Material : बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत उन्हीं शिक्षण विधियों को प्रयोग में लाया जाता है जो बालकों के सीखने की प्रक्रिया, महत्वपूर्ण कारक, लाभदायक व हानिकारक दशाएँ, रुकावटें, सीखने के वक्र तथा प्रशिक्षण इत्यादि तत्वों को सम्मिलित करती हैं तथा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण पर आधारित होती हैं।
बाल केन्द्रित शिक्षा का श्रेय शिक्षा मनोविज्ञान को दिया जाता है। जिसका उद्देश्य बालक के मनोविज्ञान को समझते हुए शिक्षण की व्यवस्था करना तथा उसकी अधिगम सम्बन्धी कठिनाइयों को दूर करना है।
वर्ष 1919 में प्रगतिशील शिक्षा सुधारकों ने (कोलम्बिया विश्वविद्यालय) बालकों के हितों के लिए सीखने की प्रक्रिया के केन्द्र में बालक को रखने पर बल दिया अर्थात . अधिगम प्रक्रिया में केन्द्रीय स्थान बालक को दिया जाता है।
भारत में गिजभाई बधेका (गुजरात) ने डॉ. मारिया मॉण्टेसरी के शैक्षिक विचारों एवं विधियों से प्रभावित होकर बाल शिक्षा को एक नया आयाम (Dimension) प्रदान किया। उन्होंने 1920 ई० में बाल मन्दिर नामक संस्था की स्थापना की, जिसका केन्द्र बिन्दु उन्होंने बालक को रखा।
बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यताओं के विकास के आधार पर अध्ययन किया जाता है तथा बालक के व्यवहार और व्यक्तित्व में असामान्यता के लक्षण होने पर बौद्धिक दुर्बलता, समस्यात्मक बालक रोगी बालक, अपराधी बालक इत्यादि का निदान किया जाता है।
मनोविज्ञान के ज्ञान के अभाव में शिक्षक मार पीट के द्वारा इन दोषों को दूर करने का प्रयास करता है, परन्तु बालकों को समझने वाला शिक्षक यह जानता है कि इन दोषों का आधार उनकी शारीरिक, सामाजिक अथवा मनोवैज्ञानिक आवश्यकताओं में ही कहीं न कहीं है। वैयक्तिक भिन्नता की अवधारणा ने शिक्षा और शिक्षण प्रक्रिया में व्यापक परिवर्तन किया है। इसी के कारण बाल केन्द्रित शिक्षा का प्रचलन शुरू हुआ।
बाल केन्द्रित शिक्षा के अन्तर्गत पाठ्यक्रम का स्वरूप बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम विद्यार्थी को शिक्षा प्रक्रिया का केन्द्र बिन्दु माना जाता है। बालक की रुचियों, आवश्यकता एवं योग्यताओं के आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। बाल केन्द्रित शिक्ष के अन्तर्गत पाठ्यक्रम का स्वरूप निम्नलिखित है-
पाठ्यक्रम पूर्वज्ञान पर आधारित होना चाहिए।
है, जिसमें पलकर बालक के सामाजिक व्यक्तित्व का विकास हो सके और व जनतंत्र के योग्य नागरिक बन सके। डीवी ने शिक्षक को समाज में ईश्वर के प्रतिनिधि की संज्ञा दिया है। विद्यालय में स्वतंत्रता और समानता के मूल्य को बनाये रखने के लिए शिक्षक को अपने को बालकों से बड़ा नहीं समझना चाहिए। शिक्षकों को आज्ञाओं और उपदेशों के द्वारा अपने विचारों और प्रवृत्तियों का भार बालकों पर देने का प्रयास नहीं करना चाहिए। बालक को प्रत्यक्ष रूप से उपदेश न देकर उसे सामाजिक परिवेश दिया जाना चाहिए। और उसके सामने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किये जाने चाहिए कि उसमें आत्मानुशासन उत्पन्न हो और वह सही अर्थों में सामाजिक प्राणी बने । आधुनिक शिक्षा में वैज्ञानिक सामाजिक प्रवृत्ति प्रगतिशील शिक्षा का योगदान है प्रगतिशील शिक्षा के सिद्धान्तों के अनुरूप ही आजकल शिक्षा को अनिवार्य और सार्वभौमिक बनाने पर जोर दिया जाता है। शिक्षा का लक्ष्य व्यक्तित्व का विकास है और प्रत्येक व्यक्ति को उसके व्यक्तित्व का विकास करने के लिए शिक्षा प्राप्त करने का अवसर दिया जाना चाहिए।
परीक्षोपयोगी तथ्य बाल केन्द्रित शिक्षा का उद्देश्य बालक के मनोविज्ञान को समझते हुए शिक्षण की व्यवस्था करना तथा उसकी अधिगम संबंधी कठिनाइयों को दूर करना है। बाल केन्द्रित शिक्षा के अंतर्गत बालक की शारीरिक और मानसिक योग्यताओं के विकास के आधार पर अध्ययन किया जाता है। > बाल केन्द्रित पाठ्यक्रम में बालक की रुचियों, आवश्यकताओं एवं योग्यताओं के
आधार पर पाठ्यक्रम का निर्माण किया जाता है। प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य बालकों में शिक्षा के माध्यम से जनतंत्रीय मूल्यों की स्थापना करना है। जॉन डीवी का प्रगतिशील शिक्षा के विकास में सराहनीय योगदान है। इन्होंने प्रगतिशील शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है-मचि और प्रयास।
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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material : आज की पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी UPTET Books and Notes Chapter 5 Piyaje Kohlberg Evam Vygotsky Study Material in Hindi with PDF Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है | अभ्यर्थियो को बता दे की आपको इस पोस्ट में UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book Chapter Wise PDF Download का लिंक भी दिया जा रहा है जिसके माध्यम से आप बल विकास एवं शिक्षा शास्त्र के सभी Chapter को PDF में download कर सकते है |
Chapter 5 पियाजे, कोहलबर्ग एवं वाइगोट्स्की | UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 6 Study Material in Hindi
पियाजे का सिद्धान्त The Theory of Piaget
पियाजे के अध्ययनों का आधुनिक बाल-विकास विषय पर अधिक प्रभाव पड़ा है। उसने मनोवैज्ञानिकों का ध्यान विकास की अवस्थाओं तथा संज्ञान की महत्व की ओर आकर्षित किया है। पियाजे के सिद्धान्त के कुछ प्रमुख विचार निम्नलिखित हैं
1. निर्माण और खोज (Construction & Invention) बच्चे उन व्यवहारों और विचारों की समय-समय पर खोज और निर्माण करते रहते हैं, जिन व्यवहारों और विचारों का उन्होंने कभी पहले प्रत्यक्ष नहीं किया होता है। पियाजे का विचार है कि ज्ञानात्मक विकास केवल नकल (Copying)न होकर खोज (Invention) पर आधारित है। नवीनता या खोज (Novelty or Invention) को उद्दीपक-अनुक्रिया सामान्यीकरण के आधार पर नहीं समझाया जा सकता है। उदाहरण के लिए एक चार साल का बालक यदि भिन्नभिन्न आकार के प्यालों को प्रथम बार क्रमानुसार लगा देता है, तो यह उसके बौद्धिक वृद्धि की खोज और निर्माण से सम्बन्धित है।
2. कार्य क्रिया का अर्जन (Acquisition of Operation) ऑपरेशन का तात्पर्य उस विशिष्ट प्रकार के मानसिक कार्य (Mental Routine) से है जिसकी मुख्य विशेषता उत्क्र मणशीलता (Reversibility) है । पियाजे के अनुसार, जब तक बालक किशोरावस्था तक नहीं पहुँच जाता है तब तक वह भिन्न-भिन्न विकास-अवस्थाओं में भिन्न-भिन्न वर्गों के ऑपरेशन्स का अर्जन करता रहता है। एक विकास अवस्था से दूसरी विकास अवस्था में पदार्पण के लिए निम्न दो सिद्धान्त आवश्यक है
(सात्मीकरण (Assimilation) सात्मीकरण का अर्थ है—बालक में उपस्थित विचार में किसी नये विचार (Idea) या वस्तु का समावेश हो जाना। पियाजे का विचार (Idea) का अर्थ बालक के प्रत्यक्षात्मक गत्यात्मक समन्वय (Perceptual Motor Coordination’s) से है। प्रत्येक बालक में प्रत्येक आयु-स्तर पर कुछ-न-कुछ क्रियाओं या ऑपरेशन्स के सेट विद्यमान होते हैं। इन पुराने ऑपरेशन्स में नये विचार या क्रियाओं का समावेश हो जाता है।
(b)व्यवस्थापन तथा संतुलन स्थापित करना (Accommodationand Equilibration) • व्यवस्थापन का अर्थ नयी वस्तु या विचार के साथ समायोजन करना है या अपने विचारों और क्रियाओं को नये विचारों और वस्तुओं में फिट करना है। बालकों में बौद्धिक वृद्धि जैसे-जैसे बढ़ती है वैसे-वैसे वह नयी परिस्थितियों के साथ समायोजन करना सीखता है। मानसिक वद्धि में सात्मीकरण और व्यवस्थापन में उपस्थित अथवा उत्पन्न तनाव का हल (Resolution) निहित होता है।
बालक हर समय नयी घटनाओं या समस्याओं के साथ अपने को व्यवस्थापित करता रहता है, जिससे उसका बौद्धिक विकास परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। इस प्रकार का व्यवस्थापन संतुलन (Equilibration) कहलाता है।
3. क्रमिक विकासात्मक अवस्थाएँ (Sequential Development Stages): पियाजे ने विकास की चार मुख्य अवस्थाओं का वर्णन किया है
a) संवेदी पेशीय अवस्था (Sensory-Motor Period) यह जन्म से चौबीस महीने तक की अवस्था है। इस आयु में उसकी बुद्धि उसके कार्यों द्वारा व्यक्त होती है। उदाहरण के लिए—चादर पर बैठा बालक चादर पर पड़े दूर खिलौने को प्राप्त करने के लिए चादर को खींचकर खिलौना प्राप्त कर लेता है।
पियाजे के अनुसार यह एक बौद्धिक कार्य है। पियाजे ने सेन्सोरीमोटर अवस्था को पुनः निम्न छह अवस्थाओं में विभाजित किया है।
★ प्रतिवर्त्त क्रियाएँ (Reflex Activities) : यह जन्म से एक माह तक की अवस्था है।
प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Primary Circular Reactions) : यह एक से तीन माह तक की अवस्था है।
★ गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Secondary Circular Reactions): यह चार से छह माह तक की अवस्था है।
गौण प्रतिक्रियाओं का समन्वय (Co-ordination of Secondary Reactions): यह सात से दस माह तक की अवस्था है।
तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाएँ (Tertiary Circular Reactions) : यह ग्यारह से अठारह माह तक की अवस्था है ।
★ अन्तिम अवस्था (Final Stage of this period): यह अवस्था वह है जो बालक लगभग चौबीस माह की आयु में प्राप्त करता है। 21वका
(b) पूर्व-संक्रियात्मक अवस्था (Pre-Operational Period) यह दो से सात वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह नयी सूचनाओं और अनुभवों का संग्रह करता है। | वह पहली अवस्था की अपेक्षा अधिक समस्याओं का समाधान करने योग्य हो जाता है। | इस अवस्था में उसमे आत्मकेन्द्रिता (Egocentricity) का विकास होता है। इस अवधि के अन्त तक जब बालक में कुछ सामाजिक विकास उन्नत हो जाता है तब उसकी यह आत्मकेन्द्रिता कुछ कम होने लग जाती है।
पियाजे का विचार है कि छह वर्ष से कम आयु के बालकों में संज्ञानात्मक परिपक्वता का अभाव पाया जाता है। इस अभाव के कारण वह परम्परागत समस्याओं को तभी सीख पाते हैं जब उन्हें कुछ शिक्षण प्रशिक्षण दिये जाते हैं। साव KO) ठोस सक्रियात्मक अवस्था (Concrete Operational Period): यह अवस्था सात से ग्यारह वर्ष तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह यह विश्वास करने लगता है कि लंबाई, भार तथा अंक आदि स्थिर रहते हैं। वह अनेक कार्यों की मानसिक प्रतिभा प्रस्तुत कर सकता है। वह किसी पूर्व और उसके अंश के संबंध में तर्क कर सकता है।
पियाजे द्वारा वर्णित विकासात्मक अवस्थाएँ एवं उससे सम्बन्धित उपलब्धियाँ
क्र
अवस्था तथा सन्निकट आयु
विचार
तत्संबन्धित उपलिब्धया
1
संवेदी पेशीय अवस्था
संवेदी पेशीय विचार
पूर्व-शाब्दिक, गतियो की पुनरावृत्ति प्रयत्न, मूल व्यवहार का आरम्भ, वस्तु स्थापित विव्त्वरोपण
2
संवेदी पेशीय अवस्था (2-7 वर्ष)
प्रिक्रमानात्म्क विकाह्र, अंत: प्रज्ञात्मक विचार
अहंकेन्द्रिता, नकल करने की प्रवृत्ति, प्रत्याक्षत्म्क तार्किक कल्पनात्मक खेल अस्थिर अनौपचारिक तार्किकता
3
ठोस संक्रियात्मक निगमनात्मक विचार
तर्क का अनुप्रोयोग करना, निश्कस्र्ष निकलना शाब्दिक परिकल्पना, आद्र्श्ताम्क चिंतन, दुसरो के साथ जुडकर कार्य करना स्मनुप्तिकता प्रस्भाव्य्ताव्दी एवं स्न्योजिकीय तार्किकता, अनौपचारिक सम्बन्ध
4
औपचारिक संक्रियात्मक अवस्था (Formal Operational Period): यह अवस्था ग्यारह वर्ष से प्रौढ़ावस्था तक की अवस्था है। इस अवस्था में वह परिकल्पनात्मक ढंग से समस्याओं पर विचार कर सकता है। वह अनेक ऑपरेशन को संगठित कर उच्च स्तर .. के ऑपरेशन का निर्माण कर सकता है और विभिन्न प्रकार की समस्याओं के समाधान के लिए अमूर्त नियमों का निर्माण कर सकता है।
पियाजे द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाएँ
क्र.
अवस्था
सन्निकट आयु
विशेषताएँ
संवेदी-प्रेरक
0-2 वर्ष
शिशु संवेदी अनुभवों का शारीरिक क्रियाओं के साथ समन्वय करते हुए संसार का अन्वेषण करता है।
2.
पूर्व-संक्रियात्मक
2-7 वर्स
प्रतीकात्मक विचार विकसित होते हैं, वस्तु स्थायित्व उत्पन्न होता है, बच्चा वस्तु के विभिन्न भौतिक गुणों को समन्वित नहीं कर पाता है।
3.
ठोस संक्रियात्मक
7-11 वर्ष
बच्चा ठोस घटनाओं के संबंध में युक्तिसंगत तर्क कर सकता है और वस्तुओं को विभिन्न समूहों में वर्गीकृत कर सकता है। वस्तुओं की मानस प्रतिमाओं पर प्रतिवर्तनीय मानसिक संक्रियाएँ करने में सक्षम होता है।
4.
औपचारिक संक्रियात्मक
11-15 वर्ष
किशोर तर्क का अनुप्रयोग अधिक अमूर्त रूप से कर संक्रियात्मक सकते हैं, परिकल्पनात्मक चिन्तन विकसित होते हैं।
लारस कोहलबर्ग का सिद्धांत Lawrance Kohlberg’s Theory
लॉरस कोहलबर्ग ने 10 से 16 वर्ष के बच्चों से प्राप्त तथ्यों का विश्लेषण करके सिद्धांत प्रतिपादित किया। कोहलबर्ग के अनुसार जब बालकों को नैतिक संघर्षों का सामना करना पड़ता है तो उनकी तार्किकता अधिक महत्वपूर्ण होती है न कि अन्तिम निर्णय। कोहलबर्ग ने धारणा बनायी की बालक अपनी विकास की अवस्था में तीन स्तरों से गुजरकर अपनी नैतिक तार्किकता की योग्यताओं को विकसित कर पाते हैं। जो निम्नलिखित है
(a) प्राकरूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Preconventional Level) यह अवस्था 4 वर्ष से लेकर 10 वर्ष की आयु तक होती है। इस अवस्था में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है, न कि सही तथा गलत के अपने आंतरीकृत मानकों (Internalized Standards) के द्वारा । बच्चे यहाँ किसी भी व्यवहार को अच्छा या बुरा, उसके भौतिक परिणामों के आधार पर कहते हैं। इसके अंतर्गत दो अवस्थाएँ होती हैं
(i) दंड एवं आज्ञाकारिता उन्मुखता (Punishment and Obedience Orientation) इस अवस्था के बच्चों में दंड से दूर रहने का अभिप्रेरण अधिक मजबूत होता है। इस अवस्था में बच्चे प्रतिष्ठित या शक्तिशाली व्यक्ति, प्रायः माता पिता के प्रति सम्मान दिखलाता है ताकि उसे दंड नहीं मिल सके। किसी भी कार्य या व्यवहार की नैतिकता को यहाँ व्यक्ति उसके भौतिक परिणामों के रूप में परिभाषित करता है।
(ii) साधनात्मक सापेक्षवादी उन्मुखता (Instrumental Relativist Orientation) – इस अवस्था में यद्यपि बच्चे पारस्परिकता तथा सहभागिता के स्पष्ट सबूत प्रदान करते – हैं। यह छलयोजित (Manipulative) तथा आत्म परिपूरक पारस्परिकता (Self-Serving Reciprocity) होती है न कि सही अर्थ में न्याय, उदारता, सहानुभूति पर आधारित है। यहाँ अदला बदली (Bartering) का भाव मजबूत होता है।
(b) रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Conventional Morality): यह अवस्था 10 से 13 साल की होती है जहाँ बच्चे दूसरों के मानकों (Standards) को अपने में आंतरीकृत कर लेता है तथा उन मानकों के अनुसार सही तथा गलत का निर्णय करता है। – इस स्तर पर बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है। इसकी अवस्थाएँ (Stages) इस प्रकार हैं
उत्तम लड़का अच्छी लड़की की उन्मुखता (Good Boy-Nice Girl Orientation) इस अवस्था में बच्चों में स्वीकृति पाने तथा अस्वीकृति (Disapproval) से दूर रहने का अभिप्रेरण तीव्र होता है।
(c) उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर (Level of Post Conventional Morality): इस अवस्था में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest Level) होता है और इसमें नैतिकता (True Morality)का ज्ञान बच्चों में होता है। इसके तहत दो अवस्थाएँ (Stages) होती हैं, जो इस प्रकार हैं-
(1) सामाजिक अनुबंध उन्मुखता (Social Contract Orientation) : इस अवस्था में बच्चे या किशोर उन वैयक्तिक आधार (Individual Rights) तथा नियमों का आदर करते हैं, जो प्रजातांत्रिक रूप से (Democratically) मान्य होता है। वे यहाँ लोगों के कल्याण तथा बहुसंख्यकों के इच्छाओं का तर्कसंगत महत्व देते हैं। यहाँ बच्चे यह विश्वास करते हैं कि समाज का उत्तम कल्याण तब होता है जब उसके सदस्य समाज के नियमों का आदरपूर्वक पालन करते हैं।
(ii) सार्वत्रिक नीतिपरक सिद्धांत उन्मुखता (Universal Ethical Principle Orientation) : इस अवस्था में बच्चों में अपने नैतिक नियमों (Ethical Principles) को प्रोत्साहित करने तथा आत्म-निंदा (Self-Condemnation) से बचने का अभिप्रेरण तीव्र होता है। यह उच्चतम सामाजिक स्तर का उच्चतम अवस्था (Highest Stage) होता है, जहाँ किशोरों में सार्वत्रिक नैतिक नियम (Universal Ethical Principles) की नैतिकता बरकरार रहती है।
यहाँ किशोर दूसरों के विचारों तथा नैतिक प्रतिबंधों (Legal Restrictions)से स्वतंत्र होकर अपने आंतरिक मानकों (Internal Standards) के अनुरूप व्यवहार करता है|
कोहलबर्ग के सिद्धांत की सीमाएँ (Limitation of Kohlberg Theory) : कोहलबर्ग द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत की सीमाएँ निम्नलिखित हैं–
(i) इस सिद्धांत की सबसे प्रमुख सीमा है कि इसमें वास्तविक व्यवहार की अवस्था की अपेक्षा तार्किकता पर अधिक ध्यान दिया गया है।
(ii) यह एक सामान्य अन्वेषण है इसमें प्रत्येक अवस्था के बालक के आस-पास जब प्रेक्षक न हो तो वे अपने सम-आयु वर्ग की नकल करते हैं या उन्हें उत्तर बताते हैं या प्रेक्षक प्रत्येक बालक को ईमानदारी से व्यवहार करने के लिए प्रोत्साहित करता है और बेईमानी से व्यवहार करने वाले कुछ बालकों को हतोत्साहित कर सकता है। यह दर्शाता है कि एक बालक का नैतिक व्यवहार बहुत कमजोर हो सकता है।
(iii) कोहलबर्ग का सिद्धांत वास्तव में बहुत सीमित है क्योंकि बालक विभिन्न अवस्थाओं में अपने नैतिक निर्णयों के लिए काफी सीखते हैं लेकिन उनके कार्यों में विभिन्नता होती है। भारतीय दार्शनिक तथा शिक्षाशास्त्रियों का विश्वास है कि मूल्य व्यक्ति का एक अंग होना चाहिए, उसकी तार्किकता तथा निर्णय-निर्माण ऐसा हो कि वह अपने मूल्यों के साथ खुश रह सके।
वाइगोट्स्की के विकास का सिद्धांत Vygostsky Development Theory
वाइगोट्स्की के सिद्धांत के अनुसार बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारको (Social Factors) एवं भाषा (Language) का महत्वपूर्ण स्थान है। इसलिए वाइगोट्स्की । के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत भी कहा जाता है।
वाइगोट्स्की के अनुसार, वास्तव में संज्ञानात्मक विकास एक अंतर्वैयक्तिक सामाजिक परिस्थिति (Interpersonal Social Context) में संपन्न होता है, जिसमें बच्चों को अपने वास्तविक विकास के स्तर (Level of Actual Development) (अर्थात जहाँ
तक वे बिना किसी मदद के अपने ही कोई कार्य कर सकते हैं) से अलग तथा उनके संभाव्य विकास के स्तर (Level of Potential Development) (अर्थात जिसे वे सार्थक एवं महत्वपूर्ण व्यक्तियों की सहायता से प्राप्त करने में सक्षम हैं) के तरफ ले जाने की कोशिश की जाती है। इन दोनों स्तरों के बीच के अंतर को वाइगोट्स्की ने समीपस्थ विकास का क्षेत्र (Zone of Proximal Development or ZPD)कहा है।
समीपस्थ विकास का क्षेत्र से तात्पर्य बच्चों के लिए एक ऐसे कठिन कार्यों की दूरी (Range) से होता है, जिसे वह अकेले नहीं कर सकता है लेकिन अन्य वयस्कों तथा कुशल सहयोगियों (Skilled Peers) की मदद से उसे किया जा सकता है।
वाइगोट्स्की ने संज्ञानात्मक विकास में बच्चों की भाषा एवं चिन्तन को भी महत्वपूर्ण साधन बतलाया है। इनका मत है कि छोटे बच्चों द्वारा भाषा का उपयोग सिर्फ सामाजिक संचार (Social Communication) के लिए नहीं किया जाता है बल्कि इसका उपयोग वे लोग अपने व्यवहार को नियोजित एवं निदेशित करने के लिए भी करते हैं। जब आत्म-नियमन (Self-Regulation) के लिए भाषा का उपयोग किया जाता है, तो इसे आंतरिक भाषण (Inner Speech) या निजी भाषण (Private Speech) कहा जाता है।
वाइगोट्स्की के निकट विकास क्षेत्र (ZPD) में खेल का महत्व
वाइगोट्स्की का मत था कि खेल बच्चों को अपने व्यवहार पर नियन्त्रण की क्षमता देने वाला मानसिक उपकरण है। खेल में जो कल्पित स्थितियाँ खड़ी की जाती हैं, वे बच्चे के व्यवहार को एक खास तरह से नियन्त्रित करने वाली और दिशा देने वाली प्रथम बाधाएँ हैं। खेल व्यवहार को संगठित करता है।
विकास में खेल के महत्व के बारे में वाइगोट्स्की का दृष्टिकोण समन्वयकारी था। इनका मत था कि खेल संज्ञानात्मक, भावात्मक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देता है।
खेल के विकास संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास के अलावा स्कूल संबंधी कौशलों को भी लाभ पहुँचाते हैं। अधिगम की अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल के दौरान बच्चों के मानसिक कौशल उच्चतर स्तर पर होते हैं। वाइगोट्स्की ने इसे निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के उच्चतर स्तर की तरह पहचाना है। वाइगोट्स्की के अनुसार खेल विकास को तीन प्रकार से प्रभावित करता है
(a) खेल कार्यों और वस्तुओं को विचार से अलग करने का काम करता है।
(b) खेल आत्मनियन्त्रण के विकास में सहायक होता है।
(c) खेल बच्चे के निकट विकास क्षेत्र का निर्माण करता है।
निकट विकास क्षेत्र (ZPD) के निर्माण में खेल का महत्व
वाइगोट्स्की का मत था कि ‘खेल’ बच्चों के लिए निकट विकास क्षेत्र का निर्माण भी करता है। इस संबंध में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य निम्नलिखित है-
वाइगोट्स्की के अनुसार अधिगम तथा अन्य गतिविधियों की अपेक्षा खेल में की गई नयी विकासमान दक्षताएँ पहले प्रकट होती हैं। अतः चार साल की उम्र में बालक की आगामी सम्भावनाओं की भविष्यवाणी के लिए खेल जितना उपयुक्त है उतना अक्षर पहचानने जैसी अकादमिक गतिविधियाँ नहीं।
खेल में विकास की सारी प्रवृत्तियाँ सारभूत रूप से मौजूद होती हैं। इसमें बालक अपने सामान्य स्तर से ऊपर छलांग लगाने को तत्पर रहता है।
खेलने के लिए बालक जिस मानसिक प्रक्रिया में संलग्न (Attached) होता है वह निकट विकास क्षेत्र की रचना करती है। बच्चा निकट विकास क्षेत्र के उच्चतर स्ता पर काम कर सके इसके लिए कल्पित स्थितियों से प्राप्त भूमिकाएँ नियम तथा प्रेरणा सहायक सिद्ध होते हैं।
परीक्षोपयोगी तथ्य
जीन पियाजे (Jean Piaget) ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास (Cognitive Development) को चार अवस्थाओं में बाँटा है संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory Motor Stage) (जन्म से 24 महीन) प्रासंक्रियात्मक अवस्था Preoperational Stage) (2 वर्ष से 7 वर्ष) ठोस संक्रियात्मक की अवस्था (Stage of Concrete Operation) (7 वर्ष से 12 वर्ष) औपचारिक सक्रियात्मक अवस्था (Stage of Formal Operation): (12 वर्ष से वयस्कावस्था)
पियाजे के सिद्धांत के संप्रत्ययों (Concepts) में अनुकूलन (Adaptation), संरक्षण (Conservation), साम्यधारण (Equilibration), स्कीम्स (Schemes), स्कीमा > (Schema) तथा विकेंद्रण (Decentring) प्रमुख है। पियाजे ने संवेदी पेशीय अवस्था को छह उप-अवस्थाओं में विभाजित किया है प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था (Stage of Reflex Activities)- जन्म से 30 दिन प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
1 महीने से 4 महीने गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
4 से 8 महीने गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था
8 महीने से 12 महीने तृतीय वृतीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था
12 महीने से 18 महीने
मानसिक संयोग द्वारा नये साधनो की खोज की अवस्था
18 महीने से 24 महीने
पियाजे ने प्राकसक्रियात्मक अवस्था को दो भागों में बाँटा है प्राकसंप्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual Period) तथा अंतर्दशी अवधि (Intuitive Period)|
प्राकम्प्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual Period)2 वर्ष से 4 वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता (Signifiers) विकसित कर लेते हैं।
अन्तर्दशी अवधि (Intuitive Period) 4 वर्ष से 7 वर्ष की होती है। इस अवधि में बालकों का चिंतन एवं तर्कणा (Reasoning) पहले से अधिक परिपक्व (Mature हो जाते हैं।
ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of Concerte Operation)7 वर्ष से 12 वर्ष तक होती है। इस अवस्था में बालक ठोस वस्तुओं के आधार पर आसानी से मानसिक संक्रियाएँ (Mental Operations) करके समस्या का समाधान कर लेता है।
औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of Formal Operations) 11 वर्ष से प्रारंभ होकर वयस्कावस्था (Adulthood) तक चलती है।
कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास की तीन मुख्य अवस्थाएँ होती हैं और इन अवस्थाओं का क्रम निश्चित होता है। ये अवस्थाएँ हैं
★ प्रारूढ़िगत नैतिकता का स्तर (4 वर्ष से 10 वर्ष) * रूढ़िगत नैतिकता का स्तर (10 वर्ष से 13 वर्ष)
★ उत्तररूढ़िगत नैतिकता का स्तर
प्रारूढ़िगत नैतिकता स्तर में नैतिक तर्कणा (Moral Reasoning) दूसरे लोगों के मानकों (Standards) से निर्धारित होता है। बच्चे किसी व्यवहार को अच्छा या बुरा उसके भौतिक परिणामों के आधार पर करते हैं।
रूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चे उन सभी क्रियाओं को सही समझता है जिससे दूसरों की मदद होती है तथा दूसरे लोग उसे अनुमोदित करते हैं या जो समाज के नियमों के अनुकूल होता है।
उत्तररूढ़िगत नैतिकता स्तर में बच्चों में नैतिक आचरण पूर्णतः आंतरिक नियंत्रण (Internal Control) में होता है। यह नैतिकता का सबसे उच्च स्तर (Highest वाइगोट्स्की (Vygostsky) ने बच्चों के संज्ञानात्मक विकास में सामाजिक कारकों एवं भाषा को महत्वपूर्ण बतलाया है।
वाइगोट्स्की के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत को सामाजिक-सांस्कृतिक सिद्धांत (Socio-Cultural Theory) भी कहा जाता है।
वाइगोट्स्की ने वास्तविक विकास के स्तर तथा संभाव्य विकास के स्तर के बीच के अंतर को समीपस्थ विकास का क्षेत्र (ZPD) कहा है।
* पाठ्यक्रम छात्रों की रुचि के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम लचीला होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम जीवनोपयोगी होना चाहिए।
वातावरण के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम राष्ट्रीय भावनाओं को विकसित करने वाला होना चाहिए। पाठ्यक्रम समाज की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए।
* पाठ्यक्रम बालकों के मानसिक स्तर के अनुसार होना चाहिए।
★ पाठ्यक्रम में व्यक्तिगत विभिन्नताओं को ध्यान रखना चाहिए ।
प्रगतिशील शिक्षा Progressive Education
जॉन डीवी (John Devey) का प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा के विकास में विशेष योगदान रहा है। जॉन डीवी संयुक्त राज्य अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक थे। प्रगतिशील शिक्षा की अवधारणा इस प्रकार है—शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बालक की शक्तियों का विकास है।
> प्रगतिशील शिक्षा यह सूचना प्रदान करता है कि शिक्षा बालक के लिए है बालक शिक्षा के लिए नहीं, इसलिए शिक्षा के उद्देश्य से ऐसा वातावरण तैयार करना चाहिए, जिसमें प्रत्येक बालक को सामाजिक विकास का पर्याप्त अवसर मिले। प्रगतिशील शिक्षा का उद्देश्य जनतंत्रीय मूल्यों की स्थापना है।
प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत बालक में जनतंत्रीय मूल्यों का विकास किया जाना चाहिए। शिक्षा के द्वारा हमें ऐसे समाज का निर्माण करना चाहिए जिसमें व्यक्ति व्यक्ति में कोई भेद न हो, सभी पूर्ण स्वतंत्रता और सहयोग से काम करें ।
प्रत्येक मनुष्य को अपनी स्वाभाविक प्रवृत्तियों, इच्छाओं और आकांक्षाओं के अनुसार विकसित होने का अवसर मिले, सभी को समान अधिकार दिये जाएँ। ऐसा समाज तभी बन सकता है, जब व्यक्ति और समाज के हित में कोई मौलिक अन्तर न माना जाय । शिक्षा के द्वारा मनुष्य में परस्पर सहयोग और सामंजस्य की स्थापना होनी चाहिए।
प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षण विधि को अधिक व्यावहारिक करने पर बल दिया जाता है।
जॉन डीवी ने प्रगतिशील शिक्षा के अन्तर्गत शिक्षा में दो तत्वों को विशेष महत्वपूर्ण माना है. रुचि और प्रयास । अध्यापक को बालक की स्वाभाविक रुचियों को समझकर उसके लिए उपयोगी कार्यों की व्यवस्था करनी चाहिए। बालक को स्वयं कार्यक्रम बनाने का अवसर दिया जाना चाहिए। डीवी के शिक्षा पद्धति संबंधी स्वयं कार्यक्रम के विचारों के आधार पर प्रोजेक्ट प्रणाली का जन्म हुआ।
इसके अन्तर्गत बालक को ऐसे काम दिये जाने चाहिए, जिनसे उनमें स्फूर्ति, आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और मौलिकता का विकास हो। प्रगतिशील शिक्षा में शिक्षक को भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। इसके अनुसार शिक्षक समाज का सेवक है। उसे विद्यालय में ऐसा वातावरण निर्माण करना पड़ता
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UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Book in Hindi PDF Download : नमस्कार दोस्तों में दीपक कुमार एक बार फिर आप सभी का स्वागत करता हूँ हमारी वेबसाइट SscLatestNews.Com में, आज की पोस्ट में आप UPTET (Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test) Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Chapter Wise / Topic Wise in Hindi PDF में Free Download करने जा रहे है | UPTET Exam Questions Paper 1 & 2 दोनों ही Level के लिए बाल विकास एवं शिक्षा शास्त्र Book के Questions बहुत ही म्हत्त्प्वूर्ण होते है जिसे अभ्यर्थी सबसे ज्यादा पढ़ना पसंद करते है |
अभ्यर्थी आने वाले समय में हमारी वेबसाइट के माध्यम से UPTET Paper 1 and Paper 2 2022 की All Books and Notes with Previous Year Questions Answers Papers in Hindi English PDF में Free Download करेंगे जिन्हें आप आने वाले UPTET Exam Paper 2022 में इस्तेमाल कर सकते है | Lucent Bal Viaks Book PDF in Hindi के लिए हमें पहले भी अभ्यर्थियो द्वारा Massage किये जा चुके है जिसके लिए आज की पोस्ट हम तैयार भी कर रहे है |
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Preface
अभ्यर्थियो को बता दे की UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra UPTET, CTET, RTET, UKTET, MTET व सभी राज्यों के TET Competitive Exam Question Answer Paper में पूछी जाती है जो सभी अभ्यर्थियो के लिए बहुत ही म्हत्त्प्वूर्ण होती है | अभ्यर्थियो को आज की पोस्ट UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes New Syllabus पर दिए हुए है जिसके आधार पर आप घर बैठे कोई भी TET Exam Model Sample Paper आसानी से पास कर सकते है |
Table of Contents | UPTET Book Chapter Wise in Hindi PDF Free Download
NIELIT O Level Project Paper PDF Download : दोस्तों यदि आप NIELIT (DOEACC) O Level Question Answer Paper की तैयारी कर रहे है तो आज की पोस्ट आपके लिए बहुत ही खास होने जा रही है | आज की पोस्ट में आपको NIELIT O Level Project PDF में Share किये जा रहे है जिन्हें पढ़ने के बाद आप यह पता लगा पाएंगे की आपको आने वाले O Level Question Paper 2022 में O Level Project Paper कैसे देना होगा |
हम आपको अपनी आज की पोस्ट में O Level Project Work Sample topics Wise Share कर हरे है जिसे Previous Year में दिया गया था | अभ्यर्थियो को बता दे की हम O Level Books and Notes in Hindi English PDF में पहले ही शेयर कर चुके है जिसे आप उपर दिए गये मेनूबार से जाकर प्राप्त भी कर सकते है | आपको बता दे की इस पोस्ट से पहले हम O Level New Syllabus in PDF में भी शेयर कर चुके है जिसका लिंक आपको निचे दिया जा रहा है |
यदि आप O Level Question Paper की तैयारी कर चुके है और सभी Subject को Clear कर चुके है तो आपको O Level Project कैसे बनाते है हमारी वेबसाइट के माध्यम से सीख लेना चाहिए जो NIELIT O Level Model Sample Paper में बहुत ही म्हत्त्प्वूर्ण माना जाता है | How to Create O Level Project के लिए काफी अभ्यर्थी पहले ही कमेंट कर चुके है जिसके बाद हम अपनी आज की पोस्ट शेयर कर रहे है |
UPTET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Samajikaran ki Prakriya Study Material : नमस्कार दोस्तों आज की पोस्ट UPTET (Uttar Pradesh Teacher Eligibility Test) Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Books and Notes Study Material in Hindi में स्वागत है | आज आप UP TET Bal Vikas Evam Shiksha Shastra Chapter 4 समाजीकरण की प्रक्रियांए in Hindi PDF में Free Download करने जा रहे है जिसका लिंक आपको निचे टेबल में दिया हुआ है |
समाजीकरण की प्रक्रियाएँ (UPTET Bal Viks Evam Shiksha Shastra Chapter 4 Study Material in Hindi)
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जन्म के समय शिशु न सामाजिक (Social) होता है और न ही असामाजिक ( Anti Social), बल्कि वह समाज के प्रति उदासीन होता है। आयु बढ़ने के साथ साथ वह सामाजिक गुणों से सुशोभित होता जाता है और कुछ ही वर्षों बाद वह सामाजिक प्राणी कहलाने लगता है।
बालक सामाजिक गुणों को सामाजिक विकास की अवस्थाओं के अनुसार ग्रहण करता है। प्रारम्भ में बालक में सामाजिक विकास तीव्र गति से होता है, फिर धीमी गति से होता है। समय और परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन होता रहता है और सामाजिक विकास एक निश्चित दिशा की ओर बढ़ता जाता है। समाजीकरण की प्रक्रिया (Socialization Processes) निरन्तर चलती रहती है।
चाइल्ड (Child 1954) के अनुसार — ‘‘सामाजिक विकास वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति में उसके समूह मानकों के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास होता
सारे व टेलफोर्ड (Sare & Taleford) के अनुसार, ‘समाजीकरण की प्रक्रिया शिशु के दूसरे व्यक्तियों के साथ प्रथम सम्पर्क से आरम्भ होती है, और आजीवन चलती रहती है।
हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, “सामाजिक विकास का अर्थ उस योग्यता को अर्जित करना है जिसके द्वारा सामाजिक प्रत्याशाओं के अनुसार व्यवहार किया है जा सके।” “कोई भी बालक सामाजिक पैदा नहीं होता। वह दूसरों के होते हुए भी अकेला होता है। वह समाज में दूसरों के सम्पर्क में आकर समायोजन की प्रक्रिया सीखता व है। इसलिए समाजीकरण की प्रक्रिया बालक के सामाजिक विकास के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण होती है।”
रॉस (Ross) के अनुसार, “सहयोग करनेवालों में ‘हम’ की भावना का विकास । और उनके साथ काम करने की क्षमता का विकास एवं संकल्प समाजीकरण | कहलाता है।”
सोरेनसन (Sorenson) के अनुसार, “सामाजिक अभिवृद्धि और विकास का अर्थ अपनी और दूसरों की उन्नति के लिए योग्यता की वृद्धि।’ समाजीकरण की प्रक्रिया में तीन प्रक्रियाएँ सम्मिलित हैं –
समाज द्वारा मान्य व्यवहार का विकास करना। प्रत्येक समह के व्यवहार संबंध कुछ मानक (Norms) होते हैं। बच्चे यदि इन्ही व्यवहार मानकों का अधिगम करते है तो उनका व्यवहार समाज द्वारा मान्य होता है।
2. समाज द्वारा मान्य व्यवहारों के अनुसार क्रियाएँ करना। उदाहरण के लिए विद्यार्थियों, अध्यापकों, माता और पिता आदि सबके लिए कुछ निश्चित कार्य होते हैं, इनको न्हीं के अनुसार व्यवहार करना होता है।
3. सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास करना। इन अभिवृत्तियों के विकास के कारण ही बालक सामाजिक कार्यक्रमों, समाज के अन्य व्यक्तियों को पसन्द करता है।
जब किसी व्यक्ति में उपर्युक्त तीन बातें पायी जाती हैं तो वह व्यक्ति अपने सामाजिक जीवन में सफलता प्राप्त करता है ।
सामाजिक विकास की विशेषताएँ Characteristics of Social Development
सामाजिक विकास की विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–
1. सामाजिक प्रतिक्रियाएँ ही सामाजिक विकास का प्रारम्भिक चरण है।
2. बालक खेल के माध्यम से समूह में अपनी सामाजिक प्रतिक्रियाएँ करता है।
3. सामाजिक प्रतिक्रियाओं में सामाजिक सदस्यों के साथ अपने विचारों का आदान प्रदान करता है।
अपना सहयोग देकर तथा दूसरों से सहयोग लेकर कोई भी व्यक्ति बड़े से बड़ा कार्य कर सकता है।
5. समाज की सीमा में प्रवेश करके प्रतिस्पर्धा का विकास बालकों में होता है।
6. सामाजिक विकास के साथ बालक में सहयोग और सहानुभूति जैसे सामाजिक व्यवहार विकसित होते हैं।
7. कभी कभी निषेधात्मक (Negative) अवस्था में बालक तर्क भी करने लगते हैं; ऐसे करके बालक अपने सम्मान की रक्षा करते है।
8. बालक समाज व समूहों के आदर्शों, रीति रिवाजों, परम्पराओं, लोकाचार तथा धार्मिक रीति रिवाजों को सीखता है । सामाजिक अन्तःक्रियाएँ करना भी सामाजिक विकास के साथ-साथ सीखता है।
9. सामाजिक विकास द्वारा ही बालक में अहं (Ego) भाव विकसित होता है।
विभिन्न अवस्थाओं में समाजीकरण की प्रक्रिया (Socialization Process in Different Stages) : बालक में जन्म के बाद उसकी विभिन्न अवस्थाओं में सामाजिक विकास भिन्न-भिन्न ढंग से होता है। जो इस प्रकार है1.
शैशवावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Infancy) : हरलाक (THurlock) के अनुसार सामाजिक विकास निम्न क्रम में होता है–
महीना मानव और अन्य ध्वनियों में अंतर समझना।
2 महीना मानव ध्वनि को पहचानना और व्यक्तियों का मुस्कान के साथ स्वागत करना।
3 महीना अपनी माता को पहचानना और उससे दूर होने पर दुःखी होना।
4 महीना व्यक्तियों के चेहरों को पहचानना ।
.5 महीना प्यार या क्रोध की आवाज समझना ।
6 और 7 महीना परिचितों का मकान के साथ स्वागत करना ।
8 से 9 महीना अपनी ही परछायी के साथ खेलना तथा उसे चूमना ।
24 महीना बड़ों के विभिन्न कार्यों में हाथ बँटाने का प्रयास करना ।
इस काल में बालक की सामाजिक विकास संबंधी विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
★ सामाजिक खेल का विकास ★ माता पिता पर आथित
★ स्पर्धा की भावना ★ सामाजिक स्वीकृति
★ स्वयं केन्द्रित बालक ★ मैत्री और सहयोग
2. बाल्यावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Childhood) : इस आयु वर्ग में बालक के सामाजिक विकास के कई महत्वपूर्ण पहलू देखने को मिलते हैं । बालक में कई सामाजिक परिवर्तन आ जाते हैं। ये इस प्रकार हैं-
सहयोग की भावना का विकास ★ दूसरों से स्नेह की अपेक्षा
★ छोटे समूहों में खेलना ★ आदतों का निर्माण
★ सामाजिक सूझ का विकास ★ प्रिय कार्यों में रुचि
★ मित्रों का चुनाव
हरलॉक (Hurlock) के अनुसार, बाल्यावस्था में बालक का सामाजिक विकास निम्न क्रम में होता है-
लगभग 6 वर्ष की आयु में बालक प्राथमिक विद्यालय में प्रवेश करता है। वह एक नये वातावरण में अनुकूलन करना, सामाजिक कार्यों में भाग लेना और नये मित्र बनाना सीखता है।
अनुकूलन करने के उपरान्त बालक के व्यवहार में उन्नति और परिवर्तन आरम्भ हो जाता है। फलस्वरूप उसमें स्वतन्त्रता, सहायता और उत्तरदायित्व के गुणो का विकास होने लगता है।
विद्यालय में बालक किसी-न-किसी समूह का सदस्य हो जाता है। यह समूह उसके वस्त्रों के रूपों, खेल के प्रकारों और उचित-अनुचित के आदर्शों का निर्धारित करती है। इस प्रकार, बालक के सामाजिक विकास को एक नवीन दिशा प्राप्त होती है।
★ टोली या समूह में बालक में अनेक सामाजिक गुणों का विकास होता है। क्रो एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार, ”इस अवस्था में बालक अपने शिक्षक का सम्मान तो करता है, पर उसका परिहास करने की अपनी प्रवत्ति का दमन नहीं कर पाता है।”
3. किशोरावस्था में सामाजिक विकास (Social Development in Adolescence) को एवं क्रो (Crow & Crow) के अनुसार-‘जब बालक 13 या 14 वर्ष की आयु में प्रवेश करता है तब उसके प्रति दूसरों के और दूसरों के प्रति उसके कुछ दृष्टिकोण से उसके अनुभवों में एक सामाजिक संबंधों में परिवर्तन होने लगता है।” इस परिवर्तन के कारण उसके सामाजिक विकास का स्वरूप निम्नांकित होता है
1. बालकों और बालिकाओं में एक दूसरे के प्रति बहुत आकर्षण उत्पन्न होता है। अतः वे अपनी सर्वोत्तम वेश भूषा और बनाव शृंगार में अपने को एक दूसरे के समक्ष प्रस्तुत करते हैं।
बालक और बालिकाएँ दोनों अपने अपने समूहों का निर्माण करते हैं। इन समूहों का मुख्य उद्देश्य होता है—मनोरंजन जैसे पर्यटन, पिकनिक, नृत्य, संगीत इत्यादि ।
कुछ बालक और बालिकाएँ किसी भी समूह के सदस्य नहीं बनते हैं वे उनसे अलग रहकर अपने या विभिन्न लिंग के व्यक्ति से घनिष्ठता स्थापित कर लेते हैं और उसी के साथ अपना समय व्यतीत करते हैं।
4. बालकों में अपने समूह के प्रति अत्यधिक भक्ति होती है। वे उसके द्वारा स्वीकृत वेश-भूषा, आचार-विचार, व्यवहार आदि को अपना आदर्श बनाते हैं।
5. समूह की सदस्यता के कारण उनमें नेतृत्व, उत्साह, सहानुभूति, सद्भावना आदि । सामाजिक गुणों का विकास होता है।
इस अवस्था में बालकों और बालिकाओं का अपने माता-पिता से किसी-न-किसी बात पर संघर्ष या मतभेद हो जाता है।
किशोर बालक अपने भावी व्यवसाय का चुनाव करने के लिए सदैव चिन्तित रहता है। इस कार्य में उसकी सफलता या असफलता उसके सामाजिक विकास को निश्चित रूप से प्रभावित करती है।
किशोर बालक और बालिकाएँ सदैव किसी-न-किसी चिन्ता या समस्या में उलझे रहते हैं; जैसे—धन, प्रेम, विवाह, कक्षा में प्रगति, पारिवारिक जीवन इत्यादि । ये समस्याएँ उनके सामाजिक विकास की गति को तीव्र या मन्द, उचित या अनुचित दिशा प्रदान करती है।
विभिन्न अवस्थाओं में कुछ विशिष्ट सामाजिक क्रियाएँ Some Special Social Behaviours of Different Stages
बचपनावस्था की विशिष्ट सामाजिक व्यवहार
व्यवहार क्रियाएँ
ध्यानाकर्षण (Attention Seeking) 1 वर्ष 6 महीने
अनुकरण (Imitation) 1 वर्ष
पराश्रितता (Dependency) 0-2 वर्ष
लज्जाशीलता (Shyness) 1-2 वर्ष
ईर्ष्या (Rivalry) 1 वर्ष
सहयोग (Co-operation) 1-1 वर्ष 6 महीने
स्व प्रेमी (Self-Centered) 1 वर्ष
निषेधात्मक प्रवृत्ति (Negativism) 1 वर्ष वर्ष 6 महीने
2. पूर्व-बाल्यावस्था के कुछ प्रमुख सामाजिक व्यवहार
खेल (Play) 2-5 वर्ष
अनुकरण (Imitation) 3.-4 वर्ष
निषेधात्मक (Negativism) 2-5 वर्ष
झगड़ा तथा मार-पीट (Quarrel and Aggression)
सहयोग और सहानुभूति (Co-operation and Sympathy)
चिढ़ाना व तंग करना (Teasing)
आक्रामकता (Aggression)
इर्ष्या (Rivalry)
प्रतियोगिता (Competition)
मित्रता (Friendship)
3. उत्तर-बाल्यावस्था में सामाजिक विकास
सामुदायिकता (Gregariousness)
सहयोग (Co-operation)
समूह भक्ति (Group Loyalty)
सहानुभूति (Sympathy)
मित्रता (Friendship)
खेल (Play)
यौन-विरोध (Sex Antagonism)
सहिष्णुता (Tolerance)
नेतृत्व (Leadership) प्रतियोगिता एवं स्पर्धा (Competition and Rivalry)
किशोरावस्था में सामाजिक विकास
समूह का सदस्य होना स्पर्धा और प्रतियोगिता
सामाजिक संबंधों की स्थापना नेतृत्व (Leadership)
सामाजिक रुचियों का विकास मित्रता (Friendship)
सामाजिक चेतना का विकाससामाजिक परिपक्वता (Social Maturity)
पारिवारिक संबंधों में सुधार
सामाजिक विकास की कसौटियाँ Criteria of Social Development
बालक के सामाजिक विकास को विभिन्न कसौटियों के आधार पर मापा जा सकता है-
1.सामाजिक समायोजन (SocialAdjustment): जिन बालकों का समायोजन जितना अच्छा होता है उन बालकों का सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होता है। विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ बालक का समायोजन जितना ही अच्छक होगा उसका सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होगा।
2. सामाजिक अनुरूपता (Social Conformity): इसका अर्थ है समाज के मानका आदर्शों और मूल्यों के अनुरूप व्यवहार करना । बालकों के व्यवहार में सामाजिक अनुरूपता जितनी ही अधिक होती है उन बालकों का सामाजिक विकास उतना ही अच्छा होता है। सामाजिक विकास और सामाजिक अनुरूपता में धनात्मक सह संबंध है।
3. सामाजिक परिपक्वता (Social Maturity) समाज के मूल्यों, नियमों, अभिवृत्तियों और सामाजिक व्यवहार, रीति, प्रथाओं और परम्पराओं तथा सामाजिक कार्य आदि की परिपक्वता यदि एक व्यक्ति में समाज की इच्छाओं के अनुसार विकसित हो चुके हैं तो वह व्यक्ति समाज की दृष्टि से पूर्ण रूप से सामाजिक प्रौढ़ता रखता है। सामाजिक परिपक्वता का विकास धीरे धीरे आयु के साथ साथ होता है।
4. सामाजिक अन्तःक्रियाएँ (Social Interactions) सामाजिक अन्तःक्रियाओं का अर्थ है दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक क्रियाएँ । सहयोग, सहानुभूति, व्यवस्थापन, समीकरण आदि कुछ संगठनात्मक प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं। इसी प्रकार से तनाव, संघर्ष आदि कुछ विघटनात्मक प्रकार की सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं। बालक में सामाजिक विकास जितना ही अधिक होता है उसमें संगठनात्मक सामाजिक अन्तः क्रियाएँ उतनी ही अधिक होती हैं ।
5. सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेना (Social Participation) बालक दूसरों के साथ खेलने, बातचीत करने और घूमने में अपनी रुचि लगभग 1, वर्ष की अवस्था से ही प्रदर्शित करने लग जाता है। 5-6 वर्ष की अवस्था में सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने का महत्व उसकी समझ में आने लगता है। दूसरे बच्चों के साथ सामूहिक खेलों से समाज के अनेक नियमों और मूल्यों को सीखता है तथा अनेक सामाजिक कौशलों को भी सीखता है।
बालक को सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेने के जितने ही अधिक अवसर प्राप्त होते हैं, इन अवसरों से वह उतना ही अधिक लाभ उठाता है तथा उस बालक का सामाजिक विकास उतना ही अच्छा माना जाता है।
सामाजिक परिपक्वता की अध्ययन विधि Learning Method of Social Maturity
वाइनलैंड सामाजिक परिपक्वता माप (The Vineland Social Maturity Scale)
> डॉ. एडलर डोल ने सामाजिक परिपक्वता का मापन करने के लिए इस विधि का निर्माण किया है। वाइनलैंड सामाजिक परिपक्वता माप को प्रमाणीकृत कर लिया गया है तथा इसका प्रयोग भिन्न अवस्था के बालकों के सामाजिक व्यवहार का मापन करने के लिए किया जाता है।
डॉ. डोल ने इस माप के अन्तर्गत 117 सामाजिक क्रियाओं को रखा है, जिनका संबंध जन्म से लेकर किशोरावस्था तक है।
सामाजिक विकास को प्रभावित करने वाले कारक Factors Influencing Social Development
स्किनर व हैरीमन के शब्दों में- ‘वातावरण और संगठित सामाजिक साधनो के कुछ ऐसे विशेष कारक हैं जिनका बालक के सामाजिक विकास की दशा पर निश्चित और विशिष्ट प्रभाव पड़ता है।‘
वंशानुक्रम (Ileredity) कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि बालक के सामाजिक विकास पर वंशानुक्रम का कुछ सीमा तक प्रभाव पड़ता है। इनकी पुष्टि में क्रो एवं क्रो ने लिखा है.. “शिश की पहली मस्कान या उनका कोई विशिष्ट व्यवहार वंशानुक्रम से उत्पन्न होनेवाला हो सकता है।”
2. शारीरिक व मानसिक विकास स्वस्थ और अधिक विकसित मस्तिष्क वाले बालक का सामाजिक विकास अस्वस्थ और कम विकसित मस्तिष्क वाले बालक की अपेक्षा अधिक होता है।
3. संवेगात्मक विकास (Emotional Development) बालकों की संवेगात्मकता उनके सामाजिक विकास को प्रभावित करती है। जो बालक विनोदप्रिय और हँसमख होते हैं उनके दोस्त और साथी समूहों की संख्या अधिक होती है। इस प्रकार के बालकों में सामाजिक विकास भी अन्य प्रकार के बालकों की अपेक्षा अधिक मात्रा में पाया जाता है।
4. पारिवारिक वातावरण (Family Environment) परिवार ही वह स्थान है, जहाँ सबसे पहले बालक का समाजीकरण होता है परिवार के बड़े लोगों का जैसा व्यवहार और आचरण होता है, बालक वैसा ही आचरण और व्यवहार करने का प्रयत्न करता है।
5. आर्थिक स्थिति (Economic Status) माता-पिता की आर्थिक स्थिति का बालक के सामाजिक विकास पर उचित या अनुचित प्रभाव पड़ता है। उदाहरणार्थ, धार्मिक माता-पिता के बालक अच्छे पड़ोस में रहते हैं, अच्छे व्यक्तियों से मिलते-जुलते हैं और अच्छे विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करते हैं। स्वाभाविक रूप से ऐसे बालकों का सामाजिक विकास उन बालकों से कहीं अधिक उत्तम होता है जिन्हें निर्धन माता-पिता की संतान होने के कारण उपयुक्त सुविधाएँ नहीं मिलती हैं।
6. पालन पोषण की विधि (Methods of Nurture) अभिभावक के द्वारा बालक के पालन पोषण की विधि उसके सामाजिक विकास पर बहुत गहरा प्रभाव डालती है। जैसे—समानता के आधार पर पाला जानेवाला बालक कहीं भी हीनता का अनुभव नही करता है और लाड़ से पाला जाने वाला बालक दूसरे बालकों से दूर रहना पसन्द करता है। अतः दोनों का सामाजिक विकास दो विभिन्न दिशाओं में होता है।
7. पड़ोस और विद्यालय (Neighborhood and School) बालक के सामाजिक विकास के दृष्टिकोण से परिवार के बाद विद्यालय का स्थान सबसे अधिक महत्वपूर्ण है। यदि विद्यालय का वातावरण जनतंत्रीय है तो बालक का सामाजिक विकास अविराम गति से उत्तम रूप ग्रहण करता चलता है। इसके विपरीत, यदि विद्यालय का वातावरण एकतन्त्रीय सिद्धान्तों के अनुसार दण्ड और दमन पर आधारित है तो बालक का सामाजिक विकास कुण्ठित हो जाता है।
8. मनोरंजन (Recreation) जिन बालकों को अच्छे मनोरंजन के जितने अधिक अवसर प्राप्त होते हैं उनका सामाजिक विकास उतना ही अधिक अच्छा होता है। स्वस्थ, नाटक सिनेमा, सर्कस, सैर पार्टियों में जाना आदि बच्चों का मनोरंजन करते हैं। मनोरंजन से बालक स्वस्थ व प्रसन्न रहता है।
9. समूह या टोली (Groups) बालक के समूह के साथी अधिक हैं तो सामाजिक विकास तीव्रता से होता है, क्योकि समूह के बीच ही बालक विभिन्न सामाजिक मल्यो व सामाजिक स्वरूपों को सीखता है।
10. संस्कृति (Culture) मानव की संस्कृति पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके सामाजिक व्यवहार का प्रभाव पड़ता है, जिसके बीच वह प्रारंभ से पलता और बड़ा होता है। भारतीय व पाश्चात्य संस्कृति में पर्याप्त अंतर है। कोई भी समाज अपने सदस्यों से अपनी संस्कृति के विरुद्ध कार्य करने की अपेक्षा नहीं रखता है। अतः सामाजिक प्राणी होने के नाते संस्कृति के अनुसार ही सामाजिक व्यवहारों को किया जाता है।
11. लिंग (SC) लिंग भेद सामाजिक व्यवहारों में भिन्नता पैदा करते हैं। प्रायः लड़कों को प्रारम्भ से अधिक स्वतंत्रता मिलने के कारण वे अधिक क्रोधी झगड़ालू होते हैं, जबकि लडकियाँ सहनशील होती हैं। बालिकाओं में बालकों की अपेक्षा सहनशक्ति, सहिष्णुता, सहानुभूति और त्याग की सामाजिक प्रतिक्रियाएँ अधिक होती हैं।
12. वृद्धि (Growth) : सामाजिक विकास विभिन्न आयु स्तरों पर वृद्धि के अनुसार अलग अलग होता है। प्रारम्भ में बच्चा पूरी तरह दूसरों पर निर्भर होता है। परन्तु उम्र के साथ साथ वह आत्मनिर्भर होता जाता है। वह स्वयं समाज में नेतृत्व करने योग्य हो जाता है तथा उत्तरोत्तर वृद्धि सामाजिक विकास में परिपक्वता लाती है।
13. भाषा विकास (Language Development) : भाषा एक माध्यम है, जिसके द्वारा बालक अपनी बातों, विचारों आदि का आदान-प्रदान दूसरों से करते हैं। भाषा के उचित प्रयोग से बालक अपना सामाजिक दायरा बढ़ा सकते हैं।
14. हीनता की भावना (Inferiority Complex) प्रायः जिन बालकों में हीनता की _ भावना अधिक मात्रा में पायी जाती है उनमें सामाजिक विकास कम गति से होता है। वे बालक दूसरों से मिलना-जुलना पसन्द नहीं करते हैं। अपनी हीनता की भावना के कारण उनमें आत्मविश्वास भी कम हो जाता है जिससे उन्हें अपना सामाजिक दायरा बनाने में कठिनाई होती है।
15. व्यक्तित्व विकास (Personality Development): बालकों का व्यक्तित्व भी • उसके सामाजिक विकास को प्रभावित करता है। प्रत्येक बालक के व्यक्तित्व का निर्माण अलग ढंग से होता है। कुछ बालक बहिर्मुखी तथा कुछ अन्तर्मुखी होते हैं। बहिर्मुखी बालकों का सामाजिक दायरा बड़ा होता है। वे प्रसन्न एवं मिलनसार होते हैं, जिससे वे समाज में लोकप्रिय हो जाते हैं। इससे उनमें आत्मविश्वास की भावना बढ़ जाती है।
16. सामाजिक व्यवस्था (Social System) सामाजिक व्यवस्था बालक के सामाजिक विकास को एक निश्चित रूप और दिशा प्रदान करती है। समाज के कार्य, आदर्श और प्रतिमान बालक के दृष्टिकोण का निर्माण करते हैं। यही कारण है कि ग्राम और नगर, जनतंत्र और तानाशाही में बालक का सामाजिक विकास विभिन्न प्रकार से होता है।
परीक्षोपयोगी तथ्य
समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति उसके समूह मानकों (Norms) के अनुसार वास्तविक व्यवहार का विकास करता है।
सामाजिक विकास का अर्थ उस योग्यता को अर्जित करना है जिसके द्वारा सामाजिक प्रत्याशाओं (Expectation) के अनुसार व्यवहार किया जा सके।
सामाजीकरण में तीन प्रक्रियाएँ सम्मिलित है(a) वह प्रक्रिया जिससे बालक में
समाज द्वारा मान्य व्यवहार का विकास होता है। (b) बालक समाज में मान्य रोल्स सीखता है। (c) सामाजिक अभिवृत्तियों का विकास।
सामाजिक प्रौढता (Social Maturity) का अर्थ है- समाज के मूल्यों नियमों अभिवृत्तियों और सामाजिक व्यवहार तथा सामाजिक रोल्स आदि की प्रौढ़ता।
बहिर्मुखी व्यक्तियों में सामाजिक प्रौढ़ता अन्तर्मुखी व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक पायी जाती है।
सामाजिक अनुरूपता (Social Conformity)का अर्थ है समाज के मानकों (Norms) आदर्शों तथा मूल्यों इत्यादि के अनुरूप व्यवहार करना।
सामाजिक विकास और सामाजिक अनुरूपता में धनात्मक सह संबंध है।
बालक में विभिन्न सामाजिक परिस्थितियों और व्यक्तियों के साथ बालक का समायोजन जितना अच्छा होगा, उसका सामाजिक विकास भी उतना ही अच्छा होगा।
सामाजिक अन्तःक्रिया का अभिप्राय है दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य पारस्परिक क्रियाएँ।
संगठनात्मक सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं सहयोग, सहानुभूति, व्यवस्थापन, सात्मीकरण इत्यादि।
विघटनात्मक सामाजिक अन्तःक्रियाएँ हैं तनाव, संघर्ष इत्यादि।
बालक का सामाजिक विकास उतना अधिक अच्छा माना जाता है जितना ही अधिक वह सामाजिक कार्यक्रमों में भाग लेता है।
बचपनावस्था (Babyhood) में बालकों में होनेवाली सामाजिक अनुक्रियाएँ हैंअनुकरण (Imitation), आश्रितता (Dependency), ईर्ष्या (Rivalry), सहयोग (Cooperation), शर्माहट (Shyness), ध्यान आकर्षित करना (Attention Seeking), अवरोधी व्यवहार (Resistant Behaviour)।
पूर्व बाल्यावस्था (Early Childhood) में होनेवाली सामाजिक अनुक्रियाएँ हैंआक्रामकता झगड़ा (Quarreling), चिढ़ना (Teasing), निषेधात्मक व्यवहार (Negative Behaviour), सहयोग (Co-operation), ईर्ष्या (Rivalry), उदारता (Generosity), सामाजिक अनुमोदन की इच्छा, आश्रितता (Dependency), बालको में मित्रता, सहानुभूति (Sympathy)।
उत्तर बाल्यावस्था (Late Childhood) में होनेवाली सामाजिक अक्रियाएँ हैंसामाजिक अनुमोदन (Social Approval), सुझाव ग्रहणशीलता (Suggestibility), स्पर्धा और प्रतियोगिता (Rivalry and Competition), खेल (Sports), पक्षपात और सामाजिक विभेदीकरण (Prejudice and Social Discrimination), उत्तरदायित्व (Responsibility), सामाजिक सूझ (Social Insight), यौन विरोधी भाव (Sex Antagonism)।
सामाजिक विकास को प्रभावित करनेवाले कारक हैं- शारीरिक बनावट और स्वास्थ्य, परिवार पडोस और वातावरण, मनोरंजन (Recreation), व्यक्तित्व, संवर्द्धन अभिप्रेरक, संवेगात्मक विकास, हीनता की भावना, साथी समूह ।
किशोरावस्था में बालकों में होनेवाले सामाजिक परिवर्तन हैं साथियों के समूह का प्रभाव, सामाजिक व्यवहार में परिवर्तन, नया सामाजिक समूहन, दोस्तों में चयन का नया मूल्य, सामाजिक स्वीकृति में नया मूल्य इत्यादि ।
ब्रोनफेनब्रेन्नर (Bronfrenbrenner) ने पारिस्थितिपरक सिद्धांत (Ecological Theory) की व्याख्या बच्चे के विकास के सामाजिक संदर्भ (Social Context) में किया है। इस सिद्धांत के अनुसार पर्यावरणी तल के पाँच स्तर होते हैं. लघुमंडल (Micro System), मध्यमंडल (Mesosystem), बाह्यमंडल (ExOSystem), वृहत्तमंडल (Macrosystem), घटनामंडल (Chromosystem)।
इरिक्सन का मनोसामाजिक सिद्धांत में पूरे जीवन अवधि में विकास को आठ अवस्थाओं में बाँटा गया है।
> सामाजिक विकास में शिक्षकों की भूमिका काफी अधिक है, क्योंकि शिक्षकगण बालकों के सामाजिक विकास को सीधे प्रभावित करते हैं। समाजीकरण वह प्रक्रिया है जिससे बच्चे और वयस्क सीखते हैं परिवार से, विद्यालय से और श्रेष्ठ जनों से
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