LLB Hindu Law Chapter 7 Post 5 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hi Students आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी Hindu Law Books Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार Study Material पढ़ने जा रहे है |
अभिनिर्धारित किया कि जहाँ जोरीदारी प्रथा के अन्तर्गत किसी पुरुष के द्वारा कोई सम्पत्ति निर्वसीयती दी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति के विभाजन के बीच पूर्ण रक्त सम्बन्धियों एवं अर्ध रक्त सम्बन्धियों
बीच सम्पत्ति के विभाजन के समय किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जायेगा बल्कि उनके बीच ऐसी सम्पत्ति का विभाजन सामान्य रूप से की जायेगी।
1956 के हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम पारित होने के पश्चात् विधायिका ने ऐसे विवाह की परम्परा को अविधिमान्य घोषित कर दिया और न्यायालय ने ऐसी सम्पत्ति के विभाजन के मामले में यह अभिनिर्धारित किया कि वर्ग (1) के दायाद मौजूद होने पर वर्ग (2) के दायादों को सम्पत्ति न्यागत नहीं होगी और वर्ग (2) के दायाद ऐसी छोड़ी गयी सम्पत्ति तभी प्राप्त कर पायेगें जब वर्ग एक (1) के सूची के कोई दायाद मौजूद न हों।
अनुसूची के वर्ग 2 में उल्लिखित दायादों की सूची
(1) पिता।
(2) (क) पुत्र की पुत्री का पुत्र, (ख) पुत्र की पुत्री की पुत्री, (ग) भाई, (च) बहिन।
(3) (क) पुत्री के पुत्र का पुत्र, (ख) पुत्री के पुत्र की पुत्री, (ग) पुत्री की पुत्री का पुत्र, (घ) पुत्री की पुत्री की पुत्री।
(4) (क) भाई का पुत्र, (ख) बहिन का पुत्र, (ग) भाई की पुत्री तथा (घ) बहिन की पुत्री।
(5) (1) पिता का पिता तथा (2) पिता की माता।
(6) (1) पिता की विधवा तथा (2) भाई की विधवा पत्नी।
(7) (1) पिता का भाई तथा (2) पिता की बहिन।
(8) (1) माता का पिता तथा (2) माता की माता।
(9) (1) माता का भाई तथा (2) माता की बहिन योग 23।
व्याख्या—इस अनुसूची में उल्लिखित भाई तथा बहिन सहोदर मातृपक्ष के भाई बहिन को सम्मिलित नहीं करते।
के० राज बनाम मुथ्थमा के वाद में उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 8 की अनुसूची 2 के अन्तर्गत यह निर्णय दिया कि अनुसूची 2 में बहन शब्द के अन्तर्गत सहोदर बहन अपने पितृपक्ष की सम्पत्ति में किसी प्रकार का कोई दावा अन्य पिता की सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिए नहीं कर सकती, अर्थात् जहाँ एक ही माता हो लेकिन सन्तान कई पिता से उत्पन्न हुयी हों ऐसी स्थिति में सहोदर बहनों को अन्य पिता की सम्पत्ति में कोई अधिकार उत्पन्न नहीं होगा।
दृष्टान्त
(1) अ एक हिन्द्र परुष पिता, भाई तथा बहिन की पुत्री को छोड़कर मर जाता है। पिता वर्ग (2) की प्रथम प्रविष्टि में आने के कारण भाई तथा बहिन की पुत्री को अपवर्जित करके समस्त सम्पत्ति को ग्रहण कर लेगा, क्योंकि भाई तथा बहिन की पुत्रियाँ प्रविष्टि 3 तथा 4 में क्रमश: आती हैं।
(2) निर्वसीयती ने (1) पुत्री के पुत्र की पुत्री, (2) पुत्री की पुत्री के पुत्र, (3) पुत्री की पुत्री की पुत्री, (4) भाई का पत्र तथा (5) पिता के पिता को अपने पीछे छोड़ा है। दायाद 1 से लेकर 3 तक तृतीय प्रविष्टि के हैं, चौथा दायाद चौथी प्रविष्टि का है तथा पाँचवाँ दायाद पाँचवीं प्रविष्टि का है। अत: तृतीय प्रविष्टि के दायाद अधिमान्य होंगे तथा 1 से लेकर 3 तक के दावेदार बराबर अंश में सम्पत्ति प्राप्त करेंगे, अर्थात् प्रत्येक को 1/2 अंश प्राप्त होगा।
जहाँ दो भाई किसी भूमि सम्पत्ति के समान स्वामी थे। एक भाई लापता हो गया और कई वर्षों
ए० आई० आर० 2001 एस० सी० 1720।
उपर्युक्त आरेख में प, फ, ट, ठ तथा य एवं र वंशज-बन्धु हैं जो वर्तमान परिप्रेक्ष्य में सुसंगत
डिग्रियों की संगणना (Computation of Degrees)—धारा 13 में डिग्री की परिभाषा दी गई है तथा संगणना की विधि विहित की गई है। धारा 13 इस प्रकार है-
(1) गोत्रजों एवं बन्धुओं में उत्तराधिकार-क्रम के निर्धारण के प्रयोजन के लिए निर्वसीयत से दायाद की नातेदारी की गणना यथास्थिति ऊपर की या नीचे की डिग्री या दोनों के अनुसार होगी।
(2) ऊपर की डिग्री तथा नीचे की डिग्री की गणना निर्वसीयत को सम्मिलित करके की जायेगी।
(3) प्रत्येक पीढ़ी या तो ऊपर की या नीचे की डिग्री निर्मित करती है।
ऊपर की तथा नीचे की डिग्री-दायाद मृतक का पूर्वज अथवा वंशज अथवा बन्धु हो सकता है। प्रथम दशा में सम्बन्ध ऊपर से ही हो सकता है, द्वितीय दशा में सम्बन्ध नीचे की डिग्री से हो सकता है, किन्तु तीसरी दशा में सम्बन्ध ऊपर तथा नीचे दोनों ढंग से हो सकता है।
ऊपर तथा नीचे की डिग्री की संगणना मृतक को सम्मिलित करके की जायेगी; अत: निर्वसीयत को स्वयं एक (प्रथम) डिग्री मान लिया जाता है, उसका पिता दूसरी डिग्री और इस प्रकार ऊपर का क्रम चला जाता है। उसी प्रकार निर्वसीयत प्रथम डिग्री माना जाता है, उसका पुत्र द्वितीय डिग्री और इस प्रकार नीचे का क्रम चला जायेगा। बन्धु की दशा में, जैसे भाई का पुत्र आदि में, ऊपर तथा नीचे की दोनों डिग्रियों को देखा जाता है। निर्वसीयत, ऊपर की प्रथम डिग्री, उसका पिता द्वितीय डिग्री तथा नीचे से उसका भाई प्रथम डिग्री तथा उसके भाई का पुत्र द्वितीय डिग्री माना जाता है।
गोत्रजों एवं बन्धुओं के मध्य उत्तराधिकार का क्रम-धारा 12, जो अधिकार के क्रम का उल्लेख करती है, इस प्रकार है
“यथास्थिति गोत्रजों एवं बन्धुओं में उत्तराधिकार का क्रम नीचे दिये हुए अधिमान नियमों के अनुसार होगा-
नियम 1-दो दायादों में परस्पर उसे अधिमान्यता प्राप्त होगी जिसकी ऊपर की डिग्रियाँ अपेक्षाकृत कम हैं या बिल्कुल नहीं हैं।
नियम 2-जहाँ ऊपर की ओर की डिग्रियों की संख्या समान है अथवा बिल्कुल नहीं है, वहाँ उस दायाद को अधिमान्यता प्राप्त होगी जिसकी नीचे की ओर डिग्रियाँ अपेक्षाकृत कम हैं अथवा बिल्कुल नहीं हैं।
नियम 3–जहाँ नियम 1 अथवा 2 के अन्तर्गत एक दायाद दूसरे की तुलना में अधिमान्यता प्राप्त करने के हकदार नहीं हैं वहाँ वे एक अंशभागी होंगे।”
लिंग के आधार पर अधिमान्यता का कोई नियम नहीं है कोई पुरुष दायाद स्त्री दायाद की अपेक्षा लिंग के आधार पर अधिमान्य नहीं समझा जायेगा।
नियम 1-प्रथम नियम निम्नलिखित चार अवस्थाओं में अनुवर्तित किया जाता है
(1) जहाँ दोनों दायाद ऊपर की पीढ़ी के हैं वहाँ वह अधिमान्य होता है जिसके ऊपर डिग्री अपेक्षाकृत कम है।
दृष्टान्त
दो गोत्रज परस्पर स्पर्द्धा दायाद हैं–(1) पिता के पिता के पिता के पिता तथा (2) पिता के पिता की माता। इससे पूर्वोक्त ऊपर की पाँच डिग्री में है तथा दूसरा ऊपर से चार डिग्री में है; अत: दूसरी यद्यपि एक स्त्री है, पूर्वोक्त की अपेक्षा अधिमान्य होगी।
(2) जहाँ एक दायाद ऊपर की पीढ़ी का है तथा दूसरा नीचे की पीढ़ी का है, वहाँ वह अधिमान्य
होगा जिसके ऊपर कोई डिग्री नहीं है।
दृष्टान्त
परस्पर स्पर्द्धा दायाद (1) पुत्र के पुत्र के पुत्र के पुत्र तथा (2) पिता के पिता के पिता हैं। इनमें पूर्वोक्त पाँच डिग्री नीचे से है तथा दूसरा चार डिग्री ऊपर से है। पूर्वोक्त को ऊपर से किसी डिग्री के न होने के कारण अधिमान्य समझा जायेगा।
(3) जहाँ दो दायाद बन्धु पीढ़ी के हैं, किन्तु ऊपर की डिग्री की संख्या वही नहीं है, वहाँ ऊपर की कम डिग्री वाले दायाद अधिमान्य समझे जायेंगे।
दृष्टान्त
स्पर्धी दायाद (1) बहन की पुत्री की पुत्री तथा (2) माता के भाई के पुत्र की पुत्री है। यहाँ पूर्वोक्त, दूसरे की अपेक्षा ऊपर से दो डिग्री होने के कारण अधिमान्य होगी।
(4) जब एक दायाद नीचे की पीढ़ी का है तथा दूसरा बन्धु वर्ग का है, उस अवस्था में पहला दूसरे की अपेक्षा अधिमान्य होगा; क्योंकि पहली अवस्था में उस दायाद के ऊपर की डिग्री कोई नहीं
दृष्टान्त
स्पर्द्धा दायाद (1) माता के पिता की पुत्री तथा (2) पुत्री के पुत्र के पुत्र का पुत्र है। पूर्वोक्त बन्धु पीढ़ी में ऊपर की तीन डिग्री तथा नीचे की दो डिग्री होने के कारण तथा दूसरा नीचे की पाँच डिग्री के अन्तर्गत है। दूसरा ऐसी स्थिति में पूर्वोक्त की अपेक्षा अधिमान्य समझा जायेगा, क्योंकि दूसरे की ऊपर की कोई डिग्री नहीं है।
नियम 2–दूसरा नियम निम्नलिखित अवस्थाओं में अनुवर्तनीय होता है
(1) जब ऊपर की डिग्री की संख्या समान है तो यह दायाद जिसके नीचे की डिग्री अपेक्षाकृत ङ्केका है, अधिमान्य सHD जायेगा।
दृष्टान्त
स्पर्धी दायाद (1) भाई के पुत्र के पुत्र का पुत्र तथा (2) भाई के पुत्र की पुत्री है। यहाँ दोनों दायाद ऊपर की दो डिग्री के हैं, किन्तु प्रथम नीचे की चार डिग्री का है तथा दूसरा नीचे की तीन डिग्री का है; अत: दूसरा यद्यपि स्त्री है, फिर भी अधिमान्य होगा।
(2) जहाँ ऊपर की डिग्री समान है, वहाँ वह अधिमान्य होगा जिसके नीचे की डिग्री में कोई नहीं है।
दृष्टान्त
स्पर्धी दायाद (1) माता के पिता की माता तथा (2) पिता के पिता की बहन का पुत्र है। दोनों दायादों के ऊपर की डिग्री की संख्या समान है, किन्तु प्रथम की नीचे की डिग्री नहीं किन्तु दूसरे की ऐसी दो डिग्री हैं। प्रथम, इसलिये अधिमान्य होगा। __(3) जब ऊपर की डिग्री की संख्या कुछ नहीं है तो वह दायाद अधिमान्य होगा जिसकी नीचे की संख्या अपेक्षाकृत कम है।
दृष्टान्त
स्पर्धी दायाद (1) पुत्र के पुत्र की पुत्री के पुत्रं का पत्र तथा (2) पत्र की पुत्री की पुत्री की पुत्रा है। दोनों प्रकार की डिग्री में कोई नहीं है, किन्तु प्रथम 6 डिग्री नीचे का है, जब कि दूसरा पाँच डिग्री
का है; अत: दूसरा अधिमान्य होगा।
4) जब नीचे की डिग्री की संख्या कुछ नहीं है, तो वह दायाद अधिमान्य होगा जिसका नीचे डिग्री का कोई नहीं है। यह तभी सम्भव है जब कि मृतक की विधवायें परस्पर-विरोधी दावेदार है।
नियम 3-एक साथ उत्तराधिकार ग्रहण करने वाले दायाद-इस नियम के अनुसार जब कोई टायाद एक-दूसरे की तुलना में अधिमान्य नहीं है जैसा कि नियम 1, 2 में दिया गया है, तो वे क साथ मिलकर ग्रहण करते हैं। ऐसी अवस्था में दोनों दायाद एक साथ उत्तराधिकार प्राप्त करते हैं। वितरण की किसी स्पष्ट रीति के अभाव में वे सम्पत्ति व्यक्तिपरक रूप में प्राप्त करते है तथा सह-आभोगी के रूप में धारण करते हैं। यह स्थिति निम्नलिखित दशाओं में उत्पन्न हो सकती है
1) जहाँ दोनों दायाद नीचे की पीढ़ी के हैं तथा उनमें प्रत्येक नीचे की एक ही डिग्री का है।
दृष्टान्त स्पर्द्धा दायाद (1) पुत्र के पुत्र की पुत्री का पुत्र तथा (2) पुत्र की पुत्री के पुत्र का पुत्र है। इनमें किसी का ऊपर की डिग्री का कोई नहीं है तथा प्रत्येक पाँच डिग्री नीचे का है; अत: दोनों एक साथ ग्रहण करेंगे।
(2) जब दोनों दायाद ऊपर की पीढ़ी के हैं, किन्तु उनमें से प्रत्येक ऊपर की एक ही डिग्री का है तथा नीचे की डिग्री का कोई नहीं है।
दृष्टान्त
स्पर्धी दायाद (1) पिता के माता के पिता तथा (2) माता के पिता के पिता हैं। इन दोनों अवस्थाओं में ऊपर की डिग्री की संख्या समान है तथा नीचे की डिग्री का कोई नहीं है; अत: वे एक साथ ग्रहण करेंगे।
(3) जहाँ दोनों दायाद बन्धु दायादों में से हैं, किन्तु प्रत्येक ऊपर तथा नीचे की समान डिग्री
दृष्टान्त स्पर्धी दायाद (1) बहिन के पुत्र के पुत्र तथा (2) बहिन की पुत्री का पुत्र है। दोनों दायाद समान रूप से एक ही डिग्री के हैं। अत: वे एक ही अंश ग्रहण करेंगे।
उपर्युक्त नियम उस दशा में अनुवर्तित किया जाता है जबकि दोनों दायाद गोत्रज है अथवा बन्धु। किन्तु जब एक दायाद गोत्रज होता है तथा दूसरा बन्धु तो गोत्रज दायाद अधिमान्य माना जाता
जहाँ दो दायाद एक साथ ग्रहण करते हैं, वहाँ सगा नातेदार चचेरे नातेदार की अपेक्षा अधिमान्य समझा जाता है, यदि अन्य मामलों में सम्बन्ध एक ही प्रकार का हो (धारा 18)।
दायादों के अभाव में सम्पत्ति का राजगामी होना-निर्वसीयत के सभी दायादों के अभाव में सम्पत्ति सरकार में न्यागत हो जाती है। वस्तुत: उस दशा में सम्पत्ति राजगामिता द्वारा सरकार को चली जाता है। सरकार के ऊपर यह प्रमाणित करने का भार होता है कि निर्वसीयत बिना ऐसे किसी दायाद
मर गया जो इस अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार दायाद होने का अधिकारी था। राजगामी हुई। सम्पदा ऐसे समस्त प्रभारों तथा न्यासों से प्रतिबन्धित रहती है जो उसके पहले प्रभावित करते थे। पानयम की धारा 29 में इस प्रकार की सम्पत्ति का उल्लेख किया गया है जो इस प्रकार है
“यदि निर्वसीयती ऐसा कोई दायाद अपनी मृत्यु के बाद नहीं छोड़ता जो उसकी सम्पत्ति का इस अधिनियम के उपबन्धों के अनुकूल उत्तराधिकार में प्राप्त करने के लिए सक्षम है तो एसी सम्पत्ति सरकार को न्यागत होगी। ऐसी सम्पत्ति उन सभी प्रभारों और दायित्वों के अधीन
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रद्द कर दी जायेगी जिसके अधीन दायाद होता।”
अधिनियम के अन्तर्गत स्त्री का सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार : धारा 14—पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत वह सम्पत्ति, जो कोई स्त्री विवाह के पूर्व अपने सम्बन्धियों से दानरूप में प्राप्त करती थी अथवा विवाह के समय प्राप्त करती थी, पारिभाषिक रूप से स्त्री-धन कहलाता था। स्त्री-धन तथा विवाह के बाद दाय के द्वारा प्राप्त सम्पत्ति अथवा परिवार के विभाजन के फलस्वरूप प्राप्त सम्पत्ति में अन्तर था। कुछ सीमित दशाओं में दाय रूप में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति अथवा परिवार के विभाजन के परिणामस्वरूप प्राप्त होने वाली सम्पत्ति स्त्री को विधवा रूप में प्राप्त होती थी और वह भी उसके जीवन-काल तक के लिए। इस प्रकार इस अधिनियम के पूर्व हिन्दू स्त्री की सम्पत्ति को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है—(1) स्त्री-धन, (2) हिन्दू नारी-सम्पदा। स्त्री-धन के ऊपर स्त्री का पूर्ण स्वामित्व होता था और उसकी मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति उसके दायादों को चली जाती थी, किन्तु नारी-सम्पदा के विषय में स्थिति भिन्न थी। उस सम्पत्ति की वह स्वामिनी होती थी; किन्तु नारी सम्पत्ति के निर्वतन सम्पदा का अधिकार सीमित होता था और उसकी मृत्यु के बाद सम्पत्ति गत स्वामी के दायादों को न कि उसके अपने दायादों को चली जाती थी। अब वर्तमान अधिनियम के अन्तर्गत धारा 14 में हिन्दू नारी-सम्पदा को समाप्त कर दिया गया है तथा स्त्री को ऐसी सभी सम्पत्ति पर पूर्ण स्वामित्व प्रदान कर दिया गया है जो उसके द्वारा धारा 14 के उपखण्ड (2) को छोड़कर अन्य किसी भी प्रकार से प्राप्त की गयी हो। यह बात धारा 14 से स्पष्ट हो जायेगी जो इस प्रकार है
“हिन्दू नारी द्वारा अधिकृत कोई सम्पत्ति, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारम्भ होने से पूर्व या पश्चात् अर्जित की गई हो, पूर्ण स्वामी के रूप में न कि सीमित स्वामी के रूप में धारित की जायेगी।”
व्याख्या (1) इस उपधारा में “सम्पत्ति’ के अन्तर्गत वह चल और अचल सम्पत्ति आती है जो हिन्दू नारी ने दाय या विभाजन में या भरण-पोषण के बकाया के बदले में या दान द्वारा किसी व्यक्ति से, चाहे वह नातेदार हो या न हो, अपने विवाह के पूर्व प्राप्त किया हो या उसके पश्चात् या अपने कौशल या परिश्रम द्वारा चिरभोग द्वारा या अन्य किसी रीति से अर्जित की है और कोई ऐसी सम्पत्ति भी है जो इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के अव्यवहित पूर्व स्त्रीधन के रूप में स्वयं उसके द्वारा धारित थी।
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट कोई बात किसी ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होगी जो दान के द्वारा या इच्छापत्र या किसी लिखत के अधीन या व्यवहार न्यायालय की आज्ञप्ति या आदेश के अधीन या पंचाट के अधीन अर्जित सम्पत्ति हो जिसमें कि दान, इच्छापत्र या अन्य लिखत या आज्ञप्ति या आदेश या पंचाट की शर्त निर्बन्धित स्वत्व ही विहित करती है।
अब इस धारा के अनुसार दाय में प्राप्त सम्पत्ति को स्त्री इच्छापत्र द्वारा अथवा अन्य प्रकार से निर्वर्तित कर सकती है और यदि वह निर्वसीयत मर जाती है तो सम्पत्ति उसके दायादों में धारा 15 तथा 16 अथवा 17 के अनुसार न्यागत होगी।
इस धारा का प्रभाव-इस धारा का उद्देश्य एक हिन्दू स्त्री को पूर्ण स्वामित्व प्रदान करना है। दसरे शब्दों में अन्तिम पुरुष सम्पत्तिधारक की विधवा को मृत पुरुष द्वारा छोड़ी गई उस समस्त सम्पत्ति में, जो उसके कब्जे में इस अधिनियम के प्रारम्भ होने की तिथि को थी, पूर्ण स्वामित्व प्रदान कर दिया गया है, चाहे वह पुरुष हिन्दू इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के बहुत पूर्व मर चुका हो। पति के मरने पर भले ही विधवा ने सम्पत्ति को सीमित स्वामिनी के रूप में धारण किया रहा हो, अधिनियम के लाग होते ही वह उसके पूर्ण स्वामिनी के रूप में धारण कर लेगी। इस उपबन्ध के लागू होने पर जो भी सम्पत्ति कोई विधवा हिन्दू नारी के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1937 के अन्तर्गत
प्राप्त करती है, उसकी पूर्ण स्वामिनी हो जाने से परिवार की संयुक्त प्रास्थिति पर कोई प्रभाव नहीं इस प्रकार दाय में सम्पत्ति पाने मात्र से परिवार की संयुक्त स्थिति टूट नहीं जाती। वह संयुक्त कार की सदस्या बनी रहती है और संयुक्त परिवार का कर्ता उसका प्रत्येक वाद में प्रतिनिधित्व कर कता है। धारा 14 जो नारी की सीमित सम्पदा को पूर्ण सम्पदा में परिवर्तित कर देती है, संयुक्त वार की स्थिति का तथा संयुक्त परिवार के अधिकारों को नहीं प्रभावित करती।
इस उपबन्ध के बनने के पूर्व जो सम्पत्ति स्त्रियों द्वारा धारित की जाती थी. वह या तो उसकी पूर्ण सम्पत्ति हुआ करती थी, जिसको वह स्वेच्छा से निर्वर्तित कर सकती थी, या उसकी सीमित सम्पदा हुआ अती थी जिसका एक विचित्र स्वरूप था जो अन्य विधिशास्त्र में अज्ञात था। हिन्दू स्त्री को उसकी सम्पत्ति
पर्ण स्वामित्व प्रदान करके अधिनियम ने दायादों की एक संशोधित तथा परिवर्तित रूपरेखा प्रस्तुत किया। पति से दाय में प्राप्त सम्पत्ति, जो स्त्री धारण करती है, उसमें दायादों का क्रम अपने पिता से दाय में प्राप्त सम्पत्ति में दायादों के क्रम से भिन्न होता है। उपधारा (1) में यह स्पष्ट प्रावधान किया गया है कि कोई भी सम्पत्ति जो स्त्री के अधिकार में है, उसकी पूर्ण स्वामिनी स्त्री ही होगी; वह सम्पत्ति की सीमित स्वामिनी नहीं होगी। उपधारा (2) में यह प्रावधान किया गया है कि उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट कोई बात ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होगी जो दानरूप में अथवा किसी इच्छापत्र द्वारा अथवा अन्य लिखत द्वारा अथवा आज्ञप्ति अथवा आदेश की शर्तों के अन्तर्गत अर्जित की गई है। इस प्रकार की सम्पत्ति में निर्बन्धित (Restricted estate) ही विहित करती है।
इस धारा के पहले खण्ड के अनुसार जो भी सम्पत्ति एक हिन्दू स्त्री के कब्जे में आती है, वह उसकी सम्पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। उसके इस सम्पूर्ण स्वामित्व को विधि के किसी पाठ, नियम या व्याख्या द्वारा संकुचित नहीं किया जा सकता है। सुखाराम बनाम गौरीशंकर के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया कि मिताक्षरा की बनारस-शाखा का एक पुरुष हिन्दू संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अपने हक को निर्वर्तित करने के लिए प्रतिबन्धित है, किन्तु एक विधवा जो उस सम्पत्ति में अधिनियम लागू होने के बाद कोई हक प्राप्त करती है, किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध से बाधित नहीं है अर्थात् हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत ऐसी विधवा स्त्री को सम्पत्ति प्राप्त करने के लिये तथा अपने अधिकारों का प्रवर्तन कराने के लिये न्यायालय में वाद संस्थित करने का अधिकार है तथा उसे अपनी सम्पत्ति प्राप्त करने के लिये अन्य दायाद्रों की सहमति आवश्यक नहीं है।’ उच्चतम न्यायालय ने एक दूसरे मामले में यह कहा कि कोई भी सम्पत्ति, जो एक हिन्दू स्त्री इस अधिनियम के लागू होने के दिन धारित करती है, चाहे वह सम्पत्ति उसके कब्जे में अधिनियम के आने के पूर्व आयी हो या अधिनियम के लागू होने के बाद कब्जे में आयी हो, वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी।
उच्चतम न्यायालय ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण मामला जगन्नाथ पिल्ले बनाम कुज्जीपादम् पिल्ले निर्णीत किया। इसमें न्यायालय ने उड़ीसा तथा आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के मत का खण्डन किया तथा मद्रास, बाम्बे, गुजरात एवं पंजाब उच्च न्यायालय के मत का पुष्टिकरण किया। जहाँ किसी स्त्री को कोई सम्पत्ति पति की मृत्यु के बाद प्राप्त होती है वह अधिनियम के लागू होने के पूर्व उसकी संपदा मानी जाती थी। ऐसी सम्पदा को इस मामले में अधिनियम के लागू होने के पूर्व रजिस्टर्ड बयनामा द्वारा अन्यसंक्रामित कर दिया गया। अधिनियम के लागू होने के बाद उस अन्यसंक्रामिती (transferee) ने उस सम्पत्ति को पुन: उसी विधवा के नाम हस्तान्तरित कर दिया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि वह हस्तान्तरित सम्पत्ति उस विधवा की पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी न कि सीमित सम्पदा। सीमित सम्पदा अधिनियम के लागू होने के बाद समाप्त कर दी गई। यह कथन कि उसने (विधवा ने) सीमित सम्पदा का ही अन्यसंक्रामण
किया था इसलिए वह सम्पदा उसके पास पुन: वापस (हस्तान्तरण द्वारा) आने पर सीमित सम्पदा ही बनी रहेगी, गलत है। ऐसी सम्पत्ति (सम्पदा) उसके कब्जे में अधिनियम के लागू होने के बाद आई है, इसलिये वह उसकी पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी और वह उसकी पूर्ण स्वामिनी।
जैसा कि उच्चतम न्यायालय ने श्रीमती बेनी बाई बनाम रघुवीर प्रसाद के मामले में उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 (1) व (II) के अन्तर्गत पुन: अपने पूर्व निर्णयों का समर्थन करते हुए एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। न्यायालय ने उपरोक्त वाद में यह अभिमत प्रकट किया कि विधवा द्वारा हस्तान्तरित की गयी सम्पत्ति उचित एवं वैध थी क्योंकि जो सम्पत्ति उसे भरण-पोषण में दी गयी थी, अधिनियम के लागू होने के पश्चात् वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी होगी और ऐसी सम्पत्ति का हस्तान्तरण वह अपनी पुत्री के पक्ष में कर सकती है।
लेकिन जहाँ किसी स्त्री ने जो ऐसी सम्पत्ति की पूर्व स्वामिनी है यदि वह ऐसी सम्पत्ति को वसीयत के माध्यम से सीमित अधिकार के रूप में किसी को हस्तान्तरित करती है तो वह ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामी नहीं होगा केवल वसीयत के द्वारा प्रदत्त अधिकारों का वह ऐसी सम्पत्ति में प्रयोग कर सकता है।
जैसा कि जे० बी० शिन्दे बनाम सी० पी० शिन्दे के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि जहाँ पैतृक सम्पत्ति एवं उसका उत्तराधिकारी (प्रथम पत्नी का पुत्र) विद्यमान हो, वहाँ यदि मृतक की सम्पत्ति का पूरा भाग भरण-पोषण के एवज में उसकी द्वितीय पत्नी के पास हो तो ऐसी दशा में ऐसी सम्पत्ति का पूर्ण स्वामित्व उसे प्राप्त नहीं होगा, अर्थात् ऐसी सम्पत्ति में मृतक की पहली पत्नी एवं बच्चों को भी हिस्सा प्राप्त होगा। वह अपने-अपने हिस्से के पूर्ण स्वामी होंगे।
पी० रामेश्वर राव बनाम आई संजीव राव, के मामले में आन्ध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने अधिनियम की धारा 14(1) के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि सम्पत्ति कब्जा के अन्तर्गत कोई खास प्रकृति का कब्जा ही नहीं होगा बल्कि ऐसा कब्जा भी मान्य होगा जो उस स्त्री को भरण-पोषण के सम्बन्ध में दिया जाता है। उपरोक्त मामले में विधवा पुत्र वधू ने एक सम्पत्ति सीमित अधिकार के रूप में अपने श्वसुर से भरण-पोषण के सम्बन्ध में प्राप्त किया था, जिस समय सम्पत्ति उसके कब्जे में थी, उसी दौरान, यह अधिनियम पारित कर दिया गया, अधिनियम पारित होने के पश्चात् वह विधवा ऐसी सम्पत्ति की स्वतः पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी जो सम्पत्ति उसके कब्जे में भरण-पोषण हेतु प्रदत्त की गई थी।
जया लक्ष्मी अम्मल बनाम काली पेरूमल, के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने पुन: यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ पति ने समझौते के आधार पर अपनी पहली पत्नी को अपनी सम्पत्ति के हिस्से में कुछ सम्पत्ति उसके भरण पोषण के लिये उसे सीमित अधिकार के रूप में दिया हो, वहाँ यदि उस सम्पत्ति का उपयोग एवं उपभोग करने के दौरान हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के प्रावधान यदि लागू हो गये हैं वहाँ ऐसी स्त्री सीमित अधिकार के अन्तर्गत प्रयोग की जा रही सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। और ऐसी प्राप्त सम्पत्ति की वह किसी भी रूप में उपयोग एवं उपभोग करने की हकदार होगी।
चामू जिनप्पा शेरी बनाम सावित्री यशवतंए व वागुले के वाद में पक्षकार को अपने भरण पोषण के लिए मिताक्षरा विधि के मुम्बई शाखा द्वारा सम्पत्ति दी गई थी जो पंजीकृत विलेख के माध्यम से इस शर्त के साथ दी गई थी कि वह ऐसी सम्पत्ति का प्रयोग अपने जीवनकाल में करती रहेगी तत्पश्चात् वह ऐसी सम्पत्ति अपनी सन्तान को हस्तान्तरित कर देगी। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहाँ किसी स्त्री को सीमित अधिकार के साथ कोई सम्पित्त दी गई हो वहाँ ऐसी स्त्री अधिनियम लागू होने
2. सत्यादेवी बनाम बुआदास, ए० आई० आर० 2016 पंजाब एवं हरियाणा प० 1.
3. ए० आई० आर० 2003 एस० सी०2121
4. ए० आई० आर० 2004 ए० पी० 117.
5. ए० आई० आर० 2014. मद्रास 185..
6 ए० आई० आर० 2005 कर्नाटक 30। देखें राय पुरी बनाम उषा शर्मा, ए० आई० आर० 2013 उत्तरांचल 96। गुरुदयाल सिंह मार्शलिग विन्द्रा बनाम वसंत सिंह मार्शलिंग विन्द्रा, ए० आई० आर० 2015, बम्बई 15.
के बाद सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी होगी। ऐसी सम्पत्ति का वह किसी भी रूप में उपयोग कर सकती है |
धारा भूतलक्षी है-धारा 14 इस अर्थ में भूतलक्षी है कि कोई भी स्त्री इस अधिनियम के प्रारम्भ के पर्व किसी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करके सीमित स्वामिनी के रूप में धारण करती थी, अब वह सम्पत्ति को पूर्ण स्वामिनी के रूप में धारण करेगी। सम्पत्ति में चाहे उसका सीमित स्वत्व ही रहा हो, किन्त अधिनियम के बाद अब स्त्री का उसमें पूर्ण स्वत्व हो गया। किन्तु यह धारा ऐसी सम्पत्तियों के विषय लाग नहीं होती जिनको उसने अधिनियम लागू होने के पूर्व दाय में प्राप्त किया था और अधिनियम लागू के पर्व ही अन्यसंक्रामित कर दिया था, क्योंकि वह ऐसी सम्पत्ति की स्वामिनी नहीं मानी जा सकती है जिसको उसने अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व पूर्ण रूप से अन्यसंक्रामित कर दिया है। यह धारा केवल उसी सम्पत्ति के लिये लागू होगी जो अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय उसके कब्जे में थी। यह पद कि ‘कोई भी सम्पत्ति जो हिन्दू स्त्री के कब्जे में थी’ धारा 14 के अन्तर्गत इस अर्थ में प्रयुक्त किया गया है कि कोई भी सम्पत्ति जो अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय स्त्री के कब्जे में थी। कोई भी सम्पत्ति जो अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व प्राप्त की गई थी, वह उसकी निर्बाध सम्पत्ति होगी। यह अभिव्यक्तिकरण कि चाहे वह अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व अथवा बाद में प्राप्त की गई है, यह प्रदर्शित करता है कि धारा 14 भूतलक्षी प्रभाव की है। वह सम्पत्ति जो स्त्री के आधिपत्य में थी, आधिपत्य वास्तविक रहा है अथवा प्रलक्षित (constructive), उसकी निर्बाध सम्पत्ति समझी जायेगी, सम्पत्ति चाहे अधिनियम के लागू होने के पूर्व अथवा बाद में उसके आधिपत्य में आयी रही हो। यदि कोई विधवा स्त्री ऐसी सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण कर देती है, चाहे अन्यसंक्रामण अनुचित एवं बिना किसी आवश्यकता के ही हो, उत्तरभोगी उसके सम्बन्ध में कोई आपत्ति नहीं उठा सकता।’ जहाँ किसी स्त्री को कोई सम्पत्ति किसी वसीयत के अन्तर्गत दी जाती है और उसमें उसको जीवन हित (life interest) ही प्रदान किया जाता है जिससे वह अपना भरण-पोषण कर सके वहाँ अधिनियम के लागू होने के बाद वह जीवनहित से सम्बद्ध सम्पदा उसके पूर्ण स्वामित्व में बदल जायेगी जैसा कि धारा 14 (1) में दिया गया है।’
बल्लभ उर्फ गिन्नू नारायण बनाम श्रीमती गिन्नी देवी के बाद में राजस्थान उच्च न्यायालय ने यह निर्णीत किया कि विधवा स्वामित्व का सीमित अधिकार प्राप्त करती है जो धारा 14 (1) के द्वारा पूर्ण स्वामित्व में बदल जाता है। अत: विधवा की मृत्यु के पश्चात् उसकी एक मात्र उत्तराधिकारी उसकी बेटी उसके पिता की विवादित सम्पत्तियों की पूर्ण रूपेण स्वामिनी होगी।
बद्री प्रसाद बनाम कंसो देवी के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निरूपित किया कि उपधारा (6) में “कब्जे में आई हई सम्पत्ति’ का अर्थ बहुत ही व्यापक रूप में लिया जाना चाहिये। ऐसा इसलिये है कि वाद में दी गई व्याख्या की भाषा ऐसी समस्त सम्पत्ति को सम्मिलित करती है जो व्याख्या में दिये गये तरीकों से अर्जित की जाती है। उपर्युक्त वाद में हिन्दू विधवा अपने पति की सम्पत्ति को हिन्दू नारी के सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1937 के अन्तर्गत प्राप्त करती है और बाद में उस परिवार में विभाजन होता है जिसमें पंचाट द्वारा प्रत्येक का अंश निर्धारित होता है और उसमें एक अंश हिन्दू विधवा के कब्जे में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने की विधि पर बना रहता है वहाँ न्यायालय न यह अभिनिर्धारित किया कि वह सम्पत्ति विधवा की सम्पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी।
सम्पत्ति जो स्त्री के कब्जे में थी—यह धारा उसी स्थिति में अनुवर्तनीय है जबकि सम्पत्ति अधिनियम क लागू होने के पूर्व प्राप्त की गई हो तथा अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय स्त्री के कब्जे में हो। यदि वह इस प्रकार की सम्पत्ति के कब्जे से अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व ही अलग हो गई है तो यह
१. रगनायकी अम्मल बनाम श्री निवास राघवं, ए० आई० आर० 1990 मद्रास 3791
5. ए० आई० आर० 2004 राजस्थान 2861
6. ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 19631
धारा प्रत्यक्षतः लागू नहीं होती। उसका कब्जा वास्तविक हो सकता है अथवा कानूनी उसके किरायेदार का कब्जा उसका कब्जा माना जायेगा। इसी प्रकार अनुज्ञप्तिधारी, पट्टाधारी तथा बन्धकी का कब्जा, जो स्त्री से प्राप्त किया गया है, इस धारा में प्रयुक्त “कब्जा” के अर्थ में आता है। इस धारा में प्रयुक्त “कब्जा” शब्द का प्रयोग विस्तृत अर्थ में किया गया है तथा इस प्रसंग में कब्जा का अर्थ है अपने हाथों में अथवा अधिकार में आई हुई सम्पत्ति। हिन्दू स्त्री जीवित होनी चाहिये तथा अधिनियम के लागू होने के समय सम्पत्ति उसके कब्जे में होनी चाहिये। यदि वह अधिनियम के लाग होने के पूर्व ही मर चुकी है अथवा उसके कब्जे में सम्पत्ति नहीं रह गई है तो यह धारा लाग नहीं की जा सकती। यदि स्त्री ने सम्पत्ति को अधिनियम के लागू होने के पूर्व ही बेच दिया है और इस प्रकार बेच देने से उसके कब्जे में सम्पत्ति नहीं रह गई है तो उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में इस धारा से सहायता नहीं ली जा सकती।’
‘कब्जा में’ शब्द का अर्थ व्यापक रूप में किया गया है। इसके अन्तर्गत न केवल वास्तविक कब्जा का भाव आता है वरन् जहाँ कहीं भी उसके कब्जे का अधिकार होता है यदि सम्पत्ति उसके प्रलक्षित कब्जे में है तब भी उसका कब्जा समझा जायेगा। जहाँ स्त्री को दाय में उस सम्पत्ति को प्राप्त करने का अधिकार था जो अधिकार से दूसरे के द्वारा अपहृत कर लिया गया है और उसको वापस लेने के अधिकार के समाप्त होने के पूर्व ही उसकी मृत्यु हो जाती है, वहाँ न्यायालय द्वारा यह निरूपित किया गया कि वह सम्पत्ति को पूर्ण स्वामिनी थी और उसके दायादों को यह अधिकार है कि वे उसको अवधि के समाप्त होने के पूर्व वापस ले लें। ‘कब्जा’ शब्द उस अर्थ में प्रयोग नहीं किया जाता जहाँ कब्जा का अधिकार नहीं रहता है।’
यह धारा इस प्रकार उसी स्थिति में लागू होती है जब कि सम्पत्ति अधिनियम के पूर्व अर्जित की गई है तथा अधिनियम के लागू होने के समय वह सम्पत्ति उसके कब्जे में है। जहाँ कोई विधवा भरण-पोषण की एवज में कोई सम्पत्ति अपने जीवन-काल तक के लिए ही प्राप्त करती है और कुछ उद्देश्यों के लिये सम्पत्ति में सीमित स्वामित्व प्राप्त कर लेती है, वहाँ वह उस सम्पत्ति में धारा 14 (1) के अनुसार पूर्ण स्वामित्व प्राप्त कर लेती है, भले ही भरण-पोषण को देने वाले लेख में उसको सीमित अधिकार ही प्रदान किये गये रहे हों।’ यदि वह सम्पत्ति के कब्जे में अधिनियम के लागू होने के पूर्व नहीं रह गई है तो धारा 14 नहीं लागू की जायेगी।
भगवान दत्तात्रेय बनाम विश्वनाथ पण्डारीनाथ जोशी के मामले में किसी विधवा ने अधिनियम के लागू होने के पूर्व पति से सम्पत्ति दाय में प्राप्त की और उसको बाद में बेच दिया। पति के उत्तरभोगियों ने विक्रय की वैधता को चुनौती दिया और न्यायालय ने इस विक्रय को अविधिमान्य घोषित किया। न्यायालय की इस घोषणा के बाद विधवा ने उस सम्पत्ति को पुनः खरीद लिया और पुन: बेच दिया। उत्तरभोगियों ने उस विक्रय को पुन: चुनौती दिया। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि न्यायालय की पूर्व-घोषणा के बावजूद भी सम्पत्ति वर्तमान अधिनियम के लागू होने के बाद उस विधवा के कब्जे में आयी थी इसलिये वह सम्पूर्ण स्वामिनी हो गई। अधिनियम के लागू होने के बाद उत्तरभोगी को इसके अन्यसंक्रामण को चुनौती देने का हक नहीं रहा।
इसी आशय का वाद मद्रास उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया जिसमें यह अभिनिर्धारित किया गया कि यदि कोई विधवा संयुक्त हिन्दू परिवार में भरण-पोषण के एवज में किसी घर पर बिना किसी नियन्त्रण के कब्जा पाती है और वह अधिनियम के लागू होने की तिथि तक कब्जा में बनी रहती है
तो उसको सम्पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। इस विषय पर वी० तुलसम्मा बनाम शेषरेड्डी का एक दसरा मामला उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्णीत किया गया। इसमें अपीलार्थी ने अपने मृत पति के भाई के विरुद्ध संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से भरण-पोषण पाने का दावा किया। दावा अपीलार्थी के पक्ष में निर्णीत हो गया और आज्ञप्ति के दौरान पक्षकारों में एक समझौता हो गया, जिसके परिणामस्वरूप एक सीमित हित की सम्पत्ति उसको भरण-पोषण के निमित्त दे दी गई। न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि चूंकि सम्पत्ति भरण-पोषण के एवज में दी गई थी; अतएव धारा 14 (1) का उपबन्ध लागू होगा न कि उपधारा (2)। अपीलार्थी ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। जहाँ विधवा पुत्रवधू को अपने श्वसुर की सम्पत्ति में भरण-पोषण पाने का अधिकार है और उसके लिए भरण-पोषण का दावा किये जाने पर न्यायालय ने समझौता-डिक्री पास कर दिया वहाँ न्यायालय द्वारा निर्धारित की गयी भरण-पोषण की रकम उसकी पूर्ण सम्पत्ति मानी जायेगी।
श्रीमती जमुना बाई बनाम भोला राम व अन्य के मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ कोई पत्नी अपने भरण-पोषण के सम्बन्ध में सीमित अधिकार के रूप में कोई सम्पत्ति 1956 के अधिनियम के पूर्व पति के सम्पत्ति में प्राप्त करती है, वहाँ 1956 के अधिनियम के पारित होने के पश्चात् ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी और वह ऐसी सम्पत्ति को किसी भी रूप में उपयोग एवं उपभोग कर सकती है।
धारा 14 एक बहुत ही विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त की गई है जिससे कि सभी प्रकार की अर्जित सम्पत्तियाँ; जो अधिनियम के लागू होने के दिन उसके कब्जे में थीं, उसके पूर्ण स्वामित्व में आ जायेंगी। धारा 14 की उपधारा (2) एक प्रकार से उपधारा (1) के अपवादस्वरूप है और कुछ प्रकार की अर्जित सम्पत्तियों को पूर्ण स्वामित्व से अपवर्जित करती है। विभाजन तथा भरण-पोषण के परिणामस्वरूप प्राप्त की गई सम्पत्तियों के सम्बन्ध में धारा 14 की उपधारा (1) लागू होगी और इस प्रकार की सम्पत्ति पर उसको सम्पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जाता है।
साधू सिंह बनाम गुरुद्वारा साहिब नारिक के वाद में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम लागू होने के पश्चात् एक हिन्दू पुरुष निर्वसीयती सम्पत्ति को छोड़कर मर जाता है जिसको कोई भी सन्तान नहीं थी। उसके परिवार में केवल उसकी पत्नी ही एक मात्र उत्तराधिकारी थी जो सम्पत्ति उसके कब्जे में थी। पति के अन्य दायदों ने न्यायालय में इस बात की चुनौती दी कि वह विधवा पत्नी अनुसूची के अन्तर्गत उत्तराधिकारी न होने के कारण वह ऐसी सम्पत्ति को प्राप्त करने की अधिकारी नहीं है। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि मृतक की पत्नी धारा 14(1) के अन्तर्गत ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी जिस सम्पत्ति में उसका कब्जा बना रहा अर्थात उपरोक्त मामले में मृतक की सम्पत्ति पर विधवा का निरन्तर कब्जा बना हुआ था। अत: सम्पूर्ण सम्पत्ति उसको न्यागत् होगी।
इसी प्रकार उच्चतम न्यायालय ने संथानम के० गुरुक्कल बनाम सुब्रह्मण्यम गुरुक्कल’ के
6. ए० आई० आर० 2006 सु० कोर्ट 32821 1. ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 20241 देखिए लक्ष्मी देवी बनाम शंकर झा, ए० आइ० आर० 1974 पटना 871
बाद में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ किसी मृत सहदायिकी की विधवा आंशिक संयुक्त सम्पत्ति के कब्जे में भरण-पोषण के एवज में थी और उसको उस सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण का कोई अधिकार नहीं प्राप्त था वहाँ धारा 14 (1) के अन्तर्गत वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी, भले ही अन्यसंक्रामण के अधिकार को न देकर उसके स्वामित्व को सीमित कर दिया गया रहा हो।
बी० मुथ्थु स्वामी बनाम अनंगामल’ के बाद में पुन: उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ पति की मृत्यु के बाद पत्नी अपने भरण-पोषण के लिए कुछ सम्पत्ति सीमित अधिकार के रूप में प्राप्त करती है वहाँ धारा 14 (1) के अन्तर्गत उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जायगी. और ऐसी सम्पत्ति का संक्रामण किसी भी रूप में कर सकती है।
बाई बाजिया बनाम ठाकुर भाई चेला भाई के बाद में उच्चतम न्यायालय ने पुन: यह संप्रेक्षित किया कि जहाँ किसी स्त्री को कोई सम्पत्ति भरण-पोषण के एवज में पाने का अधिकार है और भरण-पोषण के अधिकार के परिणामस्वरूप सम्पत्ति बकाया में भी पाने का अधिकार होता है, वहाँ यह अधिकार उसके पूर्ण सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार में भले ही न परिणत होता हो किन्तु इस प्रकार की प्राप्तव्य सम्पत्ति पर उसे पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। भरण-पोषण के सम्बन्ध में कोई लेखपत्र लिखा जाय या न लिखा जाय उसके लिखे जाने के पूर्व से ही उसका अधिकार अस्तित्व में बना रहता है; अतएव वह उस सम्पत्ति की धारा 14 (1) के अधीन पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। इस प्रकार यदि कोई सम्पत्ति उसके कब्जे में विधिक तरीके से आई है और वह उस सम्पत्ति से उत्पन्न लाभों को प्राप्त करता है तो वह उसकी पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी। भरण-पोषण के एवज में प्राप्त की गई सम्पत्ति के विषय में उसे कोई स्वामित्व स्थापित करने की आवश्यकता नहीं है और वह धारा 14 (1) के अन्तर्गत सम्पूर्ण स्वत्व प्राप्त कर लेगी।
श्रीमती पालचूरी हनुम्यम्मा बनाम टी० कोटिलिंगम के वाद में पति ने अपनी सम्पत्ति को वसीयत के माध्यम से अपनी पत्नी को भरण पोषण हेतु जीवन पर्यन्त के लिये दिया तथा उसी वसीयत के माध्यम से पत्नी की मृत्यु हो जाने की दशा में वह सम्पत्ति उसकी पुत्रियों में बराबर भाग में बांट देने की बात कही। इसी दौरान हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 पारित हो गया। प्रस्तुत मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जो सम्पत्ति पति द्वारा पत्नी को उसके भरण पोषण के लिये प्रदत्त की गयी थी, ऐसी सम्पत्ति की वह धारा 14 (1) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के अन्तर्गत पूर्ण स्वामित्व प्राप्त करेगी तथा ऐसी सम्पत्ति में पत्नी की मृत्यु के पश्चात पुत्रियों को कोई अधिकार नहीं प्राप्त होगा।
रघुवीर सिंह बनाम गुलाब सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि एक विधवा महिला को अपने पति की सम्पत्ति में भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त था। विधवा के पति ने ऐसी सम्पूर्ण सम्पत्ति की वसीयत अपने पौत्र के पक्ष में कर दिया था, जिसके अन्तर्गत उस सम्पत्ति को भी देने की बात कही गयी थी जो विधवा के कब्जे में थी। ऐसे मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ विधवा किसी सम्पत्ति को अपने भरण-पोषण के सम्बन्ध में प्राप्त करती है और उस सम्पत्ति पर उसका पूर्ण नियन्त्रण, निरन्तर बना रहता है तो ऐसी स्थिति में वह धारा 14 (1) के अन्तर्गत उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी मानी जायेगी और ऐसी स्थिति में पौत्र उस सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिये किसी भी प्रकार कोई वाद न्यायालय में नहीं ला सकता, अर्थात् विधवा के पति के वसीयत का कोई प्रभाव उस सम्पत्ति पर नहीं पड़ेगा जो विधवा के कब्जे में थी।
चेराटी सुगथन बनाम चेराटी भागीरथी एवं अन्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ हिन्दू विधवा स्त्री ने अपने पूर्व पति से कोई सम्पत्ति प्राप्त किया हो और ऐसी सम्पत्ति पर उनका पूर्ण अधिकार स्थापित हो चुका हो, तथा कुछ समय पश्चात् वह दूसरा विवाह सम्पन्न कर लेती है तो ऐसी दशा में पूर्व पति की सम्पत्ति जो उसमें निहित हो गयी हो, उसके पुनर्विवाह से ऐसी सम्पत्ति अनिहित नहीं होगी क्योंकि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पारित होने के पश्चात् वह ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी होगी।
विभाजन के परिणामस्वरूप समझौते से जो भी सम्पत्ति विधवा के नाम आती है, भले ही अपने जीवन-काल में वह उसकी सीमित स्वामिनी रही हो, किन्तु अधिनियम के लागू होने के बाद वह उसकी पूर्ण स्वामिनी हो जाती है। यह बात पर्याप्त है कि वह सम्पत्ति पर स्वामित्व का अधिकार रखती थी, भले ही उसका स्वामित्व-अधिकार सीमित रहा हो। शम्भूचरन शुक्ला बनाम श्री ठाकुर लाडली राधा चन्द्र मदन गोपाल जी महराज के मामले में उच्चतम न्यायालय ने संप्रेक्षित किया कि शिवायती एक अचल हस्तान्तरणीय सम्पत्ति की भाँति है जो इस पद के अन्तिम धारक के बाद उसकी विधवा में न्यागत हो जाता है। जहाँ कोई मूर्ति स्थापित की जाती है और उसके नाम चल-अचल सम्पत्ति समर्पित की जाती है तो उसका प्रबन्धक शिवायत उस सम्पत्ति की देख-रेख करता है। इस मामले में शिवायती पद को प्रबन्धक ने अपने इच्छापत्र द्वारा पत्नी को दे दिया था किन्तु पत्नी को सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण करने का कोई अधिकार नहीं दिया, वहाँ अधिनियम के लागू होने के बाद वह सीमित अधिकार (शिवायती अधिकार) पूर्ण स्वामित्व के अधिकार में परिणित हो जायेगा।
उच्चतम न्यायालय ने इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण वाद दीनदयाल बनाम राजाराम निर्णीत किया है जिसमें एक विधवा अपने पति की मृत्यु के बाद उसकी सम्पत्ति दाय में प्राप्त करती है और उसको अपनी पुत्री को दान में दे देती है। पुत्री की मृत्यु के बाद वह उस सम्पत्ति पर पुनः अपना कब्जा स्थापित कर लेती है। हिन्द्र उत्तराधिकार अधिनियम के लागू होने के समय वह उस सम्पत्ति के कब्जे में बनी रहती है। ऐसी सम्पत्ति पर उसका कब्जा अतिचारी-जैसा माना जायेगा और वह अतिचारी-जैसा उस पर मृत्युपर्यन्त कब्जा बनाये रखेगी। उसको धारा 14 (1) के अन्तर्गत सम्पूर्ण स्वामित्व नहीं प्राप्त होगा और न ऐसी सम्पत्ति के कब्जे के सम्बन्ध में उपधारा (1) का प्रावधान लागू किया जायेगा। अधिनियम में कब्जा को दो अर्थों में प्रयुक्त किया गया है
प्रथम यह कि, उसको सम्पत्ति पर आधिपत्य रखने का अधिकार प्राप्त होना चाहिए और दूसरा यह कि उसे सम्पत्ति के वस्तुतः प्रलक्षित कब्जे में होना चाहिए।
हरीदत्त बनाम शिवराम के वाद में एक हिन्दू स्त्री ने अपने श्वसुर से संयुक्त सम्पत्ति के एक भाग को भरण-पोषण के रूप में दान में अधिनियम के पूर्व प्राप्त किया। उसके पति ने पिता के इस दान को चुनौती दी और उसे अविधिमान्य घोषित करने के सम्बन्ध में वाद दायर कर दिया। बाद में उनमें आपसी समझौता हो गया और इस समझौता-डिक्री के आधार पर उपर्युक्त स्त्री को उस दान की सम्पत्ति में जीवनहित प्रदान कर दिया गया। उस स्त्री ने अधिनियम के पास हो जाने के पश्चात् 1963 में उस सम्पत्ति के विषय में एक इच्छापत्र लिख दिया। इच्छापत्र की वैधता पर विचार करते हुए न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इच्छापत्र विधिमान्य होगा, क्योंकि वह स्त्री उस सम्पत्ति की, जिसे प्रथमत: दान में प्राप्त की थी, अधिनियम के लागू हो जाने के बाद पूर्ण स्वामिनी हो गयी थी; अतएव इच्छापत्र वैध हो जायेगा। न्यायालय की यह अभिधारणा थी कि पूर्व दान को शून्य घोषित
नहीं किया जा सकता था, बीच में आपसी समझौता हो गया था जिससे दान में दी गयी सम्पत्ति पर उसका अधिकार बना रहा। अतएव धारा 14 (1) का उपबन्ध मामले में आकर्षित हो गया।
गोपाल सिंह बनाम विलेराम के मामले में उपर्युक्त अवधारणा को न्यायालय ने पुन: दोहराया। इस मामले में अधिनियम के लागू होने के पूर्व एक विधवा ने सीमित सम्पदा के सम्बन्ध में एक दानपत्र लिखा, जिसकी वैधता को चुनौती दे दी गयी। बाद में एक समझौता आज्ञप्ति पक्षकारों के बीच पास हो गयी और दानपत्र निष्प्रभावी घोषित कर दिया गया और इस प्रकार वह सम्पत्ति पुन: उस विधवा के पास लौट आयी और वह उसकी सीमित अधिकारिणी बनी रही। ऐसी सम्पत्ति के कब्जे में वह अधिनियम लागू होने के दिन तक बनी रही और बाद में उस सम्पत्ति को वसीयतनामे द्वारा दूसरे व्यक्ति को हस्तान्तरित कर दिया गया। इस वसीयतनामा की वैधता का प्रश्न उठा जिस पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि अधिनियम लागू होने के बाद वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो गयी थी और इस प्रकार जो वसीयतनामा उसने किया वह पूर्णरूप से वैध हो गया।
इस अधिनियम के माध्यम से शास्त्रीय हिन्दू विधि में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन यह लाया गया कि हिन्दू विधवायें उत्तराधिकार एवं दाय के मामले में उत्तराधिकारियों के साथ समान स्थिति में लायी गयी हैं। धारा 146) यह आख्या करती है कि एक हिन्दू स्त्री द्वारा धारित कोई सम्पत्ति चाहे यह अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् अर्जित की गयी हो, उसकी पूर्ण स्वामिनी के रूप में उसके द्वारा धारित की जायेगी, अर्थात् पति के मृत्यु के पश्चात् उसका सम्पूर्ण हिस्सा विधवा में निहित होगा यदि अन्य उत्तराधिकारी मौजूद न हो। पुन: उच्चतम न्यायालय ने सन्तोष व अन्य बनाम सरस्वती बाई व अन्य के वाद में यह अभिनिर्धारित करते हुये यह स्पष्ट किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14(1) के अन्तर्गत न केवल वह भूमि शामिल है जिसकी महिला कब्जाधारी है, बल्कि वह भूमि भी शामिल है जिस पर महिला को कब्जा धारण करने का अधिकार है और ऐसी विधवा महिला का उत्तराधिकार धारा 6, 8 एवं 12 द्वारा शासित होगा।
अधिनियम के पूर्व अन्यसंक्रामण-कोई भी हिन्दू स्त्री, जो सीमित सम्पदा अधिनियम के लागू होने के पूर्व रखती थी, और उसे विधिक आवश्यकता के लिए अन्यसंक्रामित कर सकती थी, यदि उसने इस प्रकार की आवश्यकता के बिना सम्पत्ति को हस्तान्तरित किया है तो वह अमान्य घोषित किया जा सकता है।
नरेश कुमारी बनाम सरवई लाल’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 के अन्तर्गत एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इस वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ कोई विधवा जो सीमित सम्पदा की उत्तराधिकारिणी है और उसने उस सम्पत्ति का बिना विधिक आवश्यकता के अन्तरण कर दिया है तो उसके द्वारा अन्तरण की गयी सम्पत्ति को अमान्य माना जायेगा। न्यायालय ने उपरोक्त वाद में यह सम्प्रेक्षित किया कि विधवा ने ऐसा अन्तरण 1956 के पूर्व किया था। अत: उसके द्वारा किया गया ऐसा अन्तरण अमान्य माना जायेगा।
लेकिन जहाँ किसी सम्पत्ति का अन्तरण इस अधिनियम के पश्चात् किया गया हो वहाँ ऐसा अन्तरण वैध होगा।
नल्लन बनाम वेल्लियन कुडुम्बन के मामले में ‘अ’ नामक एक विधवा स्त्री, जो कि अपने पति के मृत्योपरान्त सम्पत्ति की सीमित स्वामिनी थी, अ ने उस सम्पत्ति को हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम
5. रामधर सिंह बनाम देवसरन सिंह, ए० आई० आर० 2013 पटना 155.
6. ए० आई० आर० 2001 मद्रास 71
1956 के पारित होने के पूर्व बिना विधिक आवश्यकता के “ब” नामक व्यक्ति को बेंच दिया। विधवा द्वारा बेची गयी सम्पत्ति को उसके उत्तराधिकारियों ने न्यायालय के समक्ष चुनौती दिया। इस वाद में उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कोई भी विधवा स्त्री जो सीमित सम्पदा की स्वामिनी है वह उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 14 का लाभ 1956 के एक्ट पारित होने के पूर्व नहीं ले सकती क्योंकि 1956 के पूर्व ऐसी स्त्री जो पति की मत्य के पश्चात् कोई सम्पत्ति प्राप्त करती है वह उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी नहीं होगी। यदि ऐसी कोई सम्पत्ति अधिनियम के पूर्व विक्रय की जाती है तो ऐसा विक्रय विधिमान्य नहीं माना जायेगा, एवं ऐसी सम्पत्ति उस विधवा स्त्री के मृत्योपरान्त उसके विधिक उत्तराधिकारियों को न्यागत होगी।
जब स्त्री सम्पत्ति को इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व बेच देती है तो उससे यह समझा ___ जायेगा कि वह उस सम्पत्ति के कब्जे से अलग हो चुकी है और यह नहीं कहा जा सकता है कि
अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय सम्पत्ति उसके कब्जे में थी और यदि इस प्रकार है तो धारा 14
(1) भी अनुवर्तित नहीं की जा सकती है। धारा 14 का उद्देश्य अन्यसंक्रामिती को लाभ देने का नहीं __ है। जहाँ अधिनियम के पूर्व एक विधवा, सम्पत्ति की सीमित अधिकारिणी थी, उस सीमित हक को
दूसरी स्त्री को हस्तान्तरित कर देती है, वहाँ यह नहीं कहा जा सकता है कि उस स्त्री के कब्जे में
वह सीमित हक धारा 14 के अनुसार पूर्ण हक में बदल जायेगा। धारा 14 केवल उसी सम्पत्ति के _ विषय में पूर्ण स्वत्व प्रदान करती है जो किसी भी विहित तरीके से उसके कब्जे में आती है। इसका
यह उद्देश्य नहीं है कि सम्पत्ति को बेच देने अथवा दान में देने के बाद उसको पूर्ण स्वामित्व प्राप्त हो जायेगा। जहाँ कोई हिन्दू स्त्री स्थायी रखैल पत्नी की हैसियत से मासिक भरण-पोषण प्राप्त करती है तथा मकान के एक भाग में उसे आजीवन हित (Life estate) प्रदान कर दिया जाता है और इस आशय का एक पारिवारिक समझौता उसके निवास के अधिकार को मान्यता देते हुए कर लिया जाता है वहाँ उसका आजीवन हित, जो मकान के भाग से सम्बद्ध है, सम्पूर्ण हित में धारा 14 (1) के अन्तर्गत परिवर्तित हो जायेगा।
उच्चतम न्यायालय ने कलावती बाई बनाम सोर्याबाई का महत्वपूर्ण वाद निर्णीत किया है जिसमें यह कहा गया कि धारा 14 (1) के अन्तर्गत किसी सम्पत्ति के सम्पूर्ण या आत्यंतिक सम्पत्ति होने के लिए यह आवश्यक है कि हिन्दू स्त्री उस सम्पत्ति की सीमित अधिकारिणी इस वर्तमान अधिनियम के लागू होने के दिन के पूर्व तक रही हो। यदि ऐसा नहीं है और वह उस सम्पत्ति को अनधिकृत रूप से धारण कर रही है तो धारा 14 (1) का लाभ नहीं मिलेगा। प्रस्तुत मामले में एक हिन्दू विधवा ने जो सम्पत्ति अधिनियम लागू होने के पूर्व अपने पति से उसके मर जाने के बाद दाय में प्राप्त किया था अपनी एक पुत्री को 1954 में दान में दे दिया। इस दान की वैधता को उसकी दूसरी पुत्री ने चुनौती दिया। दानग्रहीता पुत्री ने अधिनियम लागू हो जाने पर उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में धारा 14 (1) के अधीन सम्पूर्ण स्वामित्व का दावा किया किन्तु न्यायालय ने इस बात को मानने से अस्वीकार कर दिया और दिल्ली उच्च न्यायालय के निर्णय को उलट दिया। न्यायालय का कथन है कि हिन्दू विधवा द्वारा किया गया दान बिना किसी विधिक आवश्यकता के था और इस प्रकार दान इसलिए शून्य था। अत: दानग्रहीता जो अधिनियम के पूर्व से उस सम्पत्ति को धारण कर रही थी निराधार था और उस पर उसका कब्जा बिना किसी विधिक अधिकार के था। उसे उस सम्पत्ति पर न तो सीमित स्वामित्व और न ही किसी प्रकार का स्वामित्व प्राप्त हुआ था अतः ऐसी सम्पत्ति के कब्जे में बने रहने का कोई लाभ धारा 14 (1) के अन्तर्गत नहीं प्राप्त होगा, अर्थात् उस सम्पत्ति की वह पूर्ण स्वामिनी नहीं होगी।
“हिन्दू स्त्री के कब्जे में थी” इस पद के अर्थ एवं प्रभाव के विषय में बहुत अधिक न्यायिक
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मत-वैभिन्य रहा है। उस दशा में कोई कठिनाई नहीं उत्पन्न होती जहाँ सम्पति अधिनियम के लाग होने के बाद प्राप्त की गयी है, क्योंकि धारा में स्पष्ट है कि इस प्रकार अधिनियम के बाद प्राप्त की गयी सम्पत्ति पर स्त्री का पूर्ण स्वामित्व होगा, जब तक कि सम्पत्ति उपधारा (2) के अन्तर्गत एक निबंधित स्वत्व के रूप में धारण की गयी हो। विवादित प्रश्न उस सम्पत्ति के विषय में है जो अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व प्राप्त की गयी तथा वह उसके कब्जे में नहीं थी, जैसा कि उसके द्वारा वह सम्पत्ति अथवा सम्पत्ति में प्राप्त हक का अन्यसंक्रामण किया जा चुका था तथा वह अधिनियम के लागु होने की तिथि पर उसमें कोई हक नहीं रखती थी।
उच्चतम न्यायालय द्वारा कोहरू बनाम स्वामी वीरप्पा’ वाले वाद में मत अभिव्यक्त कर देने के बाद यह प्रश्न अब विवादरहित हो चुका है। इस वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि धारा 14 का प्रारम्भिक पद “हिन्द स्त्री के कब्जे में सम्पत्ति” का अर्थ यह है कि इस धारा के अर्थ में आने के लिए सम्पत्ति अधिनियम के प्रारम्भ होने की तिथि पर सम्बन्धित स्त्री के कब्जे में होनी चाहिए। थी। पद का स्पष्ट अर्थ यह है कि सम्पत्ति किसी अन्य प्रावधान द्वारा मान्य हो। किन्तु जब तक सी की सीमित सम्पदा निर्बाध रूप में न परिवर्तित हुई हो, दावा नहीं की जाती तथा जो सम्पत्ति अपने विस्तृत अर्थ में, अधिनियम के प्रारम्भ होने के समय उसके कब्जे में नहीं थी, तब तक यह धारा लागु नहीं की जा सकती।
अब यह विवाद अन्तिम रूप से राधारानी भार्गव बनाम हनुमान प्रसाद वाले निर्णय में उच्चतम न्यायालय द्वारा तय कर दिया गया है तथा इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि कोई भी उत्तरभोगी इस बात की घोषणा के लिये वाद दायर कर सकता है कि स्त्री (विधवा) द्वारा इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व अन्यसंक्रामण बिना किसी विधिक आवश्यकता के किया गया था। इसलिये उसके ऊपर वह अन्यसंक्रामण बाध्यकारी प्रभाव नहीं रखता।
जहाँ अ 1939 में एक विधवा तथा दो भाई ब और स को छोड़कर मरता है। विधवा अ की सम्पत्ति दाय में प्राप्त करती है तथा 1940 में कब्जे के साथ उसका बन्धक कर देती है और विधवा 1957 में मर जाती है। उसकी मृत्यु के बाद ब तथा स सम्पत्ति की पुनप्राप्ति के लिये इस आधार पर वाद संस्थापित करते है कि बन्धक अनधिकृत अन्यसंक्रामण था।
इस समस्या के उत्तर में न्यायालय ने यह निरूपित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के प्रारम्भ होने के पूर्व कोई भी विधवा मृत स्वामी से दाय में प्राप्त सम्पदा को अन्यसंक्रामित करने का अधिकार नहीं रखती, क्योकि उस पर वह सीमित स्वामित्व रखती थी। वह सीमित सम्पदा को निम्नलिखित दशाओं में अन्यसंक्रामित कर सकती थी
(1) विधिक आवश्यकता के हेतु।
(2) सम्पदा के प्रलाभ के हेतु।
(3) मृतक की पारलौकिक तुष्टि तथा धार्मिक उद्देश्य के लिये।
विधिक आवश्यकता के हेतु अन्यसंक्रामण के विषय पर प्रमुख वाद हनुमान प्रसाद पाण्डेय बनाम मु० बबुई है, जो जुडीशियल कमेटी द्वारा 1856 में निर्णीत किया गया था। कमला देवी बनाम बच्चू लाल गुप्ता वाले बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि इस निर्णय से यह सिद्धान्त प्रतिपादित होता है कि हिन्दू विधवा, जिसके कब्जे में मृत पति की सम्पदा है, धार्मिक प्रयोजनों के लिये अन्यसंक्रामण कर सकती थी। इस प्रकार उत्तरभोगी अधिनियम के लागू होने के पूर्व विधवा द्वारा सम्पत्ति का ऐसा अन्यसंक्रामण किये जाने पर, जो विधिक आवश्यकता आदि के विपरीत था, निरस्त
1. ए० आई० आर० 1959 एस०सी० 3771
2. ए० आई० आर० 1966 एस० सी०2161
3. ए० आई० आर० 1856 पी० सी०।
4. ए० आई० आर० 1957 ए० सी० 4341
करने का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद भी रखता है। अत: उपर्युक्त मामले में ब तथा स अन्यसंक्रामण को रद्द करने के लिए वाद दायर कर सकते हैं तथा सम्पत्ति को पुन: वापस ले सकते हैं।
यदि बन्धक उपर्युक्त तीन उद्देश्यों के लिये किया गया है तो ब तथा स बन्धक में दी गई सम्पत्ति को पुनः वापस नहीं ले सकते हैं और यदि विधवा ने सम्पत्ति का अनधिकृत अन्यसंक्रामण कर दिया था तो ब तथा स सम्पत्ति को पनः वापस ले सकते हैं, यद्यपि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1966 की धारा 14 ने विधवा सम्पदा को समाप्त कर दिया और विधवा को उस समस्त सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी बना दिया जो उसके कब्जे में थी। फिर भी यह धारा उन मामलों में लागू नहीं होती जहाँ विधवा सम्पत्ति से अलग हो गई है तथा उसका कब्जा हस्तान्तरित कर दिया गया है।
उच्च न्यायालय ने इरम्मा बनाम वीररूपना के वाद में यह स्पष्टत: निर्णीत किया कि इस धारा में जिस सम्पत्ति के कब्जे में होने की कल्पना की गई है, वह ऐसी सम्पत्ति है जिस पर स्त्री ने अधिनियम के पूर्णत: लागू होने के पूर्व अथवा बाद में किसी प्रकार का स्वामित्व प्राप्त कर लिया है। सम्पत्ति पर किसी प्रकार से, जैसा कि धारा 14 (1) में उल्लिखित है, स्वामित्व प्राप्त कर लेना आवश्यक है। किन्तु यदि सम्पत्ति में उसको स्वामित्व के अधिकार नहीं हैं और फिर उसने उस पर कब्जा कर लिया है तो उसके सम्बन्ध में उपर्युक्त पद अनुवर्तनीय नहीं होगा। जहाँ किसी स्त्री ने सम्पत्ति पर बिना किसी अधिकार के कब्जा कर लिया है और उस सम्पत्ति को अधिनियम के लागू होने के बाद भी वह धारण कर रही है, वहाँ यह धारा लागू नहीं होगी। 2
मंगल सिंह बनाम श्रीमती रत्नो के वाद में उच्चतम न्यायालय ने पुन: यह निरूपित किया कि धारा 14 (1) में प्रयुक्त पद “कब्जे में” का तात्पर्य केवल वास्तविक कब्जे का नहीं है। यह पद कानूनी कब्जे को भी अन्तर्निहित करता है। जहाँ स्त्री दाय में भूमि प्राप्त करने की अधिकारिणी है, किन्तु उस पर उसका कब्जा नहीं हुआ है, उस दशा में भी उस पर स्त्री का कब्जा (कानूनी रूप में) माना जायेगा। कब्जा उपर्युक्त अर्थ में तभी सार्थक समझा जायेगा जब कि सम्पत्ति पर उसका स्वामित्व या अधिकार हो। उपर्युक्त वाद के तथ्य , इस प्रकार थे-सन् 1917 में एक हिन्दू विधवा ने एक ऐसी भूमि पर आधिपत्य ग्रहण किया जो उसके मृत पति की थी। बाद में पति के साम्पाश्विक द्वारा वह उस भूमि से अनधिकृत रूप से वंचित कर दी गई और उस पर उन लोगों ने अधिकार स्थापित कर लिया। सन् 1954 में विधवा ने उस भूमि पर अधिकार प्राप्त करने के हेतु एक वाद साम्पाश्विकों के विरुद्ध संस्थापित कर दिया। वाद के लंबन-काल में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू हो गया और बाद में सन् 1958 में विधवा की मृत्यु हो गयी। उसकी मृत्यु के बाद उसके विधिक प्रतिनिधि सम्पत्ति में हकदार करार किये गये।
न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि भूमि धारा 14 (1) के अर्थ में विधवा के कब्जे में थी जब उसकी मृत्यु हुई और इसलिये उसके विधिक प्रतिनिधि के विषय में यह धारणा स्थापित की जायेगी कि उसने विधवा के अधिकारों को उत्तराधिकार में प्राप्त कर लिया।
इस प्रकार दीनदयाल बनाम राजाराम के निर्णय में, जैसा कि ऊपर वर्णित है, उच्चतम न्यायालय ने यह निर्णय दिया कि जहाँ विधवा किसी सम्पत्ति पर बिना किसी अधिकार के कब्जा कर लेती है, वहाँ उसकी स्थिति अतिचार-जैसी हो जायेगी और अधिनियम के लागू होने के दिन उसका उस पर कब्जा होने की दशा में भी उस पर उसका धारा 14 (1) के अर्थ के अन्तर्गत अधिकार नहीं उत्पन्न होगा।
उत्तरभोगिता-अधिकार का निवारण अधिनियम की योजना के अनुसार उत्तरभोगिता का
1. ए० आई० आर० 1966 एस० सी० 15701
2. ए० आई० आर० 1967 एस० सी० 17861
3. ए० आई० आर० 1970 एस० सी० 10191
अधिकार, जो इतने अधिक समय तक मान्य था, निराकृत कर दिया गया है जब कि अधिनियम द्वारा विधवा सम्पदा निराकृत कर दी गई है। उससे यह परिणाम निकलता है कि एक उत्तरभोगी का अधिकार जो संभावित उत्तराधिकार है, अब प्रवर्तित नहीं किया जा सकता। अत: अब विधवा द्वारा अधिनियम के बाद किसी प्रकार का दान इस आधार पर नहीं रद्द किया जा सकता कि वह उसकी सीमित सम्पत्ति है। यह धारा स्पष्ट रूप से भूतलक्षी है तथा हिन्दू विधवा द्वारा दाय में प्राप्त सम्पत्ति में उत्तरभोगी का कोई हक निहित नहीं होता। इस अधिनियम के प्रावधानों को अपील की अवस्था में भी अनुवर्तित किया जाना चाहिये।
अधिनियम की धारा 14 तथा 15 का सम्मिलित प्रभाव यह है कि हिन्दू विधि में, अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व अथवा बाद में प्राप्त की गई स्त्री सम्पत्ति के निर्बाध सम्पत्ति होने के कारण कोई भी उत्तरभोगी नहीं रह गया है। अधिनियम के लागू होने के बाद उत्तरभोगिता का अधिकार समाप्त हो गया। अपने मृत पति की सम्पत्ति में सीमित हक रखती हुई विधवा जो हिन्दू नारी का सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1937 की धारा 3 (2) के अन्तर्गत इस प्रकार सीमित हक प्राप्त किये थी, अब अधिनियम के पारित होने के बाद उसकी पूर्ण स्वामिनी बन गई तथा वह हक उसका सीमित हक न होकर अब पूर्ण हक बन गया। म अधिनियम संविधान के अनुच्छेद 14 तथा 31 (2) का उल्लंघन नहीं करता-अनुच्छेद 14 मिताक्षरा और दायभाग दोनों के लिए लागू होता है। जन्म-स्थान के आधार पर यह धारा कोई प्रभेद नहीं करती। किसी जनहित के उद्देश्य से इस अधिनियम द्वारा उत्तरभोगियों के अधिकार अपहृत नहीं कर लिये गये; अत: अनुच्छेद (2) का कोई प्रयोग नहीं है।
निर्बद्ध सम्पदा (Restricted Estate)—यह नियम कि सम्पत्ति जिस किसी रीति से प्राप्त की जाय, वह स्त्री की निर्बाध सम्पत्ति हो जाती है जैसा कि उपधारा (1) में प्रदान किया गया है, उपधारा (2) से प्रतिबन्धित होता है। इस उपधारा के अनुसार दान, इच्छापत्र या अन्य किसी लिखत द्वारा अथवा व्यवहार-न्यायालय की आज्ञप्ति अथवा आदेश द्वारा प्राप्त की गई सम्पत्ति उसकी निर्बाध सम्पत्ति नहीं होती। इस प्रकार की सम्पत्ति में उसे सीमित अधिकार प्राप्त होते हैं किन्तु लिखत में सीमित अधिकार प्रदान किये जाने की बात स्पष्ट रूप से विहित होनी चाहिए। यदि इस प्रकार की लिखत में यह धारणा अभिव्यक्त नहीं की गई है तो उसके अन्तर्गत सम्पत्ति धारण करने पर ऐसी धारणा के अभाव में वह उसकी पूर्ण स्वामिनी हो जायेगी। जहाँ कोई नारी सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार पहली बार किसी लिखत अथवा डिक्री के परिणामस्वरूप प्राप्त करती है, जिसमें उसके अन्यसंक्रामण सम्बन्धी अधिकार पर प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, तो उस सम्पत्ति के विषय में धारा 14 की उपधारा (2) लागू होगी न कि उपधारा (1)। उस सम्पत्ति की वह सीमित स्वामिनी ही होगी न कि पूर्ण स्वामिनी। किन्तु जहाँ किसी नारी को सम्पत्ति में कोई पूर्ण अधिकार प्राप्त था जैसे कि विधवा को संयुक्त सम्पत्ति में भरण-पोषण पाने का और उसकी एवज में उसे संयुक्त सम्पत्ति में कुछ सीमित अधिकार दे दिये गये हैं। वे अधिकार धारा 14 (1) के अन्तर्गत सम्पूर्ण अधिकार हो जायेंगे और वह उसकी पूर्ण स्वामिनी मान ली जावेगी।
1. भवानी प्रसाद बनाम श्रीमती सरत सुन्दरी चौधरानी, 1957 कल० 527। उच्चतम न्यायालय द्वारा कोटरुस्वामी वाले वाद में पुष्टिकृत
2. धीरज कुँवर बनाम लखन सिंह, 1957 मध्य प्रदेश; भवानी प्रसाद बनाम (श्रीमती) सरत सुन्दरी, __1957 कल० 527; श्रीमती लक्ष्मी देवी बनाम सुरेन्द्र कुमार, 1957 उड़ीसा 1; दयाल ज्वाम बनाम बूरा बीरू, 1959 पंजाब 3261
कर्नाटक उच्च न्यायालय के अनुसार इस प्रकार की सम्पत्ति जो भरण-पोषण के एवज में दी जाती है उसके कब्जे में होनी चाहिए तभी वह धारा 14 (1) के अधीन उसकी पूर्ण स्वामिनी हो सकेगी। यदि कब्जे में नहीं है तो धारा 14 (1) लागू नहीं होगी।
जमुना बाई बाल चन्द्र बहौर बनाम मोरेश्वर मुकन्द बहौर के मामले में बम्बई उच्च न्यायलय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई हिन्द्र अपनी सम्पत्ति निर्वसीयत छोड़ कर मर जाता है तो उसकी पत्नी को ऐसी सम्पत्ति में केवल भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार होगा यदि ऐसी सम्पत्ति हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पूर्व छोड़ी गयी हो और वह उस सम्पत्ति के कब्जे में न रही हो। प्रस्तुत वाद में एक व्यक्ति अपनी विधवा को 1956 के अधिनियम के पूर्व छोड़कर मर जाता है जो सम्पत्ति उसकी विधवा पत्नी के कब्जे में नहीं थी क्योंकि वह सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति थी और वह सम्पत्ति से केवल भरण-पोषण प्राप्त करती थी। उसके भरण-पोषण के दौरान ही हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 पारित हुआ जिसके पश्चात् उसकी पुत्री ने न्यायालय के समक्ष इस आशय का एक वाद संस्थित किया कि उनके पिता के द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में उसे हिस्सा दिया जाय। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह विचार व्यक्त किया कि जिस समय उसके पिता की मृत्यु हुयी उस समय वह सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति थी जो उसकी माता (विधवा) के कब्जे में नहीं थी जिससे वह मात्र भरण-पोषण प्राप्त करती थी, अत: सम्पत्ति कब्जे में न होने के कारण से वह ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी नहीं होगी और उस सम्पत्ति में उसकी पुत्री को कोई लाभ नहीं प्राप्त होगा क्योंकि उसकी माता (विधवा) की मृत्यु 1937 के अधिनियम, पारित होने के पूर्व हो चुकी थी जिसके परिणामस्वरूप वह सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति हो गयी थी।
इस उपधारा में प्रयुक्त पद “कोई अन्य लिखत’ दान, इच्छापत्र के अतिरिक्त अन्य किसी प्रकार की लिखतों को सम्मिलित करता है। इस प्रकार के लिखत ‘विभाजन लिखत’, ‘भरण-पोषण लिखत’, ‘पारिवारिक व्यवस्था सम्बन्धी लिखत’ हो सकते हैं। जहाँ पुत्रवधू को कोई सम्पत्ति एक इच्छापत्र द्वारा जीवन-काल तक के लिये ही दी जाती है, वह ऐसी सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा किसी दूसरे को वैध रूप से नहीं दे सकती जिससे अपने जीवन के बाद भी वह उसकी सम्पत्ति के प्रयोग के लिये योग्य बना सके। ऐसी सम्पत्ति में उसका हित उसके जीवन-पर्यन्त ही होता है। इसी प्रकार यदि किसी इच्छापत्र के तहत पुत्री को उसके जीवन-काल तक के लिये कोई सम्पत्ति दी जाती है और इच्छापत्र में यह उल्लिखित रहता है कि पुत्री की मृत्यु के बाद सम्पत्ति पुनः इच्छापत्र लिखने वाले को अथवा उनके पुरुष उत्तराधिकारियों को वापस लौट जायेगी, ऐसी स्थिति में पिता की मृत्यु के बाद पुत्री के पास सम्पत्ति रहने के कारण वह उसकी सम्पूर्ण सम्पत्ति नहीं हो जायेगी। इच्छापत्र के अधीन सम्पत्ति को प्राप्त करने पर इच्छापत्र की शर्ते प्रत्येक दशा में प्रभावी बनी रहेंगी। किन्तु जहाँ कोई सम्पत्ति अधिनियम के लागू होने के बाद किसी विधवा को उसके भरण-पोषण के हक के एवज में इच्छापत्र द्वारा दी जाती है वहाँ उस सम्पत्ति की सम्पूर्ण स्वामिनी हो जाती है और यदि उसने उस सम्पत्ति को अन्यसंक्रामित कर दिया है तो अन्यसंक्रामण विधिमान्य समझा जायेगा।
इसी प्रकार कोठी सत्यनारायण बनाम गल्ला सीथाय्या के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ भाई की विधवा को कोई सम्पत्ति जीवनपर्यन्त के लिये दी जाती है और बाद के लिये यह व्यवस्था की जाती है कि सम्पत्ति उसकी मृत्यु के बाद सम्पत्ति को देने वाले
के अपने दायादों को वापस चली जायेगी, वहाँ ऐसी सम्पत्ति विधवा की सम्पूर्ण सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी ऐसे मामलों में धारा 14 (1) के प्रावधान आकर्षित नहीं होते। इसमें सम्पत्ति धारा 14 (2) के अधीन उसको सीमित सम्पत्ति ही बनी रहेगी। जहाँ भाइयों के बीच विभाजन होने के उपरान्त किसी एक भाई के मकान में उनकी माँ को रहने का अधिकार जीवन पर्यन्त के लिये दे दिया जाता है जबकि यह अधिकार उनके भरण-पोषण के अधिकार से एकदम सम्बन्धित नहीं है वहाँ उस मकान के सम्बन्ध में धारा 14 (1) लागू नहीं होगी।
इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि किसी सम्पत्ति में धारा 14 (1) के अर्थ में सी के सम्पूर्ण स्वामित्व को निश्चित करने के लिये लिखत अथवा न्यायालय की आज्ञप्ति की शतों एवं खण्डों का ही परिज्ञान आवश्यक नहीं वरन् पूर्ववर्ती परिस्थितियों का भी अवलोकन करना चाहिए जिससे आज्ञप्ति प्राप्त हुई अथवा लिखत की रचना की गई हो। उदाहरणार्थ यदि किसी विधवा ने इस अधिनियम के लागू होने के पूर्व पति की सम्पत्ति दाय में प्राप्त की और उसके विषय में उसको वाद दायर करना पड़ा अथवा उत्तरभोगी के द्वारा उसके विरुद्ध वाद लाया जाता है और मुकदमे के दौरान पक्षकारों के बीच समझौता हो जाने के परिणामस्वरूप समझौता आज्ञप्ति पारित कर दी जाती है, जिसके परिणामस्वरूप विधवा को केवल जीवन-लाभ उत्पन्न होता है और उसकी मृत्यु के बाद सम्पत्ति उत्तरभोगियों को चली जाती है। विधवा सम्पत्ति को अधिनियम के लागू होने के बाद भी धारण करती है तो उस दशा में यह निरूपित किया जायेगा कि वह सम्पत्ति उसकी निर्बाध सम्पत्ति हो जाती है और वह उसकी पूर्ण स्वामिनी हो जाती है। इस प्रकार की परिस्थिति में वह उपर्युक्त समझौता-आज्ञप्ति के बावजूद भी पूर्ण स्वामित्व ग्रहण कर लेती है और उसमें धारा 14 (2) का उपबन्ध अनुवर्तित नहीं किया जायेगा क्योंकि उपधारा (2) वहीं लागू होगी जहाँ स्त्री सम्पत्ति किसी लिखत अथवा आज्ञप्ति के अन्तर्गत सीमित स्वामित्व के साथ प्राप्त करती है। किन्तु जहाँ समझौता से प्राप्त हुई आज्ञप्ति के अन्तर्गत सम्पत्ति प्राप्त की गयी है, वहाँ धारा 14 (2) अनुवर्तनीय नहीं होगी और उस स्थिति में सम्पत्ति स्त्री की निर्बाध सम्पत्ति समझी जायेगी। बाम्बे उच्च न्यायालय ने कमलेश्वरी बनाम गोदाबाई के निर्णय में यह निरूपित किया कि धारा 14 (2) का उपबन्ध सम्पत्ति में नये अधिकारों की प्राप्ति के सम्बन्ध में लागू होता है। यह उस बँटवारे के प्रलेख के सम्बन्ध में भी लागू नहीं होगा जहाँ विधवा को सम्पत्ति में बाधित स्वत्व प्रदान किया गया है। अत: उपधारा 14 (2) के प्रावधान उस बँटवारे में लागू नहीं होंगे जहाँ उस सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण के अधिकार से वह वंचित कर दी गई है। इस निर्णय का औचित्य सन्देहास्पद है, क्योंकि सभी बँटवारे के प्रलेख ऐसे नहीं हो सकते जहाँ धारा 14 (2) का प्रावधान लागू होगा और यह मत कि इस प्रकार बँटवारे के प्रलेख “अन्य किसी प्रलेख” पद के अन्तर्गत नहीं आयेंगे, गलत प्रतीत होता है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार धारा 14 की उपधारा (2) के अन्तर्गत सम्पत्ति पर प्रतिबन्ध किसी लेखबद्ध लिखत के द्वारा ही लगाया जा सकता है न कि मौखिक संविदा द्वारा। यदि इस प्रकार की सीमितता (Limitation) किसी लिखत के द्वारा नहीं है तो उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में हिन्दू स्त्री को पूर्ण स्वामित्व प्रदान कर दिया जायेगा।
1. चित्रमल ब० कन्नगी, ए० आई० आर० 1989 मद्रास 1851
2. चीनक्का बनाम सुबम्मा, (1898) 1- आन्ध्र डब्ल्यू. आर० 65; उदयशंकर बनाम ताराबाई, आई० एल० आर० 1978 बा० 1282; पूर्ण चन्द्र बारीक बनाम निमई चरन बारिक, 1968 उड़ीसा 196; श्रीमती सुहागवती बनाम श्रीमती सोधन, 1968 पंजाब 24। देखिए मु० चम्पादेवी बनाम माधो सरन सिंह, ए० आई० आर० 1981 पटना 103।
हुसैन उदुमन बनाम वेन्कट चक मुदालियर के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि यदि किसी न्यायालय द्वारा डिक्री पास किये जाने के पूर्व किसी विधवा का किसी सम्पत्ति में कोई हक नहीं था और उसके हक का एकमात्र आधार न्यायालय की डिक्री है जो उसके ऊपर एक सीमित सम्पदा का हक प्रदान करती है तो उस स्थिति में धारा 14 (2) के उपबन्ध लागू होंगे। इस प्रकार सीमित सम्पदा अधिनियम की धारा 14 (1) के अधीन सम्पूर्ण सम्पदा नहीं हो जायेगी। इसी आशय का वाद उच्चतम न्यायालय ने निर्णीत किया है। श्रीमती नरैनी देवी बनाम श्रीमती रामा देवीके मामले में पति की मृत्यु 1925 ई० में हो गयी थी। पुत्रों की उपस्थिति में पति द्वारा छोड़ी सम्पत्ति में उसे कोई हिस्सा न मिला और उसे विवादित घर में पूर्व से भी कोई हिस्सा नहीं प्राप्त था। 1946 के पंचाट के परिणामस्वरूप उसे सम्पत्ति में एक बाधित हिस्सा मिला। इस प्रकार के बाधित हिस्से के विषय में धारा 14 (1) लागू नहीं की जा सकती। इस प्रकार की सम्पत्ति धारा 14 (2) में आयेगी। उसकी मृत्यु के बाद उसका हक समाप्त हो जाता है। जहाँ किसी हिन्दू स्त्री ने किसी भू-सम्पत्ति को ऐसे दान के परिणामस्वरूप प्राप्त किया जो एक सीमित स्वामी ने अधिनियम के लागू होने के पूर्व दिया था; वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी स्थिति में अधिनियम के लागू होने के बाद वह स्त्री उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी नहीं हो सकती। जहाँ किसी व्यक्ति को किसी सम्पत्ति में सीमित स्वामित्व प्राप्त होता है वहाँ वह उसमें पूर्ण स्वामित्व नहीं हस्तान्तरित कर सकता और इस प्रकार सीमित स्वामित्व की अन्यसंक्रामिती (Transferee) स्त्री किसी प्रकार से धारा 14 (1) के लाभ को नहीं प्राप्त करेगी। वह सम्पत्ति की सीमित स्वामिनी ही मानी जायेगी। यदि उसके हक का स्रोत न्यायालय की डिक्री से अलग है और डिक्री के पूर्व उसका सम्पत्ति में सीमित हक था, उस दशा में डिक्री द्वारा उसकी सीमित सम्पदा न्यायालय द्वारा मान्य होने पर भी वह बाद में अधिनियम की धारा 14 (1) के अधीन पूर्ण सम्पत्ति हो जायेगी। जहाँ कोई सम्पत्ति इच्छापत्र के परिणामस्वरूप किसी स्त्री को प्राप्त हुई है जिसमें उसके जीवन-काल तक के लिए ही अधिकार प्रदान किया गया और यह कहा गया हो कि वह उससे अपना निर्वाह कर सकती है तथा अपनी पुत्री का भरण-पोषण कर सकती है, किन्तु उसका अन्यसंक्रामण नहीं कर सकती, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार के मामले में वह सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी नहीं हो सकती। यहाँ धारा 14 (2) का प्रावधान लागू होगा और वह उसकी सीमित सम्पदा होगी। इसी प्रकार जहाँ किसी विधवा को भरण-पोषण के एवज में दी गयी सम्पत्ति में सीमित अधिकार कुछ सीमित उद्देश्यों के लिए एक सीमित समय के लिए प्रदान किया गया वहाँ न्यायालय ने यह ठीक ही अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार से दी गई सम्पत्ति सीमित सम्पदा के अन्तर्गत आयेगी और वहाँ धारा 14 (2) का प्रावधान लागू होगा। जहाँ किसी पारिवारिक समझौते में, जो एक लिखत के रूप में परिणत कर दिया है, किसी स्त्री को सम्पत्ति में सीमित अधिकार प्रदान कर दिया गया है और उसके समस्त पूर्व के अधिकार समाप्त कर दिये गये हों वहाँ उसका अधिकार धारा 14 की उपधारा (2) के ही अन्तर्गत मान्य समझा जायेगा न कि धारा 14 (1) के अधीन पूर्ण माना जायेगा
1. ए० आई० आर० 1975 मद्रास 8; जागीर सिंह बनाम बाबूसिंह, ए०आई०आर० 1982 पंजाब 2021
2. ए० आई० आर० 1976 एस० सी०21981
3. श्रीमती परमेश्वरी बनाम मु० सन्तोषी ए० आई० आर० 1977 पंजाब 1411
5. सुब्बा नायडू बनाम राजाम्मल थापाम्मल, ए० आई० आर० 1971 मद्रास 64। देखिए सुलभ गौडुनी बनाम अभिमन्यु गौड़, ए० आई० आर० 1983 उड़ीसा 71 [जहाँ कोई विधवा 1937 के पूर्व से कोई भरण-पोषण की रकम अपने मृत पति के भतीजे से प्राप्त करती रही किन्तु भरण-पोषण के एवज में कोई सम्पत्ति नहीं धारण कर रही थी वहाँ उड़ीसा उच्च न्यायालय ने उसकी सीमित सम्पदा धारा 14 (2) के अन्तर्गत अभिनिर्धारित किया।]
जहाँ एक हिन्दू विधवा ने अपनी सम्पत्ति को अपने भाई को बेच दिया था और बाद में भाई ने उस खरीदी गई सम्पत्ति मे अनुज्ञापित कब्जा विधवा को दे दिया था कि वह अपने जीवन काल तक उसका उपभोग करे तथा अपना भरण-पोषण करे वहाँ वह विधवा उस सम्पत्ति में किसी प्रकार का स्वामित्व नहीं अर्जित कर सकती अर्थात् धारा 14 (1) के अन्तर्गत उसे किसी प्रकार का स्वामित्व नहीं प्राप्त होगा। ऐसी सम्पत्ति के सम्बन्ध में धारा 14 (2) के उपबन्ध लागू होंगे।’
वी० के० वेंकेट सब्बाराव बनाम टी० पी० सीता रमरला रंगनायका’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ विधवा को उसके भरण-पोषण के सम्बन्ध में धारा 14 (2) हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के अन्तर्गत कोई सम्पत्ति दी जाती है तो उक्त सम्पत्ति में विधवा को सीमित अधिकार प्राप्त होगा। वह ऐसी सम्पत्ति का किसी भी प्रकार का कोई अन्तरण नहीं कर सकती, तथा न ही वह धारा 14 (1) के अन्तर्गत ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी मानी जायेगी।
गंगाम्मा बनाम जी० नागराम्मा के बाद में पुन: उपरोक्त मत की अभिपुष्टि करते हये यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार सम्पत्ति के अन्तर्गत किसी स्त्री को भरण-पोषण के लिये कोई सम्पत्ति दी गई थी और वह सम्पत्ति उसके कब्जे में थी। भरण-पोषण के दौरान ही हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 लागू हो गया था जिससे वह स्त्री जो सीमित सम्पदा के रूप में उस सम्पत्ति का उपभोग कर रही थी, वह ऐसी सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जावेगी।
पी० के० सुभाष बनाम कमला बाई व अन्य के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पति ने अपनी स्वअर्जित सम्पत्ति को वसीयत के माध्यम से पत्नी को उपभोग हेतु उसके जीवन काल तक के लिये दिया है तथा ऐसी सम्पत्ति का स्वामित्व यदि उसने अपने पुत्रों को दिया है तो ऐसी दशा में हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू होने के पश्चात् भी वह ऐसी सम्पत्ति का पूर्ण स्वामित्व नहीं प्राप्त करेगी बल्कि वह ऐसी सम्पत्ति को सीमित अधिकार के रूप में प्राप्त करेगी।
लेकिन जहाँ पर पत्नी को उसके जीवन निर्वाह के लिये कोई सम्पत्ति उसके पति अथवा अन्य सगे सम्बन्धी के द्वारा दिया जाता है वहाँ ऐसी सम्पत्ति में उसका पूर्ण स्वामित्व नहीं होगा बल्कि वह ऐसी सम्पत्ति में सीमित अधिकार ही प्राप्त करेंगी।
प्रारम्भिक आज्ञप्ति का प्रभाव-किसी विभाजन के वाद में प्रारम्भिक आज्ञप्ति के अन्तर्गत स्त्री द्वारा कोई सम्पत्ति नहीं प्राप्त की जा सकती। केवल अन्तिम आज्ञप्ति के अन्तर्गत ही कोई व्यक्ति सम्पत्ति में स्वत्व का अधिकार प्राप्त कर सकता है। प्रारम्भिक आज्ञप्ति हिन्दू विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति में केवल अंशभागी होने की घोषणा करती है; अत: उपधारा (2) इस मामले में अनुवर्तनीय नहीं है।
स्त्री-सम्पत्ति के उत्तराधिकार के नियम-धारा 15 के अन्तर्गत निर्वसीयत स्त्री के सम्पत्ति के उत्तराधिकार के सामान्य नियम प्रदान किये गये हैं तथा धारा 16 में उत्तराधिकार-क्रम का उल्लेख किया गया है। धारा 15 इस प्रकार है-
‘धारा 15 (1) एक ऐसी हिन्दू स्त्री की सम्पत्ति जो निर्वसीयत मरती है, धारा 16 में विहित उत्तराधिकार-क्रम के अनुसार न्यागत होती है
(क) सर्वप्रथम (किसी पूर्वमृत पुत्र या पुत्री की संतान के सहित) और पुत्रियों और पति को,
(2) उपधारा (1) में अन्तर्विष्ट किसी बात के होते हुए भी
(क) अपनी माता या पिता से हिन्दू स्त्री द्वारा दाय में प्राप्त कोई सम्पत्ति मृतक के (किसी पूर्व मृत पुत्र या पुत्री की संतान के सहित) किसी पुत्र या पुत्री के अभाव में उपधारा (1) में निर्दिष्ट अन्य दायादों को उसमें उल्लिखित क्रम से न्यागत न होकर पिता के दायादों को न्यागत होगी।
(ख) अपने पति या श्वसुर से हिन्द स्त्री दाय में प्राप्त कोई सम्पत्ति मृतक के (पूर्वमत पुत्र या पुत्री की संतान के सहित) किसी पुत्र या पुत्री के अभाव में उपधारा (1) में निर्दिष्ट अन्य दायादों को उसमें उल्लिखित क्रम से न्यागत न होकर पति के दायादों में न्यागत होगी।” यह धारा हिन्दू स्त्री की केवल निर्बाध संपत्ति के सम्बन्ध में अनुवर्तित की जायेगी। प्राचीन विधि के अर्थ में जो संपत्ति उसकी सीमित संपदा होती है, उसके सम्बन्ध में उत्तराधिकार के उपर्युक्त नियम नहीं लागू होते। इस प्रकार यदि किसी स्त्री ने अधिनियम के लागू होने के पूर्व कोई संपत्ति दाय में प्राप्त की और उसको उसने सीमित सम्पदा के रूप में धारण किया तथा अधिनियम के बाद उसकी मृत्यु हो जाती है तो उसके दायाद इस अधिनियम के अन्तर्गत निश्चित किये जायेंगे।
मुसम्मात मोकुन्दरो बनाम करतार सिंह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई स्त्री किसी सम्पत्ति को सीमित स्वामिनी के रूप में धारण करती थी और बाद में उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लागू हो जाने के पश्चात् उस सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी हो जाती है तो उसकी सम्पत्ति के न्यागमन के सम्बन्ध में धारा 15 तथा 16 लागू होगी। यदि वह स्त्री अपने पीछे अपने मृत पुत्र की पुत्री तथा अपने पति की बहिन को छोड़कर मरती है तो धारा 15 के तहत धारा 16 के सन्दर्भ में मृत पुत्र की पुत्री को ही दाय का अधिकार होगा न कि पति की बहिन; क्योंकि मृत पुत्र की पुत्री धारा 15 (1) (क) की दायाद है अत: वह बाद की श्रेणी में आने वाले दायादों को अपवर्जित करेगी।
उपधारा (1) (क) में वर्णित दायाद, मृतक के पुत्र, पुत्री एवं पति उसकी सम्पत्ति को एक साथ दाय में प्राप्त करेंगे। वे संपत्ति को सह-दायाद के रूप में न कि उत्तरजीविता के आधार पर ग्रहण करते हैं। सम्पत्ति का बँटवारा व्यक्तिपरक होता है न कि पितृपरक। किन्तु जहाँ मृतक (हिन्दू स्त्री) के जीवन-काल में उसका पुत्र अपने स्वयं के पुत्र एवं पुत्री को छोड़कर मरता है तो मृत पुत्र के पुत्र एवं पुत्री उपर्युक्त हिन्दू स्त्री के सम्पत्ति को पितृपरक रूप से ग्रहण करेंगे, अर्थात् जो अंश संपत्ति में उनके पिता को प्राप्त होता, उसी अंश को वे बराबर भाग में विभाजित कर देंगे। इस सम्बन्ध में यह उल्लेखनीय है कि यहाँ मृत पुत्र एवं पुत्रियों से आशय मृत स्त्री के अपने निजी पुत्र, पुत्रियों से है। उच्चतम न्यायालय के निर्णय, लक्ष्मन सिंह बनाम किरपा सिंह’ में इलाहाबाद उच्च न्यायालय का मत खण्डित कर दिया गया और यह अभिनिर्धारित किया गया कि धारा 15 (क) में वर्णित शब्द ‘पत्र’ सौतेले पुत्रों को शामिल नहीं करता। यह धारा निकटस्थता के आधार पर दायादों की सूची निर्धारित करता है। इस प्रकार स्त्री के अपने गर्भ से उत्पन्न पुत्र-पुत्री ही उसकी सम्पत्ति का दायाद हो सकता है। न कि उसके पति का कोई ऐसा पुत्र-पुत्री जो उसकी किसी दूसरी पत्नी से उत्पन्न हुआ हो। इसी मत
1. ए० आई० आर० 1991 एस० सी०2571
2. लतेश्वर बनाम उमा, 1958 पटना 502; श्रीमती बंशी बनाम चरन सिंह, 1961 पंजाब 46; कुलदीप सिंह बनाम करनाल सिंह, 1961 पंजाब 5731
3. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 16161
को पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय तथा बम्बई उच्च न्यायालय ने अपनाया था।
अभी हाल में शशी आहूजा बनाम कुलभूषण मलिक के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने पुन: इस मत की सम्पुष्टि की कि जहाँ कोई हिन्दू स्त्री अपनी सम्पत्ति निर्वसीयती छोड़कर मरती है तो उसके द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति का न्यागमन व्यक्ति परक होगा न कि पितृ परक अर्थात् वह सम्पत्ति प्रथम दृष्ट्या उसके पुत्र एवं पुत्रियों तथा पूर्व मृत पुत्र एवं पुत्रियों के पुत्र पुत्रियों को न्यागत होगी।
अधिनियम की धारा 15 (1) (क) यह बताती है कि निर्वसीयत में मृत हिन्दू महिला की सम्पत्ति प्रथमत: पुत्रों और पुत्रियों (किसी मृत पुत्र या पुत्री की बच्चों सहित) और पति पर न्यागत होगी। पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उपरोक्त वाद में याची, यद्यपि विवाहित पुत्री है अपनी मृत माता की सम्पत्ति की उत्तराधिकारी होने की हकदार है।
किसी स्त्री का एक विवाह हो सकता है अथवा एक से अधिक विवाह हो सकता है और प्रत्येक पति के साथ उससे उत्पन्न पुत्र-पुत्रियाँ हो सकती हैं। इस तरह के उसके समस्त पुत्र, पुत्रियाँ उसके निर्वसीयत मरने पर सम्पत्ति को उत्तराधिकार में पायेंगे। आनन्द राव बनाम गोविन्द राव झिंगराजी’ के वाद में पति की मृत्यु के बाद सम्पत्ति पति के दो पुत्रों एवं पत्नी में न्यागत हुई। पति के दो पुत्रों में एक पुत्र इस पत्नी से उत्पन्न हुआ था, दूसरा पुत्र दूसरी से उत्पन्न हुआ अर्थात् विधवा पत्नी का वह सौतेला पुत्र था। विधवा पत्नी की मृत्यु होने के बाद न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि सम्पत्ति उसके अपने पुत्र में ही न्यागत होगी न कि सौतेले पुत्र में। धारा 15 में प्रयुक्त ‘पुत्र-पुत्रियाँ’ शब्द सौतेले पुत्र-पुत्रियों को नहीं सम्मिलित करता। मृत हिन्दू स्त्री के पुत्र एवं पुत्री के अन्तर्गत अवैध पुत्र (जारज सन्तान) भी सम्मिलित है और यदि स्त्री ने दूसरा विवाह कर लिया था तो उसका दूसरा पति भी सम्पत्ति को उसके पुत्र-पुत्रियों के साथ दाय में प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है। यहाँ पति का आशय ऐसे पति से नहीं है जो तलाक की आज्ञप्ति द्वारा अलग हो गया है।
इस सम्बन्ध में एक महत्वपूर्ण वाद रोशन लाल बनाम दलीप का हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने निर्णीत किया। इसमें एक विधवा स्त्री ने कुछ भूमि अपने दूसरे पति के निर्वसीयत मर जाने पर उससे दाय में प्राप्त किया, जिसकी वह एकमात्र उत्तराधिकारिणी थी। उस विधवा को एक पुत्र अपने पहले वाले पति से था। उसके मर जाने के बाद उसकी संपत्ति का न्यागमन धारा 15 के अनुसार होगा अर्थात् वह पुत्र, भले ही उसके पहले पति से था, अपनी माता की सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करेगा अर्थात् उस सम्पत्ति को भी जो उसने (माता ने) दूसरे पति से दाय में प्राप्त किया था। इसमें पुत्र का प्रथम पति अथवा दूसरे पति से उत्पन्न होने से कोई अन्तर नहीं पड़ता। दोनों प्रकार के पुत्र-माता की सम्पत्ति में समान अंश के अधिकारी होंगे।
इस अधिनियम में माता की सम्पत्ति के सन्दर्भ में वैध तथा अवैध सन्तान में कोई अन्तर नहीं होता अर्थात् दोनों को समान अंश पाने का अधिकार होगा।
धारा 15 (1) तथा (2) के प्रावधानों से यह स्पष्ट है कि यह धारा हिन्दू स्त्री के पुत्र एवं पुत्रियों को उसकी सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने का अधिकार, प्रदान करने के आशय से रखी गयी है और पत्र एवं पुत्रियों के न होने पर ही सम्पत्ति उसके पति के दायादों में न्यागत होगी। परिणामस्वरूप सम्पत्ति उसके उन पुत्र एवं पुत्रियों को भी न्यागत होगी जो उसके पति की सन्तान थे भले ही उसने
1. रामानन्द पाटिल बनाम रेदेकर, 1969 बाम्बे 2051
2. ए० आई० आर० 2009 दिल्ली 51
3. श्रीमती नारायणी बाई बनाम हरियाणा राज्य, ए० आई० आर० 2004 पंजाब एवं हरियाणा 2061
4 ए० आई० आर० 1984 बा० 338। देखें श्रीमी दानीशथा कलिता बनाम रमाकान्त कलिता. ए. __आई० आर० 2003 गुजरात 93।
5. ए० आई० आर० 1985 हिमा० 8।
सम्पत्ति दूसरे या बाद के पति से उत्तराधिकार में प्राप्त की हो।।
ओ० एम० चेट्टियार बनाम कमप्पा चेट्टियार के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ एक हिन्दू स्त्री ने अपने पिता द्वारा दान में दी गयी सम्पत्ति के विषय में आज्ञप्ति अपने पक्ष में प्राप्त कर लिया हो और वह सम्पत्ति उसके स्त्रीधन के रूप में हो गयी हो, वहाँ उसके मर जाने के बाद यदि सम्पत्ति के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में उसके पति तथा भाई के बीच विवाद उत्पन्न होता है तो उस दशा में उसकी सम्पत्ति पति को, धारा 15 के नियम (1) के अनुसार न्यागत होगी न कि उसके भाइयों को न्यागत होगी। धारा 15 के नियम (2) के अधीन पति को पत्नी की सम्पत्ति उत्तराधिकार में पाने से वंचित करने के लिये यह साबित करना आवश्यक है कि मृत पत्नी ने उस सम्पत्ति को अपने पिता-माता से उत्तराधिकार में प्राप्त किया। यदि सम्पत्ति उत्तराधिकार से न प्राप्त करके अन्य किसी तरीके से, उदाहरणार्थ-दान, इच्छापत्र आदि द्वारा प्राप्त किया गया है तो उस स्थिति में पति के उत्तराधिकार का अधिकार बना रहेगा। रघुबर बनाम जानकी प्रसाद के मामले में न्यायालय ने यह कहा कि पत्नी को पिता-माता से दाय में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति में पति का कोई भी अधिकार नहीं होता। ऐसी सम्पत्ति पिता-माता के दायादों को वापस हो जाती है। जहाँ पत्नी ने अपने हिस्से के लिये पिता की मृत्यु के बाद वाद दायर किया हो और बाद में उसकी मृत्यु हो जाय वहाँ पति द्वारा अपना नाम पत्नी के स्थान पर स्थानान्तरित करने का प्रार्थनापत्र इस आधार पर खारिज कर दिया गया कि उसको उत्तराधिकार का कोई अधिकार धारा 15 के अन्तर्गत नहीं था।
बी० इथराज बनाम एस श्री देवी के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ किसी स्त्री को अपने माता पिता से सम्पत्ति प्राप्त हुई हो और वह निःसन्तान हो वहाँ ऐसी सम्पत्ति उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके माता पिता के दायादो में वापस चली जायेंगी न कि उसके पति के दायादों में न्यागत होगी।
हरजैसा कचरा बनाम मरनी जयनी लक्ष्मन के वाद में जहाँ पुत्री ने ऐसी कोई सम्पत्ति अपनी माता से दाय में प्राप्त किया जो उसने उसके पिता से प्राप्त की थी और वह स्वयं नि:संतान मर गई, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी स्थिति में उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (2) से प्रशासित होगा अर्थात् उसकी इस प्रकार से दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसके अपने दायादों में न्यागत नहीं होगी, बल्कि उसके पिता के दायादों में क्रम से न्यागत होगी, क्योंकि सम्पत्ति मूलत: पिता की थी। उसने सम्पत्ति को पितृपक्ष से उत्तराधिकार में प्राप्त किया था।
भगतराम बनाम तेजा सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई स्त्री ऐसी कोई सम्पत्ति अपनी माता से दाय में प्राप्त की हो जो उसने उसके पिता से प्राप्त की थी और वह स्वयं नि:सन्तान मर जाती, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (2) से प्रशासित होगा, अर्थात् उसकी इस प्रकार दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसके पति के दायादों में न जा करके बल्कि उसकी माता के दायादों में क्रम से न्यागत होगी।
रीतुबाधा बनाम हीरकँवर, के वाद में उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई सम्पत्ति पति के मृत्यु के बाद पत्नी को प्राप्त होती है। और पत्नी के मृत्यु के दौरान उसकी अपनी कोई सन्तान मौजूद न हो तब ऐसी स्थिति में ऐसी सम्पत्ति पति के दायादों को वापस चली
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जायेगी। न्यायालय ने उपरोक्त मामले में यह मत व्यक्त किया कि जहाँ ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न होती हैं वहाँ न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह इस बात का अवलोकन करें कि प्राप्त की गयी सम्पत्ति का मूल स्रोत क्या था यदि ऐसी सम्पत्ति पति के पक्ष से प्राप्त की गई हो तो वह पति के दायाटों को वापस चली जायेगी और यदि ऐसी सम्पत्ति का स्रोत पत्नी के माता पिता के पक्ष द्वारा प्राप्त की गई हों तो ऐसी सम्पत्ति उसके माता-पिता के दायादों को न्यागत होगी।
जहाँ किसी स्त्री ने कोई सम्पत्ति अपने माता-पिता से दाय में नहीं प्राप्त की है बल्कि किसी अन्य तरीके से प्राप्त की है वहाँ उस स्त्री को सम्पत्ति का न्यागमन धारा 15 (1) के अनुसार होगा। इस विषय पर श्रीमती अमर कौर बनाम श्रीमती रमन कुमारी का वाद महत्वपूर्ण है। इसमें एक हिन्दू स्त्री ने अपनी समस्त सम्पत्ति अपनी दो पुत्रियों अ तथा स के पक्ष में दान कर दी। वह दान अधिनियम (हिन्दू उत्तराधिकार) के लागू होने के पूर्व का था। 1972 में स की मृत्यु हो गई और उस समय उसका पति जीवित नहीं था और न उसका कोई उत्तराधिकारी जीवित था। स की मृत्यु के समय उसके पति की दूसरी पत्नी से उत्पन्न पुत्र जीवित था जो स की मृत्यु के बाद मर गया। यह पुत्र अपने पीछे अपनी विधवा पत्नी और पुत्रों को छोड़ कर मरा। उसकी विधवा पत्नी तथा पुत्रों ने दान में प्राप्त की गई स की संपत्ति को दाय में प्राप्त करने का दावा दायर किया। उनका यह तर्क था कि यह संपत्ति स ने अपनी माता से दान में प्राप्त किया था, इसलिये इसके सम्बन्ध में धारा 15 (1) लागू होगी न कि धारा 15 (2) के प्राविधान। ड के पुत्र ने इसका विरोध इस आधार पर किया कि स की संपत्ति ड ने दाय में प्राप्त की थी, अत: धारा 15 (2) के अनुसार स के कोई सन्तान न होने के कारण संपत्ति स के पिता तथा माता के अंश में उनके दायादों को वापस चली जायेगी। न्यायालय ने विरोध के तर्क को स्वीकार नहीं किया और अभिनिर्धारित किया कि स ने संपत्ति उत्तराधिकार में नहीं प्राप्त की थी इसलिये सम्पत्ति उसके मरने के बाद उसके पति के दायादों में धारा 15 (1) के अनुसार न्यागत हो जायेगी।
सीता लक्ष्मी अम्मल बनाम मैथ्यू वेंकट रामा अयंगर के वाद में सर्वोच्च न्यायालय ने एक अत्यन्त महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इस वाद में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि यदि किसी हिन्दू महिला की मृत्यु हो जाय और उस समय उसका कोई पुत्र, पुत्री या पति जीवित न हो तो ऐसी दशा में उसकी पुत्रवधू स्वतः ही उसकी वारिस बन जायेगी। इस वाद में न्यायालय ने यह भी प्रतिपादित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 (1) (ब) के अन्तर्गत आने वाले हिन्दू महिला का वारिस कौन हो, इस बात का निर्णय करने के क्रम में न्यायालय ने कहा कि इस मामले में उत्तराधिकारी तय करने के लिये उसकी मृत्यु की तिथि तक जाने की जरूरत नहीं है। उत्तराधिकारी का निर्धारण, पति की मृत्यु के समय से नहीं बल्कि पत्नी की मृत्यु के समय से किया जाना चाहिये। क्योंकि उत्तराधिकार का सवाल सामान्यत: उसकी मृत्यु के बाद ही उठता है। उच्चतम न्यायालय ने इस बात के साथ-साथ यह भी स्पष्ट करते हुये कहा कि यदि सास की मृत्यु के समय, उसके पति का कोई उत्तराधिकारी है, जो उसके मृत पुत्र की विधवा के मानदंडों पर सही है तो वह भी उत्तराधिकारी माना जायेगा।
पुत्र’ शब्द नैसर्गिक एवं दत्तकग्रहीता पुत्रों को सम्मिलित करता है तथा वह पुनर्विवाह से उत्पन्न पुत्रों को एवं वैध पुत्रों को भी सम्मिलित करता है।
भगवान दास बनाम प्रभाती राम के वाद में प्रथम अपीलीय न्यायालय के समक्ष यह विधिक प्रश्न था कि क्या मृतक का सौतेला पुत्र उसके विधिक उत्तराधिकारी के रूप में सम्पदा का उत्तराधिकारी
1. ए० आई० आर० 1985 पं० एवं हरि० 861
2. एस० सी० (एम० डी०) 1998 पृ० 2161
3. गुरुवचन सिंह बनाम केशर सिंह, ए० आई० आर० 1971 पंजाब तथा हरियाणा 2401
4. ए० आई० आर० 2004 दिल्ली 1371
(द) बन्धु (Cognates)|
(3) तृतीय प्रविष्टि के दायाद
(अ) माता, जिसमें सौतेली माता नहीं आती,
(ब) पिता।
(4) चतुर्थ प्रविष्टि के दायाद–निर्वसीयती हिन्दू स्त्री के पिता के दायाद इस प्रविष्टि में आते हैं-
(अ) अनुसूची के वर्ग 1 में उल्लिखित दायाद,
(ब) अनुसूची के वर्ग 2 में उल्लिखित दायाद,
(स) सपित्र्य गोत्रज (Agnates),
(द) बन्धु (Cognates)।
(5) पाँचवीं प्रविष्टि के दायाद-दायाद इस प्रकार हैं-
(1) उसके पुत्र, पुत्री तथा पति,
(2) उसके पति के दायाद,
(3) उसके माता-पिता,
(4) उसके पिता के दायाद,
(5) उसकी माता के दायाद।
इसके अनुसार भाई, बहिन (सगी तथा चचेरी), सौतेली माता संपत्ति प्राप्त करेंगे। धारा 15 की उपधारा (2) उपर्युक्त सामान्य नियम का अपवाद है। उपधारा (2) के उपबन्ध तभी अनुवर्तित किये जाते हैं जब हिन्दू स्त्री अपने पीछे पुत्र, पुत्री अथवा पूर्वमृत पुत्र अथवा पुत्री की कोई सन्तान छोड़ कर नहीं मरती। इन अवस्थाओं में हिन्दू-स्त्री द्वारा अपने पिता, माता तथा श्वसुर से दाय में प्राप्त संपत्तियाँ उपधारा (1) में उल्लिखित क्रम से न्यागत नहीं होतीं। इस नियम के पीछे तर्क यह है कि संपत्ति ऐसे परिवार को न चली जाय जो उसकी किंचित भी आशा नहीं रखते।
पिता तथा माता से दाय में प्राप्त सम्पत्ति-इस प्रकार दाय में प्राप्त संपत्ति पिता के दायादों को न्यागत होगी, यदि निर्वसीयत हिन्दू स्त्री बिना किसी पुत्र, पुत्री अथवा पूर्वमृत पुत्र या पुत्री की सन्तान को छोड़कर मरी है। यह प्रथम प्रविष्टि द्वितीय तथा तृतीय प्रविष्टि के दायादों को अपवर्जित करती है। अत: पति तथा पति के दायाद भी इससे अपवर्जित हो जाते हैं जो प्रथम तथा द्वितीय प्रविष्टि में दिये गये हैं। इसके द्वारा माता तथा पिता भी दाय प्राप्त करने से अपवर्जित कर दिये जाते हैं, किन्तु फिर भी माता के रूप में नहीं वरन् पिता की विधवा के रूप में संपत्ति प्राप्त कर सकती है।
अरुणाचल थम्मल बनाम रामचन्द्र पिल्लई व अन्य वाले वाद में यह कहा गया है कि जहाँ एक सन्तानहीन स्त्री, जो अपने पिता से प्राप्त तथा परिवार के विभाजन हो जाने पर उससे प्राप्त संपत्ति को छोड़कर मरती है, वहाँ उत्तराधिकार धारा 15 तथा 16 के नियमों से प्रशासित होगा, अर्थात् समस्त संपत्ति को पिता से प्राप्त हुआ मान कर उसका न्यागमन तय किया जायेगा।
इस मत की अभिपुष्टि भगत राम बनाम तेजा सिंह के वाद में की गयी। प्रस्तुत मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ कोई विधवा स्त्री नि:सन्तान तथा निर्वसीयत अपने पिता से प्राप्त सम्पत्ति को छोड़कर मरती है जिसकी वह एक मात्र स्वामिनी है तो ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति उसके पति के दायदों में न जाकर उसके पिता के दायादों में न्यागत होगी अर्थात् वहाँ ऐसी सम्पत्ति हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 तथा 16 के नियम से प्रशासित होगी।
1. ए० आई० आर० 1963 मद्रास 2551
2. ए० आई० आर० 2002 एस० सी० 01.
श्वसुर तथा पति से दाय में प्राप्त सम्पत्ति—इस प्रकार की संपत्ति उसके पति के उन टाया को न्यागत होगी जो द्वितीय प्रविष्टि के अन्तर्गत आते हैं। इस उपबन्ध से यह परिणाम निकलता है कि यह निर्वसीयत हिन्दू स्त्री के पिता-माता तथा पिता-माता के दायादों को दाय प्राप्त करने से अपवर्जित करता है।
दृष्टान्त
(1) एक हिन्दू स्त्री निर्वसीयत, एक पुत्री, पति, पिता तथा भाई को छोड़कर मरती है। संपत्ति पुत्री तथा पति को चली जायेगी और वे एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे।
(2) एक हिन्द्र स्त्री पिता, भाई, बहिन तथा सौतेले पुत्र को छोड़कर निर्वसीयत मर जाती है। सौतेला पुत्र उसके पति का दायाद है और वह पिता, भाई तथा बहिन को अपवर्जित करेगा जो तृतीय प्रविष्टि तथा चतुर्थ प्रविष्टि में आते हैं।
(3) एक स्त्री अपने पिता से दाय में सम्पत्ति प्राप्त करती है। वह पति, माता, सौतेला पुत्र तथा भाई को छोड़कर निर्वसीयत मर जाती है। जैसा कि सम्पत्ति पिता से प्राप्त की गई थी और उसके कोई पुत्री अथवा पुत्र नहीं था, उपधारा (2) का उपबन्ध ऐसी दशा में अनुवर्तनीय होगा और सम्पत्ति पिता के दायादों को चली जायेगी। इस मामले में भाई तथा माता (पिता का पुत्र तथा विधवा पत्नी) समान अंश में एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे तथा वे पति एवं सौतेले पुत्र को अपवर्जित करेंगे।
यह प्रावधान किसी स्त्री द्वारा दान में अपने माता-पिता से प्राप्त संपत्ति के सम्बन्ध में लागू नहीं होता। ऐसे बहुत से उदाहरण प्राप्त होते हैं जहाँ दाय की समस्त सम्पत्ति पति द्वारा ले ली जाती है। वस्तुत: अधिनियम की धारा 15 (2) में कुछ संशोधन की आवश्यकता है। इसके अन्तर्गत दान द्वारा अथवा अन्य विधि से प्राप्त धन को भी सम्मिलित कर लेना चाहिये।
नियम 1-धारा 15 (2) की प्रथम प्रविष्टि के दायाद द्वितीय प्रविष्टि के दायाद की अपेक्षा अधिमान्य समझे जायेंगे। प्रथम प्रविष्टि के दायादों के अभाव में द्वितीय प्रविष्टि के दायाद अधिमान्य होंगे और इसी प्रकार का क्रम अपनाया जायगा।
उत्तराधिकार का क्रम धारा 16 में वर्णित है।
दृष्टान्त
(1) पुत्रों, पुत्रियों, तथा पति के मामले में समस्त सम्पत्ति, अन्य दायादों के अपवर्जन में, उनको बराबर अंशों में चली जायगी।
(2) एक हिन्दू स्त्री दो पुत्रों, तीन पुत्रियों, पति, सौतेले पुत्रों तथा पिता और भाई को छोड़कर मर जाती है। ऐसी दशा में उसके पुत्र, पुत्रियाँ, पति अन्य सभी दायादों के अपवर्जन में सम्पत्ति ग्रहण करेंगे और उनसे प्रत्येक 1/6 अंश प्राप्त करेंगे।
नियम 2–पूर्वमृत पुत्र तथा पुत्री की सन्तानें आपस में सम्पत्ति उसी प्रकार से वितरित कर लेंगे जैसा कि वे माता की मृत्यु के समय जीवित होते तो प्राप्त करते, अर्थात् सन्तान में सम्पत्ति का विभाजन पितृपरक होगा।
स्पर्धी दायाद (1) पुत्र ‘अ’, (2) पुत्रियाँ व, स, (3) पूर्वमृत पुत्र के तीन पुत्र द, य, र तथा
पर्वमत पत्र य की दो पुत्रियाँ प, म हैं। वे सब प्रथम प्रविष्टि के अन्तर्गत होने के कारण एक साथ सम्पत्ति ग्रहण करेंगे। अ, ब, स तथा ज एवं य’ की सन्तान, प्रत्येक 1/5 अंश के अधिकारी होंगे। ज का अंश उसके पुत्र द, य, र में बराबर भागों में बँट जायेगा, उसमें प्रत्येक 1/15 अंश प्राप्त करेगा। या का अंश उसकी पुत्रियों प एवं म में विभाजित हो जायगा, प्रत्येक सम्पत्ति में 1/10 अंश प्राप्त करेंगे।
नियम 3 नियम 3 यह अधिकार प्रदान करता है कि पिता के दायादों, माता के दायादों अथवा
पति के दायादों में सम्पत्ति का न्यागमन उसी क्रम तथा नियम के अनुसार होगा जैसा कि यदि पिता, साता अथवा पति उस सम्पत्ति के सम्बन्ध में निर्वसीयत स्त्री की मृत्यु के ठीक बाद में मर गये होते।
दृष्टान्त
एक हिन्दू स्त्री निर्वसीयत (1) दो भाइयों ब, स, (2) दो बहिनों द, य, (3) सौतेली माता प, (4) मत भाई के दो पुत्रों त, थ, (5) पूर्वमृत बहिन की तीन पुत्रियों क, ख, ग, (6) चाचा म, (7) पितामह
तथा (8) सौतेले पिता छ को छोड़कर मर जाती है। प्रथम सात पिता के दायाद हैं तथा चतुर्थ प्रविष्टि से आते हैं। आठवाँ पिता का नहीं वरन् माता का दायाद है तथा पाँचवी प्रविष्टि में आता है। ये प्रथम पाँच अनसची के वर्ग (1) में आते हैं तथा नं० 6 तथा 7 अनुसूची वर्ग (2) में आते हैं। इस प्रकार वर्ग (1) टायादों की उपस्थिति में छठाँ तथा सातवाँ अपवर्जित किया जायेगा। 21,000 रु० की सम्पत्ति में ब तथा सद तथा य, सौतेली माता प तथा पूर्वमृत भाई तथा पूर्वमृत बहिन की सन्तान प्रत्येक एक अंश ग्रहण करेंगे। वे प्रत्येक 1/7 अंश प्राप्त करेंगे, अर्थात् ब, स, द, य तथा प प्रत्येक को 3,000 रु० प्राप्त होगा तथा पर्वमत पुत्र के दो पुत्रों में प्रत्येक को 1,500 रु० प्राप्त होगा तथा पूर्वमृत बहिन की तीन पुत्रियों क, ख, ग प्रत्येक को 1,000 रु० प्राप्त होगा।
बसन्ती देवी रवि प्रकाश बनाम राम प्रसाद जयसवाल के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई हिन्दू स्त्री अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को निर्वसीयत छोड़कर मर जाती है और उसके परिवार में उसका कोई वारिस मौजूद नहीं है तो ऐसी स्थिति में ऐसी सम्पत्ति का न्यागमन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम में उल्लिखित नियमों के अन्तर्गत सपित्र्य गोत्रज को प्राप्त होगी।
पुनः राजस्थान उच्च न्यायालय के द्वारा श्रीमती उमराव देवी बनाम हुलासमल, के वाद में यह अभिनिर्धारित किया गया कि कोई विधवा स्त्री जो नि:सन्तान है यदि वह अपनी निर्वसीयती सम्पत्ति छोड़कर मर जाती है और अनुसूची 1 एवं 2 के दायाद मौजूद न हों तो ऐसी परिस्थिति में वह सम्पत्ति सपित्र्य गोत्रजों को न्यागत होगी। लेकिन जहाँ कोई हिन्दू स्त्री जिसने अपने माता-पिता से सम्पत्ति प्राप्त की हो वहाँ उसकी मृत्यु के पश्चात ऐसी सम्पत्ति उसके दायादों एवं उसके पति को प्राप्त होगी।’
मरुमक्कत्तायम और अलियसन्तान में उत्तराधिकार-जब कोई ऐसी हिन्दू स्त्री अथवा पुरुष निर्वसीयत मरता है जो मरुमक्कत्तायम तथा अलियसन्तान विधि द्वारा प्रशासित होता है तो उसकी सम्पत्ति के उत्तराधिकार के विषय में धारा 17 का प्रावधान अनुवर्तित किया जायगा। धारा 17 इस प्रकार है-
“धारा 8, 10, 15 और 23 के प्रावधान उन व्यक्तियों के सम्बन्ध में, जो यदि अधिनियम पारित न किया गया होता तो मरुमक्कत्तायम विधि और अलियसन्तान विधि द्वारा शासित होते, प्रभावशील होंगे, जैसे कि
(i) धारा 8 की उपधारा (ग) तथा (घ) के बदले में निम्नवर्ती रख दिया गया हो, (ग) तृतीय रूप में यदि दोनों वर्गों में से किसी का कोई दायाद न हो तो उसके नातेदारों का चाहे वे गोत्रज हों अथवा बन्धु हों, (ii) धारा 15 की उपधारा (1) के खण्ड (क) से लेकर (ङ) तक के बदले में निम्नवर्ती रख दिया गया हो, अर्थात्(क) प्रथमतः पुत्र तथा पुत्रियों को (जिसमें किसी पूर्वमृत पुत्र अथवा पुत्री की सन्तान भी सम्मिलित है) तथा माता को, (ख) द्वितीय रूप में पिता तथा पति को, (ग) तृतीय रूप में माता के दायादों को, (घ) चतुर्थ रूप में पिता के दायादों को, (iii) धारा 15 की उपधारा (2) का खण्ड (क) लुप्त कर दिया गया है। (iv) धारा 23 लुप्त कर दी गयी है।
दायादो को उसके आधार पर निर्वसीयत की सम्पत्ति में उत्तराधिकार प्राप्त करने से अलग कर देता है। ये नियोग्यतायें इस प्रकार है
(1) पुनर्विवाह से उत्पन्न निर्योग्यतायें (धारा 2411
(2) हत्या का अपराध (धारा 25)।
(3) धर्म परिवर्तन से उत्पन्न निर्याग्यता (धारा 26)1
यह उल्लेखनीय है कि पूर्व हिन्दू विधि में उत्तराधिकार से अपवर्जित करने के लिये अनेक योग्यताय विहित की गई थी जिनको शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा धार्मिक इत्यादि कोटियों में सियाजित किया गया था। किन्तु वर्तमान अधिनियम में इन निर्योग्यताओं को अब समाप्त कर दिया गया तथा अधिनियम की धारा 24, 25 तथा 26 में उनका पुन: उल्लेख किया गया है। खगेन्द्र नाथ घोष बनाम करुणाघर के बाद में कलकता उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि अधिनियम की धारा 24, 25 तथा 26 को छोड़कर अन्य कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जिसमें दायसम्बन्धी नियोग्यता विहित की गई हो। धारा 24 से 26 तक के अधीन विधवा का असतीत्व होना (अनैतिक जीवन व्यतीत करना) उसे दाय प्राप्त करने के निर्याग्य नहीं बना देता। पत्नी का असतीत्व होना पली को पति की सम्पत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त करने से अब अलग नहीं कर सकता। दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसे असतीत्व के आधार पर अनिहित नहीं कर सकती।
(1) पुनर्विवाह से उत्पन्न निर्योग्यता-धारा 241 में इस निर्योग्यता के विषय में उल्लेख किया गया है
“जब कोई दायाद पूर्वमृत पुत्र की विधवा, पूर्वमृत पुत्र के पुत्र की विधवा या भाई की विधवा के रूप में निर्वसीयत से नातेदारी रखती है यदि उत्तराधिकार के सूत्रपात होने की तिथि में पुनः विवाह कर लेती है तो वह निर्वसीयत की सम्पत्ति में ऐसी विधवा के रूप में उत्तराधिकार प्राप्त करने की हकदार नहीं होगी।” इस धारा के अन्तर्गत पुनर्विवाह केवल निम्नलिखित के लिये निर्योग्यता होगा
(1) निर्वसीयत के पूर्वमृत पुत्र की विधवा,
(2) पूर्वमृत पुत्र के पूर्वमृत पुत्र की विधवा, अथवा
(3) निर्वसीयत के भाई की विधवा। यदि विधवा ने निर्वसीयत के जीवन काल में पुनर्विवाह कर लिया है, अर्थात् उत्तराधिकार के सूत्रपात होने के पूर्व पुनः विवाह कर लिया है।
श्रीमती कस्तूरी देवी बनाम डिप्टी डाइरेक्टर कान्सालिडेशन के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि माता को पुनर्विवाह के आधार पर सम्पत्ति में उसके हक से अनिहित नहीं किया जा सकता है। पत्रवधु को दाय से अपवर्जित करने का विशेष तथा पुनीत कारण है और वह कारण पति से उसका पवित्र सम्बन्ध है। जब वह पुनर्विवाह करके वह सम्बन्ध तोड़ लेती है तो उस दाय प्राप्त करने का कोई अधिकार नहीं रह जाता और न ही दाय में प्राप्त सम्पत्ति को धारित किये जाने काही अधिकार बना रहता है। किन्तु यह बात माता के लिये लागू नहीं होती, वह दाय म सम्पत्ति प्राप्त कर लेने के बाद भी उससे अनिहित नहीं की जा सकती।
उत्तराधिकार के सुत्रपात हो जाने के बाद विधवा का पुनर्विवाह उसको, यदि उसने एक दायाद के रूप में दाय प्राप्त कर लिया है, अंशभागी बनने के निर्योग्य बना देता है। यह धारा निर्वसीयत की
1. धारा 24, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (39 सन् 2005) द्वारा विलोपित हो
2. ए. आई. आर० 1978 कल 4311
3. ए. आई. आर० 1976 एस० सी० 25951
विधवा अथवा उसके पिता की विधवा के सम्बन्ध में लागू नहीं होती। इस धारा में उल्लिखित विधवा जब एक बार पुन: विवाह कर लेती है तो यह समझा जाता है कि निर्वसीयत के जीवन-काल में उस विधवा के पति की मृत्यु हो गई। इस प्रकार पुनः विवाह कर लेने पर वह निर्वसीयती की विधवा नहीं। रह जाती और अन्य सम्बन्धियों से दाय प्राप्त करने का अधिकार भी खो देती है। इस प्रकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पास हो जाने के बाद कोई हिन्दू विधवा अपने पति से दाय में प्राप्त करने वाली सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी धारा 14 के अन्तर्गत हो जाती है और पुनः विवाह करने पर उसे उस सम्पत्ति से अनिहित नहीं किया जा सकता है।
अभी आल में पुन: उच्चतम् न्यायालय ने चिरोट सुगथन बनाम चिरोट भारथी के मामले में इस बात की अभिपुष्टि की। प्रस्तुत मामले में पत्नी ने अपने पति से कुछ सम्पत्ति विरासत में प्राप्त किया था और सम्पत्ति प्राप्त करने के कुछ वर्ष पश्चात् उसके पति की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के उपरान्त उसकी पत्नी ने किसी अन्य व्यक्ति के साथ पुनर्विवाह सम्पन्न किया। विवाह के पश्चात् मृतक पति के अन्य उत्तराधिकारियों ने न्यायालय के समक्ष इस बात को उठाया कि विधवा के पुनर्विवाह की वजह से वह ऐसी सम्पत्ति की अधिकारी नहीं होगी जो सम्पत्ति उसने पूर्व पति से प्राप्त किया था। उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के पास हो जाने के बाद कोई हिन्दू विधवा अपने पति से दाय में प्राप्त होने वाली सम्पत्ति की पूर्ण स्वामिनी धारा 14 के अन्तर्गत हो जाती है और पुनर्विवाह करने से उसे उस सम्पत्ति से अनिहित नहीं किया जा सकता।
किन्तु यदि विधवा निर्वसीयत से किसी अन्य प्रकार से सम्बन्धित होती है, उदाहरणार्थ माता की पुत्री, चाचा की पुत्री आदि के रूप में, तो वह उस दशा में मृतक का बन्धु होने के नाते दाय प्राप्त करने की अधिकारिणी हो जाती है, यदि मृतक के निकट के दायाद उसको अपवर्जित नहीं करते।
पिता की विधवा, अर्थात् सौतेली माता इस धारा में उल्लिखित नहीं की गई है, यद्यपि वह वर्ग (2) की चतुर्थ प्रविष्टि के दायादों में विहित है। पिता की विधवा का तात्पर्य माता से नहीं है, क्योंकि माता वर्ग (1) की दायाद है। माता अपने पुत्र की सम्पत्ति पिता की विधवा के रूप में नहीं प्राप्त करती वरन् अपने रक्त-सम्बन्ध के आधार पर माता के रूप में प्राप्त करती है।
सौतेली माता सौतेले पुत्र की सम्पत्ति पिता की विधवा के ही रूप में प्राप्त करती है। कोई सौतेली माता, जो अपने सौतेले पुत्र के पूर्व ही विवाह कर लेती है तथा दूसरे परिवार में अपना पति बना लेती है तो उसका वही स्थान होता है जो इस धारा में उल्लिखित अन्य तीन विधवाओं का।
(2) हत्यारा-धारा 25 हत्यारे को उस व्यक्ति की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने के निर्योग्य बना देती है जिसकी हत्या की गयी है। धारा 25 इस प्रकार है
“जो व्यक्ति हत्या करता है या हत्या करने में अभिप्रेरणा करता है, वह हत व्यक्ति की सम्पत्ति या किसी अन्य सम्पत्ति को, जिसके उत्तराधिकार को अग्रसर करने के लिए उसने हत्या की थी या हत्या करने में अभिप्रेरण किया था, प्राप्त करने के निर्योग्य होगा।’ हत्यारे के विषय में यह धारणा बनायी जाती है कि वह अस्तित्व में नहीं है।
हत्या के आधार पर हत्यारे को हत व्यक्ति की सभी प्रकार की सम्पत्तियों को प्राप्त करने के निर्योग्य बना दिया जाता है। दूसरे शब्दों में, हत्यारे को ऐसे दूसरे व्यक्ति की भी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करने से अपवर्जित कर दिया जाता है जिसकी सम्पत्ति, यदि वह हत्या न करता तो उत्तराधिकार में प्राप्त करता। हत्यारे व्यक्ति का दायाद भी हत व्यक्ति की सम्पत्ति दाय में प्राप्त करने के निर्योग्य हो जाता है, क्योंकि सम्पत्ति हत्यारे में निहित नहीं होती, अत: वह हत्यारे के दायाद को भी नहीं प्राप्त हो सकती। इस धारा के उद्देश्य के लिए ‘हत्या की अभिप्रेरणा’ भी सम्मिलित करता है।
चमनलाल बनाम मोहन लाल तथा अन्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने यह निर्धारित किया कि जहाँ किसी विधवा का अभियोजन अपने पति की हत्या के आरोप में किया ता है और बाद में वह उस दोष के आरोप से छूट जाता है वहाँ उसे अपने पति की संपत्ति को दाय में प्राप्त करने से अपवर्जित नहीं किया जा सकता।
(3) धर्म-परिवर्तन : वंशज पर धर्म-परिवर्तन का प्रभाव-धारा 26 में ऐसे व्यक्तियों के बाजों की निर्योग्यता के विषय में उल्लेख किया गया है जिसने दूसरा धर्म ग्रहण कर लिया है। उदाहरणार्थ, एक पुरुष अथवा स्त्री दूसरा धर्म ग्रहण कर लेती है। ऐसी अवस्था में उसके वंशज यदि उत्तराधिकार के सूत्रपात के समय हिन्दू नहीं हैं तो पुरुष अथवा स्त्री के किसी नातेदार से भी दाय में सम्पत्ति नहीं प्राप्त कर सकते। यह एक उल्लेखनीय बात है कि धर्म-परिवर्तन करने वाला व्यक्ति स्वयं टाय प्राप्त करने के निर्योग्य नहीं होता। धर्म-परिवर्तन उस व्यक्ति के वंशजों के दाय प्राप्त करने के अधिकार को प्रभावित करता है जिसने दूसरा धर्म ग्रहण कर लिया है। यह धारा भूतलक्षी है तथा यह उन व्यक्तियों के लिये भी लागू होती है जो इस अधिनियम के प्रारम्भ होने के पूर्व दूसरा धर्म ग्रहण कर चुके हों। यह बात अधिनियम की धारा 26 से स्पष्ट होती है जो इस प्रकार है
“जहाँ इस अधिनियम के प्रारम्भ के पूर्व या पश्चात् कोई हिन्दू दूसरा धर्म ग्रहण करने के कारण हिन्दू नहीं रह गया था या नहीं रह जाता है, वहाँ ऐसे धर्म-परिवर्तन के पश्चात् हुई सन्तति तथा उस सन्तति के वंशज अपने हिन्दू नातेदारों में से किसी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करने के लिए निर्योग्य होंगे, जब तक कि ऐसी सन्तति या वंशज उत्तराधिकार के सूत्रपात के समय हिन्दू नहीं हैं।”
इस धारा के अनुसार धर्म-परिवर्तन करने वाले दायाद पर दाय-अपवर्जन का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, किन्तु धर्म-परिवर्तन के बाद उत्पन्न होने वाली उनकी सन्तान ही अपवर्जन का शिकार होती है। दायाद के धर्म-परिवर्तन के पूर्व उत्पन्न होने वाली सन्तान यदि धर्म-परिवर्तन नहीं करती और हिन्दू बनी रह जाती है तो उसे दाय से अपवर्जित नहीं किया जा सकता।
गनचारी विराह शंकरय्या बनाम गनचारी शिवा रंजनी, के मामले में पुत्री विवाह करने के कारण से दूसरे धर्म में परिवर्तित हो गई थी। विवाह के कुछ समय बाद वह अपनी पैतृक सम्पत्ति में सहदायिकी की हैसियत से अपनी सम्पत्ति लेने के लिये न्यायालय के समक्ष एक वाद संस्थित किया। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम के पारित होने के पश्चात् पुत्री सहदायिकी की हैसियत से अपनी सम्पत्ति प्राप्त करने के लिये विभाजन के लिये वाद ला सकती है। उसका दूसरे धर्म में विवाह कर लेने से उसे इस अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता, क्योंकि उसके विवाह कर लेने से यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये उसने स्वयं को उस धर्म में परिवर्तित कर लिया है।
पूर्व हिन्दू विधि के अन्तर्गत बधिर, गूंगा, पागल, जड़, कुष्ठ रोग से पीड़ित तथा जन्मजात अन्धा तथा ऐसा व्यक्ति जो किसी असाध्य रोग से पीड़ित था, दाय प्राप्त करने से अपवर्जित किया जाता था। हिन्दू दाय (निर्योग्यता-निवारण) अधिनियम, 1928 ने पागलपन, जड़ता (जन्म से) के अतिरिक्त अन्य सभी निर्योग्यताओं का निवारण कर दिया। यह अधिनियम धारा 28 के द्वारा यह घोषित करता है कि कोई दोष, रोग अथवा अंगहीनता किसी व्यक्ति को दाय प्राप्त करने के निर्योग्य नहीं बना देती। अधिनियम की धारा 243 से लेकर 26 तक के अन्तर्गत इन निर्योग्यताओं को विहत किया गया है। इस अधिनियम के अन्तर्गत असाध्विता अथवा असतीत्वता कोई निर्योग्यता नहीं मानी गई।
1. ए० आई० आर० 1977 दिल्ली 971
2. ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 351, अ० प्र०.
3. धारा 24, हिन्दू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 (39 सन् 2005) द्वारा विलोपित हो गयी है।
LLB Hindu Law Chapter 7 Post 9 Book Notes Study Material PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों SscLatestNews.Com Website एक बार फिर से आप सभी का स्वागत करती है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी Hindu Law Books से लिए गये Chapter 7 दाय तथा उत्तराधिकार को पढ़ने जा रहे है |
धारा 28 इस प्रकार है-
“कोई व्यक्ति किसी रोग, दोष अथवा अंगहीनता के आधार पर इस अधिनियम के द्वारा विहित आधारों को छोड़कर अन्य किसी आधार पर दाय के लिये निर्योग्य नहीं होगा।”
निर्योग्यता का प्रभाव-धारा 27 में यह कहा गया है कि सम्पत्ति इस प्रकार न्यागत होगी जैसे कि निर्योग्य व्यक्ति निर्वसीयत के जीवन-काल में ही मर गया था। अत: निर्योग्य व्यक्ति अस्तित्व में न होने के कारण दाय से अपवर्जित किया जाता है। इस सम्बन्ध में अधिनियम की धारा 27 अवलोकनीय
“यदि कोई व्यक्ति किसी सम्पत्ति को दाय में प्राप्त करने से इस अधिनियम के अधीन निर्योग्य कर दिया गया है तो सम्पत्ति इस प्रकार न्यागत होगी जैसे कि ऐसा व्यक्ति निर्वसीयत के पूर्व मर गया हो।”
जैसा कि निर्योग्य व्यक्ति निर्वसीयत के पूर्व ही मरा हुआ माना जाता है, इससे यह अर्थ निकलता है कि कोई व्यक्ति उसके माध्यम से निर्वसीयत की सम्पत्ति में दाय प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकता। वस्तुत: निर्योग्य व्यक्ति में सम्पत्ति कभी नहीं निहित होती।
अत: निर्योग्य व्यक्ति वंशक्रम में कोई स्थान नहीं प्राप्त करता और उसके माध्यम से दायाद के रूप में कोई व्यक्ति दावा नहीं कर सकता।
उत्तराधिकार के सामान्य नियम अधिनियम के अन्तर्गत-इस अधिनियम के अन्तर्गत उत्तराधिकार के कुछ सामान्य नियम दिये गये हैं जो धारा 18 से 22 में उपबन्धित है। ये नियम सभी प्रकार की अवस्थाओं में लागू होंगे। चाहे उत्तराधिकार किसी हिन्दू पुरुष के निर्वसीयत मर जाने के बाद प्रारम्भ हो अथवा हिन्दू स्त्री के निर्वसीयत मरने के बाद शुरू हो।
सगा-सम्बन्धी तथा सौतेला-सम्बन्धी–धारा 18 के अनुसार निर्वसीयत का सगा सम्बन्धी सौतेला सम्बन्धी की अपेक्षा दाय प्राप्त करने में अधिमान्य होगा। किन्तु यह नियम महत्वपूर्ण शर्त से उपबन्धित है जो धारा 18 में विहित की गई है। धारा 18 के अनुसार
“निर्वसीयत का दायाद, जो सगा-सम्बन्धी है सौतेला सम्बन्धी की अपेक्षा अधिमान्य होगा, यदि सम्बन्ध का स्वरूप अन्य प्रत्येक बात में एक समान हो।”
समान पूर्वज से तथा एक ही स्त्री से उद्भूत दायाद उन दायादों की अपेक्षा अधिमान्य होंगे जो सामान्य पूर्वज तथा भिन्न-भिन्न पत्नियों से उद्भूत हुए हैं।
– इस सम्बन्ध में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने इस मत की पुन: अभिपुष्टि की कि जहाँ सामान पूर्वज से तथा एक ही स्त्री से उद्भूत दायाद उन दायादों की अपेक्षा अधिमान्य होंगे जो सामान पूर्वज तथा भिन्न-भिन्न पत्नियों से उत्पन्न हुये हैं अर्थात् सगे भाई-बहन सौतेले भाई बहन की अपेक्षा अधिमान्य होंगे। प्रस्तुत मामले में एक हिन्दू पुरुष अपनी सम्पत्ति को निर्वसीयत छोड़कर मर जाता है जिसको कोई भी अपनी सगी सन्तान नहीं थी बल्कि उसके परिवार में उसकी सगी बहन एवं सौतेले भाई मौजूद थे। उपरोक्त मामले में उसकी सगी बहन ने अपने मृतक भाई की सम्पत्ति को प्राप्त करने के लिये न्यायालय में अपना दावा प्रस्तुत किया। उसके सौतेले भाई ने न्यायालय के समक्ष यह तर्क दिया कि वह सम्पूर्ण सम्पत्ति प्राप्त करने का अधिकारी है क्योंकि उसकी बहन प्रथम श्रेणी की उत्तराधिकारी नहीं है। प्रस्तुत मामले में न्यायालय ने उसके सौतेले भाई के तर्क को अस्वीकार करते हुये हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 18 के अन्तर्गत यह अभिनिर्धारित किया कि उसकी सगी बहन ही ऐसी सम्पत्ति को प्राप्त करने की अधिकारी होगी क्योंकि सगा सम्बन्धी सौतेले सम्बन्धी की अपेक्षा दाय प्राप्त करने में अधिमान्य होगा।
निर्वसीयत से जब दायादों के सम्बन्ध का स्वरूप एक समान नहीं होता तो यह नियम लागू
कीलू मदन मोहन बनाम गोरकला वरहालू, ए० एल० जे० आंध्र प्रदेश 122 NOCI
नही होता | यदि दायाद गोत्रज है तथा दूसरा बन्धु अथवा सांपाश्विक है अथवा यदि एक दायाद वर्ग
है तथा दूसरा अनुसूची के वर्ग (2) का दायाद है तो सम्बन्ध एक समान नहीं होता और नियम लागू नहीं
नहीं होता। इस प्रकार यदि धारा 13 के अनुसार आरोहण तथा वंशक्रम की डिक्री एक ही है तो उस दशा में भी यह नियम अनुवर्तनीय नहीं होगा। यह एक उल्लेखनीय बात है वर्तमान विधि भी पूर्व हिन्दू विधि के नियमों के अनुरूप है।
लग-भेद के बावजूद पुरुष तथा स्त्री नातेदार जो पूर्ण रक्त से सम्बन्धित हैं अधिरक्त से सम्बन्धित मौतेले नातेदारी की अपेक्षा अधिमान्य होंगे यदि उनके वंश-क्रम की डिक्री एक समान है। धारा मत परुष-स्त्री दायादों में किसी प्रकार का भेदभाव नहीं किया गया है। वामन गोविन्द शिन्दोर नाम गोपाल बाबूराम चक्रदेव के निर्णय में बम्बई उच्च न्यायालय ने पुरुषोत्तम रमन गोकले बनाम बाट रामचन्द्र के निर्णय को निरस्त कर दिया। पुरुषोत्तम रमन गोकले के निर्णय में न्यायालय ने
कहा था कि जहाँ सगी बहिन तथा चचेरी बहिन के बीच उत्तराधिकार का प्रश्न है वहाँ एक सगी दिन चचेरी बहिन को अपवर्जित करेगी। किन्तु जहाँ एक चचेरे भाई तथा सगी बहिन के बीच उत्तराधिकार का प्रश्न है वहाँ चचेरा भाई सगी बहिन को अपवर्जित करेगा और चचेरा भाई उत्तराधिकार ग्रहण करेगा। इस उपर्युक्त मत को वामन गोविन्द शिन्दोर के निर्णय में निरस्त कर दिया गया और यह कहा गया कि यदि पुरुष तथा स्त्री दायाद एक डिग्री के हैं तो उनमें कोई भेद-भाव नहीं किया जायेगा और वे समान रूप से सम्पत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त करेंगे।
पुन: नारायन बनाम पुष्परंजिनी के वाद में केरल उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि जहाँ उत्तराधिकार का प्रश्न सगी बहिन एवं चचेरे भाई के बीच है वहाँ सगी बहिन चचेरे भाई को अपवर्जित करके सम्पत्ति दाय में प्राप्त करेगी।
श्रीमती झुगली टीकम बनाम अपर आयुक्त व अन्य, के वाद में एक हिन्दू स्त्री की निर्वसीयत मृत्यु हो गयी। उस स्त्री के कोई सन्तान नहीं थी। उसके कुटुम्ब में उसकी सगी बहिन तथा सौतले भाई बहिन मौजूद थे। मृत्योपरान्त उसकी सगी बहिन तथा सौतले भाई-बहिनों के बीच सम्पत्ति के बँटवारे के सम्बन्ध में विवाद उठा जिसको न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गयी। उपरोक्त वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ उत्तराधिकार का प्रश्न सगी बहिन एवं सौतेले भाई-बहिनों के बीच हो वहाँ सगी बहिन सौतेले भाई बहिन को अपवर्जित करके सम्पत्ति दाय में प्राप्त करेगी। ___ भँवर सिंह बनाम पूरन एवं अन्य के वाद में सहदायिकी सम्पत्ति के विभाजन पर पुत्र की मौजूदगी पर पत्रि ऐसी सम्पत्ति में हिस्सा प्राप्त करने के लिये दावा नहीं कर सकता, क्योंकि हिन्दू उत्तराधिकार आधानयम की धारा 8 के सामान्य नियमों को देखते हए यह उचित प्रतीत होता है कि निर्वसीयत मरने बाल पुरुष की सम्पत्ति अनसची के खण्ड (1) में निर्दिष्ट क्रमानुसार प्रावधानों के साथ न्यायागत होगी और “चानयम के संलग्न अनुसूची में स्वाभाविक पत्रगण एवं पुत्रियाँ प्रथम श्रेणी के वारिसों में रखे जाते हैं लोकन पौत्र को उस दशा में, जब तक पिता जीवित है सम्मिलित नहीं किया गया है।
दृष्टान्त
(1) एक सगा मामा सौतेले मामा की अपेक्षा अधिमान्य है। सगा चाचा सौतेले चाचा की अपेक्षा
8. मुत्थू स्वामी बनाम मुत्थू कुमार स्वामा, (1936) 23 आई० ए० 831
अधिमान्य होगा।
(2) एक सौतेला चाचा सगे चाचा के पुत्रों की अपेक्षा अधिमान्य होगा, क्योंकि सौतेला चाचा, चाचा के पुत्र की अपेक्षा निकटतर सम्बन्धी है। इस दशा में धारा 18 का नियम लागू नहीं होगा।
संयुक्त आभोगी तथा सह-आभोगी-धारा 19 में यह स्पष्टत: विहित है कि दो या दो से अधिक दायाद सह-आभोगी के रूप में उत्तराधिकार प्राप्त करेंगे न कि संयुक्त आभोगी के रूप में। यह धारा 19 से स्पष्ट होगा जो इस प्रकार है-
“यदि दो या दो से अधिक दायाद निर्वसीयत की सम्पत्ति के एक उत्तराधिकारी होते हैं तो वे सम्पत्ति को
(क) इस अधिनियम में स्पष्ट रूप से प्रदत्त, अन्यथा उपबन्धित को छोड़कर व्यक्तिपरक न कि पितृपरक आधार प्राप्त करेंगे, और
(ख) सामान्य आभोगियों के रूप में न कि संयुक्त आभोगियों के रूप में प्राप्त करेंगे।” अधिनियम के पारित होने के बाद सह-विधवायें तथा दो या दो से अधिक पुत्रियाँ सम्पत्ति संयुक्त आभोगी के रूप में नहीं, किन्तु सह-आभोगी के रूप में ग्रहण करेंगी और पुन: जब कि स्त्री दायाद धारा 14 के अनुसार सम्पत्ति में पूर्ण हक प्राप्त कर लेते हैं तो धारा 15 तथा 16 के अन्तर्गत ऐसी स्त्री की मृत्यु के बाद सम्पत्ति उसके अपने दायादों को चली जायेगी। इस प्रकार सुन्दरमल बनाम सदाशिव वाले वाद में यह कहा गया था कि सह-विधवायें सह-आभोगी की प्रास्थिति में हैं, अत: किसी भी विधवा को यह हक होगा कि वह अतिचारी को निष्कासित करने के लिये सह-विधवा को बिना पक्षकार बनाये हुए वाद संस्थापित करे।।
उच्चतम न्यायालय ने अभी हाल में इस बात की अभिपुष्टि की है कि धारा 19 के अन्तर्गत यह उपबन्धित किया गया है कि दो या अधिक वासियों द्वारा उत्तराधिकार की दशा में प्रति व्यक्ति न कि प्रति शाखा परक सम्पत्ति का न्यागमन होगा और साथ ही वे साम्यिक अभिधारियों के रूप में न कि संयुक्त किरायेदारों के रूप में सम्पत्ति को प्राप्त करेंगे।
गर्भस्थ बालक-धारा 20 में गर्भस्थ बालक के विषय में नियम प्रदान किया गया है जो इस प्रकार है-
“जो बालक निर्वसीयत की मृत्यु के समय गर्भ में स्थित था और तत्पश्चात् जीवित हुआ है, निर्वसीयत के दायभाग के विषय में उसके वही अधिकार होंगे जो यदि निर्वसीयत की मृत्यु से पूर्व उत्पन्न हुआ होता तो उसके होते और ऐसी अवस्था में दाय निर्वसीयत की मृत्यु की तिथि से प्रभावशील होकर उसमें निहित समझी जायेगी।” इस धारा के अनुसार गर्भस्थ बालक उस दशा में दाय प्राप्त करता है, यदि(1) इस प्रकार का बालक निर्वसीयत की मृत्यु के समय गर्भ में आ गया था। (2) इस प्रकार का बालक बाद में जीवित उत्पन्न हुआ था।
यदि उपर्युक्त दोनों शर्ते पूरी हो गयी हैं तो इस प्रकार का बालक उसी प्रकार से दाय प्राप्त कर सकता है जैसे कि वह यदि निर्वसीयत की मृत्यु के पूर्व जीवित होता तो प्राप्त करता। कोई भी पत्र अथवा पुत्री, जो निर्वसीयत की मृत्यु के समय माता के गर्भ में है, विधि की दृष्टि में वह वास्तविक रूप से अस्तित्व में समझा जाता है तथा अपने जन्म के बाद वह ऐसे व्यक्ति को सम्पत्ति से अनिहित कर देता है जिसने कुछ काल के लिये सम्पत्ति ले ली थी और जो सम्पत्ति में उससे ऊपर हक रखता
1.गुरुदास बनाम मोहनलाल दास, 1933 पी० सी० 1411
2. गंगा सहाय बनाम केसरी, 1925 पी०सी० 81
3. ए० आई० आर० 1959 मद्रास 3491
था। समसामयिक मृत्यु-धारा 21 के अन्तर्गत मृत्यु के विषय में उपधारणा बनाई गई है। धारा 21 इस प्रकार है-
“जहाँ दो व्यक्ति ऐसी परिस्थिति में मरे हैं जिसमें यह अनिश्चित है कि क्या उसमें से कोई और यदि कोई रहा हो तो कौन-सा दूसरे की अपेक्षा उत्तरजीवी रहा, वहाँ जब तक कि विरुद्ध न सिद्ध हो, सम्पत्ति के उत्तराधिकार सम्बन्धी सब प्रयोजनों के लिये यह उपधारणा
की जायेगी कि कम आयु वाला अधिक आयु वाले का उत्तरजीवी रहा।” इस धारा में एक उपधारणा उस दशा में निर्मित की जाती है जब कि यह संदिग्धपूर्ण रहता है अथवा वस्तुतः यह असम्भव होता है कि कौन किसका उत्तरजीवी रहा। ऐसी दशा में यह विधिक दृष्टि से मान लिया जाता है कि कनिष्ठ ज्येष्ठ का उत्तरजीवी रहा।
अंश प्राप्त करने के अधिमान्य अधिकार-धारा 22 में इस प्रकार के अधिकार कुछ व्यक्तियों को प्रदान किये गये हैं। धारा 22 इस प्रकार है-
(1) जहाँ अधिनियम के प्रारम्भ होने के बाद निर्वसीयत की किसी अचल सम्पत्ति में अथवा उसके द्वारा या तो अकेले या दूसरे के साथ किये जाने वाले किसी व्यवसाय में हक अनुसूची के वर्ग 1 में उल्लिखित दो या दो से अधिक दायादों को न्यागत होता है तथा ऐसे दायादों में से कोई उस सम्पत्ति अथवा व्यवसाय में अपने हक के लिये हस्तान्तरण की प्रस्थापना करता है, वहाँ ऐसे हस्तान्तरित किये जाने के लिए प्रस्थापित हित को अर्जित करने का अधिमानपूर्ण अधिकार दूसरे दायाद को प्राप्त होगा। बम्बई उच्च न्यायालय ने एक मामले में इस बात की अभिपुष्टि की कि उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 22 का प्रावधान तब तक लागू नहीं होगा जब तक ऐसी पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में बँटवारे की बात दायादों द्वारा उठायी न गई हो।
(2) इस धारा के अन्तर्गत, मृतक की सम्पत्ति में कोई हक जिस प्रतिफल के लिए हस्तान्तरित किया जा सकेगा, वह पक्षकारों के मध्य किसी करार के अभाव में इस उद्देश्य से अपने से किये गये आवेदन पर न्यायालय द्वारा अवधारित किया जायेगा और यदि हक को अर्जित करने के लिए प्रस्तुत न हो तो ऐसा व्यक्ति आवेदक के, या उससे प्रासंगिक सब व्यय को देने के लिये दायित्वाधीन होगा।
(3) यदि इस धारा के अन्तर्गत किसी हक के अर्जित करने की प्रस्थापना करने वाले अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित दो या दो से अधिक दायाद हों तो उस दायाद को अधिमान्यता प्रदान की जायेगी जो हस्तान्तरण के लिये सर्वाधिक प्रतिफल देने के लिये पेशकश करता है-
व्याख्या-इस धारा में न्यायालय से वह न्यायालय अभिप्रेत है जिसके क्षेत्राधिकार की सीमाओं के अन्तर्गत वह अचल सम्पत्ति स्थित है या व्यवसाय किया जाता है। यह ऐसे अन्य न्यायालय को साम्मालत करता है जिसे कि राज्य सरकार राजकीय गजट में अधिसूचना द्वारा इस निमित्त उल्लिखित करे।
अनुसूची के वर्ग (1) के एक या एक से अधिक सदस्यों का हक अर्जित करने का अधिकार अन्य सह-दायाद इस धारा के अन्तर्गत प्राप्त करते हैं. पूर्वक्रय का अधिकार नहीं वरन् सम्पात का आधकार है। वस्तुत: पूर्वक्रय का अधिकार मुस्लिम विधि की देन है। हिन्दू विधि को अर्जित करने का अधिकार है। वस्तुतः पूवक्रय
1. मेन की हिन्दू विधि, बयवा बनाम पारोतबा, 1933 बम्बई 126 भी दाखए
में इस प्रकार के अधिकार का कोई उल्लेख नहीं प्राप्त होता है। इस सम्बन्ध में, स्मृतियाँ तथा भाष्य दोनो मौन है। देश के कुछ भाग में पूर्वक्रय का अधिकार प्रथाओं के ऊपर आधारित होने के कारण मान्य समझा जाता था। कुछ प्रान्तो में हकशुफा (पूर्वक्रय) का अधिकार अधिनियम द्वारा संहिताबद्ध कर दिया गया है। अत: वह उस प्रदेश की मान्य विधि के अन्तर्गत आ जाता है और सभी व्यक्तियों के लिये लागू होता है।
यह अधिकार सहदायाद के सम्बन्ध में लागू होता है और वह भी, जब दायाद अनुसूची के वर्ग (1) के दायाद हो। मुस्लिम विधि में शफी शरीफ ही हकशुफा के अधिकार का दावा कर सकता है।
इस धारा के अन्तर्गत पूर्वक्रय के अधिकार के अधिमान्य होने के लिए विहित शतों को पूरा करना आवश्यक है। यह व्यक्तिगत अधिकार है जो भूमि आदि से सम्बन्धित नहीं है। ये शर्ते इस
(1) वर्ग (1) के दायादों को ही प्राप्त है—अधिनियम में उल्लिखित सहदायादों में यह अधिकार अनुसूची के वर्ग (1) के दायादो को ही प्रदान किया गया है। यह अधिकार वर्ग (2) के दायादो या गोत्रजो या बन्धुओं को नहीं प्रदान किया गया है।’
(2) हस्तान्तरण के समय उपलब्ध होता है-यह तभी उपलब्ध होता है जब कि एक सह-दायाद सम्पत्ति में अथवा व्यवसाय में अपने हक को हस्तान्तरित करने की प्रस्थापना करता है। जब ऐसी प्रस्थापना सह-दायाद करता है तो निकट के दूसरे दायाद को यह अवसर दिया जाता है कि वह किसी अन्य व्यक्ति को अपवर्जित करके अपनी सुविधानुसार सम्पत्ति को ग्रहण कर ले। यह ‘हस्तान्तरण’ शब्द एक विस्तृत अर्थ में प्रयोग किया गया है जो विक्रय, दान, विनिमय अथवा अन्य किसी तरीके के हस्तान्तरण को सम्मिलित करता है जिससे सम्पत्ति अथवा व्यापार के हक को हस्तान्तरित कर दिया जाता है।
(3) प्रतिफल-हस्तान्तरण पूर्व करार के प्रतिफल के आधार पर ही निश्चित किया जाता है। यदि प्रतिफल पक्षकारों में नहीं तय होता तो न्यायालय द्वारा वह आवेदनपत्र पर निर्धारित किया जायेगा। आवेदन किसी पक्षकार द्वारा किया जा सकता है।
(4) न्यायालय जहाँ आवेदनपत्र दिया जायेगा-निम्नलिखित न्यायालयों में आवेदनपत्र दिये जा सकते है-
(1) वह न्यायालय जिसके क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत
(अ) अचल सम्पत्ति स्थित है।
(ब) व्यवसाय किया जा रहा है। (2) राज्य सरकार द्वारा अधिसूचना में उल्लिखित न्यायालय।
(5) सर्वाधिक प्रतिफल देने वाले को अधिमान्यता-उपधारा (3) में यह नियम विहित किया गया है कि सह-दायादों में सर्वाधिक प्रतिफल देने की पेशकश करने वाले को अधिमान्यता प्रदान की जायेगी। इस सम्बन्ध में अधिमान्यता इस आधार पर नहीं दी जायेगी कि उसने सर्वाधिक प्रतिफल देने की पेशकश पहले की अथवा कौन अधिक निकट का नातेदार है। इस उपधारा के अन्तर्गत बाहरी व्यक्ति की पेशकश नहीं मानी जाती।
मल्ला के अनुसार, यह धारणा उचित शब्दों में लेखबद्ध नहीं है। इसमें यह नहीं बताया गया है कि अधिमान्यता का अधिकार कब और कैसे प्रयोग किया जायेगा। इस धारा का चयन शिथिल शब्दों में किया गया है तथा हस्तान्तरण’ शब्द का प्रयोग कुछ कठिनाइयाँ उत्पन्न कर सकता है।
कदाचित यह ‘हस्तान्तरण’ शब्द पूरी तौर से सम्पत्ति बेच देने के आशय में प्रयुक्त है। किन्तु ऐसे तरीके प्रयोग किये जा सकते हैं जिनसे इस धारा में उल्लिखित उद्देश्य समाप्त किया जा सकता
निवास-गृह के विषय में विशेष उपबन्ध-धारा 23 में यह उपबन्ध किया गया है-“जहाँ निमीयत हिन्दू अनुसूची के वर्ग (1) में उल्लिखित पुरुष और स्त्री दायाद को अपने पीछे उत्तरजीवी कोडता है और उसकी सम्पत्ति में उसके अपने परिवार के सदस्यों के पूर्णत: दखल में कोई निवास-गृह सम्मिलित है, वहाँ इस अधिनियम में किसी बात के अन्तर्विष्ट होते हुए भी किसी ऐसे स्त्री दायाद के निवास-गृह के विभाजन करने के दावे का अधिकार तब तक उत्पन्न नहीं होगा जब तक कि पुरुष टायाद उसमें अपने क्रमागत अंशों का विभाजन पसन्द न करे, किन्तु स्त्री दायाद उसमें निवास करने के लिए हकदार होगी।”
परन्तु जहाँ ऐसी स्त्री दायाद पुत्री है, वहाँ वह निवास-गृह में निवास करने के अधिकार के लिए उसी दशा में हकदार होगी जब कि वह अविवाहित है अथवा अपने पति द्वारा परित्यक्त कर दी गई है या उनसे पृथक हो गयी है या विधवा है। इस प्रकार कोई भी विवाहिता पुत्री परिवार के निवास-गृह में निवास करने का अधिकार नहीं रखती।
स्त्री दायाद का विभाजन करने का अधिकार-संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को सुरक्षित रखने के लिए धारा 23 में यह उपबन्ध प्रदान किया गया है कि एक हिन्द्र स्त्री, यद्यपि परिवार के निवास-गृह में, जो परिवार के सदस्यों के पूर्ण कब्जे में है, रहने की अधिकारिणी हो सकती है; किन्तु वह विभाजन के लिए तब तक दावा नहीं कर सकती जब तक कि पुरुष दायाद स्वयं सम्पत्ति के विभाजन तथा अपने अंश को अलग करना पसन्द न करे। यह धारा तभी लागू होती है जबकि निवास-गृह या तो पुरुष निर्वसीयत द्वारा या स्त्री निर्वसीयत द्वारा छोड़ा गया हो तथा निर्वसीयत ने अपने पीछे के वर्ग (1) में के स्त्री अथवा पुरुष दायाद को उत्तरजीवी छोड़ा है।
मुखन शाह बनाम राधा देवी व अन्य के वाद में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू संशोधन अधिनियम के पूर्व धारा 23 के अन्तर्गत कोई भी हिन्दू स्त्री जो प्रथम वर्ग की सूची के अन्तर्गत आती हो तथा वह अपने पिता के निवास गृह में रह रही हो तो विभाजन में वह सम्पत्ति तभी प्राप्त कर सकती है जब ऐसी सम्पत्ति के विभाजन की बात पुरुष दायादों द्वारा उठायी गयी हो।
जानकी अम्मल बनाम टी० ए० एस० पलानी मदालियर के वाद में मद्रास उच्च न्यायालय न यह अभिनिर्धारित किया कि स्त्री दायाद द्वारा संयुक्त हिन्दू-परिवार के निवास स्थान में विभाजन तभी माना जा सकता है जबकि संयुक्त परिवार के अन्य पुरुष सदस्य सम्पत्ति के विभाजन को चाहते हों। स्ना दायाद के विभाजन सम्बन्धी अधिकार पर यह नियन्त्रण तभी तक आरोपित नहीं है जब तक संयुक्त परिवार में पुरुष दायाद एक से अधिक हैं, बल्कि एक ही पुरुष सदस्य के होने पर भी जब तक वह नहीं चाहता, स्त्री दायाद संयुक्त परिवार के निवास स्थान में विभाजन नहीं करवा सकती।
किन्तु बम्बई उच्च न्यायालय ने मद्रास उच्च न्यायालय से भिन्न मत इस धारा की व्याख्या के सम्बन्ध में व्यक्त किया है। अनन्त गोपाल राव शिन्डे बनाम जानकी बाई गोपाल राव’ के इस वाद म न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई पुरुष हिन्द निर्वसीयत केवल एक पुरुष दायाद आर अन्य स्त्री दायादों को छोड़कर मरता है तो वहाँ स्त्री दायाट धारा 23 के अधीन निवास-गृह का बटवारा करवा सकती है। स्त्री दायादों के बँटवारा सम्बन्धी अधिकार पर तभी तक नियन्त्रण तथा प्रतिबन्ध
1. गणेश चन्द्र बनाम रुक्मिणी, ए० आई० आर० 1971 उड़ीसा 651
है जब तक अन्य सभी पुरुष दायाद संयुक्त स्थिति को समाप्त नहीं कर देना चाहते। किन्तु जहाँ एक हो पुरुष दायाद है वहाँ संयुक्त परिवार नहीं कहा जा सकता और न ही संयुक्त परिवार का निवास-गृह, वहाँ सो दायाद के उस गृह के बँटवारा सम्बन्धी अधिकार को टाला नहीं जा सकता और न ऐसा करने का उद्देश्य ही इस धारा में आशयित है। यदि हम इसके विपरीत इस धारा का अर्थ निकालते है अर्थात् एक ही पुरुष दायाद की स्थिति में भी वह गृह का बँटवारा तब तक नहीं करवा सकती जब तक कि वह पुरुष दायाद न चाहे तो उस स्थिति में इस धारा का सहज एवं स्वाभाविक अर्थ समाप्त हो जाता है तथा सो दायाद में निहित हक जो वह पुरुष दायाद के साथ धारण करती है, निकभावी हो जाता है।
न्यायालय ने पुनः यह बतलाया कि धारा 23 की व्याख्या में एक मात्र पुरुष दायाद तथा स्त्री दायादों के मध्य को कठिनाइयों का तुलनात्मक विचार करने का उद्देश्य नहीं है। जहाँ एक मात्र पुरुष दायाद है और उसकी सौतेली बहिन अथवा भतीजी इस प्रकार दो ही वर्ग 1 के दायाद है, वहाँ खी दायाद को इच्छा पर बँटवारा न कराने पर स्त्री दायादों की कठिनाइयाँ पुरुष दायाद की अपेक्षा अधिक होगी क्योंकि वह स्त्री दायाद विधि द्वारा प्रदत्त एक प्रकार के अधिकार से वंचित रहेगी।
बम्बई उच्च न्यायालय ने उपर्युक्त मत का समर्थन उड़ीसा न्यायालय के निर्णय, महन्ती मतपालू बनास ओलुरू अप्पनम्मा के मामले में किया है। न्यायालय का कथन है कि जहाँ एक ही पुरुष दायाद है और उसके साथ अन्य स्रो दायाद है वहाँ वह स्त्री दायाद अपने अंश का विभाजन आवास-गृह में करवा सकती है क्योंकि उस स्थिति में इस धारा के अन्तर्गत उसको विभाजन के अधिकार से वंचित नहीं किया गया है। यदि एकमात्र पुरुष दायाद को ही इस प्रकार की परिस्थिति में विभाजन करवाने का अधिकार दे दिया जायेगा तो वह विभाजन कभी नहीं करवायेगा और स्त्री दायाद को उस स्थिति में विभाजन करवाने के अधिकार से वंचित करना या उसको इन्कार करने का आशय यह होगा कि आवास-गृह में उसके अधिकार को व्यावहारिक रूप से सदैव के लिये समाप्त कर देगा।
इस सम्बन्ध में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने श्रीमती पुष्पा मुकर्जी बनाम स्मृतिना मुकर्जी व अन्य के मामले में न्यायालयों के मतभेद को समाप्त करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्द्र उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के पश्चात् अब महिलाओं को अनुसूची (1) में स्थान प्राप्त हो चुका है, अब ऐसी स्त्रियाँ, हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 23 के अन्तर्गत अपनी पैतृक समत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में किसी भी समय माँग कर सकती हैं।
लेकिन यदि ऐसी सम्पत्ति का विभाजन उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के पूर्व हो चुका है तो ऐसी सम्पत्ति में विभाजन हेतु पुनः 2005 के अधिनियम के पश्चात् वाद नहीं ला सकती।’
पुनः यह धारा केवल ऐसे निवास-गृह के सम्बन्ध में लागू होती है जो परिवार के सदस्यों द्वारा उसके कब्जे में हो। यहाँ परिवार’ शब्द निर्वसीयत के परिवार के अर्थ में प्रयुक्त किया गया है।
स्त्री दायाद के निवास-गृह सम्बन्धी अधिकार-इस धारा में स्त्री दायाद के निवास-गृह का अधिकार संरक्षित रखा गया है। पृथक् निवास-गृह का दावा करने में स्त्री-दायाद यह कह सकती है कि वह निवास-गह के विशेष भाग को अपनाना चाहती है। पुत्री निवास-गृह की माँग तभी कर सकती है जब कि वह अविवाहित दशा में है, अथवा अपने पति द्वारा परित्याग कर दी गई है अथवा अपने पति से पृथक् हो गई है अथवा वह विधवा है।
सम्पत्ति का राजगामी होना-अधिनियम की धारा 29 के अनुसार यदि कोई निर्वसीयत ऐसी
किसी दायाद को बिना जोड़े हुए मर जाता है जो उसकी सम्पत्ति को इस अधिनियम के अनुसार दाय में प्राप्त करने के योग्य होता है तो सम्पत्ति राजगामी होकर सरकार में निहित हो जायेगी तथा सरकार सम्पत्ति को उन सभी दायित्वों एवं आभारों के साथ ग्रहण करेगी, जैसे उसके दायाद ग्रहण करते, यदि वे अस्तित्व में होते।
वसीयती उत्तराधिकार-यह अधिनियम वसीयती उत्तराधिकार के विषय में कोई विशेष बात नहीं प्रदान करता। इस सम्बन्ध में भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 में अन्तर्विष्ट उपबन्ध जहाँ तक सम्भव है, लागू होता है। धारा 30 में यह कहा गया है कि कोई हिन्दू इच्छापत्र द्वारा अथवा अन्य वसीयती व्ययन द्वारा किसी सम्पत्ति का निर्वर्तन कर सकता है जिसको वह भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 के उपबन्धों के अनुसार निर्वर्तित कर सकता था। धारा 30 के अध्ययन से यह बात स्पष्ट हो जायेगी। धारा 30 इस प्रकार है
(1) कोई हिन्दू ऐसी सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा अथवा अन्य वसीयती व्ययन द्वारा भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम, 1925 या हिन्दुओं के लिये प्रवर्तित और किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि के उपबन्धों के अनुकूल व्ययित कर सकेगा जो ऐसे व्यक्ति द्वारा व्ययित किये जा सकने योग्य है।’
व्याख्या–मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में पुरुष हिन्दू का हक या तारवाड, तावषि, इल्लम, कुटुम्ब या कवरू की सम्पत्ति में तारवाड, तावषि, इल्लम, कुटुम्ब या कवरू के सदस्य का हक इस अधिनियम में अथवा किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि में किसी बात के होते हुए भी इस उपधारा के अर्थों में स्वयं द्वारा व्ययन-योग्य सम्पत्ति समझा जाएगा।
(2) “हिन्द दत्तक-ग्रहण तथा भरण-पोषण अधिनियम (अधिनियम सं० 78, 1956) की धारा द्वारा निरसित।”
दान वसीयती व्ययन का स्वरूप नहीं ले सकता। सम्पत्ति में अविभक्त हित अथवा अंश का दान शून्य होता है किन्तु यदि अन्य सहदायिक इस आशय की सहमति प्रदान कर देते हैं अथवा असामान्य परिस्थिति हो तो दान वैध हो सकता है।
अब इस धारा के अन्तर्गत किसी पुरुष हिन्दू को सहदायिकी में अपने अविभक्त अंश और हित को वसीयती कथन द्वारा देने का अधिकार प्रदान कर दिया गया है।’
वसीयत द्वारा या पुरानी हिन्दू विधि के अन्तर्गत अन्य वसीयती दस्तावेज द्वारा सम्पत्ति में उसके अविभाज्य हित को निपटाने में किसी सहदायिक की असमर्थता को धारा 30 द्वारा समाप्त कर दिया गया है और अब जीवित सहदायिक वसीयत द्वारा अपनी सम्पत्ति वसीयत में दे सकेगा।
वसीयती व्ययन द्वारा निर्वर्तित की जाने योग्य सम्पत्ति इस विषय का अध्ययन निम्नलिखित दो उपशीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है
(1) अधिनियम के पूर्व की स्थिति, (2) अधिनियम के बाद की स्थिति।
(1) अधिनियम के पूर्व की स्थिति(अ) दायभाग विधि के अन्तर्गत कोई हिन्दू अपनी पृथक् एवं सहदायिकी सम्पत्ति में के अंश
को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता था। (ब) मिताक्षरा विधि में कोई भी हिन्दू अपनी पृथक अथवा स्वार्जित सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता था, किन्तु सहदायिकी सम्पत्ति में अपने अंश का अन्य सहदायिकी
1. हिन्दू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 अधिनियम संख्या 39 द्वारा प्रतिस्थापत।
(स) एक हिन्दू स्त्री किसी ऐसी सम्पत्ति को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकती थी जो उसके अपने जीवन काल में उसकी पूर्ण सम्पत्ति थी और उसके कब्जे में थी। इस प्रकार वह ऐसी सम्पत्ति निर्वर्तित नहीं कर सकती थी जो उसकी सीमित सम्पत्ति थी।
(द) कोई हिन्दू इच्छापत्र द्वारा किसी अविभाज्य सम्पत्ति को भी निर्वर्तित कर सकता था जब तक कोई ऐसी प्रथा न हो जो ऐसे निर्वर्तन अथवा अन्यसंक्रामण को वर्जित करती हो अथवा जिसके अनुसार भूधृति (Tenure) का अन्यसंक्रामण नहीं किया जा सकता था।
(2) अधिनियम के बाद की स्थिति—अधिनियम ने इच्छापत्र द्वारा सम्पत्ति के निर्वर्तन के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाये हैं। अब स्थिति इस प्रकार है-
(अ) पुरुष हिन्दू मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति में अपने अंश को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकने के लिये समर्थ बना दिया गया है। इस प्रकार कोई भी हिन्दू, चाहे वह दायभाग विधि से अथवा मिताक्षरा विधि से प्रशासित हो, सहदायिकी सम्पत्ति में भी अपने हक को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता है। इस प्रकार के प्रावधान का उद्देश्य संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को छिन्न-भिन्न होने से बचाना है।
(ब) प्रथात्मक अविभाज्य सम्पदा का भी इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तन किया जा सकता है।
(स) स्त्री-सम्पदा समाप्त कर दी गई और अब इस प्रकार की सम्पदा यदि किसी स्त्री के कब्जे में है तो वह सम्पूर्ण स्वामिनी बना दी गई है। अब वह इच्छापत्र द्वारा सभी सम्पत्तियों का निर्वर्तन कर सकती है। तारवाड, तावषि, कुटुम्ब, कवरू, इल्लम् एवं स्थानम् की सम्पत्ति का भी निर्वर्तन इच्छापत्र द्वारा किया जा सकता है।
निरसन-अधिनियम की धारा 61 ने हिन्दू दाय विधि (संशोधन) अधिनियम, 1929 को भी निरसित कर दिया।
1. लालता प्रसाद बनाम महादेव जी, 42 इलाहाबाद 461; केशल लाल बनाम बाई देवी, 44 बी० एल० आर० 839; लक्ष्मण बनाम रामचन्द्र, 71 आई० ए० 1811
2. लालता प्रसाद बनाम महादेवी जी, 42 इलाहाबाद 461; केशव लाल बनाम बाई देवी, 44 बी० एल० आर० 839; लक्ष्मण बनाम रामचन्द्र, 71 आई० ए० 1811
LLB Hindu Law Chapter 8 Post 1 Book Notes Study Material PDF Free Download : Hello Friends आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books Notes Study Material Part 2 अन्धिनिय्मित पूर्व हिन्दू विधि Chapter 8 संयुक्त परिवार तथा मिताक्षरा सह्दायिकी सम्पत्ति Post 1 पढ़ने जा रहे है जिसे आप Free PDF Hindi and English Language में Download भी कर सकते है | अभ्यर्थियो को निचे LLB 1st, 2nd, 3rd year Notes Free PDF में दे रहे है जहाँ से आप LLB All Semester Books Free PDF Download कर सकते है |
भाग 3 अनधिनियमित पूर्व हिन्दू विधि (Hindu Law Notes)
अध्याय 8 संयुक्त परिवार तथा मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति (Hindu law Books PDF)
संयुक्त परिवार : प्रकृति एवं संगठन संयुक्त परिवार हिन्दुओं की एक अति प्राचीन संस्था है जो हिन्दू-समाज के लिये एक विशेष बात है। अति प्राचीन काल से हिन्दू संयुक्त परिवार में रहने के अभ्यस्त थे। संयुक्त परिवार की परिभाषा में वे सभी व्यक्ति आते हैं जिनसे परिवार निर्मित होता है। इस प्रकार एक समान पूर्वज से उत्पन्न हुये व्यक्ति तथा उनकी पत्नियाँ एवं अविवाहित पुत्रियाँ संयुक्त परिवार की सदस्या मानी जाती हैं। पुत्री विवाहित होने पर अपने पिता के परिवार की सदस्या नहीं रह जाती अपितु वह अपने पति के परिवार की सदस्या हो जाती है। एक संयुक्त परिवार के विषय में कहा जाता है कि संयुक्त सम्पदा उसका आवश्यक लक्षण नहीं है। किसी सम्पदा के रहने पर भी परिवार संयुक्त हो सकता है। सामान्यतः हिन्दू परिवार संयुक्त होता है, न केवल सम्पदा के सम्बन्ध में वरन् उपासना तथा भोजन के सम्बन्ध में भी।
मिताक्षरा विधि में सम्पत्ति का होना संयुक्त परिवार का आवश्यक लक्षण नहीं है। किन्तु जहाँ लोग संयुक्त रूप में रहते हैं तथा संयुक्त रूप से भोजन करते और उपासना करते हैं, वहाँ यह धारणा बनाना न्यायसंगत नहीं प्रतीत होता है कि उनके पास कोई सम्पत्ति नहीं है। मिताक्षरा विधि में संयुक्त परिवार की एक उपधारणा मानी जाती है। परिवार की समस्त सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति होती है।
संयुक्त हिन्दू परिवार उन सभी पुरुष सदस्यों से जो एक समान पूर्वज की सन्तान हैं तथा उनकी माता, पत्नी अथवा विधवा तथा अविवाहित पुत्रियों से निर्मित होता है, यह सपिण्डता के मूल सिद्धान्त पर आधारित होता है। विशिष्ट पारिवारिक सम्बन्ध इस संस्था की विशेषता है। यह संस्था विधि की रचना है जो उन अवस्थाओं को छोड़कर जिनमें दत्तक-ग्रहण तथा विवाह के द्वारा संयुक्त परिवार का निर्माण होता है, अन्य किसी दशा में सदस्यों की कृतियों से निर्मित नहीं हो सकता।
श्रीमती संध्या रानी दत्ता बनाम आयकर अधिकारी, बिहार के मामले में अपीलार्थी दाय भाग शाखा की एक हिन्दू विधवा थी जो कि अपनी दो पुत्रियों के साथ अपने पति की स्वअर्जित सम्पत्ति की बराबर की हिस्सेदार थी। मृतक पिता एवं उनकी पुत्रियों ने सन् 1973 में पारस्परिक करार द्वारा एक संयुक्त हिन्दू परिवार का गठन किया। सम्पत्ति के विभाजन के पश्चात् विधवा ने उत्तराधिकार में प्राप्त अपने हिस्से को संयुक्त हिन्दू परिवार में समाहित कर दिया। इस घोषणा के पश्चात् विधवा ने अपनी सम्पत्ति आयकर की संगणना हेतु नहीं किया जिससे आयकर अधिकारियों ने उसे ऐसा न करने
2. करसनदास बनाम गंगाबाई, 32 बा० 479; गोवली पुदन्ना बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स, (1966) 60 आई०टी० आर० 293 (एक संयुक्त परिवार केवल एक पुरुष सदस्य तथा मृत पुरुष सदस्यों की विधवाओं द्वारा निर्मित हो सकता है
4.देखें टाइम्स ऑफ इण्डिया (लखनऊ) दिनांक 2/03/20011
के लिये दोषी पाया. विधवा ने उक्त आदेश के विरुद्ध एक अपील उच्च न्यायालय में दायर किया जिसमें उच्च न्यायालय ने विधवा के पक्ष में निर्णय देते हये कहा कि वह विधवा परिवार में अन्य महिला उत्तराधिकारी के साथ संयुक्त हिन्दू परिवार का गठन कर सकती है परन्तु इस निर्णय के विरुद्ध की गयी अपील को उच्चतम न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय के निर्णय को अस्वीकार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया कि हिन्दू विधि में महिला उत्तराधिकारी द्वारा करार के माध्यम से संयुक्त हिन्दू परिवार का निर्माण हिन्दू विधि के मौलिक नियमों से सर्वथा विपरीत होगा अतः जहाँ पुरुष सदस्य का अभाव है वहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार का निर्माण नहीं किया जा सकता।
संयुक्त हिन्दू परिवार के लिये यह आवश्यक है कि उसमें कम से कम दो व्यक्ति हो अर्थात् एक अविवाहित पुरुष भी हिन्दू संयुक्त परिवार की स्थापना नहीं कर सकता। यदि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति विभाजित की जाती है तो विभाजन के उपरान्त प्राप्त सम्पत्ति उसकी स्व-अर्जित सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्तिा लेकिन जहाँ संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में किसी एक सहदायिक को ऐसी सम्पत्ति पट्टे पर दे दिया जाता है जो उसे व्यक्तिगत तौर नहीं दी गई है, यदि ऐसा संयुक्त परिवार विभाजित होता है तो उस स्थिति में पट्टे पर दी गई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सम्मिलित हो जायेगी और वह सम्पत्ति उन सदस्यों के बीच विभक्त हो जायेगी जो उस परिवार के सदस्य है।
पुरुष
संयुक्त परिवार के सदस्य-संयुक्त परिवार में निम्नलिखित सदस्य सम्मिलित है-
(1) वे पुरुष जो पुरुष वंशानुक्रम में आते है.4
(2) साम्पाश्विक
(3) दत्तक-ग्रहण से सम्बन्धित
(4) दीन आश्रित, तथा
(5) यह उन पुत्रों को भी सम्मिलित करता है जो विशेष विवाह अधिनियम के अन्तर्गत एक हिन्दू पुरुष तथा ईसाई माता से उत्पन्न हुए हैं।
स्त्री
(1) पुरुष सदस्यों की पत्नी एवं विधवा पत्नी, तथा
(2) उसकी कुमारी पुत्रियाँ।
संयुक्त परिवार की एक यह भी विशेषता है कि इसमें अवैध सन्ताने भी सम्मिलित मानी जाती है। वे अपने पिता के परिवार की सदस्य मानी जाती है। कभी-कभी विधवा (विवाहित) पुत्रियाँ, जो पिता के परिवार में आकर रहने लगती है, संयुक्त परिवार की सदस्या मान ली जाती हैं और उन्हें भरण-पोषण का हक उत्पन्न हो जाता है।
परिवार की संयुक्तता-सम्बन्धी उपधारणा-यह एक सामान्य उपधारणा हिन्दुओं के परिवार के बारे में होती है कि वे संयुक्त है। यह संयुक्तता (Jointers) खान-पान, पूजा-अर्चना एवं सम्पत्ति के सब में होती है। इस प्रकार की उपधारणा निकट के सम्बन्धियों के बीच में ही होती है जैसे भाइयों
के बीच, पिता पुत्र के बीच।’ उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा कि यह सामान्य बात है कि प्रत्येक हिन्दू परिवार संयुक्त माना जाता है। एक हिन्दू परिवार में जब तक विपरीत साबित न किया जाय परिवार संयुक्त बना हुआ समझा जाता है। यदि कोई पुराना विभाजन का तर्क लेता है तो उसे यह साबित करना पड़ेगा कि पुराने समय में विभाजन हुआ था। निम्नलिखित प्रमुख उपधारणों से यह निर्धारित किया जा सकता है कि परिवार संयुक्त है अथवा विभाजित, कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है या किसी विशेष सहदायिक की
(1) प्रत्येक हिन्दू परिवार के विषय में यह उपधारणा है कि सम्पदा, उपासना तथा भोजन के सम्बन्ध में वह संयुक्त है, अत: प्रमाण-भार उस व्यक्ति के ऊपर होता है जो विभाजन का तर्क प्रस्तुत करता है। परिवार के सदस्य अलग-अलग निवास-गृह में रह सकते हैं अथवा भोजन पृथक् रूप से कर सकते हैं, फिर भी वे सम्पदा के सम्बन्ध में संयुक्त रह सकते हैं। यद्यपि पृथक् निवास तथा भोजन परिवार के विभाजन का अन्तिम प्रमाण नहीं है। फिर भी यह एक ऐसा तथ्य है जो विभाजित होने की स्थिति में निश्चित करने में अत्यधिक सहायक होता है। परिवार के एकीकृत होने की उपधारणा परिस्थितियों के परिवर्तन के अनुसार बदलती रहती है। यदि मामला भाइयों के बीच में है, तो यह उपधारमा सबल होती है कि परिवार संयुक्त है, किन्तु यदि मामला चचेरे भाइयों के बीच अथवा अन्य भाइयों या इसी प्रकार के सम्बन्धियों के बीच में है तो उपधारणा सबल नहीं होती है।
(2) कोई परिवार यदि एक बार संयुक्त हुआ मान लिया जाता है अथवा उसके संयुक्त होने का प्रमाण प्राप्त हो जाता है तो विभाजन के अभाव में, वह संयुक्त मान लिया जाता है। सगे भाइयों के सम्बन्ध में एक दृढ़ उपधारणा होती है कि वे संयुक्त होंगे। यह साबित करना कि वे संयुक्त हिन्दू परिवार की संरचना नहीं करते, उसके ऊपर है जो उसके संयुक्त न होने की बात कहता है।
(3) जब यह सिद्ध किया जाता है अथवा मान लिया जाता है कि विभाजन सम्पन्न हो चुका है तो जो व्यक्ति सम्पत्ति के संयुक्त होने की बात करता है, उसे सिद्ध करने का प्रमाण-भार उसी पर होता है।
(4) जहाँ यह सिद्ध किया जाता है कि परिवार संयुक्त है अथवा उसमें सम्पत्ति संयुक्त है, तो यह उपधारणा निर्मित की जाती है कि सभी सम्पत्ति जो परिवार के पास है, संयुक्त है; किन्तु इस तथ्य से कि परिवार संयुक्त है, यह उपधारणा नहीं बनायी जा सकती है कि उसके पास संयुक्त सम्पत्ति अथवा कोई सम्पत्ति है।
प्रमाण-भार—जब यह प्रमाणित कर दिया जाता है कि पूरा परिवार एक ही निवास-गृह में संयुक्त रूप से रहता है, तो जो व्यक्ति उसके विभाजित होने का दावा करता है, प्रमाण-भार उसी व्यक्ति पर होता है; किन्तु इससे सम्बन्धित विधि परिस्थितियों के अनुसार बदलती रहती है। अत: प्रत्येक परिस्थिति को सन्नियन्त्रित करने के लिए विधि का कोई एक साक्ष्य स्थापित नहीं किया जा सकता।
जहाँ किसी विशेष सम्पत्ति को अर्जित करने की तिथि को संयुक्त परिवार के पास पर्याप्त साधन था, वहाँ पर किसी एक सदस्य के नाम से उसके होने पर यह उपधारणा निर्मित की जाती है कि वह परिवार के संयक्त कोश से अर्जित की गई है। अत: वह संयुक्त परिवार की सम्पदा है जब तक कि उसके विपरीत न सिद्ध कर दिया जाय। परिवार के सभी सदस्यों के व्यक्तिगत नाम में जो सम्पत्ति
अर्जित की गई रहती है, वह संयुक्त सम्पत्ति नहीं निर्मित करती। जो कोई सदस्य ऐसी अर्जित सम्पनि को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति घोषित करता है उसको सम्पत्ति का केन्द्र बिन्दु प्रमाणित करना पड़ेगा। जहाँ वह यह साबित नहीं कर सकता, उपधारणा उसके विपरीत होगी। _संयुक्त परिवार का प्रबन्ध–संयुक्त परिवार के कार्यों का प्रबन्ध परिवार का ज्येष्ठ सदस्य करता है जिसको प्रबन्धक अथवा कर्त्ता कहते हैं। यदि पिता जीवित है तो साधारणतः वही संयुक्त परिवार का कर्ता होता है। वह परिवार का प्रतिनिधि माना जाता है तथा प्रबन्ध के मामले में सर्वोच्च है। इस सम्बन्ध में यह भी एक उपधारणा है कि परिवार का सबसे ज्येष्ठ सदस्य ही संयुक्त परिवार का कर्ता माना जायेगा।
संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का उपभोग-हिन्द मिताक्षरा संयुक्त परिवार के प्रत्येक सदस्य को कुछ निश्चित अधिकार, जैसे—(1) भरण-पोषण तथा निवास का अधिकार, (2) विभाजन का अधिकार, (3) परिवार के लेखा-जोखा का विवरण माँगने का अधिकार तथा (4) संयुक्त कब्जा तथा भोग का अधिकार
प्यूनिसपल कार्पोरेशन ग्वालियर बनाम पूरन सिंह, के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह निश्चित किया कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति के अन्तर्गत सभी सहभागियों की सम्पत्ति संयुक्त होती है और ऐसी सम्पत्ति में उन सभी का संयुक्त कब्जा तथा भोग का अधिकार प्राप्त होता है जो किसी साक्ष्य के माध्यम से सिद्ध किया जा सकता है कि ऐसी सम्पत्ति में सभी सहभागियों का समान रूप से कब्जा मौजूद है
हिन्दू सहदायिकी वस्तृतः एक हिन्दू सहदायिकी संयुक्त परिवार की अपेक्षा एक छोटी संस्था है। यह केवल उन्हीं सदस्यों को सम्मिलित करती है जिनको जन्म से संयुक्त अथवा सहदायिकी सम्पत्ति में हक प्राप्त होता है। उच्चतम न्यायालय ने भी नरेन्द्र बनाम डब्ल्यू० टी० कमिश्नर के वाद में यह निरूपित किया है कि हिन्दू सहदायिकी एक लघु संगठन है जिसमें सहदायिकी सम्पत्ति में हक रखने वाले वे पुरुष सन्तान आते हैं जो तीन पीढ़ी तक के वंशानुक्रम में हैं।
समान पुरुष पूर्वज से पुरुष-वंशानुक्रम में उत्पन्न हुये तीन पीढ़ी तक के सदस्य सहदायिकी निर्मित करते हैं। प्रत्येक सहदायिकी एक समान पूर्वज से प्रारम्भ होती है जिसमें उसकी मृत्यु के बाद साम्पाश्विक भी आ जाते हैं। इसका कारण हिन्दू-धर्म है जिसके अनुसार तीन पीढ़ी तक के ही वंशज अपने पूर्वज को धार्मिक प्रलाभ अर्पित कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त केवल पुरुष-वंशानुक्रम से उत्पन्न हुये सदस्य सहदायिक हो सकते हैं। खियाँ सहदायिक होने से अपवर्जित की जाती थी, क्योंकि सहदायिकी की शर्त यह थी कि सहदायिक विभाजन का दावा कर सके और किसी स्त्री को यह हक नहीं प्राप्त था; यद्यपि जब कभी विभाजन होता था. कुछ स्त्रियों को, जैसे पलियों एवं माताओं को, विभाजन में अंश प्राप्त होता था। यद्यपि सहदायिकी के प्रादर्भाव के लिए एक समान पूर्वज आवश्यक है, फिर भी वह उसके बिना अस्तित्व में बना रह सकता है जिसमें साम्पाश्विक तथा उसके वंशज हो सकते हैं जो मृत समान पूर्वज से तीन पीढ़ी से अधिक दूर के हो मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत हकों की सामूहिकता तथा स्वामित्व की एकता सहदायिकी का विशेष Tण है। प्रत्येक सहदायिक को संयुक्त परिवार तथा सामान्य सम्पत्ति के भाग का अधिकार प्राप्त है। अत: राशिकी का यह अधिकार है कि वह सहदायिकी सम्पत्ति में अपने निश्चित हक का दावा कर सके। यह
1.देवराज प्रधान बनाम घनश्याम तथा अन्य, ए० आई० आर० 1979 उडीसा 1621
2 राम इकबाल बनाम खैरा देवी, ए० आई० आर० 1971, पटना 2871 ए० आई० आर० 2014 एस० सी०2665.
दुल्लर के वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि सहदायिकों के बीच सहवधिक सम्पत्ति का न्यागमन सामान्य रूप से होगा। प्रस्तुत वाद में ब ने अपने पिता स के द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में 1/3 भाग उत्तराधिकार में प्राप्त किया था, क्योंकि ब के द्वारा छोड़ी गयी सम्पत्ति में उसके दो पुत्रों एवं मृतक पिता के बीच सर्वप्रथम ऐसी सम्पत्ति हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 6 के अन्तर्गत निर्धारित की जायेगी जिसके परिणामस्वरूप काल्पनिक विभाजन के अन्तर्गत मृतक पिता एवं उसके दोनों पुत्रों के बीच सर्वप्रथम सम्पत्ति का विभाजन किया जायेगा।
सहदायिकी कब समाप्त हो जाती है?—हिन्दू सहदायिकी दो प्रकार से समाप्त हो जाती है-
(1) विभाजन द्वारा, तथा
(2) अन्तिम उत्तरजीवी सहदायिकी की मृत्यु द्वारा।
सहदायिकी तथा संयुक्त हिन्दू परिवार-संयुक्त परिवार एवं सहदायिकी एक-दूसरे के पर्यायवाची नहीं हैं। संयुक्त परिवार एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसमें एक ही पूर्वज के वंशज उनकी मातायें, पत्नियाँ अथवा विधवायें और अविवाहिता पुत्रियाँ सम्मिलित हैं। यह सदस्यों के परस्पर सपिण्डता पर आधारित है। यह सदस्यों के कृत्य से निर्मित नहीं होता वरन् विधि-सृष्ट होता है। इसके विरुद्ध सहदायिकी एक परिमित संगठन है जिसमें परिवार के वही सदस्य आते हैं जो पूर्वज की पैतृक सम्पत्ति में जन्म से ही अधिकार प्राप्त करते हैं तथा जिनकी उस सम्पत्ति का स्वेच्छा से विभाजन करने का अधिकार होता है। इस सहदायिकी में किसी वंश की तीन पीढ़ी तक के वंशज अर्थात् पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र आते हैं। सुरजीत लाल क्षाब्दा बनाम कमिश्नर इन्कम टैक्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह संप्रेक्षित किया कि संयुक्त हिन्दू परिवार एक बड़ी संस्था है जिसमें ऐसे व्यक्तियों का समूह होता है जो जन्म, विवाह अथवा दत्तक-ग्रहण से उत्पन्न सपिण्डता से सम्बन्धित होते हैं। संयुक्त परिवार का मौलिक नियम सपिण्डता है। संयुक्त परिवार के निर्माण के लिए एक पुरुष-सदस्य भी पर्याप्त है यदि उसके अन्य स्त्री-सदस्य हैं। मिताक्षरा में यह बात इस प्रकार कही गई है- “अतएव पिता और पितामह की सम्पत्ति में जन्म से ही अधिकार होता है। पिता के न चाहने पर भी पुत्र की इच्छा से पितामह की सम्पत्ति का विभाजन हो जाता है। अविभक्त सम्पत्ति को पिता द्वारा दूसरे को देने अथवा विक्रय करने में पौत्र का उसे रोकने का अधिकार होता है। पिता के द्वारा अर्जित सम्पत्ति को रोकने का अधिकार नहीं होता। ऐसा पुत्र के परतन्त्र होने के कारण है।” तीन पीढ़ी तक के वंशजों को यह अधिकार इसलिये प्राप्त है कि वे पूर्वज को पिंडदान करने के अधिकारी होते हैं। इस प्रकार सहदायिकी संयुक्त परिवार की तुलना में एक परिमित संगठन है जिनमें नारियाँ नहीं आतीं। इसके अन्तर्गत तीन पीढ़ी तक के पुरुष वंशज (पुरुष सदस्य) ही आते हैं। रघुवीर सिंह बनाम दिलीप सिंह, के मामले में पंजाब उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ कोई सहदायिक सम्पत्ति जो संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्यों के कब्जे में है तथा वह सम्पत्ति ऐसी हो जिसका विभाजन करना सम्भव न हो तो ऐसी स्थिति में सम्पत्ति का विभाजन अन्य सहदायिकी की मौजूदगी पर नहीं हो सकता। एक संयुक्त परिवार में एक से अधिक सहदायिकी हो सकते हैं, किन्तु एक सहदायिकी में एक से अधिक संयुक्त परिवार नहीं हो सकता। सहदायिकी संयुक्त परिवार में निम्नलिखित मामलों में भिन्न
1. ए० आई० आर० 2007 इलाहाबाद 2002।।
2. तस्मात् पैतृके पैतामहे च द्रव्ये जन्मनैव स्वत्वम्। पितरि विभागं अनिच्छति अपि पुत्रेच्छया – पैतामह-द्रव्यविभागो भवति। तथा अविभक्तिने पिता पैतामहे द्रव्ये दीयमाने विक्रीमाणे वा पौत्रस्य निषेधे अपि अधिकार पित्रार्जिते न तु निषेधाधिकारः। तत्परतंत्रत्वात्।। मिताक्षरा।।
3. ए० आई० आर० 1976 एस० सी० 1891
4. ए० आई० आर० 2004 पी० एण्ड एच० 220.
सहदायिकी एवं संयुक्त हिन्दू परिवार में अन्तर
1.. प्रथम, जब कि संयुक्त परिवार के सदस्यों की संख्या तथा समान पूर्वजों के वंशजो की दो सीमित नहीं होतो, सहदाधिको संयुक्त परिवार के केवल कुछ निश्चित सदस्यों के लिये होती है।
द्वितीय, सहदापिको केवल उन पुरुष-सदस्यों तक ही सीमित होती है जो पूर्वज से उसको सम्मिलित करके चार पोड़ी के अन्तर्गत आते है जबकि संयुक्त परिवार में इस प्रकार की कोई भी सौमितताये नही रहती
जत्तीय, सहदाथिको केवल पुरुष-सदस्यों तक ही सीमित होने के कारण अन्तिम सहदायिकी को मृत्यु के बाद समाप्त हो जाती है, जब कि संयुक्त परिवार ऐसे सहदायिक को मृत्यु के बाद भी स्थिर रहता है।
(4) चतुर्थ, पाप कि प्रत्येक सहदायिको या तो संयुक्त परिवार होता है या उसका भाग; किन्तु इसके विपरीत सदैव सत्य नहीं होता, अर्थात् प्रत्येक संयुक्त परिवार सहदायिकी नहीं है। इन्हीं उपर्युक्त बातो का समर्थन इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय बाबूलाल बनाम चंद्रिका प्रसाद में किया है। न्यायाधीश श्री मित्र ने यह संप्रेक्षित किया कि एक संयुक्त परिवार एक समान पूर्वज से उत्पन्न बशजो तथा उनको पालियों एवं अविवाहिता पुत्रियों को भी सम्मिलित करता है, किन्तु एक हिन्दू सहदाथिको अत्यन्त संकुचित संस्था है जिसके वही सदस्य होते हैं जो सहदायिकी अथवा संयुक्त सम्पत्ति में जन्मतः अधिकार प्राप्त करते है। इस कोटि में पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र ही आते हैं।
किसी सहदायिक के अवैध पुत्र सहदायिक के सदस्य नहीं होते। अवैध पुत्र का तात्पर्य रखैल को सन्तान से है-हालाँके उन्हें भरण-पोषण पाने का अधिकार है। सहदायिक न होने के कारण उसे विभाजन माँगने का अधिकार नहीं है। किन्तु पिता की मृत्यु के बाद वह विभाजन का दावा कर सकता है और एक वैध पुत्र के अंश के आधे के बराबर अंश प्राप्त कर सकता है।
एक सहदायिको के अन्तर्गत भी सहदायिको हो सकता है। उदाहरणार्थ, मान लीजिए क के तीन पुत्र है-7, फ, बफ के दो पुत्र च, छ होते हैं तथा ब के दो पुत्र म, न होते हैं। ये सभी सन्ताने क के साथ सहदायिको निर्मित करते है। इनमें यदि फ तथा ब की मृत्यु हो जाय और वे अपनी पृथक् सम्पत्ति छोड़कर मर जाते है तो मृत फ के दोनों पुत्र च तथा छ मिलकर एक सहदायिकी अलग से तथा द के दोनों पुत्र म एवं न एक सहदायिको अलग से निर्मित करेंगे जो अपने मृत पिता की पृथक सम्पत्ति को सहदायिको के रूप में अलग से प्राप्त करेंगे। यदि इनमें से च अथवा छ एवं म तथा न के कोई पुत्र उत्पन्न होता है तो वह अपने मृत पितामह (Grandfather) फ एवं ब की पृथक् सम्पत्ति में जन्म से अधिकार सहदायिक के रूप में प्राप्त कर लेंगे तथा ‘क’ प्रपितामह (Great Grandfather) के साथ भी सहदायिको का निर्माण करेंगे; क्योंकि ‘क’ से नीचे की तीन पुरुष पीढ़ी के अन्तर्गत वे आते है और इस प्रकार के की सम्पत्ति में भी जन्म से अधिकार प्राप्त कर लेंगे। इस प्रकार एक सहदायिको क’ के साथ निर्मित होता है। दूसरा सहदायिकी मृत पिता फ एवं ब के साथ उनकी पृथक् सानि के कारण निर्मित होता है। इस विषय पर उच्चतम न्यायालय ने भगवान बनाम रेवती’ के ले में विचार किया था और इस निष्कर्ष पर पहुंचा था कि सहदायिकी के अन्तर्गत भी सहदायिकी हो सकती है।
सहदायिकी की विशेषताएँ–सहदायिकी केवल पुरुष-सदस्यों द्वारा निर्मित होती है। यह सविधि-सष्टि है। इसके अन्तर्गत दत्तक-ग्रहण द्वारा छोड़कर किसी भी अन्य तरीके से बाहरी व्यक्ति समिलित नहीं किये जा सकते। सहदायिकी के सदस्यों के मध्य सम्पत्ति का संस्वामित्व होता है। किसी समय की मत्य हो जाने पर सहदायिको सम्पत्ति में उसका अंश उसके दायादों को न्यागत नहीं
होता वरन् सहदायिकी के उत्तरजीवी अन्य सदस्यों को उत्तरजीविता के सिद्धान्त के अनुसार न्यागत होता है। सहदायिकी का कोई सदस्य सहदायिकी सम्पत्ति में अपने अंश को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित नहीं कर सकता था। (हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 30 के अनुसार अब मिताक्षरा का कोई सहदायिकी सम्पत्ति में अपने अंश को इच्छापत्र द्वारा निर्वर्तित कर सकता है।) मिताक्षरा सहदायिकी में किसी सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में कोई निश्चित अंश नहीं होता। अप्पू वियर बनाम राम सुब्बा के वाद में यह प्रतिपादित किया गया था कि संयुक्त परिवार में जब तक वह संयुक्त रहता है, कोई भी सदस्य अविभक्त सम्पत्ति के विषय में यह नहीं कह सकता कि उसका अमुक निश्चित अंश है। अविभाजित सम्पत्ति की स्थिति में प्रत्येक सदस्य का अंश बढ़ता-घटता रहता है।
सहदायिकी में प्रत्येक सदस्य को यह अधिकार है कि दूसरे सहदायिक को सम्पत्ति के अन्यसंक्रामण से रोका जा सकता है। इसके अतिरिक्त प्रत्येक सदस्य को सहदायिकी सम्पत्ति में बँटवारा कराने का अधिकार प्राप्त है। सहदायिकी का यह रूप दायभाग में नहीं लागू होता। वहाँ पिता के जीवन-काल में, उसके द्वारा धारित सम्पत्ति में चाहे पैतृक हो अथवा स्वार्जित, वंशजों को कोई हित नहीं उत्पन्न होता। पिता की मृत्यु के बाद सम्पत्ति उत्तराधिकार द्वारा न्यागत हो जाती है।
विनोद जेना बनाम अब्दुल हामिद खान के वाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह कहा कि हिन्दू विधि का यह एक मुख्य सिद्धान्त है कि विभाजन के प्रमाण के अभाव में यह उपधारणा होगी कि प्रत्येक हिन्दू-परिवार भोजन, पूजा तथा सम्पदा (आवास-गृह) के सम्बन्ध में संयुक्त होगा। यह उपधारणा सगे भाइयों के सम्बन्ध में अधिक दृढ़ होती है। एक परिवार के स्थापक अर्थात् समान पूर्वज से जितना अधिक वे दूर होते जाते हैं यह उपधारणा कमजोर होती जाती है।
हिन्दू मिताक्षरा सहदायिकी के लक्षण-मिताक्षरा सहदायिकी के सम्बन्ध में उच्चतम न्यायालय ने स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया बनाम घमण्डी राम के मामले में महत्वपूर्ण निर्णय दिया है। इसमें न्यायालय ने यह निरूपित किया है कि मिताक्षरा सहदायिकी विधि की प्रक्रिया से उत्पन्न होती है न कि पक्षकारों के पारस्परिक समझौते से। किन्तु जहाँ कोई पुत्र दत्तक ग्रहण में लिया जाता है वहाँ उस दत्तकग्रहीत पुत्र का सहदायिकी में सम्मिलित किया जाना भले ही पक्षकारों के कृत्य से होता है। मिताक्षरा सहदायिकी में न्यायालय के अनुसार कई विशेषतएँ हैं; जैसे कि-
(1) समान पूर्वज की पुरुष सन्ताने तीन पीढ़ी तक की सहदायिकी निर्मित करते हैं जिनको जन्म से ही उसमें अधिकार उत्पन्न हो जाता है।
(2) सहदायिकी के इन सदस्यों को अपना अंश माँगने और अलग करवाने का अधिकार होता|
(3) जब तक विभाजन नहीं होता प्रत्येक सदस्य को एक-दूसरे के साथ सम्पूर्ण सम्पत्ति पर स्वामित्व होता है।
(4) सह-स्वामित्व के कारण उसका कब्जा तथा सम्पत्ति के प्रयोग का अधिकार संयुक्त तथा साथ होता है।
(5) सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण तब तक नहीं हो सकता जब तक आवश्यकता न हो तथा अन्य सदस्य सहमति न दे दिये हों। किसी सदस्य की मृत्यु हो जाने पर उसका हिस्सा उत्तरजीविता से अन्य पुरुष-सदस्यों में न्यागत हो जाता है।
1. (1866) 11 एम० आई० ए० 751
2. महाराष्ट्र एवं पंजाब शाखाओं में यह अधिकार पिता के जीवन-काल में उसकी सहमति के बिना प्रयोग नहीं किया जाता।
3. ए० आई० आर० 1975 उड़ीसा 1591
4. ए० आई० आर० 1969 एस० सी० 13301
मिताक्षरा विधि में एक सहदायिकी के निम्नलिखित विशिष्ट लक्षण है-
(1) स्वामित्व की इकाई-मिताक्षरा सहदायिकी का विशिष्ट लक्षण स्वामित्व की इकाई है। सहदायिकी सम्पत्ति में स्वामित्व किसी एक ही व्यक्ति में निहित नहीं रहता अपितु यह पूरे परिवार में निहित रहता है। सहदायिकी के समस्त सदस्यों का सम्पूर्ण सम्पत्ति पर हक रहता है, किसी एक सदस्य का किसी एक खण्ड पर कोई हक नहीं रहता। अतएव जब तक सदस्यगण अविभाजित हैं, यह प्रस्ताव नहीं कर सकते कि अविभाजित तथा संयुक्त सम्पत्ति में उनका एक निश्चित अंश है।
थम्मा वेंकट सुब्बाम्मा बनाम थम्मा रत्तम्मा‘ के वाद में उपरोक्त बात की पुष्टि करते हुए उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सहदायिकी का सारतत्व स्वामित्व की इकाई तथा हितों की सामूहिकता है। किसी सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में कोई निश्चित अंश नहीं होता बल्कि उसका अविभक्त हित उसमें रहता है जो किसी की मृत्यु से बढ़ जाता है और किसी नये पुरुष सन्तान के जन्म पर घट जाता है। सहदायिकी सम्पत्ति में सहदायिकी का अंश जन्मत: उत्पन्न हो जाता है उसका अंश पिता के अंश के बराबर होगा।
(2) अंशों की अनिर्धारणीयता-सहदायिकी के सदस्य का संयुक्त सम्पत्ति में अंश परिवर्तनशील होता है, क्योंकि वह परिवार के सदस्यों की मृत्यु तथा जन्म से बढ़ता-घटता रहता है। किसी नये सदस्य के जन्म से अंश कम हो जाता है एवं किसी सदस्य की मृत्यु से अंश बढ़ जाता है। अत: केवल विभाजन के बाद से ही अंश को निश्चित किया जा सकता है। अतः हिन्दू परिवार में जब तक सदस्य अविभाजित रहते हैं तब तक उनमें से कोई एक यह नहीं कह सकता है कि उसका एक निश्चित अंश है। कमिश्नर ऑफ गिफ्ट टैक्स बनाम एन० एस० गेट्टी चेट्टियार’ के वाद में उच्चतम न्यायालय ने उपर्युक्त प्रतिपादनों का पुष्टिकरण करते हुए कहा कि जब तक परिवार अविभक्त रहता है, परिवार का कोई सदस्य संयुक्त सम्पत्ति के विषय में यह नहीं कह सकता कि उसका उसमें कोई निश्चित अंश है। सभी सदस्य परिवार की सम्पत्ति के स्वामी हैं। उसका अंश तभी निश्चित रूप से बताया जा सकता है जब कि संयुक्त स्थिति में विघटन होता है। अत: कोई सहदायिकी संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति में विभाजन के पूर्व किसी निश्चित अंश का हकदार नहीं कहा जा सकता।
(3) हक की सामूहिकता (Community of Interest)—सहदायिकी के इस लक्षण से यह स्पष्ट होता है कि सहदायिकी सम्पत्ति में किसी सदस्य का कोई विशेष हक नहीं होता है तथा न वह उसमें एकाधिकार कब्जा रखता है। प्रिवी कौंसिल के न्यायाधीश ने यह ठीक ही कहा था कि परिवार के सभी सदस्यों में हक की सामूहिकता तथा स्वामित्व की इकाई संयुक्त परिवार की विशेषता है।। नानचंद गंगाराम बनाम मलप्पा महालिंगप्पा के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि एक संयुक्त परिवार में कोई सदस्य यह नहीं कह सकता कि वह आधे का अधिकारी है अथवा एक-तिहाई या चौथाई अंश का अधिकारी है। सहदायिकी सम्पत्ति का यह सार है कि इससे स्वामित्व की इकाई तथा हकों की सामूहिकता होती है तथा सदस्यों के अंश को पारिभाषित नहीं किया जाता। इस सम्बन्ध में शेर सिंह बनाम गम्दूर सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह सम्प्रेक्षित किया कि जहाँ पर कोई व्यक्ति सहदायिकी संयुक्त परिवार का सदस्य है और वह एक संयक्त परिवार के साथ रहता है तो ऐसी स्थिति में वह इस बात का दावा नहीं कर सकता कि वह सम्पूर्ण सम्पत्ति में अपने हक से ज्यादा का अधिकारी है। अर्थात् ऐसी सम्पत्ति में उन सभी सदस्यों का समान हक होगा,
LLB Hindu Law Chapter 8 Post 2 Book Notes Study Material PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों SscLatestNews.Com Website एक बार फिर से आप सभी का स्वागत करती है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB 1st, 2nd, 3rd Year All Semester Hindu Law Books Part 3 अनधिनिय्मित Chapter 8 संयुक्त परिवार तथा मिताक्षरा सह्दायिकी सम्पत्ति Post 2 Notes Study Material in Hindi and English में पढ़ने जा रहे है जिसे आप Free PDF भी Download कर सकते है |
जो संयुक्त परिवार के सदस्य हैं।
(4) स्त्रियों का अपवर्जन-मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत कोई स्त्री सहदायिकी नहीं हो सकती। यहाँ तक कि एक पत्नी, जो भरण-पोषण की अधिकारी है, पति की सम्पत्ति में केवल भरण-पोषण का ही अधिकार रखती है, किन्तु उसमें सहदायिक नहीं हो सकती। __ इसीलिए किसी स्त्री सदस्य को संयुक्त परिवार में विभाजन का दावा करने का अधिकार नहीं प्राप्त था। कोई विधवा सहदायिक नहीं हो सकती अतएव संयुक्त हिन्दू परिवार की वह कर्ता भी नहीं हो सकती इसलिए उसके द्वारा संयुक्त परिवार की किसी सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण उसके अपने पुत्रों अथवा पुत्रियों पर बाध्यकारी नहीं हो सकता। उसका अपना जो भी अंश है उस अंश तक का अन्यसंक्रामण उसके स्वयं के ऊपर बाध्यकारी है।
नरेश झा व अन्य बनाम राकेश कुमार के मामले में एक मिताक्षरा सहदायिकी की मृत्यु सन् 1929 में हो गया था। मृतक अपने पीछे दो पुत्र एवं अपनी विधवा पत्नी को छोड़कर मरता है। मृतक के मृत्यु के पश्चात् उसकी सारी सम्पत्ति उसके दोनों पुत्रों के बीच बराबर हिस्से में बँट गई। उपरोक्त वाद में मृतक की पत्नी ने न्यायालय के समक्ष अपने भरण-पोषण के दावा किया। उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि उसकी विधवा पत्नी को ऐसी सम्पत्ति किसी भी प्रकार का अधिकार नहीं था क्योंकि हिन्दू विमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट 1937, के अधिनियम पारित होने के पूर्व ही यह सम्पत्ति उसके पुत्रों में न्यागत हो चुकी थी। अतः मृतक की पत्नी भरण-पोषण पाने की अधिकारिणी नहीं है।
यह उल्लेखनीय है कि हिन्दू वीमेन्स राइट टू प्रापर्टी एक्ट, 1937 के पास होने के बाद सहदायिकी की विधवा को एक विशेष प्रकार की प्रास्थिति प्रदान कर दी गई थी। एक सहदायिक का सहदायिकी सम्पत्ति में अविभक्त हित उसकी मृत्यु के बाद उसकी विधवा को उत्तराधिकार में प्रदान कर दिया गया। वस्तुत: उसकी स्थिति एक सहदायिक जैसी हो गई। यदि परिवार में उसके अपने पुत्र हैं तो भी विधवा को सहदायिक-जैसा मान कर पुत्री के साथ एक हिस्सा पुत्री के बराबर दे दिया जायेगा। उदाहरणार्थ, अ, एक पुरुष हिन्दू संयुक्त-परिवार का सदस्य है। वह अपनी पत्नी ब को छोड़कर मरता है तो ब, अ की समस्त सम्पत्ति, जिसमें सहदायिकी सम्पत्ति का अंश भी शामिल है, में उत्तराधिकार प्राप्त करेगी। पुन: मान लीजिए, अ के दो पुत्र म तथा न हैं और पत्नी ब है। अ की मृत्यु के बाद ब, म तथा न को अ की सम्पत्ति उत्तराधिकार में पाने का हक दे दिया गया था।
(5) उत्तरजीविता से न्यागमन–सहदायिकी का यह एक महत्वपूर्ण लक्षण है कि इसमें किसी पुरुष सन्तान के जन्म लेने मात्र से सदस्यता प्राप्त हो जाती है। इसमें किसी सहदायिक की मृत्यु हो जाने पर सहदायिकी सम्पत्ति में दायादों का हक उत्तराधिकार से नहीं वरन् उत्तरजीविता से न्यागत होगा। जब मृत सहदायिक अपने पीछे पुरुष सन्तानों को छोड़ता है तो वे विभाजन के समय उसके हक का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भरण-पोषण सम्बन्धी प्रावधान-सहदायिक के समस्त सदस्यों को संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों के साथ भरण-पोषण का आजन्म अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार तब तक कायम रहता है। जब तक कि परिवार में सहदायिकी की स्थिति बनी रहती है। विभाजन हो जाने के बाद भी जिन पुरुष सदस्यों को किसी कारणवश कोई हिस्सा नहीं मिला रहा होता, भरण-पोषण का अधिकार बना रहता है। विभाजन के समय इनके लिये भरण-पोषण का प्रावधान आवश्यक रूप से किया जाता है।
हिन्दू विधि के अन्तर्गत किसी विकृतचित्त वाले व्यक्ति को सहदायिकी की सदस्यता से वंचित नहीं किया जा सकता। हालाँकि ऐसे विकृतचित्त वाले सदस्य को सहदायिकी के विभाजन करने का
अधिकार नहीं है और न ही विभाजन होने पर हिस्सा प्राप्त करने का हक है। फिर भी उसकी सहदायिकी सदस्यता समाप्त नहीं होती और उसे भरण-पोषण का अधिकार बना रहता है।
कोई सहदायिक विशेष विवाह अधिनियम (Special Mariage Act) के अधीन विवाह कर लेता है तो सहदायिकी में उसका हित अलग हो जाता है और वह सहदायिकी का सदस्य नहीं रह जाता, परन्तु वह अपनी पुरुष सन्तानों के साथ नयी सहदायिकी निर्मित कर सकता है। सम्पत्ति का वर्गीकरण-पूर्व हिन्दू विधि में सम्पत्ति दो भागों में विभाजित की गयी थी
(अ) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति, तथा
(ब) पृथक् सम्पत्ति अथवा स्वार्जित सम्पत्ति।
(अ) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति
इस सम्पत्ति में सभी सहदायिकों के स्वामित्व की एकता तथा हकों की सामूहिकता होती है। सहदायिकी सम्पत्ति में निम्नलिखित सम्मिलित हैं-
(1) पैतृक सम्पत्ति।
(2) संयुक्त परिवार के सदस्यों के द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित सम्पत्ति।
(3) सदस्यों की पृथक् सम्पत्ति जो सम्मिलित कोश में डाल दी गई है।
(4) वह सम्पत्ति जो सभी सदस्यों द्वारा अथवा किसी सहदायिक द्वारा संयुक्त परिवार के कोश की सहायता से अर्जित की गई है।
भगवन्त पी० सुलाखे बनाम दिगम्बर गोपाल सुलाखे के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि संयुक्त परिवार की प्रास्थिति में विघटन हो जाने से किसी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की प्रकृति नहीं बदल जाती। संयुक्त परिवार की सम्पत्ति संयुक्त बनी रहती है जब तक कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अस्तित्व में रहती है, और विभाजित नहीं की जाती, कोई एक सदस्य अपने अकेले कृत्य द्वारा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को व्यक्तिगत सम्पत्ति में नहीं बदल सकता। शेर सिंह बनाम गम्दूर सिंह के वाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति तब तक संयुक्त बनी रहती है, जब तक वह अस्तित्व में रहती है; और विभाजित नहीं की जाती। संयुक्त परिवार की प्रास्थिति में विघटन हो जाने से उस पर कोई असर नहीं पड़ता।
संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति के सम्बन्ध में यह अवधारणा की जाती है कि वह संयुक्त सम्पत्ति होगी यदि उसका केन्द्र बिन्दु मौजूद है। इस बात को साबित करने का दायित्व कर्ता था प्रबन्धक पर अथवा परिवार की व्यवस्था देखने वाले सदस्य पर होता है।
(1) पैतृक सम्पत्ति—वह सम्पत्ति जो सभी सदस्यों की संयुक्त आभोगिता के लिये है, पैतृक सम्पत्ति कहलाती है। यह सहदायिकी सम्पत्ति अथवा संयुक्त सम्पत्ति का एक प्रकार है। पैतृक सम्पत्ति का तात्पर्य उस सम्पत्ति से है जो पुरुष-वंशानुक्रम से पुरुष-क्रम में आती है। इस सम्पत्ति में पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र जन्म से ही हक प्राप्त करते हैं। (याज्ञवल्क्य)
निम्नलिखित प्रकार की सम्पत्तियाँ अपने प्रासंगिक लक्षणों के कारण पैतृक सम्पत्ति निर्मित करती है-
(1) इस प्रकार की सम्पत्ति उत्तरजीविता से न कि उत्तराधिकार से न्यागत होगी।
(2) यह ऐसी सम्पत्ति होती है जिसमें सहदायिक की पुरुष सन्तान जन्म से हक प्राप्त करती है।
1. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 76 तथा शेर सिंह बनाम गम्दूर सिंह ए० आई० आर० 1997 एस० सी० 13331
उस सम्पत्ति को हिन्दू पुरुष अपने पिता, पितामह अथवा प्रपितामह से प्राप्त करता है। यह एक उल्लेखनीय बात है कि अपने तीन उपर्युक्त पैतृक पूर्वजों से दाय में प्राप्त सम्पत्ति ही पैतृक सम्पत्ति कहलाती है तथा केवल वे व्यक्ति जो उसमें जन्म से हक प्राप्त करते है, पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र है।
इस बात पर मतभेद रहता है कि मातृपक्ष के पूर्वज से (उसी चार पीढ़ी के अन्तर्गत) प्राप्त सम्पत्ति भी क्या पैतृक सम्पत्ति की कोटि में आवेगी और उस सम्पत्ति में किसी सदस्य का हक जन्म से उत्पन्न हो जायेगा? मद्रास उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार पैतृक सम्पत्ति का तात्पर्य उस सम्पत्ति से है जो मातपक्ष तथा पितृपक्ष से दाय में प्राप्त हुई हो। पारिभाषिक रूप में ‘पैतृक’ शब्द इस अर्थ में प्रयुक्त है कि वह केवल तीन अव्यवहित पर्वजों को सम्मिलित करे। यह मत मद्रास उच्च न्यायालय ने प्रिवी काउन्सिल की कुछ आलोचनाओं पर निर्भर किया था।
प्रिवी कौसिल के अनुसार जहाँ दो भाई संयक्त रूप से कोई सम्पत्ति अपने नाना से उत्तराधिकार में प्राप्त करते है, वहाँ वह सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति मानी जायेगी, हालाँकि यह बात शास्त्रीय विधि के विपरीत है।
इलाहाबाद तथा पटना उच्च न्यायालय का मत इसके विपरीत था। इन उच्च न्यायालयों के अनुसार पैतृक सम्पत्ति में केवल वही सम्पत्ति आती है जो पितृपक्ष के पूर्वजों से प्राप्त की गई हो और पूर्वज चार पीढ़ी के ही अन्तर्गत हो। दूसरे शब्दों में मातृपक्ष के पूर्वजों से दाय में प्राप्त सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति नहीं है।
कर्नाटक उच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार—पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत पिता अथवा पिता के पिता आदि से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति आती है। किसी स्त्री सम्बन्धी से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत नहीं आती। इसी प्रकार जहाँ कोई सम्पत्ति कोई भाई अपनी बहिन को दान में दे देता है और बहिन की मृत्यु के बाद वह सम्पत्ति उसके पुत्र दाय में प्राप्त करते है वह सम्पत्ति इन पुत्रों की पैतृक सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी।
अब प्रिवी कौसिल के निर्णय ने यह स्पष्ट कर दिया है कि पैतृक सम्पत्ति का अर्थ वह सम्पत्ति नहीं है जो कोई व्यक्ति अपने किसी पूर्वज से प्राप्त करता है। केवल वह सम्पत्ति जो किसी व्यक्ति को अपने पिता, पितामह तथा प्रपितामह से प्राप्त होती है, पैतृक सम्पत्ति कहलायेगी। जहाँ तक पिता, पितामह एवं प्रपितामह से दान अथवा इच्छापत्र द्वारा प्राप्त सम्पत्ति का सम्बन्ध है, उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि यह दानपत्र तथा इच्छापत्र की शर्तों में उल्लिखित बातों से स्पष्ट होगा कि दानकर्ता अथवा वसीयत करने वाले का उद्देश्य उसके विषय में क्या यही था कि वह पैतृक सम्पत्ति जैसी व्यवहत की जाय। यदि पितामह की यही इच्छा रही हो कि पिता उस सम्पत्ति को पूर्णतया पृथक् रूप में रखे तो पिता के समीप में वह उसकी पृथक् सम्पत्ति समझी जायेगी। यदि पिता का यह उद्देश्य रहा हो कि पिता उस सम्पत्ति को प्रलाभ के लिये ग्रहण करे तो वह सम्पत्ति अपने पुत्रों के लिये पैतृक समझी जायेगी क्योंकि पुत्र उसके साथ उसमें समान अधिकारी होंगे।
संयुक्त परिवार के विभाजन के दिन तक जो भी सम्पत्ति उस परिवार के केन्द्र बिन्द से संलग्न थी उस संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विभाजन के बाद भाइयों द्वारा अर्जित की गयी सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में सम्मिलित नहीं की जायेगी।
कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स बनाम पी० चेट्टियार के वाद में यह निरूपित किया गया कि जहाँ दानपत्र में पिता द्वारा यह नहीं इंगित किया गया कि आदाता सम्पत्ति को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के रूप में ग्रहण करेगा, वह सम्पत्ति आदाता की निर्बाध सम्पत्ति होगी जिसमें पुत्रों को जन्मना कोई अधिकार नहीं उत्पन्न होगा।
हिन्दू विधि में पैतृक व्यवसाय एक दाय-योग्य सम्पत्ति (Assets) माना गया है। जब एक हिन्दू अपना व्यवसाय छोड़ कर मरता है तो अन्य दाय-योग्य सम्पत्ति की तरह वह भी उसके दायादा का चला जाता है। यदि पुरुष संतान, जैसे—पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र छोड़कर मरता है, तो व्यवसाय उन्हीं पुरुष सन्तानों को चला जायेगा तथा वह परिवार का संयुक्त व्यवसाय हो जाता है तथा ‘संयुक्त परिवार की फर्म’ बन जाता है।
एक संयुक्त हिन्दू परिवार का पैतृक व्यापार एक पैतृक सम्पत्ति समझा जाता है जिसमें प्रत्येक मिताक्षरा संयुक्त परिवार का सदस्य जन्म से अपना हक अर्जित कर लेता है।
संयुक्त परिवार का प्रबन्धक कोई नया व्यवसाय इस रीति से प्रारम्भ नहीं कर सकता कि वह अन्य अवयस्क सहदायिकों के ऊपर बाध्यकर हो। किन्तु ऐसे वयस्क सदस्यों की अस्पष्ट अथवा स्पष्ट सहमति से वह नया व्यवसाय प्रारम्भ कर सकता है।
यदि कोई पैतृक सम्पत्ति परिवार से पूर्णतया खो चुकी और परिवार का कोई सदस्य उसको स्वयं अपने अकेले कोश से पुनः अन्य सदस्यों की स्पष्ट या अस्पष्ट स्वीकृति से वापस ले लेता है तो उस सदस्य का पुन: प्राप्त सम्पत्ति में विशेष हक उत्पन्न हो जाता है।’
दिलीप सिंह बनाम कमिश्नर आगरा मण्डल, के मामले में न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि पैतृक सम्पत्ति में हित का सृजन गर्भस्थ शिशु के पक्ष में उसके गर्भ में आने के दिन से ही सृजित हो जाता है। यद्यपि कि अजन्मा व्यक्ति सम्पत्ति पर उसका वास्तविक नियन्त्रण नहीं होता परन्तु वह ऐसी सम्पत्ति पर अहस्तान्तरणीय स्वामी के रूप में अपना अधिकार स्थापित करता है।
पटेल छोटे लाल सोमचन्द बनाम पटेल चन्दू भाई सोम चन्द, के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी पैतृक सम्पत्ति में पुत्रों को ऐसी सम्पत्ति में बराबर का अधिकार होगा अर्थात् प्रत्येक पुत्र ऐसी सम्पत्ति में विभाजन के दौरान बराबर से हिस्सा प्राप्त करेगा उपरोक्त मामले में न्यायालय ने यह भी अभिनिर्धारित किया कि किसी भी पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के सम्बन्ध में पक्षकारों के द्वारा किसी भी शर्त को अधिरोपित नहीं किया जा सकता, यदि पैतृक सम्पत्ति के सम्बन्ध में कोई शर्त विलेख पक्षकारों के बीच निष्पादित की गई है तो ऐसा विलेख पत्र पैतृक सम्पत्ति के विभाजन के सन्दर्भ में शून्य माना जायेगा।
(2) संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित सम्पत्ति-जहाँ संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा उनके संयुक्त परिश्रम से संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से कोई सम्पत्ति अर्जित की जाती है, वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति अथवा सहदायिकी सम्पत्ति हो जाती है। बम्बई उच्च न्यायालय ने कहा कि यदि सम्पत्ति संयुक्त परिवार के सदस्यों के संयुक्त श्रम से अर्जित की गई है, चाहे उसमें संयुक्त कोष की सहायता न ली गई हो तो भी वह किसी विपरीत उद्देश्य के
अभाव में, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती है।
हिन्दू विधि का यह दूसरा सिद्धान्त है कि संयुक्त परिवार के सदस्यों द्वारा संयुक्त रूप से अर्जित की गई सम्पत्ति, जो कि संयुक्त परिवार की किसी सहायता के बिना प्राप्त हुई है, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। जहाँ दो भाई कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार में अपने संयुक्त परिश्रम से अर्जित करते है, वहाँ विरुद्ध आशय के अभाव में यह उपधारणा होगी कि वे लोग उसे संयुक्त रूप से धारण कर रहे थे। उसकी पुरुष सन्तान उस सम्पत्ति में आवश्यक रूप से जन्मत: अधिकार प्राप्त कर लेगी।
उच्चतम न्यायालय ने भगवान बनाम दिगम्बर’ के मामले में एक महत्वपूर्ण निर्णय दिया। इसमें संयुक्त परिवार के दो सदस्यों ने सहभागिता फर्म किसी कम्पनी के प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य देखने के लिये निर्माण किया और यह तय किया कि इस कारोबार से जो भी पारिश्रमिक प्राप्त होगा वह पारिश्रमिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी। विशेषकर उस स्थिति में जब कि सहभागिता की शर्ते यह प्रदर्शित करती है कि दो सदस्य प्रबन्धक अभिकर्ता (Managing Agency) का कारोबार संयुक्त परिवार के लाभ के लिए कर रहे हैं। किसी प्रकार का विवाद फर्म के गठन के समय नहीं उठा और कम्पनी में शेयरों की खरीददारी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से किया गया और उससे समस्त आय निर्विवाद रूप से संयुक्त सम्पत्ति समझा जाता रहा। न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विधि की दृष्टि में वही स्थिति उस सम्पत्ति की समझी जाती रहेगी जब तक सहभागिता और प्रबन्धक अभिकर्ता का कार्य चलता रहेगा। यदि कोई सदस्य संयुक्त स्थिति से अलग हो रहा है तथा उससे पूरे संयुक्त परिवार को इस कारोबार से प्राप्त आय की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं आता और जब तक परिवार की सम्पत्ति में पूर्ण विभाजन नहीं हो जाता इस प्रकार के व्यापार से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जाती रहेगी तो उस सदस्य के अलग हो जाने से इस सम्पत्ति की प्रकृति में कोई अन्तर नहीं पड़ेगा।
श्रीमती स्वर्णलता बनाम कुलभूषण पाल, के मामले में न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ संयुक्त हिन्दू परिवार के अन्तर्गत कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है अथवा कर्ता के द्वारा कोई सम्पत्ति परिवार के किसी अन्य सदस्य के नाम से खरीदी जाती है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की ही सम्पत्ति मानी जायेंगी, जिसमें परिवार के सभी सदस्यों को हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार होगा।
(3) सम्पत्ति जो समान कोश में डाल दी गई है—यदि कोई स्वार्जित सम्पत्ति समान कोश में इस उद्देश्य से डाल दी गई है कि अपने हक का परित्याग कर दे तो वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति हो जाती है, जो परिवार के सभी सदस्यों में विभाज्य है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि उस उद्देश्य से कोई विचार अभिव्यक्त किया जाय। उसको समान कोश में डाल देना तथा उसमें एवं अन्य संयुक्त सम्पत्ति में कोई अन्तर न मानना इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि वह संयुक्त सम्पत्ति-जैसी मान ली जाय।’
1. हरी दास बनाम देव कुँवर बाई, 50 बाम्बे 443; देखें गुरुनाम सिंह बनाम प्रीतम सिंह व अन्य, – ए० आई० आर० 2010 एन० ओ० सी० 983 पंजाब एवं हरियाणा।
के. अवेबुल रेड्डी बनाम वी० वेन्कट नारायन’ के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा कि एक बार यदि मान लिया जाता है कि परिवार संयुक्त है और संयुक्त सम्पत्ति धारण करता है तो विधिक उपधारणा यह होगी कि किसी सदस्य अथवा सभी सदस्यों द्वारा धारण की गई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है। इस उपधारणा के सन्दर्भ में यदि परिवार का कोई सदस्य उस सम्पत्ति के किसी भाग पर अपना पृथक् दावा करता है तो सबूत का भार उसके ऊपर होगा कि वह उसको अपना पृथक् सम्पत्ति साबित करे।
जहाँ संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति नहीं होती, वहाँ सहदायिकों की पृथक् सम्पत्ति मिलकर उस रूप में परिणत नहीं हो जाती। फिर भी सहदायिकों के लिए यह सम्भव है कि वे अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को परिवार की सम्पत्ति समझे। वह अन्य सहदायिकों को यह अनुमति दे सकता है कि वह उस सम्पत्ति को अपनी भी सम्पत्ति समझे। जहाँ कहीं यह धारणा होती है कि स्वार्जित सम्पत्ति कोश में डाल दी जाय और अपने पृथक् अधिकारों का परित्याग कर दिया जाय, वहाँ यह बात स्पष्ट रूप से प्रतिष्ठित की जानी चाहिये अन्यथा इसकी उपधारणा अन्य सहदायिक के परस्पर प्रेम-भाव पर नहीं बनायी जा सकती। इस प्रकार के आशय का अनुमान इस बात से भी नहीं लगाया जा सकता कि सहदायिक ने अपनी पृथक सम्पत्ति को अन्य सदस्यों के उपयोग अथवा उनके संयुक्त आधिपत्य की अनुमति दे दी है।
लकी रेडी बनाम लक्की रेडी’ में उच्चतम न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त सम्पत्ति के पृथक् सम्पत्ति के मिश्रित होने से सम्बन्धित विधि पूर्ण रूप से प्रतिष्ठित हो चुकी है। संयुक्त हिन्दू परिवार के किसी सदस्य की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति में परिणत हो सकती है, यदि इस सम्पत्ति के स्वामी द्वारा वह सामान्य कोश में इस उद्देश्य से डाल दी जाय कि वह उसके विषय में पृथक् अधिकार की भावना का परित्याग कर दे। केवल इस बात से कि परिवार के अन्य सदस्यों को भी उस सम्पत्ति का प्रयोग करने का अधिकार दिया गया था, अथवा उस सम्पत्ति की आय का उपभोग सौजन्यवश अन्य सदस्यों द्वारा भी किया गया था जो वस्तुत: उसके अधिकारी नहीं थे, अथवा सौजन्यवश लेखा नहीं बनाये रखा गया था, यह परिणाम नहीं निकाला जा सकता है कि पृथक् सम्पत्ति नहीं है।
पिपरी लाल बनाम नानक चन्द के प्रमुख वाद में प्रिवी कौसिल ने यह निरूपित किया था कि जहाँ पुत्र यह दावा करता है कि पिता के द्वारा उसकी संरक्षकता में किया हुआ व्यापार संयुक्त परिवार का व्यापार हो गया है क्योंकि वह भी उसमें अपना सहयोग देता रहा है, वहाँ पुत्र के ऊपर यह भार होता है कि वह पैतृक सम्पत्ति के अभाव में यह प्रमाणित करे कि पिता उस व्यापार को संयुक्त परिवार का व्यापार बनाने की भावना रखता था और वास्तविक रूप में वह संयुक्त परिवार के रूप में माना जाता था। यदि एक बार वह संयुक्त परिवार का व्यापार मान लिया गया है तो बाद में पिता की भावना परिवर्तित हो जाने पर भी उसके स्वभाव में परिवर्तन नहीं आता और संयुक्त परिवार का व्यापार माना जायेगा।
किसी हिन्दू सहदायिक की स्वार्जित सम्पत्ति उस समय पृथक् नहीं मानी जाती जबकि वह उसको इस आशय से समझ रहा है कि वह संयुक्त है। इसके लिए यह आवश्यक नहीं है कि वह भौतक
1.ए.आई० आर० 1984 एस० सी० 1171 देखिए श्रीमती रामकुंवर बाई ब० रानी बहू तथा अन्य, ए० आई० आर० 1985, एम०पी०731
4. श्रीमती मीनाक्षी बनाम श्रीमती वेल्लाकुट्टी, ए० आई० आर० 1991 केरल 1481
5.61 एल० डब्ल्यू. 4371
रूप से उसकी सम्पत्ति में मिला दे, बल्कि यदि उसने स्वेच्छा से उसको पृथक् मानना बन्द कर दिया है. उसके पृथकत्व होने के अधिकार को त्याग दिया है तो वह संयुक्त मान लिया जायेगा। यह एक प्रभाव सिद्ध है। यह मिताक्षरा विधि का एक विचित्र नियम है। इसी प्रकार जब कोई सहदायिक अपनी सम्पत्ति को सामान्य कोष में डाल देता है तो वह कोई दान नहीं दे देता; अत: यह कोई हस्तान्तरण नहीं होगा।
बसन्त बनाम सखाराम के मामले में बम्बई उच्च न्यायालय ने यह कहा है कि संयुक्त परिवार का सदस्य जैसा कि स्त्रियाँ भी होती हैं उनकी अपनी कोई सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में मिश्रित नहीं की जा सकती। स्त्री सदस्य की चाहे सम्पर्ण स्वामित्व की अथवा सीमित स्वामित्व की सम्पत्ति हो संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में डाली नहीं जा सकती। केवल सहदायिक अपनी सम्पत्ति को वैध रूप से संयुक्त सम्पत्ति में मिश्रित कर सकता है, और कोई स्त्री सहदायिकी की सदस्या नहीं हो सकती। वह अपनी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति में नहीं मिला सकती।
(4) वह सम्पत्ति जो परिवार की संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से प्राप्त की गई थी—संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की सहायता से अर्जित की गई सम्पत्ति भी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कही जाती है। इस प्रकार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से प्राप्त आय का अर्जित किया जाना एवं अर्जित आय से नयी सम्पत्ति का खरीदना, किसी सम्पत्ति के बेचने अथवा बन्धक रख कर धनराशि का अर्जित करना अथवा उससे कोई नयी सम्पत्ति का खरीदना, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलाती है।
यदि संयुक्त परिवार में उसके किसी सदस्य के नाम से कोई सम्पत्ति खरीदी जाती है तो वह संयुक्त सम्पत्ति ही कहलायेगी न कि स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति। यदि उसने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के बिना किसी सहायता के कोई सम्पत्ति खरीदी है अथवा अर्जित की है तो वह उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जा सकती है। जहाँ कोई संयुक्त परिवार का सदस्य अपनी स्वार्जित सम्पत्ति को सामूहिक अथवा संयुक्त सम्पत्ति में मिला देता है अथवा समान कोष में डाल देता है तो वह सब मिलकर संयुक्त सम्पत्ति हो जाती है।
जहाँ कर्ता कोई सम्पत्ति अपने नाम से खरीदता है और यह नहीं कहता कि संयुक्त पारिवारिक राशि उस सम्पत्ति को खरीदने के लिये पर्याप्त नहीं थी वहाँ यह प्रमाण भार उसके ऊपर है कि वह साबित करे कि उसने अपनी पृथक् आय से उस सम्पत्ति को खरीदा है। इस प्रकार का प्रमाण न देने पर उसके द्वारा खरीदी गयी सम्पत्ति संयुक्त पारिवारिक राशि से खरीदी गयी समझी जायेगी और वह संयुक्त पारिवारिक सम्पत्ति होगी।
डी० लट्चन्दोरा बनाम चिन्नाबादू के वाद में न्यायालय ने यह कहा कि यदि परिवार का कोई सदस्य, जिसको भरण-पोषण के लिए सम्पत्ति मिली थी, उस सम्पत्ति से प्राप्त लाभ से अन्य सम्पत्ति अर्जित कर लेता है तो उस दशा में समस्त अर्जित सम्पत्तियाँ उसकी स्वार्जित सम्पत्तियाँ मानी जायेंगी। मद्रास के एक वाद में यह कहा गया था कि इस प्रकार का अर्जन उसके अपने पुत्रों के सम्बन्ध में संयुक्त परिवार की सम्पत्ति समझी जायेगी।
श्रीमती परबतिया देवी बनाम मु० शकुन्तला देवी के मामले में न्यायालय ने यह कहा कि संयुक्त परिवार के किसी एक सदस्य के नाम में खरीदी गई कोई सम्पत्ति संयुक्त सम्पत्ति समझी जायेगी। संयुक्तता का प्रमाण-भार उस पर होगा जो उसे संयुक्त सम्पत्ति होने का दावा करता है। जब यह साबित हो जाता है कि परिवार के केन्द-बिन्दु में से लगाई गई सम्पत्ति से सम्पत्ति का अर्जन किया गया था तो विधि में यह उपधारणा होती है। सम्पत्ति संयुक्त होगी कि नहीं यह प्रमाण भार उस व्यक्ति पर हो जाता है जो कि यह कहता है कि सम्पत्ति उसकी पृथक् है और उसने उस सम्पत्ति को परिवार की बिना किसी सहायता के अर्जित की थी।
दाय भाग शाखा के अन्तर्गत किसी सहदायिक द्वारा पृथक् रूप से संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगा कर जहाँ कोई व्यवसाय प्रारम्भ किया गया है, वह व्यवसाय संयुक्त परिवार का व्यवसाय नहीं माना जायेगा। जहाँ एक दायभाग सहदायिक ने अपने नाम किसी सिनेमा लाइसेन्स को प्राप्त कर संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगा कर सिनेमा का व्यवसाय प्रारम्भ करता है वहाँ वह सिनेमा का व्यवसाय संयुक्त सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी।
मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति एवं संयुक्त परिवार सम्पत्ति के मध्य आज भी मतभेद विद्यमान है जहाँ मिताक्षरा सहदायिकी एक निश्चित अवधारणा पर चलती है तथा जो व्यक्तियों का एक निकाय और वह संयुक्त हिन्दू परिवार से भिन्न विधि द्वारा उत्पन्न किया गया है जो कि पक्षों द्वारा गठित हो सकता है। मिताक्षरा सहदायिकी को विधि द्वारा उत्पन्न किया जाता है, जिसमें सम्पत्ति में किसी हित प्रदान करने के उद्देश्य से यह आवश्यक है कि सहदायिकों में अनिवार्य बँटवारा होना चाहिये और जब सहदायिकी सम्पत्ति के बँटवारे का आशय व्यक्त हो जाता है तो प्रत्येक सहदायिक का अंश स्पष्ट अभिनिश्चय योग्य हो जाता है और जब एक बार सहदायिकी का अंश निर्धारित हो जाता है तो वह सहदायिक सम्पत्ति नहीं रह जाती है और ऐसी स्थिति में पक्षकार सम्पत्ति को संयुक्त काश्तकार के रूप में धारित नहीं करेगा बल्कि सामान्य काश्तकार के रूप में जाना जायेगा और जहाँ सहदायिकी सम्पत्ति में कोई सहदायिक अपना निश्चित अंश लेता है तो सामान्य काश्तकार के रूप में ही जाना जायेगा और वह उस अंश का स्वामी होगा जिसे अपने तरीके से विक्रय या बन्धक द्वारा अन्तरित कर सकता है जैसा कि वह अपनी सम्पत्ति का निस्तारण कर सकता है। और जहाँ एक सहदायिकी हित उस शर्त के अध्यधीन अन्तरित किया जा सकता है कि क्रेता उसके अन्य सहदायिकों की सम्मति के बिना कब्जा नहीं प्राप्त कर सकता है।
(ब) पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति
पृथक् सम्पत्ति क्या है?वह सम्पत्ति जो संयुक्त नहीं है, पृथक् सम्पत्ति कहलाती है। ‘पृथक’ शब्द से यह बोध होता है कि परिवार पहले संयुक्त था, किन्तु अब पृथक् हो चुका है। जब कोई व्यक्ति अपने भाइयों से अलग हो जाता है तो वह सम्पत्ति, जिसका वह उपयोग स्वयं करता है, भाइयों के प्रसंग में पृथक् सम्पत्ति कहलाती है। किन्तु जहाँ तक उसके पुत्रों का सम्बन्ध है, उस सन्दर्भ में वह संयुक्त सम्पत्ति होगी। जहाँ तक ‘स्वार्जित’ शब्द का अर्थ है, वह यह इंगित करता है कि सम्पत्ति उसमें इस ढंग से न्यागत हुई कि इस संसार में उसके अतिरिक्त उसमें किसी का हक नहीं हो सकता।
निम्नलिखित रीतियों में से किसी एक रीति से प्राप्त सम्पत्ति एक हिन्दू की स्वार्जित अथवा पृथक् सम्पत्ति कहलायेगी, चाहे वह संयुक्त हिन्दू परिवार का ही सदस्य हो
(1) अपने स्वयं के श्रम से अर्जित की गई सम्पत्ति पृथक् सम्पत्ति होगी; क्योंकि वह परिवार के
अन्य सदस्यों के संयुक्त बम का परिणाम नहीं होती किन्त शर्त यह है कि पृथक सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के लिए अहितकर न हो।
इसी प्रकार 12 वर्ष की अवधि तक विरुद्ध कब्जा के परिणामस्वरूप यदि कोई सम्पत्ति प्राप्त की जाती है तो यह पृथक सम्पत्ति हो जायेगी। इस प्रकार की सम्पत्ति पैतृक सम्पत्ति के अन्तर्गत नहीं आ सकती है।
जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य संयक्त परिवार की सम्पत्ति की बिना कोई सहायता लिये हुये स्वयं एक चिकित्सक के रूप में आयुर्वेदीय औषधि का व्यवसाय करता है तथा उससे बहुत सारी सम्पत्ति अर्जित करता है और उसकी आय से बन्धक पर फण भी देता है और उससे भी आय एकत्र करता है वहाँ उसको सम्पत्ति एवं आय को उसकी पृथक सम्पत्ति माना जायेगा।
के० एस० सुब्बया पिल्लई बनाम कमिश्नर आयकर के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि कोई संयुक्त हिन्दू परिवार में कर्ता अपनी व्यक्तिगत क्षमता और योग्यता से कोई सम्पत्ति स्वार्जित करता है तो ऐसी सम्पत्ति उसकी पृथक् सम्पत्ति कहलायेगी। प्रस्तुत वाद में आयकर न्यायाधिकरण ने कर्ता के द्वारा अर्जित सम्पत्ति को संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति माना था लेकिन उच्चतम न्यायालय ने आयकर न्यायाधिकरण के द्वारा दिये गये निर्णय को निरस्त करते हुये यह सम्पक्षित किया कि कर्ता द्वारा अपनी योग्यता से बनायी गयी सम्पत्ति उसकी स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगीन कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति।
हरिहर सेठी बनाम लहूकिशोर सेठी के बाद में उड़ीसा उच्च न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि कोई संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई सदस्य अपनी बौद्धिक क्षमता से कोई सम्पत्ति अर्जित करता है तो ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति न होकर उस व्यक्ति की व्यक्तिगत सम्पत्ति होगी और ऐसी सम्पत्ति का विभाजन उत्तराधिकार के नियम के द्वारा किया जायगा।
माखन सिंह बनाम कुलवन्त सिंह के बाद में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि यदि संयुक्त हिन्दू परिवार में कोई सदस्य अपने वेतन की राशि से कोई सम्पत्ति अर्जित करता है
और उस सम्पत्ति में परिवार के किसी अन्य सदस्य का योगदान नहीं है तब ऐसी स्थिति में वह सम्पत्ति स्वअर्जित सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति। ऐसी सम्पत्ति का विभाजन उत्तराधिकार नियम के द्वारा किया जायेगा।
पुन: डॉ० प्रेम भटनागर बनाम रवि भटनागर, के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने उपरोक्त मत की अभिपुष्टि करते हुये यह सम्पेक्षित किया कि जहाँ किसी संयुक्त हिन्दू परिवार के सदस्य के द्वारा कोई सम्पत्ति अपनी मेहनत से स्व अर्जित की जाती है, वहाँ ऐसी सम्पत्ति का न्यागमन उस परिवार में जन्म लेने व्यक्तियों के बीच नहीं होगा बल्कि ऐसी सम्पत्ति जो उसकी स्वअर्जित सम्पत्ति है, उसकी मृत्यु के पश्चात् उसके विधिक उत्तराधिकारियो को प्राप्त होगी। पुनः इस बात की अभिपुष्टि मदास उच्च न्यायालय ने के० गोविन्द राम बनाम के० सुखाहमणियम, के मामले में किया।
(2) वह सम्पत्ति जो अपने पिता, पितामह तथा प्रपितामह के अतिरिक्त अन्य किसी व्यक्ति से दाय में प्राप्त होती है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि किसी पारिवारिक व्यवसाय चलाने से प्राप्त जो भी आमदनी किसी व्यक्ति को होती है वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं मानी
LLB Hindu Law Chapter 8 Post 3 Book Notes Study Material PDF Free Download : नमस्कार दोस्तों एक बार फिर से आप सभी का स्वागत करते है, आज की इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी LLB Hindu Law Books से लिए गये Part 3 अन्धिनियमित पूर्व हिन्दू विधि Chapter 8 संयुक्त परिवार तथा मिताक्षरा सह्दायिकी सम्पत्ति Post 3 Online पढ़ने जा रहे है, निचे अभ्यर्थियो को LLB 1st, 2nd, 3rd year All Semester Books Free PDF में डाउनलोड करने के लिए भी मिल जाएगी |
जायेगी। जहाँ कोई व्यक्ति पारिवारिक पुजारी की वृत्ति चलाता है तो उसे जो आय प्राप्त होगी वह उसकी पथक सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त सम्पत्ति। मदन लाल फूलचन्द्र जैन बनाम महाराष्ट राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कोई हिन्दू पुरुष पैतृक सम्पत्ति में एक अंश होने के साथ-साथ अपनी पृथक् सम्पत्ति भी रख सकता है। यदि वह कोई भूमि अपने चाचा से दाय में प्राप्त करता है और उसे उस सम्पत्ति को बेचने का (absolute) अधिकार प्राप्त है वह उसकी पृथक सम्पत्ति होगी। भाई के नि:सन्तान मर जाने पर उससे, दाय में प्राप्त की गई सम्पत्ति स्वार्जित पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी।
डॉ० गुरुमुख राम मदान बनाम भगवान दास मदान के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ पर किसी पक्षकार के द्वारा न्यायालय में इस बात का कोई साक्ष्य प्रस्तुत न किया गया हो, जिससे यह सिद्ध हो सके कि उस सम्पत्ति के बनाने में उसका भी पूरा योगदान है, तो ऐसी सम्पत्ति में उसका कोई हिस्सा नहीं होगा, और न ही ऐसी सम्पत्ति को संयुक्त सम्पत्ति की संज्ञा दी जा सकती है अर्थात् ऐसी सम्पत्ति एक पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति मानी जाएगी।
(3) संयुक्त परिवार के विभाजन पर जो सम्पत्ति किसी हिन्दू को वंश रूप में प्राप्त होती है, ऐसे हिन्दू व्यक्ति के कोई पुरुष सन्तान जैसे पुत्र या पौत्र नहीं होना चाहिये।
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने एक वाद में यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ विभाजन के बाद किसी व्यक्ति ने पारिवारिक सम्पत्ति के माध्यम से नयी सम्पदा को अर्जित किया हो और यह अर्जन संयुक्त परिवार की ओर से नहीं हुआ है वहाँ वह सम्पदा स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगी।
(4) अकेले उत्तरजीवी सहदायिक को न्यागत होने वाली सम्पत्ति, यदि उस सहदायिक की कोई ऐसी विधवा नहीं है जो दत्तक-ग्रहण करने का अधिकार रखती हो अथवा उसके गर्भ में कोई सन्तान
(5) दान अथवा इच्छापत्र इस दृष्टि से नहीं किया गया है कि वह परिवार के प्रलाभ के लिए हो अथवा उसके अपने लिए।
(6) पिता द्वारा पैतृक चल-सम्पत्ति दान द्वारा प्राप्त होना जो उसने स्नेह एवं प्रेम में दी हो।।
(7) सरकार से अनुदान के रूप में प्राप्त सम्पत्ति।
(8) संयुक्त परिवार की सम्पत्ति जो खो चुकी हो तथा बाद में किसी सदस्य द्वारा संयुक्त सम्पत्ति की सहायता से पुनः प्राप्त कर ली गई हो।
(9) ज्ञानार्जन का लाभ–संयुक्त परिवार के किसी सदस्य की अपने विज्ञान अथवा विद्या से अर्जित सम्पत्ति उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जाती है, चाहे उसका ज्ञानार्जन संयुक्त परिवार के व्यय पर प्राप्त किया गया हो, अथवा उसकी शिक्षा-प्राप्ति के समय उसके परिवार का भरण-पोषण संयुक्त परिवार द्वारा किया गया हो।
विधि में यह विषय विवादित रहा है कि यहाँ ‘विज्ञान’ शब्द किस अर्थ में प्रयुक्त किया जाय? यदि परिवार की सम्पत्ति को लगाकर विज्ञान का उपार्जन किया गया है तो उसके आधार पर अर्जित की गई सम्पत्ति के स्वभाव के निर्धारण में न्यायालयों में मतभेद रहा है। इस मतभेद को समाप्त करने के लिए हिन्दू गेन्स ऑफ लर्निंग अधिनियम, 1930 पास किया गया जिसके अन्तर्गत यह उपबन्ध प्रदान किया गया कि किसी भी नियम, उपनियम अथवा व्याख्या के बावजूद यदि संयुक्त परिवार के किसी सदस्य द्वारा उसके अपने ज्ञानार्जन से कोई सम्पत्ति प्राप्त की गई है तो वह सम्पत्ति उसकी’ पृथक्
1. लक्ष्मी चन्द्र जजूरिया बनाम श्रीमती ईशरू देवी, ए० आई० आर० 1977 एस० सी० 19641
सम्पत्ति होगी न कि परिवार की संयुक्त सम्पत्ति, भले ही उसका ज्ञानार्जन संयुक्त परिवार के व्यय से प्राप्त किया गया हो अथवा उसकी शिक्षा-प्राप्ति के समय उसके परिवार का भरण-पोषण संयुक्त परिवार के धन से किया गया हो।
जहाँ किसी संयुक्त परिवार का सदस्य अपने स्वतन्त्र स्रोत से आय अर्जित करता है और धन का अर्जन हिन्दू गेन्स ऑफ लर्निग अधिनियम, 1930 के अधीन किया गया है वहाँ ऐसी सम्पत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति का स्वरूप नहीं धारण करती।
वेतन एवं पारिश्रमिक
संयुक्त परिवार का कोई सदस्य संयुक्त सम्पत्ति के किसी अंश का प्रयोग करके व्यक्तिगत पृथक् धनलाभ नहीं कर सकता और न उसे वह स्वार्जित सम्पत्ति केवल इस आधार पर कह सकता है कि उसने अपनी निजी बुद्धि अथवा प्रज्ञा से उसे अर्जित की है। जहाँ परिवार के कर्ता को किसी कम्पनी के डाइरेक्टर होने के लिए आवश्यक अंशों की धनराशि संयुक्त परिवार के कोश से दी गयी थी तो मद्रास उच्च न्यायालय ने यह कहा था कि संयुक्त परिवार लाभांश तथा कर्ता/डाइरेक्टर वेतन तथा अन्य पारिश्रमिक को भी पाने का अधिकारी है। किन्तु उच्चतम न्यायालय ने इस मत को अस्वीकार कर दिया और यह अभिनिर्धारित किया कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को कम्पनी के लाभांश पाने के लिए लगाया गया था न कि कर्ता को डाइरेक्टर बनाने के लिए। अतएव कर्ता को प्रबन्धक/डाइरेक्टर के रूप में काम करने का जो कमीशन तथा वेतन आदि मिलता था वह उसकी स्वार्जित सम्पत्ति मानी जायेगी। धनवन्तारे बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जो वेतन अथवा पारिश्रमिक कोई सहदायिक किसी फर्म में भागीदार होने के नाते प्राप्त करता है, वह संयुक्त सम्पत्ति कहलायेगी। इस मामले में सहदायिकों ने संयुक्त सम्पत्ति आयकर से बचाने के उद्देश्य से एक भागिता फर्म में लगा दिया तथा आपस में यह समझौता किया कि वे भागिता फर्म के लाभ को व्यक्तिगत वेतन के रूप में ग्रहण करेंगे। न्यायालय में यह दलील दी गई कि भागीदार अपनी व्यक्तिगत प्रज्ञा तथा बुद्धि के द्वारा वेतन ले रहे थे, किन्तु न्यायालय ने इस दलील को अस्वीकार कर दिया और कहा कि भागीदार का तथाकथित वेतन अथवा पारिश्रमिक संयुक्त सम्पत्ति का भाग माना जायेगा।
जहाँ कर्ता को किसी व्यवसाय का प्रबन्धक नियुक्त करवाने के लिये उसकी ईमानदारी की जमानत लेनी पड़ी और उसके लिए संयुक्त परिवार की सम्पत्ति लगाई गई जिसके एवज में परिवार को ब्याज मिल रहा था वहाँ उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि कर्ता/प्रबन्धक का वेतन और पारिश्रमिक उसकी अपनी सम्पत्ति मानी जायेगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति। संयुक्त परिवार को दी गई जमानत राशि पर ब्याज मिल रहा था।
कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स बनाम डी० सी० शाह के मामले में उच्चतम न्यायालय ने पुनः यह कहा कि जहाँ भागिता लेख से यह परिलक्षित होता है कि किसी सहदायिक को भागीदार के रूप में उसकी विवेक, बुद्धि, कार्यकुशलता एवं अनुभव के आधार पर वेतन एवं पारिश्रमिक देने का निश्चय किया गया था वहाँ वह वेतन अथवा पारिश्रमिक उसकी स्वार्जित सम्पत्ति समझी जायेगी, भले ही फर्म की पूँजी अधिकांशत: संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से लगायी गयी थी।
पी० एस० सांई राम व अन्य बनाम पी० एस० रामा राव, के मामले में उच्चतम न्यायालय
ने यह कहा कि जहाँ कोई सहदायिक (कर्ता) अपने स्व-विवेक बुद्धि एवं कार्य कुशलता तथा अनुभव के आधार पर कोई सम्पत्ति अर्जित करता है, भले ही ऐसी सम्पत्ति में संयुक्त हिन्दू परिवार की सम्पत्ति लगाई गई हो, ऐसी सम्पत्ति कर्ता की स्वअर्जित सम्पत्ति समझी जायेगी।
भगवन्त जी सुलाखे बनाम दिगम्बर गोपाल सलाखे में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य किसी कम्पनी में मैनेजिंग डाइरेक्टर नियुक्त किया गया हो और उसकी एवज में अच्छा पारिश्रमिक प्राप्त कर रहा हो वहाँ भले ही उस कम्पनी के कुछ शेयरों को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में से खरीदा गया हो. किन्तु उस सदस्य को प्राप्त पारिश्रमिक उसकी पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी।
उच्चतम न्यायालय ने संयुक्त हिन्दू परिवार के सम्बन्ध में एक नयी प्रतिपादना की जिसमें यह कहा गया कि परिवार के अविभक्त सदस्य के बीच भी संविदा हो सकती है। कोई सहदायिक सहभागिता कायम करने के लिये परिवार के कर्ता के साथ संविदा कर सकता है और यदि वह अपनी बुद्धि-कुशलता अथवा विशिष्ट ज्ञान एवं श्रम द्वारा सहभागिता में योगदान देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपनी पृथक् सम्पत्ति का निवेश न करने के कारण उसका सहभागीदार नहीं है। उसकी बुद्धि-कुशलता एवं श्रम ही सहभागिता फर्म की एक पूँजी मानी जाती है। किसी व्यवसाय का उद्देश्य लाभ अर्जित करना होता है। व्यवसाय के निमित्त कोई व्यक्ति पूँजी लगाकर सहभागीदार बनता है एवं कोई अन्य अपनी बुद्धि-कुशलता एवं श्रम द्वारा व्यवसाय को चलाने में सहायता दे सकता है और इस प्रकार सहभागीदार हो सकता है। ऐसी स्थिति में जो लाभ वह अन्य सहदायिकों के साथ सहभागीदारिता से अर्जित करेगा वह उसकी निजी अर्थात् पृथक् सम्पत्ति होगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति।
बीमा पालिसी से प्राप्त धन-जहाँ किसी सहदायिक की बीमा पालिसी की किश्तों की रकम संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से दी जाती है वहाँ उससे उपार्जित आय मद्रास उच्च न्यायालय के अनुसार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति न मान कर सहदायिक की पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी। मैसूर उच्च न्यायालय ने यह कहा कि जहाँ सहदायिक पुत्र के बीमा पालिसी की किश्तें पिता प्रेम एवं स्नेहवश चुकाता है तो वहाँ पालिसी का लाभ सहदायिक की पृथक् सम्पत्ति मानी जायेगी। उच्चतम न्यायालय के अनुसार यदि सहदायिक की बीमा पालिसी के किश्तों की रकम संयुक्त परिवार की सम्पत्ति से दी जाती है।
और परिवार का कोई अहित उससे नहीं होता तो वह प्राप्त लाभ सहदायिक की निजी सम्पत्ति होगी न कि संयुक्त परिवार की सम्पत्ति। किन्तु यदि किश्तों की रकम अदा करने में संयुक्त परिवार का अहित होता है तो उस बीमा पालिसी से प्राप्त आय संयुक्त परिवार की सम्पत्ति मानी जायेगी।
पृथक् सम्पत्ति के लक्षण-पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति किसी हिन्दू की अकेले की सम्पत्ति होती है, चाहे वह संयुक्त परिवार का ही सदस्य हो। उसकी पुरुष-सन्तान भी जन्मत: उसमें किसी हक का दावा नहीं कर सकती। वह उसका निर्वर्तन किसी भी रूप में कर सकता है। वह विभाजन के लिये प्रतिबन्धित नहीं है तथा गत स्वामी के निर्वसीयत मर जाने के बाद वह उसके दायादों को उत्तराधिकार से न कि उत्तरजीविता से न्यागत होता है।
संयक्त परिवार के सदस्यों के ऊपर प्रतिबन्ध नहीं है कि वे अपनी पृथक सम्पत्ति नहीं रख सकते। किन्तु जहाँ ऐसा केन्द्र-बिन्दु है कि जिससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि सम्पत्ति पथक है. वहाँ यह उपधारणा बना ली जाती है कि सम्पत्ति संयुक्त है और बाद में भी जो सम्पत्ति अर्जित की जायेगी वह भी संयुक्त ही होगी। हालाँकि यह उपधारणा खण्डनीय है और जो इसका खण्डन करता है, प्रमाण-भार उसी पर होता है। किन्तु पटना उच्च न्यायालय ने यह कहा कि एक केन्द्र-बिन्दु मात्र से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सम्पत्ति संयुक्त है।
1. ए० आई० आर० 1986 एस० सी० 791
2. चंद्रकान्त मनीलाल शाह बनाम कमिश्नर ऑफ इन्कम टैक्स, ए०आई०आर० 1992 एस० सी० 661
मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का वर्गीकरण-मिताक्षरा विधि के अन्तर्गत सम्पत्ति का पोकरण दो रोतियों से होता है ) अप्रतिबन्ध दाय (Unobstructed Heritage) और (2) सप्रतिबन्ध (Obstructed Heritage)
वह संयुका सम्पत्ति अथवा पैतृक सम्पत्ति जिसमे पुरुष सन्तान पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र जन्म से हक पार करते है, अप्रतिजभ दाय कहलाती है, जबकि किसी व्यक्ति की पृथक् अथवा स्वार्जित सम्पत्ति, जिसमे जन्मतः कोई हक उत्पन्न नहीं होता किन्तु गत स्वामी की मृत्यु के बाद हक उत्पन्न होता है, सातिबा दाय कहलाती है।
(0 अप्रतिषय दाय-जैसा कि पूर्व उल्लिखित है जिस सम्पत्ति में जन्म से हक प्राप्त हो जाता है, उसे अप्रतिबन्ध दाय को संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार की सम्पत्ति में गत स्वामी का अस्तित्व हक प्राप्त करने में बाधा नहीं उत्पन्न करता। इस प्रकार पिता, पितामह, प्रपितामह से दाय में प्राप्त सम्पत्ति उसको अपनी पुरुष सन्तानो के लिये (जैसे पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र के लिए) अप्रतिबन्ध दाय होती है। इस प्रकार का अधिकार परिवार में जन्म मात्र से उत्पन्न हो जाता है और वे व्यक्ति जिनको यह अधिकार (हक) प्राप्त होता है, सहदायिक कहे जाते है। इस प्रकार पैतृक सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय होती
दृष्टान्त
अ अपने पिता से दाय में सम्पत्ति प्राप्त करता है। बाद में उसको एक पुत्र उत्पन्न हुआ। पुत्र अपने पिता के साथ जन्म से सहदायिक तथा सम्पत्ति में समान रूप से आधे अंश का हकदार हो जायेगा। अ के समीप सम्पत्ति अप्रतिबन्ध दाय होगी; क्योकि अ के जीवन में उसके पुत्र को हक प्राप्त करने में कोई बाधा नहीं होगी।
C) सप्रतिबय दाय-वह सम्पत्ति जिसमें जन्म से नहीं वरन् गत स्वामी की मृत्यु के बाद हक उत्पन्न होता है, सप्रतिबन्ध दाय कही जाती है। यह सप्रतिबन्ध दाय इसलिये कहा जाता है, क्योंकि सम्पत्ति में हक गत स्वामी के अस्तित्व में होने के कारण बाधित होता है। इस प्रकार वह सम्पत्ति जो पिता, भाई, भतीजा तथा चाचा को गत स्वामी की मृत्यु के बाद न्यागत होती है, उसे सप्रतिबन्ध दाय कहा जाता है। इस प्रकार के नातेदार जन्म से कोई हक नहीं प्राप्त करते। उनके अधिकार गत स्वामी को मृत्यु के बाद उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय के अनुसार किसी हिन्दू पुरुष द्वारा अपने पिता, पितामह, एवं प्रपितामह से अन्य सम्बन्धियों से दाय में प्राप्त की गयी सम्पत्ति सप्रतिबन्ध दाय कहलायेगी न कि पैतृका
दृष्टान्त
उपर्यस्त दृष्टान्त में यदि अ बिना किसी पुरुष-सन्तान के मरता है, किन्तु उसके पृथक हआ भाई है, तो अ की सम्पत्ति भाई के लिए सप्रतिबन्ध दाय होगी; क्योंकि भाई उसमें तब तक कोई हक नहीं प्राप्त करता जब तक अ को मृत्यु नहीं हो जाती। अ का जीवन-काल उसके भाई के लिए हक प्राप्त करने में एक बाधा होगी।
संयुक्त परिवार के सदस्यों की भागिता-संयुक्त परिवार के सदस्य साझीदार नहीं है–साझीदार का सम्बन्ध संविदा से उत्पन्न होता है न कि प्रास्थिति से। संयुक्त परिवार के सदस्य परिवार के किसी कारोबार में साझीदार नहीं होते। (धारा 5, भागिता अधिनियम)
यद्यपि संयुक्त परिवार के सदस्य कोई फर्म नहीं निर्मित कर सकते, फिर भी वे संयुक्त परिवार को सम्पत्ति का विभाजन करवा सकते हैं, अथवा परिवार के कारोबार को विभाजित करवा सकते हैं
और फिर परिवार के कारोबार के सम्बन्ध में साझेदारी की संविदा सम्पन्न कर सकते हैं।। संयुक्त परिवार के कारोबार का लेखा-जोखा, जो कर्ता द्वारा रखा जाता है, भागिता से भिन्न होता है। प्रथम व्यक्तिगत सदस्यो के लाभ एवं हानि के अंश का लेखा-जोखा नहीं किया जाता, जबकि भागिता में उसका लेखा-जोखा किया जाता है।
अब यह एक मान्य सिद्धान्त है कि संयुक्त परिवार का कर्ता अथवा वयस्क सदस्य किसी बाहरी व्यक्ति के साथ साझेदारी की संविदा सम्पन्न कर सकता है। परिवार का कर्ता अथवा वयस्क सदस्य अपने अधिकारो की सीमा के अन्तर्गत कार्य करता हआ साझेदारी की शर्ते इस प्रकार तय करता है। कि पूरे परिवार को पूण के लिए दायित्वाधीन ठहरा सके। जहाँ कर्ता किसी बाहरी व्यक्ति के साथ साझेदारी सम्पन्न करता है वहाँ परिवार के सदस्य कारोबार में स्वत: साझेदार नहीं हो जाते। संयुक्त परिवार के अविभक्त सदस्य आपस में संविदा कर सकते हैं। वे कर्ता के साथ भी साझेदारी की संविदा कर सकते है, ऐसी साझेदारी संविदा के फर्म में उनका अपना श्रम तथा बुद्धि कौशल्य पूँजी के रूप में हो सकता है जो साझेदारी के आवश्यक लक्षण को पूरा करता है।’
संयुक्त हिन्दू-परिवार तथा भागिता में प्रभेद-भागिता तथा संयुक्त हिन्दू-परिवार में प्रभेद के निम्नलिखित तर्क है
(1) मृत्यु से विघटन—किसी साझेदार की मृत्यु से साझेदारी भंग हो जाती है, किन्तु संयुक्त हिन्दू-परिवार किसी सदस्य की मृत्यु से भंग नहीं होता।
(2) विभाजन से विघटन-विभाजन के सम्बन्ध में संयुक्त परिवार के किसी भी सदस्य की इच्छा से अभिव्यक्तिकरण पर संयुक्त हिन्दू-परिवार के फर्म का विघटन हो जाता है। किन्तु साधारण भागिता निश्चित अवधि से समाप्त होने के पूर्व, कुछ विशेष परिस्थितियों को छोड़कर भंग नहीं हो सकती है।
(3) कारोबार में अंश—साधारण भागिता में प्रत्येक भागीदार की संविदा के आधार पर एक निश्चित अंश प्राप्त होता है, किन्तु संयुक्त हिन्दू-परिवार की फर्म के सम्बन्ध में सदस्यों में हकों की सामूहिकता होती है तथा भागिता में किसी सहदायिक का कोई निश्चित अंश नहीं होता।
(4) पुरुष-सन्तान द्वारा हक की प्राप्ति—साधारण साझेदार की पुरुष-सन्तान जन्मत: कोई हक नहीं प्राप्त करती, जबकि संयुक्त हिन्दू-परिवार की फर्म में पुरुष-सन्तान, अर्थात् पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र जो एक समान पूर्वज से उत्पन्न होते हैं, जन्म से हक उसी प्रकार प्राप्त करते हैं जिस प्रकार परिवार को अन्यसंयुक्त सम्पत्ति में।।
दायित्व की सीमा साधारण साझेदारी में साझेदार अपने अंश की सीमा तक ही दायित्व नहीं रखते वरन् वे व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी होते हैं, अर्थात् साझेदारों की पृथक् सम्पत्ति भागिता के ऋणों की देनगी के लिए उत्तरदायी होती है।
संयक्त परिवार तथा स्वार्जित सम्पत्ति के विषय में प्रकल्पनायें-जहाँ किसी सम्पत्ति के विषय में एक सहदायिक अपनी सम्पत्ति स्वार्जित बनाता है तथा दूसरे उसके विषय में संयुक्त सम्पत्ति होने का दावा करते हैं, वहाँ जो सहदायिक उस सम्पत्ति को स्वार्जित होने का दावा करता है, उसी के ऊपर यह सिद्ध करने का भार होता है अन्यथा संयुक्त परिवार हिन्दू-समाज की एक सामान्य दशा मानी जाती है तथा प्रत्येक हिन्दू-परिवार न केवल सम्पदा के मामले में वरन् पूजा एवं खान-पान के मामले में भी सामान्यत: संयुक्त समझा जाता है। किन्तु यह प्रकल्पना नहीं की जा सकती कि संयक्त परिवार में सम्पत्ति संयुक्त ही होगी। परिवार में एक बार कुछ सदस्यों के पृथक् हो जाने पर परिवार
की संयक्तता समाप्त हो जाती है। यदि कुछ सदस्य फिर भी संयुक्त रहते हैं तो यह प्रमाण-भार उन ता है। जहाँ किसी सदस्य ने संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का एक छोटा-सा भी अंश लेकर दूसरी पनि अर्जित की, वहाँ वह अर्जित सम्पत्ति संयुक्त परिवार की सम्पत्ति समझी जायेगी। किस सीमा तक उसमें उसका योगदान था अथवा संयुक्त परिवार का योगदान था, यह प्रश्न अप्रासंगिक है। सम्पत्ति का अर्जित किया जाना ही यह प्रकल्पना निर्धारित करता है कि यह संयुक्त सम्पत्ति हो गई। इसके पर्व कि किसी सहदायिक के पास स्थित सम्पत्ति को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति माना जाय, संयुक्त सम्पत्ति के ऐसे केन्द्र-बिन्दु होने की बात सिद्ध करना आवश्यक है जिस केन्द्र-बिन्दु से सहदायिक के हाथ में सम्पत्ति का प्रादुर्भाव हुआ।’ किन्तु जहाँ यह प्रमाणित किया जाता है कि केन्द्र-बिन्दु से इतनी मात्रा में सम्पत्ति नहीं ली जा सकती थी कि उससे दूसरी सम्पत्ति अर्जित की जा सके, वहाँ अर्जित सम्पत्ति संयक्त परिवार की सम्पत्ति नहीं मानी जायेगी। केन्द्र-बिन्दु से जब तक आयाधिक्य (Excess income) न हो, उसके सम्बन्ध में यह नहीं कहा जा सकता कि उससे कोई नई सम्पत्ति अर्जित की गई है। जब केन्द्र-बिन्दु से आयाधिक्य और उससे सहायता लेकर कोई सम्पदा बनाई गई हो, तभी वह संयुक्त परिवार की सम्पत्ति कहलायेगी। जब केन्द्र-बिन्दु की पर्याप्त सम्पत्ति प्रदर्शित की जाती है तो प्रमाण-भार उस व्यक्ति पर हो जाता है कि वह अर्जित सम्पत्ति के विषय में यह सिद्ध करे कि उसने बिना किसी सहायता के (केन्द्र-बिन्दु की सम्पत्ति के बिना) सम्पत्ति अर्जित की थी।
सहदायिकी के अधिकार
संयुक्त परिवार के प्रत्येक सहदायिक को निम्नलिखित अधिकार प्राप्त हैं__
(1) समान कब्जे तथा उपभोग का अधिकार-सहदायिकों को सम्पत्ति में हकों की सामूहिकता तथा सम्मिलित कब्जे का अधिकार प्राप्त होता है। प्रिवी कौंसिल ने यह कहा है कि सम्पत्ति का संस्वामित्व तथा सम्मिलित कब्जा सहदायिकी का विशेष लक्षण है तथा किसी एक सहदायिक की मृत्यु हो जाने पर दूसरे सदस्य उत्तरजीविता से उस सम्पत्ति को ग्रहण कर सकते हैं जिसमें वे समान हक तथा सम्मिलित कब्जा रखते थे। कोई सदस्य सहदायिकी में कोई विशेष हक नहीं रखता तथा न कोई सम्पत्ति के किसी भाग में एकाधिकार ही रख सकता है।
(2) हकों का संस्वामित्व-सहदायिकी सम्पत्ति में किसी सहदायिक का कोई निश्चित हक नहीं होता तथा न सम्पत्ति की आय में ही किसी का निर्धारित हक होता है। परिवार की समस्त आय सामान्य कोश में डाल दी जाती है जो अविभक्त परिवार के सदस्यों द्वारा उपयुक्त होती है। किसी सहदायिकी का कोई निर्धारित अंश नहीं होता।’
किन्तु परिवार का कर्त्ता किसी एक सदस्य की आय से कुछ अंश उसके अपने भरण-पोषण के लिए निर्धारित कर सकता है। उस आय की बचत तथा उससे खरीदी हुई सम्पत्ति उस सदस्य की पृथक् एवं स्वार्जित सम्पत्ति हो जाती है।
(3) सम्मिलित कब्जे का अधिकार प्रत्येक सहदायिक की सम्मिलित कब्जे तथा परिवार की सम्पत्ति से उपभोग का अधिकार प्राप्त है। यह सम्पत्ति के विभाजन के लिए विभाजन का दावा संस्थापित कर सकता है। इस प्रकार जहाँ संयुक्त परिवार का कोई सदस्य अपने कब्जे से किसी कमरे में प्रवेश पाने के किसी दरवाजे अथवा जीने के प्रयोग से रोका जाता है, वहाँ वह उस सदस्य (अर्थात् जो रोकता है) के विरुद्ध निषेधाज्ञा का वाद इस उद्देश्य से संस्थापित कर सकता है कि उसे इस प्रकार के प्रयोग से न रोका जाय।
(4) विभाजन की माँग प्रस्तुत करने का अधिकार प्रत्येक सहदायिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वह अपने अंश के विभाजन की माँग अपने पिता, भाई अथवा पितामह के विरुद्ध कर सकता है। वह अपनी इच्छा के अनुसार पृथक् होने का अधिकार रखता है, चाहे परिवार के सदस्य इसकी स्वीकृति दें अथवा नहीं।
किन्तु पृथक् होने वाले सहदायिक को अपनी इच्छा का अभिव्यक्तिकरण अन्य सदस्यों को स्पष्ट रूप से कराना चाहिये, किन्तु वह किसी रीति से दूसरों को अपनी इच्छा से अवगत कराये, वह भिन्न मामलों में भिन्न-भिन्न रीतियों से हो सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि परिवार के अन्य सदस्यों को उनकी इच्छा के विषय में औपचारिक सूचना हो। इस बात की सूचना किसी भी प्रकार हो सकती है और एक बार सहदायिक द्वारा इस आशय की बात कहे जाने पर संयुक्त परिवार की स्थिति में परिवर्तन आ जाता है। इसके बाद पृथक् होने वाले सहदायिक के लिये यह सम्भव नहीं रह जाता कि वह परिवार की पूर्वस्थिति को पुनर्स्थापित कर सके, यद्यपि सदस्यों के मध्य पुनः समझौता होने पर परिवार का पुन: एकीकरण हो सकता है।
(5) अनधिकृत कार्यों को करने से रोकने का अधिकार—एक सहदायिक दूसरे सहदायिक की सहदायिकी सम्पत्ति के सम्बन्ध में अनधिकृत कार्यों को करने से रोक सकता है, यदि इस प्रकार का कार्य सम्मिलित उपभोग में बाधा उत्पन्न करता है।
(6) हिसाब का लेखा-जोखा माँगने का अधिकार-सहदायिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति का हिसाब माँगने का अधिकार रखता है जिससे वह यह जान सके कि परिवार की सम्पत्ति के प्रबन्ध में कितना व्यय होता है अथवा परिवार के कोश की क्या स्थिति है? इस प्रकार जहाँ एक सहदायिक संयुक्त परिवार की दूकान में प्रवेश करने से रोका गया, बही-खाता के निरीक्षण से मना किया गया तथा दूकान के प्रबन्ध में भाग लेने से रोका गया, वहाँ न्यायालय द्वारा यह कहा गया था कि वह सदस्य अन्य सदस्यों के विरुद्ध सम्पत्ति के सम्मिलित कब्जे तथा प्रबन्ध के सम्बन्ध में निषेधाज्ञा का वाद संस्थापित कर सकता है जिसके द्वारा इस प्रकार बाधा उत्पन्न करने वाले सहदायिक ऐसा करने से रोके जायेंगे
(7) अन्यसंक्रामण-एक सहदायिक अन्य सहदायिक की सहमति से अपने अविभक्त हक का अन्यसंक्रामण दान, बन्धक अथवा विक्रय द्वारा कर सकता है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक मामले में यह अभिनिर्धारित किया है कि मिताक्षरा विधि, जैसा कि उत्तर प्रदेश में लागू होती है, उसके अनुसार किसी सहदायिक द्वारा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को जब तक परिवार के प्रलाभ अथवा पूर्वकालिक ऋण की अदायगी अथवा आवश्यकता के लिये न हो, अन्यसंक्रामित नहीं की जा सकती। इस प्रकार का अन्यसंक्रामण (Alienation) पूर्ण रूप से शून्य है। कोई सहदायिक संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में अपने अविभक्त अंश को भी अन्यसंक्रामित नहीं कर सकता, यदि वह अन्यसंक्रामण पूरे परिवार की
आवश्यकता अथवा प्रलाभ के लिए नहीं है। मद्रास, बम्बई, मध्य प्रदेश में सहदायिक ही किसी की सहमति के बिना अपने अविभक्त हक का अन्यसंक्रामण कर सकता है। किन्तु इच्छापत्र द्वारा अविभक्त हक का निर्वर्तन कोई भी सहदायिक नहीं कर सकता।
थम्मा वेन्कट सुब्बम्मा बनाम थम्मा रत्तम्मो के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि किसी सहदायिक द्वारा सहदायिकी सम्पत्ति में किया गया दान शून्य होता है। इस प्रकार का दान शून्य इसलिये होता है कि सहदायिक का अंश जब तक विभाजन नहीं होता अनिश्चित रहता है, इसलिए दान में दी जाने वाली सम्पत्ति का निर्धारण नहीं किया जा सकता। इस प्रकार की व्यवस्था का उद्देश्य यह है कि सहदायिकी सम्पत्ति में स्वामित्व एवं कब्जे की संयुक्तता बनी रहे। हालाँकि यह सत्य है कि विधिग्रंथों के पाठों में कहीं कोई विनिषेध नहीं है कि वह दान द्वारा सम्पत्ति का अन्यसंक्रामण नहीं कर सकता किन्तु इस प्रकार की विधि धीरे-धीरे विकसित हुई जिसका उद्देश्य यह था कि संयुक्त परिवार की अखण्डनीयता बनी रहे।
अत: यदि अन्य सहदायिक प्रलक्षित आचरण से अपनी सहमति देते हैं तो दान वैध है। सहमति का समय अनावश्यक है।
(8) अन्यसंक्रामण को अपास्त करने का अधिकार—किसी सहदायिकी द्वारा अथवा कर्ता एवं पिता द्वारा अपने अधिकार के बाहर किये गये अन्यसंक्रामण को अपास्त कराने का अधिकार प्रत्येक सहदायिक को प्राप्त है। इस प्रकार के अनधिकृत अन्यसंक्रामण को बाद में उत्पन्न हुआ सहदायिक भी अपास्त करवा सकता है। यदि इन तीनों उद्देश्यों के अलावा किसी अन्य उद्देश्य से सम्पत्ति अन्यसंक्रामित की जाती है तो उसे अवैध एवं शून्य करार करवाया जा सकता है। जहाँ सम्पूर्ण घर की जमीन दूसरी जमीन को खरीदने के तथा उस पर नया मकान बनवाने के लिये बेच दी जाती है जब कि उस विक्रय को बुद्धिमानी का कार्य नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पुराना मकान एकदम ठीक था। उस विक्रय से अधिक धन भी नहीं प्राप्त हो सका था कि यह कहा जाता कि अधिक मूल्य पर बेच कर कम मूल्य की जमीन खरीद कर मकान बनवाया गया, वहाँ न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया कि इस प्रकार के अन्यसंक्रामण को अपास्त करवाया जा सकता है।
जैसा कि पूर्व उल्लिखित है संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को तीन उद्देश्यों के लिये अन्यसंक्रामित किया जा सकता था
(1) पारिवारिक प्रलाभ,
(2) विधिक आवश्यकता,
(3) पूर्ववर्ती ऋण की अदायगी।
जहाँ अन्यसंक्रामण में अन्य सभी सहदायिक सहमति दे चुके हैं, किन्तु कुछ ने सहमति नहीं दी है, वहाँ सहमति न देने वाले सहदायिकों को अन्यसंक्रामण बाध्यकारी नहीं होगा। पिता के द्वारा वैध अन्यसंक्रामण को पुत्रगण अपास्त नहीं करा सकते। पुत्र अन्यसंक्रामण के चाहे पूर्व उत्पन्न हुआ हो या बाद में, उसको अपास्त करवा सकता है यदि अन्यसंक्रामण अनधिकृत है।
(9) भरण-पोषण का अधिकार-सहदायिक की पत्नी तथा सन्तान सहदायिकी सम्पत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने के अधिकारी हैं तथा संयुक्त परिवार के प्रबन्धक का यह विधिक दायित्व है कि वह सभी पुरुष-सदस्यों, उनकी पत्नियों एवं अविवाहिता पुत्रियों का भरण-पोषण करे।
(10) सहदायिकी सम्पत्ति में अपने हक का परित्याग करने का अधिकार-मद्रास उच्च
1. लक्ष्मन बनाम रामचन्द्र, 7 आई० सी० आर० 1811
2. ए० आई० आर० 1987 एस० सी० 17571
3. सुरेन्द्रनाथ दास अधिकारी बनाम सुधीर कुमार बहेरा, ए० आई० आर० 1952 उड़ीसा 301
4. आई० एल० आर० 1940 मद्रास 8301
न्यायालय के अनुसार कोई सहदायिकी सम्पत्ति में अपने हक को अन्य सभी सहदायिकों के पक्ष में अथवा किसी एक सहदायिक के पक्ष में छोड़ सकता है। किन्तु इलाहाबाद तथा बम्बई उच्च न्यायालय के अनुसार सहदायिक द्वारा हक का परित्याग सभी सहदायिकों के पक्ष में ही हो सकता है। मद्रास उच्च न्यायालय के नवीनतम निर्णय के अनुसार जब कभी सहदायिकी सम्पत्ति में का सहदायिक अपने हक को अन्य सभी सहदायिकों के पक्ष में परित्याग कर देता है वहाँ वह हक सभी सहदायिकों में चला जाता है। यदि ऐसे सहदायिक के कोई पत्र हक के परित्याग के बाद उत्पन्न होते हैं तो उन पुत्रों को बँटवारा करने का अधिकार नहीं रह जाता।
(11) उत्तरजीविता का अधिकार किसी सहदायिक की मृत्यु के बाद उसका हक उत्तरजीविता के आधार पर अन्य सहदायिकों में न्यागत होता है। यह न्यागमन उसके दायादों को उत्तराधिकार के आधार पर नहीं होता।
मिताक्षरा विधि के अनुसार संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में सहदायिक का हक जन्म से उत्पन्न होता है तथा उसे संयुक्त सम्पत्ति से भरण-पोषण प्राप्त करने का अधिकार तब तक बना रहता है जब तक परिवार संयुक्त रहता है तथा विभाजन नहीं हुआ रहता। विभाजन के उपरान्त प्रत्येक सहदायिक का हक अलग हो जाता है। हिन्दू विधि वयस्क तथा अवयस्क सहदायिकों में, जहाँ तक संयुक्त सम्पत्तियों में उनके अधिकार का सम्बन्ध है, प्रभेद करता है।
उत्तरजीविता का अधिकार जन्म से प्राप्त होता है तथा किसी सहदायिकी की मृत्यु हो जाने से उसका हक उत्तरजीविता से अवशिष्ट सहदायिकों को चला जाता है। अविभक्त संयुक्त सम्पत्ति में सहदायिकों को कोई अपना अलग अधिकार नहीं प्राप्त है। मेन ने इसलिये कहा था कि “संयुक्त हिन्दू-परिवार में इसी कारण से संयुक्त सम्पत्ति के सम्बन्ध में उत्तराधिकार-जैसी कोई बात नहीं होती।”
उत्तरजीविता का अधिकार कब विफल हो जाता है-उत्तरजीविता से किसी सहदायिक का हक प्राप्त करने का अधिकार निम्नलिखित अवस्थाओं में विफल हो जाता है
(1) जहाँ सहदायिक जन्मतः पागल अथवा जड़ होने के कारण अयोग्य हो जाता है।
(2) वह दत्तक-ग्रहण से दूसरे परिवार में चला जाता है।
(3) वह सहदायिकी हक का अभ्यर्पण (Surrender) कर देता है।
(4) प्रतिकूल कब्जा से सहदायिकी सम्पत्ति में अपना हक खो देता है।
(5) जब मृत सहदायिक ने-
(1) अपने पीछे पुरुष सन्तान को छोड़ रखा है।
(2) अपने हक को बेच दिया या बन्धक कर दिया है।
(6) जब किसी सहदायिक का हक किसी आज्ञप्ति के निष्पादन में कुर्क कर लिया गया हो।
(7) जब आज्ञप्ति उसके जीवन-काल में पास की गई हो, चाहे उसके जीवन-काल में उसका हक कुर्क न किया गया हो, यदि निर्णीत-ऋणी (Judgement-debtor) उत्तरजीवी सहदायिकों के पिता, पितामह तथा प्रपितामह के नातेदारी में है।
(8) यदि सहदायिक का हक राजकीय समनुदेशिती (Assignee) में निहित हो गया हो। हिन्दू नारी सम्पत्ति-सम्बन्धी अधिकार अधिनियम, 1957 के द्वारा उत्तरजीविता सम्बन्धी अधिकार में महत्वपूर्ण परिवर्तन लाया गया। अधिनियम में मिताक्षरा संयुक्त परिवार में मृत सहदायिक की विधवा को सहदायिक सम्पत्ति में वही हक प्रदान किया गया जो मृत सहदायिक रखता था। वस्तुत: इस प्रकार के प्रावधान से उत्तरजीविता के सिद्धान्त को बहुत बड़ी ठेस पहुँची, क्योंकि मृत सहदायिकी के
पुरुष-सन्तान होने के बाद भी, उसकी विधवा को सहदायिकी सम्पत्ति में वही हक प्राप्त हुआ जो मृत सहदायिक को प्राप्त था।
हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 6 का प्रभाव-इस अधिनियम की धारा 6 मे मिताक्षरा सहदायिकी सम्पत्ति तथा उत्तरजीविता से सहदायिक के हक के न्यागमन की धारा का निर्मूलन पूर्ण रूप से नहीं किया गया। वह परन्तक के प्रावधानों की सीमा तक ही विकृत किया गया है। इस बात को दृष्टि में रखते हए कि स्त्री-दायादों तथा स्त्री-दायादों के माध्यम से दावा करने वाले पुरुष-दायादों की सूची बहुत बड़ी है तथा किसी पुरुष के उस सूची से किसी एक दायाद को बिना छोड़े हुए मरने की सम्भावना बहुत कम है, ऐसा अवसर कदाचित ही कभी आये कि सहदायिक का हक उत्तरजीविता से न्यागत हो। यह अवसर तभी आ सकता है जब कि सहदायिक केवल पुरुष नातेदारों को छोड़ कर मरे।
साहेब रेड्डी बनाम शरनप्या, के बाद में कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि जहाँ निर्वसीयती हिन्दू पुरुष की मृत्योपरान्त उसके दत्तक पुत्र एवं तीन पुत्रियाँ मौजूद हों वहाँ प्रत्येक सन्तान को एक चौथाई अंश प्राप्त होगा।
संयुक्त हिन्दू-परिवार का प्रबन्धक (कर्ता), उसके अधिकार एवं कर्त्तव्य-परिवार के अवयस्क सदस्यों तथा स्त्रियों के हितों की देखभाल करने के लिए एक प्रबन्धक की आवश्यकता होती है। संयुक्त हिन्दू-परिवार के ऐसे प्रबन्धक को ‘कर्ता’ कहते हैं। परिवार का कर्ता अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण करता है, क्योंकि समस्त परिवार के कार्यों का प्रबन्ध एवं देख-रेख का दायित्व प्रबन्धक के ऊपर होता है। कर्त्ता संयुक्त परिवार का प्रधान माना जाता है तथा उसका स्थान परिवार में सर्वोपरि होता है।
प्रबन्धक कौन होता है?—साधारणत: संयुक्त परिवार का कर्ता पिता है, यदि वह जीवित है। इस प्रकार एक वाद में कहा गया था कि पिता सभी मामलों में, सामान्यत: अवयस्क पुत्री के सम्बन्ध में, अनिवार्यत: संयुक्त सम्पदा का प्रबन्धक होता है। जहाँ पिता जीवित नहीं है तथा परिवार भाइयों से निर्मित होता है, वहाँ ज्येष्ठ भाई किसी प्रतिकूल साक्ष्य के अभाव में, परिवार का प्रबन्धक मान लिया जाता है। एक अवयस्क सदस्य संयुक्त हिन्दू-परिवार का प्रबन्धक नहीं हो सकता। नागपुर के जुडीशियल कमिश्नर के न्यायालय ने पूर्ण पीठ द्वारा यह निर्णय दिया कि संयुक्त परिवार का कोई वयस्क सदस्य कर्ता बनने का अधिकारी है। यह निर्णय नागपुर के उच्च न्यायालय द्वारा भी मान्य समझा गया था। सामान्यत: सहदायिकी का ज्येष्ठ (senior) सदस्य ही कर्ता होता है, किन्तु अन्य सहदायिकों की सहमति से कोई अवर (Junior) सदस्य भी कर्त्ता बनाया जा सकता है। सभी अन्य सहदायिकों की सहमति से उसको कर्ता के पद से अपदस्थ भी किया जा सकता है, क्योंकि अन्य सहदायिकों की पारस्परिक सहमति से ही वह कर्त्ता नियुक्त किया जाता है। कमिश्नर ऑफ इन्कम-टैक्स बनाम सेठ गोविन्दराम सुगर मिल्स के वाद में यह निर्णय किया गया कि प्रबन्धक होने के लिए सहदायिकत्व (Coparcener ship) एक आवश्यक अर्हता है; अतएव एक विधवा, जो कि सहदायिक नहीं होती, संयुक्त परिवार की प्रबन्धक नहीं हो सकती।
उपर्युक्त मत का अनुमोदन पटना उच्च न्यायालय ने सहदेव बनाम रामछबीला सिंह के मामले में किया, जिसमें यह कहा गया कि एक विधवा सहदायी न होने के कारण संयुक्त परिवार की कर्त्ता नहीं
jQuery Notes for Professionals Book Free Download : Hi All Students आज की पोस्ट में आपका फिर से स्वागत है, आप सभी ने इस पोस्ट से पहले भी JQuery Subejct के उपर बनाई गयी पोस्ट को पढ़ा होगा जिसके बाद हम फिर से उसी सब्जेक्ट के उपर पोस्ट लेकर आयें है जो काफी महत्त्वपूर्ण होने वाली है | आज इस पोस्ट में आप सभी अभ्यर्थी Jquery Notes for Professional Free PDF के रूप में Download करने जा रहे है जिसमे आज आप Complete Jquery को घर बीते सीख पाएंगे | हमें काफी समय से अभ्यर्थियो द्वारा यह कमेंट किये जा रहे थे की हम उनके लिए Jquery सब्कजेक्रट के उपर फिर से पोस्ट लेकर आये जो आज आपको इस पोस्ट के माध्यम से प्राप्त करने जा रहे है |
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